योगिता यादव की कहानी 'भाप' | Yogita Yadav Ki Kahani 'Bhaap'

तनाव वाली कहनियों के बीच सुखद बयार है प्रिय कहानीकार योगिता यादव की कहानी 'भाप'। जिस तरह प्रिय ममता कालिया जी की कहानियाँ हौले से पाठक के भीतर उतर जाती हैं, योगिता भी यहाँ आसपास की पोसीटिविटी को देख लेती हैं और मासूम अप्रोच के साथ समाज में हो रहे बदलावों की कहानी लिख पाती हैं।  पढ़िएगा! ~ भरत तिवारी 




भाप 

~ योगिता यादव 


सफारी सूट में स्कूटर पर आगे-आगे धाणियां साहब और पीछे-पीछे सामान से लदा उनका ट्रक। सोफा, टीवी, फ्रिज, कूलर, बोरों में ठुंसे बर्तन-भाण्डे, घर-गृहस्थी का छोटा-बड़ा सामान, बहुओं के दहेज में आने वाला बड़ा सा संदूक और….और कांच की एक सुंदर सी अलमारी। अलमारी के साथ ही दोहरी चादर में बंधी किताबों की दो बड़ी-बड़ी गठरियां। 

स्कूटर रोक कर धाणियां साहब ने सिर उठाकर हसरत भरी निगाह से अपने नव निर्मित घर को देखा और आंखें मूंद लीं-- जैसे उसकी खुशबू को अपने भीतर उतार लेना चाह रहे हों। 

रुकते-बनते आखिर पांच साल लगे थे इस घर को पूरा होने में। पहले भरत पड़ी फिर काम रुक गया। फिर ऐसा हुआ कि दिनों दिन मकान की सभी दीवारें ऊंची होती चली गईं और लैंटर पड़ गया।  

इसी स्कूटर पर आते थे धाणियां साहब हर रोज, पहले दीवारों की और फिर लैंटर की तराई करने। उसी पानी के पाइप से ओक लगा कर पानी पी भी लेते थे। क्या हुआ जो जेट पंप का पानी खारा होता है, कौन जाए अड़ोस-पड़ोस में मांगने-- कि जी एक बोतल मीठा पानी दे दो। मिठास का ऐसा भी क्या लोभ। उन्होंने खारे को ही मीठा मान लिया था। प्यास तेज हो तो पानी मिल जाए वही बहुत है। मिठास सबको कहां मिल पाती है। 

थके हुए दफ्तर से लौटते और बस आते ही अपने मकान की ईंट, बजरी, मिस्त्री और मजदूरों में व्यस्त हो जाते। उनकी बगलों में पसीने के दो पूरे चांद स्थायी हो चले थे। कभी-कभी तो देर रात तक अधबने मकान के भीतर ही जाने क्या-क्या उठा पटक करते रहते। 

अब जाकर मकान पूरा हुआ है। जमा-जुड़ा, नाखूनों से भी पैसा निकाल कर लगा दिया धाणियां साहब ने इस मकान में। अब मय सामान धाणियां साहब गृह प्रवेश को तैयार हैं।

सुबह से ये तीसरा चक्कर होगा घर का। सुबह-सुबह आए थे, उसी पानी वाले पाइप से सारा घर धोकर गए हैं। फिर दोपहर में आए कुछ फूल और एक काली हांडी का मुखौटा टांग गए गेट के ठीक ऊपर -- कि सुंदरता और नजर दोनों का उपाय हो गया। 

अब आए हैं अपने साथ सामान का पूरा ट्रक लेकर। 

“अरे भाई आराम से, हां हां ले आओ, धीरे…. संभाल कर भई! उनका एक पैर अंदर और एक बाहर। बाहर ट्रक तक आएं और फिर सामान के साथ-साथ घर के अंदर तक। मोहल्ले भर के लोग ओट से उन्हें देख रहे थे। मोहल्ला नया-नया बस रहा है, जगह-जगह के लोग यहां रहने लगे हैं। देखते ही देखते इस एक गली में भी कई मकान बन गए, पर कभी किसी मर्द को घर के लिए इस तरह दीवाना होते नहीं देखा। 

“आदमी है कि लुगाई…. कभी झाड़ू मार रहा है, कभी फूल बांध रहा है, और अब देखो सामान के संग कती बांदर सा नाचै जा है।” मलिक साहब ने साथ वाले घर में गोयल साहब को जरा धीमी आवाज में कहा। 

हंसी का फव्वारा छूट पड़ा। 

“अजी कोई बात नहीं, जिनके लुगाई न हो क्या वे घर नहीं बसाएंगे। कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा।” 

हंसी का फव्वारा और घना हो गया। 

मर्दों में जो चुटकुला बनी, उसी अदा पर औरतें आहें भर रहीं थीं, “कैसा सलीकेदार आदमी है, सब काम खुद कर रहा है, पर मजाल है कि कपड़ों पर छींट भी आई हो। पूरा दिन बीत गया और कपड़े अब भी वैसे के वैसे। ” 

एक-एक करके जब सारा सामान उतर गया, तब सब से अंत में हौले हौले कांच की वह अलमारी उतारी गई। दो मजदूर आगे, दो मजदूर पीछे। फिर पीछे वाले मजदूर कूद कर ट्रक से नीचे, कि बस सारा काम इतनी एहतियात से हो कि अलमारी पर खरोंच तक न आए। 

“अरे रे...जरा संभलकर”, उतारने की कोशिश में जरा लचकी ही थी अलमारी कि धाणियां साहब की सांस अटक गई। पर कुशल मजदूरों ने गिरने नहीं दी अलमारी। गत्ते के टुकड़ों से दबी-ढकी अलमारी गेट के ठीक सामने एकदम भीतरी दीवार के सहारे टिका दी गई। 

आहा! क्या रौनक आई है। अलमारी के खड़े होते ही सोफा, टेबल, कुर्सियों और पूरे घर में जैसे निखार आ गया। 

“ओहो मैडम जी तो अब आई हैं।” थ्री व्हीलर से जब एक दुबली-पतली लंबे कद की औरत को तीन लड़कों को पिट्ठू बैग टांगे उतरते देखा तो मलिक साहब और गोयल साहब आपस में कनखियों से इशारा करने लगे।

लड़कों की उम्र में एक-दूसरे से दो ढाई साल का ही फर्क होगा। मलिक साहब ने बच्चों की उम्रों का अंदाजा लगाया और आंखों ही आंखों में पति-पत्नी का कद भी तौला। 

“दूर से ही नाटा लग रहा था, हैं तो दोनों बराबर के से।” 

हाथ में बड़ा सा सूटकेस उठाए श्रीमती जी अंदर घर के बाहर लगे पत्थर के सामने रुकीं। सफेद संगमरमर के पत्थर पर काले रंग से लिखा था - एसपी धाणियां यानी सरला प्रवीण धाणियां। इसके नीचे की पंक्ति में तीन नाम खुदे थे संजय, रोहित, मोहित। इसे पढ़कर वे पुलकित हो गईं। बच्चे भी खिलखिला पड़े। ये पांचों का घर था, नाम पट पर पांचों का नाम खुदा था। चार जन अंदर जा रहे थे और पांचवे यानी प्रवीण धाणियां ट्रक को गली से बाहर निकलवा, मजदूरों का हिसाब कर रहे थे। 

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नाम पट को सबने पढ़ा पर समझ नहीं पाए।  

“धींवर होते हैं शायद”, गोयल साहब ने कहा। 

“धींवर कौन?” शर्मा जी ने जिज्ञासा प्रकट की। 

“अरे वही मल्लाह, पानी वानी का काम करते हैं न अपने गांवों में।” गोयल साहब ने और जोड़ा। 

“क्या गोयल साहब आपने भी ‘ध’ से ‘ध’ जोड़ दिया। मल्लाहों में धाणियां गोत्र ही नहीं होता। निषाद, राजभर, कश्यप धींवरों के कई घर हैं हमारे गांवों के पास। पर धाणियां कोई नहीं।” मलिक साहब ने प्रतिवाद किया। 

“आजकल पता नहीं लोग क्या-क्या लगा लेते हैं जी। कुछ पता ही नहीं चलता।”, शर्मा जी ने झुंझला कर कहा। 

सुबह-सुबह ये बहुत जरूरी परिचर्चा थी। जो किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाई। प्रवीण धाणियां इस सबसे अनजान, हाथों में दूध का डोल उठाए चले आ रहे थे। मंडली को चर्चा करते देखा तो शिष्टाचारवश नमस्कार किया। 

अभी तक विचार विमर्श में मगन मंडली धाणियां साहब के यूं अचानक आ जाने से झेंप गई। अब नमस्कार का जवाब तो देना ही था। 

“यहां कोई अखबार वाला आता है क्या? हमें भी अखबार शुरू करवाना था। और दूध वाले का भी नंबर मिल जाता तो…”

“हांजी अखबार वाला तो आता है। पर दूध तो जी सब अपना अलग-अलग ही लेते हैं। अब ये गोयल साहब का तो बहुत पुराना दूधिया आता है, पीछे गांव।” 

“भई हम तो जाकर डेयरी से ले आते हैं।” शर्मा जी ने स्पष्टीकरण दिया। 

“आप कहां से लाए दूध?” 

“अजी कहां, पूछते-पाछते डेयरी तक पहुंचे तो दूध ही खत्म हो गया था। ज्यादा टाइम नहीं था। दफ्तर के लिए भी निकलना है और बच्चे भी लेट हो रहे होंगे।”

“तो मैडम ले लेंगी बाद में, आप क्यों चिंता करते हैं?”

“नहीं जी, वो भी बच्चों के साथ ही निकल जाती हैं। पढ़ाती हैं न स्कूल में।” 

 “ओहो! अब कैसे करेंगे।”

“बस जी संतोष करेंगे।” 

“वैसे दफ्तर कहां है? कहां काम करते हैं आप?” 

“दिल्ली विधानसभा में।”

 

सुनते ही सबके चेहरों पर चमक आ गई और आंखें अचरज में फैल गईं।

मंडली ने फिर उन्हें ऊपर से नीचे तक और गौर से देखा। 

“मैं भिजवा देता हूं दूध, गौरव की मम्मी ने रखा होगा बचाकर। हमारे वाला आएगा तो हम थोड़ा फालतू ले लेंगे। भई बच्चे बिना दूध के स्कूल जाएं ये भी तो अच्छा नहीं।” गोयल साहब एकदम दौड़ते से अपने घर के अंदर दाखिल हो गए। 

मलिक साहब और शर्मा जी बस जहां थे वही खड़े रह गए। गोयल साहब के इस अतिउत्साह पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। 

धाणियां साहब आभार में मुस्कुरा उठे, ना ‘हां’ कह पाए, ना ‘न’ कह पाए। 

जितनी देर में वे कुछ और कह पाते, तब तक दूध का भरा लोटा लिए गोयल साहब बाहर चले आए।

धाणियां साहब न न करते रह गए मगर गोयल साहब ने उनके हाथ से डोल लिया और दूध उसमें पलट दिया। लगभग आधा लीटर दूध का यह डोल इतना भारी हो गया कि धाणियां साहब चल ही नहीं पा रहे थे। वे बार-बार सोच रहे थे पत्नी को जाकर क्या कहेंगे। 

और फिर ये अहसान कैसे उतारेंगे। साथ ही उन्हें सुकून भी हुआ कि पड़ोस तो अच्छा है। अच्छी जगह रहने का यही फायदा है। लोग पढ़े-लिखे होते हैं। उनके दिमाग खुले हुए होते हैं। एक-दूसरे की इज्जत करना, एक-दूसरे के काम आना जानते हैं। 

नए मोहल्ले की पहली सुबह इतनी प्यारी होगी, प्रवीण धाणियां ने सोचा भी नहीं था। एक-एक कर तीनों बच्चे और सरला धाणियां भी घर से निकल गए। सबसे अंत में निकले वे खुद अपने उसी स्कूटर पर, वैसा ही आधी बांह का सफारी सूट पहने, करीने से एक तरफ काढ़े गए बाल और भरा हुआ कुछ-कुछ चौकोर सा चेहरा। 

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यही उनका रोज़ का रुटीन था। संजय, मोहित, रोहित तीनों बेटे और सरला एक साथ निकल जाते। प्रवीण धाणियां गेट में ताला लगाकर सब के बाद में दफ्तर के लिए निकलते। लौटते समय भी यही होता। बच्चे और मां पहले घर आ जाते और प्रवीण धाणियां सबके बाद शाम को दफ्तर से लौटते। गोयल साहब को समय नहीं मिल पा रहा था, कि कब धाणियां साहब से मिलना हो। खानदानी कपड़ों की दुकान छोड़कर उन्होंने पढ़ाई-लिखाई की राह चुनी थी और अब एक सरकारी स्कूल में पढ़ा रहे थे। पर नियुक्ति ऐसे इलाके में मिली जहां उनका रहना मुश्किल हो रहा था। वे चाहते थे कि कहीं आसपास ही उनका तबादला हो जाए। पर कई बार अर्जियां डालने के बाद भी यह संभव नहीं हो पा रहा था। अब अर्जी में कैसे लिखें कि सीलमपुर की इस बस्ती में आते-जाते उन्हें उबकायी आती है। लूटपाट, जेबतराशी का डर अलग से। एक बार एक गरीब आईसक्रीम वाला भी लड़कों ने लूट लिया था। तब उन्होंने अपनी जेब से चार सौ रुपये निकाल कर उसे दिए। 

सुकून बस इतना है कि स्कूल दोपहर की पाली में है, तो खा-पीकर घर से निकलते हैं। वरना स्कूल में तो उनका खाना खाने को भी जी नहीं करता। स्टाफ की चाय पार्टियों से भी वे बचते ही रहते हैं। पर जब से उन्हें पता चला है कि धाणियां साहब दिल्ली विधानसभा में नौकरी करते हैं, तब से उन्हें उम्मीद की एक किरण नजर आने लगी है। अब उनकी उम्मीदों का सूरज धाणियां साहब के घर की तरफ से ही उगता है। 

“ए जी, ये चमार हैं क्या?” गोयल साहब टकटकी लगाए धाणियां साहब को ताला बंद करते देख रहे थे कि उनकी पत्नी ने उन्हें टोक दिया। उनका ध्यान भंग हो गया?  

“कौन?” 

“वही नए मकान वाले।”

“कैसी बात करती हो, किसने कहा तुम्हें?” 

“मलिक बहनजी कह रहीं थीं।” 

“तुम्हें क्या मतलब इस सबसे?” 

“नहीं, बस पूछ रहीं हूं।” 

“ये सब फालतू की बातें मत किया करो। न तो मलिक साहब को कोई काम है, न तुम्हारी मलिक बहनजी को। 

सीमेंट की फैक्टरी है, पति को दिन भर नोट छापने हैं, बीवी को उसकी कमाई उड़ानी है। बस खाली बैठे-बैठे यही सब करते रहना है। 

इतना बड़ा बंगला है, घर में दो-दो कुत्ते हैं। पर कभी एक अखबार आते भी देखा उनके घर?

हम नौकरी पेशा लोग। पढ़े-लिखे हैं। तुम मत पड़ा करो इन सब बातों में। कोई भी हों, हमें क्या लेना।”

गोयल साहब जैसे उस चर्चा को पूरी तरह भूल ही चुके थे, जिसे वे कुछ दिन पहले अपनी मंडली में कर रहे थे। 

“वो गौरव जब बीमार पड़ा था, तो मैंने मन्नत मांगी थी। अब माता की पिन्नी करनी है। सारी औरतें आएंगी, सोच रही हूं, नए घर वाली सरला मैडम को भी बुला लूं। गौरव बता रहा था किसी स्कूल में पढ़ाती हैं।” 

“हां, तुम्हें नहीं मालूम। पढ़ी-लिखी फैमिली है। बीवी स्कूल में पढ़ाती है और पता है धाणियां साहब की नौकरी दिल्ली विधानसभा में हैं। कितने मंत्रियों, कितने आईएएस अफसरों के साथ उठना-बैठना होगा उनका। 

बुला लो, बुला लो, इसी बहाने तुम्हारी भी थोड़ी जान पहचान बढ़ जाएगी उनसे।

पढ़े-लिखे लोगों के साथ परिचय हो, तो अपना भी विकास होता है। नहीं तो घी-दूध तो अपने गांव में यहां से बढ़िया मिल रहा था।”   

पर जाउं कब बुलाने, वो तो घर पर होती ही नहीं हैं दिन भर। 

अब वो तुम देखो, मुझे नहीं पता। शाम को एक बार चक्कर लगा कर देख लेना, क्या पता मिल जाएं। 

एक-एक कर तीन दिन बीत गए, आखिर श्रीमती गोयल इस उधेड़बुन से निकल नहीं पाईं कि श्रीमती धाणियां को माता की पिन्नी जीमने बुलाया जाए कि नहीं। एक तरफ पति का सुझाव कि बना कर रखनी चाहिए और दूसरी तरफ मलिक बहन जी की टेढ़ी सी नजर और जातीय अभिमान। 

क्या पता शर्मा बहनजी, साथ वाली मिसेज कटोच और सैनी आंटी भी बुरा न मान जाएं। सभी के साथ उठना-बैठना है उनका तो। जब भी कोई जरूरत होती है, मलिक बहनजी कभी न नहीं करतीं। और पूजा-पाठ, दिन त्यौहार पूछने तो उन्हें मिसेज शर्मा के पास ही जाना पड़ता है। सैनी आंटी का तो पूरा परिवार है, तीन बेटे, बहुएं, उनके बच्चे… पूरी गली की रौनक है उनसे।

ये सहेलियां न हों, तो वे शाम की वॉक पर निकल ही न पाएं। क्यों न सैर के लिए पूछ कर देखूं। 

इसी में धाणियां मैडम और सब का व्यवहार पता चल जाएगा। 

तो बस जैसे ही शाम के पांच बजे मिसेज गोयल ने धाणियां जी के घर की घंटी बजा दी। 

दरवाजा उनके बेटे ने खोला 

“बेटा मम्मी हैं घर पर?” 

“हांजी”, 

“बुलाना ज़रा, मैं आपके पड़ोस में रहती हूं।” 

“नमस्ते आंटी, आइए अंदर।” 

“नहीं जल्दी में हूं, यही बुला लो ज़रा”

“ओके” 

बेटा अंदर गया और सरला दरवाजे पर आ गईं। उन्होंने मुस्कुरा कर नमस्कार किया पर उनकी आंखें बता रहीं थीं कि वे अभी सोकर उठी हैं। 

“हम सब गली की औरतें शाम को वॉक पर जाती हैं। सुबह-सुबह तो टाइम मिलता नहीं, तो शाम को ही अपने लिए वक्त निकाल लेते हैं। यहीं थोड़ी दूरी पर है पार्क। आप अभी नई आई हो, तो सोचा आपको भी पूछ लें। अगर आप चाहें तो आप भी हमारे साथ चल सकती हैं।” 

“ये तो बहुत अच्छी बात है”, सरला ने खुश होकर कहा। “पर मेरी तो सारा दिन वैसे ही वर्जिश हो जाती है। बस अभी थोड़ा आराम किया। अब बच्चों को लेकर बैठूंगी, बड़ा बेटा दसवीं क्लास में है, दूसरा आठवीं में। इनके साथ तो मेहनत करनी है अभी। छोटा अभी छठी क्लास में है।” 

“अच्छा हां, बताया था गौरव के पापा ने, आप भी टीचर हैं स्कूल में। क्या पढ़ाती हैं?”  

“मेरा सब्जेक्ट तो मैथ्स है, पर अपने बच्चों के तो सारे सब्जेक्ट देखने पड़ते हैं।” 

“हां जी ये तो आपने सही कहा। वैसे हमारा गौरव भी आठवीं में है, लेकिन मेरे बस का नहीं है पढ़ाना। इसके पापा ही लेकर बैठते हैं। मगर आजकल आने में बहुत लेट हो जाते हैं, तो ट्यूशन लगवा रखी है।” 

“गौरव की मम्मी…. चलें क्या?”, शर्मा बहन जी ने आवाज़ देकर मिसेज गोयल को टोका। 

“आई बस।” अच्छा जी चलती हूं। कभी चलने का मन हो, तो आ जाना। हम हर रोज शाम को पांच बजे निकलते हैं। बस रविवार छोड़कर। उस दिन सब घर पर रहते हैं न, तो टाइम ही नहीं मिल पाता और फिर कोई आया गया लगा ही रहता है छुट्टी वाले दिन। ऐसे तो सब अलग-अलग रहते हैं, पर जी बड़ा परिवार है हमारा। सास, पीतस, जेठानियां, ननदें, देवरानियां….  “

“क्या बात हो गई गौरव की मम्मी”, अबकी बार मिसेज मलिक ने टोका। 

अच्छा जी चलती हूं। राम राम जी। सहेलियां न बुलातीं तो खानदान कथा शायद आज खत्म न हो पाती। 

सरला धाणियां तो बस बातचीत खत्म होने का इंतजार कर रहीं थी। उन्होंने तुरंत नमस्कार किया और मिसेज गोयल के मुड़ते ही दरवाज़ा बंद कर लिया। 

मिसेज गोयल की पीठ पर दरवाजा बंद हुआ इसका या सरला धाणियां ने उन्हें अपनी व्यस्तता दिखाई इसका, जो भी हो, उनका मन कुछ खट्टा सा हो गया। 

“उस पर सैर समूह की सखियों ने इसी बात पर उन्हें खींचना शुरू कर दिया। आप ही गईं थीं उन्हें बुलाने। आ गईं?” 

“क्या बोलीं?” 

“बोलीं कि मेरी तो सारा दिन ही वर्जिश हो जाती है।” 

“हां जी हम तो दिन भर पलंग तोड़ते हैं, हमें है वर्जिश की जरूरत। नौकरी का गुरूर देखो।” मिसेज शर्मा ने और तुनक कर कहा। 

“नहीं आती तो, न आए, हमारा कौन सा काम रुक रहा है उसके बिना। होगी मैडम अपने स्कूल में। 

आप ही चलीं थीं गौरव की मम्मी उसे अपनी भायली बनाने। वरना हम तो नहीं इन लोगों को मुंह लगाते।” 

“अब छोड़ो भी बहन जी, अब क्या बस उन्हीं की बात करते रहेंगे।” 

मिसेज गोयल ने मन ही मन तय कर लिया कि अब जब तक वे खुद पहल न करें, वे दोबारा अपनी ओर से कोई उत्सुकता नहीं दिखाएंगी। गौरव के पापा की बातों में आकर आज सहेलियों के बीच अच्छी भद्द पिटी उनकी। 

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गोयल साहब बिस्तर पर लेटे तो उन्हें पिन्नियों वाली बात याद आई और पूछ बैठे, “हुई कोई बात-मुलाकात धाणियां साहब की मिसेज से?” 

“हूंउउ, भाड़ में जाए।” 

“अरे क्या हो गया?” 

“होगा क्या, वो घमंड में किसी को कुछ समझती ही नहीं। दोनों बखत मिले सो रही थी और कहती है टाइम ही नहीं मिलता। बताओ शाम को भी कोई सोता है, कैसे बरकत आएगी घर में!”  

“भतेरी बरकत है उनके घर में, तुम बताओ, तुम तो पिन्नियों का न्यौता देने गईं थीं न?” 

“मैं नहीं बुला रही उसे पिन्नियों पर। शाम को गई थी उन्हें सैर के लिए बुलाने, कि नई-नई आई है, थोड़ी जान-पहचान हो जाएगी। सौ काम होते हैं गली में एक-दूसरे से। पर उसकी तो नाक ही इतनी लंबी है, बोली मेरे पास टाइम नहीं है। और धम से दरवाजा बंद कर दिया।” 

“तुम्हारे मुंह पर?” 

“न, किया तो पीठ पर था, पर थोड़ी देर रुक ही जाती। ऐसी क्या जल्दी।” 

“अरे तो नहीं होगा टाइम, सही तो कह रही थी। स्कूल में पढ़ाने में थकान हो ही जाती है। फिर बच्चे भी तो तीन हैं। काम ज्यादा होता होगा।”   

“मैं सोच रहा हूं, मैं ही मिल आउं किसी दिन उनके घर जाकर।” 

“छोड़ो न, क्या जरूरत है, बदतमीज से लोग हैं। न किसी से बोलते बतलाते, कम से कम लुगाई तो तमीज है नहीं।” 

“धाणियां साहब तो सज्जन लगते हैं। बातचीत में भी मुस्कुराते रहते हैं। उस दिन मिले थे सुबह-सुबह।” 

गोयल साहब कुछ कन्फ्यूज हो गए। एक तरफ तबादले की ख्वाहिश, दूसरी तरफ ऐसा बेरुखी सा व्यवहार। बात कैसे आगे बढ़े, कुछ समझ नहीं आ रहा। पर अध्यापक हैं, जानते हैं कि समय से ही हर चीज़ होती है और मेहनत करने का फल जरूर मिलता है।

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धाणियां साहब के परिवार के साथ देखा-देखी तो सब की चलती रही, पर व्यवहार किसी से न बन पाया। धाणियां साहब के लिए भले ही सम्मान हो पर सरला धाणियां से औरतों ने एक बैर की रेखा खींच ली। संजय, रोहित, मोहित तीनों बच्चों के बस नाम ही पता थे गली के बच्चों को, वरना वे कभी उनके साथ नहीं खेले। बस स्कूल जाते और वापस आते दिखाई देते। उसके अलावा सारा दिन गेट बंद रहता और बच्चे गेट के अंदर। ऐसी किलेबंदी में कौन सेंध लगाता। बस आपसी बातचीत में जितनी छींटाकशी हो सकती, कर लेते। 

ये पहले नवराते थे, इस मोहल्ले में आने के बाद। हर रोज़ किसी न किसी के घर में कीर्तन होता रहा। पर न किसी ने सरला को बुलाया, न वे खुद गईं। मलिक साहब की सीमेंट की बड़ी फैक्टरी, तो सातवें दिन उन्होंने जगराते का आयोजन किया। धाणियां साहब जब सुबह दूध लेकर लौट रहे थे, तो एक सामूहिक न्यौता उन्हें भी मिला। मलिक साहब ने अपनी फैक्टरी के टर्नओवर की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए बताया कि जो कुछ भी है सब भगवान का ही दिया हुआ है,तो थोड़ा बहुत भगवान के नाम पर दान पुण्य भी कर लेना चाहिए। आज रात जगराता है और कल सुबह अष्टमी का भंडारा। आप भी फैमिली के साथ आना। धाणियां साहब ठहरे व्यवहारिक आदमी उन्होंने हांजी हांजी कर दिया। 

पूरी गली में टेंट लगा दिए गए, बड़ा सा मंच बना और रात भर बड़े-बड़े लाउडस्पीकर पर माता की भेंटें चलती रहीं। ऐसे माहौल में नींद किसे आ सकती थी। अंदर बाहर दोनों जगह रतजगा ही था, तो पति-पत्नी दोनों बाहर ही आ गए। पहली बार सरला औरतों के साथ इतना लंबा समय बिता रहीं थीं। यह अच्छा भी था साथ होते हुए भी कोई साथ नहीं था, सब माता के जयकारों में मस्त थीं, राम-राम, श्याम श्याम के बाद सब गीतों, भजनों में मगन। पर बैर की रेखा कुछ हल्की पड़ने लगी। महिलाओं को लगा कि सरला इतनी बुरी नहीं हैं, जितनी अब तक लग रहीं थीं, क्या पता बेचारी सचमुच बीजी रहती हों। सरला को भी अहसास हुआ कि सब भोली भाली प्यारी औरतें हैं, बस दुनिया उनकी थोड़ी सीमित है। 

भेंट, भजन गाते, परिचय बढ़ाते रात बीत गई और सुबह तारा रानी की कथा कही जाने लगी। अलग-अलग जातियों में जन्मी दो पूर्वजन्म की बहनों की कथा सभी ने भावुक होकर सुनी। बहुतों को तब तक नींद आने लगी थी, पर लाउडस्पीकर पर गूंजती कथावाचक की आवाज़ लोगों को जगाए रखने का पूरा प्रयास कर रही थी। कथा समाप्त हुई और प्रसाद बंटने लगा।

सब महिलाएं कुछ न कुछ मदद कर रहीं थीं, तो सरला भी खड़ी हो गईं और प्रसाद का टोकरा लेकर आगे बढ़ाने लगीं। पर मिसेज मलिक ने टोकरा उन्हें न देकर मिसेज गोयल को पकड़ा दिया। दोनों हाथों से टोकरा थामे मिसेज गोयल खड़ी थीं और अब जरूरत थी उसमें से प्रसाद के पैकेट निकालकर सब को देने की। सरला ने उसमें से पैकेट उठाकर बांटने शुरू कर दिए। सबने लिए सिवाए मलिक साहब की मां और मिसेज शर्मा के। दोनों ने ही कहा कि उन्हें शुगर है। मीठा नुकसान देगा।  

मलिक साहब की मां तो महीनों तक इस बात पर रूठी रहीं और जब भी कोई विवाद होता, वे बहू को ताना देतीं, “बता चूड़ी ही मिली थी, प्रसाद बंटवाने को। इतना भी लक्खन नहीं है।” 

असल गुस्सा उन्हें सरला पर था कि ऐसी तत्परता दिखाने की क्या जरूरत थी। उनके लिए गली की सब औरतें, यानी उनकी बहू की सब सहेलियां फूहड़ थीं। जिनमें से किसी ने भी सरला को प्रसाद बांटने से नहीं रोका। कोई भी चाहती तो आगे बढ़कर ये काम कर सकती थी। 

इस क्लेश की उड़ती-उड़ती खबर सरला, प्रवीण, संजय, रोहित और मोहित धाणियां तक भी पहुंची। वे आहत हुए, क्रोध भी आया पर अनजान बने रहे। इस मोहल्ले में उन्होंने बहुत अरमान से घर बनाया था और अब उन्हें यहीं रहना था। 

मोहल्ले में होते हुए भी अलगाव की भावना थोड़ी और घनी हो गई। 

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आखिर एक दिन गोयल साहब ने अपने दिल की बात धाणियां साहब से कह ही दी, कि वे इस स्कूल से तबादला चाहते हैं। किसी तरह वे उनका तबादला आसपास के किसी स्कूल में करवा दें। 

अपने खानदानी कारोबार की कथा सुनाते हुए गोयल साहब ने बताया कि कैसे भाइयों के क्लेश और पिताजी के गुस्से के कारण उन्हें दो कपड़ों में घर छोड़ना पड़ा था। वे पढ़ना चाहते थे और पिताजी उन्हें दुकान पर बैठने के लिए जोर देते। वे चाहते थे कि चारों भाई मिलकर दुकान संभालें और बिजनेस बढ़ाएं। थोड़ा और वक्त मिल जाता, तो वे भी किसी अच्छी पोस्ट पर होते। बारहवीं पास करके बस जेबीटी करने का रास्ता ही उन्हें आत्मनिर्भरता का सबसे नजदीकी रास्ता दिखा। और इस तरह वे सीलमपुर प्राथमिक विद्यालय में दोपहर की पाली में अध्यापक हो गए। पर अब भी वहां जाते उन्हें उबकायी आती है। यहां आसपास ही दस पंद्रह किलोमीटर के दायरे में कितने सारे स्कूल हैं। धाणियां साहब किसी में भी उनका तबादला करवा दें। 

धाणियां साहब को भी समझ आ गया कि गोयल साहब की सहृदयता का असल कारण क्या है। चुप्पी और अलगाव का इतना लंबा पुल पार करके सिर्फ गोयल साहब ही उन तक क्यों और कैसे पहुंच पाते हैं। पर स्वार्थ से किया जा रहा यह सम्मान भी उन्हें अच्छा ही लगा। घर से और परिवार से निकलने की दोनों की ख्वाहिश एक सी थी पर रास्ते की मुश्किलें बिल्कुल अलग-अलग। गोयल साहब अगर खानदानी दुकान छोड़ना चाहते थे, तो उनके लिए गांव से निकलने का कारण जाति की आग थी। पढ़ाई और नौकरी ने इस पर कुछ छींटें डाले हैं, पर अब भी एक अदृश्य तपिश उन्हें महसूस होती ही रहती ही है। जैसे कि भाप का कोई सेंक। स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, पड़ोस हर जगह। कितने अरमानों से उन्होंने इस नई कॉलोनी में घर बनाया था, पर सेंक यहां भी उनसे पहले पहुंच गया।   

इसके बावजूद कोई तो है इस गली में जो उनसे जुड़े रहना चाहता है। चाहें यह जुड़ाव स्वार्थ से ही क्यों न हो। उन्हें महसूस हुआ कि हम सब भी किसी न किसी स्वार्थ से ही एक-दूसरे से जुड़ते हैं। इस मदद में कम से कम प्रसाद छू देने जैसा थोपा गया अपराध तो नहीं है। अगला जिंदगी भर अहसान मानेगा सो अलग। धाणियां साहब के मन में एक गर्व का भाव आ गया कि वे दाता की मुद्रा में होंगे। उनका हाथ गोयल साहब के हाथ से ऊपर होगा। उन्होंने तय किया कि वे गोयल साहब की मदद करने की पूरी कोशिश करेंगे। इस मदद से ही वे उन्हें हमेशा के लिए अपना ऋणी बना सकते हैं। 

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आखिर मेहनत सफल हुई और गोयल साहब के ट्रांसफर के ऑर्डर आ गए। उन्हें नजदीकी स्कूल में तबादला मिल गया। ये खुशी की खबर मिली तो गोयल साहब मिठाई लेकर धाणियां साहब के घर पहुंच गए। सब रात के खाने की तैयारी कर रहे थे, पर इस समय भी गोयल साहब से रुका नहीं गया और वे प्रवीण धाणियां का धन्यवाद करते लगभग दोहरे हुए जा रहे थे। आखिर उनकी बरसों की आस पूरी हुई थी। उनके चेहरे पर अथाह विनम्रता और कृतज्ञता उतर आई थी। इस चेहरे और इस पर आई खुशी को देखना धाणियां साहब को अद्भुत सुख दे रहा था। यह सुख केवल महसूस किया जा सकता है, इसे बता पाना मुश्किल है। कि जैसे कोई नशा। 

ये खबर इन दो घरों से निकल कर गली में और गली से निकल कर पूरे मोहल्ले में फैल गई कि धाणियां साहब की बहुत पहुंच है। उन्होंने इतने सालों से अटका हुआ गोयल साहब का ट्रांसफर करवा दिया वो भी बिल्कुल पास के स्कूल में। 

गली में उनका सम्मान और बढ़ गया इतना कि मोहल्ले में उस गली को धाणियां साहब वाली गली कहा जाने लगा। डाकिया भी आता तो सबसे पहले धाणियां साहब वाली गली में जाता।  

यूं लगता है कि धाणियां साहब को अभी और मशहूर होना था। एक दिन मलिक साहब का सीमेंट का ट्रक बिना बिल्टी के पकड़ लिया गया। अब क्या करते, लाखों के नुकसान की बात थी। मलिक साहब ने सीधे धाणियां साहब को फोन मिला दिया और गिड़गिड़ाने लगे। 

“धाणियां साहब आप ही कुछ कर सकते हैं। कुछ ले देकर ही मामला रफा दफा करवा दीजिए, नहीं तो बहुत नुकसान हो जाएगा।” 

यूं अकड़ कर अपने कुत्तों के साथ घूमता आदमी, किसी दिन इस तरह गिड़गिड़ाएगा धाणियां साहब ने सोचा भी नहीं था। यही मौका था, उन्होंने पूरी विनम्रता से मलिक साहब को डांट लगाई। 

“क्यों करते हैं मलिक साहब ऐसे काम? इतना बड़ा कारोबार है आपका। जरा सा टैक्स बचाने के लिए ये सब?” 

मलिक साहब फिर गिड़गिड़ाने लगे, जरूरत जो न करवाए, वो कम। 

ये धाणियां साहब के लिए अहसान की बड़ी भारी डोज का वक्त था। उन्होंने पूरे गुमान में कहा, “अच्छा कोशिश करके देखता हूं। पर इस तरह के काम मत करवाया कीजिए भई। कई लोगों की ऑब्लिगेशन लेनी पड़ती हैं।” 

प्रवीण धाणियां ने सारा काम छोड़कर, मलिक साहब का ट्रक छुड़वाने में पूरी जुगत लगा दी, कई लोगों को फ़ोन किए। रुपये-पैसे की भी बात करनी पड़ी। कुछ लोगों के सामने उन्हें बिल्कुल बिना रीढ़ का हो जाना पड़ा। पर आखिर ट्रक छुड़वा लिया गया और मलिक साहब हाथ बांधे सीधे उनके घर। वे तो दफ्तर ही आ जाते, पर धाणियां साहब ने दफ्तर आने से मना कर दिया। 

वो अकड़ी हुई बूढ़ी औरत जिसने उनकी पत्नी का छुआ प्रसाद नहीं लिया था, उसका बेटा आज उनके सामने हाथ जोड़े खड़ा है। आहा! क्या सुखद स्थिति है। प्रवीण धाणियां अगर नहीं होते, तो आज यह आदमी जेल में होता। गर्व से उनका सीना चौड़ा हो गया। इशारों इशारों में मलिक साहब ने कई प्रस्ताव रखे, साथ पीने से लेकर, रुपये पैसे तक। पर धाणियां साहब को इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए था। 

अभी कुछ ही साल पहले बना उनका ये छोटा सा घर आज मलिक साहब के शानदार बंगले से भी बड़ा लगने लगा था। 

नशे कितने अजीब तरह के होते हैं, लोग जानते ही नहीं। उपकार, अहसान, गर्व, अद्भुत नशे हैं। आदमी खुद से ही बड़ा और बड़ा होता जाता है। धाणियां साहब नशे का ये पौधा अपने परिवार में भी रोप देना चाहते थे पर सरला धाणियां का व्यवहार एकदम संयत रहा। वे बस अपने स्कूल और अपने बच्चों में व्यस्त रहीं। उनकी एकनिष्ठ मेहनत का ही नतीजा था कि बड़े बेटे ने आईएएस की परीक्षा पास कर ली। वो किशोर लड़का जो एक दिन कंधे पर अपना स्कूल का बस्ता टांगे यहां आया था, अब प्रशासनिक अधिकारी बन जाएगा, इस बात पर तो पूरी गली में खुशियां मनाई गईं। 

औरतों को भी अब जाकर समझ आया कि सरला धाणियां का व्यस्त होना कितना अच्छा था। मां ने मेहनत की और बेटे ने फल दिया। 

इस पर भी मिसेज शर्मा बोलीं, “इन लोगों का जल्दी हो जाता है सब कुछ। हमारे बच्चों को मेहनत करनी पड़ती है।” पर इस बार वे अकेली पड़ गईं। मिसेज गोयल और मिसेज मलिक दोनों ने ही उनका साथ नहीं दिया- 

“किसी का कितना कोटा हो, मेहनत तो सभी को करनी पड़ती है। और बच्चे कभी किसी ने बाहर घूमते भी नहीं देखे। बस पढ़ते ही रहते हैं। तीनों लड़कों में से कोई ऐबी नहीं है। भई जो मेहनत करेगा फल तो मिलेगा ही।” मिसेज मलिक की बात पर मिसेज शर्मा खिसियानी सी रह गईं। 

दो साल ही बीते थे कि दूसरे बेटे ने भी सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास कर ली। ऊपर वाला जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है। धाणियां साहब के घर में यश और समृद्धि की वर्षा होने लगी थी। अब सब ने कयास लगाने शुरू कर दिए, कुछ साल और रुक जाओ, अपने मोहल्ले में तीन आईएएस अफसर होंगे। 

और हुआ भी यही। तीनों बच्चे प्रशासनिक अधिकारी बन कर अपने-अपने पद पर पहुंच गए। और अब सरला धाणियां ने नौकरी छोड़कर घर में आराम करने का मन बनाया। अब वे सचमुच आराम करना चाहती थीं। गली और मोहल्ले भर में अब तक सब उन्हें धाणियां मैडम कहकर पुकारने लगे थे। दूर-दूर तक यह बात भी मशहूर हो गई थी कि धाणियां मैडम ने अपने तीनों बेटों को खुद पढ़ाया और आज वे आईएएस बन गए हैं। कितने ही लोग चाहते कि वे उनके बच्चों को ट्यूशन पढ़ा दें। पर सरला धाणियां नहीं मानीं। 

दिन भर किताबें पढ़तीं और घर संभालतीं। नई भूमिका में भी उन्होंने खुद को एडजस्ट कर लिया था। घर में कच्ची जगह तो नहीं थी, पर गमलों में ही मिसेज धाणियां ने अच्छा-खासा बगीचा बना लिया था। तरह तरह की फूलों वाली बेलें, सब्जियों के पौधे और कुछ सजावटी पौधे। बच्चों से खाली हुआ घर अब हरियाली से भरने लगा था। उस हरियाली के बीच ही देर शाम तक सरला और प्रवीण धाणियां ताश खेलते रहते। 

तीनों बेटों की तीन अलग-अलग जातियों की बहुएं आ चुकीं थीं और अब तीनों ही अपनी-अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त थे। तीनों बेटे उन्हें अपने-अपने पास रहने को कहते, पर दो-चार दिन बाद ही उन्हें वहाँ ऊब होने लगती और वे वापस अपने घर लौट आतीं।  धाणियां साहब भी अब रिटायर हो चुके थे। क्या हुआ जो वे अकेले हैं, बेटों ने उनका कद और बढ़ा दिया था। 

शर्मा जी ने जब पत्नी के साथ अमरनाथ यात्रा पर जाने की इच्छा जताई, तो धाणियां साहब ने बेटे से कहकर उनके लिए विशेष इंतजाम करवाया। सैनी आंटी का बड़ा सा कुनबा, पूरी बस भरकर शिरडी गए थे, तो भी विशेष आरती में बैठने की व्यवस्था करवाई थी धाणियां साहब के बेटे ने। प्रवीण धाणियां अब भी गर्व के सुखद नशे में थे। अब कौन था यहां जो धाणियां साहब को नहीं मानता था। 

पर अब भी कभी-कभी कोई पीठ पीछे पूछ ही लेता था, धाणियां कौन होते हैं? 

धींवर? नहीं चूड़े, अरे नहीं शायद चमार! 

आग से जलते हैं तो दिखते हैं, पर भाप का जला भी कम नहीं दुखता।  

बहुत सारे बिल्डर आते हैं, जो चाहते हैं कि इस मकान को खरीद लें और चार फ्लोर के फ्लैट बना लें। छोटा बेटा भी चाहता है कि मम्मी-पापा उनके साथ पंडारा रोड वाले बंगले में आकर रहें। पर गली वाले नहीं चाहते कि धाणियां साहब यहां से जाएं। 


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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