सच यह है कि रवीश कुमार भी दलाल पथ के यात्री हैं
— दयानंद पांडेय
ब्लैक स्क्रीन प्रोग्राम कर के रवीश कुमार कुछ मित्रों की राय में हीरो बन गए हैं । लेकिन क्या सचमुच ? एक मशहूर कविता के रंग में जो डूब कर कहूं तो क्या थे रवीश और क्या हो गए हैं , क्या होंगे अभी ! बाक़ी तो सब ठीक है लेकिन रवीश ने जो गंवाया है , उस का भी कोई हिसाब है क्या ?रवीश कुमार के कार्यक्रम के स्लोगन को ही जो उधार ले कर कहूं कि सच यह है कि ये अंधेरा ही आज के टी वी की तस्वीर है ! कि देश और देशभक्ति को मज़ाक में तब्दील कर दिया गया है । बहस का विषय बना दिया गया है । जैसे कोई चुराया हुआ बच्चा हो देशभक्ति कि असली मां कौन ? रवीश कुमार एंड कंपनी को शर्म आनी चाहिए ।
आप को क्या लगता है कि बिना प्रणव राय की मर्जी के रवीश कुमार एन डी टी वी में सांस भी ले सकते हैं ?
एक समय था कि इंडियन एक्सप्रेस में अरुण शौरी का बड़ा बोलबाला था । उन की न्यूज़ स्टोरी बड़ा हंगामा काटती रहती थीं । बाद के दिनों में वह जब इंडियन एक्सप्रेस से कुछ विवाद के बाद अलग हुए तो एक इंटरव्यू में डींग मारते हुए कह गए कि मैं अपनी स्टोरी के लिए कहीं जाता नहीं था , स्टोरी मेरी मेज़ पर चल कर आ जाती थी । रामनाथ गोयनका से पूछा गया अरुण शौरी की इस डींग के बारे में तो गोयनका ने जवाब दिया कि अरुण शौरी यह बात तो सच बोल रहा है क्यों कि उसे सारी स्टोरी तो मैं ही भेजता था , बस वह अपने नाम से छाप लेता था । अब अरुण शौरी चुप थे । लगभग हर मीडिया संस्थान में कोई कितना बड़ा तोप क्यों न हो उस की हैसियत रामनाथ गोयनका के आगे अरुण शौरी जैसी ही होती है । बड़े-बड़े मीडिया मालिकान ख़बरों के मामले में एडीटर और एंकर को डांट कर डिक्टेट करते हैं । हालत यह है कि कोई कितना बड़ा तोप एडीटर भी नगर निगम के एक मामूली बाबू के ख़िलाफ़ ख़बर छापने की हिमाकत नहीं कर सकता अगर मालिकान के हित वहां टकरा गए हैं । विनोद मेहता जब पायनियर के चीफ़ एडीटर थे तब उन्हें एल एम थापर ने दिल्ली नगर निगम के एक बाबू के ख़िलाफ़ ख़बर छापने के लिए रोक दिया था । सोचिए कि कहां थापर , कहां नगर निगम का बाबू और कहां विनोद मेहता जैसा एडीटर ! लेकिन यह बात विनोद मेहता ने मुझे ख़ुद बताई थी । तब मैं भी पायनियर के सहयोगी प्रकाशन स्वतंत्र भारत में था । मैं इंडियन एक्सप्रेस के सहयोगी प्रकाशन जनसत्ता में भी प्रभाष जोशी के समय में रहा हूं । इंडियन एक्सप्रेस , जनसत्ता के भी तमाम सारे ऐसे वाकये हैं मेरे पास । पायनियर आदि के भी । पर यहां बात अभी क्रांतिकारी बाबू रवीश कुमार की हो रही है तो यह सब फिर कभी और ।
अभी तो रवीश कुमार पर । वह भी बहुत थोड़ा सा । विस्तार से फिर कभी ।
रवीश कुमार प्रणव राय के पिंजरे के वह तोता हैं जो उन के ही एजेंडे पर बोलते और चलते हैं । इस बात को इस तरह से भी कह सकते हैं कि प्रणव राय निर्देशक हैं और रवीश कुमार उन के अभिनेता। प्रणव राय इन दिनों फेरा और मनी लांड्रिंग जैसे देशद्रोही आरोपों से दो चार हैं। आप यह भी भूल रहे हैं कि प्रणव राय ने नीरा राडिया के राडार पर सवार रहने वाली बरखा दत्त जैसे दलाल पत्रकारों का रोल माडल तैयार कर उन्हें पद्मश्री से भी सुशोभित करवाया है । अब वह दो साल से रवीश कुमार नाम का एक अभिनेता तैयार कर उपस्थित किए हुए हैं। ताकि मनी लांड्रिंग और फेरा से निपटने में यह हथियार कुछ काम कर जाए । रवीश कुमार ब्राह्मण हैं पर उन की दलित छवि पेंट करना भी प्रणव राय की स्कीम है। रवीश दलित और मुस्लिम कांस्टिच्वेन्सी को जिस तरह बीते कुछ समय से एकतरफा ढंग से एड्रेस कर रहे हैं उस से रवीश कुमार पर ही नहीं मीडिया पर भी सवाल उठ गए हैं । रवीश ही क्यों रजत शर्मा , राजदीप सरदेसाई , सुधीर चौधरी , दीपक चौरसिया आदि ने अब कैमरे पर रहने का , मीडिया में रहने का अधिकार खो दिया है , अगर मीडिया शब्द थोड़ा बहुत शेष रह गया हो तो । सच यह है कि यह सारे लोग मीडिया के नाम पर राजनीतिक दलाली की दुकान खोल कर बैठे हैं । इन सब की राजनीतिक और व्यावसायिक प्रतिबद्धताएं अब किसी से छुपी नहीं रह गई हैं । यह लोग अब गिरोहबंद अपराधियों की तरह काम कर रहे हैं । कब किस को उठाना है , किस को गिराना है मदारी की तरह यह लोग लगे हुए हैं । ख़ास कर प्रणव राय जितना साफ सुथरे दीखते हैं , उतना हैं नहीं ।
दयानंद पांडेय
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बैंक लोन के रूप में आठ लाख करोड़ रुपए कार्पोरेट कंपनियां पी गई हैं । सरकार कान में तेल डाले सो रही है । किसानों की आत्म हत्या , मंहगाई , बेरोजगारी , कार्पोरेट की बेतहाशा लूट पर रवीश जैसे लोगों की , मीडिया की आंख बंद क्यों है । मीडिया इंडस्ट्री में लोगों से पांच हज़ार दो हज़ार रुपए महीने पर भी कैसे काम लिया जा रहा है ? नीरा राडिया के राडार पर इसी एन डी टी वी की बरखा दत्त ने टू जी स्पेक्ट्रम में कितना घी पिया , है रवीश कुमार के पास हिसाब ? कोयला घोटाला भी वह इतनी जल्दी क्यों भूल गए हैं । रवीश किस के कहे पर कांग्रेस और आप की मिली जुली सरकार बनाने की दलाली भरी मीटिंग अपने घर पर निरंतर करवाते रहे ? बताएंगे वह ? रवीश के बड़े भाई को बिहार विधान सभा में कांग्रेस का टिकट क्या उन की सिफ़ारिश पर ही नहीं दिया गया था ? अब वह इस भाजपा विरोधी लहर में भी हार गए यह अलग बात है । लेकिन इन सवालों पर रवीश कुमार ख़ामोश हैं । उन के सवाल चुप हैं ।
अब ताज़ा-ताज़ा गरमा-गरम जलेबी वह जे एन यू में लगे देशद्रोही नारों पर छान रहे हैं । जनमत का मजाक उड़ा रहे हैं । देश को मूर्ख बना रहे हैं ।
हां , रवीश के सवाल जातीय और मज़हबी घृणा फैलाने में ज़रूर सुलगते रहते हैं । कौन जाति हो ? उन का यह सवाल अब बदबू मारते हुए उन की पहचान में शुमार हैं । जैसे वह अभी तक पूछते रहे हैं कि कौन जाति हो ? इन दिनों पूछ रहे हैं , देशभक्त हो ? गोया पूछ रहे हों तुम भी चोर हो ? दोहरे मापदंड अपनाने वाले पत्रकार नहीं दलाल होते हैं । माफ़ कीजिए रवीश कुमार आप अब अपनी पहचान दलाल पत्रकार के रूप में बना चुके हैं । दलाली सिर्फ़ पैसे की ही नहीं होती , दलाली राजनीतिक प्रतिबद्धता की भी होती है । सुधीर चौधरी और दीपक चौरसिया जैसे लोग पैसे की दलाली के साथ राजनीतिक दलाली भी कर रहे हैं । आप राजनीतिक दलाली के साथ-साथ अपने एन डी टी वी के मालिक प्रणव राय की चंपूगिरी भी कर रहे हैं । और जो नहीं कर रहे हैं तो बता दीजिए न अपनी विष बुझी हंसी के साथ किसी दिन कि प्रणव राय और प्रकाश करात रिश्ते में साढ़ू लगते हैं । हैS हैS ऊ अपनी राधिका भाभी हैं न , ऊ वृंदा करात बहन जी की बहन हैं । हैS हैS , हम भी क्या करें ?
सच यह है कि जो काम , जो राजनीतिक दलाली बड़ी संजीदगी और सहजता से बिना लाऊड हुए रजत शर्मा इंडिया टी वी में कर रहे हैं , जो काम आज तक पर राजदीप सरदेसाई कर रहे हैं ,जो काम ज़ी न्यूज़ में सुधीर चौधरी , इण्डिया न्यूज़ में दीपक चौरसिया आदि-आदि कर रहे हैं , ठीक वही काम , वही राजनीतिक दलाली प्रणव राय की निगहबानी में रवीश कुमार जहरीले ढंग से बहुत लाऊड ढंग से एन डी टी वी में कर रहे हैं । हैं यह सभी ही राजीव शुक्ला वाले दलाल पथ पर । किसी में कोई फर्क नहीं है । है तो बस डिग्री का ही ।
निर्मम सच यह है कि रवीश कुमार भी दलाल पथ के यात्री हैं । अंतिम सत्य यही है । आप बना लीजिए उन्हें अपना हीरो , हम तो अब हरगिज़ नहीं मानते । अलग बात है कि हमारे भी कभी बहुत प्रिय थे रवीश कुमार तब जब वह रवीश की रिपोर्ट पेश करते थे । सच हिट तो सिस्टम को वह तब करते थे । क्या तो डार्लिंग रिपोर्टर थे तब वह । अफ़सोस कि अब क्या हो गए हैं ! कि अपनी नौकरी की अय्यासी में , अपनी राजनीतिक दलाली में वह देशभक्त शब्द की तौहीन करते हुए पूछते हैं देशभक्ति होती क्या है ? आप तय करेंगे ? आदि-आदि । जैसे कुछ राजनीतिज्ञ बड़ी हिकारत से पूछते फिर रहे हैं कि यह देशभक्ति का सर्टिफिकेट क्या होता है ?
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