कैलाश वाजपेयी - विकल वेदना का कवि
प्रभाकर श्रोत्रिय
‘मैं अलक्षित हूं यही कवि कह गया है’- निराला
ऐसा क्यों होता है कि हर विलक्षण प्रतिभा और प्रज्ञा हमसे अलक्षित रह जाती है! कैलाश वाजपेयी ने ‘महास्वप्न का मध्यांतर’ में कहा था- ‘तह तक न जाओ बच्चे /एक दिन अकेले पड़ जाओगे।’ जबकि तल तक पहुंचे बिना मोती कहां मिलते हैं! लेकिन इसी वजह से अलक्षित प्रतिभाओं की एक लंबी सूची है और यह जितनी लंबी होती जाती है, हम छोटे होते जाते हैं।
कैलाश ने अपने लंबे जीवन में ऐसी अनथक चौतरफा यात्राएं की हैं जो कम देखी जाती हैं। उन्होंने कहां से शुरू किया और कहां पहुंचे? देश-काल के हर बदलाव को उन्होंने भीतर से महसूस किया और अपनी तरह से अपनी प्रतिक्रिया, अपना प्रतिरोध दर्ज किया।
प्रारंभ में वे अपनी ही तरह सुंदर गीतकार थे, बड़े मधुर कंठ से गाते थे। फिर ऐसा कुछ घटित हुआ कि वे विकल विद्रोही हो उठे। देश सिर्फ आजाद नहीं हुआ था, दोनों बांहें कट कर ‘आजाद’ हुआ था :
‘नुचे बुर्के, फटी साड़ियां चलीं और खूब चलीं
दिल्ली और लाहौर के बीच रेलगाड़ियां
गुस्ताखी माफ... लाश गाड़ियां’ (महास्वप्न का मध्यांतर)
तो क्या सचमुच ऐसा नहीं हुआ था:
‘सिल की तरह गिरी है स्वतंत्रता
और पिचक गया है पूरा देश!’
...और जुर्रत यह कि एक कमसिन कवि उस समय के सर्वव्यापी सरकारी मीडिया ‘आकाशवाणी’ पर यह कविता पढ़ रहा था, लिहाजा उसे काली सूची में डाल दिया गया। इसका मतलब यह कि एक बड़े प्रसार-माध्यम से खारिज कर दिया गया। ताकि भले चीखे मगर एकांत में! गांधी तक जब नोआखाली के खूनी एकांत में भटकने के लिए छोड़ दिए गए हों, तब कैलाश वाजपेयी की क्या गिनती! तब ‘दिनकर’ यह कह सकते थे-
‘दिल्ली में तो खूब ज्योति की चहल पहल
पर भटक रहा है सारा देश अंधेरे में।’
क्योंकि वे मात्र कवि नहीं थे, राजनेता भी थे, और कैलाश?
सत्ता मिलने के बाद सत्ता की विकृतियां, शेर के साथ पूंछ की तरह होती हैं, तो चली आर्इं! जनता में एक गहरा असंतोष, मोहभंग, जिसकी धड़कन कवियों ने सुनी। कविता की नई पीढ़ी ने जन्म लिया जिसे नाम दिया गया ‘अकविता’। ऐसा तल्ख विद्रोह जिसने भाषा के कपड़े तक उतार दिए थे; पर कैलाश तल्ख तो उतने ही थे, पर उन्हें भाषा की उन शक्तियों का पता था जो समय का विद्रूप और अपनी बेचैनी ऐसी भाषा में व्यक्त कर सकती है जो अर्थ को अपनी पूरी सत्ता में संप्रेषित कर सके। लिहाजा कैलाश की भाषा नंगी होने से तो बच गई, पर वे अकवियों में ‘इत्यादि’ रह गए। कैलाश ने लिखा:
झूठे नारों और खुशहाल स्वप्नों से लदी बैलगाड़ियां
वर्षों से जन-पथ पर आ-जा रही हैं
और मेरे भाइयों ने आत्महत्या कर ली है।
अब हुआ चीनी आक्रमण! उग्र कविताओं का एक मुखर वर्ग खामोश था, लेकिन कैलाश बोले, क्योंकि वे एक स्वतंत्रचेता कवि थे, मनुष्य और देश के दर्द से बड़ा उनके लिए कुछ न था :
मेरे माथे पर जो चोट का निशान है
वह मेरी मां के घायल मन की पहचान है
बर्फ का कंबल लपेटे/ इस पैचदार खाई में
शीश पर बर्बर इतिहास की ओछी चट्टान है...
(मुझे नींद नहीं आती)
कैलाश को तब भी नींद नहीं आ रही थी जब वे विदेश में थे और देश में आपातकाल लगा था। उनकी विकल आत्मा दस हजार मील दूर भी तड़प उठी:
अंधेरे में टेलीफोन बज रहा/ अभी दिल धड़कता है
घड़ी चुप है/ घूरे में आग लग चुकी है
आंखों में पृथ्वी बनने के पहले की नींद है
औरत चढ़ बैठी है शव की छाती पर
दस हजार मील दूर आंत कट रही है गरीब की... (महास्वप्न का मध्यांतर)
लगातार वक्त को कविता में इस तरह पढ़ने के कारण कैलाश वाजपेयी को ‘क्रॉनिकलर आॅफ कलियुग’- ‘कलियुग का वृत्तकार’ कहा गया पर वह ‘कलियुग’ कवि के भीतर ऐसा वृत्तकार था जो देश के आज के साथ कल की कथा भी कह रहा था, इस बाजारवादी दुनिया की जिसमें अय्याश लोग पैसे चबा रहे थे:
मैं इन सस्ते और अय्याश लोगों के बीच
जो सिक्के चबाते हैं/और /केकड़े की तरह चिपक जाते हैं
रहते-रहते सोचता हूं-
क्या पड़ी थी ईश्वर को/ जो बैठे बिठाए /
मांस के वृक्ष उगाए। (संक्रांत)
कैलाश की इस गहरी संवेदनशील भाषा में धारदार व्यंग्य बहुत सटीक है। यह उनके काव्य-विन्यास का एक जरूरी भाग है, अन्यथा वे कुंठित और सपाट बन कर रह जाते, और उन ‘परास्त बुद्धिजीवियों’ की तरह हो जाते जो समझ रहे थे कि ‘हमें अब किसी भी व्यवस्था में डाल दो/ जी लेंगे।’ ऐसे ही लोग होते हैं- ‘जिन्हें न व्यापै जगत गति’ जबकि कवि की राय में ऐसी जड़ता प्रकृति और देह को निर्मित करने वाले तत्त्वों के विरुद्ध है :
‘जल के स्वभाव के विरुद्ध है / वायु के स्वभाव के विरुद्ध है/
देह के स्वभाव के विरुद्ध है।’ (संक्रांत)
उस समय आया ‘अस्तित्ववाद’ जो हर किसी पर चिपका दिया जाता था, कैलाश पर भी चिपकाया गया, पर ‘अकेलापन’, ‘आत्म निर्वासन’ या ‘आत्म परायापन’- कैलाश में अन्यतम अनुभव था। यह अस्तित्ववादी घटकों से बना हुआ नहीं था। उस समय (बल्कि हर वक्त) समय की विकृति से सामंजस्य न बिठा पाने वाला हर नैतिक और संवेदनशील व्यक्ति, जो अनिवार्य नियति झेलता है, भोगता है कवि इसे महसूस कर रहा था:
‘मेरे बाद शायद (इतिहास अगर राख नहीं हो गया)/
कोई पढ़ाएगा/एक वक्त ऐसा भी था आर्यावर्त में/
जब बिना बदचलन हुए/कुछ नहीं मिलता था।’ और...
‘साख धूर्त की जैसे हर कहीं
हताश आदमी का कोई आसमान नहीं होता।..’
क्या यहां हताशा को गौरवान्वित किया गया है या उससे निकलने का आह्वान? यह व्यक्तिगत उतनी ही है जितनी समाज को भीतर भोगने से उपजाती है।
परिस्थितियां तो उलट-पलट कर वे ही बनती रहीं.. आज भी हैं.. अधिक चतुर-चालाक होकर। पर कैलाश इस आवर्त से निकले, वे अपने गहन अध्ययन, चिंतन, देश-विदेश की रचनाओं और रचनाधर्मियों से साक्षात्कार और गहरी आत्म साधना से। इसी के अनुसार उनकी रचनाओं में बदलाव आता रहा, मनुष्य के भीतर उदात्त के रूपांतरण में वे सक्रिय हुए। उन्होंने समय की दुष्कृतियों के कारणों को तलाशा। काव्य-संग्रह ‘दूसरा अंधेरा’ से आगे चलते हुए वे अपने समय को अतिक्रांत करने की कोशिश में लगे। उनके भीतर एक और सांख्य, वेदांत, बौद्ध जैन, जÞैन, सूफी विचार आकार लेने लगे, तो दूसरी ओर विश्वभर में रचित ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं पर लिखी पुस्तकों के गहन सान्निध्य में आए। उनकी पुस्तक ‘शब्द संसार’ हिंदी की एक अनिवार्य पुस्तक है, उसमें उन्होंने कोई सत्तर उच्च कोटि के ग्रंथों की सारभूत विवेचना के साथ भारतीय चिंतन को तौला है। दर्शन, धर्म, विद्वान, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, इतिहास, पुरातत्त्व, मनोविज्ञान, मानवशास्त्र, आधुनिकता जैसे भांति-भांति के विषयों से जुड़ी ये पुस्तकें भारत के आधारभूत चिंतन के साथ रखने पर पता चलता है कि इस देश ने कितने क्षेत्रों में चिंतन किया है और उसकी महत्ता, विभिन्नता और गहराई कैसी अद्वितीय और गूढ़ है!
कैलाश आखिर दुनिया भर के दर्शनों, ज्ञान रूपों और भारतीयता की भीतरी शिराओं की व्यापक अंतर्यात्रा से क्या पाना, खोजना चाह रहे थे, उनकी यह वैश्विक चेतना किस पूर्णता की खोज थी ? यह एक गंभीर अध्ययन-अन्वेषण का विषय है। शायद इसके मंथन से कोई नई ‘वैश्विक चेतना’ का जन्म हो, जो उतनी ही प्राचीन हो, जितना आधुनिक, अद्यतन। क्योंकि वे जब भी मिलते लगता था,कोई नया संदर्भ, नया ग्रंथ उनके चिंतन परिसर में है।
इस सबके बावजूद ने मूलरूप से कवि थे। उनके रग-रग से कविता टपकती थी। उनकी अभिव्यक्ति में जो प्रवाहपूर्ण चेतना थी, वह असली कवि में ही होती है। वे किसी भी कोने से कृत्रिम नहीं थे। हां, इस कृत्रिम दुनिया के रवैए में वह सब हो सकता है, जो वे उन पर आरोपित करती थी।
‘ महास्वप्न का मध्यांतर’ कैलाश वाजपेयी का सर्जनात्मक मोड़ है, यहां आवेग कम, अंतर्दृष्टि अधिक सक्रिय है, आत्ममंथन अधिक सघन हुआ है। वास्तव में कवि ‘स्मृति के साथ’ उस तत्त्व को पहचानने की कोशिश करता है, जो अवचेतन से संवाद करते हुए, चेतन विवेक की तलाश करता है, यही कैलाश की नैतिक पीड़ा थी।
रघुवीर सहाय ने इस संग्रह पर ‘दिनमान’ में लिखा था-
‘महास्वप्न में कवि असलियत को अलग खड़ा देखता है- बल्कि अपने से संवाद करता है कि पूर्णता की बाधाएं कैसे दूर करें?’
‘ मुझे नि:शब्द तक जाना था/ मैं हूं कि सना पड़ा हूं हाहाकार में।’
अंत में रघुवीर सहाय कथित प्राचीनता में नए कवि की आधुनिकता के बारे में एक दुर्लभ टिप्पणी करते हैं: ‘महास्वप्न का मध्यांतर’ आधुनिक साधक की अपनी आत्मा की खोज है, हमारे प्राचीन मानस में उत्पन्न अनायास अपने को पहचानने की इच्छा का परिणाम नहीं, ऐसा इन कविताओं की तीव्र संवेदन, अविश्वास द्वंद्व और विदेहत्व से प्रकट होता है। ...ये सायास आत्मसाधना के प्रयत्न हैं, यही इनकी आधुनिकता है।’
निस्संदेह ‘महास्वप्न का मध्यांतर’ में महत्त्वपूर्ण, गहन, तीव्र, संवेदन और प्रखर चिंतन से भरी मार्मिक कविताएं हैं, लेकिन इनमें भांति-भांति के संदर्भ हैं, देश-विदेश के अर्थगर्भित नाम, मिथक, वस्तुएं, घटनाएं हैं और यह उनके इधर के संग्रहों में भी खूब हैं। ये सब सामान्य पाठक के लिए दुर्बोध हैं। इन पर भी गहरा काम होना चाहिए ताकि हमारे समय के एक दुर्लभ कवि को हम उपलब्ध कर सकें।
सायास आत्म-मंथन के बावजूद भीतर का हाहाकार थमा नहीं है। रह-रह कर मृत्यु-बोध कवि को घेरता है। ‘धरती का कृष्ण पक्ष’ ऐसे ही कथ्य को लेकर आता है। ...महाभारत का अंत हो चुका है। परीक्षित राज्य कर रहे हैं। उनके जीवन के केवल सात दिन शेष हैं, जिसका पता उन्हें है। ऐसी छटपटाहट और त्वरा के बीच उनके मन का आलोड़न-विलोड़न, क्षण की चिरंतन सत्ता, जीवन का अर्थ उन्हें मथता है। यही सब इस प्रबंध कविताएं अद्भुत सृष्टि-प्रश्नों को जन्म देते हैं।
धीरे-धीरे कवि अपने एकांत और अंर्तद्वंद्व से उबर कर दृष्टा की सामाजिक भूमिका में आ जाता है और ‘नवक्रांति’ जैसी अनूठी कविता लिखता है। इसी के साथ मैं उन बड़े प्रश्नों और हिंदी की अन्यतम कविताओं के सर्जक को आपके पास सोचने और पढ़ने को छोड़ता हूं:
तुम यदि परिवर्तन के पक्षधर हो
मिट्टी से शुरू करना जो बोझ ढो रही है
वृक्षों से शुरू करना जिनका वध हो रहा है
वायु से शुरू करना जिसका दम घुट रहा है
नदियों से शुरू करना जिनका यौवन रोज लुट रहा है
यही सब तो हो तुम/
अपनी जड़ों की पड़ताल के बिना क्रांति कहां! ( हवा में हस्ताक्षर)
कैलाश की एक बड़ी रेंज और नैतिक पीड़ा पर अब तो हिंदी पाठक को गौर कर लेना चाहिए। कविता, निबंध के साथ ही उनकी आलोचना, नाटक, अनुवाद और उन दर्शनों के अंतर्सूत्रों पर गौर करना चाहिए।
साभार जनसत्ता
1 टिप्पणियाँ
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (08-04-2015) को "सहमा हुआ समाज" { चर्चा - 1941 } पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'