head advt

Hindi Poetry: नौ नवम्बर व अन्य — अनामिका अनु की कवितायेँ


हिंदी पोएट्री: नौ नवम्बर व अन्य 

अनामिका अनु की कवितायेँ

Hindi Poetry, Anamika Anu.

अनामिका अनु की इन कविताओं को आपके सामने लाने के पहले कई-कई दफ़ा पढ़ा है। हिंदी कविता के साथ यह बहुत खूबसूरत घटना घट रही है जब उसकी कविता को ऐसी एक नई आवाज़ मिल रही है जो परिपक्व उम्र होने के बाद, एक ऐसे वातावरण में लिखी जा रही है जो उसकी जन्म-भूमि — देश की हिंदी-पट्टी —  से करीब एक दशक दूर रहते हुए, सांस्कृतिक रूप से बेहद जुदा, देश के दक्षिणी एक हिस्से, केरल के तिरुअनंतपुरम में  मलयालम परिवेश में रहते बसते बन रहा है। बाकी, समय इस बार भले इन कविताओं को देर से बाहर लाया है, लेकिन अब जब आ गया है तो छा जायेगा. हिंदी कविता को अनामिका अनु की बधाई!



भरत एस तिवारी
शब्दांकन संपादक

- - - - - -  - - -


नौ नवम्बर

प्रेम की स्मृतियाँ
कहानी होती हैं,
पर जब वे आँखों से टपकती हैं
तो छंद हो जाती हैं।

कल जब पालयम जंक्शन
पर रुकी थी मेरी कार
तो कहानियों से भरी एक बस रुकी थी
उससे एक-एक कर कई कविताएँ निकली थीं

उनमें से मुझे सबसे प्रिय थी
वह साँवली, सुघड़ और विचलित कविता
जिसकी सिर्फ आँखें बोल रही थीं
पूरा तन शांत था।
उसके जूड़े में कई छंद थे
जो उसके मुड़ने भर से
झर-झर कर ज़मीन पर गिर रहे थे
मानो हरश्रृंगार गिर रहे हों ब्रह्ममुहुर्त में।

ठीक उसी वक्त
बस स्टैंड के पीले छप्पर
को नजर ने चखा भर था
तुम याद आ गये

"क्यों?
मैं पीला कहाँ पहनता हूँ? "

बस इसलिए ही तो याद आ गये!

उस रंगीन चेक वाली शर्ट पहनी
लड़की को देखते ही तुम मन में
शहद सा घुलने लगे थे

"वह क्यों?
तुम तो कभी नहीं पहनती सात रंग?"

तुम पहनते हो न इंद्रधनुषी मुस्कान
जिसमें सात मंजिली खुशियों के असंख्य
वर्गाकार द्वार खुले होते हैं
बिल्कुल चेक की तरह
और मेरी आँखें हर द्वार से भीतर झांक
मंत्रमुग्ध हुआ करती हैं।

आज सुग्गे खेल रहे थे
लटकी बेलों की सूखी रस्सी पर
स्मृतियों की सूखी लता पर तुम्हारी यादों के हरे सुग्गे
मैंने रिक्त आंगन में खड़े होकर भरी आँखों से देखा था
वह दृश्य

तुम्हारी मुस्कान की नाव पर जो किस्से थे
मैं उन्हें सुनना चाहती हूँ
ढाई आखर की छत पर दिन की लम्बी चादर को
बिछा कर
आओगे न?

तुम मेरे लिए पासवर्ड थे
आजकल न ईमेल खोल पाती हूँ
न फेसबुक
न बैंक अकाउंट
बस बंद आँखों से
पासवर्ड को याद करती हूँ
क्या वह महीना था?
नाम?
या फिर तारीख!
.
.
.
.
.



प्रेम के रंग

1.
  वातानुकूलित कमरे में तुम मुझे याद नहीं आते
  अपने अध्ययन कक्ष में जब लिखते पढ़ते
  पसीने में तर-ब-तर सो जाती हूँ
  तब नींद की सबसे खूबसूरत सीढ़ी पर तुम मुझे मिलते हो
  कविता लिखते।


2.
  तुम्हारे चश्मे के आसपास मेरी आँखों का डेरा है
  तुम मुझे मुस्कुराते हुए थमाते हो वह नींद की किताब
  जिसमें सारे शब्द जाग रहे होते हैं
  किसी पंक्ति में ठंडी नदी
  किसी में  काली गुफाएँ
  मैं थक कर सो जाती हूँ।


3.
  तुम अनगढ़ कितने सुंदर लगते हो
  मुचड़े कपड़ों में कितने प्यारे लगते हो
  जब लिख रहे होते हो
  मुझे ख़ुदा लगते हो
  एक मज़ार सा आलम बन जाता है आसपास
  मैं  कितनी किताबें लेकर आती हूँ
  तुम एक बार खिली आँखों से देख मुसकाते हो
  और कहते हो
  तुम्हारी दुआ क़ुबूल हो प्यारी लड़की
  तुम यों ही शब्द ओढ़कर कर आती रहना।


4.
  प्रेम में  देह गौण,
  मिलन अवांछित,
  संवाद मूल्यहीन
  और पीड़ा अनिवार्य सुख की तरह आती है


5.
  प्रेम भुलाया नहीं जाता
  अव्यक्त पीड़ाओं का यह कोष
  सबको दिखाई नहीं देता
  क़ब्र पर खिले पीले फूल
  मिट्टी में मिली इंसानी गंध को नकारते नहीं
  प्रेम करके हम मुकरते नहीं


6.
  मैं बंध नहीं पाया
  मैं कई बार बस ठहरा हूँ
  मैं उम्र भर चला हूँ
  मैंने जन्म और मृत्यु के बीच
  एक यात्रा की है
  जिसमें कुछ भी स्थायी नहीं था
  तुम्हारी मुस्कान और मेरे पसीने की बूँद जैसी
  बेशक़ीमती चीज़ें भी ख़र्च हो गयी
  ज़िंदगी बहुत महंगी मोल ली थी मैंने

.
.
.
.
.



मैं  भूल जाता हूँ 

जब घोंघे आते हैं
घर का नमक चुराने
मैं  बतलाना भूल जाता हूँ
नमक जो बंद है शीशियों में
उनका उनसे कौन सा रिश्ता पुराना है

कृष्ण की मजार पर चादर हरी सजी है
मरियम के बुर्कें में सलमा सितारा है
अल्लाह के मुकुट में मोर बंधे है
नानक के सिर पर नमाज़ी निशान है
लोग कहते हैं —
मैं भूल जाता हूँ
कौन सी रेखाएं कहाँ खींचनी है!

मैं आजकल बाजार से दृश्य लाता हूँ
समेट कर आँखों में
भूल जाता हूँ खर्च कितना किया समय?
झोली टटोलती उंगलियों को
आँखों के सौदे याद नहीं रहते

मैं पढ़ता जाता हूँ
वह अनपढ़ी रह जाती है
मैं लिखता जाता हूँ
वह मिटती जाती है

खिड़की के पास महबूब की छत है
मैं झाँकना भूल जाता हूँ
वह रूठ जाती है
       
मैं भूल जाता हूँ
चार तहों के भीतर इश्क़ की चिट्ठियाँ रखना
आज जब पढ़ रहे थें बच्चे वे कलाम
तो कल की वह आँधी
और मेरी खुली खिड़कियाँ याद आयी
अब तलक कलम की निभ तर है
कागज भीगा है
मैं भूल गया
कल बारिश के साथ नमी आयी थी !
.
.
.
.
.

लापता

मेरी दुनिया दर्द से बनी थी
बड़े-बड़े टोले मुहल्लों से शुरू होकर
अब तो भरी पड़ी हैं अट्टालिकाओं से।

एक आध कच्ची प्यार वाली गलियाँ थीं
मेरी सख़्त दुनिया की छाती पर
मैं उन गलियों में नंगे पाँव चली थी।
सड़क कच्ची थी
तलवे में एक झुनझुनाती ठंडक
दौड़ी थी

आज उन गलियों को तलाशने निकली
छोड़ कर दुनिया का सबसे सख़्त छोर।
पर आँखें पत्थर, कलेजा मोम
देखकर गलियों में बिछी कोलतार
और लगी बिजली की पोल

मैं लौटना चाहती हूँ पैदल
उस सख़्त टुकड़े पर
और पटकना चाहती हूँ
अपना सिर उन निर्जीव दीवारों पर जो
सूचना और इश्तिहार से भरी पड़ी हैं
लिखा है—
मैं लापता हूँ
.
.
.
.
.

दो भीगे शब्द

तुम क्या दे देते हो
जो कोई नहीं दे पाता
दो भीगे शब्द
जो मेरे सबसे शुष्क प्रश्नों का
उत्तर होते हैं।

तुम मुझसे ले लेते हो तन्हा लम्हें
और मैं महसूस करती हूँ
एक गुनगुनाती भीड़
खुद के खूब भीतर

मेरी पीड़ाओं पर तुम्हारा स्पर्श
एक नयी रासायनिक प्रतिक्रिया
का हेतु बनता है
मेरी पीड़ाएँ तुम्हारे स्पर्श में घुलकर शहद हो जाती हैं
मैं मीठा महसूस करती हूँ।
.
.
.
.
.

मुझे देखा भी है!

अपने कितने काढ़े क़सीदे आज उघाड़े हमने
तब जाकर इतनी सी हक़ीक़त तुमने देखी है

कितनी अपनी छवियाँ धूमिल
कर बाहर निकलूंगा।
कितना अनगढ़ हूँ मैं,
अभी तुम्हें बतलाना बाक़ी है।
कितने और मुखौटों को चीर फाड़ कर फेकूंगा
फिर आइने में ख़ुद को ज़रा-ज़रा सा देखूंगा।
.
.
.
.
.

झाँकना

काश कि वह झाँकता
इस तरह मेरे भीतर
कि खुल जाता उम्र का वह स्वेटर
जो वक्त के कांटे पर बुना गया था।
बिना मेरी इजाज़त के।
.
.
.
.
.

राख लड़कियाँ

राख लड़कियों की देह की माटी से बनी हैं
सभी देव प्रतिमाएँ
इसलिए ईशपूजा से भागती हैं ये लड़कियाँ।

जो लड़कियाँ धर्मच्यूत बताई जाती हैं
वास्तव में धर्ममुक्त होती हैं

वे न परंपरा ढोती हैं
न त्योहार
वे ढूँढ़ती हैं विचार

वे न रीति सोचती हैं
न रिवाज
वे सोचती हैं आज

नयी तारीख लिखती
इन लड़कियों की हर यात्रा तीर्थ है।
.
.
.
.
.

कोच्चि फोर्ट से

काम और अध्यात्म  के बीच लटका क्रूस हूँ
बजती घंटी की भीतरी दीवार का घर्षण हूँ
कड़क से टूट कर चूर हुई धूप का बिखरा, टूटा फैलाव हूँ

नारियल के पत्ते की फटी छाँव,
चर्चगीत,
कोच्चि फोर्ट की शांत सुबह के बीच
बेचैन मानसिक आंदोलन
ककरुण कैरोल मेरे अंदर
उम्मीद  के शिशु/येशु का जन्म
आमीन इस तरह से कहा जाता है
कि
मेरा येशु/शिशु खिलखिला उठता है
कोच्चि फोर्ट में बिनाले,
एसपिन हाॅल के पास
मेरा येसु/शिशु जन्म लेता है
येशु की जन्मस्थली मेरी आत्मा
चर्च से आती प्रार्थना के धुन,
उत्सव गीत।
कोई न पूछे
मेरे शिशु का पिता कौन है?
संबधों को पिछली रात पोतों में भरकर बहा दिया था
खारे समुद्र  में
रवाना होते जहाजों में स्टील की कील, जंजीरे
क्रूस और हथौड़ा
मेरा येसु/शिशु खिलखिला रहा है।
.
.
.
.
.

मेरी कविताओं में मैं होती हूँ

मेरी कविताओं में मैं होती हूँ
इनसे झलकती है मेरी न्यूनता
मेरे अहंकार, मेरी कुंठाएं
मेरी संकुचित दृष्टि,
मेरे न्यून शब्दकोष
मेरी छोटी सी दुनिया
मेरे विचित्र से तौर तरीके ।
मैं  जिन दुर्लभ क्षणों में ईमानदार होती हूँ
खुद से एक ही वादा करती हूँ
वह दिन मैं कोशिश से ले कर आऊंगी
जिस दिन मुझ से मिलकर
मेरी कविता निराश नहीं होगी।
   
मैं जब-जब किसी खूबसूरत इंसान से मिलती हूँ,
निःशब्द सुनती हूँ।
मेरी न्यूनता, उसकी गुरुता  बिल्कुल आजू-बाजू खड़ी होती हैं।
मैं देखती हूँ एक तराजू।
एक पल्ला झुका है, माटी से सटा है।
एक हवा में खाली डोल रहा है।

(फोटोग्राफ उमर तिमोल)
००००००००००००००००
Anamika Anu
Anamika Villa
House No. 31, Sreenagar, Kavu lane, Vallakadavu
Trivandrum
Kerala.
Pin:695008





एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

गलत
आपकी सदस्यता सफल हो गई है.

शब्दांकन को अपनी ईमेल / व्हाट्सऐप पर पढ़ने के लिए जुड़ें 

The WHATSAPP field must contain between 6 and 19 digits and include the country code without using +/0 (e.g. 1xxxxxxxxxx for the United States)
?