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माँ : सात कविताएँ ~ कुलदीप कुमार | Maa : Seven Poems ~ Kuldeep Kumar



हिन्दी जगत के प्रिय, वरिष्ठ कवि व पत्रकार कुलदीप कुमार की सात कविताएं माँ पर। इनमें से में पहली दो कविताएं प्रो. नामवर सिंह द्वारा 1976 में 'आलोचना' में प्रकाशित की गई थीं, जब पत्रिका हिंदी साहित्य जगत में अपनी प्रतिष्ठा के चरम पर थी। अगली दो कविताएँ शिमला से विजय मोहन सिंह की लघु पत्रिका 'युवा पर्व' में प्रकाशित हुईं। अंतिम तीन कविताएँ हाल ही में 'नया ज्ञानोदय' में  प्रकाशित हुई हैं। यह कविताएं शब्दांकन के पाठकों के लिए भेजने का कुलदीप कुमार जी को बहुत आभार। ~ सं० 

माँ : सात कविताएँ

कुलदीप कुमार 


1.
माँ नींद में कराहती है

रात में न जाने कब उठकर
खाट से गिरी रज़ाई वह मुझे
धीरे से ओढ़ाती है
और बरसों टकटकी लगाकर देखती है

वह अँधेरे में कुछ फुसफुसाती है
और चुप हो रहती है
रात ने उसकी कभी नहीं सुनी

अब उसके पास मौसम नहीं आते
तारीख़ें आती हैं—
पिता के मरने की तारीख़
मकान के दुतरफ़ा मुकदमा बनने की तारीख़
घर की नींव में गर्दन समेत धँस जाने की तारीख़
और शहर के एकाएक तिरछा हो जाने की तारीख़
वह घर को पहने हुए भी
खुद को बेघर पाती है
वह रंग उखड़े पुराने संदूक को देखती है
और उसी में बंद हो जाती है

दर्द उसके पाँव दाबता है
साँस कमज़ोर छत की तरह गिरती है 
और
आँखें बदहवासी के रंगों की मार झेलती हैं
त्यौहार लम्बी फ़ेहरिस्तों की याद बनकर आते हैं
खाली रसोई में वह 
चूल्हे पर लगी कलौंस की तरह बैठी रहती है
और रसोई के किलकने का सपना देखते-देखते
बाहर निकल आती है

एक विशाल बंजर मुँह फाड़े उसकी ओर खिसकता है
वह उसका आना अपनी नसों में महसूस करती है
जहाँ खून कत्थे की तरह जम रहा है
आँधी आने पर वह हवा के साथ-साथ दौड़ती है
वह सभी को छूना चाहती है— उन सभी को
जिनके कंधों पर चढ़कर आँधी आ रही है
उसकी झुर्रियाँ पिघलती हैं
और सड़कों पर बहने लगती हैं

उसकी हथेलियों के बीचोंबीच एक गहरा कुआँ है
जिसमें दो आँखें रोज़ गिरती हैं
और बीते समय के शांत जल में डूब जाती हैं

वह चाहकर भी पीछे नहीं लौट पाती
फूलों और रंगों का साथ कुछ ऐसा ही होता है

घर उसके लिए दुनिया की खिड़की है
जिससे वह कभी-कभी झाँक लेती है
वह बरसात में सूख रही धोती की तरह
धूप के इंतज़ार में है
वह सपने में भौंह पर उगता सूरज देखती है
और उसकी काँपती उँगलियाँ
अंदाज़ से वक्त टटोलती हुई
बालों में खो जाती हैं

माँ नींद में कराहती है
और करवट बदल कर सोने की कोशिश में
जनम काट देती है



2.
मैं तुम्हारा नाम लेता हूँ
और एक इक्यावन साल लम्बा अँधेरा
चुपचाप सामने आ खड़ा होता है

एक धुंध से दूसरी धुंध तक भटकने के बीच
आरी के लगातार चलने की आवाज़
कहीं कुछ कटकर गिरा
तुम्हारे अन्दर-बाहर

उम्र को तलते हुए
तुमने हर पल असीसा
मैं हँसता रहा झूलते-झूलते
तुम्हारे कंधे पर

वक्त तब भी इतना ही बेरहम था 
लेकिन याद है
उन दिनों बारिश बहुत होती थी

कहीं एक गुल्ली उछली
सड़क पर पहिया चलाते-चलाते
बचपन अचानक गायब हो गया
तुम क्यों मेरा स्याही-सना बस्ता उलट रही हो?
(गुंबदों के नीचे 
कोई किसी को न पुकारे
वहाँ सिर्फ ध्वनियाँ हैं गोलमोल)

मैं तुम्हारे दुःख में उतरता हूँ
डर की तरह
जैसे गर्भ में (कोई संगीत नहीं?)
काँपता हो कोई लैंप 
बिना चिमनी का नंगा
चिराँध में डूबता-काँपता डर की तरह

कालिख में भीगे उभरते हैं हाथ 
और बहते हैं
फूलों की तरह किसी याद में

धूप बहुत तेज़ हो चली है
तुमसे बात तक नहीं हो पाती
दुनिया का सारा गूँगापन
तुम्हारी जीभ पर दानों की शक्ल में उभर आया है
अचंभा होता है कि ज़िंदगी.....
खनक है, सिर्फ खनक
ठनक है तुम्हारे भवसागर की
(कि पार न हों कभी इस अभावसागर से)
ठाकुरजी की आरती करो न!

जाने क्यों ज़िंदा रहने की तड़प में
लोग ज़िंदा तड़पते हैं 

कैसा मौसम है
बारिश तो क्या उसकी बात भी नहीं
तुमने मुझे 
मोर के पैर क्यों दिये माँ?



3.
घर से ख़त आते हैं

मैं काँपता नहीं 
क़ातिल जैसे सधे हाथों से
किताबों में रख देता हूँ

माँ किताबों से डरती है
जिनके साथ मैं घर से भागा



4.
सपने में दिखी माँ

वैसी ही सुंदर, गोलमटोल
जैसी साठ बरस पहले

आँखों में नहीं थीं झुर्रियाँ
गालों में नहीं थी काली गहराई
हाथों से छूटकर नहीं गिर रही थी
दृष्टि 

वह स्याह फ़्रेम में जड़े
फोटो में खड़ी थीगोद में उठाये शायद मुझे

तब उसका चेहरा कातर नहीं था



5. 
मुन्नी दाई ने काटी थी मेरी नाल 
और सुना है 
बहुत नख़रे करके खूब सारा नेग लिया था
तले-ऊपर दो लड़के जो हो गए थे 
मनेजरनी के
  
दाइयों की सरदारन थी वह 
जिसका बच्चा जनाने पहुँच जाती 
वह माँ निश्चिंत हो जाती 
मुन्नी आ गयी है तो सब ठीक ही होगा 
आज ऐसा माहौल है तो मुझे याद आ रहा है 
किसी नीच जात की मुसलमान थी वह 
लेकिन उस वक़्त 
किसे परवाह थी इन बातों की 

दाइयों की दाई थी मुन्नी 
लेकिन मेरे मामले में वह भी चूक गयी 
नाल ठीक से नहीं काट पायी 
ज़िंदगी भर अम्माँ 
मेरे तन-मन को पुष्ट करती रहीं 
नाल अब जाकर कटी 
जब मेरा भी बुढ़ापा आ गया है 

मैं चिल्ला रहा हूँ— 
“अम्माँ ….अम्माँ ….. अम्माँ” 

पहली बार है 
जब मेरी आवाज़ पर 
अम्माँ 
जवाब नहीं दे रहीं 



6.
वह उँगली छूट गयी जिसे पकड़ कर यहाँ तक आया था 
कठपुतली नचाने वालों की उँगली की तरह ही 
यह उँगली भी मुझे नचा देती थी
और
मुझे पता भी नहीं चलता था 

वह मेरी कम्पास थी
उसी से मुझे दिशा का पता चलता था
मगर मैंने कभी उस दिशा में झांका तक नहीं जिस दिशा में वह मुझे
भेजना चाहती थी 
जो मुझे पसंद था वही उसे पसंद रहा अंत तक 
उँगली तो छूट गयी 
अब आगे कैसे चलूँ? 
क्यों चलूँ?
चलना ज़रूरी है क्या? 
मैं तो बस अब बैठा रहूँगा
एक दूसरी उँगली के इंतज़ार में
कि 
कब वह आए और मुझे
यहाँ से उठा ले जाए। 



7.
जब तुम थीं 
तब इतना नहीं थीं 
 
कमरे का दरवाज़ा खुला होता था तो 
दिख जाती थीं 
पलंग पर पैर फैलाए ताश खेलती हुई 
अकेली 
इतने मनोयोग से कि मुझे ताज्जुब होता था 
कोई खुद को हराने में दिलो-जान कैसे लगा सकता है ?
 
कैसे अकेला होने पर हम 
अपने ख़िलाफ़ ही खड़े हो जाते हैं 
तब मैं समझ नहीं पाया था  

खेल का नाम था पेशेंस 
और धीरज तो तुममें 
पृथ्वी से भी ज़्यादा था 
 
अब दरवाज़ा बंद होता है 
तब भी तुम नज़र आ जाती हो 
पहले जब आवाज़ देती थीं 
तभी मैं तुम्हारे कमरे की तरफ़ भागता था 
अब कभी भी आवाज़ आ जाती है 
और मैं भाग कर जाता हूँ 

कमरा ख़ाली है 
पलंग पर कोई नहीं है 
ताश के पत्तों के महल की तरह 
जीवन 
ढह कर बिखरा पड़ा है 
 
ज़िंदगी भर 
जतन करती रहीं कि 
मेरी आँख से एक भी बूँद न छलके 
तो फिर अब 
इतना क्यों रुला रही हो?
 
मुझे मत दिखो हर समय 
 
जब थीं तब इतना नहीं थीं 
फिर अब क्यों हो?

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