18th century India In Hindi![]() |
Now and 18th century India in hindi |
18वीं सदी की दिल्ली : नलिन चौहान
मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय को वर्ष 1772 में मराठा सेनापति महादजी सिंधिया के नेतृत्व में मराठा सेनाएं अपने संगीनों के साये में, इलाहाबाद से दिल्ली लाईं और उसे दिल्ली की गद्दी पर फिर से बिठाया
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नलिन चौहान |
जबकि अंग्रेजों से पहले दिल्ली पर मराठा आधिपत्य के समय में मालीवाड़ा, चिप्पीवाड़ा और तेलीवाड़ा जैसे मोहल्ले अस्तित्व में आएं। यह बात मराठी प्रत्यय "वाड़ा" से इंगित होती है। मराठी में वाड़ा का अर्थ रहने की जगह होता है.
महादजी सिंधिया
उल्लेखनीय है कि अपनी राजधानी में स्वयं प्रवेश करने में असमर्थ निर्वासित मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय को वर्ष 1772 में मराठा सेनापति महादजी सिंधिया के नेतृत्व में मराठा सेनाएं अपने संगीनों के साये में, इलाहाबाद से दिल्ली लाईं और उसे दिल्ली की गद्दी पर फिर से बिठाया। तब लगभग सभी अधिकार मराठों के पास आ गए थे। गौरतलब है कि अंग्रेजों ने पटपड़गंज की लड़ाई (वर्ष 1803) में मराठाओं को हराकर दिल्ली पर कब्जा किया था। मुगल बादशाह तो बस नाम का ही शाह था, जिसके लिए "शाह आलम, दिल्ली से पालम" की कहावत मशहूर थी। जबकि एक संप्रभु विदेशी ताकत के रूप में अंग्रेजों के सामने दिल्ली में अनेक समस्याएं थी। फिर भी अपने शासन को अलग दिखाने की गरज से वर्ष 1815 के गजट में दावा किया गया कि "अंग्रेजों के शांतिकाल" के पहले दस साल में शहर में जमीन का भाव दोगुना हो गया था।
दिल्ली 1858
तब दिल्ली को खाद्यान्नों की आपूर्ति दोआब क्षेत्र से होती थी। दोआब यानी दो नदियों — गंगा और यमुना — के बीच का इलाका। यह दो और आब (यानि पानी) शब्दों के जोड़ से बना है। जिसमें करीब आज के उत्तर प्रदेश के पांच जिले पूरे और करीब नौ जिले आंशिक रूप से आते हैं।
नॉएडा गोल्फकोर्स | तस्वीर: गुरप्रीत सिंह आनंद
यमुना नदी के पूरब यानि शाहदरा, गाजियाबाद और पटपड़गंज में अनाज मंडियां थी। ये मंडियां पुरानी दिल्ली के परकोटे भीतर बनी फतेहपुरी मस्जिद के नजदीक बाजार से जुड़ी हुई थी। दिल्ली के उत्तर-पश्चिम से सब्जियों और फलों की आपूर्ति होती थी, जो कि शहर के परकोटे से बाहर लाहौर जाने वाली जीटी रोड पर स्थित मुगलपुरा की सब्जी मंडी वाले थोक बाजार में बिकते थे। गौरतलब है कि 1780 के दशक के अंत में ही दिल्ली शहर में साठ बाजार थे और अनाज की भरपूर मात्रा में आपूर्ति होती थी।
वर्ष 1850 के बाद शहर में नागरिक आबादी के दबाव के कारण, चांदनी चौक और फैज बाजार की दो मुख्य सड़कों, जिसके बीच में शहर की दो प्रमुख नहरें बहती थी, की लंबाई के साथ-साथ घरों का निर्माण हुआ। एक मुगल माफीदार की संपत्ति मुगलपुरा स्थित सब्जी मंडी में ऊंची दीवारों, बगीचों वाले घर बने थे।
1803, पटपड़गंज की लड़ाई
नारायणी गुप्ता की "दिल्ली बिटवीन टू एंपायर्स" के अनुसार, इन घरों के दक्षिण दिशा में दरगाह नबी करीम (कदम शरीफ के करीब), तेलीवाड़ा और सिदीपुरा (जिसे वर्ष 1773 में मेहर अली सिदी को दिया गया था) थे। ये सभी जहांनुमा गांव की राजस्व संपत्ति का हिस्सा थे। जबकि राष्ट्रीय अभिलेखागार का वर्ष 1872 के "दिल्ली क्षेत्र में जागीर और छोटे देसी प्रमुखों की संपत्ति" शीर्षक वाला मानचित्र, दिल्ली के आसपास विशाल भूसम्पतियों को दर्शाता है। किसी नाम से पहले नवाब या राजा का उपयोग एक शासक के सम्मान में लिए जाने वाली उपाधि थी। यह बात समझने वाली है कि मुगल बादशाह जमीन के अलावा व्यक्तियों को उनकी सेवाओं और उपलब्धियों के लिए खिताब भी देते थे।
दिल्ली की संस्कृति उसकी परकोटे की दीवारों के भीतर निहित थी। प्रकृति के नजदीक होने की इच्छा एक व्यक्ति को शहर के बाहर नहीं देती थी क्योंकि ऐसा माना जाता था कि प्रकृति खुद बागों और शहर की आबोहवा में मौजूद थी। "अकबर-ए-रंगीन" किताब में सैयद मोइनुल हक ने लिखा है कि दिल्ली खास तौर अपनी आदमियत और नफासत भरे शहरी जीवन के लिए तारीफ-ए-काबिल जगह है।