जगजीत सिंह की गायकी : धूप में चलते-चलते घने पेड़ की छांह | Jagjit Singh Life History in Hindi



Jagjit Singh
हिंदी साहित्य से जुड़े लोगों के बीच वरिष्ठ कवि-लेखक शैलेन्द्र शैल का बड़ा मान है. ज्ञानपीठ से प्रकाशित किताब  'स्मृतियों का बाइस्कोप' में शैल जी ने अपने साथियों से जुड़ी स्मृतियों को निष्पक्षता के साथ साझा किया है, जिसमें ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह भी शामिल हैं. आनंद उठाइए.
Life History in Hindi 

भरत एस तिवारी
शब्दांकन संपादक



मुझे लगा कि जगजीत सिंह की गायकी मखमल के एक थान की तरह खुलती है और वह धीरे-धीरे उसे सहलाता चलता है। इसे दूसरी तरह से कहें तो वह सिंगल माॅल्ट की तरह स्मूथ, गले से उतरती है, आप कुछ पल के लिए अपनी जुबान पर घुमाते हुए आंखें मूंद कर उसका स्वाद लेते हैं। फिर वह आपके सारे वजूद पर तारी हो जाती है। उसके बाद आप उसे देर तक हलके मीठे सरूर में सुनते रहते हैं। यह उसकी आवाज़ का तिलिस्म था।  — शैलेन्द्र शैल


जगजीत सिंह की गायकी : धूप में चलते-चलते घने पेड़ की छांह

— शैलेन्द्र शैल

जगजीत और मैं डी.ए.वी. कॉलेज जलन्धर में सहपाठी थे। वह श्रीगंगानगर से आया था। मैं पिताजी के स्थानान्तरण के कारण फरीदकोट से। शुरुआती दिनों में हम दोनों ऐसे स्कूलों में पढ़ते थे, जिन्हें हम तप्पड़वाले स्कूल कहते थे। बैंचे केवल आठवीं के बाद ही होती थीं। जगजीत छात्रावास में रहता था। हम लोग आदर्शनगर में। जब मैं उससे मिला तो वह गाहे-बगाहे कॉलेज के कार्यक्रमों में गाने लगा था। दिखने में वह अन्य सिख लड़कों की तरह साधारण-सा था। हां, वह पगड़ी ढंग से पहनता और घनी दाढ़ी कसकर बांध्ता था — शायद फिक्सो भी लगाता था। पढ़ाई में वह बस ठीक-ठाक था। कक्षा में वह सदा पीछे ही बैठने की फिराक में रहता ताकि अध्यापक की नज़र बचाकर भाग सके। कई बार मुझे या किसी और को हाजिरी लगवाने के लिए कह देता। कक्षा में आता ही न था। उसे बस पास भर होना था। मैं थोड़ा पढ़ाकू किस्म का था। वह मेरा वैसा दोस्त नहीं था जैसे सुरेश सेठ या नरेन्द्र वर्मा थे। सुरेश और मेरी रुचि साहित्य में थी। वह कहानियां लिखने का प्रयास कर रहा था और मैं कविताएं। नरेन्द्र और मैं वाद-विवाद और सम्भाषण प्रतियोगिताओं में भाग लेने के कारण एक-दूसरे के निकट आए। साहित्य से उसका दूर-दूर का भी वास्ता न था। इसी प्रकार जगजीत संगीत की दुनिया में खोया रहता, मैं पुस्तकों की दुनिया में। ये दोनों भिन्न ध्रुव थे।

जगजीत को मैंने धीरे-धीरे जाना। परत-दर-परत। कॉलेज में चुनाव हो रहे थे। थर्ड ईयर के प्रतिनिधि को उपाध्यक्ष बनाया जाता था। एम.ए. के प्रतिनिधि को अध्यक्ष। चुनाव के दिन जगजीत कमरे में बैठा रियाज़ करता रहा, वोट डालने आया ही नहीं। मैं एक वोट से चुनाव हार गया। मैंने अगले दिन उससे नाराज़गी ज़ाहिर की तो उसने बड़े भोलेपन से जवाब दिया — यार, माफ करना, मैं रियाज़़ के चक्कर में भूल ही गया। बहरहाल, मैं कॉलेज छात्रसंघ का उपाध्यक्ष बनाने से रह गया। एक तरह से यह अच्छा ही हुआ। अब मैं पूरी एकाग्रता से पढ़ाई पर ध्यान दे सकता था। कहानीकार रवीन्द्र कालिया अध्यक्ष चुन लिये गये थे। शायद निर्विरोध!

जगजीत का नाम जगमोहन रखा गया था, पर एक गुरु जी के कहने पर बदलकर जगजीत कर दिया गया। यह संगीत जगत को जीतने का पूर्वाभास हो सकता है। उसका बचपन अभावों में बीता। वे सात भाई-बहन थे और पिता छोटी सरकारी नौकरी करते थे। घर में बिजली पानी की व्यवस्था न थी। पिता अमर सिंह ने उसकी संगीत प्रतिभा को बचपन में ही पहचान लिया और उसे एक दृष्टिहीन गुरु पं. छगनलाल शर्मा के पास संगीत-शिक्षा के लिए भेज दिया। स्कूल के बाद वह एक-दो घंटे संगीत सीखता। हारमोनियम बजाना उसने छठी-सातवीं में ही सीख लिया था। कई बार गुरु-पुरब पर उसने गुरुद्वारे में संगीत कीर्तन में भाग भी लिया। ’ओ दुनिया के रखवाले’ बैजूबावरा का रफी द्वारा गया गीत उसने अपनी पतली और कच्ची आवाज़ में गाया। यह काफी सराहा गया।

फिर पांच-छह वर्ष तक उसने सेनिया घराने के उस्ताद जमाल खान से शास्त्रीय संगीत सीखा।

डी.ए.वी. कॉलेज में सांस्कृतिक गतिविधियों को बहुत प्रोत्साहन दिया जाता था। प्रिंसीपल सूरजभान ने प्रो. पी.डी. चौधरी को इसकी जिम्मेदारी सौंप दी थी। जगजीत अपना कमरा बंद कर रियाज़़ करता रहता। अन्य छात्रों के एतराज़ करने पर वह पीछे के जंगल में चला जाता। उस समय उसकी प्रतिभा को हममें से कोई नहीं पहचान पाया। धीरे-धीरे वह एक अन्य छात्र पुरुषोत्तम लाल के साथ प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगा। वे पुरस्कार और ट्राॅफियां जीत कर लाने लगे। कई विश्वविद्यालय-स्तरीय युवा-महोत्सवों में उन्होंने विजय पायी। इधर नरेन्द्र और मैं वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में पुरस्कार जीतने लगे। अकसर हम एक ही ट्रेन से सफ़र करते। कुली का पैसा बचाने के लिए अपना सामान खुद उठाते। उन दिनों जगजीत ने एक-दो ग़ज़लों का इतना रियाज़़ कर लिया था कि नींद-नींद में गाकर भी पुरस्कार जीत सकता था। उनमें से एक ग़ज़ल थी — अनवर मिर्ज़ा पुरी की ‘‘रुख से पर्दा हटा दे ज़रा साकिया, कि अब रंगे महफ़िल बदल जाएगा, जो है बेहोश वो होश में आएगा, गिरने वाला जो है वो सम्भल जाएगा।’’ वह इसे कहीं बहुत गहराई से पूरी मिठास और संजीदगी से गाता और दर्जनों पुरस्कार पाता। यह ग़ज़ल उसने अपनी पहली एलबम 1976 की ‘अनफोरगेटबल’ में शामिल नहीं की। बहुत वर्षों बाद वर्ष 2004 की एलबम ‘मुंतज़िर’ में उसे शामिल किया।

चूंकि वह मेरा दोस्त और सहपाठी था, केवल इसीलिए मैं उसकी तारीफ में लम्बे चौड़े कसीदे पढूं, यह अपने आपसे बेईमानी तो होगी ही, जगजीत को गायकी से भी नाइंसाफी होगी। यह संगीत की इतनी बुलन्दियों को छू लेगा, इस बात का हमें अन्दाज़ा भी न था। अकसर हम उसे तानसेन की औलाद या सहगल की आत्मा कहकर चिढ़ाते। वह हंसी-हंसी, में टाल जाता। दरअसल तब वह तलत महमूद की आवाज़ का दीवाना था। तलत मेरा भी चहेता गायक था। हम लोग बिनाका गीतमाला में या रेडियो के अन्य कार्यक्रमों में उसके गानों का इंतजार करते। हमारे पास न तो रिकॉर्ड प्लेयर था और नही रिकॉर्ड खरीदने के लिए पैसे।

पांच छोटे भाई-बहनों के साथ एक छोटे घर में रहते हुए मैं ठीक से पढ़ नहीं पा रहा था। अतः मैंने बी.ए. फाइनल की तैयारी के लिए प्रिंसीपल से निवेदन कर हॉस्टल में दो महीने के लिए एक कमरा ले लिया। कमरा मुझे जगजीत से तीन कमरे छाड़कर मिला। शाम को मैं यूं ही उसके कमरे पर चला गया। एक दीवार पर तलत के पोस्टर चस्पां थे। थोड़ी देर बाद उसने दरवाज़ा बंदकर लिया और अलमारी से सिगरेट का पैकेट निकाला और मेरी ओर बढ़ा दिया। मुझे हलका झटका लगा पर जल्दी ही सम्भल गया। मैंने कहा, ‘‘तुम पियो, मैं नहीं पीता। उसने सिगरेट सुलगाई ओर इत्मीनान से कश लगाने लगा। मुझे लगा वह अभी बेतहाशा खांसने लगेगा। पर उलटा वह तलत का गीत — ‘ये हवा ये रात, ये चांदनी गुनगुनाने लगा।

‘‘सो तुम्हें भी तलत पसंद है।’’

‘‘पसंद ही नहीं वह मेरा आदर्श है। पता नहीं, मैं कभी उस जैसा गा पाउँगा या नहीं?’’ इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास उस समय नहीं था। बाद में समय ने ही इसका उत्तर दिया।

अंग्रेजी के दूसरे पर्चे से एक शाम पहले मैं उससे फिर मिला। वह एक विशेष निबन्ध को रट्टा मार रहा था। मेरे पूछने पर उसने कहा कि यह कल अवश्य आ रहा है। उसने एक काग़ज़ मेरी ओर बढ़ा दिया। वह पेपर की हाथ से लिखी कार्बन कॉपी थी। रट्टा मार लो — ये ही निबंध, पत्र, पैराग्राफ आएंगे। उसने यह भी बताया कि रेलवे फाटक पर कोई बीस-बीस रुपये में बेच रहा है। मैं इसे हंसी में टाल गया। ऐसा कैसे हो सकता है? ठीक है, तो मारो सभी निबंधें को रट्टा। अगले दिन मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब हुबहू वही प्रश्न आए। खैर चूंकि मैंने पूरी तैयारी कर रखी थी, मेरा पेपर बहुत अच्छा हो गया। कुछ दिनों बाद वह पेपर दोबारा हुआ। लीक हो जाने के कारण।

बी.ए. के बाद यह एम.ए. (इतिहास) करने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय चला गया। वहां प्रिंसीपल सूरजभान कुलपति नियुक्त हो गए थे। उन्होंने उसकी पूरी फीस, कमरा और खाना-पीना मुफ्त कर दिया। मेरे पास एक छात्रवृत्ति थी, मैं पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ आ गया। वह एम.ए. बीच में ही छोड़कर कुछ समय इधर-उधर भटकता रहा।

आकाशवाणी पर दो-तीन बार गायन का अवसर भी मिला। वर्ष 65 में आंखों में ढ़ेर सारे सपने संजोकर उसने पठानकोट एक्सप्रेस से मुम्बई का रुख किया। वहां वह दिन भर काम के लिए भटकता और रात को शेरे-पंजाब होस्टल के एक कमरे में लौट आता। वहां चार लोहे की चारपाइयां और खटमलों से भरे गद्दे पड़े थे। रात को अन्य तीन लोगों के खरांटों से बेखबर थका-हरा वह गहरी नींद सो जाता।

कुछ दिन बाद उसे लगा कि पगड़ी और दाढ़ी के कारण लोग उसे गम्भीरता से ग़ज़ल गायक नहीं समझते। अपने ईश्वर से क्षमा मांग और जी कड़ाकर उसने दाढ़ी-केश कटवा दिए। शीशे में शक्ल देखकर उसे लगा कि अब ठीक है — वह असली मायने में ग़ज़ल गायक लगता है। नाम बदलने के बारे में उसने सोचा ज़रूर पर मां-बाप और गुरुजी के दिए नाम को उसने रहने दिया। सोचा कि यदि उसे कुछ बनना है तो इसी नाम से बन जाएगा।

प्रमाण पत्रों की फाइल उठाकर अब वह आकाशवाणी, संगीत निर्देशकों तथा रिकॉर्ड कंपनियों के चक्कर काटने लगा। गुज़ारे के लिए वह प्राइवेट पार्टियों और ब्याह-शादियों में गाने लगा। फिर दौर आया विज्ञापनों के जिंगल बनाने का। वर्ष 67 में उसकी भेंट आकाशवाणी के स्टूडियो में चित्रा दत्ता से हुई जो तलाकशुदा थी और संघर्ष कर रही थी। उसके एक छह वर्षीय बेटी भी थी। धीरे-धीरे यह मुलाकात कब प्यार में बदल गई, उन्हें पता ही न चला। शायद संगीत ने ही उन्हें एक सूत्र में बांध। वर्ष 69 में उन्होंने विवाह कर लिया। वर्ष 71 में बेटा विवेक पैदा हुआ।

तब तक ग़ज़ल गायकी पर मुख्यतः मुस्लिम गायकों का दबदबा था। जगजीत और चित्रा ने मिलकर जिंगल बनाए और आकाशवाणी पर गाया भी। अब वे और जोश से रिकार्डिंग कंपनियों के चक्कर लगाने लगे। अंततः वर्ष 74 में एच.एम.वी. ने ‘अनफोरगेटेबल’ नाम से एक एलबम निकाली जिसमें दस गीत, नज़्म और ग़ज़ले थीं। दो उन्होंने इकट्ठे गायी थीं ओर आठ अलग-अलग। इसमें कफ़ील आज़र की नज़्म ‘बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी’ का जोरदार स्वागत हुआ। यह उसने ‘शमा’ पत्रिका से नोट की थी। फिर तो एक के बाद एक कई एलबम आयी।

उसके मुम्बई चले जाने के कारण एक तरह से हमारा संपर्क टूट गया। वर्ष 1980 में मैं वायुसेना मुख्यालय दिल्ली में नियुक्त था। एक सुबह समाचार-पत्र से पता चला कि जगजीत-चित्रा ‘एन्कोर’ नाम की एक संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रम में मार्डन स्कूल बाराखंबा रोड के शंकरलाल हॉल में अपना गायन प्रस्तुत करेंगे। नीचे एक फोन नंबर भी दिया गया था। आयोजक से फोन पर पूछने से पता चला कि वे अपने एक मित्र, वेस्टन टी.वी. के राम वचानी के मेफेयर गार्डन स्थित घर पर रूकेंगे। मैं पास में ही सर्वोदय एन्क्लेव में रहता था। शाम को पांच बजे के आसपास मैं उनसे मिलने चला गया। भव्य बंगले के बाहर खड़े एक गार्ड को मैंने अपना कार्ड दिया। उस पर मेरा सरकारी नाम था — शैल मैंने हाथ से लिखा। जगजीत ने मुझे तुरन्त भीतर बुला लिया। दोनों ड्राइंग रूप में ही थे। चित्रा दीवान पर अधलेटी थी। दोनों थोड़ा थके हुए दिख रहे थे — शायद लुधियाना से आए थे। पास में ही उनका बेटा विवेक, जिसे वे प्यार से बाबू बुलाते थे, खेल रहा था। जगजीत ठेठ पंजाबी स्टाइल में जफ्फी डाल कर मिला। चित्रा से मेरा परिचय कराया — यह शैल है, बी.ए. में हम इकट्ठा पढ़ते थे। पढ़ता तो यह था, मैं तो कभी-कभी हाज़िरी पूरी करने के लिए क्लास में चला जाता था। चित्रा थोड़ा मुस्कराई। उसका सेंस ऑफ ह्यूमर ग़ज़ब का था। मैंने उषा और दोनों बच्चों के बारे में बताया। कार्यक्रम के लिए डोनर कार्ड बांटे गए थे। उसने कहा कि मैं आऊँ और देखूं कि इतने वर्षों के बाद वह किस मुकाम पर पहुंचा है। उसने अपने विजिटिंग कार्ड के पीछे ‘आब्लाइज्ड’ लिखकर दो लम्बे ‘जे’ घसीट दिए। चित्रा एलबम के कवर पर जितनी लम्बी दिखती है, उतनी है नहीं। बमुश्किल पांच फुट दो इंच होगी। उसकी मोटी-मोटी आंखों ने मुझे प्रभावित किया। चूंकि उन्हें तैयार होना था मैं कोल्डड्रिंक पीकर उठ खड़ा हुआ।

मैं समय से पहले ही हॉल पर पहुंच गया ताकि उससे बात कर सकूं। कार्ड देखकर एक आयोजक ने मुझे स्टेज के पीछे भेज दिया। अब दोनों ताज़ा दम दिख रहे थे। जगजीत सफेद पेंट कमीज़ में था, कुर्ते में नहीं। गले में सफेद रंग का स्कार्फ झूल रहा था। कन्ध्े पर शाॅल था या नहीं, याद नहीं। चित्रा बढ़िया साड़ी में थी जो अधिक चमकदमक वाली न होते हुए भी सुंदर थी। उसने बालों का ऊंचा पफ बना रखा था। मोटी-मोटी आंखों में काजल और आई शैडो भी लगाया था। अब वह इतनी छोटी नहीं दिख रही थी। कुछ समय बाद उस्ताद अमजद अली खां अपनी पत्नी शुभलक्ष्मी के साथ आए। 35 वर्ष पहले वे हर समय कुर्ता नहीं पहनते थे। अतः सूट-टाई में थे। तब वे उस्ताद भी नहीं कहलाते थे। दस मिनट बाद शैरोन प्रभाकर भी आ गई। वह लम्बी काली ड्रेस में सुंदर और स्मार्ट दिख रही थीं। जगजीत ने एक साज़िन्दा भेजकर हमें सबसे आगे की पंक्ति में बैठने को कहा। उस्ताद ने थोड़ा उस्तादी दिखाते हुए मुझे और शैरोन को दो सिरों पर बिठा दिया। एक सिरे पर शैरोन, फिर शुभ लक्ष्मी, उसके साथ अमजद अली और फिर मैं। मैं दरअसल शैरोन के साथ बैठकर उससे बातें करना चाहता था। शास्त्राीय संगीत में उस समय मेरी इतनी रुचि न थी। मुझे एक सुन्दर लड़की के साथ बैठने से वंचित करने के लिए मैंने मन ही मन उस्ताद को कोसा तो ज़रूर होगा। शैरोन मुम्बई पहुंचकर थियेटर और विज्ञापन जगत से जुड़े अलिक पदमसी से मिली। उसने उसे प्रसिद्ध संगीत नाटिका (म्यूजिकल) एविटा में अवसर दिया। कुछ दिनों बाद ही उनका विवाह हो गया। वह पदमसी की दूसरी या शायद तीसरी पत्नी थी।

अजमद अली तब इतने प्रसिद्ध नहीं हुए थे। हालांकि उनकी प्रतिभा की चर्चा हो रही थी। हॉल धीरे — धीरे भरने लगा। पर्दा उठा और नमस्कार के बाद जगजीत ने अपनी पहली एलबम ‘अनफोरगेटबल’ से ‘बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी’ से बिस्मिल्लाह किया। वह शायद पहला ग़ज़ल गायक था जिसने गिटार और वायलिन का सफल प्रयोग अपने गायन में किया। दो तीन ग़ज़लों के बाद दर्शकों ने फरमाइश की चिटें भेजनी आरम्भ कर दीं। दोनों ने बारी-बारी से और इकट्ठे दो घंटे तक गायन किया। अंतिम ग़ज़ल के बाद सारा हॉल तालियों से गुंजायामान हो उठा।

मुझे लगा कि उसकी गायकी मखमल के एक थान की तरह खुलती है और वह धीरे-धीरे उसे सहलाता चलता है। इसे दूसरी तरह से कहें तो वह सिंगल माॅल्ट की तरह स्मूथ, गले से उतरती है, आप कुछ पल के लिए अपनी जुबान पर घुमाते हुए आंखें मूंद कर उसका स्वाद लेते हैं। फिर वह आपके सारे वजूद पर तारी हो जाती है। उसके बाद आप उसे देर तक हलके मीठे सरूर में सुनते रहते हैं। यह उसकी आवाज़ का तिलिस्म था।

फिर कई एल्बमों के बाद लता मंगेशकर के साथ ‘सजदा’ आई। वह डबल एल्बम एच.एम.वी. की सबसे अधिक बिकने वाली गैर फिल्मी एलबम बनी। ‘अर्थ’ और ‘साथ-साथ’ फिल्मी एलबम थीं, जो सबसे अधिक बिकीं। 1988 में गुलज़ार ने टीवी. सीरियल ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ का संगीत निर्देशन एवं गायन जगजीत को सौंपा। गालिब की ग़ज़लों को सहगल, बेग़म अख़्तर, सुरैया और तलत आदि उनके गायकों ने अपनी आवाज़ दी है। पर जगजीत को ‘अन्दाज़े बयां’ ही कुछ और है।

एक और किस्सा याद आ रहा है। वर्ष 94 के आसपास उसे अशोक होटल में अपनी प्रस्तुति देनी थी। आयोजकों ने यह बताने से मना कर दिया कि वह कहां ठहरा है। मैंने सोचा चूंकि वह अशोक में गा रहा है, वहीं ठहरा होगा। होटल को फोन करने पर, रिसेप्शन से उत्तर मिला कि हां वे ठहरे तो यही है, पर कमरा नंबर न बताने और फोन न लगाने की सख्त हिदायत दी है। मुझे एक मित्र ने डोनर कार्ड दे दिया। हॉल खचाखच भरा था — कुछ लोग खड़े भी थे। मैंने सोचा कार्यक्रम के बाद मिल लूंगा। पर तब वह अपने प्रशंसकों, ऑटोग्राफ लेने वालों से इस बुरी तरह से घिर चुका था कि मिलना मुश्किल था। सुरक्षा कर्मियों ने बहुत मुश्किल से उसे हॉल से बाहर निकाला। मेरे मिलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था।

अब वह देश में ग़ज़ल का बेताज बादशाह हो गया और ग़ज़ल जगत पर पूरी तरह छा गया। खुशवन्त सिंह सदा अतिशयोक्ति में बात करते थे। उन्होंने एक जगह लिखा — ‘जगजीत मेहदी हसन से अच्छा गाता और दिलीप कुमार से अधिक सुंदर दिखता है।’ यह मेहदी हसन और दिलीप साहब के साथ ही नहीं, जगजीत के साथ भी अन्याय था। मेहदी हसन का शास्त्राीय संगीत का आधर जगजीत से कहीं ज्यादा पुख्ता था। हां, वह छोटा-मोटा अभिनेता बन सकता था, यदि वह रोशन तनेजा के एक्टिंग स्कूल में अभिनय का प्रशिक्षण लेता। पर दिलीप तक पहुंचना किसके बस की बात है। वैसे भी जगजीत पर संगीत और ग़ज़ल का जनून तारी था।

एक बात और, उसकी ग़ज़लें और नज़्में बोल-प्रधान हैं। उनमें शब्द, भाव और अर्थ महत्वपूर्ण हैं। उर्दू उच्चारण को भी उसने उस्तादों से सीखा। जहां तक मेरी जानकारी हैं, उसे उर्दू नहीं आती थी। लिहाजा वह ग़ज़लों को देवनागरी लिपि में उतारता। बड़े परिश्रम से शब्दों के भाव और अर्थ तक पहुंचता, जिससे उसके गायन में एक अजीब रूहदारी पैदा होती है।

वर्ष 1987 में उसकी डिजिटली रिकॉर्ड होने वाली पहली ग़ज़ल एलबम ‘बियोंड टाइम’ बनी। उसने पूर्व प्रधनमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं को ‘नयी दिशा’ (1999) और ‘संवेदना’ नाम की एलबम में गाकर अमर कर दिया। ‘क्या खोया क्या पाया’ कविता में उसने एक तरह से रूह फूंक दी थी।

वर्ष 1990 में उसके इकलौते बेटे विवेक का एक दुर्भाग्यपूर्ण हादसे में निधन हो गया। दोनों शीशे की तरह टूटकर चूर-चूर हो गए। जगजीत ने तो जल्दी ही टुकड़ों को अपनी ज़ख्मी रूह से समेट लिया और फिर से अपने आप को संगीत की दुनिया में डुबा दिया। चित्रा जल्दी नहीं उभर पायी। वह पूरी तरह से टूट चुकी थी। पर जगजीत ने अपनी निजी त्रासदी को भुलाकर एक के बाद एक सफल कार्यक्रम दिए और कभी दर्शकों को मायूस नहीं किया।

इस त्रासदी से कई वर्ष पहले एक बार मैंने हंसी-हंसी में यूं ही कह दिया — ‘यार, अपने गले का बीमा करवा लो।’ बड़ी संजीदगी से उसने उत्तर दिया — ‘‘अगर मैं गा ही नहीं पाउंगा तो बीमा किस काम का?’’ मैं निरुत्तर होकर बस उसकी और देखता रह गया। सोचा — यह इंसान कहां से चला था और आज किस मुकाम पर पहुंच गया।

आज जब भी ग़ज़ल का ज़िक्र आता है, बेग़म अख़्तर और तलत महमूद के बाद जगजीत का नाम ही ज़ेहन में उभरता है। विश्व के हर बड़े देश में उसके प्रशंसक थे। लंदन के राॅयल एल्बर्ट हॉल और बेम्बले स्टेडियम में उसने गायन किया। ग़ज़ल के अतिरिक्त उसने भजन, गुरबाणी और सूफियाना कलाम गाए। उसके गाए गायत्री मन्त्र, हे राम, ओउम नमो शिवायः हर धर्मिक अनुष्ठान पर सुने जाते हैं।

10 अक्टूबर, 2011 को टी.वी पर समाचार आया, ‘‘लगभग 50 वर्षों तक श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध् करने वाले जगजीत सिंह नहीं रहे।’’ अदम्य जिजीविषा का धनी पूरा एक सप्ताह तक मौत के फरिश्ते से जूझता रहा था। शायद उसकी अन्तिम ग़ज़ल है — 

‘‘तुमसे बिछुड़कर तुमको भुलाना मुमकिन है आसान नहीं,
दीवाने दिल को समझाना, मुमकिन है आसान नहीं!’’

वर्ष 2012 में उसकी पुण्यतिथि पर फिल्मों और संगीत की दुनिया की सभी बड़ी हस्तियां मौजूद थी। गुलज़ार ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा — 
‘‘जगजीत की आवाज़ में चैन है, सकून है — हम धूप में चलते-चलते एक घने पेड़ की छांह में आ जाते हैं।’’

अनुपम खेर ने कहा — 
‘‘उनकी गायकी में एक मिठास है, वह आत्मा को छूती है।’’

शत्रुघ्न सिन्हा ने कहा, ‘‘हम उनके शेर सुनते ही नहीं, देखते भी हैं। वे शब्द चित्र बनाते चलते हैं।’’

यह बात दीगर है कि जगजीत को देश के सभी शीर्ष पुरस्कार चाहे वह संगीत नाटक आदमी पुरस्कार हो या फिर पद्मभूषण, प्राप्त हुए, पर मेरे लिए आज भी वह वही जगजीत है जिसके कमरे की दीवार पर तलत महमूद के पोस्टर चस्पां थे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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