रघुवंश मणि की कवितायें — प्रमाण-पत्र | पारदर्शी | डोडो | वापसी

और फिर वह हॅंसी फिर उभरी आश्वस्त करती / थोड़ा ताजा थोड़ा नम / ‘‘ और ठीक हो न / कुछ लिखते भी हो / मैंने पढ़ा था शायद.........’’

रघुवंश मणि की कविताओं को पढ़ते हुए जिस अद्भुत ख़ुशी का आगमन होना शुरू होता है, उसके लिए मैं सोचता हूँ कि उन संवेदनशीलों, कविता प्रेमियों और साहित्य पढ़ने वालों के भाग्य में ज़रूर कोई कमी होगी जो रघुवंश मणि की कविताओं को नहीं पढ़े होंगे. भरत एस तिवारी / शब्दांकन संपादक

रघुवंश मणि की कवितायें

प्रमाण-पत्र | पारदर्शी | डोडो | वापसी 





प्रमाण-पत्र

इस मोटे से नीले कागज के रेशे उधड़ आये हैं
लिखे हुए हर्फ लगभग मिटे हुए से
                         पिटे हुए से
शब्द शिकस्त खाए हुए इस कदर कि अब
                                 गिरे कि तब
शायद सीलन की मार ने उन्हें
समय की मार की तरह बूढ़ा कर दिया हो
अक्षर-अक्षर इतने कमजोर कि पढ़े जा सकें
                              बड़ी मुश्किल से

मगर अभी भी वह एक दस्तावेज है
सनद है लगभग चार दशक पुराना
अभी भी किसी बात को सिद्ध करता
अपने शिकस्ता पुरानेपन के बावजूद

नीली स्याही मे लिखा वह दस्तावेज
उस फाउण्टेन पेन से जो अब चलन से बाहर है
बाल पेन के आने के बाद

अमिट नहीं है वह स्याही
हवा सीलन पानी से मिटने वाली
जिसका अब तक बचा रहना
किसी आठवें आश्चर्य से कम नहीं

नीले कागज पर नीली स्याही से लिखा गया
वह दस्तावेज प्रमाण है
किसी दिये गये भाषण का
और उसमें प्रथम स्थान पाने का
कक्षा आठ, वर्ग स, वर्ष 1976

शब्द बहुत पीछे ले जाते हैं
बहुत-बहुत पीछे ले जाते हैं शब्द
एक चमकदार समय में
अब धुॅंधला पड़ चुका है जो
स्मृति के फोटोग्राफ्स
धुंध और धुएँ में
हल्के पड़ते गये हैं

और वह कलम तो कब की खो चुकी
जिसके बारे में मास्साब ने कहा था
ईनाम भी मिलेगा सर्टिफिकेट के साथ
अगर तुमने बढ़िया भाषण दिया तो
खूब-खूब तैयारी करो
घर पर भी मश्क करना

उन्होंने मुस्कराते हुए मेरी तरफ देखा था
फिर वे हॅंसे थे
अपने चमकते दाॅंतों की झलक दिखलाते
‘‘मेहनत करने से सब होता है’’
उन्होंने रुक कर कहा था

कक्षा में गंभीर रहने वाले मास्साब की वह हॅंसी
मानों सिर पर हांथ फेरती थी
पीठ थपथपाती थी
दुलराती थी गालों को
उनकी हॅंसी में बदलती मुस्कान पर
कुछ भी लगाया जा सकता था
सब कुछ

फिर लगता था कि कह रही हो
वह ठिठकी हुई हॅंसी
कि दारोमदार है तुम्ही पर
इज्जत है तुम्हारे ही हाथ

और वे तमाम गुर थे
जो होते हैं गुरु के पास
मसलन बोलते समय घबराना मत
किसी को कुछ मत समझना
खुद को ही समझना
सबसे ज्यादा जानकार

सभी को देखना
मगर आँख मत मिलाना किसी से
किसी के हाव-भाव पर ध्यान मत देना
सारा ध्यान अपनी बात पर रहे
अपने भाषण पर

सब कुछ समझाते हए
अविश्वास और विश्वास के बीच
कराया भाषण का कई-कई पूर्वाभ्यास
ठोक-बजाकर देख लेना जरूरी था
कमी न रह जाय कहीं भी किसी तरह की

कार्यक्रम के दिन मुझसे ज्यादा रुकी हुई थी उनकी साॅंसें
मगर सारे डर-ओ-शुबहा के बाद सब कुछ ठीक-ठाक गया
और तालियों की आवाजों के बीच लगा
कि कोई चूक तो नहीं ही हुई
मगर जब चमकती आँखों से उन्होंने कहा
                                                    शाबास!!
पीठ ठोंकी और कहा बैठो
तो सफलता प्रमाणित हुई जिसके
वे ही सबूत थे और गवाह भी
सर्टिफिकेट तो बाद में मिला
और कलम का पुरस्कार भी
दोनों चमकीले थे उस समय
और मित्रों ने कहा
                        ‘‘अबे देख तो इसको........’’


मास्साब को क्या मिला होगा क्या पता
शायद प्रिंसिपल ने कहा हो उनसे कि बहुत अच्छा रहा
कोई मुख्य अतिथि तो नहीं ही था बाहरी
या फिर सहकर्मियों ने थोड़ा सम्मान की निगाह डाली हो
                                                            क्या पता

मगर बाद में उन्होंने मुस्कारते हुए पूछा था
‘‘कलम चल रही है न
सर्टिफिकेट संभाल कर रखना’’

अब याद नहीं वो कलम
खो गयी थी या टूट गयी थी
कुछ पता नहीं

मगर कुछ समय पहले जब मिले
तो साइकिल से उतरे वे सड़क के किनारे
उम्र ने काफी कुछ बदल दिया था
बीच में लम्बे समय तक बहती वक्त की नदी थी
जो चेहरे और शरीर को बदल देती है
                          पुराना कर देती है
मगर वह मुस्कराहट और वह
आँखों की चमक बिलकुल वही थी
                             निखालिस पुरानी

‘‘ आप तो किसी डिग्री कालेज में हैं न ’’
                                          उन्होंने पूछा

अचानक मैं कहीं से अपने समय में गिर पड़ा
एक क्षण को किंकर्तत्वविमूढ़ सा
फिर मैंने झुक कर उनके पाॅंव छू लिए
उस विद्यालय में पाॅंव छूने की परम्परा न थी

वे भी सकपका गये ‘अरे’

और फिर वह हॅंसी फिर उभरी आश्वस्त करती
थोड़ा ताजा थोड़ा नम

‘‘ और ठीक हो न
कुछ लिखते भी हो
मैंने पढ़ा था शायद.........’’

सब कुछ सामान्य-सा हो गया था
उन्हें वह हाॅफ पैंट और हाॅफ कमीज पहने
माइक पर बोलता लड़का याद आ गया था
अपनी जिन्दगी का पहला भाषण देता

हवा में उनके शब्द बहते जा रहे थे
यादों की किसी नदी की तरह
और मैं मन्त्रमुग्ध-सा था
पुरानी बातों को सुनता
जिसमें यादों के साथ समय था गुजरा हुआ

उनका चेहरा उस पुराने प्रमाण पत्र के शब्दों की तरह
जिसके मद्धिम पड़ते शब्द
हम लोगों के बीच चमक रहे थे
जैसे चमकती धूप में चमक रही थी सड़क
चमक रही थीं इमारतें और दूकाने
उनके साइकिल पर बैठ कर चले जाने के बाद भी

पुराना हो गया है यह प्रमाण पत्र
मगर कुछ तो होता है जो पुराना नहीं पड़ता
सोचता हॅं इसे लैमिनेट करा लूॅं
कम से कम बचा रहेगा मेरे समय तक

06.10.2014

.
.


.
.

पारदर्शी

मैं त्याग देना चाहता हूॅं
लज्जा और निर्लज्जता को

और वह आखिरी वस्त्र भी
उतार देना चाहता हूॅं
जो कि भार है मेरी आत्मा पर

तमगों की ऐसी की तैसी
तुम्हारी वर्दियों की

इस कदर पारदर्शी होना चाहता हूॅं
कि बाल तक न दिखायी पड़े कहीं भी
और चमड़े की सलवटें बेल उठें
माॅंस मज्जा और खून
हो जायें अदृश्य हड्डियाॅं तक

जब कोई मुझसे टकराये
चकराकर भन्ना जाय

और कहे
अरे भाई .......तुम
.
.



.
.

डोडो

वे तुम्हारी बन्दूक की नाल देखते हैं

थोड़ा आश्चर्य-मिश्रित भय के साथ
तुम्हारे मनुष्य होने को देखते हैं।

वे भागते तो बिल्कुल नहीं हैं
अपनी निर्दाेषिता में देखते हैं
तुम्हें देखते हैं

भागें भी तो कितनी दूर भागेंगे
ज्यादा से ज्यादा किसी पेड़ की
निचली डाली तक
या फिर शायद वहाॅं तक भी नहीं

बन्दूक की नाल को देखते-देखते
वे तुम्हें भी देखते हैं
तुम्हारी बंद एक आँख
और निशाना साधती
दूसरी खुली आँख को

वे तुम्हारे अंदर देखने का प्रयास करते हैं
तुम्हारी आत्मा पर पसरती हिंस्त्र लोलुपता
और तुम्हारे स्वार्थान्ध मनोभावों को
पढ़ने की कोशिश करते

उनका शरीर ही उनका दुश्मन है
तुम्हारे लिए भोज्य और भोग्य

वे तुम्हारी बंदूक की नली की ओर
देखते-देखते
हिलते भी नहीं हैं
मानों उन्हें कोई उम्मीद हो

तुम्हारी बंदूक चीखती है
और वे गिर पड़ते हैं।
.
.


.
.

वापसी 

इतनी लम्बी यात्रा 
जिसका कोई अंत नहीं
थकान से आगे 

अभी तो हम चले हैं 
तो चले हैं 
इस चलने का कोई अंत नहीं

कदम चले हैं
तो कदम के साथ सांसें हैं 
पैरों के साथ हैं 
सांसों की बंधी डोर

इस डोर से बंधीं हैं सुबहें 
बंधी हैं दुपहरें 
और बंधी हैं इनमें शामें 

सूरज में टंग गया है समय हमारा
जलते हुए रास्तों पर 
तारों में बंध गयी हैं हमारी नींदें 

हमारे साथ चल रही हैं
कायनातें हमारी
सिकुडीं और अनिश्चित

समय धीमा हो गया है
धीरे-धीरे चुकता हुआ
खर्च होता है धीरे-धीरे 
हमारे बचे हुए पैसे की तरह

इस थकान का कुछ तो अंत हो
कहीं दूर दिखाई तो दे कोई मंजिल 


रघुवंश मणि
ईमेल: raghuvanshmani@yahoo.co.in
मोबाईल: 94528 50745

००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story: कोई रिश्ता ना होगा तब — नीलिमा शर्मा की कहानी
विडियो में कविता: कौन जो बतलाये सच  — गिरधर राठी
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
परिन्दों का लौटना: उर्मिला शिरीष की भावुक प्रेम कहानी 2025
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल Zehaal-e-miskeen makun taghaful زحالِ مسکیں مکن تغافل
रेणु हुसैन की 5 गज़लें और परिचय: प्रेम और संवेदना की शायरी | Shabdankan
एक पेड़ की मौत: अलका सरावगी की हिंदी कहानी | 2025 पर्यावरण चेतना
द ग्रेट कंचना सर्कस: मृदुला गर्ग की भूमिका - विश्वास पाटील की साहसिक कथा