head advt

सीता का परित्याग और राम — नीरेंद्र नागर


सीता का परित्याग और राम — नीरेंद्र नागर

सीता को तुमने भेजा वन, अब क्यों हैं तेरी आंखें नम? 

जो लोग सीता के परित्याग के लिए राम की आलोचना करते हैं, वे राम का ऐसा स्वरूप पेश करते हैं मानो राम एक पत्थरदिल और सत्तालोलुप इंसान थे जिनको अपना सिंहासन इतना प्रिय था कि उसको खोने के भय से सीता को ही जंगल भेज दिया जबकि वह जानते थे कि सीता निष्कलंक हैं। वे यह भूल जाते हैं कि राम को यदि सिंहासन इतना ही प्रिय था तो वह उसे ठुकराकर 14 वर्ष के लिए वनवास को नहीं चले जाते। — नीरेंद्र नागर


br />

एक पति के रूप में राम को गहराई से परख

मैंने बताया था कि रामायण मैंने पूरा नहीं पढ़ा है हालांकि रेफरंस के लिए घर में रखा है ताकि राम से जुड़े अपने पसंदीदा विषय सीतात्याग, बालिवध, शंबूकवध आदि पर लिखते समय श्लोकादि का हवाला दे सकूं। हाल में हमारी एक ब्लॉगर ने ब्लॉग लिखा – ‘राम एक अच्छे राजा थे लेकिन बहुत बुरे पति थे ’ तो मैंने सोचा, क्यों नहीं एक पति के रूप में राम को गहराई से परखा जाए। मुझे याद आया कि आज से क़रीब 25 साल पहले मेरे वरिष्ठ सहकर्मी डॉ. सूर्यकांत बाली ने (जिनके साथ अपनी वैचारिक असहमति के बावजूद मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं) बताया था कि सीता के त्याग के बाद राम कितने दुखी हुए थे और किस तरह आंसू बहा रहे थे। मैंने सोचा, किताब घर में है ही तो ज़रा इसकी पड़ताल कर ली जाए। मैंने पढ़ा और इसे सच पाया। और सबसे बड़ी जानकारी तो यह मिली कि राजधर्म के बारे में उनका क्या कहना था।


बात तब की है जब लक्ष्मण सीता को वाल्मीकि आश्रम में छोड़कर आए। मैं श्लोक नहीं लिख रहा, केवल उनका अनुवाद कांड, सर्ग और श्लोक के संदर्भ के साथ दे रहा हूं ताकि किसी पाठक को अपने स्तर पर इनकी सच्चाई परखनी हो तो आसानी से परख सके।
br />

राजमहल के द्वार पर रथ से उतरकर वे नरश्रेष्ठ लक्ष्मण नीचे मुख किए दुखी मन से बेरोकटोक भीतर चले गए। उन्होंने देखा, श्रीरघुनाथजी दुखी होकर एक सिंहासन पर बैठे हैं और उनके दोनों नेत्र आंसुओं से भरे हैं।
(वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/5-6)

इस अवस्था में बड़े भाई को सामने देख दुखी मन से लक्ष्मण ने उनके दोनों पैर पकड़ लिए और हाथ जोड़कर चित्त को एकाग्र करके वे दीन वाणी में बोले – ‘वीर महाराज की आज्ञा शिरोधार्य करके मैं उन शुभ आचारवाली, यशस्विनी जनककिशोरी सीता को गंगातट पर वाल्मीकि के शुभ आश्रम के समीप निर्दिष्ट स्थान में छोड़कर पुनः आपके श्रीचरणों की सेवा के लिए यहां लौट आया हूं। पुरुषसिंह! आप शोक न करें। काल की ऐसी ही गति है। आप जैसे बुद्धिमान और मनस्वी मनुष्य शोक नहीं करते हैं।
(वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/7-10)

‘संसार में जितने संचय हैं, उन सबका अंत विनाश है, उत्थान का अंत पतन है, संयोग का अंत वियोग है और जीवन का अंत मरण है। अतः स्त्री, पुत्र, मित्र और धन में विशेष आसक्ति नहीं करनी चाहिए क्योंकि उनसे वियोग होना निश्चित है। कुकुत्स्थकुलभूषण! आप आत्मा से आत्मा को, मन से मन को तथा संपूर्ण लोकों को भी संयत करने में समर्थ हैं, फिर अपने शोक को काबू में रखना आपके लिए कौन बड़ी बात है?
(वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/11-13)

‘आप जैसे श्रेष्ठ पुरुष इस तरह के प्रसंग आने पर मोहित नहीं होते। रघुनंदन! यदि आप दुखी रहेंगे तो वह अपवाद आपके ऊपर फिर आ जाएगा। नरेश्वर! जिस अपवाद के भय से आपने मिथिलेशकुमारी का त्याग किया है, निस्संदेह वह अपवाद इस नगर में फिर होने लगेगा (लोग कहेंगे कि दूसरे के घर में रही हुई स्त्री का त्याग करके ये रातदिन उसी की चिंता से दुखी रहते हैं) अतः पुरषसिंह! आप धैर्य से चित्त को एकाग्र करके इस दुर्बल शोकबुद्धि का त्याग करें — संतप्त न हों।’
(वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/14-16)



महात्मा लक्ष्मण के इस प्रकार कहने पर मित्रवत्सल श्रीरघुनाथजी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उन सुमित्राकुमार से कहा — नरश्रेष्ठ वीर लक्ष्मण! तुम जैसे कहते हो, ठीक ऐसी ही बात है। तुमने मेरे आदेश का पालन कया, इससे मुझे बड़ा संतोष है। सौम्य लक्ष्मण! अब मैं दुख से निवृत्त हो गया। संताप को मैंने हृदय से निकाल दिया और तुम्हारे सुंदर वचनों से मुझे बड़ी शांति मिली है।’
(वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 52/19)
br />

सीता को वन में छोड़ते समय लक्ष्मण की स्थिति

ऊपर के श्लोक पढ़कर आपको लग रहा होगा कि लक्ष्मण कैसे चतुर और बातों के खिलाड़ी हैं कि दार्शनिक बातें करके राम को बहला-फुसला लिया और उनको सीता की चिंता से मुक्त करा दिया। लेकिन देखिए, सीता को वन में छोड़ते समय ख़ुद लक्ष्मण की क्या स्थिति थी। यहां आपको बता दें कि सीता को नहीं पता था कि लक्ष्मण उनको गंगातट के निकट ऋषियों के आश्रम के दर्शन कराने नहीं ले जा रहे बल्कि हमेशा के लिए छोड़ने के लिए ले जा रहे हैं।

दोपहर के समय भागीरथी की जलधारा तक पहुंचकर लक्ष्मण उसकी ओर देखते हुए दुखी होकर उच्चस्वर से फूटफूटकर रोने लगे।
(वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 46/24)

तदनंतर भागीरथी के उस तटपर पहुंचकर लक्ष्मण के नेत्रों में आंसू भर आए और उन्होंने मिथिलेशकुमारी सीता से हाथ जोड़कर कहा –– ‘विदेहनंदिनी! मेरे हृदय में सबसे बड़ा कांटा यही खटक रहा है कि आज रघुमाथजी ने बुद्धिमान होकर भी मुझे वह काम सौंपा है, जिसके कारण लोक में मेरी बड़ी निंदा होगी। इस दशा में यदि मुझे मृत्यु के समान यंत्रणा प्राप्त होती अथवा मेरी साक्षात मृत्यु ही हो जाती तो वह मेरे लिए परम कल्याणकारक होती। परंतु इस लोकनिंदित कार्य में मुझे लगाना उचित नहीं था। शोभने! आप प्रसन्न हों। मुझे कोई दोष न दें,’ ऐसा कहकर हाथ जोड़े हुए लक्ष्मण पृथ्वी पर गिर पड़े।
(वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 47/4-6)

राम ने लक्ष्मण से क्या कहा

चलिए, अब आगे देखते हैं कि सीता के संताप से मुक्त होकर राम ने लक्ष्मण से क्या कहा।

‘सौम्य! सुमित्राकुमार! मुझे पुरवासियों का काम किए बिना चार दिन बीत चुके हैं, यह बात मेरे मर्मस्थल को विदीर्ण कर रही है। पुरुषप्रवर! तुम प्रजा, पुरोहितों और मंत्रियों को बुलाओ। जिन पुरुषों अथवा स्त्रियों को कोई काम हो, उनको उपस्थित करो। जो राजा प्रतिदिन पुरवासियों के कार्य नहीं करता, वह निस्संदेह सब ओर से निश्छिद्र अतएव वायुसंचार से रहित घोर नरक में पड़ता है।
(वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग – 53/4-6)

इसके बाद राम ने लक्ष्मण को राजा नृग की कहानी सुनाई जिसके द्वार पर दो ब्राह्मण एक गाय के स्वामित्व का विवाद लेकर गए थे लेकिन राजा ने कई दिनों तक उनको समय ही नहीं दिया जिसपर उन्होंने उसे सब प्राणियों से छुपकर रहनेवाला गिरगिट बन जाने का शाप दे दिया।

इसक बाद राम फिर कहते हैं –

‘इस प्रकार राजा नृग उस अत्यंत दारुण शाप का उपभोग कर रहे हैं। अतः कार्यार्थी पुरुषों का विवाद यदि निर्णीत न हो तो वह राजाओं के लिए महान दोष की प्राप्ति करानेवाला होता है। अतः कार्यार्थी मनुष्य शीघ्र मेरे सामने उपस्थित हों। … तुम जाओ, राजद्वार पर प्रतीक्षा करो कि कौन कार्यार्थी पुरुष आ रहा है।
(वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 53/24-26)

श्रीरघुनाथजी के दोनों नेत्र आंसुओं से भर गए

यह सब पढ़कर आपके मन में राम की कैसी छवि उभरती है, मुझे नहीं मालूम लेकिन मुझे वह एक ऐसे आदर्श शासक के रूप में दिखे जो निजी और सार्वजनिक जीवन के कर्तव्यों के आंतरिक संघर्ष में फंसे हुए हैं। जो राजा इस बात से चिंतित हो कि चार दिनों से जनता के काम नहीं हो रहे, उस राजा के लिए यह पद सत्ता का सुख भोगने का साधन नहीं है बल्कि कर्तव्य निभाने का माध्यम है। इस कर्तव्य को निभाने के दौरान यदि उनको किसी का भी त्याग करना पड़े तो वह उसके लिए तैयार हैं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब राम ने सभी भाइयों को बुलाकर सीता का त्याग करने का अपना फ़ैसला सुनाया था, तब कहा था –

‘नरश्रेष्ठ बंधुओ! मैं लोकनिंदा के भय से अपने प्राणों को और तुम सबको भी त्याग सकता हूं। फिर सीता का त्यागना कौन बड़ी बात है? अतः तुमलोग मेरी ओर देखो। मैं शोक के समुद्र में गिर गया हूं। इससे बढ़कर कभी कोई दुख मुझे उठाना पड़ा हो, इसकी मुझे याद नहीं है।’
(वाल्मीकि रामायण, सर्ग – 46/15-16)

आगे वह ज़ोर देकर कहते हैं कि उनके इस निर्णय में परिवर्तन के लिए कोई ज़ोर न डाले और आदेश देते हैं कि सीता को वन में भेजने की व्यवस्था की जाए।

इस प्रकार कहते-कहते श्रीरघुनाथजी के दोनों नेत्र आंसुओं से भर गए। फिर वे धर्मात्मा श्रीराम अपने भाइयों के साथ महल में चले गए। उस समय उनका हृदय शोक से व्याकुल था और वे हाथी के समान लंबी सांस खींच रहे थे।
(वाल्मीकि रामायण, सर्ग – 46/24-25)
br />

जो लोग सीता के परित्याग के लिए राम की आलोचना करते हैं, वे राम का ऐसा स्वरूप पेश करते हैं मानो राम एक पत्थरदिल और सत्तालोलुप इंसान थे जिनको अपना सिंहासन इतना प्रिय था कि उसको खोने के भय से सीता को ही जंगल भेज दिया जबकि वह जानते थे कि सीता निष्कलंक हैं। वे यह भूल जाते हैं कि राम को यदि सिंहासन इतना ही प्रिय था तो वह उसे ठुकराकर 14 वर्ष के लिए वनवास को नहीं चले जाते।

रामकथा कितनी सत्य है और कितनी कल्पित, इसपर मैं नहीं जा रहा लेकिन इस महाकाव्य में जो और जैसा वर्णन किया गया है, उसके आधार पर मुझे राम में वही मानवीय गुणावगुण मिलते हैं जो किसी भी राजपुरुष में हो सकते हैं — ख़ासकर उस दौर के राजपुरुष में। सिद्धार्थ गौतम ने भी जब अचानक एक रात पत्नी यशोधरा और बेटे राहुल को सोता छोड़ महाभिनिष्क्रमण किया था और जीवन के सच्चे अर्थ की तलाश में निकल पड़े तो उनका वह कदम परिवार के लिए कठोर कहा जा सकता है। लेकिन हम जानते है कि गौतम बुद्ध के रूप में उन्होंने विश्व को क्या दिया है। समष्टिहित के लिए व्यष्टिहित का बलिदान करना ही पड़ता है और संसार में जितनी भी महान विभूतियां हुई हैं, उन्होंने ऐसा किया है।

मैंने ऊपर राम के बारे में कहा कि वह एक ऐसे शासक प्रतीत होते हैं जो अपनी प्रजा के लिए काम करते हैं और उसकी सुख-समृद्धि की चिंता करते हैं। मैं जानता हूं, आपमें से कुछ पाठकों के मन में यह सवाल होगा कि राम जिन लोगों की बात सुनते थे, वे कौन थे। क्या वे आम लोग थे जैले दलित और आदिवासी या ख़ास लोग थे जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य?  आख़िर शंबूक को राम ने एक ब्राह्मण के कहने पर ही मारा था। क्या राम जिसे यह ग्रंथ भगवान कहता है और जिसे अधिसंख्य हिंदू विष्णु का अवतार यानी भगवान का ही रूप मानते हैं, उसकी नज़र में ब्राह्मण के बेटे का जीवन दलित के बेटे से ज़्यादा क़ीमती था? क्या भगवान भी जाति के आधार पर इंसान और इंसान में भेद करता है?

लेखक नवभारत टाइम्स में वरिष्ठ संपादक हैं

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

गलत
आपकी सदस्यता सफल हो गई है.

शब्दांकन को अपनी ईमेल / व्हाट्सऐप पर पढ़ने के लिए जुड़ें 

The WHATSAPP field must contain between 6 and 19 digits and include the country code without using +/0 (e.g. 1xxxxxxxxxx for the United States)
?