चिन्मयी त्रिपाठी गायक, संगीतकार और कवि हैं जिन्होंने लगभग तीन वर्षों पहले म्यूजिक एण्ड पोएट्री प्रोजेक्ट नामक मुहिम की शुरुआत की। इसके अन्तर्गत वे हिन्दी कविताओं को गीतों के रूप में गाती हैं और इसके माध्यम से कई सुरीले गीत निकले हैं और एक पूरा एल्बम रिलीज हो चुका है जिसमें हिन्दी साहित्य की कालजयी कविताओं को गीतों में पिरोया गया है। इसमें निराला, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, शिवमंगल सिंह सुमन, महादेवी वर्मा, हरिवंश राय ‘बच्चन’ और धर्मवीर भारती जैसे दिग्गज कवियों की रचनाएँ शामिल हैं।
चिन्मयी शास्त्रीय संगीत सीख लेने के बाद, कुछ वर्षों तक कॉर्पोरेट जॉब में सक्रिय रहीं और Songdew Media नामक कम्पनी की सह-संस्थापक भी रही हैं। इस दौरान भी उनका गायन, संगीत और कविताएँ लिखना चलता रहा। विगत दो वर्षों से चिन्मयी पूरी तरह से संगीत और साहित्य को समर्पित हैं।
चिन्मयी त्रिपाठी की कविताएं
गिलहरी के बच्चे
बरसात की काली-घनघोर
वर्षा वाली रात।
जिसमें गुलमोहर की डाल पर,
दो डालियों के बीच में,
छोटे से घोंसले में गिलहरी ने,
बच्चे दिए चार,
और रच दिया एक संसार।
तड़के गुलमोहर ने देखा
उसके काँधे पर घोंसले में
नन्ही नन्ही कलियाँ चार
छोटे छोटे मूँह बाए
तकती चारों ओर।
गुलमोहर के भीतर भी
उन्हें देख उमड़ा प्यार!
दो ही हफ़्तों में, चारों बच्चे यहाँ वहाँ फुदकते
डालियों पर लटकते, गिरते पड़ते
उनकी छीना झपटी, कूद फाँद,
निहारा करता गुलमोहर।
सोचता, हाथ बढ़ा कर गोद में ले लूँ इन्हें
मन मसोस कर रह जाता हर बार।
पके चावल के दानों के जैसी नन्ही उँगलियाँ
गुलमोहर के सख़्त, झुर्रियोंदार बदन पर सरसरातीं
उसकी खुरदुरी डालियों को मज़बूती से थामे रहते नाज़ुक हाथ
अपनी पैनी नज़र से उनकी अम्मा देखा करती सारे करतब
गुलमोहर के साथ….
उनके सरसराने से, छूने से,
गुलमोहर का तन सुकून से भर उठता।
एक सिहरन सी दौड़ जाती उसके भीतर
और काँप जाती उसकी विशाल काया।
मगर कल से घोंसला ख़ाली हो गया,
गिलहरी का परिवार कहीं और जा बसा।
रात बहुत सूनी थी, गुलमोहर बहुत अकेला।
एक पत्ता धीरे से टपका
गुलमोहर यकायक बूढ़ा हो चला।
दूसरी उड़ान
जहाँ तक नज़र जाती थी वहीं तक जाता था वो हर रोज़
मिटा देता था दूरी ज़मीं से आस्मां की।
जब भरता था पंखों में हवा,
तो चीर देता था अपने बदन से क्षितिज को।
इश्क़ था हवा उसका, जुनून थी उड़ान
कौंधता था बिजली की तरह जब कभी,
उड़ने वालों की क्या बिसात,
बादल भी कर लिया करते थे झुक कर सलाम।
टकटकी लगाकर देखता समाँ,
जब कई-कई दिन, कई-कई रात,
वो हवा को छानता रहता पंखों के दरमियाँ।
पहाड़ियाँ देखा करतीं मूँह बाए उसको,
कि कब थमेगी ये उड़ान, कहाँ रुकेगा ये बाज़!
उड़ने के हुनर को पंखों से तराशा था उसने
आसमान से गोता लगाता, अचानक
उड़ा ले जाता धरती की गोद से छीनकर शिकार!
धड़कनें रुक जाया करती थीं वादी की जब
खंजर बनकर टूटता था उसके पंजों का वार!
हज़ारों घंटे का अभ्यास था आसमान को भेदने का
ज़मीं को बिना छुए ही, छू कर निकल जाने का
मुड़ने के हुनर को, आख़िरी हद तक साधा था उसने
भूलकर भूख भूलकर प्यास।
उसकी उड़ान ही मील का पत्थर थी उस वादी में,
हर परिंदे का सपना थी बाज़ की उड़ान।
मगर बाज़ अब हो चला है बूढ़ा,
समय के साथ।
नाख़ून झुक रहे हैं नीचे को,
चोंच मुड़ रही है भीतर को,
और बड़े फैले पंखों की
अब बिखर रही है छाँव।
रौशनी आँखों की जो भाँप लेती थी पत्ते की हरकत को,
अब बुझी सी लगती है, कुछ फीकी कुछ निराश।
लगता है समय खा गया है जोश को, दीमक बनकर।
कबूतरों में अफवाह उड़ी है धूल की तरह,
कि बाज़ पागल हो चुका है
न खाता है ना पीता है,
बस कुछ है जो ढूँढता फिरता है।
चुभती है चील कौओं की तीखी नज़र!
"बहुत उड़ा करता था हवा में
अब ये भी रहेगा हम जैसा बनकर
करेगा इंतेज़ार किसी के मरने का
और लड़ेगा हम से लाशों के ढेर पर"!
लेकिन मज़ूर नही था बाज़ को चील-कौओं का जीवन
मरना मंज़ूर था जो भर नहीं सकता उड़ान।
पागल तो था ही, उड़ चला चीर कर सन्नाटे को,
टूटे फूटे पंख लेकर, और भीतर एक आग!
खुदको फिर नया करने का अब भूत सवार था उस पर
सो जा बसा सबसे अलग थलग ऊँची चोटी के पार।
नोच डाले सारे पंख उसने अपने ही आप
और तोड़ डाले नाख़ून पत्थरों पर चोट कर
रही बाकी बस एक चोंच थी वो भी,
तोड़ डाली चट्टान के सीने पर मारकर।
कुछ खून बहा, मन खूब जला,
वो जलता रहा तड़पता रहा,
रोता रहा कई कई रात
रात का सन्नाटा भी, रोया उसके साथ।
यूँ बीत गये कई रोज़, बदला मौसम का मिजाज़,
बाज़ सूखकर, काँटा बनकर करता रहा वनवास।
जैसे तेज़ बारिश के बाद फूटते हैं बीज अंकुर बनकर
फिर आए नये पंख, नयी ऋतु के साथ।
सूख गये आँसू भर गये सारे घाव,
नयी चोंच और नये नाखून फूटे उसके बाद।
तीन महीनों के अंतराल के बाद
फिर उड़ चला बाज़, नये हौसलों के साथ!
आँखें धुंधली ज़रूर थी मगर,
अब तजुर्बे का चश्मा था उसके पास।
चकरघिन्नी
दौड़ धूप का खेल कब तक खेलोगी धरती माई
क्यों नहीं जक ले लेतीं कभी
कि जी नहीं खेलना ये खेल अब और,
आज से छुट्टी कुछ रोज़।
कहती क्यो नही सूर्य देव से?
कि आज तुम्हीं चक्कर काट आओ
और मै ज़रा डॉक्टर को दिखा आऊं
कई रोज़ से है बदन में दर्द।
आखिर उनके भी तो ये बच्चे हैं,
कुछ दिन वो ही सम्भालें,
कहाँ बरसाना है,
खिलाना पिलाना है।
कहाँ देनी है सूख की सज़ा,
कहाँ चलानी है तेज़ हवा।
वही देखें कुछ दिन,
उनके घुटने नहीं दुखते बैठ-बैठकर?
“मैं नहीं बैठ सकती”, धरती बोली..
कभी देखा है कामकाजी औरतों को आराम फरमाते?
ट्रेनों में, मेट्रो में, किचन या सड़कों पर?
उनकी आंखों के चारों ओर जो काले घेरे हैं
वो मेरी ही धुरी है, इसी धुरी पर मैं नाचती रहती हूँ आठों पहर
इधर से उधर।
मैं नहीं बैठ सकती, मेरी साधना अलग है
सूर्यदेव बैठ सकते हैं, मौन योगी बनकर।
बाढ़
“बैठे ठाले कहाँ से तुमको सूझी
कब ये ठानी?
घर के भीतर आन खड़ी हो लेकर सौ मन पानी!”
बहते हुए चश्मे पे झपटी,
पेहेन के ऐनक, कमर पे रक्खा हाथ झटककर,
तुनक के बोली नानी!
"गाड़ी डूब गयी सो डूबी,
भैंस कूदकर छत पर चढ़ गयी।
बिस्तर डूबा, किचन में पानी,
घर का कोना-कोना पानी।
बाढ़ तुम्हारी कारिस्तानी!
जवाब तो दो ओ नदिया रानी?”
कुछ घबराई कुछ सकुचाई
नदी शरम से पानी -पानी
“कहां छिपूं मैं कहाँ से निकलूँ
ना रस्ता न कोई नाली!”
बोली बिचारी हिम्मत कर,
डरती आँखें सहमी सहमी।
"कह चुकीं जो कहना था
तो मेरी भी कुछ सुन लो नानी।”
“जिसको तुम कहती हो बाढ़,
बाढ़ नहीं- है मेरी ड्यूटी।
हज़ारों सालों से करती आयी
बिन तनख्वाह - वो वाली ड्यूटी।
हर एक दो सालों में
भर -भर लाती पहाड़ों से
जो सोना उगले वैसी मिटटी!
फिर बिखेरती मैदानों में
खेतों में, खलिहानों में,
ताकि फले फूले ये मिट्टी
भरे रहें भण्डार तुम्हारे,
और तुम कहती हो बाढ़ है आयी?
कब सूझी मूये अफसर को
जाकर पूछो डी.डी.ऐ को!
मेरे रस्ते के बीचों बीच,
खड़े कर दिए मीलों-मकान।
कब कर ली मीटिंग,
किया सैंक्शन, किया करार
बताया नहीं बुलाया नहीं न भेजा नोटिस,
कि रस्ता बदलो अगली बार,
नहीं तो पड़ेंगी गालियाँ सौ हज़ार!
अब मुझको कोई रस्ता दिखाए
कहाँ से निकलूँ जाऊं कहाँ,
कोई आये मुझको बताए।
जाकर बताऊं प्लानिंग ऑफिस को
कि इमारतें बनाएं, खूब स्वैंकी बनाएं।
पर नदियों के रूट की जांच के उपरांत।
उसके बीचों बीच, घर-ऑफ़िस का न हो निर्माण!
और हर घर, ऑफ़िस कारख़ाने में,
खासम-खास हो ड्रेनेज सिस्टम!
जब नदी को सूझेगी कारस्तानी
तो घर में तो आएगी ना बाढ़?
और फिर?
गाड़ी डूबेगी हाँ डूबेगी,
भैंस कूदकर छत पे चढ़ेगी
होगा बिस्तर गीला, होगा किचन में पानी
घर का कोना कोना पानी,
अरे तुम तो मुझको समझो नानी!”
किचन वाली
मेड छुट्टी पर गयी है हफ़्ते भर के लिए।
नहीं-नहीं, ये किसी हॉरर फ़िल्म का टाइटल नहीं है !
हम बड़े शहर में रहने वालों का,
छोटा सा नाइट्मेर है बस।
कैसे बनाती हैं मम्मियाँ
तीन वक़्त का ख़ाना,
चालीस-चालीस साल
बिना किए ऊँ आँ ?
सोचती तो बहुत हूँ मैं,
क्यों नहीं पका लेती किचन में
ज़िंदगी के फ़लसफ़े?
क्यों नहीं बना लेती इसे
एक ख़ूबसूरत सा क़िस्सा,
पका तो सकती हूँ यहाँ,
ढेरों उपमाएँ,पकोड़े तलते हुए!
कम से कम बर्तनों में,कैसे काम चलाएँ
नमकीन में मीठे का,थोड़ा संतुलन बनाएँ
कैसे सादे से सादे ख़ाने में,
ज़ायक़ा मिलाया जाय।
हाँ-हाँ आर्टिस्ट हूँ मैं,
फ़िर क्यों नहीं इसको आर्ट मान लेती?
सब्ज़ियों को क़रीने से,कारीगरी के साथ काटा जाय,
तो कोई शिल्पकार भी शर्मा जाय!
सब्ज़ियाँ कढ़ाई में ऐसे मिलें
की जैसे रंगों को मिलाता है पेंटर पैलिट में
और रोटी को चाँद नहीं तो क्या कहें?
गोल नहीं बनती तो, चलो, आज ख़ाने में,
मीटेयोर ही पकाया जाय!
कि जब पड़ता है मीठी नीम और राई-जीरे का छौंक घी में,
और जो उठती है, फैलती है ख़ुशबू पूरे घर में
उस पर क्यों ना महाकाव्य लिख दिया जाय?
ख़ाना बनाना दुनिया के सबसे सुंदर काम है,है ना?
ध्यान ही तो है, आर्ट ही तो है ये सब कुछ।
फिर क्यों चक्की सा लगता है,
जिसमें पिसकर रह गयीं सारी अम्माएँ!
क्यों भट्टी सा लगता है जिसमें ख़ाक हो गयीं,
जाने कितनी पीढ़ियों की आकांक्षाएँ
क्यों एक भयानक सा भँवर लगता है,
जिसमें दम घुट जाय।
या एक डरावना अजगर,
जो निगल गया जाने कितनी ही कविताएँ, कल्पनाएँ।
किसी के लिए जो कला है
वो किसी और के लिए उम्र क़ैद।
ऐ ज़िंदगी, तुझे क्या कहा जाय?
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