head advt

ऑक्सफ़ोर्ड पर गूंजेगी चम्पू की वाणी Oxford Book Stores will keep Hindi Books of Vani Publications

ऑक्सफ़ोर्ड पर गूंजेगी चम्पू की वाणी

भरत तिवारी


ये बड़ी ख़ुशी है ! ऑक्सफ़ोर्ड बुक स्टोर्स पर हिंदी किताबों का मिलना सचमुच ही एक सुखद घटना है... बड़ी कोफ़्त होती थी जब किसी बुक स्टोर  पर जाओ और हिंदी को नदारद पाओ. न जाने कितनी दफा मैंने खुद इन स्टोरों के मैनेजरों से कहा होगा "आप हिंदी की किताबें क्यों नहीं रखते? रखा कीजिये !". मुझे नहीं लगता कि एक अकेला मैं ही रहा होऊंगा, जिसे इस बात का मलाल होता रहा होगा, ज़रूर ही आप में से बहुत से हिंदी पाठकों को इस दिक्कत का सामना करना पड़ा होगा.

वैसे तो बधाई देने का कोई तुक नहीं बनता, भाई हिंदुस्तान में रहते हैं तो हिंदी की पुस्तक का बुक स्टोर पर मिलना छोटी बात होनी चाहिए (थी). लेकिन नहीं !!! बधाई और वो भी तहे दिल से बधाई वाणी प्रकाशन और ऑक्सफ़ोर्ड बुक स्टोर्स को कि हिंदी-किताबों के लिये "डॉग्स एंड इंडियनस आर नॉट अलाउड" की रोक का ख़ात्मा किया आपने मिलकर. उम्मीद है कि बाकी के अंग्रेजी-पुस्तक-विक्रेता भी इससे सीख लेंगे और हिंदी-किताबों का अपने ही देश में अपमान होना रुकेगा.

ये बड़ी ख़ुशी की बात और भी बड़ी हो जाती है ये जानकर कि इसकी शुरआत भारतीय जनमानस के लोकप्रिय कवि-लेखक-विचारक श्री अशोक चक्रधर की चर्चित चम्पू-श्रृंखला की पांचवीं और नयी व्यंग्यात्मक कृति 'चम्पू का अंतर्लोकपाल' के लोकार्पण से हो रही है. अशोकजी ! सादर बधाई .

अब ऐसे लोकार्पण के अवसर पर हिंदी प्रेमियों का पहुंचना तो बनता है. नहीं क्या ? आइये और ऑक्सफ़ोर्ड को हिन्दीमय बनाइये, ये वो अवसर है जब हम "हिंदी की पुस्तकों के खरीददार नहीं है !" की मिथ्या को तोड़ सकते हैं .... और तोड़ेंगे भी ... जंतर-मंतर पर नहीं, बातों से नहीं, किसी सभागार में हिंदी-की-दुर्दशा पर दिये/सुने भाषण से नहीं  बल्कि "ऑक्सफोर्ड बुकस्टोर, एन-81 कनॉट प्लेस, नयी दिल्ली" पर 20 अगस्त 2014 को शाम 6 बजे पहुँच कर.  किताब भी खरीदेंगे और जलपान भी (छक के) करेंगे....

ये रहा निमंत्रण पत्र  

इन सब बातों में मैं भूल ही गया कि चम्पू का ताज़ा किस्सा 'चम्पू का अंतर्लोकपाल' आपको पढ़ना होगा 

नमस्कार! मिलते हैं अब आप 'चौं रे चम्पू' पढ़लें 



चौं रे चम्पू 

चम्पू का अंतर्लोकपाल  

अशोक चक्रधर

चौं रे चम्पू! तेरी नई किताब कौ लोकार्पन कब ऐ रे?

आज ही है चचा! आपको ज़रूर आना है।

हम नायं आ सकैं। तू तौ जानै है कै हम बगीची छोरि कै कहूं जायं नायं। अपनी तौ बस्स इत्ती सी दुनिया! का लिख्यौ ऐ वा किताब मैं?

चचा, उस किताब में मेरी और आपकी बातचीत है, जो हम लोग बगीची पर करते रहते हैं।

हमाई बातचीत! हमाई बातचीत तौ प्राईवेट होयौ करैं, तैनैं कसै छपवाय दईं? 

चचा, मेरे और आपके बीच में क्या प्राइवेट? हम ऐसी कौन सी छिछोरी बात करते हैं। बात करते हैं देश की, समाज की। ये पांचवीं पुस्तक है, छठी भी छपने के लिए तैयार है। इस किताब का  नाम है ‘चम्पू का अंतर्लोकपाल’।

हां मोय याद ऐ, अंतरलोकपाल की बात तैनैं करी हती।

जनलोकपाल का हल्ला बहुत सुन लिया। चुनावी नारों और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के अलावा उसमें कोई तंत नज़र नहीं आया। कहां-कहां जनलोकपाल बिठाओगे? सच्चरित्र फ़रिश्ते कहां से लाओगे? सब पर शक करोगे तो काम आगे कैसे बढ़ाओगे? अंधेरे गुमनाम एकांत में होते घोटालों पर दबिश कैसे डलवाओगे? मैंने तो उस समय एक नारा दिया था। ’इत्ते हमारे इत्ते तुम्हारे, क्या कर लेंगे अन्ना हजारे!’

अब तौ अन्ना हजारे ऊ गुमनाम अंधेरे मैं चलौ गयौ।

और जो लोग लोकपाल जनलोकपाल का हल्ला मचाते थे, उनके मुद्दे भी बदल गए। कोई इकलौते सिपाही के खिलाफ लड़ने लगा, कोई बिजली के खम्भे पर चढ़कर कानून के तार तोड़ने लगा। ईमानदारी का दावा करने वाले बेईमानी से भाग गए। क्या नहीं देखा? कीचड़-नृत्य देखा, गाली-गलौज-गलियारे देखे, अपशब्द-निनाद सुने, आरोप-तोप के दिलफाड़ू धमाकों से दहले। पर वोटर ने ऐसा पलटवार किया कि होश फ़ाख़्ता नहीं हुए, ठिकाने आ गए।

अबहिं ठिकाने कहां आए ऐं रे!

ठिकाने आ जाएंगे अगर जनांतर्लोकपाल जग गया। आपका और मेरा मानना जो था, सही था कि कोई भी जनलोकपाल देश को कैसे ठीक करेगा, क्योंकि समिति में जितने प्रतिनिधि होंगे, अलग-अलग मतावलम्बी, विचारावलम्बी और लम्बी-लम्बी छोड़ने वाले होंगे। लोकपाल की तुलना में अंतर्लोकपाल ज़्यादा कारगर सिद्ध होगा, क्योंकि इसमें समिति के सदस्यों की संख्या एक से अधिक है ही नहीं। आप ही समिति के अध्यक्ष हैं, आप ही सचिव। आप ही एन.जी.ओ. हैं, आप ही कर्मचारी, और आप ही शासक। अंतर्लोकपाल अगर दुरुस्त कर लिया जाए तो मेरे ख़्याल से ज़्यादा चीज़ें सुधर जाएंगी। मेरी और आपकी बातचीत कितने ही मुद्दों पर अलग-अलग तरह से होती रही हो, लेकिन थी तो अंतर्लोकपाल पर ही केन्द्रित। अंतर्लोकपाल के सभी प्रकोष्ठ देखे हमारी बातचीत ने। एक प्रकोष्ठ छोड़ दो, वह है पुरुष के लिए स्त्री और स्त्री के लिए पुरुष। इसकी निजता तो मैंने गोपनीय ही रखी है, ओपनीय तो नहीं करी न! मुझे मालूम है कि महिलाएं आप पर किस क़दर लट्टू रहा करती थीं और आप उन्हें कितने प्रेम से भावुकता के विरुद्ध भाषण पिलाते थे। मैं किसी का भी नाम लिया क्या? हमने बगीची पर बहिर्जगत का चिंतन किया कि अंतर्लोक कैसे सुधारा जाए। भला हो राष्ट्रीय सहारा का, जो पिछले सात साल से हमारी बातचीत प्रकाशित कर रहे हैं।

अच्छा! तौ तू हमाई बातचीत छपवाय रह्यौ ऐ सात सालन ते, हमैं पतौई नायं!

फिर आप बात करना बन्द कर देते न, यह सोच कर नहीं बताया। आज पांचवीं का लोकार्पण ’ऑक्सफोर्ड बुक स्टोर’ पर हो रहा है। ये शायद पहली बार है कि अंग्रेज़ी के प्रकाशन जिस बुक स्टोर से बिकते हों, वहां हिन्दी दिखना भी शुरू होगी। ख़ैर, आपको आना है। मैं वहां आपका परिचय भी कराऊंगा कि यही वे चचा हैं, जिनसे मेरी बातचीत होती रहती है।

लल्ला, हम नायं आमिंगे। हमाऔ अंतरलोकपाल जे कहि रह्यौ ऐ कै तुम भलेई अपने फायदा के ताईं, प्रसिद्धी के ताईं, किताब छपवाऔ पर असल चीज तौ जिन्दगी में काम कन्नौ ऐ।

माना काम करना ही प्राथमिक है पर किताबों से प्रेरणा मिलती है चचा। मुझे मालूम था कि आप ऐसा ही कहेंगे, लेकिन इधर नई पीढ़ी में हिन्दी पढ़ने की ललक को बढ़ाने की ज़िम्मेदारी भी हमारी आपकी है। अंग्रेज़ी के प्रकाशक अपनी किताबों की अच्छी मार्किटिंग करते हैं। वे लोकार्पण नहीं लॉन्चार्पण करते हैं। तुम समझो कि तुम्हारे चम्पू को लॉन्च किया जा रहा है।  है। आना। 

आ जामिंगे, पर तू हमाऔ परिचय मत करवइयो!

क्यों चचा?

फिर हमाई-तुमाई बातचीत बन्द है जायगी, बताय दई ऐ!


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

गलत
आपकी सदस्यता सफल हो गई है.

शब्दांकन को अपनी ईमेल / व्हाट्सऐप पर पढ़ने के लिए जुड़ें 

The WHATSAPP field must contain between 6 and 19 digits and include the country code without using +/0 (e.g. 1xxxxxxxxxx for the United States)
?