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जानिये #मीटू और उसे हम कैसे बरत रहे हैं — यशस्विनी पांडेय #MeToo

यशस्विनी पांडेय






हिंदी में पीएचडी यशस्विनी पांडेय, बुद्ध के महापरिनिर्वाण भूमि कुशीनगर की जन्मी हैं. आजकल वडोदरा में रहती हैं. कविता, आलोचना, यात्रा-वृतांत के ज़रिये, लेखन में सक्रीय यशस्विनी समाज और उससे जुड़े मुद्दों पर भी अपनी राय रखती हैं. प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली यशस्विनी की जल्द ही सिनेमा और  स्त्री पर किताब आने वाली है. 

युवा लेखिका यशस्विनी की मीटू की समझ, समझ के कुछ और आयाम दिखाती है. यहाँ उनमें से कुछ उन्होंने दर्ज किये हैं. पढ़िए और जानिये #मीटू और उसे हम कैसे बरत रहे हैं.

भरत एस तिवारी
(संपादक)

जानिये 'मीटू' और कैसे उसे हम बरत रहे हैं 

— यशस्विनी पांडेय


शोषण’ चाहे शाब्दिक हो, शारीरिक हो, मानसिक या मनोवैज्ञानिक वो अस्तित्व और आत्मसम्मान को आहत करने वाला ही होता है। इस बारे में बात करना किसी के लिए कभी सुविधाजनक नहीं रहा न घर, न बाहर, न क़ानूनी रूप से क्योंकि इसे गंभीर समस्या के रूप में कभी लिया ही नहीं जाता। हाल ही में यह मुद्दा अचानक से तब भड़क उठा जब बॉलीवुड की अभिनेत्री तनुश्री दत्ता द्वारा बॉलीवुड के नायक नाना पाटेकर पर शोषण का आरोप लगाया गया। उसके बाद बॉलीवुड की कई महिलाओं ने फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े अन्य कई लोगों पर यौन शोषण के गंभीर आरोप लगाए। तनुश्री के इस खुलासे के बाद मीटू अभियान के भारतीय संस्करण की शुरू हुई और यह लगातार जोर पकड़ रहा और सुर्खियों में है। इस अभियान के तहत अन्य बहुत सी महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन हिंसा के अनुभवों को साझा किया। कई महिला पत्रकारों ने भी अपने साथ काम करने वाले कई पत्रकारों पर इसी तरह के आरोप लगाए। अभिनेताओं, निर्देशकों, पत्रकारों, नेताओं पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाने वाली महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। इस अभियान के तहत महिलाओं द्वारा किए जा रहे खुलासों पर बॉलीवुड और समाज में कई तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। विक्टिम के रूप में पुरुष भी अपने साथ हुए शोषण को साझा कर रहे हैं। सवाल ये उठता है कि ये महिलायें तनुश्री दत्ता से लेकर आम जनता तक (पुरुष, स्त्री) अभी तक चुप क्यों थे? दस साल बाद या लम्बे समय बाद अपने को विक्टिम बताने-बनाने का जख्म अचानक से कैसे उभर गया।



दोषी स्त्रियों का क्या?!

मीटू अभियान में केवल पुरुष द्वारा सताई लड़कियों को ही समर्थन नहीं मिलना चाहिए दोषी स्त्रियां भी इस दायरे में आएंगी। शोषण हर जगह है, हर रिश्ते में है, हर किसी में एक शोषक कहीं न कहीं है पर इस शोषक का तभी क्यों नहीं विरोध किया जाता? जब सामने वाले की बातों से उसका मंतव्य स्पष्ट हो रहा हो तो विरोध तुरंत होना चाहिए। जरुरी नहीं ये विरोध चिल्ला-चिल्ला के ही किया जाये हर समस्या से निपटने के कई तरीके होते हैं, अगर वाकई आप उसे ऐसे नहीं छोड़ देना चाहते। ऐसे किसी भी प्रकार के शोषण को शुरू में ही न पनपने दिया जाए तो कितनी अप्रिय घटनाएँ घटने से बचा जा सकता है।



असंवेदनशील जोक्स वाला सोशल मीडिया 

सोशल मीडिया के जरिये बड़ी ही असंवेदनशीलता के साथ जोक्स शेयर किये जा रहे हैं और लोग चटकारे लेकर इसका आनंद ले रहे हैं। एक जोक में एक महिलाकर्मी, जिसे बदसूरत बेडौल सा दिखाया गया है, अपने बॉस पर आरोप लगाती है कि तुमने मेरा कभी हैरेसमेंट नहीं किया दूसरी महिला कर्मियों का किया। इस भेदभाव नीति के लिए मैं तुम पर मुकदमा करूँगी। एक अन्य तस्वीर पर बूढ़ी महिला जिसके चेहरे पर झुर्रियां है और बुढ़ापे के असर में पूरा चेहरा है, कह रही है 1938 में अशोक कुमार हमारे गांड पर हाथ फेरे थे। इस तरह की अन्य तस्वीरें से कई नामी लोगों को टैग कर के मजाक बनाया जा रहा। इतना ही नहीं गानों में भी इस तरह की नकारात्मक और माखौल की क्रियेटिविटी का खूब इस्तेमाल हो रहा।  जैसे मीना कुमारी ने तभी आगाह कर दिया था कि ‘इन्ही लोगो ने ले लिया दुपट्टा मेरा’ और गवाह के रूप में सिपहिया, बजजवा, रंगरजवा का नाम भी लिया पर किसी ने कान नहीं धरा। इस तरह के मजाक बनाना उन पर चटकारे लेकर हँसना और दूसरों को भी हंसाने के लिए शेयर करना निश्चित रूप से असंवेदनशीलता का परिचायक है। समाज का एक बड़ा तबका चाहे वो किसी भी आयु, वर्ग का हो इस मुद्दे को सेक्स जोक्स की तरह पेश करके समाज के पतनशील होने के साथ अपनी विकृति का परिचय दे रहा है।

yashaswinipathak@gmail.com


जानिये कौन 'कौन' है : इन्डियन एक्सप्रेस मीटू ट्रैकर

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(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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2 टिप्पणियाँ

  1. ऐसे किसी विचार को शुरू में ही ना पनपने दिया जाय l बिलकुल सही लिखा है आपने l

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  2. सही कहा आपने। एकाएक लग रहे आरोपों से कहीं ना कहीं वह मूल धारणा जिसके विरोध में, जिसके विद्रोह के लिए स्वर उठाया गया वह भ्रमित सा हुआ दिखाई पड़ता है।

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