उजड़ते घर का भी कोई सपना होता है क्या - दयानंद पांडेय | Poems of Dayanand Pandey (hindi kavita sangrah)


दयानंद पांडेय की कवितायेँ

अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। 


हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। वर्ष 1978 से पत्रकारिता। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई 30 पुस्तकें प्रकाशित हैं।

लोक कवि अब गाते नहीं पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान, कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान तथा फ़ेसबुक में फंसे चेहरे पर सर्जना सम्मान।

लोक कवि अब गाते नहीं का भोजपुरी अनुवाद डा. ओम प्रकाश सिंह द्वारा अंजोरिया पर प्रकाशित। बड़की दी का यक्ष प्रश्न का अंगरेजी में, बर्फ़ में फंसी मछली का पंजाबी में और मन्ना जल्दी आना का उर्दू में अनुवाद प्रकाशित।

बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हज़ार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास),व्यवस्था पर चोट करती सात कहानियां , ग्यारह पारिवारिक कहानियां, सात प्रेम कहानियां, बर्फ़ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), यह घूमने वाली औरतें जानती हैं [ कविता-संग्रह] , हम पत्ता, तुम ओस , यादों का मधुबन (संस्मरण), कुछ मुलाकातें, कुछ बातें [सिनेमा, साहित्य, संगीत और कला क्षेत्र के लोगों के इंटरव्यू] , मीडिया तो अब काले धन की गोद में [लेखों का संग्रह], मुलायम के मायने , एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी [ राजनीतिक लेखों का संग्रह], सिनेमा-सिनेमा [फ़िल्मी लेख और इंटरव्यू], सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से तथा पॉलिन कोलर की 'आई वाज़ हिटलर्स मेड' के हिंदी अनुवाद 'मैं हिटलर की दासी थी' का संपादन प्रकाशित।

ब्लाग: सरोकारनामा
संपर्क :
5/7, डालीबाग आफ़िसर्स कालोनी,
लखनऊ- 226001
दूरभाष: 0522-2207728
मो०: 09335233424
मो०: 09415130127
ईमेल: dayanand.pandey.novelist@gmail.com

तुम कभी सर्दी की धूप में मिलो मेरी मरजानी

हम , तुम और तुम्हारी सीमाएं
यह तुम्हारी सीमाओं की सरहद
बहुत बड़ी है
कहां - कहां  से तोड़ें
और कि तोड़ें भी कैसे

सीमा संबंधों की होती है
प्रेम की नहीं

तुम कभी सर्दी की धूप में मिलो मेरी मरजानी
जब तुम और धूप एक साथ मिलोगी
तो मंज़र कैसा होगा
कभी सोचा है तुम ने

poems dayanand pandey दयानंद पांडेय की कवितायेँ तुम्हारे गर्म और नर्म हाथ
इस गुलाबी धूप में
जब बर्फ़ की तरह गलने के बजाय
कुछ पिघलेंगे
तब क्या
तुम्हारी सीमाओं की सरहद भी
नहीं पिघलेगी

मुझे अब लगता है कि
तुम्हारी सीमाओं की अनंत सरहद को
तोड़ने के बजाय
पिघलाना ही प्रेम को पुलकित करना है




मैं जेहादी , मैं मासूम 

मैं जेहादी , मैं मासूम
लेकिन लोग मुझे आतंकवादी कहते हैं
poems dayanand pandey दयानंद पांडेय की कवितायेँ कोई तालिबानी , कोई अलक़ायदा ,
कोई आई एस आई एस,
कोई इंडियन मुजाहिदीन, कोई सिमी
कोई  कुछ , कोई कुछ
बहुत सारे संबोधन हैं मेरे लिए
कुछ मैं ने खुद तय किए हैं
कुछ नासमझ लोगों ने

लोग नासमझ हैं , मैं मासूम

लेकिन मुझे दूसरे मासूम , दूसरे मज़हब
बिलकुल पसंद नहीं

तुम सब को याद होगा
अफगानिस्तान का बामियान
जहां मैं ने बुद्ध की विशाल प्रतिमा तोड़ी थी लगातार
कई दिनों तक अनवरत

पूरी दुनिया दांत चियारती रही
मनुहार करती रही
महाशक्तियां गुहार लगाती रहीं
कि मत तोड़ो, मत तोड़ो
लेकिन यह सब मेरे ठेंगे पर रहा
ढहा दी बुद्ध  की रिकार्ड ऊंचाई वाली मूर्ति
कोई मेरा बाल-बांका नहीं बिगाड़ सका

बुद्ध
और बुद्ध की प्रतिमा !
अरे मनुष्यता और उस की सभ्यता
मेरे ठेंगे पर , मेरे जूते की नोक पर
यह बुद्ध क्या चीज़ है

बुद्ध सिखाएगा अहिंसा
और मैं उस की प्रतिमा को रहने दूंगा
यह कैसे सोच लिया काफ़िरों

मैं हिंसा की जमात का हूं
हिंसा परमोधर्म !
हिंसा ही मेरा धर्म है
मेरा ओढ़ना , मेरा बिछौना

आप को यह नापसंद है
तो रहा करे
हमें क्या
मैं जेहादी , मैं मासूम

मेरे लिए क्या बुद्ध , क्या बच्चे
क्या दोषी , क्या निर्दोष
क्या मासूम , क्या ख़ामोश

क्या कहा स्त्रियां
स्त्रियां तो हमारी खेती हैं
हैवानियत हमारी बपौती है

यह अमरीका , यह भारत
यह ये  , यह वे
सब के सब लाचार हैं
हमारी मज़हबी एकता इन्हें नपुंसक बना देती है
कायर और बेबस बना देती है

मैं आग मूतूं  या मिसाइल
अमरीका में 9/11करुं  या मुंबई में 26/11
या फिर पेशावर का  16 /12 करुं
अमरीका का टावर गिराऊं या
मुंबई के स्टेशन और होटल में लोगों को मारुं
पेशावर के सैनिक स्कूल में मासूम बच्चों को मारुं
मैं अपनी बेशर्मी के बुरक़े में हमेशा महफ़ूज़ रहता हूं
इस लिए भी कि
मैं जेहादी , मैं मासूम

मुझे जस्टीफाई करने के लिए
हमारी कौम तो हमारे साथ है ही
सेक्यूलरवाद के मारे लोग भी हमारे साथ होते हैं
इन की दुकान , इन की लफ्फाज़ी
हमारे ही रहमोकरम पर है
यह कभी भूल  कर भी हमारी मज़म्मत नहीं करते
करेंगे तो कम्यूनल नाम का एक भूत ,
एक प्रेत इन को पकड़ लेता है, डस लेता है
यह डर जाते हैं

मैं कभी कश्मीर दहला देता हूं
मैं कभी न्यूयार्क दहला देता हूं
मैं लंदन  , सिडनी , मुंबई  , दिल्ली समेत
इरान , ईराक , इस्राईल और पाकिस्तान भी
दहला देता हूं
 गरज यह कि सारी दुनिया हिला देता हूं
कोई क्या कर लेता है हमारा

मनुष्यता , सभ्यता , उदारता
इन और ऐसे शब्दों से मुझे
बेहद चिढ़ है , सर्वदा रहेगी

मैं ही बिन लादेन हूं, अल जवाहिरी
और बगदादी भी
कसाब , दाऊद , मोहिसिन भी
अफजल , यासीन मालिक , लोन , हाफ़िज़ सईद भी
बहुत सारे चेहरे हैं हमारे , देश और प्रदेश भी
पर काम और लक्ष्य बस एक ही है
जेहाद और इस्लामिक वर्चस्व का डंका बजाना और बजवाना

मुझ को छोड़ कर बाक़ी दुनिया काफ़िर है
इन काफ़िरों से दुनिया को बचना है , मुक्त करवाना है
कुछ काफिर हमारी जमात में भी हैं
यह कुछ पढ़े-लिखे लोग हैं
कायर और नपुंसक हैं लेकिन यह सब के सब
हमारा विरोध करने की हैसियत नहीं है इन की
इन के पास आवाज़ नहीं है, निःशब्द हैं यह सब के सब
विलायत में वायसलेस कहते हैं लोग इन्हें
इस्लाम का चेहरा इन सब को डरा देता है
दुनिया की सब से बड़ी आबादी हैं हम आख़िर
हमें दुनिया में जेहाद का बिगुल बजाना है
इस्लाम का झंडा सब से ऊपर रखना है
ज़रूरी है यह सब मेरे लिए

आज पेशावर में कुछ काफ़िर बच्चे मैं ने मारे हैं
तो दुनिया के कैमरे में हम आ गए हैं
यह तो बहुत अच्छा है
दुनिया हम से डरे यह संदेश तो जाना बहुत ज़रूरी था
पाकिस्तान हमारा बड़ा साथी है
पर मलाला को ले कर खुश बहुत था
नोबेल क्या मिला मलाला को
मलाला की खातिरदारी में
हम को भूल गया
कि हम और हमारा मकसद क्या है
यह याद दिलाना बहुत ज़रूरी था

पेशावर की यह तारीख़
दुनिया दर्ज कर ले
कि मैं काफ़िरों पर ऐसे ही
कहर बन कर टूटूंगा
हम से डर कर रहे दुनिया

इस लिए भी कि
मैं जेहादी , मैं मासूम

मैं हरगिज़ नहीं चाहता कि बच्चे पढ़ें
बच्चे पढ़ेंगे तो मलाला बनेंगे
हमारे लिए चुनौती बनेंगे

मुझे मलाला नहीं , हाफ़िज़ सईद चाहिए
इमरान खान , परवेज़ मुशर्रफ , नवाज़ शरीफ भी
मलाला इस्लाम के लिए , जेहाद के लिए ख़तरा है
हाफ़िज़ सईद आदि इस्लाम की हिफाज़त के लिए अनिवार्य
पेशावर इस का ज़रुरी सबक़ है
दुनिया इसे याद कर ले
और जान ले कि
मैं जेहादी , मैं मासूम

नामानिगारों की यह अटकल भी जायज़ है
कि अगला नंबर हिंदुस्तान को सबक़ का है
यह लोग सब जानते हैं , जानकार लोग हैं
कुत्ते यह सब बहुत जल्दी सूंघ लेते हैं
कुत्ते सब जानते हैं
जानते यह भी हैं कि
मैं जेहादी , मैं मासूम
यह बात वह सब को बताते भी बहुत हैं

कुछ लोग हैं जो मुझे कठमुल्ला भी कहते हैं
मेरा कठमुल्लापन भी दफ़ा करने की
मासूम हसरत पालते हैं
मनुष्यता , सभ्यता और जाने क्या-क्या
उच्चारते फिरते हैं
और ख़ुद-ब -ख़ुद दफ़ा हो जाते हैं

क्यों कि
मैं जेहादी , मैं मासूम




पिछवाड़े का घर गिर रहा है

मेरे घर के पिछवाड़े का घर गिर रहा है
poems dayanand pandey दयानंद पांडेय की कवितायेँ कि जैसे मैं गिर रहा हूं
आहिस्ता-आहिस्ता

जैसे किसी स्त्री का नकाब सरक रहा हो
आहिस्ता-आहिस्ता

घर गिर रहा है और धरती दिख रही है
आहिस्ता-आहिस्ता
जैसे निर्वस्त्र हो रही है धरती

पहली मंज़िल , नीचे का हिस्सा
छत , दीवार,  खिड़की , दरवाज़े
सब गिरते हुए उजड़ रहे हैं
ईंट-ईंट उजड़ रही है
कि जैसे मैं उजड़ रहा हूं

मज़दूर चुन-चुन कर ईंट बटोर रहे हैं
सहेज रहे हैं
जैसे कोयले के ढेर से हीरा चुन रहे हैं
सागर से मोती चुन रहे हैं
कि किसी उजड़ते हुए घर का सपना गिन रहे हैं
उजड़ते घर का भी कोई सपना होता है क्या
क्या पता

यह उजड़ना दिन-रात जारी है
आधी रात में कोई छत , कोई दीवार गिरती है
भरभरा कर
तेज़ आवाज़ के साथ
मैं अचकचा कर उठ पड़ता हूं
नींद से घबरा कर उठ पड़ता हूं
भहरा जाता हूं
क्या आस-पास के लोग भी उठ जाते होंगे
अपने-अपने फ़्लैट में

पचीस साल पहले जब अपने इस फ़्लैट में आया था
सरकारी आवंटन ले किरायेदार बन कर
तब यह घर , यह पिछवाड़े का घर
जैसे किसी पुरखे की तरह तन कर खड़ा था
इस के सहन में खड़े आम के दो विशाल वृक्ष
और सागौन के वृक्ष जैसे इन का साथ देते थे
और भी वनस्पतियां थीं इन की संगत में
किसिम-किसिम के फूल और तुलसी का चौरा भी

उन आम वृक्षों की शाखाएं
इतनी बड़ी और इतनी पुष्ट थीं कि
हमारे तीन मंज़िले फ़्लैट को भी छाया ही नहीं
सुकून भी देती थीं
अपनी शीतल छांव में

तमाम पक्षियों सहित कोयलों का एक झुंड भी रहता था
इन आम्र मंजरियों में
पक्षियों की चहचहाट और कोयलों की कूक
मन की हूक को विन्यस्त विश्राम देती थीं
प्रकृति जैसे हमें अपनी गोद में ले लेती थी मां की तरह

इस हवेलीनुमा घर में बच्चों का एक स्कूल भी था
बच्चों की प्रार्थना , उन की धमाचौकड़ी
कोयल की कूक , पक्षियों का कलरव
इन का मिला जुला कोलाज
एक अनूठा और अनकहा स्वर्ग रचते थे
इस स्वर्ग में हम सांस लेते थे
हम अपनी खिड़की से, बॉलकनी से ,
बॉलकनी  की रेलिंग से सट कर
इस दुनिया में जब चाहते थे
अनायास  प्रवेश ले लेते
बे रोक-बे टोक
ऐसे जैसे हम भी विद्यार्थी हों
जैसे शिशु हों हम भी
बचपन हमारा जाग जाता था

बरसात में आम के पत्तों से टकरा-टकरा  कर बूंदें
ऐसे गिरतीं गोया गा रही हों
तनी धीरे खोलो केंवड़िया , रस की बूंदें पड़ें

मधुमक्खियां हर साल अपना डेरा बनाती थीं इन वृक्षों पर
कई-कई डेरा छत्ते बना कर
उन की गुनगुन और उन के जब-तब मारे गए डंक का अपना ही रस था
अपना ही दंश था जैसे

ऐसे ही और भी बहुत कुछ कहा-अनकहा था
दुःख सुख थे
धूप थी , छन-छन कर आती हुई
चांदनी थी सिहर-सिहर कर लजाती हुई
बारिश थी
सुहानी पुरवा थी बहक-बहक कर खिड़की के रास्ते
घर में आती हुई

नीचे के फ़्लैट में एक न्यायाधीश आ गया
गोया कोई जल्लाद आ गया
गोया कोई सैय्याद आ गया
बुलबुल की शामत आ गई
इन वृक्षों की शामत आ गई
उस के लॉन  की घास को सूर्य की रौशनी चाहिए थी
वृक्षों की शीतल छांह नहीं

कारिंदों से पहले डालियां कटवाईं
कोयलों की कूक से सूना हो गया घर
पक्षियों की चहचहाट , उन का संगीत थम गया
शीतल छांह को भी ग्रहण लग गया
छत पर से खड़े-खड़े
पूजा के लिए आम के पल्लव तोड़ना
सपना हो गया

धीरे-धीरे और डालियां काटीं, कटती गईं
वृक्ष सूख गया
कब गिर कर गायब हो गया
पता ही नहीं चला
लकड़ियां गोया किसी पारसी की लाश बन गईं
पैसा कमाने वाले गिद्ध लोग नोच ले गए
पिछवाड़े का घर नंगा हो गया
हम हमारा घर अनाथ हो गए

फिर स्कूल बंद हुआ
अपनी हवेली छोड़ कर इस घर के नागरिक
पास के मुहल्ले में कहीं किरायेदार हो गए
मकान मालिक से किरायेदार का सफ़र
कितनी यातना में डूबा हुआ होगा

घर वीरान हो गया
लेकिन भुतहा नहीं हुआ

घर हमारे बगल में था , किसी बुजुर्ग की तरह
मय दीवार, छत और खिड़की दरवाज़ों के

वैसे भी स्कूल के समय को छोड़ कर
यह घर वीरान ही रहता था
वीरान ही रहता था इस घर का संसार भी

दो पुरुष कभी कभार दिख जाते
पोर्च पर बने टेरेस पर , बरामदों में
चलते ऐसे गोया
जैसे वह जीती जागती देह नहीं लाश हों
चलती-फिरती लाश
पराजित मन से अपनी देह को ढोते
यह पुरुष सर्वदा ऐसे ही दिखे
कभी अकेले,  कभी साथ-साथ
बिन बोले , आंख  झुकाए
जैसे वह पांडव हों और अपनी द्रौपदी हार गए हों

वह सरकार से इस घर का मुकद्दमा क्या हारे थे
खुद से हार गए थे

दो स्त्रियां और बच्चे भी थे इस घर में
स्त्रियां ही कमाती थीं , घर चलाती थीं
स्कूल में पढ़ाती थीं
बाज़ार , चूल्हा-चौका, दुःख -सुख सब इन्हीं के ज़िम्मे था
यह जेठानी , देवरानी जैसे इस घर का धनुष थीं और तीर भी

यही सुख भी थीं इस घर का , यही शांतिं भी
घर के रथ के पहिए भी यही थीं , अश्व भी
चेहरे पर इन के भी सर्वदा दुःख और संघर्ष की तलवार चमकती दिखती थी
तलवार की धार भी
पर हरदम बुझी-बुझी सी दिखतीं यह स्त्रियां
घर में मशाल की तरह जलती दिखतीं सर्वदा
स्त्रियां सचमुच धैर्य और साहस का अनवरत जलता दिया होती हैं
यह इन स्त्रियों को देख कर जाना जा सकता था

इस घर के बच्चों को देख कर
इस घर का तापमान जाना जा सकता था
इन बच्चों को देख कर लगता कि
यह वह खिलौने हैं जिन की बैट्री समाप्त हो गई हो

इन बच्चों के चेहरे पर न कोई ललक थी न लालसा
वृक्ष और वनस्पतियां भी
उन में हरियाली नहीं भर पाते
घर की त्रासदी बच्चों को इस कदर उदास कर देती है
यह इन बच्चों को देख कर ही जाना
इतना उदास बचपन कभी नहीं देखा

बनारसी बाग़ से सटे इस डालीबाग़ का यह घर
इस पूरी कालोनी की ज़मीन
कहते हैं कि
इसी घर के लोगों की थी

कुछ दशक पहले सरकार ने इस का अधिग्रहण कर लिया
पूरा का पूरा
घर ज़मीन सब
कभी इस शहर की मेयर रहीं मैडम टूट गईं
घर के लोग टूट गए
गोया मिट्टी के बर्तन हों और टूट गए हों

अनमोल ज़मीन , हवेली कौड़ियों के मोल चली गई
अपनी ही आंखों  के सामने
मुआवजे की रकम में होम हो कर
अपने ही घर में विस्थापित हो गए यह लोग
मुकद्दमा पर मुकद्दमा हारते लाश हो गए यह लोग

गोमती के तीर पर
हैदर कैनाल के किनारे
अपनी प्यारी बेटी डॉली के नाम
डालीबाग बसाने वाले उस पिता को
क्या मालूम था कि उस का लगाया बाग़
काट कर कंक्रीट के जंगल में बदल दिया जाएगा
बेटी के लिए बनाई गई यह हवेली से
परिजन बेदखल कर दिए जाएंगे
मंत्रियों का घर बनाने के लिए

बनारसी बाग़ प्रिंस आफ वेल्स के सिपुर्द हो कर
चिड़िया घर हो गया
डालीबाग सरकारी हुक्कामों , मंत्रियों का घर हो गया

बहुत सी हवेलियां टूट गईं , टूटेंगी
खंडहर हुईं , और होंगी
हो गईं गगनचुंबी इमारतें
होंगी इन की जगह और गगनचुंबी इमारतें
सब को बदल जाना है
सब का रंग बदल जाना है
स्थाई कुछ भी नहीं होता
बुद्ध यही तो कहते थे ,
यह भी गुज़र जाएगा

लेकिन यह तो घर था
घर भी कहीं ऐसे बदलता है
ऐसे गुज़र जाता है भला
घर भूगोल नहीं होता
घर इतिहास नहीं होता

यहां पीढ़ियां जवान होती हैं
सपने उन्वान होते हैं

भूगोल सपने में नहीं आता ,
इतिहास सपने में नहीं आता
सपने  में घर आता है
घर उजड़ता है तो
सपना उजड़ जाता है
आदमी उजड़ जाता है

घर गिराया जा रहा है
सरकार गिरवा रही है
मंत्रियों का बहुखंडी आवास बनाने के लिए
क्या क्या गिरवाएगी सरकार
क्या क्या बनवाएगी सरकार
किन-किन को उजाड़ कर

वह पक्षी , वह कोयल , वह भंवरे, वह मधुमक्खी
वह वृक्ष , वह वनस्पतियां
वह किसिम-किसिम के फूल , वह तुलसी का चौरा
वह बारिश , वह पुरवा
वह धूप , वह चांदनी
वह आम्र मंजरियां , वह पल्लव
वह बच्चे , वह बच्चों की किलकारी भरी शरारतें
हर सुबह गाई गईं उन की प्रार्थनाएं
सब तो उजड़ गई हैं , उजड़ती जा रही हैं
पल-पल , तिल-तिल
हो सकता है कि कल सुबह उठूं
तो पता चले कि पिछवाड़े कोई घर नहीं
मैदान हो
भूगोल क्या ऐसे ही बदल जाते हैं रातों-रात

तो क्या जिस घर में
मैं रह रहा हूं
यह भी कभी गिर जाएगा
गिरा देंगी मशीनें , जे सी बी मशीन
मेरे सारे निशाँ मिट जाएंगे
जैसे अभी मैं मिट रहा हूं
आहिस्ता-आहिस्ता

बचपन में जिस घर में रहता था
जिस घर में जवान हुआ था
वह घर भी गिर गया है कब का
बरसों पहले
गिर कर मैदान हो गया है
वनस्पतियां उग आई हैं जहां -तहां
एक नीम का वृक्ष भी

लेकिन मेरे सपनों में
आज भी वही घर आ कर बस जाता है
स्मृतियों में वही बसा हुआ है

जाता हूं जब कभी अपने उस नगर
तो उस घर को भी देखने जाता हूं
बड़ी ललक के साथ
घर देखता हूं बचपन का , बचपन का स्कूल भी
उस स्कूल में खेलते-पढ़ते खुद को देखता हूं
अपने बच्चों को भी दिखाता हूं , अपना बचपन
अपना बीता बचपन , अपना बीता जीवन , अपना आज का सपना

तो क्या यह घर भी
यह पिछवाड़े का घर भी अब मेरे सपनों में आएगा
मुझे अब भी दुलराएगा
गिर जाने के बाद भी

मेरे बच्चे भी अपने बच्चों को दिखाएंगे कि
देखो यहां पिछवाड़े कभी एक और घर था
क्या पता

घर मां की तरह होते हैं
मां का दुलार कभी खत्म नहीं होता
घर किसी का भी हो घर खत्म नहीं होता 
००००००००००००००००