तकनीकी नियतिवाद के विरूद्ध घोषणापत्र
- सुधा सिंह
Manifesto Against Technological Determinism
- Sudha Singh
‘’तकनीकी नियतिवाद के विरूद्ध घोषणापत्र’’ - सुधा सिंह; अव्वल तो समझ नहीं आया कि आख़िर इस का अर्थ क्या हुआ - तकनीकी नियतिवाद के विरूद्ध घोषणापत्र ! लेकिन लिखने वाले का नाम पढ़ा तो जिज्ञासा जागी, यह भी था कि सुधा सिंह ने लिखा है तो अवश्य ही कुछ न कुछ तो ऐसा होगा जो ‘’ज़रूरी’’ होगा। ये सारे विचार बहराइच से अति-विषम परिस्थितियों में हिंदी के लिए लगातार काम कर रहे जय नारायण बुद्धवार जी द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘कल के लिए’ को पढ़ते समय के हैं – जिसमें यह लेख यानी घोषणापत्र छपा है।
लेख पढ़ कर लेखिका को बधाई दी तो उनका कहना था ‘’ ख़ुशी हुई कि किसी ने पढ़ा – हिंदी-वाले ये सब कहाँ पढ़ते हैं।'' बहरहाल सुधा जी को एक बार लिखित में बधाई उनके इस मेहनत से महत्वपूर्ण जानकारियों से परिपूर्ण लेखन के लिए।
बस इतना और कहूँगा यदि इसे नहीं पढ़ा जाता है तो ‘वर्तमान तकनीकी पटल’ का एक महत्वपूर्ण कोण छूट जायेगा – जो न छूटे तो बेहतर है।
भरत तिवारी
भाप के इंजन से आरंभ होनेवाली औद्योगिक क्रांति का लक्ष्य मनुष्य के प्रत्यक्ष शारीरिक श्रम को कम करना और उसका विस्तार करना था जबकि कंप्यूटर पर आधारित सूचनाक्रांति का काम मनुष्य के मानसिक श्रम को कम करना और उसका विस्तार करना है।
आज हम अपने चारों तरफ जो वैचारिक वातावरण देख रहे हैं उसका निर्माण कोई और नहीं सूचनाएं कर रही हैं। आज सामाजिक जीवन में बातचीत करने के विषय से लेकर प्रतिरोध के स्पेस तक का निर्माण सूचना के बिना नहीं हो रहा। दरअसल सूचना और इसका संजाल एक नए सार्वजनिक स्पेस का निर्माण कर रहे हैं जो अपनी प्रकृति में अत्यंत गतिशील और बहुआयामी है। सूचनाओं के इस तीव्र संजाल ने अपने दायरे में पब्लिक स्फीयर की तमाम चीजों का समाहार कर लिया है। सब कुछ इसके भीतर घटित होकर आनुष्ठानिक रूप लेता है और इससे बाहर जाकर हमारी दिनचर्या में शामिल होता है।
सुधा सिंह
एसोशिएट प्रोफेसर मीडिया/ जर्नलिज़्म/ ट्रांसेलेशन हिंदी विभाग , दिल्ली वि वि.
singhsudha.singh66@gmail.com
singhsudha.singh66@gmail.com
सूचना समाज पदबंध का संबंध सूचना के बुनियादी रूप से न होकर अत्याधुनिक रूप से है। इसके अंतर्गत एक ऐसे समाज की बात की गई है जो पूरी तरह से सूचनाओं के संजाल से घिरा हो। सूचनाएं उसके उपभोग के लिए अहर्निश उपलब्ध हों। मनुष्य के विचार, चिंतन और दर्शन के सारे रूप सूचनाओं में बदल दिए गए हों। यह मनुष्य का मानवीय वातावरण नहीं बल्कि माध्यम वातावरण है, इसकी व्याख्या इस रूप में की जानी चाहिए।
मनुष्य ने अपने मानवीय वातावरण को एक लंबे जद्दोजहद के बाद हासिल किया है। यह उसके भौगोलिक वातावरण से संघर्ष के क्रम में ही संपन्न हुआ। उसने अपनी संस्कृति का विकास किया, सुख-दुख के साझा अनुभव को व्यक्त करने के लिए भाषा का परिष्करण करता रहा, एक संचालक और जोड़े रखने वाली ताकत के रूप में धर्म की खोज की, दर्शन गढ़े। लेकिन यह सब हुआ एक लंबी प्रक्रिया और संघर्ष के बाद। धार्मिक परिवेश , दर्शन की गूढ़ समस्याएं, विज्ञान की जटिल गुत्थियाँ आदि उसके सार्वजनिक परिवेश का हिस्सा थीं। वह अपने समय, समाज, परिवार और सांस्कृतिक-राजनीतिक परिवेश से इन सबके द्वारा अपने को जुड़ा-बँधा पाता था। आज के समय में व्यक्ति के हर तरह के जुड़ाव और प्रतिक्रिया की कोई जगह है तो वह है माध्यम और माध्यम-वातावरण !
शैक्षणिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रूपों में अंतर्क्रिया के अनंत क्षेत्र हैं जिन पर जोर देकर हम तकनीक के जनतांत्रिक रूपों को विकास कर सकते हैं। इसमें गति होगी पर समय और समाज की जरूरतों के मेल में। विकास के अन्य पिछड़ते हुए घटकों को साथ लेकर आगे बढ़नेवाली गति।
Marshall McLuhan, c. 1936 | |
Born | Herbert Marshall McLuhan July 21, 1911 Edmonton, Alberta, Canada |
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Died | December 31, 1980(aged 69) Toronto, Ontario, Canada |
School | Media theory, Toronto School of communication theory |
Main interests | Media, mass media,sensorium, New Criticism |
Notable ideas | The medium is the message, Global village,Figure and ground media,Tetrad of media effects,Hot and cool media |
मनुष्य अपनी आधुनिकतम दुनिया का निर्माण तकनीक की मदद से इस रूप में कर रहा है कि तकनीक के बिना उसके होने की कल्पना नहीं की जा सकती।
सूचनाओं और तकनीक की इस अधिकता ने मनुष्य का स्वयं पर से भरोसा ख़त्म किया है। मानव मस्तिष्क और क्षमताओं का कम से कम इस्तेमाल हो रहा है। मनुष्य अपनी आधुनिकतम दुनिया का निर्माण तकनीक की मदद से इस रूप में कर रहा है कि तकनीक के बिना उसके होने की कल्पना नहीं की जा सकती। जहाँ तकनीक और सूचनाएं अपने अत्याधुनिक रूप में नहीं पहुँची हैं, वहाँ इनका आगमन व्यक्तिगत तौर पर भविष्य की इच्छा और सामूहिक तौर पर भविष्य की योजना के रूप में संभावित है।
पश्चिम के प्रसिद्ध मार्क्सवादी माध्यम विचारक मेतलार्द के ‘सूचना समाज’ संबंधी विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि वे मानव मस्तिष्क के निरंतर कुंद किए जाने की प्रक्रिया से परेशान हैं ! सहज ही समझा जा सकता है कि मनुष्य के परिश्रम को आसान करने के नाम पर ईजाद की गई ये मशीनें मनुष्य को अपनी बुद्धि और मेधा के इस्तेमाल करने से विरत करती हैं। मेतलार्द ने तकनीक और संप्रेषण की आधुनिक खोजों का पूँजीवादी जरूरतों से संबंध स्थापित करते हुए अपनी पुस्तक ‘सूचना समाज’ में लिखा है कि “लेबनीज (1646-1716) और उसके समकालीनों के लिए नए पूंजीवाद के विकासशील दौर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए गणना की नई त्वरित विधियों की जरूरत थी। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के विस्तार के कारण अफसरशाही प्रक्रियाओं और व्यापारियों, निवेशकों और सटोरियों के हित संग्रह, भंडारण और आंकड़ों के प्रचार-प्रसार के लिए बाजार तैयार था। समुद्री नौ यात्राओं के विकास ने उन्नत जहाजरानी सेवाओं का विकास किया। अक्षांशों की गणना ने नियमित गत्यात्मकता के साथ उत्पादन के सिद्धांत और समय मापने के लिए स्वचालक यंत्र (पेंडुलम, घड़ियां, दिशासूचक घड़ियां) को विकसित करने के लिए प्रयोगशाला की भूमिका निभाई जो कंप्यूटर के दूरस्थ पूर्वज हैं। समय और स्थान के प्रति नया नजरिया कार्यशालाओं, व्यापारिक केंद्रों, सेना और जनप्रशासन में फैल गया।”
सूचना युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि है कम्प्यूटर। यह आज हर तरह की गणना कर सकने में सक्षम है। इंटरनेट के कारण यह त्वरित सूचना का भी केन्द्र है। आज कम्प्यूटर की गणना प्रणाली के आधार पर विकसित सभी उपकरणों में नेट की सुविधा हासिल की जा सकती है। छोटे से जेबी मोबाइल के अंदर भी हम दुनिया के साथ जुड़े होने का एहसास पाल सकते हैं। ऐसा लगता है जैसे इस छोटे से कम्प्यूटर मशीन के आगे बैठा आदमी किसी जादुई दुनिया के दरवाजे पर बैठा हो! लेकिन यह देखना ग़ौरतलब है कि कम्प्यूटर के कीबोर्ड का प्रयोग कर रहा आदमी क्या भाषा भी जानता है? भाषा में प्रयुक्त अक्षरों से हाथ, मस्तिष्क और विचारों का जो संबंध है; वह कम्प्यूटर के कीबोर्ड से नहीं है! वहां फॉरमेटेड भाषा है, स्थिर कोड हैं और अक्षरों को केवल करीने से रखना भर है। भाषा बनानी नहीं पड़ती , बनी हुई है, इन्हें व्यवस्थित करके रख देना भर है। इसलिए अब सुलेख की बात नहीं की जा सकती। कम्प्यूटर-लेख की बात की जा सकती है !
सूचना को बुद्धि का पर्याय मान लिया गया। लेकिन इस ‘इनफॉर्मेनेशन’ का ‘इंटेलिजेंस’ से कोई लेना देना नहीं, यह सूचनासंग्रह मात्र है
Harold Innis |
मशीनों का आगमन और नई तकनीक केवल जीवन की कठिन स्थितियों को बदलकर सुकर ही नहीं बनातीं वरन् हमारी सोच-पद्धति और विचार के तरीक़ों में भी बदलाव लाती हैं। विभिन्न अनुशासनों में विशेषकर साहित्य में अध्ययन की नई पद्धतियों – सर्वेक्षणमूलक, तुलनात्मक और सारणिबद्ध आदि का चलन ऐसे ही नहीं शुरू हुआ, इसका तकनीकी माध्यमों से गहरा संबंध है। जैसा कि मेतलार्द कहते हैं, “ शोध का विषय और पद्धति साथ ही वस्तुओं और व्यक्तियों से रू–ब-रू होने का तरीक़ा खुद इतिहास द्वारा ही तय किया जाता है।” आंकड़े, दर और प्रतिशत बतानेवाली, बड़ी से बड़ी संख्या का जोड़-घटाव, गुणा-भाग करने वाली मशीन के आ जाने से डाटा एकत्र करना आसान था, आंकड़ों को जमा करके रखा जा सकना संभव हुआ, उनका प्रतिशत निकालना आसान हुआ। इन सबके कारण अब एक राज्य या देश के संदर्भ में दूसरे राज्य या देश को पिछड़ा या अगड़ा बताना ज़्यादा आसान था। विकसित–अविकसित की कोटियां तय करने का आधार ये आंकड़े बनते गए। कारण इन सबका एक आंकड़ामूलक आधार था। अब कला और संस्कृति आदि के क्षेत्र में उदात्त मानवीय उपलब्धियाँ विकसित होने का प्रमाण न रहीं। मेतलार्द ने बहुत साफ-साफ समझाने की कोशिश की कि सर्वेक्षणमूलक अध्ययन का आधार राजनीतिक अंकगणित है।
अंकगणित की इस शाखा का जन्म ही राज्य द्वारा जनता की विभिन्न गतिविधियों का हिसाब-किताब रखने के लिए हुआ है। विशेषज्ञों ने प्रत्येक क्षेत्र में सरकारी इस्तेमाल की नई भाषा का विकास किया। अब ज्ञान के हर क्षेत्र की अपनी विशिष्ट भाषा थी।
Armand Mattelart |
हर नई तकनीक मानवीय दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तनों के दावों के साथ आती है लेकिन इन पर लगाई गई लागत और श्रम के मुकाबले इनसे होनेवाले लाभों की न्यूनता पर किसी का ध्यान नहीं जाता। ज़्यादातर इनकी असफलताओं को भुला दिया जाता है। यह एक तरह का तकनीकी नियतिवाद है जिसमें मान लिया जाता है कि नुकसान तो होगा और उसका आकलन नहीं किया जाता।
आज हर तरह के अध्ययन में औसत संन्दर्भों का बोलबाला है। कोई भी अध्ययन विशेषीकृत क्षेत्र का होने के बावजूद अपने अंतिम निष्कर्ष में औसत को संबोधित होता है। सब तरह के अध्ययनों की जान है यह औसत। इस औसत का जन्म विचार के स्तर पर किस प्रकार हुआ यह जानना दिलचस्प होगा। समाज को एक बड़े औद्योगिक इकाई के रूप में देखने के नजरिए ने प्रबंधन युग की नींव डाली। औद्योगिक प्रबंधकों की तरह ही सामाजिक प्रबंधकों की जमात शिक्षा, उद्योग, सामाजिक आपदा, सामाजिक आयोजनों आदि के क्षेत्र में कुकुरमुत्ते की तरह पैदा हुए। इनका लक्ष्य मनुष्य नहीं वस्तुएं बनीं। सांख्यिकी और प्रबंधन के इस नए विज्ञान में मनुष्य एक ‘औसत सामाजिक आदमी’ में अवमूल्यित हो होता गया। इस औसत आदमी के लिए सत्ता की तरफ से जो भी दिया जाएगा वह उपलब्ध सामाजिक औसत से ज्यादा नहीं होगा। इस आदमी की सारी उपलब्धियां यहां तक कि जीवन का मूल्य भी औसत ही होता है। बीमा कंपनियों के सारे तर्क, सरकार की समस्त कल्याणकारी योजनाओं का सार यही है- आदमी का औसत के रूप में अवमूल्यन।
सभ्यता के विकास का संबंध, विशेषकर साम्राज्यवादी वर्चस्व के विकास का संबंध मशीनों के साथ गहरे जुड़ा है। मनुष्य की समृति मशीनों के विकास के साथ-साथ अंतर्मुखी से बहिर्मुखी हुई। मशीन का विस्तार मनुष्य के विस्तार का पर्याय बनता गया। ये अब जगजाहिर है कि कम्प्यूटर नेटवर्क का विकास अमेरिका की सैन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए हुआ था। इसी तरह से ʻसूचनाʼ का सतही अर्थ ख़बर या जानकारी मात्र नहीं थी बल्कि सूचना का अर्थ विभिन्न तकनीकी माध्यमों द्वारा दुनिया के अन्य देशों की खुफिया जानकारियां एकत्रित करनी थी। सूचना और जनमाध्यम के क्षेत्र में काम करनेवाले विचारकों - वन्नेवर बुश से लेकर क्लॉड शैनन तक का संबंध अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा शोध समिति से था।
कम्प्यूटर के जरिए इंटरनेट की जिस ‘रियल टाईम स्पेस’ की क्षमता पर हम आज मुग्ध हैं वह दरअसल ʻसेजʼ (सेमी ऑटोमेटिक ग्राउण्ड एनवावॉयरमेंट सिस्टम) की परमाणु युद्ध के ख़तरे का सामना करने के लिए तैयार की गई रणनीति थी।
आमतौर पर यह मानते हैं कि तकनीक और विज्ञान का धर्म और अंधविश्वास से छत्तीस का आंकड़ा है। तकनीक की तुलना में धर्म को पिछड़ा विचार माना जाता है पर किसी भी नई तकनीक या वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ समाज की मौजूदा शक्तिशाली संस्थाओं का गहरा रिश्ता होता है। तकनीक के संबंध में मैकलुहान के विश्व प्रसिद्ध विचारों का उसके धार्मिक विचारों के साथ गहरा संबंध है। कम्प्यूटर के जरिए इंटरनेट की जिस ‘रियल टाईम स्पेस’ की क्षमता पर हम आज मुग्ध हैं वह दरअसल ʻसेजʼ (सेमी ऑटोमेटिक ग्राउण्ड एनवावॉयरमेंट सिस्टम) की परमाणु युद्ध के ख़तरे का सामना करने के लिए तैयार की गई रणनीति थी। यह दुश्मन की खोज करना, तत्काल निर्णय लेना और उस पर जवाबी कार्रवाई करने का एक संपूर्ण परिपथ था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से तकनीकी अनुसंधान में आई तेजी और इंटरनेट के तीव्र विकास का संबंध सैन्य कार्रवाई की जरूरतों को पूरा करने के लिए किए जा रहे शोधों और परमाणु शोधों से है।
ध्यान रखना चाहिए कि द्वीतीय विश्वयुद्ध ने यह स्थिति साफ कर दी थी कि आगे आनेवाली लड़ाइयों में वायुसेना की ताक़त ही निर्णायक ताक़त बनने जा रही है। यानि अब धरती के लिए आकाश की घेरेबंदी महत्वपूर्ण होगी। सूचना नेटवर्क का सारा खेल इसी ताक़त को हासिल करने से जुड़ा है। साथ ही ʻसूचना युगʼ और ʻसूचना समाजʼ जैसे पदबंध को समझने के लिए जरूरी है कि हम ʻजनसमाजʼ , ʻउत्तर औद्योगिकʼ, ʻउत्तर पूंजीवादीʼ और ʻउत्तर आधुनिकʼ पदबंधों को भी समझें। क्यों उत्तर औद्योगिक समाज में उत्पादन से ज़्यादा महत्वपूर्ण सेवा क्षेत्र हो गए ? आज महंगाई और घटते विकास दर की समस्या से जूझते भारत जैसे देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को कहना पड़ रहा है कि उत्पादन क्षेत्रों पर ध्यान देना होगा, तभी स्थिति बदल सकती है, इस पर विचार की जरूरत है। पेशेवर और प्रशिक्षित लोगों की तादाद श्रमिकों की तादाद की तुलना में कई गुना ज़्यादा तेजी से बढ़ी है। इसी प्रकार उत्पादन की जगह प्रबंधन ने ले लिया है। सूचना समाज के अंतर्गत ʻग्लोबल विलेजʼ की अवधारणा को इस परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए। डेनियल बेल द्वारा ज्ञान और विश्वविद्यालयों की भूमिका को महत्वपूर्ण माना गया, जिनमें से विश्वविद्यालय ज्ञान के विश्वव्यापी सूचनातंत्र के उत्पादन का केन्द्र थे। ये ज्ञान को इकट्ठा करने और एक अंतर्राष्ट्रीय पेशेवरों की जमात तैयार करने की प्रयोगशाला के रूप में विकसित हो रहे थे। ये सब सन् 70 के दशक में ज्ञान के विकास की अमेरिकी नीति के तहत हो रहा था।
मेतलार्द ने तकनीक और नेटवर्क के विस्तार के साथ बदलती हुई सामाजिक अवधारणाओं को प्रस्तुत किया है। खासकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की सैन्य जरुरतों के अनुसार तकनीक के विकास की ब्रिटिश-अमेरिकी नीति और इसके अनुरूप ही जनसमाज की जगह ज्ञानसमाज और सूचना समाज की अवधारणाओं के विकास का विश्लेषण किया है। इसमें उत्तर औद्योगिक युग के प्रवक्ता डेनियल बेल से लेकर भविष्यवादी विश्लेषक एलविन टॉफलर तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय में साम्यवादी देशों के विशेषज्ञ ज़्बिग्निव ब्रेजेजेंस्की के ʻटेक्नोट्रॉनिक युगʼ का विस्तार से आकलन है। मनुष्य के साझे ज्ञान को पहुंच के अंदर रखने के लिए और मांग पर तत्काल उपलब्ध होने के लिए जरूरी था कि विश्व सूचना संजाल का निर्माण किया जाता। पुराने आदर्श सार्वजनीनतावाद को अपदस्थ करके केवल नेटवर्क की सार्वजनीनता का अभियान चला। इसकी अगुवाई अमेरिका ने की और अन्य तथाकथित पिछड़े देशों ने तकनीक, पद्धतियां और सांस्थानिक आदतों को अमेरिका से उधार लेकर अपने ʻपिछड़ेपनʼ को कम करने की कोशिश की। भारत में भी नब्बे के दशक में ʻज्ञान समाजʼ की अवधारणा फल-फूल रही थी और उसी दौर में सैम पित्रोदा इसके ʻआईकॉनʼ बने। ध्यान रहे कि अमेरिका में नेटवर्क समाज के सभी प्रवक्ताओं का संबंध किसी न किसी रूप में अमेरिका की सैन्य और रक्षा विभागों से रहा है। ʻग्लोबल गवर्नेंसʼ या ʻपैन अमेरिकी प्रशासनʼ की तुलना में वैश्विक नियमन ज़्यादा कारग़र नीति है और इस नियमन का वाहक आधुनिक समय में नेटवर्कों का संजाल ही हो सकता है।
अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों की यह विशेषता रही कि वे अपने तकनीक के निर्माण की जानकारी नहीं बेचतीं, तकनीक बेचा करती हैं
सन् 1970 में जोर-शोर से उछाली गई ʻसूचना-समाजʼ की अवधारणा ने राष्ट्र-राज्य के अस्तित्व पर गंभीर प्रश्न चिन्ह लगाया। यह सवाल उठा कि सूचना के वैश्विक तंत्र के सामने राष्ट्र –राज्य का क्या अस्तित्व रह जाता है? कुछ देशों ने इसका प्रत्युत्तर सूचना उद्योग के क्षेत्र में देशी कंपनियों को बढ़ावा देकर करने की कोशिश की। सन् सत्तर तक सूचना के नियमन और डिरेगुलेशन की बातें आम नहीं हुई थीं। इसी क्रम में जापानी माध्यम सिद्धांतकार योनेजी मसूदा का नाम उल्लेखनीय है। मसूदा उत्तर औद्योगिक समाज के सूचनासमाज में मशीनों के आधार पर बदलने की बात करता है। वह औद्योगिक क्रांति की तुलना में कंप्यूटर क्रांति को ज्यादा महत्वपूर्ण मानता है। भाप के इंजन से आरंभ होनेवाली औद्योगिक क्रांति का लक्ष्य मनुष्य के प्रत्यक्ष शारीरिक श्रम को कम करना और उसका विस्तार करना था जबकि कंप्यूटर पर आधारित सूचनाक्रांति का काम मनुष्य के मानसिक श्रम को कम करना और उसका विस्तार करना है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों की यह विशेषता रही कि वे अपने तकनीक के निर्माण की जानकारी नहीं बेचतीं, तकनीक बेचा करती हैं। ऐसे में मसूदा और अन्य भविष्यवादी माध्यम विशेषज्ञों की राय कि तकनीक आधारित सूचना क्रांति एक समान ज्ञान का भी निर्माण करेगी दूर की बात थी जब तक कि इस क्षेत्र में विभिन्न देशों द्वारा आत्मनिर्भरता न हासिल कर ली जाए। तकनीक के क्षेत्र में अमेरिकी कंपनियों पर निर्भरता कम करने और देशी तकनीक विकसित करने के क्रम में दुनिया के देशों को आई बी एम कंपनी का भारत के साथ किया गया व्यवहार उत्प्रेरक बना। आई बी एम ने अचानक भारत से निकल जाने का निर्णय लिया और अपनी पूंजी में से कुछ भी देने से इंकार किया।
इस घटना ने तकनीकी स्वनिर्भरता के लिए न केवल भारत को बल्कि अन्य निर्भर देशों को भी उत्प्रेरित किया। अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों पर तकनीक के हस्तांतरण के लिए दबाव बनाने के लिए इसे व्यापार समझौते का हिस्सा बनाया गया। जापान, भारत, ब्राजील आदि देशों का जोर तकनीकी क्षेत्रों में देशीकरण की तरफ बढ़ता गया। 80-90 के दशक में कंप्यूटर के बढ़ते प्रयोग को बेरोजगारी का बड़ा कारण बताया गया साथ ही सार्वभौमिकता की रक्षा के लिए अपने डाटा बैंक के निर्माण पर जोर दिया गया। कल्याणकारी राज्य के लिए कहा गया कि सार्वजनिक सेवा की भावना सामने होनी चाहिए और सार्वजनिक अधिकारियों की देख रेख में नेटवर्क के स्तरीकरण, सैटेलाइटों के लॉन्च करने से लेकर डाटा बैंक के निर्माण तक की कार्रवाइयों को अंजाम देना चाहिए। केवल ये ही समाज के मौलिक ढांचे को आधार प्रदान कर विकास का नया मॉडल दे सकती है। सन् 80 के दशक में फ्रांस ने ʻसूचना के मुक्त प्रवाहʼ की अमेरिकी एकाधिकारवादी नीति का पुरजोर विरोध किया।
आठवें दशक में विकसित देशों के विशेषकर अमेरिका की अंतरिक्ष पर अधिकार करने के उद्देश्य से सैटेलाइटों के जरिए की जा रही नज़रदारी के लिए ʻसामाजिक जरूरतʼ का नारा विकसित किया गया। इन विकसित देशों के अंतरिक्ष अभियानों का उद्देश्य जनकल्याण के लिए और बहुत-सी मानवीय जरूरतों का हल, संचार के जरिए निकालने की बात की गई। जबकि यह अंतरिक्ष पर प्रभुत्व और एकाधिकार के लिए था ताकि ताक़त का प्रदर्शन किया सके। लेकिन हर अंतरिक्ष अभियान का लक्ष्य मनुष्य की जरूरतों, विशेषकर शिक्षा, जनस्वास्थ्य, क़ानूनी सूचनाएं और डाकसेवाओं आदि के क्षेत्र में को पूरा करना बताया गया। यह वही समय है जब शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक दूरस्थ सेवाओं का महत्व बहुत तेजी से बढ़ा।
ज्ञान के क्षेत्र में दूरस्थ शिक्षा व्यवस्था का उद्धेश्य बहुत साफ था कि नागरिकों की एक लचीली जमात पैदा की जाए जिसकी जरूरत 21वीं सदी की पूंजीवादी व्यवस्था को पड़ेगी। मनोरंजन से लेकर तकनीक तक की खपत के लिए एक बड़े बाजार की जरूरत भी इससे पूरी होती दिख रही थी।
ज्ञान के क्षेत्र में दूरस्थ शिक्षा व्यवस्था का उद्धेश्य बहुत साफ था कि नागरिकों की एक लचीली जमात पैदा की जाए जिसकी जरूरत 21वीं सदी की पूंजीवादी व्यवस्था को पड़ेगी। मनोरंजन से लेकर तकनीक तक की खपत के लिए एक बड़े बाजार की जरूरत भी इससे पूरी होती दिख रही थी। शिक्षा के क्षेत्र में जिस ʻडिस्टेंस एजुकेशनʼ और ʻई-लर्निंगʼ की बात भारत में जोरों पर हैं उसका उद्देश्य विश्वविद्यालयी शिक्षा व्यवस्था की कमियों को उजागर कर उसे दुरुस्त करना नहीं था बल्कि इस संस्था तक पहुंच के अधिकार को सीमित करना था ! कारण था बढ़ती बेरोजगारी। रोजगार के उत्पादक क्षेत्रों में कमी। रोजगार केवल सेवा क्षेत्रों में दिखाई दे रहे थे। उसी अनुसार शिक्षा का नया ढ़ांचा तैयार किया जा रहा था। इस क्रम में किसी भी किस्म की गंभीर गवेषणा का निषेध भी शामिल था।
अमेरिका में बड़ी संचार कंपनियों के खिलाफ 80 के दशक में कई आपराधिक मामले सामने आए और उन पर मुकदमें भी चले। इनमें एटी एण्ड टी तथा आई बी एम जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां शामिल हैं। लेकिन इन मुकदमों का कोई गंभीर नतीजा निकलकर सामने नहीं आया। अमेरिकी प्रशासन ने इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में फैसला सुनाया। संचार के क्षेत्र में नियमन की प्रक्रिया केवल एक दिखावा बन कर रह गई। भारत के संदर्भ में बात करें तो 21वी सदी के आरंभिक दशक में रिलायंस नेटवर्क के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय कॉलों में धोखाधड़ी का मामला सामने आया पर नियमन की कोई गंभीर कार्रवाई नहीं की गई। अभी 2जी और 3जी वायु तरंगों में घोटाले के मामले में भ्रष्टाचार और अनियमितता के मामले में वर्तमान सरकार में शामिल कई पार्टियां और मंत्री आरोपों के घेरे में हैं।
सूचना के गैर आनुपातिक प्रवाह के अध्ययन के युनेस्को द्वारा किए गए प्रयासों में सीन मैकब्राइड की अध्यक्षता में संपन्न अध्ययन विशेष तौर पर उलेलेखनीय है। सन् 1980 में प्रकाशित इस रिपोर्ट में सूचना संबंधों के छद्म का उद्घाटन किया गया। इस संबंध में अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों ने इस बात की अनदेखी करने की कोशिश की कि सूचना के संबंधों में विकसित और अविकसित देशों के बीच गैर-बराबरी का संबंध का कारण केवल तकनीकी पिछड़ापन नहीं बल्कि राजनीति है। तकनीक उसका एक हिस्सा मात्र है। सन् 1970-75 के बाद से सूचना समाज की अवधारणा ने अपनी जगह बनानी शुरू की। सूचना समाज की अवधारणा का प्रसार तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए करने की बात थी। इनमें पहला कि कैसे सूचना के प्रवाह को मनुष्य की बेहतरी के लिए बढ़ाया जा सकता है जिसमें कि व्यक्तिगत निजता, संपत्ति के आंकड़े और राष्ट्रीय सुरक्षा का अतिक्रमण न हो? दूसरी और तीसरी दुनिया के देशों की अपने-अपने समाजों में सूचना के उत्पादन केन्द्रों के नियंत्रण की नीति और इच्छा को विश्व स्तर पर सूचना के मुक्त प्रवाह की हिमायत करते हुए इसमें कैसे जगह दी जाए? कैसे अमेरिका की सरकार हमारी सुरक्षा, संस्कृति और आर्थिक हितों को बचाए रखते हुए, जरुरतों को पूरा करने में और विकासशील देशों का सहयोग पाने में सक्षम हो सकेगी ? इसी क्रम में व्यक्तिगत सूचनाओं के आंकड़ों की गोपनीयता का सवाल यूरोपीय काउंसिल द्वारा उठाया गया। इस मुद्दे पर यूरोपीय काउंसिल और अमेरिका की नीतियों में मतभेद सामने आया। अमेरिका इसे ग्लोबल बाजार के लिए अहितकर मान रहा था। रेडियो फ्रीक्वेंसी के पुनर्वितरण का मामला भी इसी प्रक्रिया में सामने आया।
इन मतभेदों से साफ जाहिर हो गया कि नई तकनीक को लागू करने में कितनी जटिलताएँ हैं। दूरसंचार के क्षेत्र में किसी भी प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय नियमन के अभाव ने समस्या को और गंभीर बनाया। सूचना के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में डब्ल्यू टी ओ और गेट की भूमिका महत्वपूर्ण थी। ध्यान रहे कि सन् 2000 तक गेट में शामिल 135 देशों में आधे से ज्यादा ने इस पर दस्तख़त नहीं किए थे! इसमें दस्तख़त करनेवाले देशों में से भी कुछ ने बहुराष्ट्रीय संचार कंपनियों की गतिविधियों और भागीदारी पर अपने देश में सीलिंग लगाने के अधिकार को सुरक्षित रखा था। मेतलार्द ने बड़े विस्तार से बताया है कि कैसे बढ़ती अंतर्राष्ट्रीय सूचना बाजार के मुद्दे बदले और केवल टेलीफ़ोन सेवाओं से आगे बढ़कर ये सूचनाओं के आंकड़ों की अदला-बदली में तब्दील हो गए। अभी हालत यह है कि इंटरनेट पर दी गई कोई भी सूचना गोपनीय नहीं है। मीडिया के क्षेत्र में कॉन्टेंट प्रोवाइडर और नेटवर्क प्रोवाइडर कंपनियों की एक-दूसरे के साथ परस्परता अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर नियंत्रण के साझे हित के लिए बढ़ रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा माध्यम के क्षेत्र में सक्रिय अन्य छोटी और स्थानीय कंपनियों का अधिग्रहण बढ़ता ही गया है। अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अंतर्वस्तु के निर्माण से लेकर वितरण तक की प्रक्रिया पर अधिकार की लालसा ने अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में जल्दी ही केवल कुछ नामों को रहने दिया। यह इजारेदारी की स्थिति है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में अमेरिकी सरकार की नीति थी कि ई-कॉमर्स को डिजिटल व्यापार के लिए वैश्विक प्रतिस्पर्धा और उपभोक्ता की पसंद पर छोड़ देना चाहिए।
सन् 1986 में हुए गेट-सम्मेलन में संस्कृति और संचार को ʻसेवाʼ क्षेत्र में रखा गया। ʻसांस्कृतिक विविधताʼ का सिद्धांत और बहुराष्ट्रीय संचार कंपनियों की विश्व में जन-जन तक पहुंचने की आकांक्षा पर फ्रांस ने लगाम कसा। फ्रांस ने सांस्कृतिक क्षेत्र में ʻसार्वजनिक नियमनʼ की वकालत की। नियमन की जगह विनियमन को लागू करने की बहुराष्ट्रीय संचार कंपनियों की कवायद से बौद्धिक संपदा क़ानून भी नहीं बचा। इस क़ानून की आत्मा यह धारणा थी कि लेखक का अपनी रचना पर एकांत अधिकार है और यह अधिकार उसके मरने के सत्तर साल बाद तक रहता है लेकिन इंटरनेट और अन्य सेवाओं के आने से यह ख़तरा पैदा हुआ कि धन की एवज में लेखक से उसकी रचना लेकर मुक्त प्रवाह या डिरेगुलेशन के नाम पर उसे किसी भी रूप में विकृत किया जा सकता है। यूरोपीय संघ ने इस ख़तरे को भांपते हुए कॉपीराइट एक्ट के अंतर्गत रचना पर लेखक के नैतिक अधिकार को सुरक्षित माना और अन्य सुरक्षात्मक क़दम उठाए।
सूचना समाज को ज्ञान समाज में बदलने की कोशिशें भी इस दौर में तेज होती दिखाई दीं। ज्ञान समाज की निर्भरता विशेषज्ञों दल और तकनीकी नियतिवाद पर थी। यह साफ हो गया था कि अब वर्चस्व का खेल सूचना नेटवर्क के अखाड़े में खेला जाएगा। इस खेल में अमेरिका की रुचि और बढ़त स्पष्ट थी क्योंकि उसके पास सूचना को प्राप्त करने, उस पर काम करने, उसका निर्माण करने और फैलाने की क्षमता अधिक है। इसी क्रम में ʻनेटवारʼ और ʻसाइबरवारʼ जैसे नए पदबंधों का जन्म हुआ जिसने राजनीतिक क्रांति, सैन्य क्रांति और क्रांति के अन्य पदबंधों का आभासीय प्रबंधन करके ज्ञान समाज का ढांचा तैयार किया। 90 के दशक के बाद के अंतर्राष्टीय विवादों और युद्धों में इस आभासीय प्रबंधन और अमेरिकी दबदबे की प्रमुख भूमिका रही है। सन् 2011 में मिश्र, येमन, कांगो, ट्यूनेशिया और अभी लीबिया में नाटो और अमेरिका की भूमिका को देखा जा सकता है। मेतलार्द ने युगोस्लाविया और उसके बाद के खाड़ी युद्ध के समय में नाटो की भूमिका की आलोचना करते हुए कहा कि नाटो ʻसैन्य कार्रवाइयों को स्वयं ही तय करनेवाला एक कृत्रिम स्वायत्त संस्थाʼ की भूमिका में था। इधर की ʻक्रांतियोंʼ की बात करें तो विभिन्न देशो में विशेषकर लीबिया के संदर्भ में नाटो की इसी भूमिका की पुष्टि होती है। मैतेलार्द ने नेटवार और साइबरवार द्वारा संचालित क्रांतियों के छद्म पर एक दशक पहले टिप्पणी की थी पर आज के समय में हम उसके सत्य की परीक्षा कर सकते हैं।
साइबर संसार किसी भी किस्म की सामाजिकता और जवाबदेही से मुक्त बंधनहीन संसार है
युद्ध की एक नई कोटि भी विकसित की गई। जिसकी अगुवाई सार्वजनिक मानवाधिकार के नाम पर ʻनैतिक युद्धʼ के से की गई। लेकिन एक बात निर्विवाद रूप से सच है कि ʻअमेरिकी राष्ट्रीय हितʼ की सुरक्षा का सवाल किसी भी राजनीतिक, सैन्य या नैतिक हित से ऊपर है। यह एक ऐसा बड़ा धर्म है जिसकी रक्षा के लिए छोटे धर्मों की बलि कभी भी दी जा सकती है। यह सब कुछ आर्थिक भूमण्डलीकरण की नीतियों के अनुरूप था और इसके प्रसार के लिए आक्रामक वैश्विक नीति की जरूरत थी। यह मुक्त बाजार का जनतंत्र मॉडल है। इस मुक्त बाजार के जनतंत्र मॉडल ने अपनी भाषा, अपने शब्द और अपनी अवधारणाओं का ईजाद किया। मसलन, ʻग्लोकलाइजेशनʼ, ʻइंटरमेस्टिकʼ, ʻप्रोज़्यूमरʼ आदि। इस नए उदार, सीमाहीन, तकनीक समाज की धड़कन था-- ʻज्ञानश्रमिकʼ। नया निर्मित यह साइबर संसार किसी भी किस्म की सामाजिकता और जवाबदेही से मुक्त बंधनहीन संसार है। इन ज्ञान श्रमिकों के उत्पादन का कारखाना नई शिक्षा व्यवस्था है जहां कुछ और सिखाने के पहले उसे निर्भर होकर कौशल हासिल करना सिखाया जाता है। जिसके लिए वह कौशल हासिल करता है उस समाज का कोई वास्तविक फीडबैक उसके पास नहीं होता जिसके आधार पर सांचे में ढल रहा यह ज्ञानश्रमिक अपने लिए स्वायत्ता की किसी संभावना को तलाश सके। बड़े- बड़े प्रशिक्षण संस्थाओं से निकले इन ज्ञानश्रमिकों को पर्दे के पीछे लक्ष्य दिया जाता है जिन्हें किसी भी तरह के कौशल से पूरा करने पर इनकी सफलता निर्भर करती है। लचीलापन, नजरदारी आदि पदबंधों से ये ज्ञानश्रमिक पूरी तरह परिचित होते हैं। अपने काम में अत्यधिक लचीले इन ज्ञानश्रमिकों को पता होता है कि जिस तकनीक के जरिए ये अपने काम को लचीला और गुणवत्तापूर्ण बना रहे हैं वही तकनीक इन पर नज़रदारी भी कर रही है। कहने का मतलब कि इस नए ज्ञानसमाज में नज़रदारी एक आम संवृत्ति है। वास्तव में यह मुक्त नहीं नियंत्रित समाज है।
इस मुक्त समाज का छद्म अमेरिका के ट्वीन टॉवर के ध्वस्त होने के साथ ही टूट गया जब सुरक्षा के प्रश्नों पर समझौता करते हुए अमेरिकी नागरिकों ने सैन्य एजेंसियों को वैध तौर पर अपनी जासूसी का हक़ दे दिया। साथ ही यह ऐसी घटना साबित हुई जिसने सीमाहीन विश्व के बजाए फिर से राष्ट्र की सीमाओं की अनिवार्यता पैदा की। राष्ट्र-राज्य का सवाल फिर से केन्द्र में आया। न्यूनतम राष्ट्रीय हस्तक्षेप, नियंत्रण के सवाल पर माध्यम प्रवक्ताओं द्वारा स्व-नियंत्रण की वकालत, राज्य के सेंसरशिप का खात्मा आदि के सवाल फिर से बहस का मुद्दा बने। माध्यम के क्षेत्र में ये बहस आतंकी गतिविधियों का निरंतर शिकार भारत जैसे देशों में प्रेस और माध्यमों की स्वायत्ता के संदर्भ में फिर से उठे। विशेषकर 26-11 की मुंबई के आतंकवादी हमले के कवरेज पर।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस बात का लगातार प्रचार किया कि संचार की सीमाहीनता एक स्वस्थ वातावरण पैदा करने में सहायक है। यह राष्ट्र-राज्य के हिंसक युद्धों के बजाए एक ऐसे संसार को जन्म देने में सक्षम है जहां कोई भी पक्ष हारनेवाला नहीं होगा। यह केवल प्रतिद्वन्द्विता का भाव पैदा करेगा और कुछ नहीं। यह युद्ध सूचना नेटवर्क का होगा। इस युद्ध में बराबरी का दर्जा हासिल करने की मात्र एक ही शर्त है कि नई सूचना और नई तकनीक बाजार में बिना किसी बाधा के प्रवेश पा सके ! इसके लिए किसी नियमन की जरूरत नहीं है बल्कि इसमें शामिल बहुराष्ट्रीय कंपनियां आत्मनियमन का पालन करें !
अभी के समय में भारत में हुए सबसे चर्चित स्पेक्ट्रम घोटाले का बुनियादी सच यह है कि अब इलैक्ट्रॉनिक स्पेक्ट्रम सार्वजिनक क्षेत्र में नहीं रहे बल्कि जिन लोगों ने इसकी फ्रीक्वेंसी खरीदी है वे इसके मालिक हैं और निर्देशित नीतियों के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा के लिए वे इसका नए नए रूपों में इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र हैं।
सूचना और संचार के वर्तमान परिदृश्य में जिन नीतियों की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वकालत हो रही है उसमें साफ तौर पर व्यक्ति, समाज और राज्य की भूमिका गौण हो जाती है। सूचना और संचार के ढांचे के निर्माण में राज्य की क्या भूमिका हो सकती है इस पर अब कोई बहस नहीं है। राज्य के नियमन को सूचना की अंतर्राष्ट्रीय स्पर्द्धा में विकास के लिए हानिकर मानकर केवल उपभोक्ता की पसंद-नापसंद की कसौटी पर छोड़ दिया गया। जो अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद के लगातार बढ़ते दवाब में महज एक छलावा है।
सूचना और संचार के जरिए समानता और विकास का दावा कितना खोखला है इसे कुछ सवालों के जरिए देखा जा सकता है। अगर हम भारत के किसी गांव में सूचना के साधनों के बंटवारे, उस पर अधिकार और उसके प्रयोग की पड़ताल करें तो चौंकानेवाले नतीजे सामने आएंगे। सूचना के कौन-कौन से संसाधन मौजूद हैं? टेलीफोन, रेडियो, टी वी, कंप्यूटर, इंटरनेट और मोबाइल में से कौन सा साधन कितनी मात्रा में उपलब्ध है, इनमें से किसी एक की सर्वाधिक उपलब्धता का कारण क्या है? कितने संसाधन पिछड़े, दलितों और औरतों के पास हैं और कितने तुलनात्मक तौर पर साधनसंपन्न लोगों के पास ? साधनसंपन्न लोगों के घरों में लड़कियों के पास कितने साधन और अवसर हैं? बिजली से चलनेवाले सूचना के उपकरणों का कितना उपयोग होता है और बैटरी से चलनेवाले का कितना ? शहरी मध्यवर्गीय परिवारों की स्थिति की पड़ताल भी इसी तरह की जा सकती है। यह देखना दिलचस्प होगा कि नेट का प्रयोक्ता कौन है ? गांव का अनपढ़ किसान, शहर का मजदूर या अंग्रेज़ी पढ़ा-लिखा शहरी लड़का ? टी वी का रिमोट किसके हाथ में होगा या लैपटॉप पर किसके अधिकार में होगा इस पर पति-पत्नी और भाई-बहन के झगड़े तो एक मज़ाक बन चुके हैं। यह साफ तौर पर ʻडिजिटल विभाजनʼ है। भारत सरकार ने हाल ही में इस डिजिटल विभाजन को कम करने के लिए अब ग़रीबों में मुफ़्त लैपटॉप दो वर्ष के लिए नेट कनेक्शन के साथ और मोबाइल कनेक्शन देने की योजना बना रही है।
अभी भी दुनिया की सबसे बड़ी आबादी जो अविकसित और विकासशील देशों में बसती है सूचना समाज की तमाम स्वायत्त और मुक्त नीतियों के बावजूद इसका हिस्सा नहीं है। गरीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव, बेरोजगारी यहां प्रमुख समस्याएं हैं। किसी भी तरह की ʻक्रांतिʼ अपने ʻनैतिक मानवीय अधिकारोंʼ की चेतना से महरूम हैं। इस संदर्भ में पूरी दुनिया में भारत की स्थिति और भी विचित्र है। यह अमेरिका के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा सॉफ्टवेयर निर्यातक देश है और सबसे ज़्यादा इंजीनियर यहां से निर्यात होते हैं। पर सूचना नेटवर्क में अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा में यह सन् 2011 में भी बहुत पीछे है। इसका सबसे बड़ा कारण है सूचना क्षेत्र में किए जा रहे शोधों पर अमेरिकी, चीनी और जापानी कंपनियों का नियंत्रण। चीन की हालत विशिष्ट है इसने अपने यहां विदेशी कंपनियों के प्रवेश के मार्ग को बाधित किया हुआ है और देशी कंपनियों को पुख़्ता कर रहा है ताकि मुक्त व्यापार के हमले के समय वे झटके झेल सकें।
इस सूचना समाज की सबसे बड़ी कमजोरी है कि यह सूचना दरिद्र की बात किसी भी रूप में नहीं करता। इसने लगातार ये दबाव बनाया कि स्वास्थ्य केन्द्रों और शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों के बजाए सूचना के उपकरणों पर खर्च किया जाए। कई बार ये उपकरण जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर के अभाव में यूं ही बेकार पड़े होते हैं और अपनी मौत मरते हैं।
ऐसा नहीं है कि सूचना समाज की नीतियां निर्विवादित तौर पर लागू कर दी जाती रहीं और इनका प्रतिरोध दर्ज नहीं हुआ। ʻगेट्सʼ के निर्माण के लिए सन् 2000 में अमेरिका के सिएटल में आयोजित सम्मेलन का विश्व श्रमिक संगठनों, गैर-सरकारी संस्थाओं और उपभोक्ता संगठनों द्वारा जबर्दस्त प्रतिरोध हुआ। इसके बाद से भूमण्डलीय समस्याओं पर हुई प्रत्येक बैठक का विरोध किया गया। इसी प्रक्रिया में ʻवर्ल्ड सोशल फोरमʼ का जन्म हुआ जिसका उद्देश्य भूमण्डलीकरण की नवउदारवादी नीतियों का विकल्प तैयार करना था। लेकिन अमेरिका पर नवंबर 2001 में हुए हमलों के बाद से आतंकवाद की एक लचीली परिभाषा तैयार की गई और किसी भी तरह के सामाजिक आंदोलन को कुचलने के लिए इसका सफलतापूर्वक इस्तेमाल होने लगा।
सूचना समाज के वर्तमान फ्रेमवर्क में ʻनागरिक समाजʼ (यह पदबंध भारत में चल रहे ʻअन्ना के आंदोलनʼ के संदर्भ में भारतीय मीडिया का लोकप्रिय पदबंध बनकर उभरा है) पदबंध अप्रासांगिक है। अब सार्वजनीन नागरिक समाज की बात होनी चाहिए। लेकिन ट्यूनेशिया, मिश्र, ग्रीक, येमन, लीबिया में हुए तमाम जन आंदोलन फिर से राष्ट्र-राज्य के फ्रेमवर्क को अमेरिका द्वारा विवेचित ʻराष्ट्रीय हित की सुरक्षाʼ से अलग फ्रेमवर्क में सामने ले आते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अविकसित और विकासशील देशों को जिस आधुनिक मॉडल में ढालने की बात की जा रही है वह आधुनिकता का पश्चिमी मॉडल है। बर्बर युद्धों, नस्लवादी व्यवहारों और मंदी के बड़े झटकों के बाद भी अगर आधुनिकता का यह मॉडल सफलता का दावा करता है तो यह हास्यास्पद ही कहा जाएगा।
सूचना समाज के प्रबंधकों को यह मुगालता है कि वे पूरी दुनिया को नेटवर्क के जरिए जोड़ने की पहलक़दमी कर रहे हैं पर यह कोई नई बात नहीं बल्कि पहले से जारी एक प्रक्रिया है। मेतलार्द की निग़ाह में सूचना-समाज की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें किसी भी तरह का आलोचनात्मक रवैय्या शामिल नहीं है। इसमें एक खास तरह का अज्ञानतावाद है। विशेषकर शैक्षणिक विचारों के इतिहास के प्रति जो किसी भी क़िस्म की मल्टी-मीडिया तकनीक के अस्तित्व में आने के बहुत पहले से मौजूद है। मेतलार्द ने सूचना-समाज की इस दशा को ʻसूचना का नव डार्विनवादʼ कहा है। “केवल यही नहीं कि इसमें आलोचनात्मक नजरिया ग़ायब है बल्कि साधारण बौद्धिक जिज्ञासा का भी अभाव है।”
इसका सामना करने का तरीका यह है कि तकनीक की नई अवधारणा विकसित की जाए। तकनीक का विकास हमेशा ज्ञान-विज्ञान, कला और शिक्षा, संस्कृति और सामाजिक जरूरतों के नए-नए रूपों के विकास और अंतर्क्रिया के द्वारा होती है। शैक्षणिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रूपों में अंतर्क्रिया के अनंत क्षेत्र हैं जिन पर जोर देकर हम तकनीक के जनतांत्रिक रूपों को विकास कर सकते हैं। इसमें गति होगी पर समय और समाज की जरूरतों के मेल में। विकास के अन्य पिछड़ते हुए घटकों को साथ लेकर आगे बढ़नेवाली गति। ये गति नव-फोर्डवादी गति से भिन्न होगी जो दौड़ में पीछे छूटनेवालों को रौंदती हुई आगे बढ़ती है। तकनीक का जनतांत्रिकीकरण और वैयक्तिक समाजों का विश्व मानव समुदायों के साथ एकता के सर्वोच्च रूप को हासिल कर पाना आज के समाज की सबसे बड़ी जरूरत है। तकनीकी नियतिवाद उर्फ तुम भविष्य को नहीं बदल सकते की धारणा को पलटने का यह एक संभव तरीक़ा हो सकता है।
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