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सुनो मिरांडा की कहानी मंजुल भगत की ज़बानी | Manjul Bhagat's Miranda House Memoir

मंजुल भगत जी की आज 22 जून 2022, को 86वीं जयंती है। उन्हे नमन और उनकी छोटी बहन, हमसबकी प्रिय मृदला गर्ग का शुक्रिया कि उन्होंने मंजुल भगत जी का यह बेहतरीन संस्मरण — जिसका हर शब्द हीरे की तरह तराशा और चमकता हुआ है — आप शब्दांकन पाठकों के लिए भेज दिया।   ~ भरत तिवारी 

Manjul Bhagat's Miranda House Memoir


मंजुल भगत का मिरांडा हाउस संस्मरण

सुनो मिरांडा की कहानी मंजुल भगत की ज़बानी।


"एक ज़माना बीत गया साहब। क्या उम्र थी, क्या रौनक़, क्या शौक़। दाख़िला पाया अंग्रेज़ी ऑनर्स में, इन्तज़ाम किया उर्दू मास्टर का कुछ शागिर्द चुन-चुन कर पढ़ने-पढ़ाने के लिए जुटाए और फिर मचल गए पास कोर्स में उतरने के लिए। किसी मनचली प्रतिद्वन्द्वी ने कानों में फूंक दिया, गुलमोहर जानेमन यह क्या ऑनर्स-वॉनर्स ले बैठीं? साहित्य की मलाई बस ऊपर-ऊपर। नीचे तलछट तक पहुँचते-पहुँचते 365 ज़रब 3 यानी 1095 दिन और इतनी ही रातें क़िताबों में सिर समोये गारत करनी पड़ेंगी। क़िस्सा कत्ल करके कहानी का पोस्टमॉर्टम करते, उसकी रूह में उतरते-उतरते ख़ुद फ़ानी हो जाओगी। हमारी तो सुन कर ही साँस नली में अटक गई। उन दिनों, अंग्रेज़ी की प्राचार्या मिस आचार्या हुआ करती थीं। साफ़ शफ़्फ़ाफ़ तलफ़्फ़ुज़, एकदम चबा चबा कर शब्दो को उगलतीं। फिर भी शब्द ठोस के ठोस, पूर्ण स्वर कानों में उतर जाते। अच्छी- ख़ासी रोबीली शख्सियत थी। मेक-अप के साथ दक्षिणी रेशम की आकर्षक साड़ियाँ सलीकेदार पटलियों में बाँधा करतीं। लड़कियाँ उन्हें स्मार्ट भी कहतीं और उनसे ख़ौफ़ भी खातीं। उनसे जाकर जो हमने हाले-दिल कह सुनाया कि हम पास कोर्स में तबादला चाहते हैं तो पहले उन्हें यक़ीन ही न आया, आने पर उन्होंने सरे राह हम पर ज़बान के वे कोड़े बरसाये कि कानों के लवे जल उठे।

"तुम! लोग हैं कि ऑनर्स की भीख माँगते दर-बदर भटकते फिरते हैं और तुम हो कि तुम! यू आर एन इडियट।"




इस क़दर चाहे जाने के बावजूद हम कहाँ मानने वाले थे। हमें तो 365 x 3 = 1095 दिन-रात तबाह होने से बचाने थे। पीछे-पीछे लगे रहे जब तक उन्होंने हमें पास कोर्स में धकेल न दिया।

अब पास कोर्स में हमारे पास चार विषय थे। चारों यकसां महत्व लिये। न एक अधिक "आनरेबल", न दूसरा "सबसिडियरी"। अँग्रेज़ी, हिन्दी, अर्थशास्त्र और दर्शन, जो तीन हिस्सों में विभक्त था, मनोविज्ञान जो हमें सदा मोहता था, नीतिशास्त्र और तर्कविज्ञान (लॉजिक)।

उर्दू जो हमें बेहद प्रिय थी, फ़ालतू वक्त में पढ़ सकते थे। उर्दू के मास्टर जी पढ़ाते कम और पेशानी से पसीना ज़्यादह पोंछते। ड्रमों के हिसाब से बहता था और रूमाल नहीं तौलिया इस्तेमाल होता था। हम चाहे कितना ख़ुशख़त लिखें वह रिमार्क देते प्रैक्टिस मेक्स वन परफ़ैक्ट। बड़ी ऊब होती इस जुमले से। धीरे-धीरे शागिर्द जो हमने जुटाये थे लापता होने लगे। अब अकेले हमें पढ़ाने में मास्टर जी का रोज़ सॉना बाथ हो जाता। लिहाज़ा वह सिलसिला बन्द ही कर देना पड़ा।

अंग्रेज़ी-हिन्दी साहित्य से हमें मौहब्बत थी। अर्थशास्त्र तो ख़ैर था ही रूखा-सूखा, वास्तविकता के ठोस धरातल पर धँसा-खड़ा जिसे जानकी अम्मा जैसी सबल, सक्षम आचार्या ने पढ़ाया-घोटाया,औटाया और रटाया। बाप रे! अंग्रेज़ी साहित्य हमें कुछ समय कपिला मलिक बाद में कपिला वात्स्यायन ने जो तब चपल-चंचल चन्दनी नवयुवती थीं। उन्होंने अपनी मौज और हमारे आग्रह पर मिरांडा हाउस के प्रांगण में, बिना साज़-साज़िन्दों के हमें भरतनाटय़म की मुद्राएं-भंगिमाएं भी दिखला दी थीं। कृष्णा इसाइयोलौफ़ थीं जो नमतर लहज़े में बेहद मारक बातें बोल जाया करतीं। अन्त में मिस प्रसाद, जो काव्य पढ़ाती थीं और साहब ख़ूब पढ़ाती थीं। उनके उच्चारण से ले कर अर्थव्याख्या तक; कभी गोल कभी धनुषाकार होते होंठों से ले कर काले चश्मे के भीतर हँसती-पिघलती स्निग्ध आँखों के ऊपर बनी-तनी अबरू तक में एक ख़ास सप्रेषणियता और क़शिश थी, जिसकी वजह से टी.एस इलीयट की हॉलो मैन, कोलरिज की कुबला ख़ान, टैनिसन की द लोटस ईटर्स और रूपर्ट ब्रुक की द ग्रेट लवर के अर्थ आप-से-आप समझ में आते चले जाते।

हिन्दी साहित्य की आचार्या मिस कमला गर्ग, अपने महीन ज़हीन सुर, निर्बाध वैचारिक गति और सहज सरल शब्द प्रवाह में, गहरे तक हमें छूती चली जातीं। भरी सभा में एक दिन हम पर उन्होंने छींटाकशी कर दी। जाने किस संदर्भ में भाषण देते-देते बोलीं, "अब देखो मंजुल को ही ले लो, इस समय दिवा स्वप्न की तन्द्रा में हैं परन्तु विशुद्ध अजगरी चाल है इनकी। नींद से जब जागेंगी, तब जाने क्या-कुछ लपेट में लें लेंगी।" सारी जमात जब हमारी तरफ़ मुख़ातिब हो कर भाषण की एकरसता इस तरह भंग हो जाने का आनन्द सस्वर लेने लगी तो हमने झुरझुराकर आँखें खोलीं और मिस पर टीका दीं। इसी पुरअसर ताने की वजह से हम, बैठे-ठाले बिना हिले-डुले, पासकोर्स में टॉप कर गये। यानी कि एकदम टॉप। यहाँ तक अचम्भा भाई लोगों को हुआ कि हमारे पड़ोसी जो अख़बार में नीचे से हमारा नाम खोज रहे थे उतनी उँचाई तक पहुँचे ही नहीं और अख़बार फेंक कर बोले, "वो पड़ोस की मंजुल तो गच्चा खा गई।" यही असर पिताश्री पर भी हुआ पर उनकी समदृष्टि सदा टॉपर्स को सराहती रही है, सो आदतन जो वहाँ निगाह डाली तो उनकी इस बेटी का नाम एकदम शिखर पर यूँ जगमगा रहा था, मानों किसी और का नाम हो। पिताजी की मूक दृष्टि देर तक वहाँ खुबी रही। इस बीच हमारी दादी, जिन्होंने हमारे उत्तीर्ण होने पर हनुमान जी का; माँ जिन्होंने साईं बाबा का और पारबती, जिसने देवी दुर्गा का प्रसाद बोला हुआ था हाथ बाँधे एकटक पिताश्री का चेहरा निहार रही थीं। हम भी सिटपिटाये-से एक कोने में खड़े थे। आख़िर पिताश्री ने सम्भल कर कहा,"गुल पास हो गई।" हम सब एक साथ हुर्रे के अंदाज़ में आये ही थे कि सुनाई पड़ा,"बल्कि फ़र्स्ट क्लास आया है।"

"हैं?" एक बार फिर सबकी हरकत सहम गईं।
   
"लेकिन यह यूनिवर्सिटी में टॉप कैसे कर गई?" पिताश्री के  मुँह से निकला।

"हैं?फ़र्स्ट क्लास फ़र्स्ट!" माँ से न रोया गया न हँसा। तभी हमारी छोटी बहन ने माँ के असमंजस का अनुवाद कर दिया। "एक और मंजुल जैन भी तो हो सकती है।"

हम बैठ गये। पर पिताश्री ने जेब से रोल नम्बर निकाल कर नाम से मिलान किया और आख़िर 1955 के इस अचम्भे को सच मान लिया। 

कॉलेज में दर्शनशास्त्र की आचार्या हुआ करती थीं मिसिज़ पॉल, जो भाषण दिया करती थीं इस हिदायत के साथ कि अच्छे बच्चों को कुंजी की तलब कभी नहीं उठनी चाहिए। अब मिसिज़ पॉल ही के विषय लॉजिक में हम उस सस्ते ज़माने में यानी जब साठ प्रतिशत के ऊपर के नम्बर सचमुच की प्रथम श्रेणी मानी जाती थी 79 फ़ीसद  ले उड़े, तब मिस प्रसाद ने दन्न से यह ख़ुशख़बरी मिसेज़ पॉल को सुना दी। उनकी आँखों के सम्मुख यक़ीनन हमारा उस ज़माने का बहुप्रचलित, महाफ़ैशनेबुल, तम्बूनुमा, स्वैगर कोट लहरा गया होगा, जिसकी जेबों में हम जेबी उपन्यास खोंसकर टहलते हुए उनकी कक्षा में पहुँचा करते। क़सम ले लो जो कभी कागज़-कलम साथ ले गए हों। अब मिसेज़ पॉल बोलीं तो क्या बोलीं। "क्या मैं उम्मीद कर सकती हूँ कि तुम एम. ए दर्शनशास्त्र में करने की नहीं ठान रही होंगी? हम भला क्या उत्तर देते? उत्तर दिया मिस प्रसाद ने,"नो, वी वुड लव टु हैव हर इन इंगलिश लिटरेचर।"

तो हम विश्वविद्यालय पहुँच गये, अंग्रेज़ी साहित्य में एम. ए "न" करने। यानी ऐन परीक्षा के सिर पर आ जाने पर, पर्चे देने का इरादा मुल्तवी कर दिया। वजह कोई भी रही हो। अब चलो आपसे क्या छिपाना एम.ए की कक्षा में बैठे-बैठे, हमारा उम्र भर का इकलौता इश्क हो गया। हर किताब के पन्ने से हमें उनका चेहरा झाँकता नज़र आने लगा। मिस प्रसाद के अल्फ़ाज़ में, उन दिनों हमारे चेहरे पर से,"दैट वाइड आइड वण्डर अबाउट लिटरेचर एण्ड लाइफ़" ग़ायब हो चुका था और एक बौड़म अहमक़ाना स्थायी भाव बन गया था। बहरख़ैर, उन की बदौलत आज हम लेखक बने बैठे हैं। कुछ आलोचकों का कहना है कि यदि हम पी. एच. डी, डी. लिट वगैरह कर लेते तो अकैडिमिक हो कर रह जाते और मौलिक साहित्य सृजन न कर पाते। 

कुछ का कहना है हमारे सृजन के लिए पासकोर्स बेहतर साबित हुआ। इसके लिए हम शुक्ला नांगिया के शुक्रगुज़ार हैं, जिन्होंने अजाने में अंग्रेज़ी ऑनर्स से इतना सहमा दिया कि हम वहाँ से कूच कर गये और बाद में वे इतमीनन से बी.ए फ़ाइनल में उसी विषय में टॉप कर गईं। एक बात है, तब भी बिस्तर पर पसर कर गम्भीर से गम्भीर विषय पढ़ना हमारी अदा में शुमार था और अब भी अधिकांश लेखन, बिस्तर में गाव तकिये के सहारे उठंग बैठ कर होता है। बिस्तर ही हमारा स्ट्डी डेस्क रहा है।


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