Photo: Rommel Mudra Rakshasa |
Virendra Yadav remembers Mudra Rakshasa
मुद्राजी का मुद्राराक्षस नाम भी इसी लेख के चलते चल निकला क्योंकि डॉ. देवराज ने मुद्राजी के मूलनाम सुभाष चन्द्र आर्य के नाम से इसे न प्रकाशित कर मुद्राराक्षस के छद्मनाम से प्रकाशित किया था।
बीती तेरह जून को प्रख्यात लेखक मुद्राराक्षस का देहावसान हिन्दी के बौद्धिक जगत को ही नहीं बल्कि वृहत्तर हाशिए के समाज को भी जिस गहराई से व्यथित कर गया, वह विरल है। ‘लाल सलाम’ और ‘जय भीम’ के उदघोष के साथ उनका अंतिम संस्कार उल्लेखनीय इसलिए है क्योंकि संभवतः यह पहली बार था कि किसी गैर-दलित उत्तर भारतीय लेखक को दलित समाज और मार्क्स वादी कतारों का इतना अपनापन एक साथ मिल पाया, विशेषकर तब जबकि वे न तो कट्टर अम्बेडकरवादी थे और न ही सांचे ढले मार्क्सवादी। मार्क्स, लोहिया और अम्बेडकर उनके बौद्धिक प्रेरणास्रोत अवश्य थे, लेकिन अपनी संशयालु आलोचनात्मक दृष्टि के चलते वे इन सभी विचार सारणियों के बीच से अपनी अलग बौद्धिक राह बनाने के कायल थे। इसी का परिणाम था कि जहां भगत सिंह के सकारात्मक मूल्यांकन के लिए उन्होंने पुस्तक लिखना ज़रूरी समझा वहीं प्रेमचंद को वे अंत तक प्रश्नांकित करते रहे। दरअसल उनके सत्ता विरोधी विद्रोही मानस के चलते व्यावहारिकता और समायोजन के लिए कोई अवकाश नहीं था। उल्लेखनीय है कि जिस दौर में हिंदी बौद्धिकों की बड़ी जमात दिल्ली का रुख करके अपने जीवन को धन्य-धन्य करने में लगी थी, मुद्राजी आकाशवाणी की अपनी नौकरी छोड़कर अपने पैतृक नगर लखनऊ वापस हुए क्योंकि आपातकाल के उस दौर में रीढ़ को सीधा रख पाना लगभग असंभव था। अपने उपन्यास ‘भगोड़ा’ में मुद्राजी ने इसके अत्यंत प्रामाणिक और आत्मकथात्मक सन्दर्भ प्रदान कि ए हैं। उनके लिए आपातकाल उनकी रचनात्मकता का नया प्रस्थान बिन्दु था। ‘मरजीवा’, ‘तिलचट्टा’ और ‘तेंदुआ’ सरीखे पश्चिम की अब्सर्ड नाट्य-विधा को तिलांजलि देकर यह उनके नए रचनाकार व्यक्ति त्व के उदय का वह समय था जब उन्होंने ‘हम सब मंसाराम’,’शांति भंग’ और ‘दंडविधान’ सरीखे उपन्यास लिखे और विपुल वैचारिक लेखन कि या। यह अनायास नहीं है कि उत्तर आपातकाल के ही इस दौर में उन्होंने दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक के मुद्दों को अभियान की हद तक वैचारिकता और रचनात्मक स्वर प्रदान कि ए। उन्होंने अपने इस दौर के लेखन में हिंदी साहित्य की प्रभुत्वशाली धारा और सुखासीन समाज का हाशिए के वर्गों की निगाहों से देखने का जो जतन कि या उसने जहाँ दलित समाज के बौद्धिकों और सामान्य पाठकों के बीच उन्हें चर्चित और लोकप्रिय बनाया वहीं सत्ता प्रति ष्ठान, अभिजन समाज और प्रभुत्वशाली लेखकों के कोपभाजन के भी वे शिकार हुए। यही कारण था कि जहां सरकारी तंत्र के पद, प्रतिष्ठा और पुरस्कार उनसे दूर रहे वहीं जनसम्मान और जन-अभिनन्दन के विपुल अवसर उनके लिए जुटते रहे। वे जन्मना दलित नहीं थे, लेकिन सभी अम्बेडकरवादी संगठन और पत्र-पत्रिकाएं उन्हें अपना रहबर और प्रवक्ता मानती थीं।
साम्राज्यवाद, साम्प्रदायिकता, सामंतवाद और अभिजनवाद का सतत विरोध एवं उसके बरक्स परिवर्तनकामी प्रगतिशील मूल्य चेतना उनके समूचे वैचारिक चिंतन का मूल आधार रही। वर्णाश्रमी हिंदुत्व और ब्राह्मणवादी प्रतिगामी सोच के वे कठोर निंदक थे। उनकी पुस्तक ‘धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ’ धर्म की विभेदकारी और शोषक संरचना का मौलिक क्रिटीक है। उन्होंने अपनी वैचारिक निष्पत्ति यों द्वारा धर्म, पूंजी, साम्राज्यवाद और वर्णाश्रमी-जाति श्रेष्ठता के अंतर्संबंधों का खुलासा जिस सहज पदावली में किया उससे उनकी जनस्वीकार्यता और लोकप्रियता बढ़ी । समसामयिक मुद्दों पर वे जिस तीखेपन, बेलाग और प्रहारात्मक शैली में लिखते थे उससे उनकी जो जनपक्षधर, निडर, साहसिक और सत्ताविरोध की बौद्धिक छवि बनी वह उनके व्यक्तित्व की अलग पहचान थी। जिन दिनों अज्ञेय का हिंदी समाज पर काफी रौब-दाब था और जब ‘तार-सप्तक’ को हिंदी में आधुनिकता का पथ-प्रदर्शक सिद्ध करने के शीर्षासन किए जा रहे थे तब मुद्राजी ने समूची ‘तार-सप्तक’ मुहिम को ‘एक्सपेरिमेंटल राइटिंग इन अमेरिका’ की अनुकृति सिद्ध करते हुए डॉ.देवराज द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘युगचेतना’ में एक ध्वस्तकारी लेख लिख डाला। मुद्राजी का मुद्राराक्षस नाम भी इसी लेख के चलते चल निकला क्योंकि डॉ. देवराज ने मुद्राजी के मूलनाम सुभाष चन्द्र आर्य के नाम से इसे न प्रकाशित कर मुद्राराक्षस के छद्मनाम से प्रकाशित किया था। तब मुद्राजी मात्र बाईस वर्ष के थे। यह लेख इतना चर्चित और बहस-मुबाहिसे का केंद्र बना कि मुद्राजी को अपना वास्तविक नाम छोड़कर छद्मनाम ही अपनाना पड़ा, लेकिन नाम के छद्म के अतिरिक्त मुद्राजी का सबकुछ एक खुली किताब था। उनका न रहना सचमुच एक पटाक्षेप है। उनकी स्मृति में हार्दिक नमन।
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