ग़ालिब छुटी शराब, शेखर - एक जीवनी, गुनाहों का देवता, राग दरबारी और जॉनाथन लिविंग स्टोन सीगल में क्या चीज़ कॉमन है ? ये उन पुस्तकों के नाम हैं - जिन्होंने मुझे अलग-अलग वक़्त पर इतना प्रभावित किया कि ज़िन्दगी को देखने और जीने का मेरा नज़रिया और तरीका बदला... और ये मेरे हाथ की पहुँच में रहती हैं
यहाँ ग़ालिब छुटी शराब की बात करना चाह रहा हूँ। मुझे बाकी और ग़ालिब छुटी शराब में एक बड़ा अंतर दिखा, जहाँ बाकियों को पहली बार पढ़ने में यह रहा कि रातों-रात ख़त्म वहीँ ग़ालिब , चाय की चुस्कियों की तरह पढ़ी गयी, सुबह की पहली चाय के जैसे कि जल्दी ख़त्म ना हो, कि कहीं कोई स्वाद छूट ना जाये।
इस की तसदीक करता है वो हस्ताक्षर, जो रवीन्द्र जी ने 27/8/2013 को मुझे पुस्तक भेंट करते समय, ज्ञानपीठ के अपने लोधी रोड के दफ्तर में, किताब पर "भरत तिवारी को सस्नेह" लिखने के बाद किया... और आज 21/11/2013 की तारीख जब ग़ालिब ... को अभी कोई एक घंटे पहले खत्म किया है.... और इस दुःख में हूँ कि ख़त्म हो गयी, थोडा और सब्र से पढ़ा होता तो कुछ दिन और पढता। मैंने पहले कभी तीन सौ पन्नो को पढने में नब्बे दिन नहीं लगाये थे – वाह क्या स्वाद है इस शराब का, क्या शुरुर !
बहरहाल जब ग़ालिब छुटी शराब पढ़ रहा था (पिछले तीन महीने) तो ज़िदगी से जुड़े रोज़मर्रा के काम और हिंदी-साहित्य की गतिविधियों (रोज़मर्रा का ही हिस्सा) से भी जुड़ा रहा... और इस सारे वक़्त ग़ालिब छुटी शराब को ले कर एक ही बात ज़ेहन में उठती रही - जिसे आप को नहीं बताया तो पेट में दर्द शुरू हो जायेगा ...
जिधर भी देखा साहित्यिक पार्टीयों, गोष्ठीयों, औपचारिक-अनौपचारिक मुलाक़ात, सोशल मिडिया.... जिसे भी देखा समीक्षक, कथाकार, कवि, प्रकाशक... यही सोचता रहा - क्या इनमे से कोई दूसरा रवीन्द्र कालिया बनेगा? संबंधों की इतनी धता उतारने के बाद क्या इनमे से कोई अपनी ग़ालिब छुटी शराब लिख सकेगा.... ना ! दुःख हुआ, जिसे भी इस दृष्टि से देखा कि क्या ये ? जवाब अंततः "नहीं लिख सकेगा" ही आया।
और हर एक "ना" ये दिखा गयी कि हमने संबंधों को सिर्फ-और-सिर्फ व्यावसायिक बना छोड़ा है.
कुल जमा हासिल यही हुआ कि ग़ालिब छुटी शराब अब शेखर - एक जीवनी, गुनाहों का देवता, राग दरबारी और जॉनाथन लिविंग स्टोन सीगल के साथ बेड-टेबल पर ही रहेगी, शेल्फ में नहीं जाएगी।
शुक्रिया रवीन्द्र कालिया सर... ये आपके लिए -
ग़ालिब छुटी शराब ना छूटेगी ये किताब
पड़ता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में
आपका
भरत तिवारी
21 नवम्बर 2013
ग़ालिब छुटी शराब - 1
- रवींद्र कालिया
' ग़ालिब ' छुटी शराब , पर अब भी कभी-कभी
पीता हूँ रोज़े-अब्रो-शबे-माहताब में
13 अप्रैल 1997। बैसाखी का पर्व। पिछले चालीस बरसों से बैसाखी मनाता आ रहा था। वैसे तो हर शब बैसाखी की शब होती थी, मगर तेरह अप्रैल को कुछ ज्यादा ही हो जाती थी। दोपहर को बियर अथवा जिन और शाम को मित्रों के बीच का दौर। मस्ती में कभी-कभार भाँगड़ा भी हो जाता और अंत में किसी पंजाबी ढाबे में भोजन, ड्राइवरों के बीच। जेब ने इजाजत दी तो किसी पाँच सितारा होटल में सरसों का साग और मकई की रोटी। इस रोज दोस्तों के यहाँ भी दावतें कम न हुई होंगी और ममता ने भी व्यंजन पुस्तिका पढ़ कर छोले भटूरे कम न बनाए होंगे।
मगर आज की शाम, 1997 की बैसाखी की शाम कुछ अलग थी। सूरज ढलते ही सागरो-मीना मेरे सामने हाजिर थे। आज दोस्तों का हुजूम भी नहीं था - सब निमंत्रण टाल गया और खुद भी किसी को आमंत्रित नहीं किया। पिछले साल इलाहाबाद से दस-पंद्रह किलोमीटर दूर इलाहाबाद-रीवाँ मार्ग पर बाबा ढाबे में महफिल सजी थी और रात दो बजे घर लौटे थे। आज माहौल में अजीब तरह की दहशत और मनहूसियत थी। जाम बनाने की बजाए मैं मुँह में थर्मामीटर लगाता हूँ। धड़कते दिल से तापमान देखता हूँ - वही 99.3। यह भी भला कोई बुखार हुआ। एक शर्मनाक बुखार। न कम होता है, न बढ़ता है। बदन में अजीब तरह की टूटन है। यह शरीर का स्थायी भाव हो गया है - चौबीसों घंटे यही आलम रहता है। भूख कब की मर चुकी है, मगर पीने को जी मचलता है। पीने से तनहाई दूर होती है, मनहूसियत से पिंड छूटता है, रगों में जैसे नया खून दौड़ने लगता है। शरीर की टूटन गायब हो जाती है और नस-नस में स्फूर्ति आ जाती है। एक लंबे अरसे से मैंने जिंदगी का हर दिन शाम के इंतजार में गुजारा है, भोजन के इंतजार में नहीं। अपनी सुविधा के लिए मैंने एक मुहावरा भी गढ़ लिया था - शराबी दो तरह के होते हैं : एक खाते-पीते और दूसरे पीते-पीते। मैं खाता-पीता नहीं, पीता-पीता शख्स था। मगर जिंदगी की हकीकत को जुमलों की गोद में नहीं सुलाया जा सकता। वास्तविकता जुमलों से कहीं अधिक वजनदार होती है। मेरे जुमले भारी होते जा रहे थे और वजन हल्का। छह फिट का शरीर छप्पन किलो में सिमट कर रह गया था। इसकी जानकारी भी आज सुबह ही मिली थी। दिन में डॉक्टर ने पूछा था - पहले कितना वजन था? मैं दिमाग पर जोर डाल कर सोचता हूँ, कुछ याद नहीं आता। यकायक मुझे एहसास होता है, मैंने दसियों वर्ष से अपना वजन नहीं लिया, कभी जरूरत ही महसूस न हुई थी। डॉक्टर की जिज्ञासा से यह बात मेरी समझ में आ रही थी कि छह फुटे बदन के लिए छप्पन किलो काफी शर्मनाक वजन है। जब कभी कोई दोस्त मेरे दुबले होते जा रहे बदन की ओर इशारा करता तो मैं टके-सा जवाब जड़ देता - बुढ़ापा आ रहा है।
मैं एक लंबे अरसे से बीमार नहीं पड़ा था। यह कहना भी गलत न होगा कि मैं बीमार पड़ना भूल चुका था। याद नहीं पड़ रहा था कि कभी सर दर्द की दवा भी ली हो। मेरे तमाम रोगों का निदान दारू थी, दवा नहीं। कभी खाट नही पकड़ी थी, वक्त जरूरत दोस्तों की तीमारदारी अवश्य की थी। मगर इधर जाने कैसे दिन आ गए थे, जो मुझे देखता मेरे स्वास्थ्य पर टिप्पणी अवश्य कर देता। दोस्त-अहबाब यह भी बता रहे थे कि मेरे हाथ काँपने लगे हैं। होम्योपैथी की किताब पढ़ कर मैं जैलसीमियम खाने लगा। अपने डॉक्टर मित्रों के हस्तक्षेप से मैं आजिज आ रहा था। डॉ. नरेंद्र खोपरजी और अभिलाषा चतुर्वेदी जब भी मिलते क्लीनिक पर आने को कहते। मैं हँस कर उनकी बात टाल जाता। वे लोग मेरा अल्ट्रासाउंड करना चाहते थे और इस बात से बहुत चिंतित हो जाते थे कि मैं भोजन में रुचि नहीं लेता। मैं महीनों डॉक्टर मित्रों के मश्वरों को नजरअंदाज करता रहा। उन लोगों ने नया-नया 'डॉप्लर' अल्ट्रासाउंड खरीदा था - मेरी भ्रष्ट बुद्धि में यह विचार आता कि ये लोग अपने पचीस-तीस लाख के 'डॉप्लर' का रोब गालिब करना चाहते हैं। शहर के तमाम डॉक्टर मेरे हमप्याला और हमनिवाला थे। मगर कितने बुरे दिन आ गए थे कि जो भी डॉक्टर मिलता, अपनी क्लीनिक में आमंत्रित करता। जो पैथालोजिस्ट था, वह लैब में बुला रहा था और जो नर्सिंगहोम का मालिक था, वह चैकअप के लिए बुला रहा था। डॉक्टरों से मेरा तकरार एक अर्से तक चलता रहा। लुका-छिपी के इस खेल में मैंने महारत हासिल कर ली थी। डॉक्टर मित्र आते तो मैं उन्हें अपनी माँ के मुआइने में लगा देता। माँ का रक्तचाप लिया जाता, तो वह निहाल हो जातीं कि बेटा उनका कितना ख्याल कर रहा है। बगैर मेरी माँ की खैरियत जाने कोई डॉक्टर मित्र मेरे कमरे की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ सकता था। क्या मजाल कि मेरा कोई भी मित्र उनका हालचाल लिए बगैर सीढ़ियाँ चढ़ जाए; वह जिलाधिकारी हो या पुलिस अधीक्षक अथवा आयुक्त। माँ दिन भर हिंदी में गीता और रामायण पढ़तीं मगर हिंदी बोल न पातीं, मगर वह टूटी-फूटी पंजाबी मिश्रित हिंदी में ही संवाद स्थापित कर लेतीं। धीरे-धीरे मेरे हमप्याला हमनिवाला दोस्तों का दायरा इतना वसीह हो गया था कि उसमें वकील भी थे और जज भी। प्राशासनिक अधिकारी थे तो उद्यमी भी, प्रोफेसर थे तो छात्र भी। ये सब दिन ढले के बाद के दोस्त थे। कहा जा सकता है कि पीने-पिलानेवाले दोस्तों का एक अच्छा-खासा कुनबा बन गया था। शाम को किसी न किसी मित्र का ड्राइवर वाहन ले कर हाजिर रहता अथवा हमारे ही घर के बाहर वाहनों का ताँता लग जाता। सब दोस्तों से घरेलू रिश्ते कायम हो चुके थे। सुभाष कुमार इलाहाबाद के आयुक्त थे तो इस कुनबे को गिरोह के नाम से पुकारा करते थे। आज भी फोन करेंगे तो पूछेंगे गिरोह का क्या हालचाल है।
आज बैसाखी का दिन था और बैसाखी की महफिल उसूलन हमारे यहाँ ही जमनी चाहिए थी। मगर सुबह-सुबह ममता और मन्नू घेरघार कर मुझे डॉ. निगम के यहाँ ले जाने में सफल हो गए थे। दिन भर टेस्ट होते रहे थे। खून की जाँच हुई, अल्ट्रासाउंड हुआ, एक्सरे हुआ, गर्ज यह कि जितने भी टेस्ट संभव हो सकते थे, सब करा लिए गए। रिपोर्ट वही थी, जिसका खतरा था - यानी लिवर (यकृत) बढ़ गया था। दिमागी तौर पर मैं इस खबर के लिए तैयार था, कोई खास सदमा नहीं लगा।
'आप कब से पी रहे हैं?' डॉक्टर ने तमाम कागजात देखने के बाद पूछा।
'यही कोई चालीस वर्ष से।' मैंने डॉक्टर को बताया, 'पिछले बीस वर्ष से तो लगभग नियमित रूप से।'
'रोज कितने पेग लेते हैं?'
मैंने कभी इस पर गौर नहीं किया था। इतना जरूर याद है कि एक बोतल शुरू में चार-पाँच दिन में खाली होती थी, बाद में दो-तीन दिन में और इधर दो-एक दिन में। कम पीने में यकीन नहीं था। कोशिश यही थी कि भविष्य में और भी अच्छी ब्रांड नसीब हो। शराब के मामले में मैं किसी का मोहताज नहीं रहना चाहता था, न कभी रहा। इसके लिए मैं कितना भी श्रम कर सकता था। भविष्य में रोटी नहीं, अच्छी शराब की चिंता थी।
'आप जीना चाहते हैं तो अपनी आदतें बदलनी होंगी।' डॉक्टर ने दो टूक शब्दों में आगाह किया, 'जिंदगी या मौत में से आप को एक का चुनाव करना होगा।'
डॉक्टर की बात सुन कर मुझे हँसी आ गई। मूर्ख से मूर्ख आदमी भी जिंदगी या मौत में से जिंदगी का चुनाव करेगा।
'आप हँस रहे हैं, जबकि मौत आप के सर पर मँडरा रही है।' डॉक्टर को मेरी मुस्कुराहट बहुत नागवार गुजरी।
'सॉरी डॉक्टर! मैं अपनी बेबसी पर हँस रहा था। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि यह दिन भी देखना पड़ेगा।'
'आप यकायक पीना नहीं छोड़ पाएँगे। इतने बरसों बाद कोई भी नहीं छोड़ सकता। शाम को एकाध, हद से हद दो पेग ले सकते हैं। डॉक्टर साहब ने बताया कि मैं 'विद्ड्राअल सिंप्टम्स' (मदिरापान न करने से उत्पन्न होनेवाले लक्षण) झेल न पाऊँगा।'
इस वक्त मेरे सामने नई बोतल रखी थी और कानों में डॉक्टर निगम के शब्द कौंध रहे थे। मुझे जलियाँवाला बाग की खूनी बैसाखी की याद आ रही थी। लग रहा था कि रास्ते बंद हैं सब, कूचा-ए-कातिल के सिवा। चालीस वर्ष पहले मैंने अपना वतन छोड़ दिया था और एक यही बैसाखी का दिन होता था कि वतन की याद ताजा कर जाता था।
बचपन में ननिहाल में देखी बैसाखी की 'छिंज' याद आ जाती। चारों तरफ उत्सव का माहौल, भाँगड़ा और नगाड़े। मस्ती के इस आलम में कभी-कभार खूनी फसाद हो जाते, रंजिश में खून तक हो जाते। हम सब लोग हवेली की छत से सारा दृश्य देखते। नीचे उतरने की मनाही थी। अक्सर मामा लोग आँखें तरेरते हुए छत पर आते और माँ और मौसी तथा मामियों को भी मुँडेर से हट जाने के लिए कहते। बैसाखी पर जैसे पूरे पंजाब का खून खौल उठता था। जालंधर, हिसार, दिल्ली, मुंबई और इलाहाबाद में मैंने बचपन की ऐसी ही अनेक यादों को सहेज कर रखा हुआ था। आज थर्मामीटर मुझे चिढ़ा रहा था। गिलास, बोतल और बर्फ की बकट मेरे सामने जैसे मुर्दा पड़ी थीं।
मैने सिगरेट सुलगाया और एक झटके से बोतल की सील तोड़ दी।
'आखिर कितना पिओगे रवींद्र कालिया?' सहसा मेरे भीतर से आवाज उठी।
'बस यही एक या दो पेग।' मैंने मन ही मन डॉक्टर की बात दोहराई।
'तुम अपने को धोखा दे रहे हो।' मैं अपने आप से बातचीत करने लगा, 'शराब के मामले में तुम निहायत लालची इनसान हो। दूसरे से तीसरे पेग तक पहुँचने में तुम्हें देर न लगेगी। धीरे-धीरे वही सिलसिला फिर शुरू हो जाएगा।'
मैंने गिलास में बर्फ के दो टुकड़े डाल दिए, जबकि बर्फ मदिरा ढालने के बाद डाला करता था। बर्फ के टुकड़े देर तक गिलास में पिघलते रहे। बोतल छूने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। भीतर एक वैराग्य भाव उठ रहा था, वैराग्य, निःसारता और दहशत का मिला-जुला भाव। कुछ वैसा आभास भी हो रहा था जो भरपेट खाने के बाद भोजन को देख कर होता है। एक तृप्ति का भी एहसास हुआ। क्षण भर के लिए लगा कि अब तक जम कर पी चुका हूँ, पंजाबी में जिसे छक कर पीना कहते हैं। आज तक कभी तिशना-लब न रहा था। आखिर यह प्यास कब बुझेगी? जी भर चुका है, फकत एक लालच शेष है।
मेरे लिए यह निर्णय की घड़ी थी। नीचे मेरी बूढ़ी माँ थीं - पचासी वर्षीया। जब से पिता का देहांत हुआ था, वह मेरे पास थीं। बड़े भाई कैनेडा में थे और बहन इंगलैंड में। पिता जीवित थे तो वह उनके साथ दो बार कैनेडा हो आई थीं। एक बार तो दोनों ने माइग्रेशन ही कर लिया था, मन नहीं लगा तो लौट आए। दो-एक वर्ष पहले भाभी भाई तीसरी बार कैनेडा ले जाना चाहते थे, मगर वय को देखते हुए वीजा न मिला।
मेरे नाना की ज्योतिष में गहरी दिलचस्पी थी। माँ के जन्म लेते ही उनकी कुंडली देख कर उन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी कि बिटिया लंबी उम्र पाएगी और किसी तीर्थ स्थान पर ब्रह्मलीन होगी। हालात जब मुझे प्रयाग ले आए और माँ साथ में रहने लगीं तो अक्सर नाना की बात याद कर मन को धुकधुकी होती। पिछले ग्यारह बरसों से माँ मेरे साथ थीं। बहुत स्वाभिमानी थीं और नाजुकमिजाज। आत्मनिर्भर। जरा-सी बात से रूठ जातीं, बच्चों की तरह। मुझसे ज्यादा उनका संवाद ममता से था। मगर सास-बहू का रिश्ता ही ऐसा है कि सब कुछ सामान्य होते हुए भी असामान्य हो जाता है। मैं दोनों के बीच संतुलन बनाए रखता। माँ को कोई बात खल जाती तो तुरंत सामान बाँधने लगतीं यह तय करके कि अब शेष जीवन हरिद्वार में बिताएँगी। चलने-फिरने से मजबूर हो गईं तो मेहरी से कहतीं - मेरे लिए कोई कमरा तलाश दो, अलग रहूँगी, यहाँ कोई मेरी नहीं सुनता। अचानक मुझे लगा कि अगर मैं न रहा तो इस उम्र में माँ की बहुत फजीहत हो जाएगी। वह जब तक जीं अपने अंदाज से जीं; अंतिम दिन भी स्नान किया और दान पुण्य करती रहीं, यहाँ तक कि डॉक्टर का अंतिम बिल भी वह चुका गईं, यह भी बता गईं कि उनकी अंतिम संस्कार के लिए पैसा कहाँ रखा है। मुझे स्वस्थ होने की दुआएँ दे गईं और खुद चल बसीं।
गिलास में बर्फ के टुकड़े पिघल कर पानी हो गए थे। मुझे अचानक माँ पर बहुत प्यार उमड़ा। मैं गिलास और बोतल का जैसे तिरस्कार करते हुए सीढ़ियाँ उतर गया। माँ लेटी थीं। वह एम.एस. सुब्बलक्ष्मी के स्वर में विष्णुसहस्रनाम का पाठ सुनते-सुनते सो जातीं। कमरे में बहुत धीमे स्वर में विष्णुसहस्रनाम का पाठ गूँज रहा था और माँ आँखें बंद किए बिस्तर पर लेटी थीं। मैंने उनकी गोद में बच्चों की तरह सिर रख दिया। वह मेरे माथे पर हाथ फेरने लगीं, फिर डरते-डरते बोलीं - 'किसी भी चीज की अति बुरी होती है।' मैं माँ की बात समझ रहा था कि किस चीज की अति बुरी होती है। न उन्होंने बताया न मैंने पूछा। मद्यपान तो दूर, मैंने माँ के सामने कभी सिगरेट तक नहीं पी थी। किसी ने सच ही कहा है कि माँ से पेट नहीं छिपाया जा सकता। मैं माँ की बात का मर्म समझ रहा था, मगर समझ कर भी शांत था। आज तक मैंने किसी को भी अपने जीवन में हस्तक्षेप करने की छूट नहीं दी थी, मगर माँ आज यह छूट ले रही थीं, और मैं शांत था। आज मेरा दिमाग सही काम कर रहा था, वरना मैं अब तक भड़क गया होता। मुझे लग रहा था, माँ ठीक ही तो कह रही हैं। कितने वर्षों से मैं अपने को छलता आ रहा हूँ। माँ की गोद में लेटे-लेटे मैं अपने से सवाल-जवाब करने लगा - और कितनी पिओगे रवींद्र कालिया? यह रोज की मयगुसारी एक तमाशा बन कर रह गई है, इसका कोई अंत नहीं है। अब तक तुम इसे पी रहे थे, अब यह तुम्हें पी रही है।
माँ एकदम खामोश थीं। वह अत्यंत स्नेह से मेरे माथे को, मेरे गर्म माथे को सहला रही थीं। मुझे लग रहा था जैसे जिंदगी मौत को सहला रही है। लग रहा था यह माँ की गोद नहीं है, मैं जिंदगी की गोद में लेटा हूँ। कितना अच्छा है, इस समय माँ बोल नहीं रहीं। उन्हें जो कुछ कहना है, उनका हाथ कह रहा है। उनके स्पर्श में अपूर्व वात्सल्य तो था ही, शिकवा भी था, शिकायत भी, क्षमा भी, विवशता और करुणा भी। एक मूक प्रार्थना। यही सब भाषा में अनूदित हो जाता तो मुझे अपार कष्ट होता। अश्लील हो जाता। शायद मेरे लिए असहनीय भी। माँ की गोद में लेटे-लेटे मैं केसेट की तरह रिवाइंड होता चला गया, जैसे नवजात शिशु में तब्दील हो गया। माँ जैसे मुझे जीवन में पहली बार महसूस कर रही थीं और मैं भी बंद मुटि्ठयाँ कसे बंद आँखों से जैसे अभी-अभी कोख से बाहर आ कर जीवन की पहली साँस ले रहा था। मैं बहुत देर तक माँ के आगोश में पड़ा रहा। लगा जैसे संकट की घड़ी टल गई है। अब मैं पूरी तरह सुरक्षित हूँ। माँ शायद नींद की गोली खा चुकी थीं। उनके मीठे-मीठे खर्राटे सुनाई देने लगे। मैं उठा, पंखा तेज किया और किसी तरह हाँफते हुए सीढ़ियाँ चढ़ गया।
ममता मेरे अल्ट्रासाउंड, खून की जाँच की रिपोर्टों और डॉक्टर के पर्चों में उलझी हुई थी। मैंने उससे कहा कि वह यह गिलास, यह बोतल नमकीन और बर्फ उठवा ले। आलमारी में आठ-दस बोतलें और पड़ी थीं। इच्छा हुई अभी उठूँ और बाल्कनी में खड़ा हो कर एक-एक कर सब बोतलें फोड़ दूँ। एक-दो का ज़िक्र क्या सारी की सारी फोड़ दूँ, ऐ ग़मे दिल क्या करूँ? मेरे जेहन में एक खामोश तूफान उठ रहा था, लग रहा था जैसे शख्सीयत में यकायक कोई बदलाव आ रहा है। मैं बिस्तर पर लेट गया। शरीर एकदम निढाल हो रहा था। वह निर्णय का क्षण था, यह कहना भी गलत न होगा कि वह निर्णय की बैसाखी थी।
किसी शायर ने सही फरमाया था कि छुटती नहीं यह काफिर मुँह की लगी हुई। मैं रात भर करवटें बदलता रहा। पीने की ललक तो नहीं थी, शरीर में अल्कोहल की कमी जरूर खल रही थी। बार-बार डॉक्टर की सलाह दस्तक दे रही थी कि यकायक न छोड़ूँ कतरा-कतरा कम करूँ। मैं अपनी सीमाओं को पहचानता था। शराब के मामले में मैं महालालची रहा हूँ। एक से दो, दो से ढाई और ढाई से तीन पर उतरते मुझे देर न लगेगी। मैं अपने कुतर्कों की ताकत से अवगत था। तर्कों-कुतर्कों के बीच कब नींद लग गई, पता ही नहीं चला। शायद यह 'ट्रायका' का कमाल था। सुबह नींद खुली तो अपने को एकदम तरोताजा पाया। लगा, जैसे अब एकदम स्वस्थ हूँ। तुरंत थर्मामीटर जीभ के नीचे दाब लिया। बुखार देखा - वही निन्यानबे दशमलव तीन। पानी में चार चम्मच ग्लूकोज घोल कर पी गया। जब तक ग्लूकोज का असर रहता है, यकृत को आराम मिलता है।
बाद के दिन ज्यादा तकलीफदेह थे। अपना ही शरीर दुश्मनों की तरह पेश आने लगा। कभी लगता कि छाती एकदम जकड़ गई है, साँस लेने पर फेफड़े का रेशा-रेशा दर्द करता, महसूस होता साँस नहीं ले रहा, कोई जर्जर बाँसुरी बजा रहा हूँ। निमोनिया का रोगी जितना कष्ट पाता होगा, उतना मैं पा रहा था। कष्ट से मुक्ति पाने के लिए मैं दर्शन का सहारा लेता - रवींद्र कालिया, यह सब माया है, सुख याद रहता है न दुःख। लोग उमस भरी काल कोठरी में जीवन काट आते हैं और भूल जाते है। अस्पतालों में लोग मर्मांतक पीड़ा पाते हैं, अगर स्वस्थ हो जाते हैं तो सब भूल जाते हैं। चालीस वर्ष नशा किया, कल तक का सरूर याद नहीं। क्या फायदा ऐसे क्षण भंगुर सुख का। मुझे अश्क जी का तकियाकलाम याद आता है - दुनिया फानी है। दुनिया फानी है तो मयनोशी भी फानी है।
एक दिन बहुत तकलीफ में था कि डॉ. अभिलाषा चतुर्वेदी और डॉ. नरेंद्र खोपरजी आए। मैंने अपनी दर्द भरी कहानी बयान की। अभिलाषा जी ने कहा, 'यह सब सामान्य है। ये विद्ड्राअल सिंप्टम्स हैं, आपको कुछ न होगा, जी कड़ा करके एक बार झेल जाइए। मैं आपको एक कतरा भी पीने की सलाह न दूँगी। मेरी मानिए, अपने इरादे पर कायम रहिए।' डॉ. खोपरजी घर से अपना कोटा ले कर चले थे, और महक रहे थे, मेरे नथुनों में मदिरा की चिरपरिचित गंध समा रही थी। मुझे गंध बहुत पराई लगी, जैसे सड़े हुए गुड़ की गंध हो। मुझे उस महक से वितृष्णा होने लगी। डॉक्टर लोग विदा हुए तो मैंने ग़ालिब उग्र मँगवाया और पढ़ने लगा। पढ़ने में श्रम पड़ने लगा तो बेगम अख्तर की आवाज में ग़ालिब सुनने लगा। ग़ालिब का दीवान, पांडेय बेचन शर्मा उग्र की टीका और बेगम अख्तर की आवाज। शाम जैसे उत्सवधर्मी हो गई। मैं अपने फेफड़े को भूल गया, दर्द को भूल गया। लेकिन यह वक्ती राहत थी, शरीर ने विद्रोह करना जारी रखा। एक रोज में मेरी दुनिया बदल गई थी। एक दिन पहले तक मैं दफ्तर जा रहा था। डॉक्टर को दिखाने और परीक्षणों के बाद मैं जैसे अचानक बीमार पड़ गया। डॉक्टरों ने जी भर कर हिदायतें दी थीं। हिदायतों के अलावा उनके पास कोई प्रभावी उपचार नहीं था - ले दे कर वही ग्लूकोज। दिन-भर में दो-ढाई सौ ग्राम ग्लूकोज मुझे पिला दिया जाता। कुछ रोज पहले तक जिस रोग को मैं मामूली हरारत का दर्जा दे रहा था, उसे ले कर सब चिंतित रहने लगे। मालूम नहीं यह शारीरिक प्रक्रिया थी अथवा मनोवैज्ञानिक कि मैं सचमुच अशक्त, बीमार, निरीह और कमजोर होता चला गया। करवट तक बदलने में थकान आ जाती। डॉक्टरों ने हिदायत दी थी कि बाथरूम तक भी जाऊँ तो उठने से पहले एक गिलास ग्लूकोज पी लूँ, लौट कर पुनः ग्लूकोज का सेवन करूँ। डॉक्टरों ने यह भी खोज निकाला था कि मेरा रक्तचाप बढ़ा हुआ है। मैं सोचा करता था कि मेरा रक्तचाप मंद है, शायद बीसियों वर्ष पहले कभी नपवाया था। दवा के नाम पर केवल ग्लूकोज, ट्रायका (ट्रांक्यूलाइजर) और लिव 52 (आयुर्वेदिक)।
एक दिन बाल शैंपू करते समय लगा कि साँस उखड़ रही है। बालों पर शैंपू का गाढ़ा झाग बनते ही साँस उखड़ने लगी। बाथरूम में मैं अकेला था, हाथ-पाँव फूल गए। हाथों में बाल धोने की कुव्वत न रही। किसी तरह खुली हवा में बाल्कनी तक पहुँचा और वहाँ रखी कुर्सी पर निढाल हो गया। देर तक बैठा रहा। किसी को आवाज देने की न इच्छा थी न ताकत। साँस लेने पर महसूस हो रहा था, फेफड़ों में जैसे जख्म हो गए हैं।
शरीर के साथ अनहोनी घटनाओं का यह सिलसिला जारी रहा। डॉक्टरों का मत था कि यह सब मनोवैज्ञानिक है। एक दिन मैं दाँत साफ कर रहा था कि क्या देखता हूँ कि मुँह का स्वाद कसैला-सा हो रहा है। पानी से कुल्ला किया तो देखा मुँह से जैसे खून जा रहा हो। अचानक मसूढ़ों से रक्त बहने लगा। मुझे यह शिकायत कभी नहीं रही थी। मैंने सोचा मुँह का कैंसर हो गया है। घबराहट में जल्दी-जल्दी कुल्ला करता रहा, दो-चार कुल्लों के बाद सब सामान्य हो गया। अब आप ही बताएँ, यह भी क्या मनोविज्ञान का खेल था? अगर यह खेल था तो एक और दिलचस्प खेल शुरू हो गया। सोते-सोते अचानक अपने-आप टाँग ऊपर उठती और एक झटके के साथ नीचे गिरती। तुरंत नींद खुल जाती। दोनों टाँगों ने जैसे तय कर लिया था कि मुझे सोने नहीं देंगी। रात भर टाँगों की उठा-पटक चलती रहती और मेरा उन पर नियंत्रण नहीं रह गया था। डॉक्टरों से अपनी तकलीफ बतलाता तो वे 'मनोविज्ञान' कह कर टाल जाते अथवा इन्हें फकत 'विद्ड्राअल सिंप्टम्स' कह कर रफा-दफा कर देते। एक दिन पत्रकार मित्र प्रताप सोमवंशी ने फोन पर पूछा कि क्या मैं जाड़े में च्यवनप्राश का सेवन करता हूँ? 'हाँ तो' मैंने बताया कि जाड़े में सुबह दो-एक चम्मच दूध के साथ च्यवनप्राश जरूर ले लेता था कि भूख न लगे न सही, इसी बहाने कुछ पौष्टिक आहार हो जाता था। देखते-देखते मुझे भोजन से इतनी अरुचि हो गई थी कि एक कौर तक तोड़ने की इच्छा न होती। किसी तरह पानी से दो-एक चपाती निगल लेता था। अन्न से जैसे एलर्जी हो गई थी। बाद में माँ ने दलिया खाने का सुझाव दिया। मेरे लिए दूध में दलिया पकाया जाता और सुबह नाश्ते के तौर पर मैं वही खाता। आज भी खाता हूँ।
प्रताप ने बताया कि नेपाल से एक बुजुर्ग वैद्य जी आए हुए थे, उन्होंने बताया कि ज्यादातर लोगों को इस उम्र में यकृत बढ़ने से पक्षाघात हो जाया करता है, च्यवनप्राश का सेवन करनेवाले इस प्रकोप से बच जाते हैं। मैंने राहत की साँस ली वरना जिस कदर मेरी टाँगों को झटके लग रहे थे उससे यही आशंका होती थी कि अब अंतिम झटका लगने ही वाला है।
जब से माँ मेरे साथ थीं, होम्योपैथी का अध्ययन करने लगा था। अच्छी-खासी लायब्रेरी हो गई थी। माँ का वृद्ध शरीर था, कभी-भी कोई तकलीफ उभर आती। कभी कंधे में दर्द, कभी पेट में अफारा। घुटनों के दर्द से तो वह अक्सर परेशान रहतीं। कभी कब्ज और कभी दस्त। रात बिरात डॉक्टरों से संपर्क करने में कठिनाई होती। मैंने खुद इलाज करने की ठान ली और बाजार से होम्योपैथी की ढेरों पुस्तकें खरीद लाया। मेडिकल की पारिभाषिक शब्दावली समझने के लिए कई कोश खरीद लाया था। होम्योपैथी के अध्ययन में मेरा मन भी रमने लगा। केस हिस्ट्रीज का अध्ययन करते हुए उपन्यास पढ़ने जैसा आनंद मिलता। कुछ ही दिनों में मैं माँ का आपातकालीन इलाज स्वयं ही करने लगा। शहर के विख्यात होम्योपैथ डॉक्टरों से दोस्ती हो गई। उनका भी परामर्श ले लेता। कुछ ही दिनों में माँ का मेरी दवाओं में विश्वास जमने लगा। होम्योपैथी पढ़ने का अप्रत्यक्ष लाभ मुझे भी मिला। बीमार पड़ने से पूर्व ही मैं स्नायविक दुर्बलता पर एक कोर्स कर चुका था। शायद यही कारण था कि टाँग के झटकों से मुझे ज्यादा घबराहट नहीं हो रही थी। मैं खामोशी से अपना समानांतर इलाज करता रहा। बीच-बीच में डॉक्टर शांगलू से परामर्श ले लेता। यकृत के इलाज के लिए दो औषधियाँ मैंने ढूँढ़ निकाली थीं। आयुर्वेदिक पुनर्नवा के बारे में मुझे डॉक्टर हरदेव बाहरी ने बताया था और होम्योपैथिक कैलिडोनियम के बारे में मुझे पहले से जानकारी थी। इन दवाओं से आश्चर्यजनक रूप से लाभ होने लगा। अब मैं अपनी तकलीफ के प्रत्येक लक्षण को होम्योपैथी के ग्रंथों में खोजता। होम्योपैथी में लक्षणों से ही रोग को टटोला जाता है। कई बार किसी औषधि के बारे में पढ़ते हुए लगता जैसे उपन्यास पढ़ रहा हूँ। होम्योपैथी में झूठ बोलना भी एक लक्षण है, शक करना भी। पढ़ते-पढ़ते अचानक मन में चरित्र उभरने लगते। मैंने तय कर रखा था कि स्वस्थ होने पर शुद्ध होम्योपैथिक कहानी लिखूँगा - शीर्षक अभी से सोच रखा है। जितना पुराना साथ शराब का था उससे कम साथ अपनी पीढ़ी के कथाकारों का नहीं था। अपने साथियों की मैं रग-रग पहचानने का दंभ भर सकता हूँ। शायद यही कारण है कि मैंने दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन और काशी के लिए उपयुक्त होम्योपैथिक औषधियाँ खोज रखी हैं। कई बार तो किसी महिला मित्र से बात करते-करते अचानक यह विचार कौंधता है कि इसे पल्सटिला-200 की जरूरत है।
अपनी बीमारी के दौरान डॉक्टरों का मनोविज्ञान समझने में खूब मदद मिली। शहर के अधिसंख्य डॉक्टर मुझसे फीस नहीं लेते थे। घर आ कर देख भी जाते थे। उनके क्लीनिक में जाता तो 'आउट आफ टर्न' तुरंत बुलवा लेते। पत्रकार लेखक होने के फायदे थे, जिनका मैंने भरपूर लाभ उठाया। कुछ डॉक्टर ऐसे भी थे, जो फीस नहीं लेते थे मगर हजारों रुपए के टेस्ट लिख देते थे। डॉक्टर विशेष से ही अल्ट्रासाउंड कराने पर जोर देते। मुझे लगता है, वह फीस ले लेते तो सस्ता पड़ता। कमीशन ही उनकी फीस थी।
इसी क्रम में और भी कई दिलचस्प अनुभव हुए। एक दिन डॉक्टर निगम के यहाँ वजन लिया तो साठ किलो था, रास्ते में रक्तचाप नपवाने के लिए दूसरे डॉक्टर के यहाँ रुका तो उसकी मशीन ने 58 किलो वजन बताया। सच्चाई जानने के लिए कालोनी के एक नर्सिंग होम में वजन लिया तो 56 किलो रह गया। तीन डॉक्टरों की मशीनें अलग-अलग वजन बता रही थीं। यही हाल रक्तचाप का था। हर डॉक्टर अलग रक्तचाप बताता। करोड़ों रुपयों की लागत से बने नर्सिंग होम्स में भी वजन और रक्तचाप के मानक उपकरण नहीं थे। इनके अभाव में कितना सही उपचार हो सकता है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। आखिर मैंने तंग आ कर रक्तचाप और वजन लेने के सर्वोत्तम उपलब्ध उपकरण खरीद लिए। एक ही मशीन पर भरोसा करना ज्यादा मुनासिब लगा। एक मशीन गलत हो सकती है मगर धोखा नहीं दे सकती। वजन बढ़ रहा है या कम हो रहा है, मशीन इतनी प्रामाणिक जानकारी तो दे ही सकती है।
खाट पर लेटे-लेटे मैं कुछ ही दिनों में अपने दफ्तर का भी संचालन करने लगा। हिम्मत होती तो जी भर कर समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, साहित्य पढ़ता, टेलीविजन देखता और सोता। सुबह-शाम मिजाजपुर्सी करने वालों का ताँता लगा रहता। दिल्ली से ममता का एक प्रकाशक आया तो मुझे बातचीत करते देख बहुत हैरान हुआ। उसने बताया कि दिल्ली में तो सुना था कि आप अचेत पड़े हैं और कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। शहर में भी ऐसी कुछ अफवाहें थीं। मुझे मालूम है कि जिसको आप जितना चाहते हैं, उसके बारे में उतनी ही आशंकाएँ उठती हैं। कई बार आदमी अपने को अनुशासन में बाँधने के लिए स्थितियों की भयावह परिणति की कल्पना कर लेता है। मगर मैं अभी मरना नहीं चाहता था - स्वस्थ हो कर मरना चाहता था। मुझे लगता था कि इस बीच चल बसा तो लोग यही सोचेंगे कि एक लेखक नहीं, एक शराबी चल बसा। अभी हाल में इंदौर में श्रीलाल शुक्ल ने भी ऐसी ही आशंका प्रकट की थी। वह बहुत सादगी से बोले, 'देखो रवींद्र, मैं चौहत्तर वर्ष का हो गया हूँ। अब अगर मर भी गया तो लोग यह नहीं कहेंगे कि एक शराबी मर गया - मरने के लिए यह एक प्रतिष्ठाजनक उम्र है, क्यों?'
चिड़चिड़ेपन से मुझे हमेशा सख्त नफरत है। जिन लोगों के चेहरे में चिड़चिड़ापन देखता हूँ, उनसे हमेशा दूर ही भागता हूँ। बीमारी के दौरान मैं यह भी महसूस कर रहा था कि मैं भी किचकिची होता जा रहा हूँ। छोटी-सी बात पर किचाइन करने लगता। मेरे पास एक सुविधाजनक जवाब था। अपनी तमाम खामियों को मैं 'विद्ड्राअल सिंप्टम्स' के खाते में डाल कर निश्चिंत हो जाता। एक दिन वाराणसी से काशीनाथ सिंह मुझे देखने आया। बहुत अच्छा लगा कि शहर के बाहर भी कोई खैरख्वाह है।
'अब जीवन में कभी दारू मत छूना।' काशी ने भोलेपन से हिदायत दी। काशी हम चारों में सबसे अधिक सरल व्यक्ति हैं, मगर मैं उसकी इस बात पर अचानक ऐंठ गया।
'देखो काशी, मैंने पीना छोड़ा है, इसका निर्णय खुद लिया है। किसी के कहने से न पीना छोड़ा है, न शुरू करूँगा।'
काशी स्तब्ध। उसे लगा होगा, मेरा दिमाग भी चल निकला है। सद्भावना में कही गई बात भी मेरे हलक के नीचे नहीं उतर रही थी। जाने दिमाग में क्या फितूर सवार हो गया कि मैं देर तक काशी से इसी बात पर जिरह करता रहा। काशी लौट गया। मुझे बहुत ग्लानि हुई। आपका कोई भी हितैषी आप को यही राय देता यह दूसरी बात है कि बहुत से मित्र मुझे बहलाने के लिए यह भी कह देते थे कि जिगर बहुत जल्दी ठीक होता है, आश्चर्यजनक रूप से 'रिकूप' करता है, महीने-दो महीने में पीने लायक हो जाओगे।
मगर मैं तय कर चुका था कि, अब और नहीं पिऊँगा। इस जिंदगी में छक कर पी ली है। अपने हिस्से की तो पी ही, अपने पिता के हिस्से की भी पी डाली। यही नहीं, बच्चों के भविष्य की चिंता में उनके हिस्से की भी पी गया। दरअसल मेरे ऊपर कुछ ज्यादा ही जिम्मेदारियाँ थीं।
मैंने अत्यंत ईमानदारी से इन जिम्मेदारियों का निर्वाह किया था। भूले-भटके कहीं से फोकट की आमदनी हो जाती, मेरा मतलब है रायल्टी आ जाती या पारिश्रमिक तो मैं केवल दारू खरीदने की सोचता। यहाँ दारू शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूँ कि यह एक बहुआयामी शब्द है, इसके अंतर्गत सब कुछ आ जाता है जैसे व्हिस्की, रम, जिन, वाइन, बियर आदि। इस पक्ष की तरफ मैंने कभी ध्यान नहीं दिया कि मेरे पास जूते हैं या नहीं, बच्चों के कपड़े छोटे हो रहे हैं या उन्हें किसी खिलौने की जरूरत हो सकती है। यह विभाग ममता के जिम्मे था। वह अपने विभाग का सही संचालन कर रही थी। मैं पहली फुर्सत में दारू का स्टाक खरीद कर कुछ दिनों के लिए निश्चिंत हो जाता। घर में दारू का अभाव मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता था। मुझे न सोना आकर्षित करता था, न चाँदी। फिल्म में मेरा मन न लगता था, नाटक तो मुझे और भी बेहूदा लगता था। संगीत में मन जरूर रम जाता था। देखा जाए तो मद्यपान ही मेरे जीवन की एक मात्र सच्चाई थी। मद्यपान एक सामाजिक कर्म है, समाज से कट कर मद्यपान नहीं किया जा सकता। जो लोग ऐसा करते हैं वह आत्मरति करते हैं। वे पद्य की रचना तो कर सकते हैं, गद्य की नहीं। मद्यपान से मुझे अनेक शिक्षाएँ मिली थीं। सबसे बड़ी शिक्षा तो यही कि सादा जीवन उच्च विचार। यानी सादी पोशाक और सादःलौह जीवन। बहुत से लोगों को भ्रम हो जाता था कि मैं सादःलौह नहीं सादःपुरकार (देखने में भोले हो पर हो बड़े चंचल) हूँ। कुर्ता पायजामा मेरा प्रिय परिधान रहा है। गांधी जयंती पर जब खादी भवन में खादी पर तीस-पैंतीस प्रतिशत छूट मिलती तो ममता साल भर के कुर्ते पायजामे सिलवा देती। उसे कपड़े खरीदने का जुनून रहता है। अपने लिए साड़ियाँ खरीदती तो मेरे लिए भी बड़े चाव से शर्ट वगैरह खरीद लाती। मेरी डिब्बा खोल कर शर्ट देखने की इच्छा न होती। वह चाव से दिखाती, मैं अफसुर्दगी से देखता और पहला मौका मिलते ही आलमारी में ठूँस देता। आज भी दर्जनों कमीजें और अफगान सूट मेरी आलमारी की शोभा बढ़ा रहे हैं। मुझे खुशी होती जब बच्चे मेरा कोई कपड़ा इस्तेमाल कर लेते। अन्नू काम करने लगा तो वह भी माँ के नक्शेकदम पर मेरे लिए कपड़े खरीदने लगा। वे कपड़े उसके ही काम आए होंगे या आएँगे या मेरी वार्डरोब में पड़े रहेंगे।
विद्ड्राअल सिंप्टम्स के वापस लौटने से तबीयत में सुधार आने लगा। सबसे अच्छा यह लगा कि मुझे दारू की गंध से ही वितृष्णा होने लगी। शराबी से बात करने पर उलझन होने लगी। शराब किसी धूर्त प्रेमिका की तरह मन से पूरी तरह उतर गई। शराब देख कर लार टपकना बंद हो गया। मैं आजाद पंछी की तरह अपने को मुक्त महसूस करने लगा। शारीरिक और मानसिक नहीं, आर्थिक स्थिति में भी सुधार दिखाई देने लगा। एक जमाना था, शराब के चक्कर में जीवन बीमा तक के चेक 'बाऊंस' हो जाते थे। कोई बीस साल पहले मैंने खेल ही खेल में गंगा तट पर आवास विकास परिषद से किस्तों पर एक भवन लिया था। उन दिनों मुझे गंगा स्नान का चस्का लग गया था। मैं और ममता सुबह-सुबह रानी मंडी से रसूलाबाद घाट पर स्नान करने आया करते थे। रानी मंडी से रसूलाबाद घाट नौ दस किलोमीटर दूर था, सुबह-सुबह मुँह अँधेरे स्कूटर पर आना बहुत अच्छा लगता। घाट के पास ही मेंहदौरी कालोनी थी। उन दिनों फूलपुर में इफ्को के एशिया के सबसे बड़े खाद कारखाने का निर्माण चल रहा था। विदेशों से आए विशेषज्ञ मेंहदौरी कालोनी में ही ठहराए गए थे। दो-एक वर्ष में ये विशेषज्ञ लौट गए तो सरकार ने इन भवनों का आवंटन प्रारंभ कर दिया। शहर की चहल-पहल और हलचल से दूर एकांत स्थान पर जा बसने का जोखिम बहुत कम लोगों ने उठाया। मैंने एक हसीन सपना देखा कि गंगा तट पर बैठ कर अनवरत लेखन करूँगा। मन ही मन मैंने संपूर्ण जीवन साहित्य के नाम दर्ज कर दिया और नागार्जुन की पंक्तियाँ जेहन में कौंधने लगीः
चंदू , मैंने सपना देखा , फैल गया है सुजश तुम्हारा ,
चंदू, मैंने सपना देखा , तुम्हें जानता भारत सारा।
मैंने मंत्री के नाम एक पत्र प्रेषित किया कि हमारे ऋषि मुनि सदियों से पावन नदियों के तट पर बैठ कर साधना-आराधना करते रहे हैं, मैं भी इसी परंपरा में गंगा तट पर साहित्य सेवा करना चाहता हूँ, मेरा यह संकल्प तभी पूरा होगा यदि मेंहदौरी कालोनी का एक भवन किस्तों पर मेरे नाम आवंटित कर दिया जाय। उन दिनों समाज में लेखकों के प्रति आज जैसा उदासीनता का भाव न था। मेरे आश्चर्य की सीमा न रही जब शीघ्र ही भवन के आवंटन का पत्र मुझे प्राप्त हो गया। केवल पाँच हजार रुपए का भुगतान करने पर भवन का कब्जा भी मिल गया। शुरू में मैंने साल-छह महीने तक निष्ठापूर्वक किस्तों का भुगतान किया, उसके बाद नियमित रूप से किस्तें भरने का उत्साह भंग हो गया। ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न थी। बकाया राशि और सूद बढ़ने लगा। लिखना-पढ़ना तो दरकिनार, सप्ताहांत पर मदिरापान करने के लिए एक रंग भवन आकार लेने लगा। मौज-मस्ती का एक नया अड्डा मिल गया। हम लोग शनिवार को आते और सोमवार सुबह गंगा स्नान करते हुए रानी मंडी लौट जाते। ब्याज और दंड ब्याज की राशि पचास हजार के आस-पास हो गई। यह भवन हाथ से निकल जाता अगर मेरे हमप्याला वकील दोस्त उमेशनारायण शर्मा, जो बाद में वर्षों तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय में भारत सरकार के वरिष्ठ स्थायी अधिवक्ता रहे, मुझे कानूनी मदद न पहुँचाते। मयपरस्ती ने जिंदगी में बहुत गुल खिलाए। अपने इस इकलौते शौक के कारण बहुत तकलीफें झेलीं, बहुत सी यंत्रणाओं से गुजरना पड़ा, बकाएदारी के चक्कर में कुर्की के आदेशों को निरस्त करवाना पड़ा। मगर जिंदगी की गाड़ी सरकती रही, एक पैसेंजर गाड़ी की तरह रफ्तः रफ्तः, हर स्टेशन पर रुकते हुए। कई बार तो एहसास होता कि मैं बगैर टिकट के इस गाड़ी में यात्रा कर रहा हूँ।
बीमारी के दौरान मुझे आत्म-अन्वेषण के लिए काफी समय मिला। यादों की राख टटोलने के अलावा कोई दूसरा काम भी न था। अपनी खामियों और कमीनगियों पर ध्यान गया। मुझे लगा, मैं काफी स्वार्थी किस्म का इनसान हूँ। ममता ने मुझे घर की जिम्मेदारियों से मुक्त कर रखा था। यह मेरी चिंता का विषय नहीं था कि घर में राशन है या नहीं, बच्चों की फीस वक्त पर जा रही है या नहीं, मुझे अगर कोई चिंता रहती थी तो केवल अपने दारू के स्टाक की, प्रेस कर्मियों के वेतन की, कर्ज के किस्तों के भुगतान की, बिजली टेलीफोन और स्याही के बिल की। मेरे अपने निजी अखराजात इतने ज्यादा बढ़ गए थे कि मैं घर-गृहस्थी के बारे में सोच भी न सकता था।
चालीस-पचास रुपए रोज तो मेरे सिगरेट का खर्च था, दारू का खर्च इससे कहीं ज्यादा। जाहिर है, हर वक्त तंगदस्ती में रहता। मद्यपान के अलावा मैं हर चीज में कटौती कर सकता था। मेरी सारी ऊर्जा इन्हीं चीजों की व्यवस्था करने में शेष हो जाती। सुबह से शाम तक मैं बैल की तरह प्रेस के कोल्हू में जुता रहता, फिर भी पूरा न पड़ता तो बेईमानी पर उतर आता। यह सोच कर आज भी ग्लानि में आकंठ डूब जाता हूँ कि माँ अपनी दवा के लिए पैसा देतीं तो मैं निःसंकोच ले लेता। वक्त जरूरत उनके हिसाब-किताब में गड़बड़ी भी कर लेता। कहना गलत न होगा, बड़ी तेजी से मेरा नैतिक पतन हो रहा था। अपनी बूढ़ी माँ के झुर्रियों भरे चेहरे के बीच अपनी बीमारी की रेखाएँ देखता तो करवट बदल लेता। जब से बीमार पड़ा था, रात को उनके पास सोता था। सुबह उठता तो वह कहतीं, कितने कमजोर हो गए हो, रात भर में एक भी बार करवट नहीं बदलते। जिस करवट सोते हो, रात भर उसी करवट पड़े रहते हो। मुझे नहीं मालूम अब स्वस्थ होने के बाद रात में करवट बदलता हूँ या नहीं। अब माँ भी नहीं हैं, यह बताने के लिए। वैसे मुझे लगता है कि करवटें बदलने की भी एक उम्र होती है। एक उम्र ऐसी भी आती है कि किसी करवट आराम नहीं मिलता। बीमारी के दौरान मेरी माँ की पूरी चेतना मुझ पर केंद्रित थी, वह अपनी तकलीफों को भूल गई थीं। आज भी यह बार-बार एहसास होता है कि यह उनका आशीर्वाद था कि मैं मौत के मुँह से लौट आया। देखते-देखते मेरी दुनिया बदल गई। मेरा सूरज बदल गया, चाँद और सितारे बदल गए। दिनचर्या बदल गई। मैं एक ऐसा पंछी था जो सूरज ढलते ही चहकने लगता था, धीरे-धीरे वह चहचहाहट बंद हो गई। मेरी फितरत बदल गई, दोस्त बदल गए, प्रेमिकाएँ बदल गईं। मेरे डिनर के दोस्त लंच या नाश्ते के दोस्त बन गए। हरामुद्दहर किस्म के दोस्तों से मेरी ज्यादा पटती थी, अब राजा बेटे किस्म के दोस्तों के संग ज्यादा समय बीतने लगा। शरीफ, ईमानदार और वफादार किस्म के दोस्तों के बीच जाने क्यों मेरा दम घुटता है। हमप्याला दोस्तों के बीच जो बेतकल्लुफी और घनिष्ठता विकसित हो जाती है, वह हमनिवाला दोस्तों के बीच संभव ही नहीं। एक औपचारिकता, एक बेगानापन, एक फासला बना रहता है। सच तो यह है आज भी मेरा मन शराबियों के बीच ज्यादा लगता है।
छह महीने में मैं इस लायक हो गया कि शहर से बाहर भी निकलने लगा। सबसे पहले लखनऊ जाना हुआ। कथाक्रम 1997 में। देशभर से साथी रचनाकार आए हुए थे, सबसे मुलाकात हो गई। मैं एक बदला हुआ रवींद्र कालिया था। सागरो-मय तो मेरे हाथ में था, मगर मयगुसार की हैसियत से नहीं। साकी की हैसियत से। गोष्ठियों के बाद मैंने साथी कथाकारों की पेशेवर तरीके से खिदमत की। किसी का गिलास खाली न रहने दिया। सबके प्याले पर मेरी निगरानी थी। यह मेरे लिए एक नया अनुभव था। गेस्ट हाउस का कमरा लेखकों से ठसाठस भरा था। हर कोई मेरा मोहताज था। वह श्रीलाल शुक्ल हों या राजेंद्र यादव, दूधनाथ सिंह हों या कामतानाथ। विभूतिनारायण राय, सृंजय, संजय खाती, वीरेंद्र यादव, अखिलेश आदि नई पीढ़ी के तमाम कथाकार वहाँ मौजूद थे।
पीता हूँ रोज़े-अब्रो-शबे-माहताब में
13 अप्रैल 1997। बैसाखी का पर्व। पिछले चालीस बरसों से बैसाखी मनाता आ रहा था। वैसे तो हर शब बैसाखी की शब होती थी, मगर तेरह अप्रैल को कुछ ज्यादा ही हो जाती थी। दोपहर को बियर अथवा जिन और शाम को मित्रों के बीच का दौर। मस्ती में कभी-कभार भाँगड़ा भी हो जाता और अंत में किसी पंजाबी ढाबे में भोजन, ड्राइवरों के बीच। जेब ने इजाजत दी तो किसी पाँच सितारा होटल में सरसों का साग और मकई की रोटी। इस रोज दोस्तों के यहाँ भी दावतें कम न हुई होंगी और ममता ने भी व्यंजन पुस्तिका पढ़ कर छोले भटूरे कम न बनाए होंगे।
मगर आज की शाम, 1997 की बैसाखी की शाम कुछ अलग थी। सूरज ढलते ही सागरो-मीना मेरे सामने हाजिर थे। आज दोस्तों का हुजूम भी नहीं था - सब निमंत्रण टाल गया और खुद भी किसी को आमंत्रित नहीं किया। पिछले साल इलाहाबाद से दस-पंद्रह किलोमीटर दूर इलाहाबाद-रीवाँ मार्ग पर बाबा ढाबे में महफिल सजी थी और रात दो बजे घर लौटे थे। आज माहौल में अजीब तरह की दहशत और मनहूसियत थी। जाम बनाने की बजाए मैं मुँह में थर्मामीटर लगाता हूँ। धड़कते दिल से तापमान देखता हूँ - वही 99.3। यह भी भला कोई बुखार हुआ। एक शर्मनाक बुखार। न कम होता है, न बढ़ता है। बदन में अजीब तरह की टूटन है। यह शरीर का स्थायी भाव हो गया है - चौबीसों घंटे यही आलम रहता है। भूख कब की मर चुकी है, मगर पीने को जी मचलता है। पीने से तनहाई दूर होती है, मनहूसियत से पिंड छूटता है, रगों में जैसे नया खून दौड़ने लगता है। शरीर की टूटन गायब हो जाती है और नस-नस में स्फूर्ति आ जाती है। एक लंबे अरसे से मैंने जिंदगी का हर दिन शाम के इंतजार में गुजारा है, भोजन के इंतजार में नहीं। अपनी सुविधा के लिए मैंने एक मुहावरा भी गढ़ लिया था - शराबी दो तरह के होते हैं : एक खाते-पीते और दूसरे पीते-पीते। मैं खाता-पीता नहीं, पीता-पीता शख्स था। मगर जिंदगी की हकीकत को जुमलों की गोद में नहीं सुलाया जा सकता। वास्तविकता जुमलों से कहीं अधिक वजनदार होती है। मेरे जुमले भारी होते जा रहे थे और वजन हल्का। छह फिट का शरीर छप्पन किलो में सिमट कर रह गया था। इसकी जानकारी भी आज सुबह ही मिली थी। दिन में डॉक्टर ने पूछा था - पहले कितना वजन था? मैं दिमाग पर जोर डाल कर सोचता हूँ, कुछ याद नहीं आता। यकायक मुझे एहसास होता है, मैंने दसियों वर्ष से अपना वजन नहीं लिया, कभी जरूरत ही महसूस न हुई थी। डॉक्टर की जिज्ञासा से यह बात मेरी समझ में आ रही थी कि छह फुटे बदन के लिए छप्पन किलो काफी शर्मनाक वजन है। जब कभी कोई दोस्त मेरे दुबले होते जा रहे बदन की ओर इशारा करता तो मैं टके-सा जवाब जड़ देता - बुढ़ापा आ रहा है।
मैं एक लंबे अरसे से बीमार नहीं पड़ा था। यह कहना भी गलत न होगा कि मैं बीमार पड़ना भूल चुका था। याद नहीं पड़ रहा था कि कभी सर दर्द की दवा भी ली हो। मेरे तमाम रोगों का निदान दारू थी, दवा नहीं। कभी खाट नही पकड़ी थी, वक्त जरूरत दोस्तों की तीमारदारी अवश्य की थी। मगर इधर जाने कैसे दिन आ गए थे, जो मुझे देखता मेरे स्वास्थ्य पर टिप्पणी अवश्य कर देता। दोस्त-अहबाब यह भी बता रहे थे कि मेरे हाथ काँपने लगे हैं। होम्योपैथी की किताब पढ़ कर मैं जैलसीमियम खाने लगा। अपने डॉक्टर मित्रों के हस्तक्षेप से मैं आजिज आ रहा था। डॉ. नरेंद्र खोपरजी और अभिलाषा चतुर्वेदी जब भी मिलते क्लीनिक पर आने को कहते। मैं हँस कर उनकी बात टाल जाता। वे लोग मेरा अल्ट्रासाउंड करना चाहते थे और इस बात से बहुत चिंतित हो जाते थे कि मैं भोजन में रुचि नहीं लेता। मैं महीनों डॉक्टर मित्रों के मश्वरों को नजरअंदाज करता रहा। उन लोगों ने नया-नया 'डॉप्लर' अल्ट्रासाउंड खरीदा था - मेरी भ्रष्ट बुद्धि में यह विचार आता कि ये लोग अपने पचीस-तीस लाख के 'डॉप्लर' का रोब गालिब करना चाहते हैं। शहर के तमाम डॉक्टर मेरे हमप्याला और हमनिवाला थे। मगर कितने बुरे दिन आ गए थे कि जो भी डॉक्टर मिलता, अपनी क्लीनिक में आमंत्रित करता। जो पैथालोजिस्ट था, वह लैब में बुला रहा था और जो नर्सिंगहोम का मालिक था, वह चैकअप के लिए बुला रहा था। डॉक्टरों से मेरा तकरार एक अर्से तक चलता रहा। लुका-छिपी के इस खेल में मैंने महारत हासिल कर ली थी। डॉक्टर मित्र आते तो मैं उन्हें अपनी माँ के मुआइने में लगा देता। माँ का रक्तचाप लिया जाता, तो वह निहाल हो जातीं कि बेटा उनका कितना ख्याल कर रहा है। बगैर मेरी माँ की खैरियत जाने कोई डॉक्टर मित्र मेरे कमरे की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ सकता था। क्या मजाल कि मेरा कोई भी मित्र उनका हालचाल लिए बगैर सीढ़ियाँ चढ़ जाए; वह जिलाधिकारी हो या पुलिस अधीक्षक अथवा आयुक्त। माँ दिन भर हिंदी में गीता और रामायण पढ़तीं मगर हिंदी बोल न पातीं, मगर वह टूटी-फूटी पंजाबी मिश्रित हिंदी में ही संवाद स्थापित कर लेतीं। धीरे-धीरे मेरे हमप्याला हमनिवाला दोस्तों का दायरा इतना वसीह हो गया था कि उसमें वकील भी थे और जज भी। प्राशासनिक अधिकारी थे तो उद्यमी भी, प्रोफेसर थे तो छात्र भी। ये सब दिन ढले के बाद के दोस्त थे। कहा जा सकता है कि पीने-पिलानेवाले दोस्तों का एक अच्छा-खासा कुनबा बन गया था। शाम को किसी न किसी मित्र का ड्राइवर वाहन ले कर हाजिर रहता अथवा हमारे ही घर के बाहर वाहनों का ताँता लग जाता। सब दोस्तों से घरेलू रिश्ते कायम हो चुके थे। सुभाष कुमार इलाहाबाद के आयुक्त थे तो इस कुनबे को गिरोह के नाम से पुकारा करते थे। आज भी फोन करेंगे तो पूछेंगे गिरोह का क्या हालचाल है।
आज बैसाखी का दिन था और बैसाखी की महफिल उसूलन हमारे यहाँ ही जमनी चाहिए थी। मगर सुबह-सुबह ममता और मन्नू घेरघार कर मुझे डॉ. निगम के यहाँ ले जाने में सफल हो गए थे। दिन भर टेस्ट होते रहे थे। खून की जाँच हुई, अल्ट्रासाउंड हुआ, एक्सरे हुआ, गर्ज यह कि जितने भी टेस्ट संभव हो सकते थे, सब करा लिए गए। रिपोर्ट वही थी, जिसका खतरा था - यानी लिवर (यकृत) बढ़ गया था। दिमागी तौर पर मैं इस खबर के लिए तैयार था, कोई खास सदमा नहीं लगा।
'आप कब से पी रहे हैं?' डॉक्टर ने तमाम कागजात देखने के बाद पूछा।
'यही कोई चालीस वर्ष से।' मैंने डॉक्टर को बताया, 'पिछले बीस वर्ष से तो लगभग नियमित रूप से।'
'रोज कितने पेग लेते हैं?'
मैंने कभी इस पर गौर नहीं किया था। इतना जरूर याद है कि एक बोतल शुरू में चार-पाँच दिन में खाली होती थी, बाद में दो-तीन दिन में और इधर दो-एक दिन में। कम पीने में यकीन नहीं था। कोशिश यही थी कि भविष्य में और भी अच्छी ब्रांड नसीब हो। शराब के मामले में मैं किसी का मोहताज नहीं रहना चाहता था, न कभी रहा। इसके लिए मैं कितना भी श्रम कर सकता था। भविष्य में रोटी नहीं, अच्छी शराब की चिंता थी।
'आप जीना चाहते हैं तो अपनी आदतें बदलनी होंगी।' डॉक्टर ने दो टूक शब्दों में आगाह किया, 'जिंदगी या मौत में से आप को एक का चुनाव करना होगा।'
डॉक्टर की बात सुन कर मुझे हँसी आ गई। मूर्ख से मूर्ख आदमी भी जिंदगी या मौत में से जिंदगी का चुनाव करेगा।
'आप हँस रहे हैं, जबकि मौत आप के सर पर मँडरा रही है।' डॉक्टर को मेरी मुस्कुराहट बहुत नागवार गुजरी।
'सॉरी डॉक्टर! मैं अपनी बेबसी पर हँस रहा था। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि यह दिन भी देखना पड़ेगा।'
'आप यकायक पीना नहीं छोड़ पाएँगे। इतने बरसों बाद कोई भी नहीं छोड़ सकता। शाम को एकाध, हद से हद दो पेग ले सकते हैं। डॉक्टर साहब ने बताया कि मैं 'विद्ड्राअल सिंप्टम्स' (मदिरापान न करने से उत्पन्न होनेवाले लक्षण) झेल न पाऊँगा।'
इस वक्त मेरे सामने नई बोतल रखी थी और कानों में डॉक्टर निगम के शब्द कौंध रहे थे। मुझे जलियाँवाला बाग की खूनी बैसाखी की याद आ रही थी। लग रहा था कि रास्ते बंद हैं सब, कूचा-ए-कातिल के सिवा। चालीस वर्ष पहले मैंने अपना वतन छोड़ दिया था और एक यही बैसाखी का दिन होता था कि वतन की याद ताजा कर जाता था।
बचपन में ननिहाल में देखी बैसाखी की 'छिंज' याद आ जाती। चारों तरफ उत्सव का माहौल, भाँगड़ा और नगाड़े। मस्ती के इस आलम में कभी-कभार खूनी फसाद हो जाते, रंजिश में खून तक हो जाते। हम सब लोग हवेली की छत से सारा दृश्य देखते। नीचे उतरने की मनाही थी। अक्सर मामा लोग आँखें तरेरते हुए छत पर आते और माँ और मौसी तथा मामियों को भी मुँडेर से हट जाने के लिए कहते। बैसाखी पर जैसे पूरे पंजाब का खून खौल उठता था। जालंधर, हिसार, दिल्ली, मुंबई और इलाहाबाद में मैंने बचपन की ऐसी ही अनेक यादों को सहेज कर रखा हुआ था। आज थर्मामीटर मुझे चिढ़ा रहा था। गिलास, बोतल और बर्फ की बकट मेरे सामने जैसे मुर्दा पड़ी थीं।
मैने सिगरेट सुलगाया और एक झटके से बोतल की सील तोड़ दी।
'आखिर कितना पिओगे रवींद्र कालिया?' सहसा मेरे भीतर से आवाज उठी।
'बस यही एक या दो पेग।' मैंने मन ही मन डॉक्टर की बात दोहराई।
'तुम अपने को धोखा दे रहे हो।' मैं अपने आप से बातचीत करने लगा, 'शराब के मामले में तुम निहायत लालची इनसान हो। दूसरे से तीसरे पेग तक पहुँचने में तुम्हें देर न लगेगी। धीरे-धीरे वही सिलसिला फिर शुरू हो जाएगा।'
मैंने गिलास में बर्फ के दो टुकड़े डाल दिए, जबकि बर्फ मदिरा ढालने के बाद डाला करता था। बर्फ के टुकड़े देर तक गिलास में पिघलते रहे। बोतल छूने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। भीतर एक वैराग्य भाव उठ रहा था, वैराग्य, निःसारता और दहशत का मिला-जुला भाव। कुछ वैसा आभास भी हो रहा था जो भरपेट खाने के बाद भोजन को देख कर होता है। एक तृप्ति का भी एहसास हुआ। क्षण भर के लिए लगा कि अब तक जम कर पी चुका हूँ, पंजाबी में जिसे छक कर पीना कहते हैं। आज तक कभी तिशना-लब न रहा था। आखिर यह प्यास कब बुझेगी? जी भर चुका है, फकत एक लालच शेष है।
मेरे लिए यह निर्णय की घड़ी थी। नीचे मेरी बूढ़ी माँ थीं - पचासी वर्षीया। जब से पिता का देहांत हुआ था, वह मेरे पास थीं। बड़े भाई कैनेडा में थे और बहन इंगलैंड में। पिता जीवित थे तो वह उनके साथ दो बार कैनेडा हो आई थीं। एक बार तो दोनों ने माइग्रेशन ही कर लिया था, मन नहीं लगा तो लौट आए। दो-एक वर्ष पहले भाभी भाई तीसरी बार कैनेडा ले जाना चाहते थे, मगर वय को देखते हुए वीजा न मिला।
मेरे नाना की ज्योतिष में गहरी दिलचस्पी थी। माँ के जन्म लेते ही उनकी कुंडली देख कर उन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी कि बिटिया लंबी उम्र पाएगी और किसी तीर्थ स्थान पर ब्रह्मलीन होगी। हालात जब मुझे प्रयाग ले आए और माँ साथ में रहने लगीं तो अक्सर नाना की बात याद कर मन को धुकधुकी होती। पिछले ग्यारह बरसों से माँ मेरे साथ थीं। बहुत स्वाभिमानी थीं और नाजुकमिजाज। आत्मनिर्भर। जरा-सी बात से रूठ जातीं, बच्चों की तरह। मुझसे ज्यादा उनका संवाद ममता से था। मगर सास-बहू का रिश्ता ही ऐसा है कि सब कुछ सामान्य होते हुए भी असामान्य हो जाता है। मैं दोनों के बीच संतुलन बनाए रखता। माँ को कोई बात खल जाती तो तुरंत सामान बाँधने लगतीं यह तय करके कि अब शेष जीवन हरिद्वार में बिताएँगी। चलने-फिरने से मजबूर हो गईं तो मेहरी से कहतीं - मेरे लिए कोई कमरा तलाश दो, अलग रहूँगी, यहाँ कोई मेरी नहीं सुनता। अचानक मुझे लगा कि अगर मैं न रहा तो इस उम्र में माँ की बहुत फजीहत हो जाएगी। वह जब तक जीं अपने अंदाज से जीं; अंतिम दिन भी स्नान किया और दान पुण्य करती रहीं, यहाँ तक कि डॉक्टर का अंतिम बिल भी वह चुका गईं, यह भी बता गईं कि उनकी अंतिम संस्कार के लिए पैसा कहाँ रखा है। मुझे स्वस्थ होने की दुआएँ दे गईं और खुद चल बसीं।
गिलास में बर्फ के टुकड़े पिघल कर पानी हो गए थे। मुझे अचानक माँ पर बहुत प्यार उमड़ा। मैं गिलास और बोतल का जैसे तिरस्कार करते हुए सीढ़ियाँ उतर गया। माँ लेटी थीं। वह एम.एस. सुब्बलक्ष्मी के स्वर में विष्णुसहस्रनाम का पाठ सुनते-सुनते सो जातीं। कमरे में बहुत धीमे स्वर में विष्णुसहस्रनाम का पाठ गूँज रहा था और माँ आँखें बंद किए बिस्तर पर लेटी थीं। मैंने उनकी गोद में बच्चों की तरह सिर रख दिया। वह मेरे माथे पर हाथ फेरने लगीं, फिर डरते-डरते बोलीं - 'किसी भी चीज की अति बुरी होती है।' मैं माँ की बात समझ रहा था कि किस चीज की अति बुरी होती है। न उन्होंने बताया न मैंने पूछा। मद्यपान तो दूर, मैंने माँ के सामने कभी सिगरेट तक नहीं पी थी। किसी ने सच ही कहा है कि माँ से पेट नहीं छिपाया जा सकता। मैं माँ की बात का मर्म समझ रहा था, मगर समझ कर भी शांत था। आज तक मैंने किसी को भी अपने जीवन में हस्तक्षेप करने की छूट नहीं दी थी, मगर माँ आज यह छूट ले रही थीं, और मैं शांत था। आज मेरा दिमाग सही काम कर रहा था, वरना मैं अब तक भड़क गया होता। मुझे लग रहा था, माँ ठीक ही तो कह रही हैं। कितने वर्षों से मैं अपने को छलता आ रहा हूँ। माँ की गोद में लेटे-लेटे मैं अपने से सवाल-जवाब करने लगा - और कितनी पिओगे रवींद्र कालिया? यह रोज की मयगुसारी एक तमाशा बन कर रह गई है, इसका कोई अंत नहीं है। अब तक तुम इसे पी रहे थे, अब यह तुम्हें पी रही है।
माँ एकदम खामोश थीं। वह अत्यंत स्नेह से मेरे माथे को, मेरे गर्म माथे को सहला रही थीं। मुझे लग रहा था जैसे जिंदगी मौत को सहला रही है। लग रहा था यह माँ की गोद नहीं है, मैं जिंदगी की गोद में लेटा हूँ। कितना अच्छा है, इस समय माँ बोल नहीं रहीं। उन्हें जो कुछ कहना है, उनका हाथ कह रहा है। उनके स्पर्श में अपूर्व वात्सल्य तो था ही, शिकवा भी था, शिकायत भी, क्षमा भी, विवशता और करुणा भी। एक मूक प्रार्थना। यही सब भाषा में अनूदित हो जाता तो मुझे अपार कष्ट होता। अश्लील हो जाता। शायद मेरे लिए असहनीय भी। माँ की गोद में लेटे-लेटे मैं केसेट की तरह रिवाइंड होता चला गया, जैसे नवजात शिशु में तब्दील हो गया। माँ जैसे मुझे जीवन में पहली बार महसूस कर रही थीं और मैं भी बंद मुटि्ठयाँ कसे बंद आँखों से जैसे अभी-अभी कोख से बाहर आ कर जीवन की पहली साँस ले रहा था। मैं बहुत देर तक माँ के आगोश में पड़ा रहा। लगा जैसे संकट की घड़ी टल गई है। अब मैं पूरी तरह सुरक्षित हूँ। माँ शायद नींद की गोली खा चुकी थीं। उनके मीठे-मीठे खर्राटे सुनाई देने लगे। मैं उठा, पंखा तेज किया और किसी तरह हाँफते हुए सीढ़ियाँ चढ़ गया।
ममता मेरे अल्ट्रासाउंड, खून की जाँच की रिपोर्टों और डॉक्टर के पर्चों में उलझी हुई थी। मैंने उससे कहा कि वह यह गिलास, यह बोतल नमकीन और बर्फ उठवा ले। आलमारी में आठ-दस बोतलें और पड़ी थीं। इच्छा हुई अभी उठूँ और बाल्कनी में खड़ा हो कर एक-एक कर सब बोतलें फोड़ दूँ। एक-दो का ज़िक्र क्या सारी की सारी फोड़ दूँ, ऐ ग़मे दिल क्या करूँ? मेरे जेहन में एक खामोश तूफान उठ रहा था, लग रहा था जैसे शख्सीयत में यकायक कोई बदलाव आ रहा है। मैं बिस्तर पर लेट गया। शरीर एकदम निढाल हो रहा था। वह निर्णय का क्षण था, यह कहना भी गलत न होगा कि वह निर्णय की बैसाखी थी।
किसी शायर ने सही फरमाया था कि छुटती नहीं यह काफिर मुँह की लगी हुई। मैं रात भर करवटें बदलता रहा। पीने की ललक तो नहीं थी, शरीर में अल्कोहल की कमी जरूर खल रही थी। बार-बार डॉक्टर की सलाह दस्तक दे रही थी कि यकायक न छोड़ूँ कतरा-कतरा कम करूँ। मैं अपनी सीमाओं को पहचानता था। शराब के मामले में मैं महालालची रहा हूँ। एक से दो, दो से ढाई और ढाई से तीन पर उतरते मुझे देर न लगेगी। मैं अपने कुतर्कों की ताकत से अवगत था। तर्कों-कुतर्कों के बीच कब नींद लग गई, पता ही नहीं चला। शायद यह 'ट्रायका' का कमाल था। सुबह नींद खुली तो अपने को एकदम तरोताजा पाया। लगा, जैसे अब एकदम स्वस्थ हूँ। तुरंत थर्मामीटर जीभ के नीचे दाब लिया। बुखार देखा - वही निन्यानबे दशमलव तीन। पानी में चार चम्मच ग्लूकोज घोल कर पी गया। जब तक ग्लूकोज का असर रहता है, यकृत को आराम मिलता है।
बाद के दिन ज्यादा तकलीफदेह थे। अपना ही शरीर दुश्मनों की तरह पेश आने लगा। कभी लगता कि छाती एकदम जकड़ गई है, साँस लेने पर फेफड़े का रेशा-रेशा दर्द करता, महसूस होता साँस नहीं ले रहा, कोई जर्जर बाँसुरी बजा रहा हूँ। निमोनिया का रोगी जितना कष्ट पाता होगा, उतना मैं पा रहा था। कष्ट से मुक्ति पाने के लिए मैं दर्शन का सहारा लेता - रवींद्र कालिया, यह सब माया है, सुख याद रहता है न दुःख। लोग उमस भरी काल कोठरी में जीवन काट आते हैं और भूल जाते है। अस्पतालों में लोग मर्मांतक पीड़ा पाते हैं, अगर स्वस्थ हो जाते हैं तो सब भूल जाते हैं। चालीस वर्ष नशा किया, कल तक का सरूर याद नहीं। क्या फायदा ऐसे क्षण भंगुर सुख का। मुझे अश्क जी का तकियाकलाम याद आता है - दुनिया फानी है। दुनिया फानी है तो मयनोशी भी फानी है।
एक दिन बहुत तकलीफ में था कि डॉ. अभिलाषा चतुर्वेदी और डॉ. नरेंद्र खोपरजी आए। मैंने अपनी दर्द भरी कहानी बयान की। अभिलाषा जी ने कहा, 'यह सब सामान्य है। ये विद्ड्राअल सिंप्टम्स हैं, आपको कुछ न होगा, जी कड़ा करके एक बार झेल जाइए। मैं आपको एक कतरा भी पीने की सलाह न दूँगी। मेरी मानिए, अपने इरादे पर कायम रहिए।' डॉ. खोपरजी घर से अपना कोटा ले कर चले थे, और महक रहे थे, मेरे नथुनों में मदिरा की चिरपरिचित गंध समा रही थी। मुझे गंध बहुत पराई लगी, जैसे सड़े हुए गुड़ की गंध हो। मुझे उस महक से वितृष्णा होने लगी। डॉक्टर लोग विदा हुए तो मैंने ग़ालिब उग्र मँगवाया और पढ़ने लगा। पढ़ने में श्रम पड़ने लगा तो बेगम अख्तर की आवाज में ग़ालिब सुनने लगा। ग़ालिब का दीवान, पांडेय बेचन शर्मा उग्र की टीका और बेगम अख्तर की आवाज। शाम जैसे उत्सवधर्मी हो गई। मैं अपने फेफड़े को भूल गया, दर्द को भूल गया। लेकिन यह वक्ती राहत थी, शरीर ने विद्रोह करना जारी रखा। एक रोज में मेरी दुनिया बदल गई थी। एक दिन पहले तक मैं दफ्तर जा रहा था। डॉक्टर को दिखाने और परीक्षणों के बाद मैं जैसे अचानक बीमार पड़ गया। डॉक्टरों ने जी भर कर हिदायतें दी थीं। हिदायतों के अलावा उनके पास कोई प्रभावी उपचार नहीं था - ले दे कर वही ग्लूकोज। दिन-भर में दो-ढाई सौ ग्राम ग्लूकोज मुझे पिला दिया जाता। कुछ रोज पहले तक जिस रोग को मैं मामूली हरारत का दर्जा दे रहा था, उसे ले कर सब चिंतित रहने लगे। मालूम नहीं यह शारीरिक प्रक्रिया थी अथवा मनोवैज्ञानिक कि मैं सचमुच अशक्त, बीमार, निरीह और कमजोर होता चला गया। करवट तक बदलने में थकान आ जाती। डॉक्टरों ने हिदायत दी थी कि बाथरूम तक भी जाऊँ तो उठने से पहले एक गिलास ग्लूकोज पी लूँ, लौट कर पुनः ग्लूकोज का सेवन करूँ। डॉक्टरों ने यह भी खोज निकाला था कि मेरा रक्तचाप बढ़ा हुआ है। मैं सोचा करता था कि मेरा रक्तचाप मंद है, शायद बीसियों वर्ष पहले कभी नपवाया था। दवा के नाम पर केवल ग्लूकोज, ट्रायका (ट्रांक्यूलाइजर) और लिव 52 (आयुर्वेदिक)।
एक दिन बाल शैंपू करते समय लगा कि साँस उखड़ रही है। बालों पर शैंपू का गाढ़ा झाग बनते ही साँस उखड़ने लगी। बाथरूम में मैं अकेला था, हाथ-पाँव फूल गए। हाथों में बाल धोने की कुव्वत न रही। किसी तरह खुली हवा में बाल्कनी तक पहुँचा और वहाँ रखी कुर्सी पर निढाल हो गया। देर तक बैठा रहा। किसी को आवाज देने की न इच्छा थी न ताकत। साँस लेने पर महसूस हो रहा था, फेफड़ों में जैसे जख्म हो गए हैं।
शरीर के साथ अनहोनी घटनाओं का यह सिलसिला जारी रहा। डॉक्टरों का मत था कि यह सब मनोवैज्ञानिक है। एक दिन मैं दाँत साफ कर रहा था कि क्या देखता हूँ कि मुँह का स्वाद कसैला-सा हो रहा है। पानी से कुल्ला किया तो देखा मुँह से जैसे खून जा रहा हो। अचानक मसूढ़ों से रक्त बहने लगा। मुझे यह शिकायत कभी नहीं रही थी। मैंने सोचा मुँह का कैंसर हो गया है। घबराहट में जल्दी-जल्दी कुल्ला करता रहा, दो-चार कुल्लों के बाद सब सामान्य हो गया। अब आप ही बताएँ, यह भी क्या मनोविज्ञान का खेल था? अगर यह खेल था तो एक और दिलचस्प खेल शुरू हो गया। सोते-सोते अचानक अपने-आप टाँग ऊपर उठती और एक झटके के साथ नीचे गिरती। तुरंत नींद खुल जाती। दोनों टाँगों ने जैसे तय कर लिया था कि मुझे सोने नहीं देंगी। रात भर टाँगों की उठा-पटक चलती रहती और मेरा उन पर नियंत्रण नहीं रह गया था। डॉक्टरों से अपनी तकलीफ बतलाता तो वे 'मनोविज्ञान' कह कर टाल जाते अथवा इन्हें फकत 'विद्ड्राअल सिंप्टम्स' कह कर रफा-दफा कर देते। एक दिन पत्रकार मित्र प्रताप सोमवंशी ने फोन पर पूछा कि क्या मैं जाड़े में च्यवनप्राश का सेवन करता हूँ? 'हाँ तो' मैंने बताया कि जाड़े में सुबह दो-एक चम्मच दूध के साथ च्यवनप्राश जरूर ले लेता था कि भूख न लगे न सही, इसी बहाने कुछ पौष्टिक आहार हो जाता था। देखते-देखते मुझे भोजन से इतनी अरुचि हो गई थी कि एक कौर तक तोड़ने की इच्छा न होती। किसी तरह पानी से दो-एक चपाती निगल लेता था। अन्न से जैसे एलर्जी हो गई थी। बाद में माँ ने दलिया खाने का सुझाव दिया। मेरे लिए दूध में दलिया पकाया जाता और सुबह नाश्ते के तौर पर मैं वही खाता। आज भी खाता हूँ।
प्रताप ने बताया कि नेपाल से एक बुजुर्ग वैद्य जी आए हुए थे, उन्होंने बताया कि ज्यादातर लोगों को इस उम्र में यकृत बढ़ने से पक्षाघात हो जाया करता है, च्यवनप्राश का सेवन करनेवाले इस प्रकोप से बच जाते हैं। मैंने राहत की साँस ली वरना जिस कदर मेरी टाँगों को झटके लग रहे थे उससे यही आशंका होती थी कि अब अंतिम झटका लगने ही वाला है।
जब से माँ मेरे साथ थीं, होम्योपैथी का अध्ययन करने लगा था। अच्छी-खासी लायब्रेरी हो गई थी। माँ का वृद्ध शरीर था, कभी-भी कोई तकलीफ उभर आती। कभी कंधे में दर्द, कभी पेट में अफारा। घुटनों के दर्द से तो वह अक्सर परेशान रहतीं। कभी कब्ज और कभी दस्त। रात बिरात डॉक्टरों से संपर्क करने में कठिनाई होती। मैंने खुद इलाज करने की ठान ली और बाजार से होम्योपैथी की ढेरों पुस्तकें खरीद लाया। मेडिकल की पारिभाषिक शब्दावली समझने के लिए कई कोश खरीद लाया था। होम्योपैथी के अध्ययन में मेरा मन भी रमने लगा। केस हिस्ट्रीज का अध्ययन करते हुए उपन्यास पढ़ने जैसा आनंद मिलता। कुछ ही दिनों में मैं माँ का आपातकालीन इलाज स्वयं ही करने लगा। शहर के विख्यात होम्योपैथ डॉक्टरों से दोस्ती हो गई। उनका भी परामर्श ले लेता। कुछ ही दिनों में माँ का मेरी दवाओं में विश्वास जमने लगा। होम्योपैथी पढ़ने का अप्रत्यक्ष लाभ मुझे भी मिला। बीमार पड़ने से पूर्व ही मैं स्नायविक दुर्बलता पर एक कोर्स कर चुका था। शायद यही कारण था कि टाँग के झटकों से मुझे ज्यादा घबराहट नहीं हो रही थी। मैं खामोशी से अपना समानांतर इलाज करता रहा। बीच-बीच में डॉक्टर शांगलू से परामर्श ले लेता। यकृत के इलाज के लिए दो औषधियाँ मैंने ढूँढ़ निकाली थीं। आयुर्वेदिक पुनर्नवा के बारे में मुझे डॉक्टर हरदेव बाहरी ने बताया था और होम्योपैथिक कैलिडोनियम के बारे में मुझे पहले से जानकारी थी। इन दवाओं से आश्चर्यजनक रूप से लाभ होने लगा। अब मैं अपनी तकलीफ के प्रत्येक लक्षण को होम्योपैथी के ग्रंथों में खोजता। होम्योपैथी में लक्षणों से ही रोग को टटोला जाता है। कई बार किसी औषधि के बारे में पढ़ते हुए लगता जैसे उपन्यास पढ़ रहा हूँ। होम्योपैथी में झूठ बोलना भी एक लक्षण है, शक करना भी। पढ़ते-पढ़ते अचानक मन में चरित्र उभरने लगते। मैंने तय कर रखा था कि स्वस्थ होने पर शुद्ध होम्योपैथिक कहानी लिखूँगा - शीर्षक अभी से सोच रखा है। जितना पुराना साथ शराब का था उससे कम साथ अपनी पीढ़ी के कथाकारों का नहीं था। अपने साथियों की मैं रग-रग पहचानने का दंभ भर सकता हूँ। शायद यही कारण है कि मैंने दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन और काशी के लिए उपयुक्त होम्योपैथिक औषधियाँ खोज रखी हैं। कई बार तो किसी महिला मित्र से बात करते-करते अचानक यह विचार कौंधता है कि इसे पल्सटिला-200 की जरूरत है।
अपनी बीमारी के दौरान डॉक्टरों का मनोविज्ञान समझने में खूब मदद मिली। शहर के अधिसंख्य डॉक्टर मुझसे फीस नहीं लेते थे। घर आ कर देख भी जाते थे। उनके क्लीनिक में जाता तो 'आउट आफ टर्न' तुरंत बुलवा लेते। पत्रकार लेखक होने के फायदे थे, जिनका मैंने भरपूर लाभ उठाया। कुछ डॉक्टर ऐसे भी थे, जो फीस नहीं लेते थे मगर हजारों रुपए के टेस्ट लिख देते थे। डॉक्टर विशेष से ही अल्ट्रासाउंड कराने पर जोर देते। मुझे लगता है, वह फीस ले लेते तो सस्ता पड़ता। कमीशन ही उनकी फीस थी।
इसी क्रम में और भी कई दिलचस्प अनुभव हुए। एक दिन डॉक्टर निगम के यहाँ वजन लिया तो साठ किलो था, रास्ते में रक्तचाप नपवाने के लिए दूसरे डॉक्टर के यहाँ रुका तो उसकी मशीन ने 58 किलो वजन बताया। सच्चाई जानने के लिए कालोनी के एक नर्सिंग होम में वजन लिया तो 56 किलो रह गया। तीन डॉक्टरों की मशीनें अलग-अलग वजन बता रही थीं। यही हाल रक्तचाप का था। हर डॉक्टर अलग रक्तचाप बताता। करोड़ों रुपयों की लागत से बने नर्सिंग होम्स में भी वजन और रक्तचाप के मानक उपकरण नहीं थे। इनके अभाव में कितना सही उपचार हो सकता है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। आखिर मैंने तंग आ कर रक्तचाप और वजन लेने के सर्वोत्तम उपलब्ध उपकरण खरीद लिए। एक ही मशीन पर भरोसा करना ज्यादा मुनासिब लगा। एक मशीन गलत हो सकती है मगर धोखा नहीं दे सकती। वजन बढ़ रहा है या कम हो रहा है, मशीन इतनी प्रामाणिक जानकारी तो दे ही सकती है।
खाट पर लेटे-लेटे मैं कुछ ही दिनों में अपने दफ्तर का भी संचालन करने लगा। हिम्मत होती तो जी भर कर समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, साहित्य पढ़ता, टेलीविजन देखता और सोता। सुबह-शाम मिजाजपुर्सी करने वालों का ताँता लगा रहता। दिल्ली से ममता का एक प्रकाशक आया तो मुझे बातचीत करते देख बहुत हैरान हुआ। उसने बताया कि दिल्ली में तो सुना था कि आप अचेत पड़े हैं और कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। शहर में भी ऐसी कुछ अफवाहें थीं। मुझे मालूम है कि जिसको आप जितना चाहते हैं, उसके बारे में उतनी ही आशंकाएँ उठती हैं। कई बार आदमी अपने को अनुशासन में बाँधने के लिए स्थितियों की भयावह परिणति की कल्पना कर लेता है। मगर मैं अभी मरना नहीं चाहता था - स्वस्थ हो कर मरना चाहता था। मुझे लगता था कि इस बीच चल बसा तो लोग यही सोचेंगे कि एक लेखक नहीं, एक शराबी चल बसा। अभी हाल में इंदौर में श्रीलाल शुक्ल ने भी ऐसी ही आशंका प्रकट की थी। वह बहुत सादगी से बोले, 'देखो रवींद्र, मैं चौहत्तर वर्ष का हो गया हूँ। अब अगर मर भी गया तो लोग यह नहीं कहेंगे कि एक शराबी मर गया - मरने के लिए यह एक प्रतिष्ठाजनक उम्र है, क्यों?'
चिड़चिड़ेपन से मुझे हमेशा सख्त नफरत है। जिन लोगों के चेहरे में चिड़चिड़ापन देखता हूँ, उनसे हमेशा दूर ही भागता हूँ। बीमारी के दौरान मैं यह भी महसूस कर रहा था कि मैं भी किचकिची होता जा रहा हूँ। छोटी-सी बात पर किचाइन करने लगता। मेरे पास एक सुविधाजनक जवाब था। अपनी तमाम खामियों को मैं 'विद्ड्राअल सिंप्टम्स' के खाते में डाल कर निश्चिंत हो जाता। एक दिन वाराणसी से काशीनाथ सिंह मुझे देखने आया। बहुत अच्छा लगा कि शहर के बाहर भी कोई खैरख्वाह है।
'अब जीवन में कभी दारू मत छूना।' काशी ने भोलेपन से हिदायत दी। काशी हम चारों में सबसे अधिक सरल व्यक्ति हैं, मगर मैं उसकी इस बात पर अचानक ऐंठ गया।
'देखो काशी, मैंने पीना छोड़ा है, इसका निर्णय खुद लिया है। किसी के कहने से न पीना छोड़ा है, न शुरू करूँगा।'
काशी स्तब्ध। उसे लगा होगा, मेरा दिमाग भी चल निकला है। सद्भावना में कही गई बात भी मेरे हलक के नीचे नहीं उतर रही थी। जाने दिमाग में क्या फितूर सवार हो गया कि मैं देर तक काशी से इसी बात पर जिरह करता रहा। काशी लौट गया। मुझे बहुत ग्लानि हुई। आपका कोई भी हितैषी आप को यही राय देता यह दूसरी बात है कि बहुत से मित्र मुझे बहलाने के लिए यह भी कह देते थे कि जिगर बहुत जल्दी ठीक होता है, आश्चर्यजनक रूप से 'रिकूप' करता है, महीने-दो महीने में पीने लायक हो जाओगे।
मगर मैं तय कर चुका था कि, अब और नहीं पिऊँगा। इस जिंदगी में छक कर पी ली है। अपने हिस्से की तो पी ही, अपने पिता के हिस्से की भी पी डाली। यही नहीं, बच्चों के भविष्य की चिंता में उनके हिस्से की भी पी गया। दरअसल मेरे ऊपर कुछ ज्यादा ही जिम्मेदारियाँ थीं।
मैंने अत्यंत ईमानदारी से इन जिम्मेदारियों का निर्वाह किया था। भूले-भटके कहीं से फोकट की आमदनी हो जाती, मेरा मतलब है रायल्टी आ जाती या पारिश्रमिक तो मैं केवल दारू खरीदने की सोचता। यहाँ दारू शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूँ कि यह एक बहुआयामी शब्द है, इसके अंतर्गत सब कुछ आ जाता है जैसे व्हिस्की, रम, जिन, वाइन, बियर आदि। इस पक्ष की तरफ मैंने कभी ध्यान नहीं दिया कि मेरे पास जूते हैं या नहीं, बच्चों के कपड़े छोटे हो रहे हैं या उन्हें किसी खिलौने की जरूरत हो सकती है। यह विभाग ममता के जिम्मे था। वह अपने विभाग का सही संचालन कर रही थी। मैं पहली फुर्सत में दारू का स्टाक खरीद कर कुछ दिनों के लिए निश्चिंत हो जाता। घर में दारू का अभाव मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता था। मुझे न सोना आकर्षित करता था, न चाँदी। फिल्म में मेरा मन न लगता था, नाटक तो मुझे और भी बेहूदा लगता था। संगीत में मन जरूर रम जाता था। देखा जाए तो मद्यपान ही मेरे जीवन की एक मात्र सच्चाई थी। मद्यपान एक सामाजिक कर्म है, समाज से कट कर मद्यपान नहीं किया जा सकता। जो लोग ऐसा करते हैं वह आत्मरति करते हैं। वे पद्य की रचना तो कर सकते हैं, गद्य की नहीं। मद्यपान से मुझे अनेक शिक्षाएँ मिली थीं। सबसे बड़ी शिक्षा तो यही कि सादा जीवन उच्च विचार। यानी सादी पोशाक और सादःलौह जीवन। बहुत से लोगों को भ्रम हो जाता था कि मैं सादःलौह नहीं सादःपुरकार (देखने में भोले हो पर हो बड़े चंचल) हूँ। कुर्ता पायजामा मेरा प्रिय परिधान रहा है। गांधी जयंती पर जब खादी भवन में खादी पर तीस-पैंतीस प्रतिशत छूट मिलती तो ममता साल भर के कुर्ते पायजामे सिलवा देती। उसे कपड़े खरीदने का जुनून रहता है। अपने लिए साड़ियाँ खरीदती तो मेरे लिए भी बड़े चाव से शर्ट वगैरह खरीद लाती। मेरी डिब्बा खोल कर शर्ट देखने की इच्छा न होती। वह चाव से दिखाती, मैं अफसुर्दगी से देखता और पहला मौका मिलते ही आलमारी में ठूँस देता। आज भी दर्जनों कमीजें और अफगान सूट मेरी आलमारी की शोभा बढ़ा रहे हैं। मुझे खुशी होती जब बच्चे मेरा कोई कपड़ा इस्तेमाल कर लेते। अन्नू काम करने लगा तो वह भी माँ के नक्शेकदम पर मेरे लिए कपड़े खरीदने लगा। वे कपड़े उसके ही काम आए होंगे या आएँगे या मेरी वार्डरोब में पड़े रहेंगे।
विद्ड्राअल सिंप्टम्स के वापस लौटने से तबीयत में सुधार आने लगा। सबसे अच्छा यह लगा कि मुझे दारू की गंध से ही वितृष्णा होने लगी। शराबी से बात करने पर उलझन होने लगी। शराब किसी धूर्त प्रेमिका की तरह मन से पूरी तरह उतर गई। शराब देख कर लार टपकना बंद हो गया। मैं आजाद पंछी की तरह अपने को मुक्त महसूस करने लगा। शारीरिक और मानसिक नहीं, आर्थिक स्थिति में भी सुधार दिखाई देने लगा। एक जमाना था, शराब के चक्कर में जीवन बीमा तक के चेक 'बाऊंस' हो जाते थे। कोई बीस साल पहले मैंने खेल ही खेल में गंगा तट पर आवास विकास परिषद से किस्तों पर एक भवन लिया था। उन दिनों मुझे गंगा स्नान का चस्का लग गया था। मैं और ममता सुबह-सुबह रानी मंडी से रसूलाबाद घाट पर स्नान करने आया करते थे। रानी मंडी से रसूलाबाद घाट नौ दस किलोमीटर दूर था, सुबह-सुबह मुँह अँधेरे स्कूटर पर आना बहुत अच्छा लगता। घाट के पास ही मेंहदौरी कालोनी थी। उन दिनों फूलपुर में इफ्को के एशिया के सबसे बड़े खाद कारखाने का निर्माण चल रहा था। विदेशों से आए विशेषज्ञ मेंहदौरी कालोनी में ही ठहराए गए थे। दो-एक वर्ष में ये विशेषज्ञ लौट गए तो सरकार ने इन भवनों का आवंटन प्रारंभ कर दिया। शहर की चहल-पहल और हलचल से दूर एकांत स्थान पर जा बसने का जोखिम बहुत कम लोगों ने उठाया। मैंने एक हसीन सपना देखा कि गंगा तट पर बैठ कर अनवरत लेखन करूँगा। मन ही मन मैंने संपूर्ण जीवन साहित्य के नाम दर्ज कर दिया और नागार्जुन की पंक्तियाँ जेहन में कौंधने लगीः
चंदू , मैंने सपना देखा , फैल गया है सुजश तुम्हारा ,
चंदू, मैंने सपना देखा , तुम्हें जानता भारत सारा।
मैंने मंत्री के नाम एक पत्र प्रेषित किया कि हमारे ऋषि मुनि सदियों से पावन नदियों के तट पर बैठ कर साधना-आराधना करते रहे हैं, मैं भी इसी परंपरा में गंगा तट पर साहित्य सेवा करना चाहता हूँ, मेरा यह संकल्प तभी पूरा होगा यदि मेंहदौरी कालोनी का एक भवन किस्तों पर मेरे नाम आवंटित कर दिया जाय। उन दिनों समाज में लेखकों के प्रति आज जैसा उदासीनता का भाव न था। मेरे आश्चर्य की सीमा न रही जब शीघ्र ही भवन के आवंटन का पत्र मुझे प्राप्त हो गया। केवल पाँच हजार रुपए का भुगतान करने पर भवन का कब्जा भी मिल गया। शुरू में मैंने साल-छह महीने तक निष्ठापूर्वक किस्तों का भुगतान किया, उसके बाद नियमित रूप से किस्तें भरने का उत्साह भंग हो गया। ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न थी। बकाया राशि और सूद बढ़ने लगा। लिखना-पढ़ना तो दरकिनार, सप्ताहांत पर मदिरापान करने के लिए एक रंग भवन आकार लेने लगा। मौज-मस्ती का एक नया अड्डा मिल गया। हम लोग शनिवार को आते और सोमवार सुबह गंगा स्नान करते हुए रानी मंडी लौट जाते। ब्याज और दंड ब्याज की राशि पचास हजार के आस-पास हो गई। यह भवन हाथ से निकल जाता अगर मेरे हमप्याला वकील दोस्त उमेशनारायण शर्मा, जो बाद में वर्षों तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय में भारत सरकार के वरिष्ठ स्थायी अधिवक्ता रहे, मुझे कानूनी मदद न पहुँचाते। मयपरस्ती ने जिंदगी में बहुत गुल खिलाए। अपने इस इकलौते शौक के कारण बहुत तकलीफें झेलीं, बहुत सी यंत्रणाओं से गुजरना पड़ा, बकाएदारी के चक्कर में कुर्की के आदेशों को निरस्त करवाना पड़ा। मगर जिंदगी की गाड़ी सरकती रही, एक पैसेंजर गाड़ी की तरह रफ्तः रफ्तः, हर स्टेशन पर रुकते हुए। कई बार तो एहसास होता कि मैं बगैर टिकट के इस गाड़ी में यात्रा कर रहा हूँ।
बीमारी के दौरान मुझे आत्म-अन्वेषण के लिए काफी समय मिला। यादों की राख टटोलने के अलावा कोई दूसरा काम भी न था। अपनी खामियों और कमीनगियों पर ध्यान गया। मुझे लगा, मैं काफी स्वार्थी किस्म का इनसान हूँ। ममता ने मुझे घर की जिम्मेदारियों से मुक्त कर रखा था। यह मेरी चिंता का विषय नहीं था कि घर में राशन है या नहीं, बच्चों की फीस वक्त पर जा रही है या नहीं, मुझे अगर कोई चिंता रहती थी तो केवल अपने दारू के स्टाक की, प्रेस कर्मियों के वेतन की, कर्ज के किस्तों के भुगतान की, बिजली टेलीफोन और स्याही के बिल की। मेरे अपने निजी अखराजात इतने ज्यादा बढ़ गए थे कि मैं घर-गृहस्थी के बारे में सोच भी न सकता था।
चालीस-पचास रुपए रोज तो मेरे सिगरेट का खर्च था, दारू का खर्च इससे कहीं ज्यादा। जाहिर है, हर वक्त तंगदस्ती में रहता। मद्यपान के अलावा मैं हर चीज में कटौती कर सकता था। मेरी सारी ऊर्जा इन्हीं चीजों की व्यवस्था करने में शेष हो जाती। सुबह से शाम तक मैं बैल की तरह प्रेस के कोल्हू में जुता रहता, फिर भी पूरा न पड़ता तो बेईमानी पर उतर आता। यह सोच कर आज भी ग्लानि में आकंठ डूब जाता हूँ कि माँ अपनी दवा के लिए पैसा देतीं तो मैं निःसंकोच ले लेता। वक्त जरूरत उनके हिसाब-किताब में गड़बड़ी भी कर लेता। कहना गलत न होगा, बड़ी तेजी से मेरा नैतिक पतन हो रहा था। अपनी बूढ़ी माँ के झुर्रियों भरे चेहरे के बीच अपनी बीमारी की रेखाएँ देखता तो करवट बदल लेता। जब से बीमार पड़ा था, रात को उनके पास सोता था। सुबह उठता तो वह कहतीं, कितने कमजोर हो गए हो, रात भर में एक भी बार करवट नहीं बदलते। जिस करवट सोते हो, रात भर उसी करवट पड़े रहते हो। मुझे नहीं मालूम अब स्वस्थ होने के बाद रात में करवट बदलता हूँ या नहीं। अब माँ भी नहीं हैं, यह बताने के लिए। वैसे मुझे लगता है कि करवटें बदलने की भी एक उम्र होती है। एक उम्र ऐसी भी आती है कि किसी करवट आराम नहीं मिलता। बीमारी के दौरान मेरी माँ की पूरी चेतना मुझ पर केंद्रित थी, वह अपनी तकलीफों को भूल गई थीं। आज भी यह बार-बार एहसास होता है कि यह उनका आशीर्वाद था कि मैं मौत के मुँह से लौट आया। देखते-देखते मेरी दुनिया बदल गई। मेरा सूरज बदल गया, चाँद और सितारे बदल गए। दिनचर्या बदल गई। मैं एक ऐसा पंछी था जो सूरज ढलते ही चहकने लगता था, धीरे-धीरे वह चहचहाहट बंद हो गई। मेरी फितरत बदल गई, दोस्त बदल गए, प्रेमिकाएँ बदल गईं। मेरे डिनर के दोस्त लंच या नाश्ते के दोस्त बन गए। हरामुद्दहर किस्म के दोस्तों से मेरी ज्यादा पटती थी, अब राजा बेटे किस्म के दोस्तों के संग ज्यादा समय बीतने लगा। शरीफ, ईमानदार और वफादार किस्म के दोस्तों के बीच जाने क्यों मेरा दम घुटता है। हमप्याला दोस्तों के बीच जो बेतकल्लुफी और घनिष्ठता विकसित हो जाती है, वह हमनिवाला दोस्तों के बीच संभव ही नहीं। एक औपचारिकता, एक बेगानापन, एक फासला बना रहता है। सच तो यह है आज भी मेरा मन शराबियों के बीच ज्यादा लगता है।
छह महीने में मैं इस लायक हो गया कि शहर से बाहर भी निकलने लगा। सबसे पहले लखनऊ जाना हुआ। कथाक्रम 1997 में। देशभर से साथी रचनाकार आए हुए थे, सबसे मुलाकात हो गई। मैं एक बदला हुआ रवींद्र कालिया था। सागरो-मय तो मेरे हाथ में था, मगर मयगुसार की हैसियत से नहीं। साकी की हैसियत से। गोष्ठियों के बाद मैंने साथी कथाकारों की पेशेवर तरीके से खिदमत की। किसी का गिलास खाली न रहने दिया। सबके प्याले पर मेरी निगरानी थी। यह मेरे लिए एक नया अनुभव था। गेस्ट हाउस का कमरा लेखकों से ठसाठस भरा था। हर कोई मेरा मोहताज था। वह श्रीलाल शुक्ल हों या राजेंद्र यादव, दूधनाथ सिंह हों या कामतानाथ। विभूतिनारायण राय, सृंजय, संजय खाती, वीरेंद्र यादव, अखिलेश आदि नई पीढ़ी के तमाम कथाकार वहाँ मौजूद थे।
००००००००००००००००