तोते की जान (अर्चना वर्मा लिखित राजेन्द्र यादव जी का आत्मकथ्य) | Rajendra Yadav's Atmakathy written by Archana Verma


 अर्चना वर्मा जी के जन्मदिन पर शब्दांकन की विशेष प्रस्तुति... 
 हैप्पी बर्थडे अर्चना दीदी !!! 
तोते की जान (अर्चना वर्मा लिखित राजेन्द्र यादव जी का आत्मकथ्य) | Rajendra Yadav's Atmkathy writeen by Archana Verma

तोते की जान 

(अर्चना वर्मा लिखित राजेन्द्र यादव जी का आत्मकथ्य)

षड्यंत्र तो जरूर था लेकिन 'प्री-प्लैन्ड' शायद नहीं ही रहा होगा।कम से कम लगा तो ऐसा ही कि यह दिमागी लहर मुझ पर नज़र पड़ने के बाद या साथ राजेन्द्र जी को आई।अखिलेश राजेन्द्र जी को शायद तद्भव के अगले अंक में कुछ लिखने के लिये घेर रहे थे, राजेन्द्र जी बचने की कोशिश कर रहे थे। दुर्दैव से उसी समय मैने दफ़्तर में कदम रखा और ज़रा सी देर में राजेन्द्र जी को यह कहते सुना कि इससे लिखवाओ। यह लिख सकती है। यह मुझको सन पैंसठ से, ठीक ठीक कहा जाय तो सन छियासठ, इसमें ‘पिछली सदी का’और जोड़ दिया जाय तो वाकई प्रागैतिहासिक , जानती है । उसके बाद इसकी टोपी उसका सिर को चरितार्थ करते हुए सारा घिराव इस ओर घूम गया और मेरे इंकार और अखिलेश के आग्रह के बीच मुकाबिला शुरू हुआ। अखिलेश के बारे में मनोहर श्याम जोशी जी की राय बता कर राजेन्द्र जी ने समझाया कि यह एक व्यर्थ मुकाबिला है। राय यह थी कि खुद जोशी जी संपादक रह भी चुके हैं और बाकी सब बडे-बडे संपादकों को देख भी चुके हैं लेकिन अखिलेश जैसा बुलडोज़र संपादक उन्होंने दूसरा नहीं देखा। लिखवा कर छोड़ेगा। हथियार डालते हुए मैने जानना चाहा कि मामला क्या है। मालूम हुआ कि राजेन्द्र जी से आत्मकथ्य लिखने का आग्रह है।


आत्मकथ्य जैसी चीज़ में कोई दूसरा भला क्या कर सकता है।

पता चला कि जो चाहो सो करने की खुली छूट है। आत्मकथ्य की वैचारिक किस्म वे खुद लिख देंगे और पूरक तौर पर बाकी कुछ अर्चना से लिखवा लो, यानी जीवनीपरक ललित निबन्ध जैसा कुछ।

इस तरह के करतब राजेन्द्र जी ही कर सकते हैं। जिस आत्मकथा को जी कर वे पहले ही फ़ाइनल कर चुके हैं उसमें जो चाहो सो कर देने की गुंजाइश ही कहां बचती है और जैसे चाहो वैसे लिख देने की पूरी छूट के बावजूद यह तो है ही कि मनचाहे तथ्य पैदा नहीं किये जा सकते । वे पहले से मौजूद हैं लेकिन मुझको उतने मालूम नहीं हैं।राजेन्द्र जी सुनते नहीं। कहते है, “कुछ तो तुम जानती हो, कुछ सुन रखा है, बाकी सूंघ रखा है। तुम्हारी नाक बहुत तेज़ है। बेकार के बहाने मत करो।

तो शुरू करने के पहले ही आगाह कर दूं। यहां जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसका आधार है थोड़ी सी जानकारी , थोड़ा कुछ सुना हुआ बहुत कुछ सूंघा हुआ। खतरा है कि नतीजा ठीक वही हो जो राजेन्द्र जी के संपादकीयों में अक्सर हो जाया करता है यानी अनुमानित निष्कर्षों को प्रामाणिक ऐतिहासिक तथ्यों की जगह पर बिठा कर मान लेना कि सच यही है। सच आखिर एक पाठ ही तो है। जैसे चाहो पढ़ लो।

लेकिन खतरा तो खुद राजेन्द्र जी ने ही चुना है। उनके लिये यह अपनी उदारता साबित करने का एक मौका है या फिर मेरे लिये अपनी निष्पक्षता साबित करने की एक चुनौती?(संदर्भः कथादेश के अगस्त अंक में प्रकाशित राजेन्द्र जी के साक्षात्कार पर कथादेश के ही अगस्त अंक मेँ मेरी प्रतिक्रिया) लेकिन इस सन्दर्भ में निष्पक्षता का मेरा कोई दावा नहीं और न किसी की उदारता साबित करने का उपलक्ष्य ही मैं बनना चाहती हूं । यह मैं कहां आ फंसी लेकिन इस फेर में आ पड़ना खुद मेरा अपना ही तो किया हुआ है वैसे ही जैसे राजेन्द्र जी का खुद यह खतरा चुनना । तो खैरियत इसी में है कि जीवनी और प्रामाणिक वगैरह के चक्कर में पडे़ बिना व्यक्तिपरक जैसा कुछ लिख मारा जाय जो ललित जैसा भी कुछ बन पड़े तो अच्छा पर ऐसा तो न ही हो कि मेरे दुराग्रहों-पूर्वाग्रहों की अभिव्यक्ति को कोई भावी शोधशूर राजेन्द्र जी की प्रामाणिक जीवनी समझ बैठे। यानी अब जो प्रस्तुत है उसका आधार है जैसा मैने जाना के अलावा जैसा राजेन्द्र जी ने जहां तहां लिखा और उसे जैसा मैने पढ़ा। नवीनतम संदर्भ : कथादेश का पूर्वोल्लिखित साक्षात्कार।

इस परिचय को भारी भरकम तौर पर सम्माननीय बनाना हो तो जैसा कहा पिछली सदी के सन छियासठ में मिराण्डा हाउस के हिन्दी विभाग में नौकरी शुरू करने के बाद मन्नू जी की सहकर्मिणी और मित्र की हैसियत से उस घर में आना जाना शुरू हुआ था। बचपना था। समझ कोई खास नहीं थी। मन्नू जी की ममता थी । मातृत्व भाव उनमें हमेशा से ही प्रबल था। टिंकू, उनकी बिटिया, का नाम रचना है। उसके साथ खेलते हुए मज़ाक में मैं कहा करती थी यह रचना मैं अरचना। टिंकू के साथ राजेन्द्र जी को कभी कभी मैं पप्पू भी कहा करती। कभी कभी इसलिये कि घर में वे होते ही कभी कभी थे। उतने मशहूर लोगों के आस पास फटक सकने के अहसास में भी तब एक अपना आतंक था जिसे मैं बहुत चुप रह कर छिपाती थी। चुप रह कर दिखता कुछ ज्यादा है। लगता था कि इस घर में जब तब कभी बेमौसम बादल घिरे होते हैं तो कभी आंधी चढ़ी होती है। लेकिन बस लगता ही था। सन उन्नीस सौ छियासठ में समझने लायक अकल नहीं थी, न पूछने लायक हिम्मत ही। मेरे वहां होने के दौरान राजेन्द्र जी अक्सर घर पर नहीं होते थे। मटरगश्ती के लिये निकल जाने का समय शायद वही रहा होगा। राजेन्द्र जी की सूरत जब पहले पहल राजेन्द्र जी में ही देखी थी तो किसी पत्रिका, शायद सारिका, शायद कमलेश्वर के संपादनकाल में प्रकाशित उनकी उस तस्वीर की याद आई थी जिसका शीर्षक दिया गया था ‘ऐयारों के ऐयार’। पता नहीं तब भी वे पाइप पीते थे या नहीं । तस्वीर में शायद ऐसा न भी रहा हो लेकिन मुझे उनका चेहरा हमेशा धुएं के गुबार से घिरा हुआ ही याद आता है। कुछ तो धुएं से धुंधलाया और कुछ बड़े भारी चश्मे के पीछे छिपा किसी न खुलने वाले तिलिस्म जैसा। शीर्षक बिल्कुल दुरूस्त था। वाकई ऐयारों के ऐयार । उन दिनों राजेन्द्र जी को बस इतना ही जाना।

थोड़ा सा अधिक जानना सा शुरू किया ‘हंस’ के संपादन से विधिवत जुड़ने के बाद सन छियासी में।बीस बरस बीत चुके थे।इस दौरान मन्नू जी से संपर्क तो बना रहा लेकिन जिन्दगी के बहुत से उतारों- चढ़ावों, मोड़ों-चौराहों के बीच एक दूसरे को भीतर से जानने और साथ और सहारा देने का मौका प्रायः नहीं रहा। दूर दूर से पता तो चलता रहा कि बीच बीच में कभी कभी कोई तूफ़ान उठा लेकिन बिना विशेष ध्वंस के बैठ गया। निशान तो छोड़ ही जाता रहा होगा।

इन बरसों में उम्र बढ़ाने के अलावा मैं अपनी जिन्दगी में और भी बहुत कुछ कर बैठी थी जिसमें से यहां काम की बात महज़ इतनी है कि ‘दिनमान’ के लिये नियमित रूप से समीक्षा लिखते हुए बिना किसी योजना या उद्देश्य के ही समीक्षा के तंत्र में फंस और साहित्य से जुड़ गयी थी और जब राजेन्द्र जी ने ‘हंस’ शुरू किया तो मेरा सहयोग समीक्षा स्तंभ को नियमित रूप से विधिवत चलाने के लिये ही लिया था। 

यानी सिर्फ़ समय बिताने के सामान की तरह शुरू किया गया काम अब जी का जंजाल बन चुका था।साहित्यिक मित्र बताने लगे थे कि समीक्षा ही वह सबसे ज्यादा मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण कर्म है जो मुझे करते रहना चाहिये। पढ़ने का शौक मुझे है और यह पता भी कि लिखने वाले को एक ‘फ़ीड बैक’ की आकांक्षा और अपेक्षा होती ही है। मित्रों की अपेक्षाओं को टालना आसान काम नहीं इसलिये बार बार यह प्रण करने के बावजूद कि अब बस यह आखिरी समीक्षा थी फिर फिर खुद ही उस प्रण को तोड़ भी बैठती हूं। इसलिये तब ‘हंस’ को मेरी और मुझको ‘हंस’ की जरूरत का 'मूलाधार' यह समीक्षा ही थी। फिर पता नहीं कैसे पहला अंक निकलने के पहले ही इस मूलाधार का तरह तरह से बन्टाधार हुआ जो अपनी शाखा प्रशाखा निकालता चला गया और मैं वहां प्रूफ़रीडिंग से ले कर रचनाओं की पहली छंटनी और जब जैसी जरूरत तब वैसा माल कविता, कहानी, छोटी कहानी, लम्बी कहानी, समीक्षा, एक बार का तो संपादकीय भी वगैरह सप्लाई करने जैसे तरह तरह के धन्धों में फंसी पाई गयी। यानी कुल मिला कर शुरू के सालों में टाइमटेबिल का काफी काफ़ी हिस्सा ‘हंस’ के दफ़्तर में बीतने लगा। इसमें कहीं मेरी अपनी भी कमजोरी रही ही होगी। और कुछ नहीं तो अपेक्षाओं को टाल न पाने या फिर अटक भीर और अड़ी भिड़ी के समय बावजूद अनिच्छा और आलस्य के बरबस उठ खड़े होने की निहायत औरताना आदतें जो अपने आप से बेहद लड़ाई के बावजूद छूटती ही नहीं और भुनभुनाने की मनःस्थिति में इस फंसावड़े की सारी जिम्मेदारी (पढ़िये गलती और गुनाह) मैं राजेन्द्र जी पर डालना पसंद करती हूं। मुझे भी इस तरह अपने लिये एक स्थायी बहाना मिला हुआ है कि ‘हंस’ की फ़ाइल-दर-फ़ाइल कहानियां पढ़ते हुए और रहे सहे वक्त में तथाकथित बाकी धन्धे निपटाते हुए न वक्त बचता है न दिमाग कि जो मैं सचमुच लिखना चाहती हूं वह लिख सकूं। इस सिलसिले में भुनभुनाना एक किस्म की क्षतिपूर्ति ही समझिये। यह अलग बात है कि बीच बीच में जब कुछ अरसे के लिये समीक्षा वगैरह से हाथ समेटा तब कुछ और भी नहीं ही लिखा। थोड़ा बहुत जो लिखा गया वह कभी न लिखा गया होता यह फंसावड़ा अगर न होता। राजेन्द्र जी यह कला जानते हैं। वे जानते हैं कि मैं सिर्फ दबाव और मज़बूरी में ही काम करती हूं। वे मुझे यह भी बताते हैं कि मेरे बहानों का असली नाम आलस्य है। कभी चुनौती से, कभी धिक्कार से , कभी अपनी असहायता और अन्यत्र व्यस्तता के प्रदर्शन से और इस सबसे बढ़ कर इस जानकारी से कि किस पर किस वक्त कौन सा हथियार काम करेगा, वे लोगों को प्रेरित, प्रोत्साहित, उत्तेजित करके काम के लिये धकेलना जानते हैं। उनकी इन्हीं युक्तियो (पढ़िये हथकण्डों) का नतीजा है कि आज मैं अखिलेश के चंगुल में फंस कर खुद राजेन्द्र जी को इस ललित निबन्धनुमा चीज़ का विषय बना कर इस चिन्ता में बैठी हूं कि यह ऐयार जो खुद ही तिलिस्म भी है, खुद ही तहखाना भी, इसकी चाभी है कहां। और विषय ऐसा फिसलवां साबित हो रहा है कि आसानी से पकड़ में आने की बजाय अवान्तर भटकाता ही चला जा रहा है। शायद ऐसा भी होता हो कि जहां आसानी से कोई रहस्य पकड़ में न आये वहां दरअस्ल रहस्य हो ही नही, सिर्फ रहस्य के लक्षण होने की वजह से मान लिया जाय कि रहस्य भी है । अब आज के ज़माने में विवाहेतर प्रेम प्रसंग या स्त्री-हृदय-संग्रह जैसे शौकिया शिकारों को रहस्य की कोटि में रखने की तुक तो कोई है नहीं। उन्हें ले कर छोटा मोटा स्कैण्डल तक खड़ा करने के लिये भी एक बिल क्लिंटन चाहिये। उनकी बात अलग है जिनके संस्कार आधी सदी पहले पड़ चुके थे या फिर जिनके भीतर भय है, जिनमें स्त्रियां ही प्रमुख हैं, जो भुगतती आई हैं और जो अब बहादुरी के कारनामों में स्वयं भी पीछे नहीं हैं और जो अब प्रतियोगिताओं में पुरूषों की अपेक्षा कहीं अधिक फ़ायदे में हैं क्योंकि देने वाली कुर्सियों पर जब तक अधिकतर पुरूष हैं तब तक इनके पास देने के लिये ऐसा कुछ है जो पुरूष प्रतियोगियों के पास नहीं है और जो उन स्त्रियों के लिये भी एक संकट खड़ा करती हैं जो इन शर्तों पर प्रतियोगिता में शामिल होना नहीं चाहतीं। पर यह भी यहां एक अवान्तर प्रसंग है। इसे आगे के लिये स्थगित करते हुए रेखांकित यहां मैं सिर्फ यह करना चाहती हूं कि ‘कथादेश’ के पूर्वोक्त साक्षात्कार में उल्लिखित राजेन्द्र जी के इकबालिया प्रेमप्रसंगों के अतिरिक्त, जो अब रहस्य नहीं रहे, अन्य रहस्य कहीं हैं या नहीं? वह तोता कहां है जिसमें राजेन्द्र जी की जान है?

फिलहाल वह तोता शायद ‘हंस’ है। उनके बरसों के पाले हुए सपने का सच। और उनके इच्छाजगत में संपादक को जैसा होना चाहिये वैसे ही संपादक की भूमिका उन्होंने अपने लिये तय की है। अपनी सारी भुनभुनाहट के बावजूद इतना तो मैं भी जानती हूं कि यह अहसास उन्हें शायद बहुत गहराई तक तृप्त करता है कि किसी की रचनाशीलता को खादपानी देने में उनका भी हाथ है। ‘हंस’ के साथ जुड़े नये लेखकों की लम्बी जमात का स्नेह और लगाव इसी का फल है लेकिन इसके कुछ अवान्तर नतीजे भी हैं ही। जैसे कि राजेन्द्र जी का यह आग्रह कि वापस जानेवाली रचना में अगर थोड़ी भी गुंजाइश दिखे तो उस पर एक टिप्पणी और साथ में संशोधन की सलाह जरूर नत्थी की जाय। पहली छंटनी का काम इससे बढ़ता और मुश्किल होता है, यह स्थिति का सिर्फ एक ही पहलू है। यह भी होता रहता है कि सलाह के नतीजे खुद को ही भुगतने पड़ें। लेखक अगर सलाह को अमल में लाकर सचमुच संशोधन कर डाले और हंस को सलाह और संशोधन के बीच कोई ताल मेल नज़र न आये तो गलती जाहिर है हमारी होगी। संशोधन के कारण अगर कहानी और भी बिगड़ गयी सी पायी जाय तो इस सत्यानास की जिम्मेदारी भी जाहिर है हमारी ही होगी। विचारार्थ दुबारा भेजते समय अगर लेखक मान चुका हो कि इस बार तो रचना स्वीकृत होगी ही तो उचित ही यह उसका अधिकार है। यानी यह मान लेना कि स्वीकृति मिलेगी न कि प्रकाशित भी होना। लेकिन दुर्भाग्य से यदि रचना को लौटाना पड़ा तो मामला संपादकीय तानाशाही का और लेखकीय अधिकार में हस्तक्षेप का बन जाता है । स्नेह और लगाव धरा का धरा रह जाता है और नाराज़ों की गिनती में एक और का इज़ाफा होता है। जितनी आसानी से राजेन्द्र जी दोस्त बनाते हैं उतनी ही आसानी से दुश्मन भी लेकिन प्रकाशन की शुरूआत के चौदह वर्ष बाद आज भी यह संपादकीय नीति बरकरार है और राजेन्द्र जी यथासंभव लेखकों को पत्र भी स्वयं ही लिखा करते हैं।

पत्रों का किस्सा भी खासा दिलचस्प है। ‘हंस’ के दफ़्तर में वे ढेर के हिसाब से आते और बेहद चाव से पढ़े जाते हैं। डाक राजेन्द्र जी खुद अपने हाथों से खोलते हैं और सबसे ज्यादा मज़ा नाराज़ पत्रों को पढ़ कर पाते हैं जो कभी कभी सचमुच इतने नाराज़ होते हैं कि बाकायदा गोली से लेकर गाली तक की समूची रेन्ज संभाले होते हैं। और गालियां भी गोली से कतई कम नहीं शायद कुछ बढ़ कर भले हों। इस मामले में राजेन्द्र जी का प्रिय शगल यह है कि खुद पहले पढ़ चुकने के बावजूद निहायत भोले और अनजान बन कर कोई ठेठ मांसाहारी किस्म का खत मुझे या वीना, सुश्री वीना उनियाल - हमारी कार्यालय सहयोगिनी, को थमा कर वे उसके सामूहिक सस्वर पाठ की फर्माइश करेंगे कि देखो तो ज़रा, क्या कहता है, मेरी समझ में नहीं आ रहा है , पढ़ कर सुना दो और इस क्रम में मेरी या वीना की भद्र महिलासुलभ आत्मछवि को खतरे में डाल देंगे । यानी कि होगा यह कि ‘संपादक साले उल्लू के पट्ठे, तू अपने को समझता क्या है’ जैसी अपेक्षाकृत विनम्र वचनावली से शुरू होने वाला पत्र जरा दूर चल कर मां की, बहन की शान में अकथनीय इजाफ़ा करता हुआ मिलेगा और पढ़नेवाली पढ़ती जाये तो अपनी स्त्रीजनोचित सुशीलता की शान में , और न पढ़ पाये तो तथाकथित बौद्धिकता के गुमान में बट्टा लगते हुये पायेगी ही। एक दिन खीझ कर मैं भी खेल ही गयी। अन्त तक पढ़ ही डाला । सन्नाटा छा गया। थोड़ी देर। किसी को समझ में ही नहीं आया कि प्रतिक्रिया क्या दी जाये । फिर राजेन्द्र जी ने ठहाका लगाया। उस दिन के पहले तक के पुरूष प्रधान ‘हंस’ जगत में पुरूषोचित विमर्श की आकांक्षा होने पर मुझसे कमरा छोड़ देने की प्रार्थना की जाती थी। उस दिन से मैने स्वयं को पूर्णकालिक सदस्य की हैसियत से स्वयं को दाखिल पाया और ‘हंस’ के साथ मेरे संबन्ध में सबसे अधिक मूल्यवान बात मुझे यही लगती है कि वहां अपने स्त्री होने के अहसास का कोई प्रतिबन्धक दबाव मुझे अपने मन पर महसूस नहीं होता। प्रेमीपुंगव के रूप में राजेन्द्र जी की ख्याति के सार्वजनिक होने के पहले और स्वयं इस ख्याति से अपरिचित होने के कारण मैं इस आशय का प्रमाणपत्र जब तब प्रसारित किया ही करती थी। बिना मांगे। इसके पीछे अपनी आश्वस्ति और निश्चिन्तता की अभिव्यक्ति है कि ऐसी दोस्ती और ऐसा दफ़्तर भी संभव है। वह प्रमाण पत्र अब भी अपनी जगह बरकरार है।लेकिन उसे अब मैं उसे पहले की तरह प्रसारित प्रायः नहीं करती। वजह बचकानी और हास्यास्पद है।एक तो यह कि यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, सामान्यीकरण का आधार नहीं बन सकता। दूसरे यह आशंका कि जनता की मनोवृत्ति को देखते हुए मेरे अनुभव की तुलना में राजेन्द्र जी ख्याति ज्यादा विश्वसनीय साबित होगी।

लेकिन बात पत्रों की हो रही थी। मत और सम्मत में प्रकाशन के लिये पत्रों का चुनाव करते समय उन पत्रों की जगह सबसे ऊपर होती है जिनमें ‘हंस’ और राजेन्द्र जी की सख्त आलोचना हो।लेखकों के अलावा पाठक भी ऐसे पत्र काफ़ी खुले दिल और इत्मीनान से लिखते हैं। बल्कि कुछ ज्यादा ही इत्मीनान से। शायद वे भी जान चुके हैं कि कैसे पत्र जरूर छापे जायेंगे। संपादक की डाक में बहुत से व्यक्तिगत पत्र भी होते हैं। उनमें स्त्रियों के पत्रों की संख्या भी अच्छी खासी होती है। कई बार ये साहित्यिक मसलों से जुड़े होते हैं तो कई बार लिखने वाले की बिल्कुल निजी दिक्कतों और समस्याओं के बारे में भी और लिखने वाले भी ऐसी पृष्ठभूमि के कि सोचना मुश्किल लगे कि इन्हें ‘हंस’ और राजेन्द्र जी के बारे में मालूम कैसे हुआ होगा। एक पत्र उत्तरप्रदेश के किसी गांव की किशोरी का था।उसकी समस्या लड़की होने के कारण परिवार में अपनी उपेक्षा से जुड़ी हुई तो थी ही, इस समय और भी विकट हो उठी थी क्योंकि वह अपनी दसवीं तक की पढ़ाई पूरी करना चाहती थी जब कि घरवाले उसकी शादी कर देने पर तुले हुए थे। राजेन्द्र जी से उसकी अपेक्षा यह थी कि दिल्ली में उसके लिये एक नौकरी का प्रबन्ध कर दें तो वह शादी के पहले ही घर से भाग निकले। कुछ पत्र भावना और कर्त्तव्य के चिरन्तन द्वन्द्व में फंसी विवाहिताओं के होते हैं जो अपनी नैतिक दुविधाओं का समाधान राजेन्द्र जी से मांगती हैं। एक दिवंगत विधुर लेखक की अविवाहित समर्पिता के इस आशय के पत्र पिछले दिनों राजेन्द्र जी की चिन्ता के विषय बने रहे कि अब वह अपने जीवन का क्या करे और दिवंगत की सम्पत्ति में से अपने गुजारे लायक कुछ पा सकने का उसका कोई कानूनी अधिकार है या नहीं। राजेन्द्र जी को ये पत्र लेखक क्यों अपना विश्वास पात्र चुनते हैं, उनके साथ कैसे इतने निस्संकोच हो उठते है, कैसे ऐसी असंभव सी अपेक्षाएं उनसे रखने का अधिकार ले लेते हैं, मालूम नहीं लेकिन इतना मालूम है कि राजेन्द्र जी हर पत्र को गंभीरता से लेते और भरसक हर समस्या को समझने सुलझाने की कोशिश के साथ जवाब लिखते हैं। कम से कम जवाब तो लिखते ही हैं, बाकी समस्याओं का उलझना सुलझना उनके हाथ में कहां। पर उनका विश्वास है कि और कुछ किसी को न भी दिया जा सके, ‘टी एण्ड सिम्पैथी’ तो दी ही जा सकती है।

लेखक जाति के जन्तु से थोड़ा बहुत साबका तो ‘हंस’ के साथ जुड़ने के पहले भी पड़ता रहा था लेकिन अब का देखना उन्हें झुन्ड का झुन्ड देखना थाऔर उनके बीच राजेन्द्र जी को देखने का मतलब उन्हें उनके प्राकृतिक आवास में स्वाभाविक व्यक्तित्व और अस्तित्व में देखना था। जो न बल्ख में पाया न बुखारे में उस किसी दुर्लभ तत्त्व की तलाश में दिल्ली से हो कर गुजरने वाला अमूमन हर लेखक रज्जू के चौबारे तक आ ही पहुंचता है और लेखक जात के दिल्लीवासियों की जमात में से भी अधिकतर साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक देखादेखी कार्यक्रम निभाने में आनन्द लेते हैं। वह दुर्लभ तत्त्व है बतरस। ‘हंस’ का दफ़्तर वह प्रदेश है जहां इसकी बरसात का कोई मौसम नहीं। या कहें कि हर मौसम इसी बरसात का है।

जुए और शराब जैसी कोई चीज़ है बतरस। अपने आप में भरा पूरा एक नशा। और निस्संदेह राजेन्द्र जी सिद्ध कोटि के नशेड़ी हैं। यह मानसिक भोजन है लेकिन सिर्फ सात्विक और निरामिष किस्म का वैसा मानसिक भोजन नहीं जो सिर्फ पेट भरता और स्वास्थ्य को सुरक्षित रखता है। ऊपर उपर से देखते हुए किसी को जितना जाना जा सकता है उतनी सी अपनी जानकारी के बल पर कहूं तो ऐसा लगता है कि संगत अगर मन की हो तो राजेन्द्र जी के लिये शायद बिल्कुल निजी तौर पर जिन्दग़ी की प्राकृतिक और बुनियादी किस्म की अनिवार्य जरूरतों के अलावा बाकी हर चीज़ का स्थानापन्न है यह बतरस। बल्कि कहना यह चाहिये कि यह उनकी प्राकृतिक और बुनियादी जरूरतों में से एक तो है ही, जरूरत से बढ़ कर एक नशा भी है। उसकी जगह हर चीज़ से ऊपर और पहले है, शायद उन जरूरतों के भी ऊपर और पहले जो उनके स्वयं-स्वीकृत प्रेमसंबन्धों से पूरी होती हैं। यह जीवन के साथ उनका संपर्क, लेखन के लिये सामग्री का स्रोत, और न लिख पाने के दिनों में स्वयं सृजन का स्थानपन्न है। बतरसियों का शायद सभी जगह यही हाल हो।

बतरस में शामिल संगत के हिसाब से सामग्री और स्तर बदलते रहते हैं। लेकिन केवल परनिन्दासुख का टॉनिक पी कर पुष्ट होने वाली गोष्ठी यहां प्रायः नहीं होती। यानी अगर होती है तो निन्दनीय की उपस्थिति में, आमने सामने, सद्भाव सहित टांगखिंचाई के रूप में जिसका मज़ा उसे खुद लेने को मज़बूर होना पड़ता है। इन सरस आत्मीय प्रसंगों के शिकारों में ‘हंस’ का पूरा स्टाफ़ शामिल है जो राजेन्द्र जी के मुंह से ऐसी ऐसी बातें सुन कर निहाल हो लेता है जिन्हें कोई और कहे तो अपना सिर फुड़वाये। कभी वीना का परिचय देते हुए किसी से वे कह बैठेंगे ‘पिछले बारह वषों से यह मेरी संगिनी है’ और वीना का चेहरा देखने लायक होगा। कभी कविता, नवोदित समीक्षिका, कवयित्री और कथाकार – इन दिनों ‘हंस' का शीघ्र प्रकाश्य कथा संचयन बनाने में सहायक, की स्वाद संबन्धी रूचियों का बखान होगा। ‘हंस’ का हर आगन्तुक उसके एकाग्र आलू प्रेम से परिचित है। कभी किशन का प्रशस्तिगान चल रहा होगा, ‘यह तो अगर बिड़ला के यहां भी नौकरी कर रहा हो तो साल भर में उसे दीवालिया बना कर सड़क पर निकाल दे।’ या फिर यह कि ‘ घर का मालिक तो असली यही है जो करता है सब अपने लिये। जो खाना हो सो बनाता है। खा पी कर ठाठ से मस्त रहता है।सब इसीका है। हम साले कहां। हमारा क्या। एक रोटी खा लेते हैं। एक कमरे में पड़े रहते हैं। बाकी सारा घर तो इसने दबा रखा है ’ वगैरह और किशन सुनी अनसुनी करता हुआ व्यस्त भाव से दफ़्तर के इस कमरे से उस कमरे में होता रहेगा और खाने के समय अभिभावक के रोब से डांट डांट कर सारी कसर निकाल लेगा।चुपचाप खा लीजिये। यह दवा लीजिये। नहीं तो मैं दीदी – टिंकू – से शिकायत कर दूंगा। और राजेन्द्र जी बच्चों की तरह ठुनकते रहेंगे। देख कर लगेगा कि यही इनका असली आनन्द है कि इसी तरह उलटे-पलटे, उठाये-धरे, झाड़े-तहाये जाते रहें। नाज़ नखरे उठते रहें। पर यह भी सच है कि किशन लम्बी छुट्टी पर चला जायेगा तो दो चार दिन परेशान दिखने के बाद उसी मुफ़लिस मिस्कीन मुद्रा के ऐसे अभ्यस्त दिखाई देंगे जैसे सदा से ऐसे ही रहने के आदी हैं। अनमेल कपड़े, अगड़म बगड़म खाना, अनूठी धजा। बतायेंगे कि आखिर घर का मालिक अनुपस्थित है तो इतना फ़र्ज. तो राजेन्द्र जी का भी बनता ही है कि उसकी अनुपस्थिति को सलामी दें। फिर वीना, हारिस, दुर्गा, अर्चना सब के डिब्बों से राजेन्द्र जी के लिये इतना खाना निकलेगा कि दोपहर में दफ़्तर में खाने के बाद वे रात के लिये घर ले जायेंगे और अगले दिन दफ़्तर में बतायेंगे कि उसी में मेहमान भी खिला लिये । दुर्गा की खुराक उसकी चिरन्तन छेड़ है। वह शादी करके लौटा तो छूटते ही राजेन्द्र जी बोले कि अपनी रोटियों की गिनती कम कर वरना दो दिन में भाग खड़ी होगी। सुबह की सेंक कर चुकेगी और शाम की शुरू कर देगी। और कुछ तो देख ही नहीं सकेगी जीवन में। बदकिस्मती से वह सचमुच चली गयी। दुर्गा ने अभी दूसरा विवाह किया है और राजेन्द्र जी ने अपनी चेतावनी दोहरानी शुरू कर दी है। यानी दफ़्तर में किसी दिन मेहमान कोई आये या न आये, रौनक के लिये राजेन्द्र जी अकेले ही काफ़ी हैं। छेड़ छाड़ का यह ताना बाना आत्मीयता का एक वितान बुनता है। यह सबको अपने साथ ले कर चलने का उनका तरीका है। कहीं दूर दराज़ से एक दिन को दिल्ली आया हुआ कोई अपरिचित पाठक भी घन्टे आध घन्टे की अपनी मुलाकात में इस आत्मीयता का प्रसाद पा कर गद्‍गद्‍ हो उठता है।

आनेवालों की न पूछिये। किस्म किस्म के लोग। लोगों का तांता। लेखक और आलोचक तो खैर प्रतीक्षित और प्रत्याशित ही हैं, अप्रत्याशित का स्वागत और सामना करने को भी हंसजगत तैयार रहना सीख गया है। राजेन्द्र जी के दफ़्तर के कमरे में प्रवेश का दरवाज़ा मेरी कुर्सी के पीछे है।एक दिन झपट कर वे सज्जन, नाम नहीं मालूम, भीतर घुसे और पीठ पीछे से हाथ का बस्ता मेरे सामने पटका। झपट्टे का झोंका मेरे बायें कन्धे पर भी लगा लेकिन उनका असल निशाना राजेन्द्र जी थे। जब तक कोई कुछ समझे न समझे वे कस कस कर दो घूंसे राजेन्द्र जी को जमा चुके थे और बाकायदा सुसज्जित भाषा में गरज रहे थे, कहां छिपा रखी है मेरी चन्द्रमुखी। निकाल साले। वरना खून पी जाउंगा। अरविन्द जैन, हारिस, दुर्गा, किशन वगैरह ने मिल कर मुश्किल से किसी तरह काबू किया और उनको बाहर निकाला वरना दुनिया भर के अन्याय के खिलाफ़ मुहिम पर निकला अकेला बांकुरा अभी पता नहीं क्या क्या गुल खिलाता। हालत अमिताभ बच्चन की फिल्म के सेट जैसी होते होते बची। बल्कि थोड़ी बहुत तो हो ही गयी। देर तक किस्से कहानियां चलती रहीं।

मैं काफ़ी देर स्तब्ध रही। अन्तर्कथा यूं थी कि कवियशःप्रार्थी उन सज्जन को असफल प्रेम के दंश ने इस दशा को पहुंचाया था। उनकी चन्द्रमुखी और राजेन्द्र जी पर क्रोध का कोई सम्बन्ध राजेन्द्र जी की पूर्वोक्त ख्याति से नहीं था। हालांकि घटना जैसे घटी उससे भ्रम हो सकता था कि है। ज़ालिम ज़माने के साकार प्रतिरूप चन्द्रमुखी के माता पिता बेटी की स्नेह चिन्ता में बीच में आ खड़े हुए थे। राजेन्द्र जी से प्रेमी-बालक की शिकायत थी कि ‘हंस’ के संपादक के रूप में अपनी सर्वशक्तिमान हैसियत का इस्तेमाल उन्होंने चंद्रमुखी को वापस दिलवाने के लिये क्यों नहीं किया था। आखिर वे भी तो रचनाकार होने के नाते उनकी बिरादरी के सदस्य थे। राजेन्द्र जी से लोगों की अपेक्षाओं के आकार प्रकार की सचमुच कोई हद नहीं और उसी वजन पर अपनी रचनाकार बिरादरी का भी कोई जवाब नहीं। बिरादर आत्मलीन आवेग की चोटी की नोक पर खड़े डगमगाते, कांपते, कुछ होश में, कुछ बेहोशी में अपनी ही झोंक और झपट्टे से हद के पार निकल लेते हैं और देखने वाले कहते हैं कि खिसका हुआ है। इस सबके बाद अगर रचना हो सके तो लगे कि कुछ ख़मियाज़ा भरा गया लेकिन उसकी भी कोई गारन्टी नहीं। शेष रह जाता है खाली ध्वंस। व्यर्थ।

लेकिन मुद्दा था बतरस। बतरसिया का स्वभाव भी उसके नशे की जरूरत के सांचे में ढल जाता है। इस सांचे का बुनियादी तत्त्व है भाषा के साथ एक खास किस्म का रिश्ता। राजेन्द्र जी को बोलते हुए सुनिये। वे बात नहीं करते, संवाद अदा करते हैं। उधर से किसी ने टेलीफोन पर पता नहीं क्या कहा।इधर से राजेन्द्र जी बोल रहे हैं ‘तो इन्तज़ाम करना और इन्तज़ार भी।’ दूसरे मिसरे का इन्तज़ार मत कीजिये महाशय। यह कोई ग़ज़ल नहीं, सिर्फ एक बात है। वैसे मौके के हिसाब से मौजूं शेरों का भी पूरा भण्डार उनके पास है और ठीक मौके पर सही शेर उनको याद भी पता नहीं कैसे लेकिन ज़रूर आ जाता है। यही हाल चुटकुलों का भी है। जरा उनके अनुवाद का यह नमूना देखिये। ‘फूल्स रश इन व्हेयर एन्जिल्स फियर टु ट्रेड’ का हिन्दी में यह मौलिक पुनर्लेखन है ‘चूतिये धंस पड़ते हैं वहांफरिश्तों की फटती है जहां।’ ‘टॉर्च का उनका हिन्दी अनुवाद है ‘ज्योतिर्लिंग।’ भाषा के साथ एक बेहद अन्तरंग, लचीला और घनिष्ठ रिश्ता उनके लेखन से भी ज्यादा उनकी बातचीत से फूटा पड़ता है।

ये एक अच्छे ‘कनवर्सेशनलिस्ट’ के ज़रूरी औजार हैं लेकिन ज्यादातर मशक्कत तत्काल और तत्क्षण होती है। यह तत्कालता या प्रत्युत्पन्नमतित्व बतरसिया की अंतरंग योग्यता है। इसका मतलब शब्दों के इस्तेमाल में, अपने भी ओर दूसरे के भी, केवल शब्दों के प्रति एक चौकन्नापन है। मौका मिलते ही मुहाविरे को पलट दिया जायगा ।बात बदल जायेगी। दो उस्तादों के बीच कभी ऐसा मुहाविरा महासमर देखने का मौका मिला हो तभी उसके असर का पूरा अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। बरसों उसके उद्धरण चुटकुलों की तरह हिन्दी जगत में सुने सुनाये जाते हैं। ऐसी ही एक सुनी सुनाई यूं है कि, पर सुनाने के पहले ही साफ़ कर दूं कि गुजरे ज़माने की बातें हैं, वह भी सुनी सुनाई, सो कॉपी राइट संदिग्ध है। यानी संवादियों के नाम तो शायद सही हैं पर किस की पंक्ति कौन सी है यह पूरी तरह से निश्चित नहीं है। पहले उदाहरण के संवादी हैं स्वर्गीय श्री मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव।मोहन राकेश अपना लेखन टाइपराइटर पर करते थे। किसी पत्रिका से बहुत शॉर्ट नोटिस पर दोनो से रचना की फर्माइश थी। लेखकोचित नखरे से राजेन्द्र ने कहा कि इसका क्या है, यह तो दे ही देगा। यह तो टाइपराइटर से लिखता है। दिक्कत हमारी है।हम दिमाग से लिखते हैं। छूटते ही राकेश ने कहा कि पन्द्रह साल से हम दोनो लिख रहे हैं। मैं टाइपराइटर से और यह दिमाग से। मेरा टाइप-राइटर तो भाई पन्द्रह साल में खचड़ा हो गया है। राजेन्द्र जी के दिमाग के बारे में राकेश ने कुछ नहीं कहा। दूसरी एक घटना के संवादी शायद कमलेश्वर के साथ राजेन्द्र यादव हैं जिसमें एक ने दूसरे के दिमाग में गोबर भरा होने की घोषणा की तो दूसरे ने जानना चाहा कि फिर पहला उसे इतनी देर से चाट कर क्या साबित कर रहा है। एक बार ऐसा हुआ कि कविवर श्री अजित कुमार उनकी पत्नी कवयित्री श्रीमती स्नेहमयी चौधरी यादव दम्पत्ति के साथ यात्रा पर गये। अजित कुमार के संदर्भ में राजेन्द्र जी की नामकरण प्रतिभा अपने चरम शिखर पर पायी जाती है। उनके दिये गये ‘गोलमालकर’, ‘खिटखिटानन्द’ तथा ‘घपलाकर’ जैसे नाम मित्रो के बीच स्थायी रूप से स्वीकृत हो चुके हैं। इस संदर्भ में अजित जी का जवाब यह है कि गोलमाल, खिटखिट और घपला करते तो राजेन्द्र जी समेत बाकी सब ही है लेकिन नाम सिर्फ अजित कुमार का इसलिये होता है कि उनके स्वच्छ मनोदर्पण में बाकी सब अपनी अपनी छवि प्रतिबिम्बित देखते हैं। इस यात्रा में अजित कुमार ने नया नाम पाया पतिदेव। स्नेह जी के प्रति उनकी अतिरिक्त चिन्ता शायद इसके मूल में रही हो पर जल्दी ही यह नाम से ज्यादा टांगखिंचाई का साधन बन गया। बताया जाता है कि अजित कुमार ने यह कह कर हिसाब बराबर किया कि जहां बाकी सब विपत्ति देव हों वहां कम से कम एक का पतिदेव होना ठीक ही नहीं जरूरी भी है। इन्हीं अजित कुमार के विषय में राजेन्द्र जी की एक प्रिय छेड़ यह भी है कि उनके प्रेम प्रसंग कभी पकड़े न जायेंगे क्यों कि वे इतने चतुर हैं कि प्रमाण कभी छोड़ते ही नहीं। उनकी प्रेमिकाओं के घर में उनके पत्र नहीं मिलते कि कोई उन्हें ब्लैकमेल कर सके, पुत्र मिलते हैं जिनके बारे में कोई कह नहीं सकता कि किसके हैं।

शब्दों के साथ इस किस्म के खिलवाड़ की क्षमताएं केवल खेल में ख़तम नहीं हो जातीं। खेल के अतिरिक्त वे केवल रचना के समय में ही सक्रिय होती हों ऐसा भी नहीं है। जितनी देर यह खेल चलता है उतनी देर वह अद्वितीय है। उसका स्थानापन्न दूसरा कुछ नहीं हो सकता।लेकिन खेल के बाहर वे उस मानसिकता की अभिव्यक्ति जान पड़ती हैं जिसके लिये सारी संवेदनाएं जैसे शब्दों में रहती हों, उन सचमुच के अहसासों में नहीं जिन्हें शब्द पैदा करते हैं। वे ‘एक दुनिया समानान्तर’ के वासी हैं जो शब्दों से रचित है। अजीब विरोधाभास है कि रचना के संदर्भ में तो आग्रह यह हो जाय, जो कि पहले नहीं था, कि भाषा और यथार्थ के बीच का फासला न्यूनतम हो, लगभग कलाहीन और सपाट जबकि जीवन के साथ सीधे संपर्क में भाषा एक आड़ बन जाय, एक फासला। हर देखे सुने को, व्यक्ति हो या घटना या फिर अनुभव, सूक्तियों और सूत्रवाक्यों में बदल कर मनोकोष में दर्ज कर लेने की मजबूरी सी हो जाती है जो केवल लेखन तक बाकी नहीं रहती, जीने की प्रक्रिया का हिस्सा बल्कि पर्याय बन जाती है। राजेन्द्र जी के अनुभव कोष में हम सब शायद इसी तरह दर्ज हैं, एक सूक्ति, एक सूत्रवाक्य या एक परिभाषा बन कर। यह आदमी और अनुभव के अमूर्त्तन का तरीका है। हाड़ मांस का जीता जागता धड़कता हुआ आदमी गुम हो जाता है। अपने ‘इमोशनल अपरेटस’ या ‘अज्ञेय’ के शब्दों में 'भावयंत्र' पर अनुभव अपनी पूरी मांसल और विध्वंसक ऊर्जा के साथ दर्ज ही नहीं होता। एक स्तर पर यह खुद अपना भी अमूर्त्तन है यानी अपने आपे के साथ भी केवल एक वैचारिक रिश्ता। क्या यह भी एक तरह का कवच है? 

इस जगह आ कर उस दूसरे स्तर के बतरस की बात शुरू की जा सकती है जिसे राजेन्द्र जी भी गंभीरता से लेते हैं और उनके प्रशंसक पाठक भी। बहसें भी होती हैं, गोष्ठियाँ भी पर उनके सदस्य और इलाके ‘हंस’ के दफ़्तर के बाहर हैं। वे विद्वत्जन हैं। ये गोष्ठियां केवल शगल नहीं हैं, उनमें एक गंभीर सोद्देश्यता है और वहां बीतने वाला वक्त राजेन्द्र जी में एक स्वयंसिद्ध सार्थकता का भाव उत्पन्न करता है। नहीं करता है अगर, तो अपने सोचे समझे के प्रति एक सप्रश्नता। इसी का एक और प्रकार अपने पाठकों साथ ‘मेरी तेरी उसकी बात' में उनका सीधा संवाद है। साहित्य और साहित्यकारों के बारे में कुछ बेहद स्मरणीय और संग्रहणीय संपादकीय उन्होंने लिखे हैं। लेकिन इन्हीं में कुछ किताबों के बारे में ऐसे संपादकीय भी हैं जिनके लेखक जीवन भर ‘हंस’ के संपादकीय के लिये अपनी किताब के चुने जाने के सौभाग्य से आहत और रूष्ट रहेंगे। इसलिये कि संपादकीय दरअस्ल किताब के बारे में होगा ही नहीं, किताब के बहाने से राजेन्द्र जी के अपने किसी मंतव्य, धारणा या निष्कर्ष को स्थापित कर रहा होगा लेकिन इसी क्रम में किताब या तो रद्द हो जायेगी या फिर रद्द कर दी गयी सी प्रतीत होगी। किसी किताब या किताब के अंश को केवल प्रस्थान बिन्दु की तरह इस्तेमाल करते हुए उससे बिल्कुल अलग अपनी रूचि, विचार, सनक या मनस्तरंग की घाटियों में भटक या बहक जाना उस तथाकथित आलोचना की पद्धति है जो स्वयं को रचना का स्थानापन्न मानती है और अपने डंक से रचना को घायल करती है। ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड़’, ‘हमज़ाद’, ‘ खिलेगा तो देखेंगे,’ ‘पहला गिरमिटया’ आदि अनेक ऐसी ही डंक मारी हुई रचनाएं हैं। इस संपादकीय समीक्षा से कई बार आप सहमत भी हो सकते हैं, कहने का मतलब यह है भी नहीं कि किताब की आलोचना या निन्दा नहीं की जा सकती, लेकिन यहाँ सवाल यह है कि संपादकीय के तौर पर किसी अभी अभी प्रसारित किताब के बारे में अपनी व्यक्तिगत सहमति या असहमति के इज़हार से पाठक समुदाय को पहले ही पूर्वग्रह-ग्रस्त कर देना रचना के साथ कहां का न्याय है। समीक्षा भी सम्पादकीय के तौर पर लिखी जाकर चोला बदल लेती है। इधर राजेन्द्र जी इस किस्म की आलोचना या रचना पर अक्सर हाथ आजमा रहे हैं और अपने आहतों और रूष्टों की गिनती बढ़ा रहे हैं। लेकिन इससे वे डरते कब हैं, वे तो प्रतिक्षण अपनी निडरता प्रमाणित करने को तत्पर बल्कि लालायित रहते हैं। इतने कि अगर काश्मीर के रास्ते में निकल कर किसी के साथ अपनी असहमति दर्ज करानी याद आई तो दुलत्ती झाड़ने के लिये कन्याकुमारी होते हुए काश्मीर जायेंगे। राजनीति में अवाजो (अडवाणी, वाजपेयी, जोशी) साहित्य में नरेन्द्र कोहली जैसे परम्परा के पुनःप्रस्तोता, राग भूपाली के गवैये बजैये जैसे तथाकथित रूपवादी और कलावादी उनके ताड़न के सतत अधिकारी हैं। आपको लाख लगता रहे कि यह अप्रासंगिक विषयान्तर है पर उनका तो रास्ता ही उधर से है। क्षमा करें, ये सारे संपादकीय गुण हैं। और राजेन्द्र जी अपने सोचे समझे की मूल्यवत्ता और सत्यता के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हैं। सईद और फूको के चौखटे के जो कुछ भी बाहर रह जाता है उनके लिये उसका अस्तित्व ही संदिग्ध है। इसी आश्वस्ति में से तो उस आत्मविश्वास का सोता फूटता है जो मूल्यांकन के लिये अपने को प्रति मास पाठक के सामने परोसने का बल देता है। लेकिन जिस किताब के सहारे वे अपने आत्मविश्वास का उद्‍घाटन कर रहे हैं वह भी किसी के आत्मविश्वास की अभिव्यक्ति है जिसे वे अकारण अपनी संपादकीय पीठ की सुरक्षित और अनुकूल स्थिति से ध्वस्त करने को उद्धत हैं, इस बात की ओर उनका ध्यान स्वयं न जाता है और न वे ध्यान दिलाने पर भी देने को उत्सुक या तत्पर ही दिखाई देते हैं। किताब मैदान में उतरने के पहले ही मारी जाती है जबकि किताब के साथ उनकी अपनी कोई खास असहमति भी नहीं, अपनी बात वे यूँ भी कह सकते थे, अगर एक बना बनाया सन्दर्भ पा जाने का लोभ न होता तो।

समस्या उन संपादकीयों के साथ ज्यादा टेढी है जिनमें उनके इतिहास, समाज और राजनीति के विश्लेषण-अभियान हुआ करते हैं और जिनमें राज, समाज और इतिहास की समझ की कोई खास या आम तैयारी नामौजूद है। पाठक जानते हैं कि आज का‘हंस’वही ‘हंस’ नहीं है जो चौदह वर्ष पहले प्रकाशित होना शुरू हुआ था। हालांकि तब शुरू होने के लाभ आज भी उसके पास हैं। आज भी वह अन्य पत्रिकाओं की अपेक्षा ज्यादा दूर तक जाता है। तब क्योंकि अपेक्षाकृत लम्बे सन्नाटे के बाद शुरू होने वाली पहली और काफ़ी समय तक अकेली साहित्यिक पत्रिका थी इसलिये सहज स्वीकार और स्वागत का लाभ इसे मिला। ‘हंस’ की अपनी खासियत भी कुछ न कुछ रही ही होगी। वह एक खुला मंच था जिसे किसी एक पक्ष की वकालत की तरह नहीं, अनेक पक्षों की अदालत की तरह प्रारूपित किया गया था। आज का ‘हंस’अपेक्षाकृत बन्द और रूढ़ आयोजन है। राजेन्द्र जी इसे विकास मानेंगे। इसका एक पक्ष रचनाओं का चुनाव है। इस विकास-योजना के तहत सौन्दर्यशास्त्र की राजनीति का संशोधन चल रहा है, अभिव्यक्ति और संप्रेषण के अधिकारों का जातिवादी आरक्षण प्रायोजित किया जा रहा है। लेकिन जरा दूसरे सिरे से देखिये। यह अभिव्यक्ति के जनतांत्रिक अधिकारों के सदियों के हनन का मुआविज़ा है। राजेन्द्र जी अपनी ‘कॉन्स्टीट्यूएन्सी’ को पोस रहे हैं। वे समझते हैं कि इस तरह मुआविज़ा दिया जा सकता है। दिक्कत यह है कि उनके पाठक ऐसा नहीं समझते। मुआविजे के तौर पर जात-गोत देख कर ‘हंस’ में छापा तो जा सकता है लेकिन लेखक के रूप में स्थापित नहीं किया जा सकता। ‘हंस’ में छपे होने के बावजूद नहीं। मुख से कहने के बावजूद राजेन्द्र जी क्या भीतर से स्वयं यह विश्वास नहीं करते कि प्रतिभा किसी की बपौती नहीं और प्रतिभाशाली को किसी आरक्षण की जरूरत नहीं चाहे वह जात से कितनी ही सदियों का सताया हुआ दलित क्यों न हो। इस वक्त लिख रहे पिछड़े वर्गों के अनेक प्रतिभाशाली रचनाकारों का कृतित्व इस बात का प्रमाण है कि रचना पर मुग्ध होने के लिये रचनाकार की जात पूछने की जरूरत नहीं पड़ती। इस बारे में हमारी बहसों के अनन्त सिलसिले में राजेन्द्र जी का आधारभूत तर्क यह है कि ‘अक्करमाशी’ क्या कोई सवर्ण लिख सकता थाऔर मेरा सवाल यह कि हर दलित या दलित होने के दावे भर से क्या ‘अक्करमाशी’ लिखा जा सकता है? बहस अनिर्णीत है और हर बार वहीं से शुरू होती है। राजेन्द्र जी के नेक इरादों के बावजूद रचनाओं के चुनाव से पाठकों की असहमति बढ़ती जा रही है। कहा जाता है कि इसकी वजह यह है कि पाठकों की सौन्दर्य-संवेदना और रूचि जड़ हो चुकी है। देखना बाकी है कि पाठकों की सौन्दर्य संवेदना संशोधित होती है याकि राजेन्द्र जी ही इस नतीजे पर पहुंच जाते हैं कि साहित्य अप्रासंगिक हो चुका हैै।

दूसरा पक्ष इतिहास, समाज और राजनीति के विश्लेषण से जुड़े उनके संपादकीय हैं। उनकी अपनी समझ से ‘हंस’ आज खुल गया है।जबकि सच्चाइयां सीमित और निर्धारित हो चुकी हैं। नतीजे लाये जा चुके हैं। सिर्फ तर्क खोजने बाकी हैं और वे आंकड़ों, तथ्यों के अपने पक्ष में होने पर ही उनका सहारा लेंगे। अन्यथा मामला ठेठ सृजनात्मक किस्म की व्याख्या-विशषेज्ञ कल्पनाओं का बन जायेगा। वे पढ़ने में रोचक, अनुमान में संभाव्य और इसी पूंजी के बल पर इतिहास को चुनौती देने का हौसला रखती हैं।

कभी कभी घिर जाने पर जब न तर्क होंगे, न तथ्य होंगे तब गोष्ठी में वे मौन से सब को हरायेंगे या फिर उन तथ्यों का सहारा लेंगे जो उनके पक्ष की राजनीति ने उत्पादित कर के रखे हैं। उनके मित्रोंपरिचितों और परिवारियों में जो इतिहास, राजनीति और समाजशास्त्र के जानकार हैं वे इन संपादकीयों के प्रति असहिष्णु क्षुब्ध और अधीर होते हैं। और राजेन्द्र जी उनकी आलोचनाओं के प्रति उतने ही उदासीन और वधिर। शायद यह असहमति उन्हें इस बात का प्रमाण भी लगती हो कि वे कोई ऐसा जलता हुआ सच बयान कर रहे हैं जिसके साथ व्यापक असहमति उसकी ज्वलंतता का प्रमाण है। कोई बात तथ्यों, प्रमाणों की बजाय केवल रचनात्मक अन्तर्दृष्टि के सहारे कही जाय तो यह अंतरंग आश्वस्त भाव उसका अनिवार्य स्वभाव है। कहने वाले को लगता है कि वह अपने विश्वास की कीमत चुका रहा है। भले ही अन्तिम सत्यापन में वह बात गलत ही क्यों न साबित होने वाली हो। एक सिरे से देख कर इसे अपने सत्य में आस्था कहा जा सकता है और दूसरे सिरे से देख कर एक खच्चर किस्म का अड़ियलपना। लेकिन ठीक यही बात राजेन्द्र जी भी अपने असहमतों के बारे में कह सकते हैं। वे नहीं मानते तो हम ही कब उनकी मान लेते हैं। रही बात ऐतिहासिकता और समाजशास्त्रीय तथ्यात्मकता वगैरह की, तो वे तो स्रष्टा हैं। शास्त्र वास्त्र के साथ थोड़ी बहुत धक्कामुक्की कर ही सकते हैं। विद्वानों की गोष्ठी के बाहर जहां तक संपादकीयों का मामला है, ऐसे पाठक तो हमेशा उन्हें मिलेंगे ही और बहुतायत मे, जिनका राज, समाज और इतिहास का ज्ञान उनके ज्ञान से मेल खाता होगा या प्राप्त ही उनके संपादकीयों से हुआ होगा। उनकी प्रशंसा राजेन्द्र जी के लिये एक तरह का सत्यापन होगा। किसी दूसरे शहर की गोष्ठी में, सभाओं के बीच के समय में उन्हें घेरे प्रशंसकों, पाठकों और युवा लेखकों को देखिये, राजेन्द्र जी की एक नज़र के लिये, एक बात के लिये, एक मुस्कान, एक आश्वासन के लिये उनकी उत्सुकता, बेचैनी और तड़प को देखिये। राजेन्द्र जी को कहां धरें, कैसे उठायें बिठायें। या फिर दिल्ली से आते जाते पाठकों, प्रशंसकों, युवा लेखकों का उत्सुक दर्शनार्थी भाव से ‘हंस’ के दफ़्तर में प्रवेश – इनमें कभी कभी खास इसी मकसद के लिये ही दिल्ली तक आने वाले भी होते हैं। फिर भी राजेन्द्र जी का दिमाग़ अगर अपनी जगह है तो यह ताज्जुब की बात है। उस प्रश्नहीन सहमति और समर्पण से घिरे हुए राजेन्द्र जी उस पार, बहुत दूर दिखते हैं। असहमति तुच्छ और नगण्य सी मालूम हो, यह अस्वाभाविक नहीं। मसला उनका है जो असहमत हैं पर उनसे मिलेंगे नहीं। हंस’ के पहले वाले प्रशंसको में भी आज असहमतों और नाराज़ों की गिनती खासी बड़ी है। लेकिन राजेन्द्र जी इसे यूं समझेंगे कि या तो उसकी कहानी ‘हंस’ ने लौटा दी होगी जो कई बार सच भी होगा या फिर वह भाजपाई होगा, जो कि अक्सर और ज्यादातर गलत होगा। क्या यह भी उनके कवच की अछेद्यता अभेद्यता का एक प्रमाण है? हर असहमति की यूं अपने पक्ष में कोई न कोई व्याख्या ढूंढ कर उसे रफ़ा दफा. कर देना ! 

असहमति का प्रसिद्ध उदाहरण आलोचकप्रवर नामवर सिंह के साथ उनके मतभेद हैं जिसका उपयोगी पाया इस्तेमाल प्रायः साहित्यिक गोष्ठी मंच और सभागार को रोचक बनाने के लिये किया जाता है। ये हिन्दी साहित्य जगत के ‘दो बांके' ( संदर्भ भगवतीचरण वर्मा की इसी शीर्षक की कहानी ) हैं जिनके जोड़ के अन्त में श्रोता उल्लिखित कहानी के अन्त की तरह यही सोचता पाया जाता है "मुला स्वांग खूब भर्यौ।”

का दफ़्तर में और अन्यत्र परस्पर किन्चित आत्मसजग व्यवहार है। गिरिराजकिशोर के साथ दोस्ती में ठन्डक आते मैने अपनी आंखों से देखी है और शैलेश मटियानी के बारे में उनके संपादकीय की बात उस तोते की है जिसमें राजेन्द्र जी की जान है तो उस संदर्भ का ज़िक्र भी कर दूं जिसके कारण यह सवाल मेरे मन में आया कि राजेन्द्र जी के कवच में कहीं कोई सूराख़ है या नहीं। संदर्भ हिन्दी साहित्य का वह नवीनतम स्कैण्डल है जिसके नायक राजेन्द्र जी हैं। यानी ‘कथादेश’ में प्रकाशित वह साक्षात्कार और उसके सन्दर्भ में मन्नू जी की और मेरी वह प्रतिक्रिया जिसने रातोरात राजेन्द्र जी को खलनायक बना दिया है। एक तो स्त्रीविमर्श के ज़माने में ‘खांटी घरेलू औरत’ वाला उनका बयान ही हल्ला मचवाने को काफी था, ऊपर से विवाहेतर प्रेम-प्रसंगों का खुल्लमखुल्ला स्वीकार और तुर्रा यह कि ये रचनात्मकता की शर्तें हैं। यानी प्रेम से अधिक प्रेम का प्रायोजन। एक प्रेम = एक कहानी। गुस्सा तो आता ही। प्रतिक्रिया के प्रकाशन के बाद मैं पहली बार दफ़्तर गयी। मेरे हाथ में तहमीना दुर्रानी की किताब ‘कुफ्र’ थी जो राजेन्द्र जी से ही मैने उधार ली थी। गर्मी काफ़ी तेज़ थी। राजेन्द्र जी ने काला कुरता पहना हुआ था जो वैसे तो उन पर फब रहा था लेकिन मौसम के हिसाब से देख कर परेशानी सी हो रही थी। मैने शायद इसी अभिप्राय की कोई बात कही। यह मौसम और यह रंग या शायद यह लबादा या लिबास किस लिये जैसा कुछ। कि राजेन्द्र जी ने दोनो भुजाएं लहरा कर बाकायदा घोषणा की ‘पीर साईं' हाजिर है।' पीर साईं ‘कुफ्र’ के उस क्रूर अमानुष नायक का नाम है जिससे हरम के अन्दर किसी किस्म का व्यभिचार और अन्याय छूटा नहीं है। स्वैर यौनाचारों से ले कर अनगिनत हत्याओं तक। और यह कहते हुए ठहाका लगाया कि अब जब तुमने बना ही दिया है तो वर्दी भी क्यों न पहन लूं। यह वही दिन था जब अखिलेश बैठे राजेन्द्र जी को आत्मकथ्य लिखने के लिये घेर रहे थे और राजेन्द्र जी ने बदले में मुझे घिरवा दिया था। उन्हे यह आशंका भी नहीं हुई या हुई भी तो परवाह करने लायक नहीं लगी कि मैं क्या लिखूंगी। फिर बाद में फोन पर राजेन्द्र जी से मैने कहा भी कि यह कहां मुझे फंसवाया। उन्होंने कहा अब तो बचाओगी। मैने कहा बचाऊंगी क्यों मुझे तो यह देखना है कि आपके कवच में सूराख़ कहां है तो फिर वही ठहाका। बोले "काहे का कवच। वही बात है कि अगर रेप इज़ इनेविटेबिल तो लाई बैक ऐण्ड एन्जॉय इट। तो साले पडे. हैं।’ यानी कि यह एक रवैया है जिसके सहारे वे दिक्कतों का सामना करते हैं।

सच है कि प्रायः उन्हे लापरवाह  तनावरहित और मस्त ही पाया जाता है।कभी कभी यह नौबत भी आई कि छपा हुआ ‘हंस’ मुद्रक के यहां से उठा लाने का पैसा भी नहीं रहा और इंतज़ाम करने में देर हुई। पर ये क्षणिक परेशानियां हैं जिनके सुलझ जाते ही वे फिर मस्त होते हैं और अपनी एक खास ताल जो ताली और चुटकी के योग से संपन्न होती है बजा बजा कर गाते पाये जाते है, तामपिटकपिट तामपिटकपिट – यह ताली और चुटकी से बजती हुई संयुक्त ध्वनि है, ‘बाबा मौज करेगा, बाबा मौज करेगा।’ पिछले चौदह पन्द्रह बरसों में शायद दो या तीन बार ऐसा हुआ कि वे कुछ सुस्त और पस्त से परेशान बैठे मिले और इस आशय का एक वाक्य उनसे सुनने को मिला कि इस वक्त हर तरफ़ से घिरा हुआ हूं। इस हर तरफ़ में एक तो जगजाहिर थी, ‘हंस’ की आर्थिक दशा। शेष के बारे में उन्होंने कभी कुछ कहा नहीं। एक बार तो तब हुआ जब वे अपने मित्र गिरीश अस्थाना के यहां रह रहे थे।विख्यात कारण था कुछ लिखने की योजना के तहत अज्ञातवास। वास्तविक कारण का अब इतने बरसों बाद कुछ अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। कण्ठ स्वर लेकिन ऐसा था मानो इस तरह घिरे होने के बावजूद निश्चिन्त बने रहने की अपनी क्षमता पर स्वयं विस्मित हो रहे हों। ऐसा विस्मय उन्हे अपने ऊपर अक्सर होता है। खुद को देख कर लगता है कि मैं भी साला क्या चीज़ हूं। कानपुर जाते हुए राजधानी के दुर्घटनाग्रस्त होने के अपने अनुभव को याद करते हुए और सकुशल लौट आने के बाद जमा हुए चिन्तित मित्रों, प्रशंसकों और शुभेच्छुकों को सुनाते हुए वे इस बात पर भी चकित होते रहे थे कि उन्हें एक मिनट को भी, रत्ती भर भी, डर नहीं लगा जब कि उनके ठीक साथ की सीट वाला सीधे ही सिधार गया था और यही हश्र उनका अपना भी हो सकता था। इसी गर्वमिश्रित विस्मय का एक विषय यह भी है कि उन्हें आज तक ईश्वर की जरूरत कभी पड़ी ही नहीं। बल्कि किसी चीज़ से अगर चिढ़ है तो ईश्वर से और अध्यात्म से।

दूसरी बार लगभग पांच छः वर्ष पहले किसी प्रकाशक मित्र की ओर से उनके जन्मदिन का उत्सव आयोजित किया गया था। मन्नू जी उस उत्सव में शरीक नहीं थीं। पूछा तो पता चला कलकत्ता गयी हुई हैं। उत्सव का अन्त था। मेहमान जा चुके थे। उठने की तैयारी थी। लम्बी चुप्पी के बाद ‘हंस’ के साथियों, परिवारियों से उन्होंने कहा, बिल्कुल अकेला हूं। कम से कम तुम लोग मुझे मत छोड़ना। पहली और अकेली बार उनकी इतनी करूण और कातर आवाज़ मैने सुनी। संदर्भ से सिर्फ मैं ही अपरिचित थी। बाकी सब जानते थे। और राजेन्द्र जी की करतूत से असहमत होने के बावजूद उनकी प्रियता में कोई कमी नहीं आई थी। बल्कि उनकी असहायता के क्षण में सब के सब कुछ अधिक ही उदार और संरक्षणशील हो उठे थे और मैं खुद भी उनमें शामिल थी। बाद में पता चला कि मन्नू जी पैंतीस बरस की एकतरफ़ा प्रतिबद्धता और पारिवारिक दायित्त्वबोध की चक्की में पिसते रह चुकने के बाद राजेन्द्र जी के नवीनतम करतब से आहत हो कर अपनी छत अलग कर लेने के फैसले पर पहुंच चुकी हैं। मन्नू जी के साथ बरसों पहले कभी रूक गये संवाद के दुबारा पूरी तरह से खुल चुकने और मेरा सारा प्यार और सहानुभूति उनके साथ होने के बावजूद राजेन्द्र जी के साथ दोस्ती अपनी जगह पर कायम थी। राजेन्द्र जी के रहस्यों में एक यह भी है। कैसे वे लोगों के भीतर यह भाव जगा पाते हैंआखिर मन्नू जी को भी अपने फैसले पर पहुंचने में पैंतीस साल लगे, एक पूरी ज़िन्दगी। जबकि सिलसिला और हालात पहले दिन से ही यही ओर ऐसे ही थे ।

राजेन्द्र जी का कातर भाव शायद हफ़्ता दस दिन चला होगा। स्थितियों का अभ्यस्त हो जाने में वे इतना ही समय लेते हैं और शायद इस बात को ले कर भी अपने ऊपर स्वयं ही विस्मित होते रहते हैं।इस विस्मय का खासा विस्तृत मौका उन्हें पिछले दिनों अपनी बीमारी और अस्पतालीकरण के दौरान मिला। पिछले डेढ़ दो वर्षों से लगातार उनका वज़न घट रहा था। इतनी तेज़ी से कि उन्हें रोज़ देखने वाले भी देख पा रहे थे कि घट रहा है। चेक अप की सलाह से वे चिढ़ते थे और हर आदमी यही सलाह देता नज़र आता था। यहां तक कि जब सलाह जब बढ़ कर दबाव में बदल गयी और दबाव असहनीय होने लगा तो बजाय चेक अप करवा लेने के, मैत्रेयी पर जाने किन हथकण्डों का इस्तेमाल कर के उसकी गवाही से दफ़्तर में उन्होंने घोषणा कर दी कि चेक अप वे करवा चुके हैं और सब ठीक ठाक है। सब ने मान लिया सिवाय उस रोग के जो भीतर था और एक दिन उनके सारे हथकण्डों के बावजूद फूट ही पड़ा।शुरू में जिसे वाइरल समझा जा रहा था, फिर कंपकंपी छूटने पर मलेरिया, उसके असहनीय हो उठने पर उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। अरविन्द जैन ने राजेन्द्र जी के लाख विरोध के बावजूद शुक्र है कि यह फैसला किया और विरोध भी ऐसा कि अरविन्द बताते हैं कि वे और सुधीश पचौरी उन्हें लगभग बांध कर अस्पताल ले गये। राजेन्द्र जी को मौत से डर नहीं लगता लेकिन चेक अप और अस्पताल से जरूर लगता है। एक बार अस्पताल पहुंच जाने और दर्द के थोड़ा हलका पड़ जाने के बाद वे इस के भी अभ्यस्त हो गये। वहीं कमरे में महफिल भी जमने लगी जो उनके लिये पूरक उपचार सरीखी थी और रात की तीमारदारी के लिये खास इसी उद्देश्य से आने और ठहरने वाले 



































शिव कुमार ‘शिव’ को बोल कर संपादकीय और पत्रों उत्तर भी लिखवाये जाने लगे। अतिरिक्त उपचार की कोशिशों के खिलाफ़ उनका संघर्ष फिर जारी हो गया।उनकी भूख बिल्कुल मर गयी थी और कमज़ोरी बहुत बढ़ गयी थी। मेरी मौजूदगी में एक दिन उन्हें एक सेब खिला पाने की मन्नू जी की कोशिश के सामने सविरोध समर्पण का नमूना यह था “ सेब है कि साला तरबूज़ है। खाते खाते उम्र गुजर गयी। साला खत्म ही नहीं होता। "

एक सच अगर यह है कि प्रायः वे मस्त लापरवाह ओर फक्कड़ से दिखते हैं तो एक सच यह भी है कि इतनी भीड़, इतने ताम झाम से हर वक्त घिरे रहने के बावजूद किसी किसी वक्त वे भीतर से बिल्कुल असंपृक्त और अकेले से लगते हैं। बाहर से भी और भीतर से भी। जैसे ये ठहाके, यह वाक्-चातुरी यह खुशमिजाजी किसी कुशल अदायगी का हिस्सा है। किसी के लिये उनकी आत्मीयता पर संदेह नहीं लेकिन विचित्र सी बात यह है कि इस आत्मीयता का सारा लाभ मित्रों परिचितों और बाहर वालों के ही लिये है। पता नहीं क्यों घर वाले अधिकतर इसके दायरे के बाहर ही रहे हैं। उनके साथ नातों रिश्तों के नाम से जुड़े शायद सभी लोगों के पास अपनी अपनी निराशा का कोई न कोई अनुभव और स्मृति मौजूद हो। लेखकीय दायरे के भीतर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जिनसे एक समय बहुत बेहद गहरी छनी लेकिन उन्हीं से किसी और समय बात-ब्यौहार का रिश्ता भी नहीं रहा। या रहा भी तो बिल्कुल औपचारिक। मैं निश्चयपूर्वक नहीं जानती लेकिन शायद शानी, योगेश गुप्त, प्रभाष जोशी और संभवतः से0 रा0 यात्री आदि कुछ उदाहरण हैं जिन के पास ऐसी दुखद स्मृतियां होंगी। शायद मैं गलत होऊं।मेरी बात का आधार केवल राजेन्द्र जी और इन लोगों का दफ़्तर में और अन्यत्र परस्पर किन्चित आत्मसजग व्यवहार है। गिरिराजकिशोर के साथ दोस्ती में ठन्डक आते मैने अपनी आंखों से देखी है और शैलेश मटियानी के बारे में उनके संपादकीय की क्रूरता ने मुझे बहुत गहरायी तक खिन्न किया है।अगर अपनी आंखों से न पढ़ा होता तो विश्वास न होता। हरिनारायण का ‘हंस’ से अलग होना भी एक तकलीफ़देह प्रसंग था। अन्तर्कथायें होंगी। राजेन्द्र जी के पास अपने कारण होंगे। उन कारणों का अपना औचित्य भी होगा। लेकिन ये कोई इक्का दुक्का घटनायें नहीं। बार बार दुहराया जाने वाला पैटर्न है।क्या इसके पीछे उनकी अन्दरूनी बनावट का कोई दबाव है? क्या इस बनावट का कोई संबन्ध उनके रचनाकार होने के साथ है कि जैसे ही कोई रिश्ता अधिकार का दावा पेश करने लायक हदों को पहुंचता है वैसे ही उसकी चंगुल से निकल भागना उनके लिये जरूरी हो जाता है। क्या वे एक बार भी नहीं सोचते कि ‘टी एण्ड सिम्पैथी’ का उनका फॉरमूला लोगों में एक भावात्मक निर्भरता भी जगाता है जिसका खंडित होना किसी किस्म की तकलीफ़ का भी पर्याय है। ईश्वर की जरूरत अगर उन्हें नहीं पड़ती तो इसका अर्थ क्या है? ईश्वर की ज़रूरत किसे नहीं पड़ती ? उस ईश्वर की जिसका संबन्ध पूजा पाठ से नहीं, चरम असहायता के क्षण में एक निश्शब्द प्रार्थना से है, अपने आपे के साथ एक निष्कवच रिश्ते से है। शायद उसे ही इस ईश्वर की जरूरत न पड़ती हो जिसके संसार में अपने बल्कि शायद अपने आपे के भी अमूर्तन के सिवा और किसी का न दाखिला है न दखल। ऐसी असहायता का अनुभव उसे होता है जिसके वजूद में रागतन्तु नसों नाड़ियों के जाल की तरह फैले हों। राजेन्द्र जी क्या राग द्वेष के ऊपर हैं? उनकी दुनिया में क्या ऐसा कोई मौजूद ही नहीं जिसके दुखों को ले कर वे ऐसी चरम असहायता का अनुभव कर पायें।? असहायता क्योंकि उसके बदले में खुद सह लेना संभव नहीं और उसे सहते हुए देख पाना और भी असंभव है, इसलिये एक निश्शब्द प्रार्थना के सिवा और कोई चारा नहीं बचता और ईश्वर के सिवा कोई काम नहीं आता। काम तो दरअस्ल ईश्वर भी नहीं आता, फिर भी उसका होना जरूरी होता है। अकेले अपने आपे को लेकर निडर, निश्चिन्त, निरीश्वर, कुछ भी होना आसान है।

इस बनावट के दूसरे भी होंगे पर लेखकों के लिये खास तौर से सच है कि घर उनके लिये रहने की नही, लौट कर आने की जगह है जिसके लिये पहले बाहर जाना जरूरी है। लौटना फिर शायद न भी हो। संभावित कारण अनेक हो सकते हैं। सभी अनुमानित हैं और सामान्य हैं। इनमें राजेन्द्र जी का अपना कारण कौन सा है कोई है भी या नहीं, कहना मुश्किल है। जैसा कि शुरू में ही कहा गया, इस लेख में अनुमान का तत्त्व अधिक है और प्रमाण का कम। पहली बात यह हो सकती है कि स्वाधीनता रचनाकार की सतत मानसिक सक्रियता के लिये एक ऐसी बुनियादी जरूरत है जो दायित्त्व के आभास मात्र से बाधित होती और उसके मन में आक्रोश और अवरोध पैदा करती है। घर वालों की अपेक्षाओं में अधिकार का एक असहनीय भाव होता है जिसका तत्काल प्रतिरोध जरूरी है। कहीं वे भावुक दुर्बलता के एक क्षण में सिन्धबाद के बूढ़े की तरह कन्धों पर सवार न हो बैठें। यह नहीं कि देने की सामर्थ्य ही नहीं पर वह अपनी इच्छा के अतिरेक का फल है, किसी की अपेक्षा का प्रत्युत्तर नहीं। दूसरी बात ठीक इसकी उलटी भी हो सकती है। लेखक जैसे अन्तर्लीन प्राणी के लिये एक छोर पर अपने भीतर के ताने बाने को थामे रखना और दूसरे छोर पर दीन दुनिया की खबर को संभाले रहना दरअस्ल एक लम्बे फासले के दोनो सिरों को एक ही डग में भर रखने का निरन्तर पराक्रम है। सन्तुलन मुश्किल है इसलिये वह अपने बोझ की निर्मम छंटाई करता है और छंटनी में एक मात्र कसौटी उसका स्वार्थ है यानी अपन, अपने होने का वह अर्थ जिसके कारण उसे अपनी सारी करतूतों का स्याह सफे़द स्वतःसिद्ध रूप से न्यायोचित लगता है। घर वालों के स्नेह और संभाल को अपना सम्बन्धसिद्ध अधिकार मानने की आदत उसे शायद इतना निश्चिन्त कर देती है कि वह भूले से भी उस दिशा में दायित्त्व के बारे में सोचता भी नहीं। अपने आपे की लागत वह लगाता ही सिर्फ उन्हीं मामलों में है जहां अभीष्ट को प्राप्य बनाने के लिये अर्जित करने की मज़बूरी अनिवार्य होती है। यानी घर में दूसरे पर अधिकार तो वह सहज रूप से लेता है पर अपने ऊपर देता रत्ती भर भी नहीं। एकाध टुच्चा सा कारण और सोचा जा सकता है। टुच्चा इसलिये कि उसमें सृजनात्मक स्वभाव की गठन के पर्याय की तरह निमर्मता और स्वार्थ के महिमामण्डन की गुंजाइश तो नहीं लेकिन फिर भी कारण तो है क्योंकि किसी किस्म की समझ उसमें मौजूद है। परिवार की पहली सन्तान वह भी पुत्र, संयोग से राजेन्द्र जी दोनो ही हैं, को इतना ध्यान और लाड़ दुलार मिलता है कि अपने चारो ओर महफिल की मौजूदगी उसकी एक स्थायी जरूरत बन जाती है। केन्द्र में रहने के लिये परिधि भी तो चाहिये। हर बात पर दाद चाहिये। हर अदा पर तारीफ़ चाहिये। यही जो न चाहिये होता तो कौन भकुआ लेखक बनने चलता। घर में कौन इस तरह सब काम धाम छोड़ कर हर वक्त दाद देता फिरेगा और घर से चाहिये भी किसे। घर तो वह जंगल है जहां मोर का नाचना बेकार है। महफिल से चाहिये और इस कदर चाहिये कि दाद देने वाले अगर मौजूद न हुए और कण्ठ से आधा निकल चुका वाक्य भी लगा कि सुन्दर है, सुनाने लायक, तो भाई उसे बिना पूरा किये वापस गले में ठूंस लेगा।

मस्ती, फक्कड़पन और लापरवाही का ही एक पक्ष पैसे के लिये निर्मोह भी है । या कम से कम वे ऐसा सोचना पसन्द करते हैं। सुना या शायद कहीं पढ़ा है कि स्वतंत्र लेखन के संकल्प के साथ जीवन की शुरूआत करते हुए उन्होंने प्लेटफॉर्म पर सो लेने, फ़ुटपाथ पर खा नहा लेने और कंघी शीशा बेच कर रोटी कमा लेने परन्तु लेखन के स्तर पर पूरी तरह से स्वतंत्र ही बने रहने सपना देखा था। तब और अब के बीच तय किया गया एक लम्बा फासला है। आर्थिकता के प्रति लापरवाही राजेन्द्र जी की आत्मछवि का सबसे जरूरी हिस्सा है। हर आत्मछवि को दूसरों का सत्यापन भी चाहिये। वरना वह विश्वसनीय नहीं होती। राजेन्द्र जी अपनी बाकी हर आलोचना को सहज भाव से लेते हैं, बल्कि मत सम्मत में छपने के लिये आलोचना को ही प्रोत्साहित भी करते हैं, लेकिन इस पक्ष को लेकर आत्मछवि के विरूद्ध जानेवाली हर बात से विचलित हो उठते हैं। विचलित करने वाली बातों का घिराव उनके आस पास बढ़ता भी गया है। लोग बाग उन्हें यह जताने को तुले हैं कि वे अपने संकल्प और आदर्श से डिग चुके हैं। कि वे पैसे से प्रभावित और पैसेवालों के तामझाम से चकाचौंध होते हैं। कि पद और प्रतिष्ठा पर वे रीझने लगे हैं। प्रमाण के तौर पर कहा जाता है कि उनके रहन सहन और रख रखाव में एक शौकीनी और आभिजात्य दिखाई देता है। डिज़ाइनर कुर्ते, कमीज़ और कोट उनके पहनावे का स्थायी अंग बन चुके हैं। घर कहीं से भी किसी छुट्टे छड़ंग का नहीं दिखाई देता। खूबसूरत फर्नीचर और महंगी, नफ़ीस, नाजुक क्रॉकरी। कहा जाता है कि दोस्तों के उपहार हैं। यानी कि एक और प्रमाण।यानी कि दोस्तों की सूची में लोग भी ऐसे ही शामिल हैं जो ऐसे उपहार दे सकते हैं। बिहार सरकार का लखटकिया पुरस्कार और प्रसारभारती का सरकारी अनुग्रह भी प्रमाणों की सूची में गिनाये जा सकते हैं।राजेन्द्र जी के पास हर बात का जवाब मौजूद है लेकिन आरोप की मंशा के आगे ये जवाब अपनी सफ़ाई से ज्यादा कुछ नहीं। व्यक्ति के रूप में राजेन्द्र जी दुर्बलता पैसे के लिये कितनी और क्या है मेरे लिये कहना मुश्किल है। दिखता तो है कि वे शौकीनमिजाज़ हैं लेकिन उतने ही जितने अपने साधनों से हो सकते हैं। आखिर हिन्दी में उच्चतम रॉयल्टी पाने वाले लेखकों की सूची में उनका स्थान दूसरा है।जहां तक पुरस्कार की बात है यह मेरी व्यक्तिगत जानकारी है कि वह पूरी तरह से ‘हंस’ के आर्थिक संकट से जुड़ा हुआ फैसला था। संयोग की बात है कि इसके पहले उत्तरप्रदेश सरकार का इक्कीस या शायद पच्चीस हज़ार का पुरस्कार वे लौटा चुके थे। ‘हंस’ के लिये वह भी ले लेना चाहिये था यह सही है, लेकिन किसी खास वक्त पर कोई फैसला आदमी क्यों कर पाता है और कभी क्यों करने से रह जाता है इसके पीछे बहुत सी स्थितियां और कारण हुआ करते हैं। मसलन यही कि तब सूझा ही नहीं कि पुरस्कार ले लेना भी एक तरीका हो सकता है इस सतत समस्या को अंशतः सुलझाने का। जब तक किसी जगह से गुजरते नहीं तब तक वहां का दृश्य दिखाई भी नहीं देता। दोनो पुरस्कारों के बीच के अरसे में एकाध बार इस समस्या का सामना किया जा चुका था कि छप चुके ‘हंस’ को मुद्रक के यहां से उठाने भर के पैसे भी नहीं थे । पहले पुरस्कार के पहले यह हो चुका होता तो ले लेने का फैसला भी शायद तभी हो जाता। प्रसारभारती की सदस्यता के बारे में भी शायद सच यही हो कि ‘यहां से देखो’ से गुजर कर राजेन्द्र जी ने तय किया हो पर वहां से क्योंकि मैने देखा नहीं तो बात यहीं छोड़ती हूं। सोचने की बात लेकिन यह है कि इस सब के लिये क्या उन्होंने कोई समझौते किये हैं? मान लिया जाय कि खूबसूरत चीज़ें खूबसूरत होती हैं और पसन्द करने के लिये होती हैं। संवादकुशल सभाचतुर सलीकेदार पढ़े लिखे लोगों की संगति अधिक आकर्षक होती है और अपने दायरे में ऐसे लोगों का होना, खुद उनका प्रिय और प्रशंसित होना अच्छा लगता है। सोचने की बात यह भी है कि क्या इस कारण उनके दायरे से फक्कड़ फाकेमस्त और फटीचरशाह रचनाकार बिरादरी को निष्कासित होना पड़ा है? जाहिर है कि नहीं। दायरा फैला और बढ़ा है और उसका रेन्ज भी। फाकेमस्ती और फटीचरशाही अपने आप में कोई रचनात्मक मूल्य तो नहीं ।

दम्पत्ति के रूप में दो रचनाकारों का साथ एक असह + योग सा प्रतीत होता है – असहयोग। दोनो के लिये काम्य शायद परस्परता और स्वाधीनता का कोई दोतरफा समीकरण हो। पर सिद्धान्त के स्तर पर कह देना आसान है, व्यक्तिगत धरातल पर सचमुच ऐसा समीकरण खोज पाना दो अलग अलग लोगों की अलग अलग भावात्मक जरूरतों और अनुकूलन क्षमताओं के एक ही बिन्दु पर समायोजित हो जाने का लगभग असंभव पर्याय है। मन्नू भण्डारी और राजेन्द्र यादव समकालीन साहित्यिक परिदृश्य पर अगर अकेले नहीं तो कुछ बेहद गिने चुनों में से एक ऐसे रचनाकार दम्पत्ति हैं जिनमें दोनो की ही रचनात्मकता एक दूसरे के सृजनसार को निगले बिना अपने अपने कृतित्व के महत्त्वपूर्ण मुकामों तक पहुंची है। संबन्ध अगर वहां तक नहीं भी पहुंचा तो भी किसी किस्म की परस्परता या समझदारी वहां बिल्कुल ही नही रही होगी ऐसा ऐसा सोचना मुश्किल है। राजेन्द्र जी के पूर्वोक्त साक्षात्कार में इस विषय के कुछ संकेत मौजूद हैं और मन्नू जी की प्रतिक्रिया में उनका सत्यापन भी। दो के बीच की बात को अब दोनो स्वयं सार्वजनिक बना चुके हैं अतःयहां चर्चा की जा सकती है। सृजन के संदर्भ में सहज (पढ़िये विवाहेतर) संबन्धों (पढ़िये सेक्स ) की अनिवार्यता का सैद्धान्तिक दावा और व्यावहारिक कारवाई सारे फसाद की जड़ मालूम होती है। स्त्री-विमर्श को भी यह एक सनसनीखेज मुद्दा मिला और राजेन्द्र जी के रूप में पुरूष की खलनायकता का अगला उदाहरण भी लेकिन इस उदाहरण के हवाले से मैं स्त्री की ओर से बराबरी का दावा इन शब्दों में पेश भी नहीं करना चाहती कि राजेन्द्र जी या कोई और पुरूष रचनाकार अपनी पत्नी, बेटी या बहन को सेक्स के कन्धों पर सवार हो कर सफल या सार्थक रचनाकार होने की इजाज़त देगा या नही (संदर्भ ‘राष्ट्रीय सहारा में मनीषा का वक्तव्य)। सफलता या सार्थकता की तलाश करने वाले इजाज़त नहीं मांगा करते। पुरूष भी यह, राजेन्द्र जी के शब्दों में, ‘हरमज़दगी’ स्त्री की इजाज़त से नहीं करता। पुरूष के लिये प्रेम सेक्स और परिवार का अर्थ वही नहीं है जो स्त्री के लिये होता है। ‘अगर मैं भी ऐसा ही करती तो’ कह कर दर अस्ल वह पुरूष को उसकी ज्यादती का अहसास कराना चाहती है, उन उच्छृंखलताओं की इजाज़त या अधिकार नहीं मांगती। प्रायः वे उसकी जरूरतों में शामिल भी नहीं है। अभी तक किसी बड़े पैमाने पर तो नहीं। अगर हों भी तो इजाज़त उसे अपने आप से लेनी होगी और पुरूष के निषेध के बावजूद लेनी होगी। स्त्री के दायित्त्वबोध और भावात्मक दुर्बलता से पुरूष के लिये एक सुविधाजनक स्थिति का जन्म होता है। स्वार्थसंधान में इसका लाभ वह लेता है, लेगा ही। संबन्धों का अर्थशास्त्र और भावनाओं की राजनीति उसे इसी दिशा में ले जायेगी। समय ही अर्थशास्त्र और राजनीति का है। उसे अभी उसी स्त्री के प्यार की आदत पड़ी है जिसका समर्पण आर्थिक निर्भरता की विवशता से नियंत्रित था और जो उसके विवाहेतर संबन्धों के झगड़े झंझटों से बड़ी समझदारी से सुलटती थी। आर्थिक आत्मनिर्भरता ने स्त्री को संबन्ध में प्रतिबद्धता और एकनिष्ठता को अपना हक समझना सिखा दिया है। सिर्फ यही नहीं कि पुरूष को अभी इसकी आदत नहीं है बल्कि यह भी कि प्यार हक का मामला ही नहीं है। सामान्य सामाजिक पारिवारिक संदर्भों में भी यह एक विकट स्थिति है। रचनाकार की स्थिति तो फिर है ही विशेष।

बात दर अस्ल इतनी सीधी सपाट और स्थूल ढंग से आसान नहीं है। घरबारी व्यवहार और परिवारी मूल्यों के तराज़ू पर तोल कर यह मुकद्मा पता नहीं कब से, सदियों से, रचयिता जात के जन्तु के खिलाफ़ अनिर्णीत ही दायर चला आ रहा है। इस संदर्भ की हर बात शत प्रतिशत राजेन्द्र जी पर लागू की जा सकती है। उसके फेर में पड़ने वाले उसे गैरजिम्मेदार, भरोसे के अयोग्य, उचक्का और लफंगा किस्म का जीव पायेंगे। वे भुक्तभोगी हैं। लेकिन उसे प्यार करने वालों की गिनती में कभी कमी नहीं पायी जायेगी। निस्संदेह रचनाकार किसी घरबारी भलेमानुस की तरह लीक पर चलने वाला बैल तो नहीं ही हो सकता। विस्मय उसका मूल मनोभाव है, अनुभव-संचय उसकी व्यावसायिक योग्यता है और साहसिकता और अभियान उसकी जीवन पद्धति है। सेक्स और प्रेम के प्रति उसका रवैया भी इसी जीवन पद्धति का एक आयाम है । दुर्भाग्यवश राजेन्द्र जी समेत हिन्दी के अधिकतर रचनाकारों के लिये विस्मय, साहस और अभियान सभी एक ही दूकान में मिलते हैं । और वह है स्त्री की देह।विवाहेतर संबन्ध। वह भी दायित्त्वहीन। संदिग्ध लगता है कि ‘ दर्जन के हिसाब से सस्ते’ का नुस्खा आजमाते हुए ये प्रेमी जीव जितने जितने प्रेम प्रसंगों का दावा करते हैं उतने सचमुच कभी घटित भी हुए होंगे। ये किस्से भी शायद उनकी उसी सृजनात्मक कल्पना की ही रचनाएं हों जिसके बारे में बताया जाता है कि विवाहेतर संबन्धों से पैदा होती है।

अपने अस्तित्त्व के भोक्ता अंश के माध्यम से ऐसे संबन्धों के यंत्रणामय पक्ष को जाने बिना सृजन के इस नुस्खे का सृजन में कारगर होना भी संदिग्ध ही है।

पर यह शायद मेरी ज्यादती है। व्यक्ति राजेन्द्र को सचमुच जाने बिना यह फतवा दे देना कि यंत्रणा को उन्होंने नहीं जाना। बल्कि शायद बचपन की या शायद कैशोर्य की ऐसी ही किन्हीं यंत्रणाओं में उनके व्यक्तित्व की इस बनावट की जड़ हो जिनसे मैं अपरिचित हूं, जिसे अब वे आच्छादन की तरह या किसी रूमानी किस्म के मोहवश या फिर सचमुच अनजाने में सृजनात्मक जरूरत का नाम दे रहे हैं।एक बार याद नहीं किस के दुर्घटनाग्रस्त होने पर दफ़्तर में दुर्घटनाओं की चर्चा चल पड़ी और जैसा कि ऐसे मौकों पर होता है, सभी अपना अपना अनुभव सुनाने लगे। राजेन्द्र जी ने कहा किसी भी किस्म की दुर्घटना का नाम लो, वह मेरे साथ हो चुकी है। मैं अपनी समझ से बड़ी दूर जा कर कौड़ी लाई जो कहा कि आप को किसी ने गोली तो नहीं मारी होगी। पता चला, मारी थी। यानी ठीक ठीक मारी तो नहीं थी पर गलती से चल कर लग गयी। पैर, आंख सब किसी न किसी दुर्घटना का ही नतीजा हैं। खेल दुर्घटना से ले कर रेल दुर्घटना तक की कहानियों में पता नहीं ऐसी कितनी कहानियां हों जो उन्होंने सुनाई ही न हों पर जो उनकी इस असंपृक्त सी बनावट में अपनी भूमिका निभा गयी हों।

प्रसंग राजेन्द्र जी की षष्ठीपूर्ति के उत्सव का है जो आगरा ने अपने लौट कर आने वाले लायक सपूत के स्वागत में मनाया था। आयोजन हरिनारायण और जितेन्द्र रघुवंशी का था। दो दिन की रिहाइश में राजेन्द्र ने अपने घर जाने का कार्यक्रम रखा ही नहीं था। घरेलू संबन्धों में ठन्डक या उदासीनता या कटुता के जो भी कारण रहे हों पर जाना अन्ततः हुआ जब भूपेन्द्र, उनके भाई, सुबह की जलेबी कचौड़ी का निमन्त्रण ले कर आये। यह राजेन्द्र जी का बचपन का घर था। अन्दर का आंगन और कमरे वगैरह तो खूब बड़े बडे थे, विशालकाय महलनुमा, लेकिन बैठक जहां हम बैठे छोटी ही थी। यह उस ज़माने की इमारत थी जब बैठक की जगह मध्यवर्गीय परिवारों में केन्द्रीय महत्त्व की न रही होगी और वह आये गये के स्वागत के लिये निश्चित, बाकी समय बन्द रहने वाले मरदानखाने का दर्जा रखती होगी। रिहाइश का व्यापार भीतर के आंगन कमरों में फैल कर चलता होगा। यह चर्चा इसलिये कि वहां बैठे बैठे अचानक राजेन्द्र जी ने बताया कि यही वह कमरा है जहां मै साल डेढ़ साल लगातार लेटा रहा। शायद वह समय जब खेल-दुर्घटना में पैर की हड्डी टूट गयी थी। वह सारा समय कुछ एक निकट मित्रों और घरवालों के अलावा साहित्य की संगत में गुजरा। बाहर की दुनिया बस दरवाजे भर खुली जगह के फ्रेम में बन्द दूर से नज़र आती रही होगी। सड़क से गुजरने वालों में क्या वह लड़की भी हुआ करती थी जिसके बारे में उन्होंने लिखा है ‘एक संबन्ध जिसे ले कर मन्नू खांटी घरेलू स्त्री की तरह उग्र हो उठी।’ सत्रह अठारह बरस का खूबसूरत नौजवान जिसकी आंखों पर काला चश्मा बचपन के खेल की रामलीला और तीर कमान के सिलसिले में पहले ही चढ़ चुका था, आखिर उठ कर खड़ा हुआ होगा, बैसाखियों पर। जिस कमरे में बन्द पूरा बरस डेढ़ बरस बीता था, उसके बाहर निकलने का हौसला कैसे जुटाया होगा? आसान तो नहीं रहा होगा लोगों की नज़रों में दया का सामना, उस जैसे स्वाभिमानी के लिये कैसे बन पड़ा होगा? उस उम्र में स्त्री के लिये अपनी आकर्षकता के प्रति विशेष सजगता की किशोरसुलभ मनोवृत्ति से वह कैसे निपटा होगा? तब जब वह लेखक संपादक समीक्षक वगैरह कुछ भी नहीं था सिर्फ बैसाखियों के सहारे खड़ा काले चश्मे वाला एक साधारण लड़का था उसे जिन लोगों से स्वीकृति साथ और सहारा मिला रहा होगा उनके प्रति कृतज्ञता के भाव का मुकाबिला क्या बाद के जीवन में मिलने वाले किसी भी व्यक्ति के प्रति किसी भी भाव के साथ कभी हो पाया होगा? उन लोगों में क्या वह लड़की भी रही होगी? क्या ऐसा हुआ कि आहत मन की जटिल जरूरतों की अनुकूलता या फिर कैरियर के रूप में लेखन को चुन लेने के बाद एक रचनाकार के साथ की योग्यता और पर्याप्तता की कसौटी पर वही लड़की खरी नहीं उतरी? क्या मन्नू जी के पक्ष में भावनात्मक और व्यावहारिक रूप से उपयुक्त फैसला कर लेने के बावजूद वे इधर या उधर का साफ़ दो टूक फैसला नहीं कर पाये, न पूरा ले पाने न पूरा छोड़ पाने की दुविधा के साथ जुड़े ध्वंस ने उन्हें क्या अछूता छोड़ दिया? दो टूक फैसले क्या हमेशा संभव होते हैं या सिर्फ अपनी इच्छा और भावना के अतिरिक्त कुछ सोचना और किसी अन्य के दिल दिमाग का बोझ उठाना उन्हें अपनी सामर्थ्य से ज्यादा भारी प्रतीत हुआ? या सही वक्त पर एक कटु बात न कह पाने की करूणामय दुर्बलता अन्ततः क्रूर साबित हुई? फैसले की जिम्मेदारी दूसरे पर छोड़ कर क्या उन्होंने अपने सिर की बला टाली? और अलग होने का फैसला किया भी अन्ततःमन्नू जी ने ही। राजेन्द्र जी ने तो ऐसे किसी फैसले की जरूरत तक से इंकार किया। दूसरे के पक्ष से देख पाने की ऐसी असमर्थता क्या लेखक के संदर्भ में विश्वसनीय है? या ऐसा हुआ कि उसी असुरक्षित हद तक जीवन्त उम्र में अपने घावों को ढक लेने का ऐसा कौशल उन्होंने अर्जित किया कि उन्हें छू पाना ही असंभव हो गया। अब वे अतीत का बोझ लादे नहीं घूम सकते। समस्याओं का हल न हो तो उन्हें जीवन का पर्याय मान कर झींकना छोड़ देते हैं। वे अभी इसी क्षण और सामने मौजूद समस्या में निवास करते हैं।

शंख की जो जातियां अशान्त समुद्रों की धाराओं में रहती हैं वे क्रुद्ध लहरों के जितने सख्त थपेड़ों को झेलती हैं, उनका अपना खोल उतना ही सख्त होता जाता है। हो सकता है कि देह से ले कर मन तक की पता नहीं कितनी सीमाओं के साथ लड़ते जूझते, हर एक का अतिक्रमण करते उन्होंने इस कवच का अर्जन किया हो जो आज अभेद्य अछेद्य सा जान पड़ता है और इस बात की तरफ़ नज़र भी नहीं जाती कि इस कवच की जरूरत उन्हें पड़ी ही क्यों। बल्कि मन करता है कि कुरेद कर देखा जाय कि सूराख कहां है। अपने सोचे समझे को ले कर ऐसी ज़िद कि जैसे अस्तित्व ही ख़तरे में हो। छोटा सा तर्क भी उनके लिये जान जोखों का सवाल बन जाता है। हो सकता है कि नकारात्मक और विध्वंसात्मक लहरों से लड़ते हुए वे इतने सख्त हुए हों। अन्यथा क्या दुख को सहे बिना कोई दुख से इतना अछूता रह सकता है जितना उन्होंने इस साक्षात्कार में अपने को बताया है? दुख से ऊपर होना एक अर्जित शक्ति है या बुनियादी स्वभावगत असमर्थता ? हो सकता है कि उनके लिये प्रेम का अर्थ किसी पर स्वयं को इतना निर्भर छोड़ पाना हो कि इस बात का अहसास भी न होने पाये कि उन्होंने लिया। और याचक बने। हो सकता है कि प्रेम की अपनी ऐसी असंभव अपूरणीय आकांक्षा के कारण या दूसरे को निर्भरता का आश्वासन दे पाने की असमर्थता के कारण उन्होंने यही तय कर लिया कि प्रेम की उन्हें जरूरत नहीं है। और प्रत्याशाविहीन "सहज" संबन्धों के संधान में लगे। हो सकता है कि उन्होंने रचनाकार के जीवन की पढ़ी पढ़ाई धारणा को अपना रोल मॉडल बनाया हो और हर आचरण के पहले वही नियमावली खोल कर देखते हों। सच ही उनके व्यक्तित्व को रचनाकार व्यक्तित्व के बारे में उपलब्ध सिद्धान्तों का व्यावहारिक उदाहरण बनाया जा सकता है। हो सकता है कि किसी समय की असहायता और असुरक्षा ने उन्हें बिल्कुल निडर कर दिया हो। हो सकता है कि यह निडरता वर्जनाओं के प्रति रचनाकारसुलभ अवहेलना और अवमानना से निकली हो। हो सकता है कि डर भीतर कहीं हो पर अपनी दीनताओ, दुर्बलताओं को दिखाना या उन पर रोना उन्हें असहनीय हो। और यही पीड़ाएं उनका रहस्य हों।

हो तो यह भी सकता है कि भाषा के साथ अपने खास रिश्ते का इस्तेमाल करते हुए जब पूर्वोक्त साक्षात्कार में उन्होंने उस दुष्ट वाक्यांश ‘खांटी घरेलू औरत’ का प्रयोग किया हो तो उनका मतलब ‘खांटी घरेलू औरत’ की शान में गुस्ताख़ी करना रहा ही न हो। उनके दावे और इनकी दायित्त्वहीनता की टकराहट के किसी क्षण में मन्नू जी के दुख ने जो उग्र आक्रोश का रूप धारण किया हो, क्षण विशेष में उसकी कोई छवि कोई मुद्रा उकेरना ही उनका अभीष्ट रहा हो। पर अभीष्ट चाहे जो रहा हो  किया तो उन्होंने यह है कि एक दम्पत्ति के बीच के निहायत निजी प्रसंग को बहुत फूहड़ और क्रूर ढंग से सार्वजनिक कर दिया है। भावनाओं पर चोट तो यह है ही, उससे कहीं ज्यादा गरिमा के क्षय का मामला है। क्षमा कीजिये, जो हुआ वह अक्षम्य है। मैं राजेन्द्र जी की तरफ़ से सोच सकती हूं , उनके माध्यम से यह पहचान सकती हूं कि रचनाकार की मानसिकता कैसे सक्रिय होती है, यह भी मान सकती हूं कि अपनी भीतरी बनावट के सामने आदमी बेबस होता है और एक रचनाकार को तोलने का तरीका दूसरे पलड़े पर घरबारी, परिवारी कायदे कानूनों के बटखरे चढ़ाना नहीं है। लेकिन साथ जुड़े लोगों और जिन्दगियों के ध्वंस को अनदेखा नहीं कर सकती। उनके बारे में मैं कोई फैसला नहीं सुनाती पर सहानुभूति मेरी शत प्रतिशत मन्नू जी के साथ है।

हुआ यह भी है कि इस बार उनकी वाक्चातुरी उन्हें दगा दे गयी है। शायद वे चकित भाव से अब तक यही सोच रहे हों कि मेरे कहने का यह मतलब भी निकलता था क्या । कहने सुनने और समझने के बीच फासले हुआ करते हैं यह कोई नयी बात तो नहीं। पर अब तो सामने हैं चौतरफ़ा प्रहार। उनके कवच के भीतर उनका क्या हाल है इसका अन्दाज़ लगाना आसान नहीं। क्योंकि सूराख़ अगर कहीं हैं तो बड़ी होशियारी से छिपाये गये हैं और भीतर का कुछ दिखता ही नहीं है। तस्वीर तो अब भी उनकी वही याद आ रही है जिस पर शीर्षक था ऐयारों के ऐयार लेकिन जो सोचा था कि तिलिस्म और तहखाना भी यही है तो सच यह है कि इतनी देर की कोशिश के बाद भी इस तिलिस्म के तहखानों के दरवाजे भी नहीं दिखे, ताले चाभियां तो बाद की बात हैं। अनुमानप्रमाण पर आधारित निष्कर्षों का सच हो तो यह भी सकता है कि न तिलिस्म हो, न तहखाना, न कोई रहस्य बस अनुमान ही अनुमान हो।यह भी हो सकता है कि सिर्फ हंस ही हो, बाकी न तोता हो न तोते की जान। उस दशा में इस कारवाई की अकेली जिम्मेदार मैं हूं।जवाबदेह राजेन्द्र जी को न समझा जाय।













षड्यंत्र तो जरूर था लेकिन 'प्री-प्लैन्ड' शायद नहीं ही रहा होगा।कम से कम लगा तो ऐसा ही कि यह दिमागी लहर मुझ पर नज़र पड़ने के बाद या साथ राजेन्द्र जी को आई।अखिलेश राजेन्द्र जी को शायद तद्भव के अगले अंक में कुछ लिखने के लिये घेर रहे थे, राजेन्द्र जी बचने की कोशिश कर रहे थे। दुर्दैव से उसी समय मैने दफ़्तर में कदम रखा और ज़रा सी देर में राजेन्द्र जी को यह कहते सुना कि इससे लिखवाओ। यह लिख सकती है। यह मुझको सन पैंसठ से, ठीक ठीक कहा जाय तो सन छियासठ, इसमें ‘पिछली सदी का’और जोड़ दिया जाय तो वाकई प्रागैतिहासिक , जानती है । उसके बाद इसकी टोपी उसका सिर को चरितार्थ करते हुए सारा घिराव इस ओर घूम गया और मेरे इंकार और अखिलेश के आग्रह के बीच मुकाबिला शुरू हुआ। अखिलेश के बारे में मनोहर श्याम जोशी जी की राय बता कर राजेन्द्र जी ने समझाया कि यह एक व्यर्थ मुकाबिला है। राय यह थी कि खुद जोशी जी संपादक रह भी चुके हैं और बाकी सब बडे-बडे संपादकों को देख भी चुके हैं लेकिन अखिलेश जैसा बुलडोज़र संपादक उन्होंने दूसरा नहीं देखा। लिखवा कर छोड़ेगा। हथियार डालते हुए मैने जानना चाहा कि मामला क्या है। मालूम हुआ कि राजेन्द्र जी से आत्मकथ्य लिखने का आग्रह है।

आत्मकथ्य जैसी चीज़ में कोई दूसरा भला क्या कर सकता है

पता चला कि जो चाहो सो करने की खुली छूट है। आत्मकथ्य की वैचारिक किस्म वे खुद लिख देंगे और पूरक तौर पर बाकी कुछ अर्चना से लिखवा लो, यानी जीवनीपरक ललित निबन्ध जैसा कुछ।

इस तरह के करतब राजेन्द्र जी ही कर सकते हैं। जिस आत्मकथा को जी कर वे पहले ही फ़ाइनल कर चुके हैं उसमें जो चाहो सो कर देने की गुंजाइश ही कहां बचती है और जैसे चाहो वैसे लिख देने की पूरी छूट के बावजूद यह तो है ही कि मनचाहे तथ्य पैदा नहीं किये जा सकते । वे पहले से मौजूद हैं लेकिन मुझको उतने मालूम नहीं हैं।राजेन्द्र जी सुनते नहीं। कहते है, “कुछ तो तुम जानती हो, कुछ सुन रखा है, बाकी सूंघ रखा है। तुम्हारी नाक बहुत तेज़ है। बेकार के बहाने मत करो।

तो शुरू करने के पहले ही आगाह कर दूं। यहां जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसका आधार है थोड़ी सी जानकारी , थोड़ा कुछ सुना हुआ बहुत कुछ सूंघा हुआ। खतरा है कि नतीजा ठीक वही हो जो राजेन्द्र जी के संपादकीयों में अक्सर हो जाया करता है यानी अनुमानित निष्कर्षों को प्रामाणिक ऐतिहासिक तथ्यों की जगह पर बिठा कर मान लेना कि सच यही है। सच आखिर एक पाठ ही तो है। जैसे चाहो पढ़ लो।

लेकिन खतरा तो खुद राजेन्द्र जी ने ही चुना है। उनके लिये यह अपनी उदारता साबित करने का एक मौका है या फिर मेरे लिये अपनी निष्पक्षता साबित करने की एक चुनौती?(संदर्भः कथादेश के अगस्त अंक में प्रकाशित राजेन्द्र जी के साक्षात्कार पर कथादेश के ही अगस्त अंक मेँ मेरी प्रतिक्रिया) लेकिन इस सन्दर्भ में निष्पक्षता का मेरा कोई दावा नहीं और न किसी की उदारता साबित करने का उपलक्ष्य ही मैं बनना चाहती हूं । यह मैं कहां आ फंसी लेकिन इस फेर में आ पड़ना खुद मेरा अपना ही तो किया हुआ है वैसे ही जैसे राजेन्द्र जी का खुद यह खतरा चुनना । तो खैरियत इसी में है कि जीवनी और प्रामाणिक वगैरह के चक्कर में पडे़ बिना व्यक्तिपरक जैसा कुछ लिख मारा जाय जो ललित जैसा भी कुछ बन पड़े तो अच्छा पर ऐसा तो न ही हो कि मेरे दुराग्रहों-पूर्वाग्रहों की अभिव्यक्ति को कोई भावी शोधशूर राजेन्द्र जी की प्रामाणिक जीवनी समझ बैठे। यानी अब जो प्रस्तुत है उसका आधार है जैसा मैने जाना के अलावा जैसा राजेन्द्र जी ने जहां तहां लिखा और उसे जैसा मैने पढ़ा। नवीनतम संदर्भ : कथादेश का पूर्वोल्लिखित साक्षात्कार।

इस परिचय को भारी भरकम तौर पर सम्माननीय बनाना हो तो जैसा कहा पिछली सदी के सन छियासठ में मिराण्डा हाउस के हिन्दी विभाग में नौकरी शुरू करने के बाद मन्नू जी की सहकर्मिणी और मित्र की हैसियत से उस घर में आना जाना शुरू हुआ था। बचपना था। समझ कोई खास नहीं थी। मन्नू जी की ममता थी । मातृत्व भाव उनमें हमेशा से ही प्रबल था। टिंकू, उनकी बिटिया, का नाम रचना है। उसके साथ खेलते हुए मज़ाक में मैं कहा करती थी यह रचना मैं अरचना। टिंकू के साथ राजेन्द्र जी को कभी कभी मैं पप्पू भी कहा करती। कभी कभी इसलिये कि घर में वे होते ही कभी कभी थे। उतने मशहूर लोगों के आस पास फटक सकने के अहसास में भी तब एक अपना आतंक था जिसे मैं बहुत चुप रह कर छिपाती थी। चुप रह कर दिखता कुछ ज्यादा है। लगता था कि इस घर में जब तब कभी बेमौसम बादल घिरे होते हैं तो कभी आंधी चढ़ी होती है। लेकिन बस लगता ही था। सन उन्नीस सौ छियासठ में समझने लायक अकल नहीं थी, न पूछने लायक हिम्मत ही। मेरे वहां होने के दौरान राजेन्द्र जी अक्सर घर पर नहीं होते थे। मटरगश्ती के लिये निकल जाने का समय शायद वही रहा होगा। राजेन्द्र जी की सूरत जब पहले पहल राजेन्द्र जी में ही देखी थी तो किसी पत्रिका, शायद सारिका, शायद कमलेश्वर के संपादनकाल में प्रकाशित उनकी उस तस्वीर की याद आई थी जिसका शीर्षक दिया गया था ‘ऐयारों के ऐयार’। पता नहीं तब भी वे पाइप पीते थे या नहीं । तस्वीर में शायद ऐसा न भी रहा हो लेकिन मुझे उनका चेहरा हमेशा धुएं के गुबार से घिरा हुआ ही याद आता है। कुछ तो धुएं से धुंधलाया और कुछ बड़े भारी चश्मे के पीछे छिपा किसी न खुलने वाले तिलिस्म जैसा। शीर्षक बिल्कुल दुरूस्त था। वाकई ऐयारों के ऐयार । उन दिनों राजेन्द्र जी को बस इतना ही जाना।

थोड़ा सा अधिक जानना सा शुरू किया ‘हंस’ के संपादन से विधिवत जुड़ने के बाद सन छियासी में।बीस बरस बीत चुके थे।इस दौरान मन्नू जी से संपर्क तो बना रहा लेकिन जिन्दगी के बहुत से उतारों- चढ़ावों, मोड़ों-चौराहों के बीच एक दूसरे को भीतर से जानने और साथ और सहारा देने का मौका प्रायः नहीं रहा। दूर दूर से पता तो चलता रहा कि बीच बीच में कभी कभी कोई तूफ़ान उठा लेकिन बिना विशेष ध्वंस के बैठ गया। निशान तो छोड़ ही जाता रहा होगा।

इन बरसों में उम्र बढ़ाने के अलावा मैं अपनी जिन्दगी में और भी बहुत कुछ कर बैठी थी जिसमें से यहां काम की बात महज़ इतनी है कि ‘दिनमान’ के लिये नियमित रूप से समीक्षा लिखते हुए बिना किसी योजना या उद्देश्य के ही समीक्षा के तंत्र में फंस और साहित्य से जुड़ गयी थी और जब राजेन्द्र जी ने ‘हंस’ शुरू किया तो मेरा सहयोग समीक्षा स्तंभ को नियमित रूप से विधिवत चलाने के लिये ही लिया था। 

यानी सिर्फ़ समय बिताने के सामान की तरह शुरू किया गया काम अब जी का जंजाल बन चुका था।साहित्यिक मित्र बताने लगे थे कि समीक्षा ही वह सबसे ज्यादा मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण कर्म है जो मुझे करते रहना चाहिये। पढ़ने का शौक मुझे है और यह पता भी कि लिखने वाले को एक ‘फ़ीड बैक’ की आकांक्षा और अपेक्षा होती ही है। मित्रों की अपेक्षाओं को टालना आसान काम नहीं इसलिये बार बार यह प्रण करने के बावजूद कि अब बस यह आखिरी समीक्षा थी फिर फिर खुद ही उस प्रण को तोड़ भी बैठती हूं। इसलिये तब ‘हंस’ को मेरी और मुझको ‘हंस’ की जरूरत का 'मूलाधार' यह समीक्षा ही थी। फिर पता नहीं कैसे पहला अंक निकलने के पहले ही इस मूलाधार का तरह तरह से बन्टाधार हुआ जो अपनी शाखा प्रशाखा निकालता चला गया और मैं वहां प्रूफ़रीडिंग से ले कर रचनाओं की पहली छंटनी और जब जैसी जरूरत तब वैसा माल कविता, कहानी, छोटी कहानी, लम्बी कहानी, समीक्षा, एक बार का तो संपादकीय भी वगैरह सप्लाई करने जैसे तरह तरह के धन्धों में फंसी पाई गयी। यानी कुल मिला कर शुरू के सालों में टाइमटेबिल का काफी काफ़ी हिस्सा ‘हंस’ के दफ़्तर में बीतने लगा। इसमें कहीं मेरी अपनी भी कमजोरी रही ही होगी। और कुछ नहीं तो अपेक्षाओं को टाल न पाने या फिर अटक भीर और अड़ी भिड़ी के समय बावजूद अनिच्छा और आलस्य के बरबस उठ खड़े होने की निहायत औरताना आदतें जो अपने आप से बेहद लड़ाई के बावजूद छूटती ही नहीं और भुनभुनाने की मनःस्थिति में इस फंसावड़े की सारी जिम्मेदारी (पढ़िये गलती और गुनाह) मैं राजेन्द्र जी पर डालना पसंद करती हूं। मुझे भी इस तरह अपने लिये एक स्थायी बहाना मिला हुआ है कि ‘हंस’ की फ़ाइल-दर-फ़ाइल कहानियां पढ़ते हुए और रहे सहे वक्त में तथाकथित बाकी धन्धे निपटाते हुए न वक्त बचता है न दिमाग कि जो मैं सचमुच लिखना चाहती हूं वह लिख सकूं। इस सिलसिले में भुनभुनाना एक किस्म की क्षतिपूर्ति ही समझिये। यह अलग बात है कि बीच बीच में जब कुछ अरसे के लिये समीक्षा वगैरह से हाथ समेटा तब कुछ और भी नहीं ही लिखा। थोड़ा बहुत जो लिखा गया वह कभी न लिखा गया होता यह फंसावड़ा अगर न होता। राजेन्द्र जी यह कला जानते हैं। वे जानते हैं कि मैं सिर्फ दबाव और मज़बूरी में ही काम करती हूं। वे मुझे यह भी बताते हैं कि मेरे बहानों का असली नाम आलस्य है। कभी चुनौती से, कभी धिक्कार से , कभी अपनी असहायता और अन्यत्र व्यस्तता के प्रदर्शन से और इस सबसे बढ़ कर इस जानकारी से कि किस पर किस वक्त कौन सा हथियार काम करेगा, वे लोगों को प्रेरित, प्रोत्साहित, उत्तेजित करके काम के लिये धकेलना जानते हैं। उनकी इन्हीं युक्तियो (पढ़िये हथकण्डों) का नतीजा है कि आज मैं अखिलेश के चंगुल में फंस कर खुद राजेन्द्र जी को इस ललित निबन्धनुमा चीज़ का विषय बना कर इस चिन्ता में बैठी हूं कि यह ऐयार जो खुद ही तिलिस्म भी है, खुद ही तहखाना भी, इसकी चाभी है कहां। और विषय ऐसा फिसलवां साबित हो रहा है कि आसानी से पकड़ में आने की बजाय अवान्तर भटकाता ही चला जा रहा है। शायद ऐसा भी होता हो कि जहां आसानी से कोई रहस्य पकड़ में न आये वहां दरअस्ल रहस्य हो ही नही, सिर्फ रहस्य के लक्षण होने की वजह से मान लिया जाय कि रहस्य भी है । अब आज के ज़माने में विवाहेतर प्रेम प्रसंग या स्त्री-हृदय-संग्रह जैसे शौकिया शिकारों को रहस्य की कोटि में रखने की तुक तो कोई है नहीं। उन्हें ले कर छोटा मोटा स्कैण्डल तक खड़ा करने के लिये भी एक बिल क्लिंटन चाहिये। उनकी बात अलग है जिनके संस्कार आधी सदी पहले पड़ चुके थे या फिर जिनके भीतर भय है, जिनमें स्त्रियां ही प्रमुख हैं, जो भुगतती आई हैं और जो अब बहादुरी के कारनामों में स्वयं भी पीछे नहीं हैं और जो अब प्रतियोगिताओं में पुरूषों की अपेक्षा कहीं अधिक फ़ायदे में हैं क्योंकि देने वाली कुर्सियों पर जब तक अधिकतर पुरूष हैं तब तक इनके पास देने के लिये ऐसा कुछ है जो पुरूष प्रतियोगियों के पास नहीं है और जो उन स्त्रियों के लिये भी एक संकट खड़ा करती हैं जो इन शर्तों पर प्रतियोगिता में शामिल होना नहीं चाहतीं। पर यह भी यहां एक अवान्तर प्रसंग है। इसे आगे के लिये स्थगित करते हुए रेखांकित यहां मैं सिर्फ यह करना चाहती हूं कि ‘कथादेश’ के पूर्वोक्त साक्षात्कार में उल्लिखित राजेन्द्र जी के इकबालिया प्रेमप्रसंगों के अतिरिक्त, जो अब रहस्य नहीं रहे, अन्य रहस्य कहीं हैं या नहीं? वह तोता कहां है जिसमें राजेन्द्र जी की जान है?

फिलहाल वह तोता शायद ‘हंस’ है। उनके बरसों के पाले हुए सपने का सच। और उनके इच्छाजगत में संपादक को जैसा होना चाहिये वैसे ही संपादक की भूमिका उन्होंने अपने लिये तय की है। अपनी सारी भुनभुनाहट के बावजूद इतना तो मैं भी जानती हूं कि यह अहसास उन्हें शायद बहुत गहराई तक तृप्त करता है कि किसी की रचनाशीलता को खादपानी देने में उनका भी हाथ है। ‘हंस’ के साथ जुड़े नये लेखकों की लम्बी जमात का स्नेह और लगाव इसी का फल है लेकिन इसके कुछ अवान्तर नतीजे भी हैं ही। जैसे कि राजेन्द्र जी का यह आग्रह कि वापस जानेवाली रचना में अगर थोड़ी भी गुंजाइश दिखे तो उस पर एक टिप्पणी और साथ में संशोधन की सलाह जरूर नत्थी की जाय। पहली छंटनी का काम इससे बढ़ता और मुश्किल होता है, यह स्थिति का सिर्फ एक ही पहलू है। यह भी होता रहता है कि सलाह के नतीजे खुद को ही भुगतने पड़ें। लेखक अगर सलाह को अमल में लाकर सचमुच संशोधन कर डाले और हंस को सलाह और संशोधन के बीच कोई ताल मेल नज़र न आये तो गलती जाहिर है हमारी होगी। संशोधन के कारण अगर कहानी और भी बिगड़ गयी सी पायी जाय तो इस सत्यानास की जिम्मेदारी भी जाहिर है हमारी ही होगी। विचारार्थ दुबारा भेजते समय अगर लेखक मान चुका हो कि इस बार तो रचना स्वीकृत होगी ही तो उचित ही यह उसका अधिकार है। यानी यह मान लेना कि स्वीकृति मिलेगी न कि प्रकाशित भी होना। लेकिन दुर्भाग्य से यदि रचना को लौटाना पड़ा तो मामला संपादकीय तानाशाही का और लेखकीय अधिकार में हस्तक्षेप का बन जाता है । स्नेह और लगाव धरा का धरा रह जाता है और नाराज़ों की गिनती में एक और का इज़ाफा होता है। जितनी आसानी से राजेन्द्र जी दोस्त बनाते हैं उतनी ही आसानी से दुश्मन भी लेकिन प्रकाशन की शुरूआत के चौदह वर्ष बाद आज भी यह संपादकीय नीति बरकरार है और राजेन्द्र जी यथासंभव लेखकों को पत्र भी स्वयं ही लिखा करते हैं।

पत्रों का किस्सा भी खासा दिलचस्प है। ‘हंस’ के दफ़्तर में वे ढेर के हिसाब से आते और बेहद चाव से पढ़े जाते हैं। डाक राजेन्द्र जी खुद अपने हाथों से खोलते हैं और सबसे ज्यादा मज़ा नाराज़ पत्रों को पढ़ कर पाते हैं जो कभी कभी सचमुच इतने नाराज़ होते हैं कि बाकायदा गोली से लेकर गाली तक की समूची रेन्ज संभाले होते हैं। और गालियां भी गोली से कतई कम नहीं शायद कुछ बढ़ कर भले हों। इस मामले में राजेन्द्र जी का प्रिय शगल यह है कि खुद पहले पढ़ चुकने के बावजूद निहायत भोले और अनजान बन कर कोई ठेठ मांसाहारी किस्म का खत मुझे या वीना, सुश्री वीना उनियाल - हमारी कार्यालय सहयोगिनी, को थमा कर वे उसके सामूहिक सस्वर पाठ की फर्माइश करेंगे कि देखो तो ज़रा, क्या कहता है, मेरी समझ में नहीं आ रहा है , पढ़ कर सुना दो और इस क्रम में मेरी या वीना की भद्र महिलासुलभ आत्मछवि को खतरे में डाल देंगे । यानी कि होगा यह कि ‘संपादक साले उल्लू के पट्ठे, तू अपने को समझता क्या है’ जैसी अपेक्षाकृत विनम्र वचनावली से शुरू होने वाला पत्र जरा दूर चल कर मां की, बहन की शान में अकथनीय इजाफ़ा करता हुआ मिलेगा और पढ़नेवाली पढ़ती जाये तो अपनी स्त्रीजनोचित सुशीलता की शान में , और न पढ़ पाये तो तथाकथित बौद्धिकता के गुमान में बट्टा लगते हुये पायेगी ही। एक दिन खीझ कर मैं भी खेल ही गयी। अन्त तक पढ़ ही डाला । सन्नाटा छा गया। थोड़ी देर। किसी को समझ में ही नहीं आया कि प्रतिक्रिया क्या दी जाये । फिर राजेन्द्र जी ने ठहाका लगाया। उस दिन के पहले तक के पुरूष प्रधान ‘हंस’ जगत में पुरूषोचित विमर्श की आकांक्षा होने पर मुझसे कमरा छोड़ देने की प्रार्थना की जाती थी। उस दिन से मैने स्वयं को पूर्णकालिक सदस्य की हैसियत से स्वयं को दाखिल पाया और ‘हंस’ के साथ मेरे संबन्ध में सबसे अधिक मूल्यवान बात मुझे यही लगती है कि वहां अपने स्त्री होने के अहसास का कोई प्रतिबन्धक दबाव मुझे अपने मन पर महसूस नहीं होता। प्रेमीपुंगव के रूप में राजेन्द्र जी की ख्याति के सार्वजनिक होने के पहले और स्वयं इस ख्याति से अपरिचित होने के कारण मैं इस आशय का प्रमाणपत्र जब तब प्रसारित किया ही करती थी। बिना मांगे। इसके पीछे अपनी आश्वस्ति और निश्चिन्तता की अभिव्यक्ति है कि ऐसी दोस्ती और ऐसा दफ़्तर भी संभव है। वह प्रमाण पत्र अब भी अपनी जगह बरकरार है।लेकिन उसे अब मैं उसे पहले की तरह प्रसारित प्रायः नहीं करती। वजह बचकानी और हास्यास्पद है।एक तो यह कि यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, सामान्यीकरण का आधार नहीं बन सकता। दूसरे यह आशंका कि जनता की मनोवृत्ति को देखते हुए मेरे अनुभव की तुलना में राजेन्द्र जी ख्याति ज्यादा विश्वसनीय साबित होगी।

लेकिन बात पत्रों की हो रही थी। मत और सम्मत में प्रकाशन के लिये पत्रों का चुनाव करते समय उन पत्रों की जगह सबसे ऊपर होती है जिनमें ‘हंस’ और राजेन्द्र जी की सख्त आलोचना हो।लेखकों के अलावा पाठक भी ऐसे पत्र काफ़ी खुले दिल और इत्मीनान से लिखते हैं। बल्कि कुछ ज्यादा ही इत्मीनान से। शायद वे भी जान चुके हैं कि कैसे पत्र जरूर छापे जायेंगे। संपादक की डाक में बहुत से व्यक्तिगत पत्र भी होते हैं। उनमें स्त्रियों के पत्रों की संख्या भी अच्छी खासी होती है। कई बार ये साहित्यिक मसलों से जुड़े होते हैं तो कई बार लिखने वाले की बिल्कुल निजी दिक्कतों और समस्याओं के बारे में भी और लिखने वाले भी ऐसी पृष्ठभूमि के कि सोचना मुश्किल लगे कि इन्हें ‘हंस’ और राजेन्द्र जी के बारे में मालूम कैसे हुआ होगा। एक पत्र उत्तरप्रदेश के किसी गांव की किशोरी का था।उसकी समस्या लड़की होने के कारण परिवार में अपनी उपेक्षा से जुड़ी हुई तो थी ही, इस समय और भी विकट हो उठी थी क्योंकि वह अपनी दसवीं तक की पढ़ाई पूरी करना चाहती थी जब कि घरवाले उसकी शादी कर देने पर तुले हुए थे। राजेन्द्र जी से उसकी अपेक्षा यह थी कि दिल्ली में उसके लिये एक नौकरी का प्रबन्ध कर दें तो वह शादी के पहले ही घर से भाग निकले। कुछ पत्र भावना और कर्त्तव्य के चिरन्तन द्वन्द्व में फंसी विवाहिताओं के होते हैं जो अपनी नैतिक दुविधाओं का समाधान राजेन्द्र जी से मांगती हैं। एक दिवंगत विधुर लेखक की अविवाहित समर्पिता के इस आशय के पत्र पिछले दिनों राजेन्द्र जी की चिन्ता के विषय बने रहे कि अब वह अपने जीवन का क्या करे और दिवंगत की सम्पत्ति में से अपने गुजारे लायक कुछ पा सकने का उसका कोई कानूनी अधिकार है या नहीं। राजेन्द्र जी को ये पत्र लेखक क्यों अपना विश्वास पात्र चुनते हैं, उनके साथ कैसे इतने निस्संकोच हो उठते है, कैसे ऐसी असंभव सी अपेक्षाएं उनसे रखने का अधिकार ले लेते हैं, मालूम नहीं लेकिन इतना मालूम है कि राजेन्द्र जी हर पत्र को गंभीरता से लेते और भरसक हर समस्या को समझने सुलझाने की कोशिश के साथ जवाब लिखते हैं। कम से कम जवाब तो लिखते ही हैं, बाकी समस्याओं का उलझना सुलझना उनके हाथ में कहां। पर उनका विश्वास है कि और कुछ किसी को न भी दिया जा सके, ‘टी एण्ड सिम्पैथी’ तो दी ही जा सकती है।

लेखक जाति के जन्तु से थोड़ा बहुत साबका तो ‘हंस’ के साथ जुड़ने के पहले भी पड़ता रहा था लेकिन अब का देखना उन्हें झुन्ड का झुन्ड देखना थाऔर उनके बीच राजेन्द्र जी को देखने का मतलब उन्हें उनके प्राकृतिक आवास में स्वाभाविक व्यक्तित्व और अस्तित्व में देखना था। जो न बल्ख में पाया न बुखारे में उस किसी दुर्लभ तत्त्व की तलाश में दिल्ली से हो कर गुजरने वाला अमूमन हर लेखक रज्जू के चौबारे तक आ ही पहुंचता है और लेखक जात के दिल्लीवासियों की जमात में से भी अधिकतर साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक देखादेखी कार्यक्रम निभाने में आनन्द लेते हैं। वह दुर्लभ तत्त्व है बतरस। ‘हंस’ का दफ़्तर वह प्रदेश है जहां इसकी बरसात का कोई मौसम नहीं। या कहें कि हर मौसम इसी बरसात का है।

जुए और शराब जैसी कोई चीज़ है बतरस। अपने आप में भरा पूरा एक नशा। और निस्संदेह राजेन्द्र जी सिद्ध कोटि के नशेड़ी हैं। यह मानसिक भोजन है लेकिन सिर्फ सात्विक और निरामिष किस्म का वैसा मानसिक भोजन नहीं जो सिर्फ पेट भरता और स्वास्थ्य को सुरक्षित रखता है। ऊपर उपर से देखते हुए किसी को जितना जाना जा सकता है उतनी सी अपनी जानकारी के बल पर कहूं तो ऐसा लगता है कि संगत अगर मन की हो तो राजेन्द्र जी के लिये शायद बिल्कुल निजी तौर पर जिन्दग़ी की प्राकृतिक और बुनियादी किस्म की अनिवार्य जरूरतों के अलावा बाकी हर चीज़ का स्थानापन्न है यह बतरस। बल्कि कहना यह चाहिये कि यह उनकी प्राकृतिक और बुनियादी जरूरतों में से एक तो है ही, जरूरत से बढ़ कर एक नशा भी है। उसकी जगह हर चीज़ से ऊपर और पहले है, शायद उन जरूरतों के भी ऊपर और पहले जो उनके स्वयं-स्वीकृत प्रेमसंबन्धों से पूरी होती हैं। यह जीवन के साथ उनका संपर्क, लेखन के लिये सामग्री का स्रोत, और न लिख पाने के दिनों में स्वयं सृजन का स्थानपन्न है। बतरसियों का शायद सभी जगह यही हाल हो।

बतरस में शामिल संगत के हिसाब से सामग्री और स्तर बदलते रहते हैं। लेकिन केवल परनिन्दासुख का टॉनिक पी कर पुष्ट होने वाली गोष्ठी यहां प्रायः नहीं होती। यानी अगर होती है तो निन्दनीय की उपस्थिति में, आमने सामने, सद्भाव सहित टांगखिंचाई के रूप में जिसका मज़ा उसे खुद लेने को मज़बूर होना पड़ता है। इन सरस आत्मीय प्रसंगों के शिकारों में ‘हंस’ का पूरा स्टाफ़ शामिल है जो राजेन्द्र जी के मुंह से ऐसी ऐसी बातें सुन कर निहाल हो लेता है जिन्हें कोई और कहे तो अपना सिर फुड़वाये। कभी वीना का परिचय देते हुए किसी से वे कह बैठेंगे ‘पिछले बारह वषों से यह मेरी संगिनी है’ और वीना का चेहरा देखने लायक होगा। कभी कविता, नवोदित समीक्षिका, कवयित्री और कथाकार – इन दिनों ‘हंस' का शीघ्र प्रकाश्य कथा संचयन बनाने में सहायक, की स्वाद संबन्धी रूचियों का बखान होगा। ‘हंस’ का हर आगन्तुक उसके एकाग्र आलू प्रेम से परिचित है। कभी किशन का प्रशस्तिगान चल रहा होगा, ‘यह तो अगर बिड़ला के यहां भी नौकरी कर रहा हो तो साल भर में उसे दीवालिया बना कर सड़क पर निकाल दे।’ या फिर यह कि ‘ घर का मालिक तो असली यही है जो करता है सब अपने लिये। जो खाना हो सो बनाता है। खा पी कर ठाठ से मस्त रहता है।सब इसीका है। हम साले कहां। हमारा क्या। एक रोटी खा लेते हैं। एक कमरे में पड़े रहते हैं। बाकी सारा घर तो इसने दबा रखा है ’ वगैरह और किशन सुनी अनसुनी करता हुआ व्यस्त भाव से दफ़्तर के इस कमरे से उस कमरे में होता रहेगा और खाने के समय अभिभावक के रोब से डांट डांट कर सारी कसर निकाल लेगा।चुपचाप खा लीजिये। यह दवा लीजिये। नहीं तो मैं दीदी – टिंकू – से शिकायत कर दूंगा। और राजेन्द्र जी बच्चों की तरह ठुनकते रहेंगे। देख कर लगेगा कि यही इनका असली आनन्द है कि इसी तरह उलटे-पलटे, उठाये-धरे, झाड़े-तहाये जाते रहें। नाज़ नखरे उठते रहें। पर यह भी सच है कि किशन लम्बी छुट्टी पर चला जायेगा तो दो चार दिन परेशान दिखने के बाद उसी मुफ़लिस मिस्कीन मुद्रा के ऐसे अभ्यस्त दिखाई देंगे जैसे सदा से ऐसे ही रहने के आदी हैं। अनमेल कपड़े, अगड़म बगड़म खाना, अनूठी धजा। बतायेंगे कि आखिर घर का मालिक अनुपस्थित है तो इतना फ़र्ज. तो राजेन्द्र जी का भी बनता ही है कि उसकी अनुपस्थिति को सलामी दें। फिर वीना, हारिस, दुर्गा, अर्चना सब के डिब्बों से राजेन्द्र जी के लिये इतना खाना निकलेगा कि दोपहर में दफ़्तर में खाने के बाद वे रात के लिये घर ले जायेंगे और अगले दिन दफ़्तर में बतायेंगे कि उसी में मेहमान भी खिला लिये । दुर्गा की खुराक उसकी चिरन्तन छेड़ है। वह शादी करके लौटा तो छूटते ही राजेन्द्र जी बोले कि अपनी रोटियों की गिनती कम कर वरना दो दिन में भाग खड़ी होगी। सुबह की सेंक कर चुकेगी और शाम की शुरू कर देगी। और कुछ तो देख ही नहीं सकेगी जीवन में। बदकिस्मती से वह सचमुच चली गयी। दुर्गा ने अभी दूसरा विवाह किया है और राजेन्द्र जी ने अपनी चेतावनी दोहरानी शुरू कर दी है। यानी दफ़्तर में किसी दिन मेहमान कोई आये या न आये, रौनक के लिये राजेन्द्र जी अकेले ही काफ़ी हैं। छेड़ छाड़ का यह ताना बाना आत्मीयता का एक वितान बुनता है। यह सबको अपने साथ ले कर चलने का उनका तरीका है। कहीं दूर दराज़ से एक दिन को दिल्ली आया हुआ कोई अपरिचित पाठक भी घन्टे आध घन्टे की अपनी मुलाकात में इस आत्मीयता का प्रसाद पा कर गद्‍गद्‍ हो उठता है।

आनेवालों की न पूछिये। किस्म किस्म के लोग। लोगों का तांता। लेखक और आलोचक तो खैर प्रतीक्षित और प्रत्याशित ही हैं, अप्रत्याशित का स्वागत और सामना करने को भी हंसजगत तैयार रहना सीख गया है। राजेन्द्र जी के दफ़्तर के कमरे में प्रवेश का दरवाज़ा मेरी कुर्सी के पीछे है।एक दिन झपट कर वे सज्जन, नाम नहीं मालूम, भीतर घुसे और पीठ पीछे से हाथ का बस्ता मेरे सामने पटका। झपट्टे का झोंका मेरे बायें कन्धे पर भी लगा लेकिन उनका असल निशाना राजेन्द्र जी थे। जब तक कोई कुछ समझे न समझे वे कस कस कर दो घूंसे राजेन्द्र जी को जमा चुके थे और बाकायदा सुसज्जित भाषा में गरज रहे थे, कहां छिपा रखी है मेरी चन्द्रमुखी। निकाल साले। वरना खून पी जाउंगा। अरविन्द जैन, हारिस, दुर्गा, किशन वगैरह ने मिल कर मुश्किल से किसी तरह काबू किया और उनको बाहर निकाला वरना दुनिया भर के अन्याय के खिलाफ़ मुहिम पर निकला अकेला बांकुरा अभी पता नहीं क्या क्या गुल खिलाता। हालत अमिताभ बच्चन की फिल्म के सेट जैसी होते होते बची। बल्कि थोड़ी बहुत तो हो ही गयी। देर तक किस्से कहानियां चलती रहीं।

मैं काफ़ी देर स्तब्ध रही। अन्तर्कथा यूं थी कि कवियशःप्रार्थी उन सज्जन को असफल प्रेम के दंश ने इस दशा को पहुंचाया था। उनकी चन्द्रमुखी और राजेन्द्र जी पर क्रोध का कोई सम्बन्ध राजेन्द्र जी की पूर्वोक्त ख्याति से नहीं था। हालांकि घटना जैसे घटी उससे भ्रम हो सकता था कि है। ज़ालिम ज़माने के साकार प्रतिरूप चन्द्रमुखी के माता पिता बेटी की स्नेह चिन्ता में बीच में आ खड़े हुए थे। राजेन्द्र जी से प्रेमी-बालक की शिकायत थी कि ‘हंस’ के संपादक के रूप में अपनी सर्वशक्तिमान हैसियत का इस्तेमाल उन्होंने चंद्रमुखी को वापस दिलवाने के लिये क्यों नहीं किया था। आखिर वे भी तो रचनाकार होने के नाते उनकी बिरादरी के सदस्य थे। राजेन्द्र जी से लोगों की अपेक्षाओं के आकार प्रकार की सचमुच कोई हद नहीं और उसी वजन पर अपनी रचनाकार बिरादरी का भी कोई जवाब नहीं। बिरादर आत्मलीन आवेग की चोटी की नोक पर खड़े डगमगाते, कांपते, कुछ होश में, कुछ बेहोशी में अपनी ही झोंक और झपट्टे से हद के पार निकल लेते हैं और देखने वाले कहते हैं कि खिसका हुआ है। इस सबके बाद अगर रचना हो सके तो लगे कि कुछ ख़मियाज़ा भरा गया लेकिन उसकी भी कोई गारन्टी नहीं। शेष रह जाता है खाली ध्वंस। व्यर्थ।

लेकिन मुद्दा था बतरस। बतरसिया का स्वभाव भी उसके नशे की जरूरत के सांचे में ढल जाता है। इस सांचे का बुनियादी तत्त्व है भाषा के साथ एक खास किस्म का रिश्ता। राजेन्द्र जी को बोलते हुए सुनिये। वे बात नहीं करते, संवाद अदा करते हैं। उधर से किसी ने टेलीफोन पर पता नहीं क्या कहा।इधर से राजेन्द्र जी बोल रहे हैं ‘तो इन्तज़ाम करना और इन्तज़ार भी।’ दूसरे मिसरे का इन्तज़ार मत कीजिये महाशय। यह कोई ग़ज़ल नहीं, सिर्फ एक बात है। वैसे मौके के हिसाब से मौजूं शेरों का भी पूरा भण्डार उनके पास है और ठीक मौके पर सही शेर उनको याद भी पता नहीं कैसे लेकिन ज़रूर आ जाता है। यही हाल चुटकुलों का भी है। जरा उनके अनुवाद का यह नमूना देखिये। ‘फूल्स रश इन व्हेयर एन्जिल्स फियर टु ट्रेड’ का हिन्दी में यह मौलिक पुनर्लेखन है ‘चूतिये धंस पड़ते हैं वहांफरिश्तों की फटती है जहां।’ ‘टॉर्च का उनका हिन्दी अनुवाद है ‘ज्योतिर्लिंग।’ भाषा के साथ एक बेहद अन्तरंग, लचीला और घनिष्ठ रिश्ता उनके लेखन से भी ज्यादा उनकी बातचीत से फूटा पड़ता है।

ये एक अच्छे ‘कनवर्सेशनलिस्ट’ के ज़रूरी औजार हैं लेकिन ज्यादातर मशक्कत तत्काल और तत्क्षण होती है। यह तत्कालता या प्रत्युत्पन्नमतित्व बतरसिया की अंतरंग योग्यता है। इसका मतलब शब्दों के इस्तेमाल में, अपने भी ओर दूसरे के भी, केवल शब्दों के प्रति एक चौकन्नापन है। मौका मिलते ही मुहाविरे को पलट दिया जायगा ।बात बदल जायेगी। दो उस्तादों के बीच कभी ऐसा मुहाविरा महासमर देखने का मौका मिला हो तभी उसके असर का पूरा अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। बरसों उसके उद्धरण चुटकुलों की तरह हिन्दी जगत में सुने सुनाये जाते हैं। ऐसी ही एक सुनी सुनाई यूं है कि, पर सुनाने के पहले ही साफ़ कर दूं कि गुजरे ज़माने की बातें हैं, वह भी सुनी सुनाई, सो कॉपी राइट संदिग्ध है। यानी संवादियों के नाम तो शायद सही हैं पर किस की पंक्ति कौन सी है यह पूरी तरह से निश्चित नहीं है। पहले उदाहरण के संवादी हैं स्वर्गीय श्री मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव।मोहन राकेश अपना लेखन टाइपराइटर पर करते थे। किसी पत्रिका से बहुत शॉर्ट नोटिस पर दोनो से रचना की फर्माइश थी। लेखकोचित नखरे से राजेन्द्र ने कहा कि इसका क्या है, यह तो दे ही देगा। यह तो टाइपराइटर से लिखता है। दिक्कत हमारी है।हम दिमाग से लिखते हैं। छूटते ही राकेश ने कहा कि पन्द्रह साल से हम दोनो लिख रहे हैं। मैं टाइपराइटर से और यह दिमाग से। मेरा टाइप-राइटर तो भाई पन्द्रह साल में खचड़ा हो गया है। राजेन्द्र जी के दिमाग के बारे में राकेश ने कुछ नहीं कहा। दूसरी एक घटना के संवादी शायद कमलेश्वर के साथ राजेन्द्र यादव हैं जिसमें एक ने दूसरे के दिमाग में गोबर भरा होने की घोषणा की तो दूसरे ने जानना चाहा कि फिर पहला उसे इतनी देर से चाट कर क्या साबित कर रहा है। एक बार ऐसा हुआ कि कविवर श्री अजित कुमार उनकी पत्नी कवयित्री श्रीमती स्नेहमयी चौधरी यादव दम्पत्ति के साथ यात्रा पर गये। अजित कुमार के संदर्भ में राजेन्द्र जी की नामकरण प्रतिभा अपने चरम शिखर पर पायी जाती है। उनके दिये गये ‘गोलमालकर’, ‘खिटखिटानन्द’ तथा ‘घपलाकर’ जैसे नाम मित्रो के बीच स्थायी रूप से स्वीकृत हो चुके हैं। इस संदर्भ में अजित जी का जवाब यह है कि गोलमाल, खिटखिट और घपला करते तो राजेन्द्र जी समेत बाकी सब ही है लेकिन नाम सिर्फ अजित कुमार का इसलिये होता है कि उनके स्वच्छ मनोदर्पण में बाकी सब अपनी अपनी छवि प्रतिबिम्बित देखते हैं। इस यात्रा में अजित कुमार ने नया नाम पाया पतिदेव। स्नेह जी के प्रति उनकी अतिरिक्त चिन्ता शायद इसके मूल में रही हो पर जल्दी ही यह नाम से ज्यादा टांगखिंचाई का साधन बन गया। बताया जाता है कि अजित कुमार ने यह कह कर हिसाब बराबर किया कि जहां बाकी सब विपत्ति देव हों वहां कम से कम एक का पतिदेव होना ठीक ही नहीं जरूरी भी है। इन्हीं अजित कुमार के विषय में राजेन्द्र जी की एक प्रिय छेड़ यह भी है कि उनके प्रेम प्रसंग कभी पकड़े न जायेंगे क्यों कि वे इतने चतुर हैं कि प्रमाण कभी छोड़ते ही नहीं। उनकी प्रेमिकाओं के घर में उनके पत्र नहीं मिलते कि कोई उन्हें ब्लैकमेल कर सके, पुत्र मिलते हैं जिनके बारे में कोई कह नहीं सकता कि किसके हैं।

शब्दों के साथ इस किस्म के खिलवाड़ की क्षमताएं केवल खेल में ख़तम नहीं हो जातीं। खेल के अतिरिक्त वे केवल रचना के समय में ही सक्रिय होती हों ऐसा भी नहीं है। जितनी देर यह खेल चलता है उतनी देर वह अद्वितीय है। उसका स्थानापन्न दूसरा कुछ नहीं हो सकता।लेकिन खेल के बाहर वे उस मानसिकता की अभिव्यक्ति जान पड़ती हैं जिसके लिये सारी संवेदनाएं जैसे शब्दों में रहती हों, उन सचमुच के अहसासों में नहीं जिन्हें शब्द पैदा करते हैं। वे ‘एक दुनिया समानान्तर’ के वासी हैं जो शब्दों से रचित है। अजीब विरोधाभास है कि रचना के संदर्भ में तो आग्रह यह हो जाय, जो कि पहले नहीं था, कि भाषा और यथार्थ के बीच का फासला न्यूनतम हो, लगभग कलाहीन और सपाट जबकि जीवन के साथ सीधे संपर्क में भाषा एक आड़ बन जाय, एक फासला। हर देखे सुने को, व्यक्ति हो या घटना या फिर अनुभव, सूक्तियों और सूत्रवाक्यों में बदल कर मनोकोष में दर्ज कर लेने की मजबूरी सी हो जाती है जो केवल लेखन तक बाकी नहीं रहती, जीने की प्रक्रिया का हिस्सा बल्कि पर्याय बन जाती है। राजेन्द्र जी के अनुभव कोष में हम सब शायद इसी तरह दर्ज हैं, एक सूक्ति, एक सूत्रवाक्य या एक परिभाषा बन कर। यह आदमी और अनुभव के अमूर्त्तन का तरीका है। हाड़ मांस का जीता जागता धड़कता हुआ आदमी गुम हो जाता है। अपने ‘इमोशनल अपरेटस’ या ‘अज्ञेय’ के शब्दों में 'भावयंत्र' पर अनुभव अपनी पूरी मांसल और विध्वंसक ऊर्जा के साथ दर्ज ही नहीं होता। एक स्तर पर यह खुद अपना भी अमूर्त्तन है यानी अपने आपे के साथ भी केवल एक वैचारिक रिश्ता। क्या यह भी एक तरह का कवच है? 

इस जगह आ कर उस दूसरे स्तर के बतरस की बात शुरू की जा सकती है जिसे राजेन्द्र जी भी गंभीरता से लेते हैं और उनके प्रशंसक पाठक भी। बहसें भी होती हैं, गोष्ठियाँ भी पर उनके सदस्य और इलाके ‘हंस’ के दफ़्तर के बाहर हैं। वे विद्वत्जन हैं। ये गोष्ठियां केवल शगल नहीं हैं, उनमें एक गंभीर सोद्देश्यता है और वहां बीतने वाला वक्त राजेन्द्र जी में एक स्वयंसिद्ध सार्थकता का भाव उत्पन्न करता है। नहीं करता है अगर, तो अपने सोचे समझे के प्रति एक सप्रश्नता। इसी का एक और प्रकार अपने पाठकों साथ ‘मेरी तेरी उसकी बात' में उनका सीधा संवाद है। साहित्य और साहित्यकारों के बारे में कुछ बेहद स्मरणीय और संग्रहणीय संपादकीय उन्होंने लिखे हैं। लेकिन इन्हीं में कुछ किताबों के बारे में ऐसे संपादकीय भी हैं जिनके लेखक जीवन भर ‘हंस’ के संपादकीय के लिये अपनी किताब के चुने जाने के सौभाग्य से आहत और रूष्ट रहेंगे। इसलिये कि संपादकीय दरअस्ल किताब के बारे में होगा ही नहीं, किताब के बहाने से राजेन्द्र जी के अपने किसी मंतव्य, धारणा या निष्कर्ष को स्थापित कर रहा होगा लेकिन इसी क्रम में किताब या तो रद्द हो जायेगी या फिर रद्द कर दी गयी सी प्रतीत होगी। किसी किताब या किताब के अंश को केवल प्रस्थान बिन्दु की तरह इस्तेमाल करते हुए उससे बिल्कुल अलग अपनी रूचि, विचार, सनक या मनस्तरंग की घाटियों में भटक या बहक जाना उस तथाकथित आलोचना की पद्धति है जो स्वयं को रचना का स्थानापन्न मानती है और अपने डंक से रचना को घायल करती है। ‘वारेन हेस्टिंग्स का सांड़’, ‘हमज़ाद’, ‘ खिलेगा तो देखेंगे,’ ‘पहला गिरमिटया’ आदि अनेक ऐसी ही डंक मारी हुई रचनाएं हैं। इस संपादकीय समीक्षा से कई बार आप सहमत भी हो सकते हैं, कहने का मतलब यह है भी नहीं कि किताब की आलोचना या निन्दा नहीं की जा सकती, लेकिन यहाँ सवाल यह है कि संपादकीय के तौर पर किसी अभी अभी प्रसारित किताब के बारे में अपनी व्यक्तिगत सहमति या असहमति के इज़हार से पाठक समुदाय को पहले ही पूर्वग्रह-ग्रस्त कर देना रचना के साथ कहां का न्याय है। समीक्षा भी सम्पादकीय के तौर पर लिखी जाकर चोला बदल लेती है। इधर राजेन्द्र जी इस किस्म की आलोचना या रचना पर अक्सर हाथ आजमा रहे हैं और अपने आहतों और रूष्टों की गिनती बढ़ा रहे हैं। लेकिन इससे वे डरते कब हैं, वे तो प्रतिक्षण अपनी निडरता प्रमाणित करने को तत्पर बल्कि लालायित रहते हैं। इतने कि अगर काश्मीर के रास्ते में निकल कर किसी के साथ अपनी असहमति दर्ज करानी याद आई तो दुलत्ती झाड़ने के लिये कन्याकुमारी होते हुए काश्मीर जायेंगे। राजनीति में अवाजो (अडवाणी, वाजपेयी, जोशी) साहित्य में नरेन्द्र कोहली जैसे परम्परा के पुनःप्रस्तोता, राग भूपाली के गवैये बजैये जैसे तथाकथित रूपवादी और कलावादी उनके ताड़न के सतत अधिकारी हैं। आपको लाख लगता रहे कि यह अप्रासंगिक विषयान्तर है पर उनका तो रास्ता ही उधर से है। क्षमा करें, ये सारे संपादकीय गुण हैं। और राजेन्द्र जी अपने सोचे समझे की मूल्यवत्ता और सत्यता के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हैं। सईद और फूको के चौखटे के जो कुछ भी बाहर रह जाता है उनके लिये उसका अस्तित्व ही संदिग्ध है। इसी आश्वस्ति में से तो उस आत्मविश्वास का सोता फूटता है जो मूल्यांकन के लिये अपने को प्रति मास पाठक के सामने परोसने का बल देता है। लेकिन जिस किताब के सहारे वे अपने आत्मविश्वास का उद्‍घाटन कर रहे हैं वह भी किसी के आत्मविश्वास की अभिव्यक्ति है जिसे वे अकारण अपनी संपादकीय पीठ की सुरक्षित और अनुकूल स्थिति से ध्वस्त करने को उद्धत हैं, इस बात की ओर उनका ध्यान स्वयं न जाता है और न वे ध्यान दिलाने पर भी देने को उत्सुक या तत्पर ही दिखाई देते हैं। किताब मैदान में उतरने के पहले ही मारी जाती है जबकि किताब के साथ उनकी अपनी कोई खास असहमति भी नहीं, अपनी बात वे यूँ भी कह सकते थे, अगर एक बना बनाया सन्दर्भ पा जाने का लोभ न होता तो।

समस्या उन संपादकीयों के साथ ज्यादा टेढी है जिनमें उनके इतिहास, समाज और राजनीति के विश्लेषण-अभियान हुआ करते हैं और जिनमें राज, समाज और इतिहास की समझ की कोई खास या आम तैयारी नामौजूद है। पाठक जानते हैं कि आज का‘हंस’वही ‘हंस’ नहीं है जो चौदह वर्ष पहले प्रकाशित होना शुरू हुआ था। हालांकि तब शुरू होने के लाभ आज भी उसके पास हैं। आज भी वह अन्य पत्रिकाओं की अपेक्षा ज्यादा दूर तक जाता है। तब क्योंकि अपेक्षाकृत लम्बे सन्नाटे के बाद शुरू होने वाली पहली और काफ़ी समय तक अकेली साहित्यिक पत्रिका थी इसलिये सहज स्वीकार और स्वागत का लाभ इसे मिला। ‘हंस’ की अपनी खासियत भी कुछ न कुछ रही ही होगी। वह एक खुला मंच था जिसे किसी एक पक्ष की वकालत की तरह नहीं, अनेक पक्षों की अदालत की तरह प्रारूपित किया गया था। आज का ‘हंस’अपेक्षाकृत बन्द और रूढ़ आयोजन है। राजेन्द्र जी इसे विकास मानेंगे। इसका एक पक्ष रचनाओं का चुनाव है। इस विकास-योजना के तहत सौन्दर्यशास्त्र की राजनीति का संशोधन चल रहा है, अभिव्यक्ति और संप्रेषण के अधिकारों का जातिवादी आरक्षण प्रायोजित किया जा रहा है। लेकिन जरा दूसरे सिरे से देखिये। यह अभिव्यक्ति के जनतांत्रिक अधिकारों के सदियों के हनन का मुआविज़ा है। राजेन्द्र जी अपनी ‘कॉन्स्टीट्यूएन्सी’ को पोस रहे हैं। वे समझते हैं कि इस तरह मुआविज़ा दिया जा सकता है। दिक्कत यह है कि उनके पाठक ऐसा नहीं समझते। मुआविजे के तौर पर जात-गोत देख कर ‘हंस’ में छापा तो जा सकता है लेकिन लेखक के रूप में स्थापित नहीं किया जा सकता। ‘हंस’ में छपे होने के बावजूद नहीं। मुख से कहने के बावजूद राजेन्द्र जी क्या भीतर से स्वयं यह विश्वास नहीं करते कि प्रतिभा किसी की बपौती नहीं और प्रतिभाशाली को किसी आरक्षण की जरूरत नहीं चाहे वह जात से कितनी ही सदियों का सताया हुआ दलित क्यों न हो। इस वक्त लिख रहे पिछड़े वर्गों के अनेक प्रतिभाशाली रचनाकारों का कृतित्व इस बात का प्रमाण है कि रचना पर मुग्ध होने के लिये रचनाकार की जात पूछने की जरूरत नहीं पड़ती। इस बारे में हमारी बहसों के अनन्त सिलसिले में राजेन्द्र जी का आधारभूत तर्क यह है कि ‘अक्करमाशी’ क्या कोई सवर्ण लिख सकता थाऔर मेरा सवाल यह कि हर दलित या दलित होने के दावे भर से क्या ‘अक्करमाशी’ लिखा जा सकता है? बहस अनिर्णीत है और हर बार वहीं से शुरू होती है। राजेन्द्र जी के नेक इरादों के बावजूद रचनाओं के चुनाव से पाठकों की असहमति बढ़ती जा रही है। कहा जाता है कि इसकी वजह यह है कि पाठकों की सौन्दर्य-संवेदना और रूचि जड़ हो चुकी है। देखना बाकी है कि पाठकों की सौन्दर्य संवेदना संशोधित होती है याकि राजेन्द्र जी ही इस नतीजे पर पहुंच जाते हैं कि साहित्य अप्रासंगिक हो चुका हैै।

दूसरा पक्ष इतिहास, समाज और राजनीति के विश्लेषण से जुड़े उनके संपादकीय हैं। उनकी अपनी समझ से ‘हंस’ आज खुल गया है।जबकि सच्चाइयां सीमित और निर्धारित हो चुकी हैं। नतीजे लाये जा चुके हैं। सिर्फ तर्क खोजने बाकी हैं और वे आंकड़ों, तथ्यों के अपने पक्ष में होने पर ही उनका सहारा लेंगे। अन्यथा मामला ठेठ सृजनात्मक किस्म की व्याख्या-विशषेज्ञ कल्पनाओं का बन जायेगा। वे पढ़ने में रोचक, अनुमान में संभाव्य और इसी पूंजी के बल पर इतिहास को चुनौती देने का हौसला रखती हैं।

कभी कभी घिर जाने पर जब न तर्क होंगे, न तथ्य होंगे तब गोष्ठी में वे मौन से सब को हरायेंगे या फिर उन तथ्यों का सहारा लेंगे जो उनके पक्ष की राजनीति ने उत्पादित कर के रखे हैं। उनके मित्रोंपरिचितों और परिवारियों में जो इतिहास, राजनीति और समाजशास्त्र के जानकार हैं वे इन संपादकीयों के प्रति असहिष्णु क्षुब्ध और अधीर होते हैं। और राजेन्द्र जी उनकी आलोचनाओं के प्रति उतने ही उदासीन और वधिर। शायद यह असहमति उन्हें इस बात का प्रमाण भी लगती हो कि वे कोई ऐसा जलता हुआ सच बयान कर रहे हैं जिसके साथ व्यापक असहमति उसकी ज्वलंतता का प्रमाण है। कोई बात तथ्यों, प्रमाणों की बजाय केवल रचनात्मक अन्तर्दृष्टि के सहारे कही जाय तो यह अंतरंग आश्वस्त भाव उसका अनिवार्य स्वभाव है। कहने वाले को लगता है कि वह अपने विश्वास की कीमत चुका रहा है। भले ही अन्तिम सत्यापन में वह बात गलत ही क्यों न साबित होने वाली हो। एक सिरे से देख कर इसे अपने सत्य में आस्था कहा जा सकता है और दूसरे सिरे से देख कर एक खच्चर किस्म का अड़ियलपना। लेकिन ठीक यही बात राजेन्द्र जी भी अपने असहमतों के बारे में कह सकते हैं। वे नहीं मानते तो हम ही कब उनकी मान लेते हैं। रही बात ऐतिहासिकता और समाजशास्त्रीय तथ्यात्मकता वगैरह की, तो वे तो स्रष्टा हैं। शास्त्र वास्त्र के साथ थोड़ी बहुत धक्कामुक्की कर ही सकते हैं। विद्वानों की गोष्ठी के बाहर जहां तक संपादकीयों का मामला है, ऐसे पाठक तो हमेशा उन्हें मिलेंगे ही और बहुतायत मे, जिनका राज, समाज और इतिहास का ज्ञान उनके ज्ञान से मेल खाता होगा या प्राप्त ही उनके संपादकीयों से हुआ होगा। उनकी प्रशंसा राजेन्द्र जी के लिये एक तरह का सत्यापन होगा। किसी दूसरे शहर की गोष्ठी में, सभाओं के बीच के समय में उन्हें घेरे प्रशंसकों, पाठकों और युवा लेखकों को देखिये, राजेन्द्र जी की एक नज़र के लिये, एक बात के लिये, एक मुस्कान, एक आश्वासन के लिये उनकी उत्सुकता, बेचैनी और तड़प को देखिये। राजेन्द्र जी को कहां धरें, कैसे उठायें बिठायें। या फिर दिल्ली से आते जाते पाठकों, प्रशंसकों, युवा लेखकों का उत्सुक दर्शनार्थी भाव से ‘हंस’ के दफ़्तर में प्रवेश – इनमें कभी कभी खास इसी मकसद के लिये ही दिल्ली तक आने वाले भी होते हैं। फिर भी राजेन्द्र जी का दिमाग़ अगर अपनी जगह है तो यह ताज्जुब की बात है। उस प्रश्नहीन सहमति और समर्पण से घिरे हुए राजेन्द्र जी उस पार, बहुत दूर दिखते हैं। असहमति तुच्छ और नगण्य सी मालूम हो, यह अस्वाभाविक नहीं। मसला उनका है जो असहमत हैं पर उनसे मिलेंगे नहीं। हंस’ के पहले वाले प्रशंसको में भी आज असहमतों और नाराज़ों की गिनती खासी बड़ी है। लेकिन राजेन्द्र जी इसे यूं समझेंगे कि या तो उसकी कहानी ‘हंस’ ने लौटा दी होगी जो कई बार सच भी होगा या फिर वह भाजपाई होगा, जो कि अक्सर और ज्यादातर गलत होगा। क्या यह भी उनके कवच की अछेद्यता अभेद्यता का एक प्रमाण है? हर असहमति की यूं अपने पक्ष में कोई न कोई व्याख्या ढूंढ कर उसे रफ़ा दफा. कर देना ! 

असहमति का प्रसिद्ध उदाहरण आलोचकप्रवर नामवर सिंह के साथ उनके मतभेद हैं जिसका उपयोगी पाया इस्तेमाल प्रायः साहित्यिक गोष्ठी मंच और सभागार को रोचक बनाने के लिये किया जाता है। ये हिन्दी साहित्य जगत के ‘दो बांके' ( संदर्भ भगवतीचरण वर्मा की इसी शीर्षक की कहानी ) हैं जिनके जोड़ के अन्त में श्रोता उल्लिखित कहानी के अन्त की तरह यही सोचता पाया जाता है "मुला स्वांग खूब भर्यौ।”

बात उस तोते की है जिसमें राजेन्द्र जी की जान है तो उस संदर्भ का ज़िक्र भी कर दूं जिसके कारण यह सवाल मेरे मन में आया कि राजेन्द्र जी के कवच में कहीं कोई सूराख़ है या नहीं। संदर्भ हिन्दी साहित्य का वह नवीनतम स्कैण्डल है जिसके नायक राजेन्द्र जी हैं। यानी ‘कथादेश’ में प्रकाशित वह साक्षात्कार और उसके सन्दर्भ में मन्नू जी की और मेरी वह प्रतिक्रिया जिसने रातोरात राजेन्द्र जी को खलनायक बना दिया है। एक तो स्त्रीविमर्श के ज़माने में ‘खांटी घरेलू औरत’ वाला उनका बयान ही हल्ला मचवाने को काफी था, ऊपर से विवाहेतर प्रेम-प्रसंगों का खुल्लमखुल्ला स्वीकार और तुर्रा यह कि ये रचनात्मकता की शर्तें हैं। यानी प्रेम से अधिक प्रेम का प्रायोजन। एक प्रेम = एक कहानी। गुस्सा तो आता ही। प्रतिक्रिया के प्रकाशन के बाद मैं पहली बार दफ़्तर गयी। मेरे हाथ में तहमीना दुर्रानी की किताब ‘कुफ्र’ थी जो राजेन्द्र जी से ही मैने उधार ली थी। गर्मी काफ़ी तेज़ थी। राजेन्द्र जी ने काला कुरता पहना हुआ था जो वैसे तो उन पर फब रहा था लेकिन मौसम के हिसाब से देख कर परेशानी सी हो रही थी। मैने शायद इसी अभिप्राय की कोई बात कही। यह मौसम और यह रंग या शायद यह लबादा या लिबास किस लिये जैसा कुछ। कि राजेन्द्र जी ने दोनो भुजाएं लहरा कर बाकायदा घोषणा की ‘पीर साईं' हाजिर है।' पीर साईं ‘कुफ्र’ के उस क्रूर अमानुष नायक का नाम है जिससे हरम के अन्दर किसी किस्म का व्यभिचार और अन्याय छूटा नहीं है। स्वैर यौनाचारों से ले कर अनगिनत हत्याओं तक। और यह कहते हुए ठहाका लगाया कि अब जब तुमने बना ही दिया है तो वर्दी भी क्यों न पहन लूं। यह वही दिन था जब अखिलेश बैठे राजेन्द्र जी को आत्मकथ्य लिखने के लिये घेर रहे थे और राजेन्द्र जी ने बदले में मुझे घिरवा दिया था। उन्हे यह आशंका भी नहीं हुई या हुई भी तो परवाह करने लायक नहीं लगी कि मैं क्या लिखूंगी। फिर बाद में फोन पर राजेन्द्र जी से मैने कहा भी कि यह कहां मुझे फंसवाया। उन्होंने कहा अब तो बचाओगी। मैने कहा बचाऊंगी क्यों मुझे तो यह देखना है कि आपके कवच में सूराख़ कहां है तो फिर वही ठहाका। बोले "काहे का कवच। वही बात है कि अगर रेप इज़ इनेविटेबिल तो लाई बैक ऐण्ड एन्जॉय इट। तो साले पडे. हैं।’ यानी कि यह एक रवैया है जिसके सहारे वे दिक्कतों का सामना करते हैं।

सच है कि प्रायः उन्हे लापरवाह  तनावरहित और मस्त ही पाया जाता है।कभी कभी यह नौबत भी आई कि छपा हुआ ‘हंस’ मुद्रक के यहां से उठा लाने का पैसा भी नहीं रहा और इंतज़ाम करने में देर हुई। पर ये क्षणिक परेशानियां हैं जिनके सुलझ जाते ही वे फिर मस्त होते हैं और अपनी एक खास ताल जो ताली और चुटकी के योग से संपन्न होती है बजा बजा कर गाते पाये जाते है, तामपिटकपिट तामपिटकपिट – यह ताली और चुटकी से बजती हुई संयुक्त ध्वनि है, ‘बाबा मौज करेगा, बाबा मौज करेगा।’ पिछले चौदह पन्द्रह बरसों में शायद दो या तीन बार ऐसा हुआ कि वे कुछ सुस्त और पस्त से परेशान बैठे मिले और इस आशय का एक वाक्य उनसे सुनने को मिला कि इस वक्त हर तरफ़ से घिरा हुआ हूं। इस हर तरफ़ में एक तो जगजाहिर थी, ‘हंस’ की आर्थिक दशा। शेष के बारे में उन्होंने कभी कुछ कहा नहीं। एक बार तो तब हुआ जब वे अपने मित्र गिरीश अस्थाना के यहां रह रहे थे।विख्यात कारण था कुछ लिखने की योजना के तहत अज्ञातवास। वास्तविक कारण का अब इतने बरसों बाद कुछ अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। कण्ठ स्वर लेकिन ऐसा था मानो इस तरह घिरे होने के बावजूद निश्चिन्त बने रहने की अपनी क्षमता पर स्वयं विस्मित हो रहे हों। ऐसा विस्मय उन्हे अपने ऊपर अक्सर होता है। खुद को देख कर लगता है कि मैं भी साला क्या चीज़ हूं। कानपुर जाते हुए राजधानी के दुर्घटनाग्रस्त होने के अपने अनुभव को याद करते हुए और सकुशल लौट आने के बाद जमा हुए चिन्तित मित्रों, प्रशंसकों और शुभेच्छुकों को सुनाते हुए वे इस बात पर भी चकित होते रहे थे कि उन्हें एक मिनट को भी, रत्ती भर भी, डर नहीं लगा जब कि उनके ठीक साथ की सीट वाला सीधे ही सिधार गया था और यही हश्र उनका अपना भी हो सकता था। इसी गर्वमिश्रित विस्मय का एक विषय यह भी है कि उन्हें आज तक ईश्वर की जरूरत कभी पड़ी ही नहीं। बल्कि किसी चीज़ से अगर चिढ़ है तो ईश्वर से और अध्यात्म से।

दूसरी बार लगभग पांच छः वर्ष पहले किसी प्रकाशक मित्र की ओर से उनके जन्मदिन का उत्सव आयोजित किया गया था। मन्नू जी उस उत्सव में शरीक नहीं थीं। पूछा तो पता चला कलकत्ता गयी हुई हैं। उत्सव का अन्त था। मेहमान जा चुके थे। उठने की तैयारी थी। लम्बी चुप्पी के बाद ‘हंस’ के साथियों, परिवारियों से उन्होंने कहा, बिल्कुल अकेला हूं। कम से कम तुम लोग मुझे मत छोड़ना। पहली और अकेली बार उनकी इतनी करूण और कातर आवाज़ मैने सुनी। संदर्भ से सिर्फ मैं ही अपरिचित थी। बाकी सब जानते थे। और राजेन्द्र जी की करतूत से असहमत होने के बावजूद उनकी प्रियता में कोई कमी नहीं आई थी। बल्कि उनकी असहायता के क्षण में सब के सब कुछ अधिक ही उदार और संरक्षणशील हो उठे थे और मैं खुद भी उनमें शामिल थी। बाद में पता चला कि मन्नू जी पैंतीस बरस की एकतरफ़ा प्रतिबद्धता और पारिवारिक दायित्त्वबोध की चक्की में पिसते रह चुकने के बाद राजेन्द्र जी के नवीनतम करतब से आहत हो कर अपनी छत अलग कर लेने के फैसले पर पहुंच चुकी हैं। मन्नू जी के साथ बरसों पहले कभी रूक गये संवाद के दुबारा पूरी तरह से खुल चुकने और मेरा सारा प्यार और सहानुभूति उनके साथ होने के बावजूद राजेन्द्र जी के साथ दोस्ती अपनी जगह पर कायम थी। राजेन्द्र जी के रहस्यों में एक यह भी है। कैसे वे लोगों के भीतर यह भाव जगा पाते हैंआखिर मन्नू जी को भी अपने फैसले पर पहुंचने में पैंतीस साल लगे, एक पूरी ज़िन्दगी। जबकि सिलसिला और हालात पहले दिन से ही यही ओर ऐसे ही थे ।

राजेन्द्र जी का कातर भाव शायद हफ़्ता दस दिन चला होगा। स्थितियों का अभ्यस्त हो जाने में वे इतना ही समय लेते हैं और शायद इस बात को ले कर भी अपने ऊपर स्वयं ही विस्मित होते रहते हैं।इस विस्मय का खासा विस्तृत मौका उन्हें पिछले दिनों अपनी बीमारी और अस्पतालीकरण के दौरान मिला। पिछले डेढ़ दो वर्षों से लगातार उनका वज़न घट रहा था। इतनी तेज़ी से कि उन्हें रोज़ देखने वाले भी देख पा रहे थे कि घट रहा है। चेक अप की सलाह से वे चिढ़ते थे और हर आदमी यही सलाह देता नज़र आता था। यहां तक कि जब सलाह जब बढ़ कर दबाव में बदल गयी और दबाव असहनीय होने लगा तो बजाय चेक अप करवा लेने के, मैत्रेयी पर जाने किन हथकण्डों का इस्तेमाल कर के उसकी गवाही से दफ़्तर में उन्होंने घोषणा कर दी कि चेक अप वे करवा चुके हैं और सब ठीक ठाक है। सब ने मान लिया सिवाय उस रोग के जो भीतर था और एक दिन उनके सारे हथकण्डों के बावजूद फूट ही पड़ा।शुरू में जिसे वाइरल समझा जा रहा था, फिर कंपकंपी छूटने पर मलेरिया, उसके असहनीय हो उठने पर उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। अरविन्द जैन ने राजेन्द्र जी के लाख विरोध के बावजूद शुक्र है कि यह फैसला किया और विरोध भी ऐसा कि अरविन्द बताते हैं कि वे और सुधीश पचौरी उन्हें लगभग बांध कर अस्पताल ले गये। राजेन्द्र जी को मौत से डर नहीं लगता लेकिन चेक अप और अस्पताल से जरूर लगता है। एक बार अस्पताल पहुंच जाने और दर्द के थोड़ा हलका पड़ जाने के बाद वे इस के भी अभ्यस्त हो गये। वहीं कमरे में महफिल भी जमने लगी जो उनके लिये पूरक उपचार सरीखी थी और रात की तीमारदारी के लिये खास इसी उद्देश्य से आने और ठहरने वाले 



































शिव कुमार ‘शिव’ को बोल कर संपादकीय और पत्रों उत्तर भी लिखवाये जाने लगे। अतिरिक्त उपचार की कोशिशों के खिलाफ़ उनका संघर्ष फिर जारी हो गया।उनकी भूख बिल्कुल मर गयी थी और कमज़ोरी बहुत बढ़ गयी थी। मेरी मौजूदगी में एक दिन उन्हें एक सेब खिला पाने की मन्नू जी की कोशिश के सामने सविरोध समर्पण का नमूना यह था “ सेब है कि साला तरबूज़ है। खाते खाते उम्र गुजर गयी। साला खत्म ही नहीं होता। "

एक सच अगर यह है कि प्रायः वे मस्त लापरवाह ओर फक्कड़ से दिखते हैं तो एक सच यह भी है कि इतनी भीड़, इतने ताम झाम से हर वक्त घिरे रहने के बावजूद किसी किसी वक्त वे भीतर से बिल्कुल असंपृक्त और अकेले से लगते हैं। बाहर से भी और भीतर से भी। जैसे ये ठहाके, यह वाक्-चातुरी यह खुशमिजाजी किसी कुशल अदायगी का हिस्सा है। किसी के लिये उनकी आत्मीयता पर संदेह नहीं लेकिन विचित्र सी बात यह है कि इस आत्मीयता का सारा लाभ मित्रों परिचितों और बाहर वालों के ही लिये है। पता नहीं क्यों घर वाले अधिकतर इसके दायरे के बाहर ही रहे हैं। उनके साथ नातों रिश्तों के नाम से जुड़े शायद सभी लोगों के पास अपनी अपनी निराशा का कोई न कोई अनुभव और स्मृति मौजूद हो। लेखकीय दायरे के भीतर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जिनसे एक समय बहुत बेहद गहरी छनी लेकिन उन्हीं से किसी और समय बात-ब्यौहार का रिश्ता भी नहीं रहा। या रहा भी तो बिल्कुल औपचारिक। मैं निश्चयपूर्वक नहीं जानती लेकिन शायद शानी, योगेश गुप्त, प्रभाष जोशी और संभवतः से0 रा0 यात्री आदि कुछ उदाहरण हैं जिन के पास ऐसी दुखद स्मृतियां होंगी। शायद मैं गलत होऊं।मेरी बात का आधार केवल राजेन्द्र जी और इन लोगोंक्रूरता ने मुझे बहुत गहरायी तक खिन्न किया है।अगर अपनी आंखों से न पढ़ा होता तो विश्वास न होता। हरिनारायण का ‘हंस’ से अलग होना भी एक तकलीफ़देह प्रसंग था। अन्तर्कथायें होंगी। राजेन्द्र जी के पास अपने कारण होंगे। उन कारणों का अपना औचित्य भी होगा। लेकिन ये कोई इक्का दुक्का घटनायें नहीं। बार बार दुहराया जाने वाला पैटर्न है।क्या इसके पीछे उनकी अन्दरूनी बनावट का कोई दबाव है? क्या इस बनावट का कोई संबन्ध उनके रचनाकार होने के साथ है कि जैसे ही कोई रिश्ता अधिकार का दावा पेश करने लायक हदों को पहुंचता है वैसे ही उसकी चंगुल से निकल भागना उनके लिये जरूरी हो जाता है। क्या वे एक बार भी नहीं सोचते कि ‘टी एण्ड सिम्पैथी’ का उनका फॉरमूला लोगों में एक भावात्मक निर्भरता भी जगाता है जिसका खंडित होना किसी किस्म की तकलीफ़ का भी पर्याय है। ईश्वर की जरूरत अगर उन्हें नहीं पड़ती तो इसका अर्थ क्या है? ईश्वर की ज़रूरत किसे नहीं पड़ती ? उस ईश्वर की जिसका संबन्ध पूजा पाठ से नहीं, चरम असहायता के क्षण में एक निश्शब्द प्रार्थना से है, अपने आपे के साथ एक निष्कवच रिश्ते से है। शायद उसे ही इस ईश्वर की जरूरत न पड़ती हो जिसके संसार में अपने बल्कि शायद अपने आपे के भी अमूर्तन के सिवा और किसी का न दाखिला है न दखल। ऐसी असहायता का अनुभव उसे होता है जिसके वजूद में रागतन्तु नसों नाड़ियों के जाल की तरह फैले हों। राजेन्द्र जी क्या राग द्वेष के ऊपर हैं? उनकी दुनिया में क्या ऐसा कोई मौजूद ही नहीं जिसके दुखों को ले कर वे ऐसी चरम असहायता का अनुभव कर पायें।? असहायता क्योंकि उसके बदले में खुद सह लेना संभव नहीं और उसे सहते हुए देख पाना और भी असंभव है, इसलिये एक निश्शब्द प्रार्थना के सिवा और कोई चारा नहीं बचता और ईश्वर के सिवा कोई काम नहीं आता। काम तो दरअस्ल ईश्वर भी नहीं आता, फिर भी उसका होना जरूरी होता है। अकेले अपने आपे को लेकर निडर, निश्चिन्त, निरीश्वर, कुछ भी होना आसान है।

इस बनावट के दूसरे भी होंगे पर लेखकों के लिये खास तौर से सच है कि घर उनके लिये रहने की नही, लौट कर आने की जगह है जिसके लिये पहले बाहर जाना जरूरी है। लौटना फिर शायद न भी हो। संभावित कारण अनेक हो सकते हैं। सभी अनुमानित हैं और सामान्य हैं। इनमें राजेन्द्र जी का अपना कारण कौन सा है कोई है भी या नहीं, कहना मुश्किल है। जैसा कि शुरू में ही कहा गया, इस लेख में अनुमान का तत्त्व अधिक है और प्रमाण का कम। पहली बात यह हो सकती है कि स्वाधीनता रचनाकार की सतत मानसिक सक्रियता के लिये एक ऐसी बुनियादी जरूरत है जो दायित्त्व के आभास मात्र से बाधित होती और उसके मन में आक्रोश और अवरोध पैदा करती है। घर वालों की अपेक्षाओं में अधिकार का एक असहनीय भाव होता है जिसका तत्काल प्रतिरोध जरूरी है। कहीं वे भावुक दुर्बलता के एक क्षण में सिन्धबाद के बूढ़े की तरह कन्धों पर सवार न हो बैठें। यह नहीं कि देने की सामर्थ्य ही नहीं पर वह अपनी इच्छा के अतिरेक का फल है, किसी की अपेक्षा का प्रत्युत्तर नहीं। दूसरी बात ठीक इसकी उलटी भी हो सकती है। लेखक जैसे अन्तर्लीन प्राणी के लिये एक छोर पर अपने भीतर के ताने बाने को थामे रखना और दूसरे छोर पर दीन दुनिया की खबर को संभाले रहना दरअस्ल एक लम्बे फासले के दोनो सिरों को एक ही डग में भर रखने का निरन्तर पराक्रम है। सन्तुलन मुश्किल है इसलिये वह अपने बोझ की निर्मम छंटाई करता है और छंटनी में एक मात्र कसौटी उसका स्वार्थ है यानी अपन, अपने होने का वह अर्थ जिसके कारण उसे अपनी सारी करतूतों का स्याह सफे़द स्वतःसिद्ध रूप से न्यायोचित लगता है। घर वालों के स्नेह और संभाल को अपना सम्बन्धसिद्ध अधिकार मानने की आदत उसे शायद इतना निश्चिन्त कर देती है कि वह भूले से भी उस दिशा में दायित्त्व के बारे में सोचता भी नहीं। अपने आपे की लागत वह लगाता ही सिर्फ उन्हीं मामलों में है जहां अभीष्ट को प्राप्य बनाने के लिये अर्जित करने की मज़बूरी अनिवार्य होती है। यानी घर में दूसरे पर अधिकार तो वह सहज रूप से लेता है पर अपने ऊपर देता रत्ती भर भी नहीं। एकाध टुच्चा सा कारण और सोचा जा सकता है। टुच्चा इसलिये कि उसमें सृजनात्मक स्वभाव की गठन के पर्याय की तरह निमर्मता और स्वार्थ के महिमामण्डन की गुंजाइश तो नहीं लेकिन फिर भी कारण तो है क्योंकि किसी किस्म की समझ उसमें मौजूद है। परिवार की पहली सन्तान वह भी पुत्र, संयोग से राजेन्द्र जी दोनो ही हैं, को इतना ध्यान और लाड़ दुलार मिलता है कि अपने चारो ओर महफिल की मौजूदगी उसकी एक स्थायी जरूरत बन जाती है। केन्द्र में रहने के लिये परिधि भी तो चाहिये। हर बात पर दाद चाहिये। हर अदा पर तारीफ़ चाहिये। यही जो न चाहिये होता तो कौन भकुआ लेखक बनने चलता। घर में कौन इस तरह सब काम धाम छोड़ कर हर वक्त दाद देता फिरेगा और घर से चाहिये भी किसे। घर तो वह जंगल है जहां मोर का नाचना बेकार है। महफिल से चाहिये और इस कदर चाहिये कि दाद देने वाले अगर मौजूद न हुए और कण्ठ से आधा निकल चुका वाक्य भी लगा कि सुन्दर है, सुनाने लायक, तो भाई उसे बिना पूरा किये वापस गले में ठूंस लेगा।

मस्ती, फक्कड़पन और लापरवाही का ही एक पक्ष पैसे के लिये निर्मोह भी है । या कम से कम वे ऐसा सोचना पसन्द करते हैं। सुना या शायद कहीं पढ़ा है कि स्वतंत्र लेखन के संकल्प के साथ जीवन की शुरूआत करते हुए उन्होंने प्लेटफॉर्म पर सो लेने, फ़ुटपाथ पर खा नहा लेने और कंघी शीशा बेच कर रोटी कमा लेने परन्तु लेखन के स्तर पर पूरी तरह से स्वतंत्र ही बने रहने सपना देखा था। तब और अब के बीच तय किया गया एक लम्बा फासला है। आर्थिकता के प्रति लापरवाही राजेन्द्र जी की आत्मछवि का सबसे जरूरी हिस्सा है। हर आत्मछवि को दूसरों का सत्यापन भी चाहिये। वरना वह विश्वसनीय नहीं होती। राजेन्द्र जी अपनी बाकी हर आलोचना को सहज भाव से लेते हैं, बल्कि मत सम्मत में छपने के लिये आलोचना को ही प्रोत्साहित भी करते हैं, लेकिन इस पक्ष को लेकर आत्मछवि के विरूद्ध जानेवाली हर बात से विचलित हो उठते हैं। विचलित करने वाली बातों का घिराव उनके आस पास बढ़ता भी गया है। लोग बाग उन्हें यह जताने को तुले हैं कि वे अपने संकल्प और आदर्श से डिग चुके हैं। कि वे पैसे से प्रभावित और पैसेवालों के तामझाम से चकाचौंध होते हैं। कि पद और प्रतिष्ठा पर वे रीझने लगे हैं। प्रमाण के तौर पर कहा जाता है कि उनके रहन सहन और रख रखाव में एक शौकीनी और आभिजात्य दिखाई देता है। डिज़ाइनर कुर्ते, कमीज़ और कोट उनके पहनावे का स्थायी अंग बन चुके हैं। घर कहीं से भी किसी छुट्टे छड़ंग का नहीं दिखाई देता। खूबसूरत फर्नीचर और महंगी, नफ़ीस, नाजुक क्रॉकरी। कहा जाता है कि दोस्तों के उपहार हैं। यानी कि एक और प्रमाण।यानी कि दोस्तों की सूची में लोग भी ऐसे ही शामिल हैं जो ऐसे उपहार दे सकते हैं। बिहार सरकार का लखटकिया पुरस्कार और प्रसारभारती का सरकारी अनुग्रह भी प्रमाणों की सूची में गिनाये जा सकते हैं।राजेन्द्र जी के पास हर बात का जवाब मौजूद है लेकिन आरोप की मंशा के आगे ये जवाब अपनी सफ़ाई से ज्यादा कुछ नहीं। व्यक्ति के रूप में राजेन्द्र जी दुर्बलता पैसे के लिये कितनी और क्या है मेरे लिये कहना मुश्किल है। दिखता तो है कि वे शौकीनमिजाज़ हैं लेकिन उतने ही जितने अपने साधनों से हो सकते हैं। आखिर हिन्दी में उच्चतम रॉयल्टी पाने वाले लेखकों की सूची में उनका स्थान दूसरा है।जहां तक पुरस्कार की बात है यह मेरी व्यक्तिगत जानकारी है कि वह पूरी तरह से ‘हंस’ के आर्थिक संकट से जुड़ा हुआ फैसला था। संयोग की बात है कि इसके पहले उत्तरप्रदेश सरकार का इक्कीस या शायद पच्चीस हज़ार का पुरस्कार वे लौटा चुके थे। ‘हंस’ के लिये वह भी ले लेना चाहिये था यह सही है, लेकिन किसी खास वक्त पर कोई फैसला आदमी क्यों कर पाता है और कभी क्यों करने से रह जाता है इसके पीछे बहुत सी स्थितियां और कारण हुआ करते हैं। मसलन यही कि तब सूझा ही नहीं कि पुरस्कार ले लेना भी एक तरीका हो सकता है इस सतत समस्या को अंशतः सुलझाने का। जब तक किसी जगह से गुजरते नहीं तब तक वहां का दृश्य दिखाई भी नहीं देता। दोनो पुरस्कारों के बीच के अरसे में एकाध बार इस समस्या का सामना किया जा चुका था कि छप चुके ‘हंस’ को मुद्रक के यहां से उठाने भर के पैसे भी नहीं थे । पहले पुरस्कार के पहले यह हो चुका होता तो ले लेने का फैसला भी शायद तभी हो जाता। प्रसारभारती की सदस्यता के बारे में भी शायद सच यही हो कि ‘यहां से देखो’ से गुजर कर राजेन्द्र जी ने तय किया हो पर वहां से क्योंकि मैने देखा नहीं तो बात यहीं छोड़ती हूं। सोचने की बात लेकिन यह है कि इस सब के लिये क्या उन्होंने कोई समझौते किये हैं? मान लिया जाय कि खूबसूरत चीज़ें खूबसूरत होती हैं और पसन्द करने के लिये होती हैं। संवादकुशल सभाचतुर सलीकेदार पढ़े लिखे लोगों की संगति अधिक आकर्षक होती है और अपने दायरे में ऐसे लोगों का होना, खुद उनका प्रिय और प्रशंसित होना अच्छा लगता है। सोचने की बात यह भी है कि क्या इस कारण उनके दायरे से फक्कड़ फाकेमस्त और फटीचरशाह रचनाकार बिरादरी को निष्कासित होना पड़ा है? जाहिर है कि नहीं। दायरा फैला और बढ़ा है और उसका रेन्ज भी। फाकेमस्ती और फटीचरशाही अपने आप में कोई रचनात्मक मूल्य तो नहीं ।

दम्पत्ति के रूप में दो रचनाकारों का साथ एक असह + योग सा प्रतीत होता है – असहयोग। दोनो के लिये काम्य शायद परस्परता और स्वाधीनता का कोई दोतरफा समीकरण हो। पर सिद्धान्त के स्तर पर कह देना आसान है, व्यक्तिगत धरातल पर सचमुच ऐसा समीकरण खोज पाना दो अलग अलग लोगों की अलग अलग भावात्मक जरूरतों और अनुकूलन क्षमताओं के एक ही बिन्दु पर समायोजित हो जाने का लगभग असंभव पर्याय है। मन्नू भण्डारी और राजेन्द्र यादव समकालीन साहित्यिक परिदृश्य पर अगर अकेले नहीं तो कुछ बेहद गिने चुनों में से एक ऐसे रचनाकार दम्पत्ति हैं जिनमें दोनो की ही रचनात्मकता एक दूसरे के सृजनसार को निगले बिना अपने अपने कृतित्व के महत्त्वपूर्ण मुकामों तक पहुंची है। संबन्ध अगर वहां तक नहीं भी पहुंचा तो भी किसी किस्म की परस्परता या समझदारी वहां बिल्कुल ही नही रही होगी ऐसा ऐसा सोचना मुश्किल है। राजेन्द्र जी के पूर्वोक्त साक्षात्कार में इस विषय के कुछ संकेत मौजूद हैं और मन्नू जी की प्रतिक्रिया में उनका सत्यापन भी। दो के बीच की बात को अब दोनो स्वयं सार्वजनिक बना चुके हैं अतःयहां चर्चा की जा सकती है। सृजन के संदर्भ में सहज (पढ़िये विवाहेतर) संबन्धों (पढ़िये सेक्स ) की अनिवार्यता का सैद्धान्तिक दावा और व्यावहारिक कारवाई सारे फसाद की जड़ मालूम होती है। स्त्री-विमर्श को भी यह एक सनसनीखेज मुद्दा मिला और राजेन्द्र जी के रूप में पुरूष की खलनायकता का अगला उदाहरण भी लेकिन इस उदाहरण के हवाले से मैं स्त्री की ओर से बराबरी का दावा इन शब्दों में पेश भी नहीं करना चाहती कि राजेन्द्र जी या कोई और पुरूष रचनाकार अपनी पत्नी, बेटी या बहन को सेक्स के कन्धों पर सवार हो कर सफल या सार्थक रचनाकार होने की इजाज़त देगा या नही (संदर्भ ‘राष्ट्रीय सहारा में मनीषा का वक्तव्य)। सफलता या सार्थकता की तलाश करने वाले इजाज़त नहीं मांगा करते। पुरूष भी यह, राजेन्द्र जी के शब्दों में, ‘हरमज़दगी’ स्त्री की इजाज़त से नहीं करता। पुरूष के लिये प्रेम सेक्स और परिवार का अर्थ वही नहीं है जो स्त्री के लिये होता है। ‘अगर मैं भी ऐसा ही करती तो’ कह कर दर अस्ल वह पुरूष को उसकी ज्यादती का अहसास कराना चाहती है, उन उच्छृंखलताओं की इजाज़त या अधिकार नहीं मांगती। प्रायः वे उसकी जरूरतों में शामिल भी नहीं है। अभी तक किसी बड़े पैमाने पर तो नहीं। अगर हों भी तो इजाज़त उसे अपने आप से लेनी होगी और पुरूष के निषेध के बावजूद लेनी होगी। स्त्री के दायित्त्वबोध और भावात्मक दुर्बलता से पुरूष के लिये एक सुविधाजनक स्थिति का जन्म होता है। स्वार्थसंधान में इसका लाभ वह लेता है, लेगा ही। संबन्धों का अर्थशास्त्र और भावनाओं की राजनीति उसे इसी दिशा में ले जायेगी। समय ही अर्थशास्त्र और राजनीति का है। उसे अभी उसी स्त्री के प्यार की आदत पड़ी है जिसका समर्पण आर्थिक निर्भरता की विवशता से नियंत्रित था और जो उसके विवाहेतर संबन्धों के झगड़े झंझटों से बड़ी समझदारी से सुलटती थी। आर्थिक आत्मनिर्भरता ने स्त्री को संबन्ध में प्रतिबद्धता और एकनिष्ठता को अपना हक समझना सिखा दिया है। सिर्फ यही नहीं कि पुरूष को अभी इसकी आदत नहीं है बल्कि यह भी कि प्यार हक का मामला ही नहीं है। सामान्य सामाजिक पारिवारिक संदर्भों में भी यह एक विकट स्थिति है। रचनाकार की स्थिति तो फिर है ही विशेष।

बात दर अस्ल इतनी सीधी सपाट और स्थूल ढंग से आसान नहीं है। घरबारी व्यवहार और परिवारी मूल्यों के तराज़ू पर तोल कर यह मुकद्मा पता नहीं कब से, सदियों से, रचयिता जात के जन्तु के खिलाफ़ अनिर्णीत ही दायर चला आ रहा है। इस संदर्भ की हर बात शत प्रतिशत राजेन्द्र जी पर लागू की जा सकती है। उसके फेर में पड़ने वाले उसे गैरजिम्मेदार, भरोसे के अयोग्य, उचक्का और लफंगा किस्म का जीव पायेंगे। वे भुक्तभोगी हैं। लेकिन उसे प्यार करने वालों की गिनती में कभी कमी नहीं पायी जायेगी। निस्संदेह रचनाकार किसी घरबारी भलेमानुस की तरह लीक पर चलने वाला बैल तो नहीं ही हो सकता। विस्मय उसका मूल मनोभाव है, अनुभव-संचय उसकी व्यावसायिक योग्यता है और साहसिकता और अभियान उसकी जीवन पद्धति है। सेक्स और प्रेम के प्रति उसका रवैया भी इसी जीवन पद्धति का एक आयाम है । दुर्भाग्यवश राजेन्द्र जी समेत हिन्दी के अधिकतर रचनाकारों के लिये विस्मय, साहस और अभियान सभी एक ही दूकान में मिलते हैं । और वह है स्त्री की देह।विवाहेतर संबन्ध। वह भी दायित्त्वहीन। संदिग्ध लगता है कि ‘ दर्जन के हिसाब से सस्ते’ का नुस्खा आजमाते हुए ये प्रेमी जीव जितने जितने प्रेम प्रसंगों का दावा करते हैं उतने सचमुच कभी घटित भी हुए होंगे। ये किस्से भी शायद उनकी उसी सृजनात्मक कल्पना की ही रचनाएं हों जिसके बारे में बताया जाता है कि विवाहेतर संबन्धों से पैदा होती है।

अपने अस्तित्त्व के भोक्ता अंश के माध्यम से ऐसे संबन्धों के यंत्रणामय पक्ष को जाने बिना सृजन के इस नुस्खे का सृजन में कारगर होना भी संदिग्ध ही है।

पर यह शायद मेरी ज्यादती है। व्यक्ति राजेन्द्र को सचमुच जाने बिना यह फतवा दे देना कि यंत्रणा को उन्होंने नहीं जाना। बल्कि शायद बचपन की या शायद कैशोर्य की ऐसी ही किन्हीं यंत्रणाओं में उनके व्यक्तित्व की इस बनावट की जड़ हो जिनसे मैं अपरिचित हूं, जिसे अब वे आच्छादन की तरह या किसी रूमानी किस्म के मोहवश या फिर सचमुच अनजाने में सृजनात्मक जरूरत का नाम दे रहे हैं।एक बार याद नहीं किस के दुर्घटनाग्रस्त होने पर दफ़्तर में दुर्घटनाओं की चर्चा चल पड़ी और जैसा कि ऐसे मौकों पर होता है, सभी अपना अपना अनुभव सुनाने लगे। राजेन्द्र जी ने कहा किसी भी किस्म की दुर्घटना का नाम लो, वह मेरे साथ हो चुकी है। मैं अपनी समझ से बड़ी दूर जा कर कौड़ी लाई जो कहा कि आप को किसी ने गोली तो नहीं मारी होगी। पता चला, मारी थी। यानी ठीक ठीक मारी तो नहीं थी पर गलती से चल कर लग गयी। पैर, आंख सब किसी न किसी दुर्घटना का ही नतीजा हैं। खेल दुर्घटना से ले कर रेल दुर्घटना तक की कहानियों में पता नहीं ऐसी कितनी कहानियां हों जो उन्होंने सुनाई ही न हों पर जो उनकी इस असंपृक्त सी बनावट में अपनी भूमिका निभा गयी हों।

प्रसंग राजेन्द्र जी की षष्ठीपूर्ति के उत्सव का है जो आगरा ने अपने लौट कर आने वाले लायक सपूत के स्वागत में मनाया था। आयोजन हरिनारायण और जितेन्द्र रघुवंशी का था। दो दिन की रिहाइश में राजेन्द्र ने अपने घर जाने का कार्यक्रम रखा ही नहीं था। घरेलू संबन्धों में ठन्डक या उदासीनता या कटुता के जो भी कारण रहे हों पर जाना अन्ततः हुआ जब भूपेन्द्र, उनके भाई, सुबह की जलेबी कचौड़ी का निमन्त्रण ले कर आये। यह राजेन्द्र जी का बचपन का घर था। अन्दर का आंगन और कमरे वगैरह तो खूब बड़े बडे थे, विशालकाय महलनुमा, लेकिन बैठक जहां हम बैठे छोटी ही थी। यह उस ज़माने की इमारत थी जब बैठक की जगह मध्यवर्गीय परिवारों में केन्द्रीय महत्त्व की न रही होगी और वह आये गये के स्वागत के लिये निश्चित, बाकी समय बन्द रहने वाले मरदानखाने का दर्जा रखती होगी। रिहाइश का व्यापार भीतर के आंगन कमरों में फैल कर चलता होगा। यह चर्चा इसलिये कि वहां बैठे बैठे अचानक राजेन्द्र जी ने बताया कि यही वह कमरा है जहां मै साल डेढ़ साल लगातार लेटा रहा। शायद वह समय जब खेल-दुर्घटना में पैर की हड्डी टूट गयी थी। वह सारा समय कुछ एक निकट मित्रों और घरवालों के अलावा साहित्य की संगत में गुजरा। बाहर की दुनिया बस दरवाजे भर खुली जगह के फ्रेम में बन्द दूर से नज़र आती रही होगी। सड़क से गुजरने वालों में क्या वह लड़की भी हुआ करती थी जिसके बारे में उन्होंने लिखा है ‘एक संबन्ध जिसे ले कर मन्नू खांटी घरेलू स्त्री की तरह उग्र हो उठी।’ सत्रह अठारह बरस का खूबसूरत नौजवान जिसकी आंखों पर काला चश्मा बचपन के खेल की रामलीला और तीर कमान के सिलसिले में पहले ही चढ़ चुका था, आखिर उठ कर खड़ा हुआ होगा, बैसाखियों पर। जिस कमरे में बन्द पूरा बरस डेढ़ बरस बीता था, उसके बाहर निकलने का हौसला कैसे जुटाया होगा? आसान तो नहीं रहा होगा लोगों की नज़रों में दया का सामना, उस जैसे स्वाभिमानी के लिये कैसे बन पड़ा होगा? उस उम्र में स्त्री के लिये अपनी आकर्षकता के प्रति विशेष सजगता की किशोरसुलभ मनोवृत्ति से वह कैसे निपटा होगा? तब जब वह लेखक संपादक समीक्षक वगैरह कुछ भी नहीं था सिर्फ बैसाखियों के सहारे खड़ा काले चश्मे वाला एक साधारण लड़का था उसे जिन लोगों से स्वीकृति साथ और सहारा मिला रहा होगा उनके प्रति कृतज्ञता के भाव का मुकाबिला क्या बाद के जीवन में मिलने वाले किसी भी व्यक्ति के प्रति किसी भी भाव के साथ कभी हो पाया होगा? उन लोगों में क्या वह लड़की भी रही होगी? क्या ऐसा हुआ कि आहत मन की जटिल जरूरतों की अनुकूलता या फिर कैरियर के रूप में लेखन को चुन लेने के बाद एक रचनाकार के साथ की योग्यता और पर्याप्तता की कसौटी पर वही लड़की खरी नहीं उतरी? क्या मन्नू जी के पक्ष में भावनात्मक और व्यावहारिक रूप से उपयुक्त फैसला कर लेने के बावजूद वे इधर या उधर का साफ़ दो टूक फैसला नहीं कर पाये, न पूरा ले पाने न पूरा छोड़ पाने की दुविधा के साथ जुड़े ध्वंस ने उन्हें क्या अछूता छोड़ दिया? दो टूक फैसले क्या हमेशा संभव होते हैं या सिर्फ अपनी इच्छा और भावना के अतिरिक्त कुछ सोचना और किसी अन्य के दिल दिमाग का बोझ उठाना उन्हें अपनी सामर्थ्य से ज्यादा भारी प्रतीत हुआ? या सही वक्त पर एक कटु बात न कह पाने की करूणामय दुर्बलता अन्ततः क्रूर साबित हुई? फैसले की जिम्मेदारी दूसरे पर छोड़ कर क्या उन्होंने अपने सिर की बला टाली? और अलग होने का फैसला किया भी अन्ततःमन्नू जी ने ही। राजेन्द्र जी ने तो ऐसे किसी फैसले की जरूरत तक से इंकार किया। दूसरे के पक्ष से देख पाने की ऐसी असमर्थता क्या लेखक के संदर्भ में विश्वसनीय है? या ऐसा हुआ कि उसी असुरक्षित हद तक जीवन्त उम्र में अपने घावों को ढक लेने का ऐसा कौशल उन्होंने अर्जित किया कि उन्हें छू पाना ही असंभव हो गया। अब वे अतीत का बोझ लादे नहीं घूम सकते। समस्याओं का हल न हो तो उन्हें जीवन का पर्याय मान कर झींकना छोड़ देते हैं। वे अभी इसी क्षण और सामने मौजूद समस्या में निवास करते हैं।

शंख की जो जातियां अशान्त समुद्रों की धाराओं में रहती हैं वे क्रुद्ध लहरों के जितने सख्त थपेड़ों को झेलती हैं, उनका अपना खोल उतना ही सख्त होता जाता है। हो सकता है कि देह से ले कर मन तक की पता नहीं कितनी सीमाओं के साथ लड़ते जूझते, हर एक का अतिक्रमण करते उन्होंने इस कवच का अर्जन किया हो जो आज अभेद्य अछेद्य सा जान पड़ता है और इस बात की तरफ़ नज़र भी नहीं जाती कि इस कवच की जरूरत उन्हें पड़ी ही क्यों। बल्कि मन करता है कि कुरेद कर देखा जाय कि सूराख कहां है। अपने सोचे समझे को ले कर ऐसी ज़िद कि जैसे अस्तित्व ही ख़तरे में हो। छोटा सा तर्क भी उनके लिये जान जोखों का सवाल बन जाता है। हो सकता है कि नकारात्मक और विध्वंसात्मक लहरों से लड़ते हुए वे इतने सख्त हुए हों। अन्यथा क्या दुख को सहे बिना कोई दुख से इतना अछूता रह सकता है जितना उन्होंने इस साक्षात्कार में अपने को बताया है? दुख से ऊपर होना एक अर्जित शक्ति है या बुनियादी स्वभावगत असमर्थता ? हो सकता है कि उनके लिये प्रेम का अर्थ किसी पर स्वयं को इतना निर्भर छोड़ पाना हो कि इस बात का अहसास भी न होने पाये कि उन्होंने लिया। और याचक बने। हो सकता है कि प्रेम की अपनी ऐसी असंभव अपूरणीय आकांक्षा के कारण या दूसरे को निर्भरता का आश्वासन दे पाने की असमर्थता के कारण उन्होंने यही तय कर लिया कि प्रेम की उन्हें जरूरत नहीं है। और प्रत्याशाविहीन "सहज" संबन्धों के संधान में लगे। हो सकता है कि उन्होंने रचनाकार के जीवन की पढ़ी पढ़ाई धारणा को अपना रोल मॉडल बनाया हो और हर आचरण के पहले वही नियमावली खोल कर देखते हों। सच ही उनके व्यक्तित्व को रचनाकार व्यक्तित्व के बारे में उपलब्ध सिद्धान्तों का व्यावहारिक उदाहरण बनाया जा सकता है। हो सकता है कि किसी समय की असहायता और असुरक्षा ने उन्हें बिल्कुल निडर कर दिया हो। हो सकता है कि यह निडरता वर्जनाओं के प्रति रचनाकारसुलभ अवहेलना और अवमानना से निकली हो। हो सकता है कि डर भीतर कहीं हो पर अपनी दीनताओ, दुर्बलताओं को दिखाना या उन पर रोना उन्हें असहनीय हो। और यही पीड़ाएं उनका रहस्य हों।

हो तो यह भी सकता है कि भाषा के साथ अपने खास रिश्ते का इस्तेमाल करते हुए जब पूर्वोक्त साक्षात्कार में उन्होंने उस दुष्ट वाक्यांश ‘खांटी घरेलू औरत’ का प्रयोग किया हो तो उनका मतलब ‘खांटी घरेलू औरत’ की शान में गुस्ताख़ी करना रहा ही न हो। उनके दावे और इनकी दायित्त्वहीनता की टकराहट के किसी क्षण में मन्नू जी के दुख ने जो उग्र आक्रोश का रूप धारण किया हो, क्षण विशेष में उसकी कोई छवि कोई मुद्रा उकेरना ही उनका अभीष्ट रहा हो। पर अभीष्ट चाहे जो रहा हो  किया तो उन्होंने यह है कि एक दम्पत्ति के बीच के निहायत निजी प्रसंग को बहुत फूहड़ और क्रूर ढंग से सार्वजनिक कर दिया है। भावनाओं पर चोट तो यह है ही, उससे कहीं ज्यादा गरिमा के क्षय का मामला है। क्षमा कीजिये, जो हुआ वह अक्षम्य है। मैं राजेन्द्र जी की तरफ़ से सोच सकती हूं , उनके माध्यम से यह पहचान सकती हूं कि रचनाकार की मानसिकता कैसे सक्रिय होती है, यह भी मान सकती हूं कि अपनी भीतरी बनावट के सामने आदमी बेबस होता है और एक रचनाकार को तोलने का तरीका दूसरे पलड़े पर घरबारी, परिवारी कायदे कानूनों के बटखरे चढ़ाना नहीं है। लेकिन साथ जुड़े लोगों और जिन्दगियों के ध्वंस को अनदेखा नहीं कर सकती। उनके बारे में मैं कोई फैसला नहीं सुनाती पर सहानुभूति मेरी शत प्रतिशत मन्नू जी के साथ है।

हुआ यह भी है कि इस बार उनकी वाक्चातुरी उन्हें दगा दे गयी है। शायद वे चकित भाव से अब तक यही सोच रहे हों कि मेरे कहने का यह मतलब भी निकलता था क्या । कहने सुनने और समझने के बीच फासले हुआ करते हैं यह कोई नयी बात तो नहीं। पर अब तो सामने हैं चौतरफ़ा प्रहार। उनके कवच के भीतर उनका क्या हाल है इसका अन्दाज़ लगाना आसान नहीं। क्योंकि सूराख़ अगर कहीं हैं तो बड़ी होशियारी से छिपाये गये हैं और भीतर का कुछ दिखता ही नहीं है। तस्वीर तो अब भी उनकी वही याद आ रही है जिस पर शीर्षक था ऐयारों के ऐयार लेकिन जो सोचा था कि तिलिस्म और तहखाना भी यही है तो सच यह है कि इतनी देर की कोशिश के बाद भी इस तिलिस्म के तहखानों के दरवाजे भी नहीं दिखे, ताले चाभियां तो बाद की बात हैं। अनुमानप्रमाण पर आधारित निष्कर्षों का सच हो तो यह भी सकता है कि न तिलिस्म हो, न तहखाना, न कोई रहस्य बस अनुमान ही अनुमान हो।यह भी हो सकता है कि सिर्फ हंस ही हो, बाकी न तोता हो न तोते की जान। उस दशा में इस कारवाई की अकेली जिम्मेदार मैं हूं।जवाबदेह राजेन्द्र जी को न समझा जाय।

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