हुसेन की यादें — विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा - 19: | Vinod Bhardwaj on Maqbool Fida Husain



कलात्मक संस्मरणनामा
मक़बूल फ़िदा हुसैन साहब से अपने संबंध की लम्बी यात्रा को विनोद भारद्वाज जी ने हुसैन की यादों में पूरी तरह डूबकर लेकिन सारा गुज़रा कल यादकर लिखा है. विनोद जी ने बताया की हुसैन ख़ुद को 'हुसेन' लिखते! इसलिए आगे अब 'हुसेन की यादें'। शुक्रिया विनोद जी... भरत एस तिवारी / शब्दांकन संपादक

हुसेन को हिंदी से भी बहुत प्रेम था। मुक्तिबोध की शव यात्रा में वह पैदल बिना किसी जूते के चले थे, और फिर उन्होंने नंगे पैर चलना ही अपनी नियति मान ली। ललित कला की नई हिंदी पत्रिका समकालीन कला के पहले संपादक प्रयाग शुक्ल थे और उन्होंने मुझसे हुसेन पर एक कवर स्टोरी लिखवाई। मुझे सेल्ज़ सेक्शन से पता चला, वह एक दिन आ कर अंक की पचास प्रतियाँ ख़रीद ले गए। — विनोद भारद्वाज 

हुसेन की यादें 

— विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा

सत्तर के दशक के मध्य में मैं मक़बूल फ़िदा हुसेन से पहली बार मिला था, जंगपुरा, दिल्ली में उन्होंने एक बरसाती में जगह ले रखी थी। दिनमान में मेरे वरिष्ठ सहयोगी और मित्र प्रयाग शुक्ल ने बताया, वह इन दिनों दिल्ली में हैं। शाम को उनसे मिलने चलते हैं। हम अक्सर शाम को दफ़्तर से किसी न किसी कलाकार के स्टूडीओ या गैलरी चले जाते थे। राम कुमार का स्टूडीओ , धूमीमल गैलरी, या ललित कला अकादमी का गढ़ी स्टूडीओ प्रयाग जी का और मेरा प्रिय स्थान था, गप्पबाज़ी और गंभीर कला विमर्श के लिए। 

हुसेन दिल्ली आते जाते रहते थे। तब तक वह मशहूर हो चुके थे, पर प्रयाग जी उन्हें हैदराबाद में कल्पना पत्रिका के दिनों से जानते थे। राजा बदरीविशाल पित्ती हुसेन के ख़ास दोस्त थे, वह समाजवादी थे, लोहिया जी अक्सर वहीं आते थे। लोहिया जी ने ही हुसेन को रामायण और महाभारत पर चित्र श्रंखलाएँ बनाने के लिए प्रेरित किया।

हुसेन में बड़े और सफल कलाकार होने के नाज़ नख़रे बिलकुल नहीं थे। कोई भी राह चलता उनसे घोड़े की ड्रॉइंग बनवा लेता था। एयर इंडिया में मेरे एक कज़िन के पास वह टिकट लेने गए, उसने उनसे बहुत सुंदर घोड़ा बनवा लिया जिसकी क़ीमत आज लाखों में है। 1979 में रवींद्र भवन, दिल्ली में हुसेन की एक बड़ी प्रदर्शनी हुई थी, रविवार के लिए मैंने उनका गैलरी में ही एक इंटर्व्यू लिया था। उसमें उन्होंने कहा था, घोड़े बेचता हूँ, फ़िल्में बनाता हूँ। 

हुसेन को हिंदी से भी बहुत प्रेम था। मुक्तिबोध की शव यात्रा में वह पैदल बिना किसी जूते के चले थे, और फिर उन्होंने नंगे पैर चलना ही अपनी नियति मान ली। ललित कला की नई हिंदी पत्रिका समकालीन कला के पहले संपादक प्रयाग शुक्ल थे और उन्होंने मुझसे हुसेन पर एक कवर स्टोरी लिखवाई। मुझे सेल्ज़ सेक्शन से पता चला, वह एक दिन आ कर अंक की पचास प्रतियाँ ख़रीद ले गए। 

अस्सी के दशक की शुरुआत में रूपा एंड कम्पनी के मालिक मेहरा ने मुझसे कहा, आप हुसेन की जीवनी लिखिए, हम हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में उसे छापेंगे। मैंने हुसेन से बात की। वह तय्यार हो गए। पर मैंने कहा, आप तो उड़ते पंछी हैं, कोई एक ठिकाना नहीं है। आपके पीछे पीछे दौड़ना आसान नहीं है। वह बोले, एक कैन्वस आपको गिफ़्ट कर दूँगा, बेच कर मेरे पीछे पीछे उड़ते रहिएगा। 

जीवनी के लिए उनसे पहली मुलाक़ात हॉलिडे इन (ललित होटल) में तय हुई, उस पाँच सितारा होटेल में उनके पास कमरा था। होटेल की लॉबी के लिए वह एक बड़ी म्यूरल पेंटिंग बना रहे थे। मैंने डेढ़ घंटे के कैसेट पर उनका बड़ा अच्छा इंटर्व्यू रेकर्ड किया। हुसेन और स्त्रियाँ। उन्होंने सोनाली दासगुप्ता पर बहुत अच्छा संस्मरण सुनाया, कैसे वह बॉम्बे से उसे बुर्क़ा पहना कर रेल से दिल्ली ले कर आए। उन दिनों मशहूर इतालवी फ़िल्म निर्देशक रोस्सेलीनी भारत में अपनी स्टार पत्नी इंग्रिड बर्गमैन को धोखा दे कर बंग सुंदरी के प्रेम में थे। इंटरनैशनल प्रेस सोनाली के पीछे थी। 

मुझे लगा बड़ी अच्छी जीवनी लिखी जा सकेगी। लॉबी में हम कॉफ़ी पीने बैठे, तो हुसेन ने सुझाव दिया, आप क्यूँ नहीं इन सब चीज़ों को फ़िक्शन बना देते। उन दिनों वह गाड़ी ख़ुद ड्राइव करते थे, मुझे मण्डी हाउस उन्होंने उतार दिया, बोले मिलते रहिए। 

पर हुसेन का पीछा करना आसान नहीं था। और जीवनी को फ़िक्शन बनाना भी आसान काम नहीं था। ख़ैर। 

हुसेन से मुलाक़ातें तो ख़ूब होती रहीं पर कलकत्ता की एक मुलाक़ात ख़ास याद है। मैं फ़िल्म फ़ेस्टिवल पर दिनमान के लिए लिख रहा था। एक सुबह मैं पार्क स्ट्रीट में भटक रहा था। फ़्लरीज़ बेकरी बड़ी पुरानी थी, शहर का ऐतिहासिक अड्डा भी। मैंने देखा, हुसेन अकेले बैठे कॉफ़ी पी रहे हैं। ऐसे मौक़ों पर वे दिलचस्प संस्मरण सुनाते थे। 

अट्ठासी के दिसंबर महीने में दिल्ली के इस्कॉर्ट्स अस्पताल में उनकी ओपन हार्ट सर्जरी हुई। उन दिनों मेरी किताब आधुनिक कला कोश छप रही थी। कवर पर हुसेन की पेंटिंग थी। मैंने हुसेन की मित्र राशदा को फ़ोन किया, मेरी इच्छा थी कि वही मेरी किताब का विमोचन करें। पर वे तो अस्पताल में हैं। 

राशदा ने कहा, आप परेशान न हों। मैं एक जनवरी की शाम का समय तय करा दूँगी। और शायद ही इतिहास में किसी ने ऑपरेशन के बाद अस्पताल में एक किताब का विमोचन किया हो। बुके रिसेप्शन में रखवा दिया गया। हुसेन मस्त मूड में थे। हमारे साथ प्रकाशक अनिल पालीवाल और एक फ़ोटोग्राफेर भी था। उसी शाम सफ़दर हाशमी की हत्या हुई थी। 

हैदराबाद में उनके फ़िल्म म्यूज़ीयम के उद्घाटन में मैं कलाकार सूर्य प्रकाश और फ़िल्मकार बुद्धदेव दासगुप्ता के साथ गया था। उन दिनों वह माधुरी दीक्षित की त्रिभंग मुद्रा के दीवाने थे। 

M.F. Husain, Hanuman
1982
Lithograph
© Victoria and Albert Museum, London

दो हज़ार दस के जुलाई महीने में मैंने उनसे लंदन जा कर सीता विवाद पर बातचीत करने की सोची। वह भारत छोड़ने के लिए मज़बूर कर दिए गए थे। उँगलियाँ काटने की धमकियाँ दी गयी थीं। मैं नई दुनिया में कला पर लिखता था। इंदौर से वे बहुत प्यार करते थे। 

मैंने उनके बेटे शमशाद से उनका प्राइवेट नम्बर लिया और लंदन पहुँचते ही उन्हें फ़ोन किया। वे गरमियों में लंदन के एक स्टूडीओ अपार्टमेंट में रहा करते थे। 95 साल की उम्र और क्या स्मृति और पेंट करने का क्या जज़्बा। उन्होंने कहा, अभी आ जाइए। ख़ूब बातें हुईं। मेरे लंदन रहते हुए ही इंटर्व्यू छप भी गया। 

एक अगस्त को मैंने उन्हें फ़ोन किया, रविवार का दिन था। बोले, ग्यारह बजे आ जाइए। मैं इंटर्व्यू का कम्प्यूटर प्रिंट ले कर गया। वे अकेले ही थे। राशदा भी लंदन आ गयी थीं। वे नहा रहीं थीं। 

हुसेन ने बड़े ध्यान से इंटर्व्यू पढ़ा। बताया सुबह पाँच बजे से पेंटिंग पर काम कर रहा हूँ। बात करते हुए वे ज़मीन पर बैठ गए, ब्रश संभाल लिया। मेरे पास कैनन का कैमरा था जिसमें एक छोटा विडीओ बन सकता था। मैंने बिना बताए शूट करना शुरू कर दिया। हुसेन कैमरे के सामने सजग हो जाते थे, शूटिंग से पहले ख़ूब तय्यार हो कर आते थे। ललित कला की फ़िल्म में वे डिज़ाइनर कपड़ों में गणेश बनाते हैं। मेरे फ़ुटेज में वे फटे सुथन्ने में सहज रूप में काम कर रहे हैं। उनके 2011 में आकस्मिक निधन के बाद आर्ट दुबई में मेरी लघु फ़िल्म दिखाई भी गयी थी। 

उन्होंने मुझसे कहा था, जाड़े में दुबई आइए, जीवनी पर काम फिर से शुरू किया जाए। 

मैं जा न सका, इसका अफ़सोस हमेशा रहेगा। 

राशदा ने बाद में बताया, मुझे वे लंदन हवाई अड्डे छोड़ने आए, तो बोले तुम जब फूल गिराओगी, तो मैं तुम्हारे हाथों को पहचान लूँगा। 

हुसेन को क्या पता था कि अब और नहीं जी पाउँगा। वे मुंबई आने के लिए परेशान रहते थे। आ नहीं पाए। इस देश के कट्टरपंथियों ने उनके साथ अच्छा नहीं किया। वे इस बड़े कलाकार को जानते ही नहीं थे। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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