कफन: एक पाठ - अमिताभ राय | Kafan Ek Paath - Amitabh Rai

कफन: एक पाठ

अमिताभ राय


कफ़न’ प्रेमचंद की ही नहीं, हिन्दी की भी सर्वश्रेष्ठ कहानियों में समादृत है । सन् 1936 में इसका लेखन प्रेमचंद ने जामिया मिलिया की पत्रिका के लिए किया था । वे वहाँ भाषण के लिए गए थे और वहीं आग्रह पर इन्होंने यह कहानी लिखी थी ।

कफ़न’ पर बात करने से पूर्व मैं अपने एक ऑब्जरवेशन पर बात करना चाहता हूँ । मैंने या हम सबने यह बात अकसर देखी है । गर्मियों की शुरुआत में कूलर खरीदा । दुकान का एक कर्मचारी कूलर को गाड़ी तक पहुँचाने चला तो गेट पर खड़े सुरक्षाकर्मी ने उसकी तलाशी ली । यह तलाशी सुरक्षाकर्मी के कार्य का अभिन्न अंग है । वह मात्र अपनी ड्यूटी कर रहा था, जिसका निर्देश उसे दिया गया होगा । ऐसा नियम मालिक वर्ग ने बनाया होगा ताकि कोई चोरी न कर सके । इसका तात्पर्य यह है कि कुछ चोरियाँ हुई भी होंगी । परन्तु इस कुछ ने पूँजीपतियों के मन–मस्तिष्क में गहरे अविश्वास को जन्म दिया । इसके विपरीत गली–मोहल्लों का परचूनी या दूकानदार अपने ग्राहकों पर ज्यादा भरोसा करता है । वह उधार भी देता है और निश्चित तौर से उसके उधार का कुछ हिस्सा उसे कभी प्राप्त नहीं हो पाता । कुछ हिस्सा डूब जाता है फिर भी वह बड़े पूँजीपति अधिष्ठानों की तरह अविश्वास का शिकार नहीं होते । क्यों ? क्योंकि एक तो बड़े पूँजीपतियों का अपने कर्मचारियों और क्रेताओं से प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं होता । प्रत्यक्ष सम्पर्क का अभाव कोई रिश्ता बनने ही नहीं देता । बड़े पूँजीपतियों का अविश्वास संवाद और संबंधहीनता का परिणाम है । पूँजी जिस ह्यारर्की का निर्माण करती है उसमें कर्मचारी और क्रेता सबसे निचले पायदान पर होते हैं और दोनों का इस्तेमाल बड़ा पूँजीपति अपने पूँजी के विस्तार में करता है । व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए पूँजीपति नियमों का सहारा लेता है । इसीलिए उनके बीच कठोर, कटु और तथ्यात्मक नियमावलियाँ होती हैं, संवेदना या संवेदना का कोई सूत्र नहीं होता । दूसरे उनके लिए कर्मचारी भी पदार्थ या पण्य का ही एक रूप होते हैं जिसके श्रम को वह पैसे से खरीद सकता है । श्रम को खरीदने की वजह से वह उसे वस्तु में परिवर्तित कर देता है । वह कोई मानवीय सरोकार नहीं रखता । इसी कारण जिसे मैं अविश्वास कह रहा हूँ उसे वह सहज और महज नियम मानता है । आज के उत्तर आधुनिक समाज में यह अविश्वास एक नियम सा हो चला है और इतना आम है कि इसपर ध्यान ही नहीं जाता । अविश्वास का यह रूप उत्तर आधुनिक उग्र पूँजीवादी व्यवस्था की देन है ।

 अविश्वास का एक दूसरा रूप ‘कफ़न’ कहानी में दिखायी देता है । जब घीसू और माधव मरती हुई बुधिया को देखने नहीं जाते । उन्हें एक–दूसरे पर अविश्वास है । वे सोचते हैं कि उनमें से जो भी अंदर बुधिया को देखने गया तो दूसरा आलू खा जाएगा । यह भी अविश्वास का एक रूप है । ऊपरी स्तर पर यह अविश्वास भूख से जन्मा है । भूख सामंती शोषण के मद्देनजर एक समस्या बनती है । अर्थात् ‘कफ़न’ का अविश्वास सामंती व्यवस्था के कारण उपजता है ।

 किसी भी पुरानी रचना को पढ़ते हुए समसामयिक जीवन से उसके जुड़ाव के बिन्दु की तलाश आलोचक और पाठक के लिए आवश्यक है । अगर जुड़ाव के बिन्दु प्राप्त नहीं होंगे, तो जीवन–मूल्य और सामाजिक संदर्भ बदलने के साथ ही रचना भी समाप्त हो जाएगी । इस उत्तर आधुनिक समाज में पाठक के नाते ‘कफ़न’ के कनेक्ट के बिन्दु की तलाश ही मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण बात है । ऊपर मैंने जिस अविश्वास की बात की है वह महज एक औचक सूझ नहीं है । सामंती व्यवस्था से उत्तर आधुनिक, उत्तर औद्योगिक उग्र पूँजीवादी समाजों तक पसरा यह अविश्वास मानव के विकास की ऐतिहासिक सामाजिक गतिकी का अविभाज्य अंग है । जैसे–जैसे समाज का उत्तरोत्तर विकास होता गया यह अविश्वास भी गहराता गया । पूँजीपति वर्ग ही अविश्वास का शिकार होता है । अभाव और भूख आज भी व्यक्ति को अविश्वास के घेरे में ले लेती है । जबकि अधिक मुनाफे की लालसा तथा संवेदनहीनता पूँजीपतियों में अविश्वास पैदा करती है । यहाँ ठहरकर विचार करना होगा । सामंती व्यवस्था से पूँजीवादी व्यवस्था के रूपांतरण में अविश्वास के धारक बदलते जाते हैं । ऊपर मैंने बताया कि संबंध और संवादहीनता ही धारक के बदल जाने का कारण है । ‘कफ़न’ के जमींदार चाहे जितने बुरे हों, वे शोषक हैं कहानी में इसका कोई जिक्र नहीं आया है–व शोषक हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं । परन्तु चूँकि अधिकांश जमींदार शोषक होते हैं और उसी तर्ज पर इन्हें भी शोषक मान लिया जाए तो भी घीसू और माधव जब उनसे मदद माँगने जाते है तो न चाहते हुए भी वे मदद के लिए तैयार हो जाते हैं –‘‘लेकिन यह क्रोध या दंड का अवसर न था । जी में कुढ़ते हुए दो रुपए निकालकर फेंक दिये । मगर सांत्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला । उसकी तरफ ताका तक नहीं । जैसे सिर का बोझ उतारा हो ।’’ कुढ़ते हैं, सांत्वना के एक शब्द भी नहीं बोलते, मदद भी बेमन से करते हैं फिर भी वे जो मदद करते हैं और घीसू और माधव जो मदद प्राप्त करते हैं वह उनके आपस में जुड़े होने का ही नतीजा है । संवादहीनता नहीं है इनके बीच । संवाद कम हो सकता है पर शून्य नहीं है । इसका मतलब यह कतई नहीं है कि मैं जमींदारी अथवा सामंती व्यवस्था को आज की पूँजीवादी व्यवस्था से अच्छा या बुरा मान रहा हूँ । सामंती व्यवस्था और आज की उग्र पूँजीवादी व्यवस्थाएँ ऐतिहासिक–सामाजिक सच्चाइयाँ हैं और इसे कोई अस्वीकार कर भी दे तो कोई फर्क नहीं पड़ता ।

 जब मैं कह रहा हूँ कि कोई फर्क नहीं जब मैं कह रहा हूँ कि कोई फर्क नहीं पड़ता है तो यह हस्तक्षेपहीनता है । अतीत में तो हस्तक्षेप किया भी नहीं जा सकता । वर्तमान में किया जा सकता है । हस्तक्षेप का साधन प्रतिरोध है । प्रतिरोध के कई रूप हो सकते हैं । जुलूस, संवाद आदि । इसके समानांतर प्रतिरोधहीनता के भी कारण हो सकते हैं । ऊपर जिस अविश्वास की मैंने बात की वह भी प्रतिरोधहीनता का ही परिणाम है । यह प्रतिरोधहीनता व्यक्ति विशेष में ही नहीं दिखाई पड़ती है । यह पूरे युग की सामाजिक विशेषता को भी परिलक्षित करती है । और हर युग में प्रतिरोध को योजनाबद्ध सांस्थानिक तरीके से समाप्त करने की कोशिश शासक वर्ग करता है । आज शासन सिर्फ राजनैतिक दल अथवा राजनीति का क्षेत्र नहीं है । वैश्विक स्तर पर पूँजी शासन को संचालित करती है । एक बात इसके समानांतर दिखाई पड़ती है और उसे समझना मानव के विकास को समझने के लिए आवश्यक भी है कि प्रतिरोध के बिना मानव सभ्यता का विकास संभव नहीं है ।

 दूसरी समस्या है–अविश्वास के संचरण और उसके उद्भव के कारणों की पहचान । आज वैश्विक पूँजी ने ऐसी पूँजी उत्पन्न कर दी है कि प्रतिरोध लगभग समाप्त हो गया है । इस प्रतिरोध हीनता ने शक्ति और शासन का वह ढाँचा तैयार किया है जिसमें व्यवहारिक स्तर पर पूँजी, शक्ति, सुख–सुविधाएँ समाज के कुछ प्रतिशत लोगों तक सीमित हो गया है । मैंने ऊपर कहा है कि प्रतिरोध के बिना मानव सभ्यता का विकास नहीं हो सकता और आज प्रतिरोधहीनता की स्थिति है समाज में, तो क्या समाज का विकास रुक गया है ? मैं क्या ऐसा कोई भी नहीं कह सकता । पर यह विकास पूँजी का है । वह भी सीमित लोगों के लिए । बाकी जनता सत्ता और पूँजी की परिधि पर है । यही वजह है कि आज साहित्य, कला और मानविकी को बेकार सिद्ध किया जाता है । पूँजीपतियों द्वारा और हम अपने जीवन–यापन में जुड़े लोग इस तथ्य का भी विरोध नहीं कर पाते । सत्ता और पूँजी अब इंसानों के बारे में क्या सोचती है इसका प्रमाण पिछली सरकार के एक मंत्री की उस टिप्पणी में दिखाई पड़ती है जिसमें हवाई जहाज के इकॉनामी क्लास में यात्रा करने वालों को ‘कैटल क्लास’ कहा गया था । इस तर्क को आगे बढ़ाये तो ट्रेन के एसी डिब्बों में सफर करने वाले कीडे़–मकोड़े हुए और बाकी अन्य अमीबा । अब शासन को चलाने वाले खुली आँखों से अमीबा अर्थात आम इंसानों को तो नहीं देख सकते । ‘कफ़न’ में भूख और अभाव से जिस अविश्वास की भावना उभरती है वह व्यापक ऐतिहासिक–सामाजिक गतिकी के संरचनागत ढाँचा का निर्माण करती है । तब समाज का पूरा ढाँचा ही दरकने लगता है ।

 ‘कफ़न’ का भूखजन्य अभाव रिश्तों की पारम्परिक और सदियों पुरानी समझ को ध्वस्त करता है । पिता और पुत्र में भूख के कारण साहित्य में संभवत: ऐसी प्रतिस्पर्धा कभी नहीं देखी गयी –‘माधव को भय था कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा ।’ यह अविश्वास और प्रतिस्पर्धा आधुनिक समाज की देन है । मध्यकालीन ढाँचे का साहित्य अधिकांशत: आदर्शात्मक स्थितियों का ही प्रतिफल है । समाज के व्यावहारिक जीवन का चित्र या यथार्थपरक चित्रण कम ही है । प्रेमचंद ने ‘साहित्य का उद्देश्य’ नामक अपने निबंध में लिखा है–‘‘आधुनिक साहित्य में वस्तुस्थिति–चित्रण की प्रवृत्ति इतनी बढ़ रही है कि आज की कहानी यथासंभव प्रत्यक्ष अनुभवों की सीमा से बाहर नहीं जाती । हमें केवल इतना सोचने से ही संतोष नहीं होता कि मनोविज्ञान की दृष्टि से ललसभी पात्र मनुष्यों से मिलते जुलते हैंय बल्कि हम यह इतमिनान चाहते हैं कि वे सचमुच के मनुष्य हैं और लेखक ने यथासंभव उनका जीवन चरित्र ही लिखा है क्योंकि कल्पना के गढ़े हुए आदमियों में हमारा विश्वास नहीं हैय उनके कार्यों और विचारों से हम प्रभावित नहीं होते । हमें इसका निश्चय हो जाना कि लेखक ने जो सृष्टि की है, वह प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर की गयी है और अपने पात्रों की जबान से वह खुद बोल रहा है ।’’ यह प्रत्यक्षानुभव ‘कफ़न’ की सबसे बड़ी विशेषता है । प्रत्यक्षानुभव में हमेशा आदर्श और शुचि संदर्भ ही नहीं होंगे । प्रेमचंद की आधुनिकता का सबसे व्यापक और गहरा संदर्भ यह ही है कि वे समाज और उसमें रह रहे व्यक्तियों को उनके संबंधों की जटिलता के साथ प्रत्यक्षीकृत करते हैं । यह अविश्वास और प्रतिस्पर्धा चरित्रों में सामाजिक संबंधों से ही तो उभर रहे हैं । इसकी वजह भूख है । भूख की वजह क्या है ? घीसू और माधव की गरीबी । इनकी गरीबी की वजह क्या है ? क्योंकि वे काम नहीं करते –‘‘घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता । माधव इतना काम चोर था कि आधा घंटे काम करता तो घंटे भर चिलम पीता । इसीलिए उन्हें कहीं मजदूरी भी नहीं मिलती थी । घर में मुट्ठी–भर अनाज हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी ।’’ यह भी यथार्थ का ही रूप है । मगर अगर प्रेमचंद सिर्फ यही चित्र प्रस्तुत करते तो यह सामाजिक तथ्य अथवा सूचना भर हो कर रह जाता । परन्तु जब वे कहते हैं कि ‘‘जिस समाज में रात–दिन काम करने वालों की हालत उनकी हालत से बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी ।’’ वे आगे कहते हैं–‘‘फिर भी उसे यह तकसीम तो थी ही कि, अगर वह बेहाल है तो कम से कम उसे किसानों–सी जाँ–तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते!’’ उपर्युक्त संदर्भ यहाँ की टिप्पणी से जुड़कर सामाजिक संबंधों के कार्य–कारण प्रणाली का निर्माण करते हैं और गरीबी तथा अभाव को किसी दैवीय व्यवस्था का अंग होने से बचा लेते हैं । घीसू और माधव काम नहीं करते हैं, इसकी वजह यह नहीं है कि वे काम नहीं कर सकते या यह भी नहीं कि गाँव में काम की कमी है । प्रेमचंद ने ‘कफ़न’ में साफ लिखा है–‘‘गाँव में काम की कमी न थी । किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे ।’’ वे काम नहीं करते क्योंकि काम करने की संस्कृति में उनका विश्वास नहीं है । इस अविश्वास का आधार यह ऑबजरवेशन है कि जो खूब काम करते हैं, उनकी हालत घीसू और माधव से बहुत अलग न थी । अविश्वास का तत्व व्यक्ति की आनुवांशिकी का हिस्सा नहीं होता । अविश्वास सामाजिक गतिविधियों के प्रतिफलन से व्यक्तियों में संदर्भित होता है । ‘कफ़न’ के घीसू और माधव की कामचोरी का संदर्भ व्यापक सामाजिक संदर्भों में निहित है । किसान तथा अन्य श्रमिक जातियाँ हाड़ तोड़ परिश्रम के बावजूद अपने जीवन की न्यूनतम सुविधाओं के लिए संघर्षशील रहती हैं । कोई चाहे तो यह कह सकता है कि उन्हें और ज्यादा परिश्रम करना चाहिए । परन्तु इस देश के लगभग डेढ़ हजार वर्षों की कृषि व्यवस्था में शायद ही वह दौर आया हो जब किसान और श्रमिक थोड़ी भी बेहतर स्थिति में हों । वे सदैव ही अभावग्रस्त, संघर्षरत और दबे–कुचले रहे हैं । और तो और इन श्रमशीलों को भारतीय समाज अछूत बना देता है । प्रेमचंद न अपने साहित्य में और न इस कहानी में कोई दलित विमर्श का नारा बुलंद करते हैं । परन्तु उन्होंने सामंती व्यवस्था से इतर मनुष्यों को जिस संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया वह आधुनिक जीवन और चिंतन का परिणाम है । इस कहानी में या इनके पूरे साहित्य में जो जाति सूचक शब्द आए हैं वे उनके जातिवादी होने के प्रमाण नहीं अपितु इसे वे युग की सामाजिक सच्चाई की तरह प्रस्तुत करते हैं । उपर्युक्त संदर्भ के अलावा एक बात और है कि जो व्यक्ति जीवन में एक–दो बार ही भोजन कर पाए उसका श्रम के प्रति निष्ठावान रहना मुश्किल ही है । घीसू दो बार भरपेट भोजन करता है और माधव एक बार, वह भी अपनी पत्नी के कफन के लिए इकठ्ठा किए गए पैसों से । ऐसी स्थिति में श्रम के प्रति अविश्वास कोई बड़ी घटना नहीं है । ऐसी स्थिति में बड़ी घटना तो श्रम के प्रति विश्वास का बने रहना होती ।

 इनके दबे कुचले होने की वजह शासक वर्ग और अमीर तबका ही है । प्रेमचंद साफ लिखते हैं–‘‘गरीबों का माल बटोर–बटोर कर कहाँ रखोगे ? बटोरने में तो कमी नहीं है । हाँ, खर्च करने में किफायत सूझती है ।’’ कहानी में यह अमीरों की कंजूसी के संदर्भ में आया है । घीसू के अनुसार पहले के जमींदार ज्यादा उदार थे और आज के जमींदार धन–संपदा होने पर भी किसी के लिए कुछ नहीं करते । अगर व्यापक परिदृश्य में इस कथन की व्याख्या की जाए तो हम कह सकते हैं कि जमींदारों और पूँजीपतियों की अमीरी, साधन सम्पन्नता गरीबों के श्रम के मूल्य को कम करके उसका अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करती है । श्रम का मूल्य कम करने और अतिरिक्त उत्पादन कर करने से ही लाभ होता है । सामंती–जमींदारी व्यवस्था में श्रम को बेगार की सीमा तक पहुँचा दिया जाता है । अब जमींदार साहब की मर्जी कि वे कुछ दें कि ना दें और दें तो कितना दें । इस तरह किसान और मजदूर वर्ग हमेशा अभावग्रस्त रहा है और पीढ़ियों की अभावग्रस्तता ही आधुनिकता के साथ विकसित होती थोड़ी चेतना के कारण या रचनात्मक टूल के रूप में अविश्वास को प्रस्तावित करती है । अगर प्रेमचंद ने इसे किसी रचनात्मक टूल के रूप में इस्तेमाल किया है तो भी यह हमारे साहित्य में सभ्यता विमर्श का प्रस्थान बिन्दु ही है ।

 ऊपर मैंने कहा है कि अविश्वास प्रतिरोधहीनता से उपजता है । कहानी में घीसू और माधव प्रतिरोध नहीं करते । शायद कर ही नहीं सकते । इस प्रतिरोधहीनता के कारण उनकी जिंदगी बद से बदतर होती जाती है । घीसू और माधव दो पीढ़ी है परन्तु यह कहानी के भीतर की स्थिति है । कहानी एक स्ट्रक्चर या कला माध्यम के रूप में प्रतिरोध नहीं छोड़ती । कहानी के भीतर घीसू और माधव कफन के लिए जमा किए गए पैसों की शराब पी जाते हैं । ऊपरी तौर पर यह दो नक्कारों की वाहियात हरकत है । इस घटना का सृजन प्रेमचंद ने क्यों किया ? जब वे कहते हैं–‘‘मुझे यह कहने में हिचक नहीं कि मैं और चीजों की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूँ । निस्संदेह कला का उद्देश्य सौन्दर्य–वृत्ति की पुष्टि करना है और वह हमारे आध्यात्मिक आनंद की कुंजी हैय पर ऐसा कोई रुचिगत मानसिक तथा आध्यात्मिक आनंद नहीं, जो अपनी उपयोगिता का पहलू न रखता हो ।’’ तब इस स्थिति में विचार करना और भी आवश्यक हो जाता है । आदर्श और मर्यादा को जीवन और साहित्य में अत्यधिक महत्व देने वाले प्रेमचंद दो व्यक्तियों को मर्यादा और लोक–लाज त्यागकर अमर्यादित काम करते हुए दिखाते हैं । ‘गोदान’ सन् 1936 में ही प्रकाशित हुआ था पर उसमें ऐसा आचरण नहीं दिखाया गया है । सामाजिक नियमन का उल्लंघन वहाँ नहीं है । ‘गोदान’ का रचनाकाल सन् 1934–36 के बीच का है । क्या ‘कफ़न’ तक आते–आते इनके दृष्टिकोण में अंतर आ गया था । परन्तु ऊपर प्रेमंचद के जो दो उद्धरण हैं वे सन् 1936 में उनके द्वारा दिया गया प्रसिद्ध भाषण है प्रगतिशील लेखक संघ के सभापति के रूप में । इसका तात्पर्य यह है कि ‘कफ़न’ की उपर्युक्त घटना का महत्व है । मेरी दृष्टि में यह प्रेमचंद के प्रतिरोध का ही हिस्सा है । जब माधव घीसू से कहता है कि ‘वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा’ तो घीसू कहता है–‘‘हाँ, बेटा बैकुंठ में जाएगी । किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं । मरते–मरते हमारी जिंदगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी । वह न बैकुंठ जाएगी तो क्या ये मोटे–मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं और अपने पाप धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मंदिरों में जल चढ़ाते हैं ?’’ कमजोरों को दबाना और सताना शोषण और हिंसा के रूप हैं । गाँधी इस दौर में आजादी की लड़ाई का नेतृत्व कर रहे थे और वे किसी भी रूप में शोषण और हिंसा का विरोध कर रहे थे । हिंसा से मुक्ति का राजनीतिक आख्यान अगर गाँधी जी का ध्येय था तो शोषण दमन और हिंसा के सामाजिक रूपों से मुक्ति का ध्येय प्रेमचंद के साहित्य का है । वे स्पष्ट कहते हैं–‘‘जो दलित हैं, वंचित हैं, पीड़ित हैं–चाहे वह व्यक्ति हो या समूह उसकी हिमायत और वकालत करना साहित्य का उद्देश्य है । प्रेमचंद सत्ताधारी के शोषण के विपरीत मरते–मरते जिंदगी की सबसे बड़ी लालसा को पूरी करने को ज्यादा महत्व देते हैं । जिंदगी की सबसे बड़ी लालसा क्या है ? भरपेट भोजन जो जिंदगी में कभी नहीं मिला । यही घीसू और माधव जमींदार, बनिए–साहूकारों और अन्य लोगों द्वारा दिए गए पैसों से भरपेट खाते हैं, दारु पीते हैं, नाचते–गाते हैं, अभिनय करते हैं बल्कि ‘देने के गौरव, आनंद और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव’ करते हैं । गरीबों को दोनों हाथों से लूटने वालों और अपने दान और भक्ति से उस अपराध को कम करने की कोशिश में दान देने के अभ्यस्तों के विपरीत ये अभावग्रस्त और शोषित दान देते हैं तो क्या इसे संभ्रांत बर्दाश्त कर सकता है ? यह कहानी में नहीं है परन्तु क्या अगली सुबह भी वे इतने ही निश्चिंत रह पाएँगे ? आज तो नशे से मदमस्त होकर गिर पड़ते हैं परन्तु अगली सुबह क्या होगा ? और क्या होगा जब संभ्रांतों को पता चलेगा कि इन्हें हमारे पैसे से दान का सुख भी मिला है ? क्या समाज का सत्ताधारी वर्ग इसे बर्दाश्त कर सकता है ? कफन की व्यवस्था करना उनकी मजबूरी थी । जमींदार ने भी जैसे बोझा ही उतारा था और घीसू जानता है कि आगे भी वे कफन देंगे । माधव के पूछने पर कि कफन कहा से आएगा तो घीसू कहता है–‘वही लोग देंगे जिन्होंने अभी दिया । हाँ, अबकी रुपए हमारे हाथ न आएँगे ।’

 उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर इस कहानी में नहीं है और संभवत: घीसू अपनी समझदारी से दान वाली बात छुपा भी लेगा । परन्तु इस कहानी में घीसू का चरित्र कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । माधव के चरित्र में कोई कौंध नहीं है । घीसू कहता है–‘तू मुझे क्या ऐसा गधा समझता है ? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ ।’ तब प्रश्न है कि वह क्या करता रहा है और क्या नहीं करता रहा है ? इन दो प्रश्नों से हम घीसू ही नहीं उस युग में व्यक्ति के निर्माण को समझ सकते हैं । ‘घास खोदना’ मुहावरे का अर्थ बेकार के काम करना है । घीसू किसी प्रकार का काम नहीं करता–सार्थक और निरर्थक का प्रश्न ही बेकार है । परन्तु बिना काम किए भी या अत्यंत कम काम करके भी उसकी जिंदगी साठ वर्ष की है । मेरे विचार से घीसू मध्ययुग के मनुष्य की नियतियों से बाहर निकला एक आधुनिक व्यक्ति है । इसमें मध्ययुग की सत्ताएँ पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है क्योंकि मध्ययुगीन सत्ताएँ समाज से ही पूरी तरह समाप्त नहीं हुई हैं । व्यक्ति का निर्माण समाज के बाहर नहीं होता अपितु व्यक्ति सामाजिक संबंधों का तरल समुच्चय होता है । घीसू के चरित्र की मध्ययुगीन विशेषताएँ हमारा ध्यान भी नहीं खींचती, हमारा ध्यान खींचती है आधुनिकता की ओर संचरण करती उसकी प्रवृत्तियाँ । वह व्यक्तिवाद की संकल्पनाओं के साथ आधुनिक व्यक्ति नहीं है, वह आधुनिक युग की प्रवृत्तियों को धारण करने की दिशा में अग्रसर है । घीसू प्रतिरोध नहीं करता पर शोषण के रूप को थोड़ा पहचानने लगा है और मध्य युगीन मनुष्यों के विपरीत शोषण को किसी दैवीय विधान का अंग नहीं मानता है । जब प्रेमचंद किसानों के श्रम के साथ इनकी अकर्मण्यता की तुलना करते हैं अथवा गरीबों को लूटने वालों के संदर्भ में टिप्पणी (ऊपर उद्धरणों में द्रष्टव्य हो) करते हैं, इससे इस संदर्भ का ज्ञान होता है । वह स्थितियों से फायदा उठाना भी जानता है–‘‘जब जमींदार साहब ने दो रुपए दिए, तो गाँव के बनिये–महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता ? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था । किसी ने दो आने दिए, किसी ने चार आने ।’’ इसे धूर्तता भी नहीं कहा जा सकता । वह गाँव के महाजनों–बनियों को ही लूटता है । वह झूठ भी बोलता है–‘‘रात–भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे । दवा–दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गई ।’’ घीसू स्थितियों से फायदा उठाना भी जानता है–‘‘कैसा बुरा रिवाज़ है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए ।’’ गरीबी के बावजूद और गरीबी के बीच से घीसू स्थिति का यहाँ फायदा उठाता है । एक स्तर पर यह एक सामाजिक सच्चाई है, तो दूसरे स्तर पर यह घीसू माधव की पैसा बचाने के लिए कही गयी बात है । इससे साफ है कि ठोस सामाजिक सच्चाइयों के निहितार्थ भी उतने स्पष्ट नहीे होते । यह सामंती ब्राह्मणवादी व्यवस्था की कैसी त्रासदी है कि गरीब भी रिचुअल के बिना ऋण नहीं पाता । अगर रिचुअल के लिए पैसे होते तो क्या वह रोटी और कपड़े जैसी बुनियादी जरूरतों से इस कदर जूझता । वह समाजिक फरेब का उत्तर व्यक्तिगत फरेब से देता है । वह संस्थागत मनोभावों के समानांतर उसके लूप होल्स से खेलने वाला व्यक्ति बन जाता है । घीसू आधुनिक जीवन के निर्माण की दिशा में एक सशक्त कदम है जो येन केन प्रकारेण जीता है या जीने की कोशिश करता है । इस जीने की कोशिश में घीसू अपने छल, छद्म, झूठ, फरेब के साथ भी या उसके साथ ही आधुनिक व्यक्ति बन जाता है क्योंकि आधुनिक व्यक्ति ठोस सामाजिक स्थितियों से बाहर नहीं जा सकता । उसका उससे बाहर निकलना असंभव है ।

 घीसू के सारे कार्य उसकी अपनी जिंदगी की लड़ाई का हिस्सा है । अपनी साधनहीनता, अविश्वासों (विश्वासों), प्रतिरोधहीनता के बीच घीसू उपर्युक्त तथ्यों के माध्यम से जीने की कोशिश करता है और साठ वर्ष तक जीता भी है । सार्थकता निरर्थकता का प्रश्न जिंदगी की लड़ाई के बाद आता है । जीवन रहेगा तभी सार्थकता–निरर्थकता का प्रश्न खड़ा होता है । मध्ययुगीन अवधारणा के अनुसार जीवन रहे, न रहे, आन रहनी चाहिए । पर यह आधुनिक युग की समझ है जिसमें जीवन जीना ज्यादा संघर्ष का काम है, बनिस्पत किसी के मर जाने के । कुल मिलाकर घीसू आधुनिक व्यक्ति का पहला फुट प्रिंट है जो स्थितियों के मध्य जीने को अभ्यस्त है ।

 एक बात और है जो ‘कफ़न’ के संदर्भ में हमारा ध्यान आकर्षित करती है । ‘कफ़न’ में प्रेमचंद एक स्थान पर लिखते हैं –‘‘दोनों आलू निकाल निकालकर जलते–जलते खाने लगे । कल से कुछ नहीं खाया था । इतना सब्र न था कि उन्हें ठण्डा हो जाने दें । कई बार दोनों की जबानें जल गईं । छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा बहुत ज्यादा गर्म न मालूम होताय लेकिन दाँतों के तले पड़ते ही अन्दर का हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँच जाय । वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी सामान थे । इसलिए दोनों जल्द–जल्द निगल जाते । हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते ।’’ इस उद्धरण में जो बात सबसे पहले हमारा ध्यान खींचती है वह यह कि ये दोनों भोजन का रस नहीं ले रहे । ये किसी तरीके से भोजन को उदरस्थ कर रहे हैं । अंगारे जैसी चीज को वह पेट में ठंडा करने की कोशिश करते हैं जबकि बाहर प्राकृतिक स्थिति में यह ‘जाड़े की रात थी’ । ‘पूस की रात’ जैसी अनेक कहानियों में प्रेमचंद ठंड की विभीषिका को चित्रित करते हैं । जाड़े की रात अमीरों के लिए सुखद हो सकती है, परन्तु गरीब और साधनहीन विपन्न किसान मजदूर के लिए नहीं । साधनहीनता प्राकृतिक विभीषिकाओं को और बढ़ा देती है । यह गरीबी दैवीय विधान नहीं है । अमीर गरीब का भेद पूँजीपतियों सामंतों के लूट खसोट, मुनाफाखोरी और स्वार्थ का नतीजा है । अत: साधनहीनता के कारण जो प्राकृतिक विभीषिका है, वह भी मात्र प्राकृतिक तथ्य नहीं रह जाता । अत: ठंड या गर्मी मात्र प्राकृतिक स्थिति न रहकर सामाजिक जीवन में विषमता को इंगित करने वाला तथ्य बन जाता है । यही तथ्य हमें ‘कफ़न’ में भी दिखाई पड़ता है ।

साभार लमही

 अमिताभ राय
ए–305 प्रियदर्शनी अपार्टमेंट,
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मो०  09582502101

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