गोश-ए-नेमत और बूढ़ा - तेजिन्दर | Travel-memoir of Pakistan - Tejinder


संस्मरण... साहित्य की महत्वपूर्ण और ज़रूरी (दस्तावेज़ी तौर पर तो हर हाल में) विधा ।  लेकिन, अख़बारों और पत्रिकाओं में छपने वाले संस्मरण आजकल कम पढ़े जाते हैं, कारण उनके लेखन का ढर्रा होता है... ढर्रा कुछ ऐसा जैसे कि किसी मासिक पत्रिका का पर्यटन-विशेषांक हो, आगे आप पाठक समझ रहे होंगे कि क्या कहना चाह रहा हूँ । अब जब कोई लेखन पढ़ा ही नहीं जा रहा हो तब उसकी चर्चा कहाँ होगी और क्यों होगी ? इसी बीच हंस अप्रैल 2015 का अंक हाथों में है अभी-अभी गोश-ए-नेमत पढ़ा है, रोम-रोम यों व्यवहार कर रहा है जैसे लेखक नहीं बल्कि खुद अपने साथ घटी कोई  हांड कंपाने वाली घटना पढ़ ली हो । और तेजिन्दर साहब ने ऐसा जीवित संस्मरण लिखा है कि ये होता है  कि - उनको रोक लूं, उठ के जाने से जब रेस्तरां में पाकिस्तानी छात्र उन्हें अपनी टेबल पर साथ बैठने को बुला रहे हैं । बहरहाल अगले दिन उनको फ़ोन किया, बधाई दी और आग्रह किया भेजने का ताकि आप भी पढ़ सकें और संस्मरण कैसे लिखा जाता है...

शुक्रिया तेजिन्दर जी।

आपका 
भरत तिवारी   
"तो फिर समझ लो कि हिन्दुस्तान में तुम्हारे और यहां मेरे जैसे लोगों के लिये बुरे दिन आने वाले हैं" 
- किश्वर नाहीद ने कहा था ! 

गोश-ए-नेमत और बूढ़ा

तेजिन्दर

मेरी पाकिस्तान यात्रा-संस्मरण

उस बूढ़े आदमी का चेहरा आज तक मेरे भीतर धंसा हुआ है । करीब बाईस साल पहले मैंने उसे देखा था । कई बार मुझे भ्रम होता है कि मैं अपने आस-पास फैले संसार को उस की आंखों से देख रहा हूं । आखिर ऐसा क्या था उस के चेहरे की करीनेदार झुर्रियों में जिसकी सलवटें उस के सिर पर पहनी क्रोशिए की सफेद टोपी के साथ मिलती-जुलती थीं । मैं उसे कब से जानता था ? या फिर यह कि मैं उसे कब से नहीं जानता था, पता नहीं । लाहौर का अनारकली बाज़ार । कुछ बाज़ार ऐसे होते हैं जो आप के साथ बहुत तमीज़ से पेश आते हैं और बाकी तो सिर्फ बाज़ार ही होते हैं । वह बूढ़ा होटल ‘‘गोश-ए-नेमत’’ के सामने, सड़क के दूसरे छोर पर ठेला लगा कर मुर्गे का सूप बेच रहा था । एक बाऊल सूप की कीमत पांच रूपये । एक उबला हुआ अंडा उस में डलवा दिया जाये तो एक रूपया ज़्यादा । यानि कि छैः रूपये । ऐसा गत्ते की एक तख्ती पर हाथ से लिखा हुआ था-उर्दु में । वह अंडे पहले से छील कर नहीं रखता था बल्कि ग्राहक की मांग पर तुरंत ही छील देता और हल्के भूरे रंग के सूप में डूबो देता । उस के बूढ़े हाथ इस काम में सिद्धहस्त थे । मैं चुपचाप उस के पास गया और वहां रखी लकड़ी की एक बेंच पर बैठ गया । आस-पास से गुज़रते हुये लोग मुझे देख कर ठिठकते, एक क्षण के लिये मुझे घूरते और फिर आगे बढ़ जाते । मेरी इच्छा थी कि मैं उस बूढ़े आदमी की तरफ देखता रहूं लेकिन लाहौर में यह कोई आसान काम नहीं था । सिर पर पगड़ी पहने कोई सिक्ख, इस तरह एक बूढ़े मुसलमान को घूरता रहे, यह कैसे हो सकता था । बूढ़ा आदमी भी मुझे देख कर सहज नहीं था । उस की आंखों में खुशी थी जैसे किसी बच्चे को कई साल के बाद देखा हो और उस पर प्यार आ रहा हो । उस ने सफेद रंग का पठान सूट पहना था जो कि काफी हद तक मैला हो चुका था या कहें कि उस का रंग सूप की रंगत में ढल चुका था । पर उस में किसी तरह की गंध नहीं थी । एक साफ सुथरे मनुष्य की सोंधी महक जो आप को गर्माहट पहुंचा रही हो । मनुष्य के ताप की यह एक सादा इबारत थी, जिस ने मुझे उस के साथ जोड़ दिया था ।

‘‘देखो जी लोग खाणा खांदे ने गोश-ए-नेमत विच पर सूप मेरे कोलों पींदे ने’’- बूढ़े ने मुझ से कहा था । उस के कहने के अंदाज़ में किसी तरह का अहंकार नहीं था पर आंतरिक संतुष्टि की एक लय थी, जो शायद उस के जीने की वजह थी ।

‘‘पर सरदार जी मैं तुहाडे कोलों अंडे दे पैसे नहीं लवांगा’’- बूढ़े ने मेरी तरफ देखते हुये कहा था । मैं मुस्कुरा पड़ा । ‘‘क्योंकि तुसीं साडे मेहमान हो’’ । उसने बात पूरी की ।

‘‘ते फिर मेहमान नूं सूप नहीं पिलाओगे’’- मैंने छेड़ दिया । ज्यों वे मेरे सगे चाचा या ताऊ लगते हों ।

एकाएक उन की आंखें नम् हो आई । जैसे उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया हो या कि क्या वे सचमुच मेरे कुछ लगते थे ? उन्होंने एक बाऊल में सूप भरा और फिर उस में दो उबले हुये अंडे डालकर मुझ तक ले आये । वे जैसे थोड़ी देर पहले कही गई अपनी बात को भुला देना चाहते थे । उन्हें उस के लिये शब्द नहीं मिल रहे थे हालांकि उन के चेहरे पर उन शब्दों को पढ़ा जा सकता था ।

‘‘पर बाबा इतना सूप मैं पी लूंगा तो खाना कैसे खा सकूंगा’’- मैं सचमुच उस बाऊल का आकार और उस में पड़े दो उबले अंडे देख कर सांसत में था ।

‘‘ओ यार सरदार ते पठान खाण तो डरदे नहीं’’- उन के अंदर अपने पठान होने का गर्व था जिस में उन्होंने मुझे भी शामिल कर लिया था । अपनी जाति के प्रति इस तरह के किसी गर्व में मेरा यकीन नहीं था पर मैंने उन की बात का कोई जवाब नहीं दिया था । मैंने चुपचाप लकड़ी के बेंच से उठ कर उन के ठेले से एक खाली बाऊल उठाया और एक अंडा और आधा बाऊल सूप उस में खाली कर दिया ।

वे मुस्कुरा पड़े । उन्होंने मुझे रोका नहीं ।

मेरे लिये एक ऐसे शहर की कल्पना भयावह थी जहां सारे के सारे एक ही मज़हब को मानने वाले लोग रहते हों ।

बैगनी रंग का पठानी सूट पहने एक लड़का जिसकी उम्र यही कोई तेईस-चैबीस वर्ष होगी और जो यह सब देख सुन रहा था, एकाएक ऊंची आवाज़ में बोला-‘‘इतना कम खाते हो तभी तो खलिस्तान नहीं बना सके’’

मैं अपनी जगह पर गिरते-गिरते बचा । बूढ़े का चेहरा भी उदास हो आया । उदासी उन के चेहरे पर राख की तरह फैल आई । मैं उस लड़के के चेहरे पर अपने हाथ में पकड़ा सूप का बाऊल फेंक देना चाहता था पर मैं ऐसा नहीं कर सका ।

मेयो स्कूल ऑफ़ आर्ट्स, लाहौर
मैं लगातार इस एहसास से मुक्त नहीं हो पा रहा था कि मैं एक ‘‘दुश्मन’’ देश की ज़मीन पर नितान्त अकेला हूं । वह देश जो कभी मेरी मां और मेरे पिता का हुआ करता था । वह देश जहां मेरे पुरखे रहते थे । वह अनारकली बाज़ार जिसके किस्से मैंने होश सम्हालते ही मां से सुने और आज तक मेरे कानों में जिन की आवाज़ है । मैं अपने माता-पिता की स्मृति में इस शहर में अकेला था । पर मैने हिम्मत बटोरी । मै उठा और सामने होटल ‘‘गोश-ए-नेमत’’ के अंदर चला गया । होटल में बैठे तमाम लोग भी मेरी ओर देखने लगे । उन की परवाह किये बगैर मैं चुपचाप मैं एक मेज़ और कुर्सी जो कि खाली थे वहां जा कर बैठ गया । सामने दस-बारह लड़कों का एक झुंड था । वे शायद कालेज में पढ़ने वाले लड़के थे जो आपस में हंस खेल रहे थे । वे सब भी मेरी ओर ही देखने लगे । अचानक उन में एक लड़का उठा और मेरे पास तक आ गया । मैंने उसे देख कर मुस्कुराने की कोशिश की पर मैं ऐसा कर नहीं सका ।

‘‘जनाब आप यहां अकेले बैठे हैं, आयें हमारे साथ आ जायें’’-उसने कहा । मैंने महसूस किया कि उस के कहने में किसी तरह की शरारत नहीं थी, बल्कि संजीदगी थी ।

‘‘नहीं मैं यहां ठीक हूं’’-मैंने कहा । मैं अभी तक अपने अंदर छिपे भय से मुक्त नहीं हो पा रहा था ।

अंधेरा मेरे भीतर एक कोने में घना हो कर ठहर गया था ।

‘‘देखिये हम चाहते हैं कि आप के साथ पंजाब पर कुछ बात करें, हम सब कालेज में पढ़ते हैं और हमें फस्र्ट हैंड इन्फार्मेशन नहीं मिलती’’-उस ने कहा ।

मैंने उस की बात पर भरोसा किया और अपनी जगह से उठ कर उन के बीच जा कर बैठ गया । वह एक कठिन क्षण था । अनारकली बाज़ार के एक रेस्त्रां में दस से ज़यादा अजनबी लड़कों के बीच । मैंने अपने आप को असुरक्षित महसूस किया । क्या यह वही जगह थी जहां आज से करीब पचास साल पहले मेरी मां अनार का रस पी कर हंसती-खिलखिलाती थीं या जहां की सड़कों और गलियों में मेरे पिता साईकिल पर दसियों चक्क्र लगाया करते थे । जहां टांगे चलते थे और उन्हें चलाने वालों की मसखरियां हवा में गंूजा करती थीं ।

बात का सिलसिला मैंने ही शुरू किया था । ‘‘आप लोग कौन से कालेज में पढ़ते हैं ?’’

‘‘इस्लामिया करीमिया’’

‘‘क्या यह वही कालेज़ है जिस का नाम पहले एस.डी.कालेज हुआ करता था ?’’


‘‘हां वही सनातन धर्म कालेज हिन्दुओ का’’ - सामने बैठे एक लड़के ने बड़ी हिकारत के साथ थूक अंदर निगलते हुये कहा था ।


‘‘मेरे पिता वहीं पढ़ते थे, सन् सैंतालीस तक ’’- मैंने बताया था ।

‘‘वो पंडितों के कालेज में क्यों पढ़ते थे, उन्हें तो खालसा कालेज में जाना चाहिये था’’- उसी लड़के ने अपनी हिकारत में थोड़ा सा इज़ाफा करते हुये कहा था ।

‘‘दरअसल बात यह है कि मेरे दादा हिंदू थे’’ - मैंने सफाई दी थी ।

‘‘आप पहले यह तय कर लो कि आप हिंदू हो या सिक्ख.......’’ वही लड़का लगभग बदतमीज़ी पर उतर आया था ।

मैं चुप रहा । थोड़ी देर तक वे सब भी चुप रहे । इस दौरान उन्होंने खाने का आर्डर दे दिया । मुझ से बिना पूछे ही । मटन रोगन जोश, कबाब, बिरियानी और नान ।

‘‘आप खालिस्तान में बारे में क्या सोचते हैं ?’’- एक और लड़के ने जिस के चेहरे से इस्लाम टपक रहा था ने लगभग चीख कर पूछा । एक सीधा सवाल । मुझे याद नहीं कि मैं सुबह से कितनी बार अपने भीतर गिरते-गिरते बचा था ।

फिलहाल तो मैं जैसे सेना के किसी ट्रायल कोर्ट के सामने बैठा था वहां मेरी पेशी हो रही थी । हो सकता था कि थोड़ी देर में वे मुझे अपराधी घोषित कर दें ।

‘‘मैं कुछ नहीं सोचता’’-मैंने किसी तरह हाथों से छूटती हुई ताकत को बटोरा ।

‘‘तो फिर आप ईस्ट पाकिस्तान के बारे में भी कुछ नहीं सोचते होंगे’’-उस लड़के ने अपनी जगह से एक चम्मच मेरी तरफ फेंकी । चम्मच मुझे लगी नहीं । लकड़ी की उस मेज़ से टकरा कर टन् टन् करती नीचे फर्श पर जा गिरी ।

‘‘आप ठीक कह रहे हैं मैं बांग्लादेश के बारे में भी कुछ नहीं सोचता’’- मैने कुछ दृढ़ता के साथ कहा ।

‘‘पता है तुम लोगों की वजह से हमें उस डरपोक बंगाली कौम से हारना पड़ा ?’’- एक ने कहा ।

‘‘हो सकता है आप ठीक कह रहे हों, पर मैं नहीं जानता’’- मैंने एक फिर कहा । मैं नहीं चाहता था कि मैं उन के बीच डरा हुआ या सहमा कुचला सा नज़र आऊं । मेरे पास वैधानिक वीज़ा था और मैं सरकार में एक राजपत्रित अधिकारी था । यह मेरे लिये बहुत बड़ा संबल था ।

‘‘कल अगर खालिस्तान बन गया तो क्या आप उस में जायेंगे सरदार जी’’- उसी लड़के ने फिर पूछा । उस के बात करने के लहजे में एक तरह की गुंडई थी ।

‘‘इस सवाल के कोई मायने नहीं है’’- मैंने कहा ।

‘‘हमें मायने मत समझाओ, जो हम पूछ रहे हैं उस सीधा जवाब दो’’- वह लड़का जैसा सचमुच कोर्ट-मार्शल की भाषा बोलने लगा था ।

‘‘नहीं’’- मैने दृढ़तापूर्वक कहा ।

‘‘क्यों ?’’

‘‘क्योंकि मेरा घर छत्तीसगढ़ में है ‘’

‘‘ कौन सा गढ़ ?’’ - उस लड़के ने चिढ़ते हुये कहा ।

‘‘छत्तीसगढ़ हिन्दुस्तान के सेंटर में है ‘’- मैंने समझाया ।

‘‘ये चंडीगढ़ के पास नहीं है’’- उस ने पूछा ।

वे तमाम लोग ऊंची आवाज में हंस पड़े । उन की हंसी में थोथे गर्व और मूर्खता की दुर्गन्ध थी । वे उस जगह के बारे में कुछ नहीं जानते थे जहां से मैं आया था । वे सिर्फ मेरे सिर पर पगड़ी थी या चेहरे पर दाढ़ी उसे पहचानते थे ।

‘‘मज़ाक मत करो, एह छती गढ़ क्या होता है ? क्या कोई सैंती गढ़ भी है ‘’। एक ठहाका और । मैंने अपने आप को बुरी तरह घायल महसूस किया, जैसे जिस्म का पोर-पोर ज़ख्मी हो गया हो । मेरी हड्डियां तक चटखने लगी थीं ।

‘‘क्या वहां हिंदू ही रहते हैं या मुसलमान भी ......... ‘’ ?

‘‘वहां सभी लोग रहते हैं और शान ओ शौकत के साथ रहते हैं, पर............ ’’ मैं कुछ कहते-कहते रूक गया था ।

‘‘बोलिये सरदार जी, पर क्या ........... ‘’

‘‘पर बेसिकली छत्तीसगढ़ बिलांग्स टू ट्राईबल्स’’- मैंने बात पूरी की थी ।

अनारकली बाज़ार
थोड़ी देर के लिये वहां सन्नाटा खिंच गया था । उन्हें जैसे मेरी बात समझ में नहीं आई थी । उन के लिये हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, यहूदी के बाद दुनिया खत्म हो जाती थी । यहां तक कि वे अपने देश के बलूचिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के बारे में भी कुछ खास नहीं जानते थे । बस लाहौर, रावलपिंडी, पेशावर और कराची । कुल जमा यह उनकी दुनियां थी ।

‘‘तो सीधे कहिये न कि आप जंगली है ‘’- एक ने कहा था ।

‘‘ हां अगर आप आदिवासी का मतलब जंगली समझते हैं, तो मैं हूं’’- मैं अपनी बात पर दृढ़ था ।

‘‘अच्छा छड्डो जी यह बताओ कि भिंडरावाले किधर है ‘’?

‘‘मुझे क्या पता, मेरी जानकारी में तो वह मारा जा चुका है, आठ साल पहले’’- मैंने सख्ती से कहा था ।

‘‘यार तुम लोगों को इतनी मार पड़ी है चैरासी में इन पंडितो से, फिर भी उन्हीं के साथ चंबड़े हुये हो ‘’- एक लड़का अपनी जगह से उठ कर मेरे पास तक आ गया था । उस ने मेरे कंधे पर अपना हाथ रख दिया था, मैंने धीरे से उस का हाथ हटा दिया था और कहा था कि - ‘‘मैने बताया न कि मेरे दादा हिंदू थे ‘’

‘‘ ते फेर तुसीं क्रास-ब्रीड हो’’- उस ने कहा । गोश-ए-नेमत होटल जैसे एक प्रेक्षागृह में बदल गया था, जिस में मैं मंच पर एक जोकर की तरह था और वे बार-बार मेरा मज़ाक बना रहे थे । दर्शक हंस रहे थे, वे खुश थे ।

‘‘अगर आप लोगों ने इस सब-कांटिनेंट का इतिहास ठीक से पढ़ा हो तो पायेंगे कि हिन्दुओं को छोड़कर आप सब भी वही हैं ‘’- मैंने हिम्मत बटोरी थी और इस बात का ध्यान रखा था कि ‘‘क्रास-बीड’’ जैसे शब्द का इस्तेमाल न करूं, हांलाकि मेरा आशय वही था ।

एक तरह की अराजक चुप्पी वहां फैल गई थी । वे सब एकाएक कुछ बोल नहीं सके थे । हांलाकि उन्हें सहम जाना चाहिये था । उस के बाद सब ने खाना खाया था ।

मैं उन के बीच से उठ कर होटल से बाहर निकल आया था । किसी ने मुझे रोका नहीं था पर वे आपस में कुछ खुसर-पुसर करते रहे थे । एक लड़के ने पीछे से मुझे ऊंची आवाज़ में एक भद्दी गाली दी थी ।

बाहर बूढ़ा आदमी अभी भी अपने बड़े पतीले में जो कि पीतल का था, में कड़छुल चला रहा था । कुछ अंडे उस के ठेले पर अभी बचे पड़े थे ।

वहीं एक आटोवाला खड़ा था । खाली ।

मैने उस के पास जा कर कहा था - ‘‘पर्ल कांटिनेंटल होटल, माडल टाउन रोड’’ । फिर उस के जवाब की प्रतीक्षा किये बिना मैं उस के आटो में पसर कर बैठ गया था । मैंने उस के साथ पैसों के बारे में कोई बात नहीं की थी ।

रात के करीब दस बजने को थे । अनारकली बाज़ार की भीड़ छंट चुकी थी । मैं कुछ राहत महसूस कर रहा था कि होटल के उस माहौल से जहां मैं दुश्मनों की जमात से लगभग घिर गया था, वहां से ठीक-ठाक बाहर निकल सका था । हवा में ठंडक थी । थोड़ी देर पहले होटल ‘गोश-ए-नेमत’ में उन लड़कों के साथ हुई कड़ुवाहट भरी बातचीत को मैं भूल जाना चाहता था । मैंने सोचा था कि लाहौर में मेरी मां का घर कहां पर रहा होगा ? मां बताती थी कि उनके आंगन में एक आम का पौधा था । जब उन्होंने वह घर छोड़ा तो अंबी का वह बूटा भी वहीं छूट गया । मां अक्सर पंजाबी कवि प्रोफैसर मोहन सिंह की एक कविता की पंक्तियां दोहराती रहती -‘‘इक अंबी दा बूटा वे ....।’’

एकाएक ‘‘होटल पर्ल कांटिनेंटल’’ के सामने आटो खड़ा हो गया । अंबी का बूटा पीछे रह गया । मैंने पैंट की पिछली जेब में हाथ डाल कर पर्स बाहर निकाला और उस से पूछा- ‘‘ कितने पैसे’’?

उसने हाथ जोड़ दिये और कहा - ‘‘तुसीं साडे मेहमान हो जी’’। मैने उस के कंधे पर हाथ रखा और कहा- ‘‘ भाई आप के प्यार के लिये शुक्रिया पर पैसे तो ले लो’’

मैंने देखा कि उस की आंखों में मेरे लिये प्यार के पीछे घृणा का एक बड़ा कैनवास था ।

‘‘सरदार जी अल्लाह कसम तबियत तर हो जाती है जब खबरों में सुनते हैं कि सरदारों ने आज पच्चीस पंडितो को हलाक् कर दिया’’-उस ने कहा और फिर बिना रूके आटो स्टार्ट कर के घर्र घर्र करता हुआ वहां से चला गया । मैं वहीं खड़ा रह गया । मैं जैसे अपनी जगह पर जम गया था । मुझे लगा कि ज्यों किसी ने सैकड़ो कील एक साथ मेरे सिर में और मेरे पैरों में ठोक दिये हों । मैंने अपने हाथ में जो पैसे थे वहीं उस आटो के पीछे उड़ती हुई धूल और आवाज़ में फेंक दिये और किसी तरह लड़खड़ाता -लड़खड़ाता होटल की लाबी तक पहुंचा । एक दहशतज़दा आदमी की देह की भाषा क्या हो सकती है मैं नहीं समझ पा रहा था । पैरों के तलुऐ पसीने से गीले हो आये थे और मोजे चिपचिपा रहे थे । पेट भी गुड़-गुड़ कर रहा था । देह की पता नहीं यह कौन सी भाषा थी जिसे मैं ठीक से पढ़ नहीं पा रहा था । पैंट बार-बार ढीली हो रही थी । सर्दी और गर्मी एक साथ लग रही थी । मैं चल नहीं रहा था, लुढ़क रहा था ।

मैं अपने कमरे का नंबर तक भूल गया था । पर रिसेप्शन में खड़ी लड़की जिस ने काले रंग का कोट पहन रखा था वह जानती थी । मैं जैसे ही उस के सामने जा कर खड़ा हुआ उस ने चाबी निकाल कर मुझे दे दी । मैं कमरे के अंदर पहंुचा और बिस्तर पर औंधे मूंह लुढ़क गया । मैं किस संसार का हिस्सा हूं ? मैंने सोचा और मुझे कोई जवाब नहीं मिला । कब मैं नीम बेहोशी की हालत में सो गया मुझे पता ही नहीं चला ।

अगले दिन सुबह दस बजे मैं सोकर उठा । एक रोबोट की तरह । चाय पी, एक कप, दो कप, तीन कप । फिर भी लगता रहा कि सिर भारी है । सिर के भीतर जैसे किसी ने अपना बूट डाल दिया हो और वह मेरे पूरे जिस्म को रौंद रहा हो । मैं अपने आप के साथ ही लड़ रहा था क्यों कि जिन के साथ मैं लड़ना चाहता था वे मेरे चारों ओर थे, और मैं अकेला ।

किसी तरह हिम्मत बटोरने के अलावा मेरे पास कोई और विकल्प नहीं था । मेरे पास किश्वर नाहीद का फोन नंबर था जो कि मुझे दिल्ली से चलने पहले उर्दु के जाने-माने शायर ज़ुबेर रिज़्वी ने दिया था । उन्होंने कहा था कि किश्वर से मिलकर ज़रूर आना । ज़ुबेर हिज़्वी ने उन के घर का पता भी लिख कर दिया था । मैंने होटल की रिसेप्शिनिस्ट से कह कर उन्हें फोन लगवाया । डरते-डरते । वे बड़ी लेखिका हैं । मानवाधिकारों के लिये लड़ाई और शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका बड़ा नाम मैंने सुन रखा था । मेरे मन में उन से मिलने की बहुत ख्वाहिश थी । ‘‘जी कहिऐ, मैं किश्वर नाहीद बोल रही हूं’’ । उनकी आवाज़ मेरे लिये ज़ख्म में मलहम की तरह थी । मैंने उन्हें अपने पाकिस्तान आने का सबब बताया और होटल कर नाम तथा कमरे का नंबर भी ।‘‘लओ जी असीं हुणे आये तुहाडे कोल’’- उन्होंने कहा । उन की यह बात मेरी उम्मीद के बिल्कुल उलट थी । मैं तो सोच रहा था कि मुझे ही उनके पास जाना होगा, पर वे तो मेरे पास, मेरे कमरे में ही आ रही थीं । उन के आने की खबर से ही मेरा भय और मेरा एकान्त टूटने लगा था ।

दस-पंद्रह मिनिट में ही वे मेरे सामने थीं । दरवाज़े पर हल्की सी दस्तक सुनाई दी और वे सीधे अंदर आ गई । हंसमुख चेहरा, रोबदार, चेहरे पर खुलेपन की गरिमा । ऐसा लगा ही नहीं कि उन्हें पहली बार देखा हो ।

अनारकली, लाहौर 1870
‘‘खुशामदीद- खुशामदीद, साड्डे लाहौर विच असीं तुहाग इस्तेकबाल करदे हां’’- उन्होंने कहा और अपनी दोनों बाहें फैला कर मुझे अपने साथ लगा लिया । स्पर्श, स्मृति और संवेदना का आपस में क्या रिश्ता हो सकता है, मैं नहीं जानता पर मैंने जैसे उस संबंध को अपने साथ घटित होते हुये महसूस किया ।

फिर वे सामने रखी बड़ी सी कुर्सी पर बैठ गई ।

‘‘होर दसो लाहौर दी बिरियानी-शिरियानी खाधी कि नहीं’’- उन्होंने पूछा । बेलौस ।

मैं चुप रहा । सिर्फ रोया भर नहीं । मैंने महसूस किया कि उन की आंखे मनुष्य को भीतर तक भेद सकती थीं । इतनी देर में उन्होंने मेरे चेहरे में छिपा सब कुछ पढ़ लिया था, शायद ।

‘‘ओ यार सरदार ते उदास नहीं होंदे’’-उन्होंने कहा । वे उठ कर मेरे पास तक आईं और मेरे कंधे पर अपना हाथ रख दिया । मैंने उन्हें वापिस बैठाया और उन के सामने रखी खाली कुर्सी पर बैठ गया । फिर मैंने उन्हें बीती रात होटल ‘‘गोश-ए-नेमत’’ में उन लड़कों के साथ हुई बातचीत के बारे में बताया । मैं बहुत संयत होकर धीरे-धीरे बोल रहा था जैसे कि अपने आप से ही बात कर रहा होंऊं । फिर मैंने उन्हें उस आटो वाले के बारे में भी बताया जो पंजाब में आतंकवादी घटनाओं में हिंदुओं के मारे जाने पर खुशी ज़ाहिर कर रहा था ।

वे चुप रहीं । मेरी बात सुन कर वे तटस्थ थीं । उन्हें किसी तरह का आश्चर्य नहीं हुआ था । न ही उन के चेहरे से कुछ पढ़ा जा सकता था । मैं चकित था । फिर भी मैं बोलता रहा - ‘‘ हमारे मां-बाप की पीढ़ी ने नफरत को झेला था, बड़ी संख्या में कत्लों-गैरत देखी थी, एक दूसरे को मरते-कटते देखा था पर यह जो आज की पीढ़ी के लड़के हैं, इन के अंदर इतनी नफरत के बीज कौन भरता है ....’’ मैंने उन से पूछा था । मेरी आवाज़ कांप रही थी । फिर मैं चुप हो गया था । थोड़ी देर तक वे भी चुप रही थीं ।

‘‘दिस इज़ आल ए गेम प्लान आफ वेस्टर्न मीडिया एन्ड बिज़नेस लाबी आफ आम्र्स माई डियर’’-उन्होंने कहा था । (यह सारा पश्चिमी मीडिया का षड़यंत्र है और हथियारों के सौदागरों का खेल है)

एकाएक मुझे लगा कि उन के कहे हुये एक-एक शब्द से सच लहू की तरह टपक रहा है । यह कितनी भयानक बात है जिसे वे समझ रही हैं पर कुछ कर नहीं पा रहीं ।

‘‘पर यहां तो मिलेट्री और राजनेता .......’’, मैंने कुछ कहना चाहा था लेकिन उन्होंने मुझे बीच में टोक दिया था । ‘‘सब उन के हाथों के खिलौने हैं ‘’-उन्होंने मेरी बात पूरी कर दी । फिर मुझ से पूछा-‘‘यह बाबरी मस्ज़िद का मामला क्या है ?’’

‘‘मैं उस के लिये शर्मिन्दगी महसूस करता हूं’’- मैंने कहा ।

‘‘ ओह तुम क्यों शर्मिन्दा होते हो, जिन्हें होना चाहिये वे तो नहीं होते और फिर तुम्हें तो चैरासी के दंगों के लिये भी कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में अमन और चैन जितना खराब होगा वह वेस्टर्न वर्ल्ड के लिये सेहतमंद होगा ‘’- वे बोलती जा रही थीं ।

‘‘लेकिन इस सब-कांटिनेंट का सांझा इतिहास रहा है’’-मैं भी हल्के आवेश में आ रहा था ।

‘‘ आई होप यू डोन्ट बीलान्ग को आर. एस. एस. ? उन्होंने सीधे मेरी आंखों में आंखे डाल कर पूछा था । उन की आंखे बड़ी थी पर उस वक्त वे मुझे कुछ और बड़ी दिखाई दी थीं ।



‘‘ओह नाट, सरटेनली नाट, आई डोन्ट इवेन बीलान्ग टू द अकालीज़’’- मैने अपने पूरे आत्म विश्वास को बटोर कर जवाब दिया था ।

तो फिर समझ लो कि हिन्दुस्तान में तुम्हारे और यहां मेरे जैसे लोगों के लिये बुरे दिन आने वाले हैं’’-किश्वर नाहीद ने कहा था । बाईस साल पहले ।


मेरे पास कुछ कहने के लिये बचा नहीं था । मैं चुप हो गया । उन्होंने भी उस के बाद कुछ नहीं कहा ।

मैंने चाय मंगवाई । उन्होंने उठने से पहले चाय का कप पिया और इतना ही कहा - ‘‘अल्लाह खैर करेगा’’, फिर वे उठ गईं ।

मैं उन्हें छोड़ने के लिये बाहर नीचे तक जाने को तैयार हुआ तो उन्होंने हाथ के इशारे से मुझे रोक दिया और कहा - ‘‘मेरे साथ बाहर मत आओ, यह तुम्हारे लिये ठीक नहीं होगा, हुकूमत की नज़र मुझ पर रहती है’’

वे फुर्ती के साथ कमरे से बाहर निकल गईं ।

मैं डर गया । सरकारी नौकरी में पहला कदम रखते ही हम एक तरह की स्थायी भाव वाली डर की मुद्रा में आ जाते हैं । फिर मैं तो पाकिस्तान की ज़मीन पर था । मैं उन्हें छोड़ने बाहर तक नहीं जा सका । उनकी खिलखिलाती हुई हंसी की छाप मेरे अंदर ठहर गई थी ।

जीवन, भय और देश की सीमाओं का दिल दहला देने वाला वह एक विकट अनुभव था ।

मैंने होटल के उस कमरे में लगे हल्के भूरे रंग के पर्दे हटा दिये । कांच की एक दीवार थी जिस से बाहर का दृष्य देखा जा सकता था । सड़क पर अच्छी खासी चहल-पहल थी । लाहौर अपनी आधुनिकता के लिये जाना जाता था । सड़क पर स्त्रियों की संख्या पुरूषों के मुकाबले कम थी । बुर्केधारी स्त्रियां भी काफी थीं । काले, भूरे बुर्केधारी स्त्रियों को पहचान पाना कितना मुश्किल काम होता होगा, मैंने सोचा था । बहुतायत में पुरूषों ने पठान सूट ही पहने थे या फिर हमारी तरह पैंट-कमीज़ । अधिकांश मुसलमान थे या मैं यह कहूं कि सारे ही मुसलमान थे । मुझे इस बात पर भला क्या आपत्ति हो सकती थी कि वे सारे मुसलमान क्यों थे ? पर मेरे सामने सवालों का एक सैलाब था - इस शहर में आज से साठ-सत्तर साल पहले जो हिंदू और सिक्ख रहते थे वे कहां गये ? इस सवाल का जवाब मेरे पास था क्योंकि मैं स्वयं इस के जवाब का एक हिस्सा था । पर फिर भी बार-बार मैं अपना सिर खुजला रहा था । मेरे लिये एक ऐसे शहर की कल्पना भयावह थी जहां सारे के सारे एक ही मज़हब को मानने वाले लोग रहते हों । नहीं- एक ऐसे शहर की कल्पना जहां सारे के सारे लोग एक राजनीति के तहत् एक ही मज़हब में तब्दील कर दिये गये हों । मेरे लिये ऐसे शहर का कोई अर्थ नहीं था । ऐसे मुल्क में अगर मुझे रहना पड़ जाये तो मेरा दम घुट जायेगा और फिर भी अगर किसी ने जीने के लिये विवश किया तो मैं आत्म हत्या करना पसंद करूंगा । जीवन अपनी विविधता में होता है, एकरूपता में नहीं, यह मेरा दृढ़ विश्वास था । यह कैसा शहर है जो मुझे देखना पड़ रहा है । कौन कंबख्त कहता है कि जिस ने लाहौर नहीं देखा वह पैदा ही नहीं हुआ ? यह अतिरेक है । यह एक निजी बात है जो किसी भी शहर पर लागू हो सकती है । मैं भी दावे के साथ कह सकता हूं कि जिस ने बस्तर-कांकेर या सरगुजा-झाबुआ के आदिवासी नहीं देखे उसने यह दुनिया ही नहीं देखी । नगरों का यह ढंग और श्रेष्ठताबोध दरअसल पश्चिम से आया है । चूंकि आप गोरे हैं, अंग्रेजी शराब पीते हैं, अंग्रेजी कपड़े पहनते हैं और अंग्रेजी तथा उर्दु में बादशाहों, बेगमों, राजकुमारों और नौकरशाहों के किस्से बयान करते हैं, इसलिये आप श्रेष्ठ हैं और शेष दुनिया आपके सामने हीन है और उस का पैदा होना अभी बाकी है । यह हर शहर का किस्सा है, लाहौर उन ससे अलग कहां है ? 

बहरहाल, अगले दिन मुझे ननकाना साहब जाना था ।

ननकाना साहब गुरूद्वारे के बाहर पैर रखते ही एक बार फिर मेरी आंखों के सामने मां का चेहरा था । मां-बाप के चेहरे क्या मनुष्य के भीतर किसी कोने में छिपे हुये होते हैं जो मौका पाते ही बाहर आ जाते हैं और आप की स्मृति की चादर में फैल जाते हैं । गुरू नानक की वाणी में मां की अगाध श्रद्धा थी । मैं जो कि यह मानता था कि किसी भी तरह की आस्था मनुष्य की स्वतंत्र सोच पर अंकुश लगाती है, अपने तर्क पर पुनर्विचार करने लगा था । तार्किक आधार क्या जीवन का अंतिम सत्य होता है ? इस बात का कोई तर्क संगत उत्तर मुझे नहीं मिल रहा था पर मैंने यह तय कर लिया था कि ननकाना साहब की थोड़ी सी मिट्टी अपने रूमाल में बांध कर मैं मां के लिये ज़रूर ले कर जाऊंगा । यह उन की इच्छा थी । यह मेरा सच हो या न हो, पर उन का सच तो था । मैंने जब से होश सम्हाला गुरू नानक की वाणी वे मुझे सुनाती रही है । समझाती रही है । मैं ऐसे और भी कई लोगों को जानता हूं जिन की हर सांस में ‘‘धन गुरू बाबा नानक’’ घुला रहता है ।

गुरूद्वारा ननकाना साहब में कीर्तन चल रहा था । रागी सुर में गा रहे थे - ‘‘गंग बनारस हिंदुआं ते मुसलमानां मक्का काबा, घर घर बाबा आखिऐ ........... ‘’

मैं व्यक्तिगत रूप से यह मानता रहा हूं कि साहित्य के इतिहास में नानक के साथ एक बड़ा छल किया गया है । उन के लेखन को सिर्फ एक धर्म या एक समुदाय के साथ जोड़ कर सीमित कर दिया गया । इस का ठीकरा किसी के भी सिर पर तोड़ा जा सकता है, भक्ति कालीन काव्य के सुधि-समीक्षकों पर या सिक्ख धर्म के पुरोहितों पर - लेकिन यह अन्याय नानक के साथ हुआ कि उनकी सामाजिक काव्य चेतना को एक वर्ग विशेष के साथ सीमित कर दिया गया और इस तरह उन की व्यापकता को कमतर किया गया ।

पाकिस्तान के सूचना मंत्री जिनका नाम अब मुझे याद नहीं आ रहा, वे भी वहां थे । उन की तकरीर भी हुई थी जिस में उन्होंने गुरूद्वारा ननकाना साहब के रख-रखाव के लिये पाकिस्तान सरकार द्वारा बजट बढ़ाये जाने की बड़ी-बड़ी घोषणाएंे की थीं । हिंदुस्तान से गये सिक्ख गहन् श्रद्धा के साथ संगत में थे और उन की हर घोषणा के बाद नारा लगाते थे - ‘‘ बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’’ । मध्य वर्ग के इसी तरह के त्वरित नारों और जय घोष की आड़ में राजनीति की मक्कारी फलती-फूलती है । सरहद के इस पार भी और उस पार भी, मैंने सोचा था ।

गुरूद्वारा ननकाना साहिब
बाहर बड़ी संख्या में गोरे-चिट्टे सिक्ख, जिनकी आंखे भूरी थीं और दाढ़िया भी अपनी श्रेष्ठता के गर्व में घूम फिर रहे थे । उन में से अधिकतर ब्रिटेन और कैनेडा से आये थे । कुछ अफगानिस्तान के भी थे । पता नहीं क्यों मुझे ऐसा आभास हुआ था कि पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब के कुछ युवक भी थे जिन के सिर पर पगड़ी थी । बिखरी-बिखरी सी दाढ़ी हवा में झूल रही थी । वे अलग ही नज़र आ रहे थे । वे शुद्ध पंजाबी बोलते थे पर जैसे ही गुरूवाणी की बात होती वे अचकचा जाते और संशय की लकीरें उन के चेहरे पर फेल जातीं । मैं उन्हें पकड़ सकता था पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था । उन के हाथों में कुछ पोस्टर थे जो खालिस्तानी आतंकवादियों के समर्थन में थे, नक्शे थे जो कि वे बांटना चाहते थे पर वे सतर्क थे , हर किसी के हाथ में इस तरह का पोस्टर देने का ज़ोखिम वे शायद नहीं उठाना चाहते थे । उनके चेहरों पर विरोधाभास की लकीरें साफ-साफ देखी जा सकती थीं । उन्होंने सिर पर जो पगड़ियां बांध रखी थीं वे बार-बार ढीली हो जाती थीं और वे अपनी दोनों हथेलियों से दबा-दबा कर अपनी पगड़ियों को कसने की कोशिश करते थे । मुझे पता नहीं वे मुझे देख रहे थे या नहीं पर मैं ज़रूर उनकी बेचैनी को देख कर सहम गया था । मैं उन के एक चेहरे पर चार -चार आंखे देख पा रहा था । इस तरह बाबा नानक की ज़मीन पर कीर्तन चल रहा था, पाकिस्तान का मंत्री सिक्खों के साहस और हौंसले की बात लगातार कर रहा था, बजट बढ़ा रहा था उस के देश के लड़के बाहर हिंदुस्तान को तोड़ने के लिये पर्चे बांट रहे थे, अंग्रेज सिक्ख शानों-शौकत के साथ घूम रहे थे और चिलगोज़े खा रहे थे और मैं क्या कर रहा था- ठीक से समझ नहीं पा रहा था ।

आठ-दस लोगों का एक समूह और था, जो गुरूद्वारे के बाहर एक तरफ खड़ा था । पता नहीं मुझे क्या सूझा कि मैं उन के पास तक चला गया - ‘‘तुसीं कित्थों आये जी’’

‘‘असीं पाकिस्तान तो ही हां जी, असीं भाई मरदाना के वंशज हां’’- उन में से एक ने कहा । एकाएक रबाब की आवाज़ मेरे कानों में गूंज गई, पानी की एक लहर या ठंडी हवा का एक झोंका जैसे मैंने महसूस किया । गुरू नानक की वह परंपरागत तस्वीर मेरी आंखो के सामने घूम गई जिसमें उनके एक तरफ भाई मरदाना और दूसरी तरफ भाई बाला बैठे हुये होते हैं । भाई मरदाना मुसलमान थे और पांचो वक्त के नमाज़ी । जब वे नानक के साथ होते थे तब भी नमाज़ पढ़ते थे और रबाब बजाते थे ।

तेजिन्दर

जन्म- 1951, जालंधर

पंजाब में प्राथमिक शिक्षा के बाद छत्तीसगढ़, बस्तर और रायपुर में अध्ययन, रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से अॅंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि ।

शुरूआती दौर में दैनिक देशबन्धु और मध्यप्रदेश क्रानिकल से सम्बद्ध, फिर लम्बे समय तक आकाशवाणी और दूरदर्शन से जुड़ाव, दूरदर्शन के उपमहानिदेशक पद से सेवानिवृत्त ।

प्रकाशित कृतियाॅं - ‘‘वह मेरा चेहरा’’, ‘‘काला पादरी’’, ‘‘उस शहर तक’’, ‘‘हैलो सुजित’’, ‘‘सीढ़ियों पर चीता’’ (सभी उपन्यास), ‘‘घोड़ा-बादल’’ (कहानी संग्रह), ‘‘बच्चे अलाव ताप रहे हैं’’ (कविता संग्रह) । ओडिशा के कालाहांडी तथा बलांगीर के सूखाग्रस्त क्षेत्रों की यात्रा पर आधारित ‘‘ डायरी- सागा-सागा’’, बहुचर्चित  सुंदरलाल बहुगुणा के जीवन के माध्यम से टिहरी की कथा - ‘‘टिहरी के बहुगुणा’’ का प्रकाशन ।

सम्मान - छत्तीसगढ़ शासन का पंडित सुन्दरलाल शर्मा सम्मान, कथाक्रम सम्मान, ‘‘ वह मेरा चेहरा ’’ पर मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद् का अकादमी पुरस्कार, मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान, लीलारानी स्मृति सम्मान ।

फिल्म - दूरदर्शन की इंडियन कलासिक्स योजना के तहत् उपन्यास ‘‘ हैलो सुजित ’’ पर टेलीफिल्म का निर्माण । रचनाओं का अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित ।

सम्प्रति - अनियमकालीन अंग्रेजी पत्रिका ‘‘अनटोल्ड वायस आॅफ द डाउनट्राउन ’’ का सम्पादन ।

सम्पर्क - डी-1/302, वी.आई.पी. करिश्मा काम्प्लेक्स, रेल्वे क्रासिंग के पास, खमारडीह, विधान सभा मार्ग, रायपुर- 492 007 छत्तीसगढ़ ।
मोबाईल- 09893062464/ 08878100098
ईमेल - tejinder.gagan@gmail.com


‘‘ देखिये सरदार जी हमारी किस्मत, हिंदुस्तान में हमारे लिये कोई जगह नहीं और पाकिस्तान में कोई हमारी सुनने वाला नहीं क्योंकि नानक को अभी भी हम अपना फरिश्ता मानते हैं और पांच वक्त की नमाज़ आज भी पढ़ते हैं, हम किधर जायें ? ’’
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उस का यह जो सवाल था कि हम किधर जायें उस में एक मर्मांतक पीड़ा थी, जिसने मुझे गहरे तक उदास कर दिया था । क्या भारत के सिक्ख उनकी कोई मदद नहीं कर सकते ? पाकिस्तान की हुकूमत के साथ उन के बारे में कौन बात कर सकता है । यह सवाल बेमानी था । ‘‘गुरू नानक अपने मरदाना को छोड़ कर कहां चले गये ?’’ यह एक चीत्कार थी, जिस की गंूज को उस पूरे माहौल में सुना जा सकता था और वह गुरूद्वारा ननकाना साहब की दीवारों से टकरा-टकरा कर वापिस मेरे ही कानों में चोट कर रही थी । भाई मरदाना के वंशजो से कुछ कह पाना एक कठिन काम था । शब्द साथ छोड़ रहे थे । वह चीख मेरे अंदर थी और मैं चिल्ला नहीं पा रहा था । मैं वहां से भी वापिस मुड़ पड़ा था । उन्हें वहीं उसी हालत में छोड़ कर । मैं भाग पड़ा था । मैं कहां-कहां से भाग सकता था । क्या सचमुच मैं एक भगोड़ा था ?

लाहौर छोड़ने से एक दिन पहिली रात मैंने किसी तरह अपने भीतर साहस बटोरा था जैसे टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ कर अपने आप को वापिस जोड़ा हो । मैं एक बार फिर होटल गोश-ए-नेमत के सामने खड़ा था । मुझे बताया गया था कि गोश-ए-नेमत का मतलब होता है अल्लाह-ताला के द्वारा आप के नसीब में भेजा गया उपहारों का खज़ाना । पर बाबा ने कुछ और ही बताया था । बाबा के मुताबिक इस का अर्थ- अच्छी चीज़ों के स्वाद के साथ था । मैं उन के पास तक चला गया था और मैंने उन्हें बताया कि - ‘‘बाबा मैं कल सुबह लौट रहा हूं अपने वतन’’ । हांलाकि मैं जानता था कि मैं वहां से लौट रहा हूं जो मेरे पुरखों का वतन था ।

‘‘वतन तो हमारा सांझा था पुत्तर पर .....’’ कुछ कहते कहते वे चुप हो गये थे । मैं भी चुप रहा । फिर उन्होंने मेरी ओर देखा और चिकन सूप के बाऊल में एक अंडा छील कर डाल दिया और मेरी ओर बढ़ा दिया ।

‘‘ बाबे नानक दा जवाब नहीं सी, ओह पीर सी हिंदुआं ते मुसलमानां दा, पर उस तो बाद दे पालिटिक्स दा सानूं कुछ पता नहीं’’- उन्होंने कहा । मैंने उन की बात का कोई जवाब नहीं दिया था । सिक्ख गुरूओं की शहादत और मुगल बादशाहों की क्रूरताओं के जो किस्से मैंने गुरूद्वारों में सुन रखे थे उन के बारे में बाबा से बात करने का कोई अर्थ नहीं था । यह तय कर पाना एक मुश्किल काम था कि उन का इशारा किस तरह की राजनीति की तरफ था । मुझे यह जानने की ज़रूरत भी महसूस नहीं हुई । मैंने उन से कहा- ‘‘बाबा आप ने मुझे मुफ्त में खूब सारा सूप पिलाया’’

उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींचा भींच कर अपने गले से लगा लिया । ‘‘ बिछड़े होये भरावां कोलों कोई पैसे लैंदा ए ‘’ - उन्होंने कहा और साथ ही यह भी कि - ‘‘ठंडा पै गईयां ....’’

मैं अवाक् था । अनारकली बाज़ार एकाएक मेरे लिये जीवंत हो उठा । उस जगह के साथ मेरा कोई पुश्तैनी नाता जैसे फिर से जुड़ गया हो ।

अगर बाबा मेरे हम वतन हैं तो फिर वह आटो वाला कौन था जो मुझे सिक्खों द्वारा हिंदू पंडितों की हत्याऐं करने पर शाबासी दे गया या फिर होटल गोश-ए-नेमत के अंदर बैठे लड़के कौन थे । वे घृणा की किस जमात में पढ़ते थे ? क्या किश्वर नाहीद ठीक कहती हैं कि यह सारा पश्चिमी मीडिया का षड़यंत्र है ? क्या गोरे आज भी इस उप-महाद्वीप में शांति नहीं देखना चाहते और रिमोट कंट्रोल से अपनी दुकानें चला रहे हैं ? बहुत सारे सवाल थे और अंतड़ियों तक छीज डालने वाली पीड़ा जिस के साथ मैं जूझ रहा था ।

चलने से पहिले मैंने एक बार मुड़ कर बाबा की तरफ देखा । एक आदमी के प्यार भरे चेहरे के सामने घृणा से लबरेज़ सैकड़ों चेहरे गौण थे । मैंने राहत महसूस की । बाबा के चेहरे पर बुद्ध, नानक और कबीर की परछाईंयां थीं और उन्हें इस बात का पता ही नहीं था ।

जब मैं लौट कर नई द्ल्लिी एअरपोर्ट पर उतरा तो सिर्फ वहीं एक चेहरा था जो मेरे साथ चला आया था बाकी सब धुंधले में कहीं खो गये थे ।

सूफी कवि बुल्ले शाह की पंक्तियां मुझे याद हो आईं - ‘‘ बुलिया पी शराब ते खा कबाब, हेठ बाल हड्डां दी अग चोरी कर ते भन्न घर रब दा, ओस ठगां दे ठग नूं ठग ‘’ (बुल्ले शाह कहते हैं - अपनी हड्डियों की आग जलाओ, जाम पीओ और कबाब खाओ और उस रब के घर को तोड़ दो जो ठगों का ठग है । )

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