फिल्म समीक्षा: माझी / ऑल इज वेल | Movie Review: Manjhi / All is Well | दिव्यचक्षु


एक पहाड़तोड़ की शौर्यकथा और  प्रेमगाथा

 ~ दिव्यचक्षु

फिल्म समीक्षा: माझी / ऑल इज वेल | Movie Review: Manjhi / All is Well | दिव्यचक्षु


माझी - द माउंटेन मैंन

निर्देशक - केतन मेहता

कलाकार - नवाजउद्दीन सिद्दिकी, राधिका आप्टे, तिग्मांशु धुलिया, पंकज त्रिपाठी

ये एक शौर्यगाथा भी है और प्रेम कहानी भी। पर वैसी शौर्यगाथा नहीं जैसी हम सुनते या पढ़ते आए हैं। और वैसी प्रेम कहानी भी नहीं जो आई लव यू’` से या तो शुरू होती है या अंत। इस शौर्यगाथा और प्रेम कहामी ने वास्तविकता है। प्रेम के लिए आसमान से तारे तोड़कर लाने की बात होती है। लेकिन कोई ला नहीं पाता। मगर यहां एक  शख्स है जो अपनी मृत पत्नी को याद करते हुए पहाड़ को ललकारता है कि वो उसे तोड़ देगा और आखिर में, बाईस साल के अथक परिक्षण से, उसे तोड़ भी देता है। ये कहानी है दशरथ मांझी की जो बिहार के गया जिले के दलित (मुसहर) परिवार में पैदा हए और घोर अभाव में जीते हुए भी वो काम कर गए तो लैला के लिए मजनू भी नहीं कर पाया था। सच में दशरथ मांझी ने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद पहाड़ को काटकर रास्ता बनाया था और केतन मेहता ने पर्दे पर उनकी ही कहानी दिखाई है। कहानी कहने या दिखाने के अंदाज में कल्पना का पुट जरूर है लेकिन मांझी की जिंदगी का दर्द और संघर्ष भी  यहां मौजूद है।

निर्देशक केतन मेहता ने दशऱथ मांझी के जीवन को जिस तरह पर्दे पर उतारा है उसमें  एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है जिसकी  शख्सियट में चट्टानी दृढ़ता है। जिस व्यक्ति ने जीवन में ककहरा भी नहीं नहीं पढ़ा, जो एक साधारण आदमी की तरह था, वो एक प्रेरणा पुरुष बन गया। दशरथ मांझी की जिंदगी तो बिहार में एक दंतकथा बन ही गई थी पर अब इस  फिल्म के बाद उसे सार्वकालिकता मिल गई है। डॉ जॉनसन का व्यक्तित्व बड़ा था लेकिन बॉसवेल उसे अपनी लेखनी से अविस्मरणीय बना दिया। केतन मेहता ने ,बॉसवेल की तरह, दशऱथ को बिहार के  भूगोल से बाहर निकालकर दिंगत में फैला दिया। कई दृश्य तो मन में खूब जानेवाले हैं। एक वो जिसमें युवा दशऱथ प्यास को बुझाने के लिए कुंए में उतरता है  और वहां भी उसे पानी नहीं मिलता क्योंकि कुआं सूख गया है, और वो ही नीचे जमें घासों को खाता है। य़थार्थ और अतियथार्थ में फर्क मिट जाता है। हास्य के भी कई मजंदार दृश्य हैं। विशेषकर वो जिसमें दशरथ और उसकी पत्नी कुछ बदमाशों से बचने के लिए कादो (कीचड़) में कूद जाते हैं और उसी में घुल जाते हैं। निर्देशक ने उस सामाजिक स्थिति को दिखाया जिसमें आज भी गावों में दलितों को रहना पड़ता है। नक्सलवाद के प्रंसंग भी हैं। 

 नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने दशरथ मांझी के जीवट को जिस तरह उतारा है वो उनके फिल्मी सफर का सबसे बड़ा अध्याय तो है ही साथ ही हिंदी फिल्मों के इतिहास में भी वो अमिट रहेगा। दशरथ के संकल्प और जिजीविषा से लेकर उसकी उधेड़बुन और निराशाएं भी नवाजुद्दीन ने जिस तरह दिखाईं हैं उनकी अभिनय क्षमता का पता चलता है। राधिका आप्टे ने दशरथ की पत्नी फगुनिया की भूमिका निभाई है और ये चरित्र भी सहजता और मासूमियत को दिखानेवाला है। 

आखिर में ये बता देना भी प्रासंगिक होगा कि दशरथ की पुत्रवधु का निधन भी इस वजह से हो गया था कि उसे समय पर चिकित्सा की सुविधा नहीं मिली थी। ठीक उसी तरह जिस तरह युवा फगुनिया को वक्त पर अस्पताल नहीं पहुंचाया जा सकता। पर  दशरथ ने पहाड़ तोड़ कर रास्ता निकाला कि वक्त पर शहर पहुंचा जा सके किंतु इसके बावजूद देश में बहुतों के लिए अस्पताल अभी भी दूर है।


हंसने का मसाला तो मौजूद है ही

ऑल इज वेल

निर्देशक - उमेश शुक्ला
कलाकार- अभिषेक बच्चन. असिन, ऋषि कपूर. सुप्रिया पाठक कपूर 

ये एक ऐसा पारिवारिक ड्रामा है जिसमें टंटे ज्यादा हैं और काम की बातें कम। यानी पारिवार झगड़े ज्यादा है। पति अपनी पत्नी पर लगातार खीजता रहता है और इसका दंड भुगतना पड़ता है दर्शक को। वैसे निर्देशक ने इसमें श्रवण कुमार की पुरानी कहानी की छौंक लगा दी है जिसमें एक बेटा अपने माता पिता को अपने कंधे पर लाद कर तीर्थयात्रा करने निकला था। लेकिन ये कहानी एक कलयुगी ढांचे में ढाली गई है और ढलाई ऐसी की गई है कि कुछ जगहों पर ऐसी उलझन होती है कि समझ में नहीं आता कि माजरा क्या है। 

इंदर भल्ला (अभिषेक बच्चन) भजनलाल भल्ला (ऋषि कपूर) का बेटा है। भजनलाल भल्ला की हिमाचल में बेकरी की दुकान है। भजनलाल की न तो अपनी पत्नी (सुप्रिया पाठक) से बनती है और न बेटे से। बेटा घर छोड़कर बैंकाक चला गया है। उसे गाना गाने  में दिलचस्पी है और अपना म्यूजिक एलबम निकालना चाहता है पर पैसा नहीं है। एक दिन उसके पास एक फोन आता है जिसकी वजह से उसे अपने पिता के पास पहुंचना पड़ता है। वहां मालूम होता कि उसके पिता पर काफी कर्जा है और चीमा (जीशान अयूब) नाम का एक बदमाश उसके पिता के पीछे पड़ गया है। चीमा भल्ला परिवार की बेकरी हड़पना चाहता है।  भल्ला परिवार भागता है और उसके पीछे है चीमा और उसके दूसरे बदमाश साथी। और, हां, इंदर को दिलो जान से प्यार करनेवाली निम्मी ( असिन) भी उसके साथ है। भल्ला परिवार और उसके पीछे भागनवाले बदमाशों को लेकर ये सारी कहानी है पर इसमे हास्य के लम्हे हैं एक्शन के नहीं। पूरी फिल्म चुटकुलों और मजाक से भरपूर है। पर ये सब इतने ज्यादा हैं कि कुछ जगहों पर बोरियत भी हो जाती है।

निर्देशक ने एक कॉमेडी बनाने की कोशिश की है लेकिन कुछ फार्मूले इतने परिचित हैं कि वे हंसाते नहीं बल्कि सिर को भन्ना देते हैं। ये एक लबे अरसे के बाद आई अभिषेक बच्चन की ऐसी फिल्म है जिसमें सारा जोर उन्होंने अपने कंधे पर उठाया है। ये दीगर बात है कि शायद इसी वजह से ये फिल्म कई जगहों पर हिचकोले भी खाती है। दर्शकों को हिचकोले से बचाने के लिए सोनाक्षी सिन्हा के आईटम नंबर का सहारा लिया है मगर आप सीढे तीन मिनट के ठुमकों से पूरी फिल्म को तो बचा नहीं सकते न। फिर भी, अगर कोई कॉमेडी का मारा है तो इस फिल्म में उसके हंसने का मसाला तो मौजूद है ही। अभिषेक को अपने कंधे पर इतना जोर नहीं लेना चाहिए। अगर ये फिल्म मल्टी स्टारर होती है कुछ अधिक मजेदार होती।   

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