head advt

राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और स्वदेशी - डॉ. ज्योतिष जोशी | Nationalism, Democracy and Swadeshi ~ Jyotish Joshi

संसार में ऐसा कोई भी देश आज नहीं है जहां कमजोरों के हक की रक्षा बतौर फर्ज होती हो। अगर गरीबों के लिए भी कुछ किया जाता है, तो वह मेहरबानी के तौर पर किया जाता है ~ गांधीजी 

गांधीजी के "राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और स्वदेशी" सिद्धांतों को संपूर्णता में समझना ज़रूरी तो है लेकिन समझाए कौन? डॉ ज्योतिष जोशी जी ने इस मुश्किल कार्य को अपने प्रस्तुत लेख — जो उनकी प्रकाश्य पुस्तक - 'विश्वात्मा गांधी ' का महत्वपूर्ण लेख है — में सफलतापूर्वक किया है, और कितनी ही सुंदर भाषा में किया है, जिसकी लय देखते ही बनती है। लेख को पढ़ते, आगे बढ़ाते रहें। ~ सं0 


Nationalism, Democracy and Swadeshi ~ Jyotish Joshi


राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और स्वदेशी

डॉ. ज्योतिष जोशी

प्रसिद्ध आलोचक, कलाविद और विचारक। इनकी बहुत-सी पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें  'तुलसीदास का स्वप्न और लोक ', जैनेन्द्र कुमार की जीवनी- 'अनासक्त आस्तिक 'और वैश्विक चित्रकला पर आधारित 'आधुनिक कला आंदोलन ' नामक पुस्तकें शामिल हैं। इनदिनों ये प्रधानमंत्री संग्रहालय और पुस्तकालय, नई दिल्ली में सीनियर फेलो हैं।  संपर्क: डी 4/37, सेक्टर 15, रोहिणी, दिल्ली 110089 / मोबाइल: +91 98186 03319 /  ईमेल- jyotishjoshi@gmail.com /  

’भगवान ने मुझे भारत में जन्म दिया है और इस तरह मेरा भाग्य इस देश की प्रजा के भाग्य के साथ बांध दिया है, इसलिए यदि मैं उसकी सेवा न करूं, तो मैं अपने विधाता के सामने अपराधी ठहरूंगा। यदि मैं यह नहीं जानता कि उसकी सेवा कैसे की जाय, तो मैं मानव-जाति की सेवा करना सीख ही नहीं सकता। और यदि मैं अपने देश की सेवा करते हुए दूसरे देशों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता, तो मेरे पथभ्रष्ट होने की कोई संभावना नहीं है। ~ गांधीजी 

गांधीजी ने अलग-अलग स्तरों पर राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और स्वदेशी पर विचार किया है और उन्हें मूल्यवान नीतियों में बांधा है। यहां हम इन्हें उनके त्रृक के अंतर्गत देखने का प्रयास करेंगे। 

इस त्रृक का पहला पद है — राष्ट्रवाद। गांधीजी राष्ट्रवाद को देशप्रेम में देखते हैं और उनका देशप्रेम मानव-प्रेम से पृथक नहीं है। एक राष्ट्र के रूप में भारत के प्रति अनन्यता और उसके साथ-साथ समस्त मानवों के प्रति अगाध निष्ठा को वे अपने राष्ट्रवाद का सच्चा स्वरूप कहते हैं। वह उनका राष्ट्रवाद नहीं है जो भारत के हित के लिए दूसरे देशों की हानि करे और देशप्रेम इतना निर्मम हो जाय कि उससे मनुष्य-मात्र की प्रीति में खलल पैदा हो। पर वे यह भी स्वीकार करते हैं कि राष्ट्रवादी होने से ही हम अंतर-राष्ट्रीयतावादी हो सकते हैं, अन्यथा नहीं। स्पष्टतः उनका राष्ट्रवाद देशप्रेम का धर्म है, जो समस्त मानवता की हितचिन्ता से जुड़ा है। मानवता का तिरस्कार कर देशप्रेम का भ्रम पालना इस तरह एक मिथ्या दंभ ही ठहरता है। वे कहते हैं — 



जब वे राष्ट्रवाद पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि देश से प्रेम करने वाले व्यक्ति की जीवन-नीति किसी कुल या कबीले के अधिपति या स्वामी की जीवन-नीति से भिन्न नहीं होती। देश-प्रेम और मानव-प्रेम में उनके लिए कोई अंतर नहीं है। ठीक इसी तरह वे वैयक्तिक और राजनीतिक आचरण में विरोध नहीं देखते। वे कहते हैं — ‘यदि कोई देशप्रेमी उतना ही उग्र मानव-प्रेमी नहीं है तो कहना चाहिए कि उसके देशप्रेम में उतनी न्यूनता है। वैयक्तिक आचरण और राजनीतिक आचरण में कोई विरोध नहीं है; सदाचार का नियम दोनों पर लागू होता है।3 

स्वराज का अर्थ है — सरकार के नियंत्रण से मुक्त होने का प्रयास यह सरकार चाहे विदेशी हो या राष्ट्रीय ~ गांधीजी  

वस्तुतः राष्ट्रवाद यूरोप में राजनीतिक पद्धति-विशेष के रूप में परिभाषित किया गया था जिसका एक बद्धमूल मार्ग था। यह आधुनिक समाजों को एकीकृत करने या उसकी एकजुटता को बनाए रखने का एक साधन था जिसमें भिन्न-भिन्न देशों ने अपनी अस्मिता और संप्रभुता को राजनीतिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरूप देखा था। इसमें अपने को दूसरे से श्रेष्ठ समझने के विचार के साथ-साथ अपनी शक्ति और सत्ता को सर्वोच्च मान लेने की प्रवृत्ति थी जो अब भी चली आ रही है। गांधीजी ने दो-दो विश्व युद्धों को नजदीक से देखा था और अपने अनुभव से उसकी बुराइयों को पहचाना था जिसमें दूसरे देशों, संस्कृतियों और धर्मों के लिए कोई जगह न थी। इस शापित राष्ट्रवाद ने अपनी श्रेष्ठता के दंभ में दूसरे देशों को कुचल देने की भावना विकसित की थी जिसे दुनिया ने अपनी आंखों से देखा था। इस दंभ ने दुनिया को भीषण नरसंहार दिखाया और मानव से मानव की भयावह शत्रुता का विष बोया। गांधीजी ने इसी को लक्ष्य कर कहा था — ‘यह कोई राष्ट्रवाद नहीं है जो बुरा है; यह संकीर्णता, स्वार्थ और अपनी श्रेष्ठता का दंभ है जो आधुनिक राष्ट्रों के लिए अभिशाप है जो कि बुरा है।4 अगर घृणा ही राष्ट्रवाद का मूल आशय है और वही उसका संदेश है, तो गांधीजी उसके इस अनैतिक स्वरूप को पसन्द क्यों करते! जो राष्ट्रवाद केवल युद्ध दे, कथित सभ्य समाज को नारकीय यंत्रणा में बदल दे और थोथी राष्ट्रीय अस्मिता की छाया में दूसरे देशों के अस्तित्व को युद्ध की ज्वाला में झोंक दे, वह तो मनुष्यता पर कलंक ही हो सकता है, कोई वांछित राजनीतिक धारणा नहीं हो सकता। 

गांधीजी ने भारतीय राष्ट्रवाद की नई व्याख्या की। उसे धर्मनिरपेक्ष चरित्र देने का यत्न किया और उसे वैश्विक मानवतावाद के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए अंतर्राष्ट्रीयतावाद करार दिया — 

राष्ट्रवादी हुए बिना कोई अंतर-राष्ट्रीयतावादी नहीं हो सकता। अंतर-राष्ट्रीयतावाद तभी संभव है जब राष्ट्रवाद सिद्ध हो चुके— यानी जब विभिन्न देशों के निवासी अपना संगठन कर लें और हिलमिलकर एकतापूर्वक काम करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लें।5 गांधीजी ऐसे राष्ट्रवाद में कोई बुराई नहीं देखते। बुराई तो तब है जब उसमें संकुचन हो, स्वार्थवृत्ति हो और जब वह देश के लोगों में अपने गौरव के विष की तरह मिल गया हो। राष्ट्रवाद की ओट में अपने लोगों को झूठे दंभ में डालकर जब सत्ताएँ दूसरे देशों के नाश या हानि पर अपना और अपने देश की प्रगति करना चाहती हैं, तब वह राष्ट्रवाद निश्चय ही स्वीकार करने योग्य नहीं हो सकता।

गांधीजी भारतीय राष्ट्रवाद को पश्चिम के समानांतर जिस व्याख्या में ले जाते हैं उसमें एक वैश्विक मानववाद है। इस रूप में भी यह राष्ट्रवाद भारतीय चिंतन और मूल्यदृष्टि के सर्वथा अनुकूल है — ’भगवान ने मुझे भारत में जन्म दिया है और इस तरह मेरा भाग्य इस देश की प्रजा के भाग्य के साथ बांध दिया है, इसलिए यदि मैं उसकी सेवा न करूं, तो मैं अपने विधाता के सामने अपराधी ठहरूंगा। यदि मैं यह नहीं जानता कि उसकी सेवा कैसे की जाय, तो मैं मानव-जाति की सेवा करना सीख ही नहीं सकता। और यदि मैं अपने देश की सेवा करते हुए दूसरे देशों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता, तो मेरे पथभ्रष्ट होने की कोई संभावना नहीं है।6 

यह सचमुच विस्मय में डालने वाली बात है कि गांधीजी ने राष्ट्रवाद देशप्रेम के साथ पूरी मानवता से जोड़कर वैश्विक राजनीति को कुत्सित स्वार्थ से बाहर निकालने की चेष्टा की। इस धारणा के पीछे लोकमान्य तिलक की नीति थी जिन्हें उन्होंने अपना गुरु कहा था और उन्हीं से देश के प्रति प्रेम और स्वराज की सतत खोज की चेष्टा की थी। इसमें उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण खोखले की नीतियों का भी हाथ था। 

राष्ट्रवाद पर विचार करते हुए और गांधीजी की भूमिका को परखते हुए यह संज्ञान में अवश्य रखना चाहिये कि भारत में राष्ट्रवाद की अवधारणा ठीक उसी तरह विकसित नहीं हुई, जैसे कि वह पश्चिम में आकार ले सकी थी। यूरोप में वह अनेक प्रारूपों और चरणों में विकसित हुई थी। इसके विपरीत भारत में वह औपनिवेशिक दासता के विरूद्ध संघर्ष के रूप में प्रकट हुआ था। वह भारतीय जन के लिए एक राष्ट्रीय-भाव था जो देश के गौरव और स्वाभिमान का मिलाजुला रूप था। उसमें यह तुच्छता न थी कि वह दूसरों को नीचा दिखाये, उसके भूभाग पर कब्जा कर ले और अपनी श्रेष्ठता के दंभ में उसकी अस्मिता को रौंद दे। भारतीय संस्कृति स्वयं ऐसी किसी श्रेष्ठता को स्वीकार कर मानवता के विरूद्ध जाने की मंशा को प्रश्नांकित करती है; क्योंकि वह पूरी वसुधा को ही अपना परिवार मानती है। 

जाहिर है, 1857 में हुए पहले स्वतंत्रता-संग्राम से प्रभाव में आया भारतीय राष्ट्रवाद अपनी संप्रभुता को बचाने और औपनिवेशिक शासन को उखाड़ फेंकने की इच्छा से फलीभूत हुआ। हम अगर गाँधीजी के राष्ट्रवाद सम्बंधी विचार जानना चाहें, तो हमें 1909 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ’हिन्द स्वराज’ को देखना होगा जिसमें उन्होंने सर्वथा पहली बार राष्ट्रवाद पर विचार किया था। उनके यहाँ ’स्वराज्य’ ही उनके मन का या यह कहें कि भारतीय चित्त का राष्ट्रवाद है। यह राष्ट्रवाद, चूंकि स्वशासन है, स्वानुशासन और स्वराज की मूल संकल्पनाओं से वांछित है इसलिए इसमें अपने से संकल्पविद्ध प्रेम तो है, पर दूसरे का विरोध या अकल्याण कतई नहीं है। इसी नीति के तहत गाँधीजी ने कहा था — ’मेरा राष्ट्रवाद मेरी स्वदेशी जितना व्यापक है। मैं भारत का उत्थान चाहता हूँ ताकि पूरी दुनिया को फायदा हो। मैं नहीं चाहता कि भारत अन्य देशों की बर्बादी पर खड़ा हो।7

स्पष्ट है, गाँधीजी का राष्ट्रवाद उनके उस चिन्तन का अंग था जो वह भारत के स्वशासन के लिए कर रहे थे। वे मानव-जाति के मरने की शर्त पर देश को भी जीवित देखना नहीं चाहते थे। आशय इसका यह है कि देश इतना जीवित और ऊँचा उठ जाय कि वह मनुष्य जाति के जीवन पर भारी पड़ जाय, तो इस स्तर का कथित राष्ट्रवाद उन्हें कभी स्वीकार्य न था, न हो सकता था।

कहा जा सकता है कि उनके राष्ट्रवाद का अभिप्राय देशप्रेम था; और देशप्रेम बृहद्तर अर्थ में मानव-प्रेम का द्योतक था।

उनके राष्ट्रवाद पर विचार करने पर तीन तत्वों की स्पष्ट भूमिका नज़र आती है जो उनकी अवधारणा को बल प्रदान करते हैं। यह तत्व हैं — स्वराज, स्वराज्य तथा अहिंसा। स्वराज आत्मानुशासन और स्व पर यानी अपनी देह और मन पर शासन है जो हर तरह के पार्थक्य का शमन करता है। यह स्व-पर के व्यावहारिक भाव को दूर कर स्व के भीतर ही समस्त मानवता को समेट कर मनुष्य के भीतर परमार्थिक भाव का विकास कर उसे मानवोत्तम बनाता है। स्वराज व्यक्ति से होकर समस्त समाज का पाथेय बनता है या बन सकता है, यह गाँधीजी की चिरसंचित अभीप्सा रही और उन्होंने निरंतर इस ध्येय को लेकर काम किया। दूसरा तत्व स्वराज्य है जो स्वशासन यानी देश पर अपना शासन है और वह शासन सर्वोदय के लक्ष्य में समाहित है। यह शासन सबके कल्याण का द्योतक है और सत्याग्रह इसका कार्यबल और कार्यसिद्धि का सबसे प्रभावी कारक है। तीसरा तत्व अहिंसा है जो किसी भी प्रकार के अप्रेम का खंडन है। सबके प्रति प्रेम, सद्भाव और परस्पर विश्वास का संबल यह अहिंसा देश और विश्व के सभी विभाजनों को ध्वस्त करती है तथा परस्पर प्रेम और निःशस्त्र प्रतिरोध को अपना पाथेय स्वीकार करती है। इन्हीं तीन तत्वों से अपना स्वरूप ग्रहण करता हुआ गाँधीजी का राष्ट्रवाद देशप्रेम को मानव-प्रेम में बदल देता है और उस पश्चिमी राष्ट्रवाद को सिरे से निरस्त कर देता है जो अपनी सत्ता, संस्कृति और जाति के दंभ में दूसरे देशों का अस्तित्व ही संकट में डालता है।

यहाँ यह भी ध्यान में रखने की बात है कि गाँधीजी का राष्ट्रवाद धार्मिक प्रभुता या सत्ता के वर्चस्व को भी आड़े हाथों लेता है। स्वराज, स्वराज्य और अहिंसा से समन्वित उनके राष्ट्रवाद ने धर्म की श्रेष्ठता और दंभ के आधार पर देश को गर्वोदीप्त मानने और दूसरे धर्मावलंबियों को कमतर आंक कर उन्हें निकृष्ट सिद्ध करने की मानसिकता को भी निरस्त किया। वे उसी राष्ट्रवाद को प्रश्रय देते हैं जिसमें धार्मिक आग्रहों की जगह न हो। दूसरे शब्दों में कहें तो यह राष्ट्रवाद पारस्परिक सद्भाव और साम्प्रदायिक सौहार्द का समर्थन है तथा एक देश की एक राष्ट्र में आकार पा सकने की सभी सम्भावनाओं का समन्वय है। इस रूप में गाँधीजी का राष्ट्रवाद उस पश्चिमी राष्ट्रवाद का भारतीय प्रतिवाद है जो अपने जातीय-दंभ में पूरी दुनिया को कुचल देने की मंशा रखता है और मनुष्य-मनुष्य में भेद पैदा करके धरती को नरक बना देने पर उतारू रहा है। यह उन देशों के लिए भी चेतावनी है जो धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देकर अपने कथित धर्म को दुनिया-भर में फैला देने के लक्ष्य को ही ईश्वर का आदेश कहते हैं।

कह सकते हैं कि गाँधीजी का राष्ट्रवाद सभी संकीर्णताओं से ऊपर उठकर वैश्विक परस्परता और समानता पर बल देता है जिसमें देश के साथ-साथ जागतिक मानव-प्रेम, सद्भाव और विकास शामिल है। यही कारण है कि इस राष्ट्रवाद की सहजता के बावजूद अनेक पश्चिमी विचारकों ने इसे जटिल और एक समग्र नैतिक दर्शन पर आधारित माना है जिसका पालन बहुत दुष्कर है, पर मानव-हित में है। स्वराज पर आधारित होने के कारण उनका राष्ट्रवाद समस्त विश्व में नैतिकता को स्थापित करता है इसलिए उसमें आध्यात्मिक शक्ति भी समाहित हो जाती है। इसे ही वे मानवजाति के लिए श्रेयस्कर मानते हैं, क्योंकि इसी में ’सर्वोच्च कोटि की स्वतंत्रता के साथ सर्वोच्च कोटि का अनुशासन और विनय होता है। अनुशासन और विनय से मिलने वाली स्वतंत्रता को कोई छीन नहीं सकता। संयमहीन स्वच्छंदता संस्कारहीनता की घोतक है, उससे व्यक्ति की अपनी और पड़ोसियों की भी हानि होती है।8

तात्पर्य यह है कि स्वतंत्रता का मूल्य ही अनुशासन और विनय माँगता है और जब यह मांग हमसे पूरी हो जाती है तो हम उस राष्ट्रवाद की तरफ बढ़ सकते हैं जो स्वराजसिद्ध स्वराज्य और अहिंसा के द्वारा पाया जा सकता है।

ज्ञातव्य है कि राष्ट्रवाद सर्वथा पहली बार यूरोप में संज्ञान में आया था। 1789 में फ्रांसीसी राज्य क्रांति के समय अस्तित्व में आकर इसने वैश्विक जगत को एक उन्माद में बदल दिया था। आधुनिक राज्य की परिकल्पना में राष्ट्रवाद के मिल जाने से राष्ट्र-राज्य की अवधारणा विकसित हुई थी जिसमें इतिहास, परम्परा, भाषा, जातीयता और संस्कृति को एकीकृत करने और उस आधार पर अपनी-अपनी श्रेष्ठता को सर्वोपरि मानने का भाव था। इस भाव ने देशों की सीमाओं को तोड़कर जो घृणित वातावरण बनाने की कोशिश की थी, उससे मानवता त्राहि-त्राहि कर उठी थी। गाँधीजी ने इसे अपने यूरोपीय तथा अफ्रीकी प्रवास में देखा था और उसके वीभत्सतम रूप को स्वयं भुगता भी था। रंग और नस्ल की श्रेष्ठता भी इस राष्ट्रवाद की एक पहचान के रूप में आई थी जिसकी छाया आज भी देखी और महसूस की जाती है।

गाँधीजी ने इसीलिए भारतीय राष्ट्रवाद को भारत के पारम्परिक प्रवाहों और चिन्तनों में देखते हुए उसकी नई व्याख्या कर एक दिशा देते हुए उसे देशप्रेम में बदलने की कोशिश की। देश से प्रेम, देश की संस्कृति और मनुष्यों से प्रेम और यहाँ की धरती से अनुप्राणित हर उस वस्तु से प्रेम इस राष्ट्रवाद में शामिल था जिसे एक व्यवस्था में अपना स्वरूप ग्रहण करना था। वह व्यवस्था जिन तीन तत्वों में प्राप्य है, उसे हम देख चुके है। निश्चय ही उसका विकास उस लोकतंत्र में होना था जिसके लिए स्वाधीनता का लम्बा संघर्ष चला था।

गांधीजी के लिए लोकतंत्र यानी प्रजातंत्र का आशय उस व्यवस्था से था जिसमें नीचे से नीचे और ऊँचे से ऊँचे आदमी को आगे बढ़ने का अवसर पाना हो सकता हो। इसी लोकतंत्र में भारतीय राष्ट्रवाद भी फल-फूल सकता था जिसकी आकांक्षा लेकर उन्होंने संघर्ष करने के साथ-साथ गहन चिन्तन किया था। वे लिखते है — ’प्रजातंत्र का अर्थ मैं यह समझा हूं कि इस तंत्र में नीचे से नीचे और ऊँचे से ऊँचे आदमी को आगे बढ़ने का समान अवसर मिलना चाहिए। लेकिन सिवा अहिंसा के, ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। संसार में ऐसा कोई भी देश आज नहीं है जहां कमजोरों के हक की रक्षा बतौर फर्ज होती हो। अगर गरीबों के लिए भी कुछ किया जाता है, तो वह मेहरबानी के तौर पर किया जाता है।9

अपने कथन को और भी स्पष्ट करते हुए गांधीजी पश्चिमी लोकतंत्र को कथित राष्ट्रवाद सहित प्रश्नांकित कर देते हैं क्योंकि वहां प्रजातंत्र साम्राज्यवाद की चाल को ढकने के लिए एक आडम्बर है। उन्हीं के शब्दों में — ’पश्चिम का आज का प्रजातंत्र जरा हलके रंग का नाजी और फासिस्ट चाल को ढकने के लिए एक आडम्बर है। हिन्दुस्तान सच्चा प्रजातंत्र गढ़ने का प्रयत्न कर रहा है, अर्थात् ऐसा प्रजातंत्र जिसमें हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होगा।10 

यहाँ तक आते-आते गाँधीजी पश्चिम के कथित प्रजातंत्र और उसमें समाहित राष्ट्रवाद की पोल खोलकर उसकी सही जगह बताते हुए उसे उपहास का विषय बनाते हैं। वस्तुतः राष्ट्रवाद का पल्लवित और विकसित होना सच्चे लोकतंत्र में ही सम्भव है जिसमें सबको समान अवसर मिल सके। ऐसा न हो कि थोथे राष्ट्रवाद को ढाल बनाकर पश्चिम की तरह का लोकतंत्र निर्मित किया जाय जिसमें राष्ट्रीय दर्प के नाम पर हिंसा और उन्माद ही एक मात्र ध्येय रह जाये और उसके असल लक्ष्य से आँखें मूंद ली जाये। यही कारण है कि लोकतंत्र पर विचार करते हुए गाँधीजी हिंसा को जगह नहीं देते और स्वराज्य के असत्यमय होने से इनकार करते हैं — ’सच्ची लोकसत्ता या जनता का स्वराज्य कभी भी असत्यमय और हिंसक साधनों से नहीं आ सकता। कारण स्पष्ट और सीधा है। यदि असत्यमय और हिंसक साधनों का प्रयोग किया गया तो उसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि सारा विरोध या तो विरोधियों को दबाकर या उनका नाश करके खतम कर दिया जायेगा। ऐसी स्थिति में वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा नहीं हो सकती। वैयक्तिक स्वतंत्रता को प्रगट होने का पूरा अवकाश केवल विशुद्ध अहिंसा पर आधारित शासन में ही मिल सकता है।11

ध्यातव्य है कि गांधीजी का समर्थित और प्रस्तावित लोकतंत्र राज्य की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। इसका आशय यह नहीं है कि वह राज्य को निरस्त करते हैं। उनका आदर्श एक ऐसा शासन है जिसमें राज्य का हस्तक्षेप शासन के स्तर पर न्यून हो। जनता के हितों, उनकी वैयक्तिक स्वतंत्रता तथा उनके अनवरत कल्याण के लिए उत्तरदायी होकर वह स्वैच्छिक सहयोग पर काम करने वाले सत्याग्रही ग्राम समुदायों का एक संघ बनने में मदद करें। उनकी दृष्टि में स्वराज्य वास्तविक लोकतंत्र है और राज्य की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में निहित हो ताकि वह अनुभव कर सके कि वही स्वयं का वास्तविक शासक है। गाँधीजी इस अर्थ में राज्य के केन्द्रीकरण, सत्ता की हिंसा, वैयक्तिक स्वतंत्रता का हनन और सरकार द्वारा आपने हितों को ध्यान में रखते हुए लिए गए निर्णयों का समर्थन नहीं करते। यह धारणा वे पश्चिमी लोकतंत्र के परिदृश्य को देखकर ही बनाते हैं, क्योंकि वहाँ के लोकतंत्र में वैयक्तिक स्वतंत्रता को जगह नहीं मिलती और सत्ताएँ राष्ट्रवाद का सहारा लेकर साम्राज्यवादी बाना धारण कर लेती हैं। इससे राज्याधारित हिंसा जहाँ अपनी जनता की भावनाओं को भड़काकर उनका दोहन करती है, वहीं देश की सीमाओं के विस्तार की इच्छा से दूसरे देशों की स्वतंत्रता को कुचला जाता है। राष्ट्रवाद यानी देशप्रेम से समन्वित लोकतंत्र का गांधीवादी दर्शन जिन आधारभूत तत्वों पर आधारित है, उनमें अहिंसा का सर्वोपरि स्थान है। 

गांधीजी का स्वराज्य यानी उनका जनतांत्रिक शासन हर तरह की हिंसा अर्थात् अप्रेम का बहिष्कार है। राज्य को प्रश्नांकित करने और अपने स्वराजनित स्वराज्य में यदि वे उसके शासन को स्वीकार नहीं करते तो इसलिए कि वे राज्य को संकेंद्रित और संगठित हिंसा का प्रतिनिधि मानते हैं। यह ध्यान में रखना चाहिए कि गांधीजी जब राज्य को अहिंसा पर आधारित करना चाहते हैं तो उसकी एक बड़ी वजह पश्चिमी ढंग का राष्ट्रवाद ही है जो लोकतंत्र की आड़ में बाहर और भीतर केवल हिंसा से ही चलायमान होता है। हिंसा पर आधारित व्यवस्था के कारण ही राज्य का आधुनिक स्वरूप उन्हें आश्वस्त नहीं कर पाता। वे कहते हैं — ’राज्य संकेंद्रित और संगठित रूप में हिंसा का प्रतिनिधित्व करता है। व्यक्ति के पास आत्मा होती है, पर राज्य आत्माविहीन तंत्र होता है, इसलिए उसे हिंसा से कभी विरत नहीं किया जा सकता। उसका अस्तित्व ही हिंसा में निहित है।12

समझने की बात यह है कि यदि हिंसा ही सर्वोपरि हो रहेगी और वैयक्तिक हितों और अस्मिताओं को स्वतंत्रता और आश्वस्ति न मिलेगी, तो राष्ट्रवाद का भावात्मक और आत्मिक पल्लवन कैसे सम्भव है? लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं होना चाहिये, इसलिए कि हिंसा लोकतंत्र में निहित भावना को ही कुचल देती है। यह मानते हुए ही वे कहते हैं — ’लोकतंत्र और हिंसा साथ-साथ नहीं चल सकते। जो राज्य आज नाम के लोकतांत्रिक हैं, उन्हें या तो खुल्लमखुल्ला सर्वसत्तात्मक बन जाना होगा या वे अगर सचमुच लोकतांत्रिक बनना चाहते हैं तो हिम्मत करके उन्हें अहिंसक रूप धारण करना होगा।13

गाँधीजी जब हिंसा से लोकतंत्र का स्वाभाविक विरोध मानते हैं, तो उनके मन में यह स्पष्ट है कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति संप्रभु होता है। वह अपनी पहचान और व्यक्तिता निर्मित कर जीवनाचरण करता है। राज्य की संप्रभुता इसमें नहीं है कि वह सर्वशक्तिमान मानकर व्यक्ति की सम्प्रभुता और व्यक्तिता की अनदेखी करे, उसके पोषण से इन्कार करे; बल्कि उसका प्रयोजन ही यह है कि वह अपने भीतर रहने वाले सभी व्यक्तियों की संप्रभुता की रक्षा, पोषण और विकास को सुनिश्चित करे। गाँधीजी की दृष्टि में लोकतंत्र की सफलता ही इसमें निहित है कि वह व्यक्ति की निजता को क्षरित न होने दे। यह राज्य की नैतिकता का प्रश्न है और उसकी अर्हता की सबसे बड़ी आवश्यकता भी और उसके होने की इयत्ता ही इसमें निहित है कि वह व्यक्ति की निजता को स्वतंत्र रहने दे। यह राज्य की नैतिकता का प्रश्न है और उसकी अर्हता की सबसे बड़ी आवश्यकता भी और उसके होने की इयत्ता ही इसमें निहित है कि वह किसी भी स्थिति में जनहित के विरूद्ध न जाय। अगर इसकी अवहेलना होती है, तो निःसंदेह राज्य की नैतिक वैधता संदिग्ध होती है। इसीलिए जब वे स्वतंत्रता की बात करते हैं तो उनके लिए वैयक्तिक स्वतंत्रता अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है बनिस्पत राजनीतिक स्वतंत्रता के; और तब वे कह पड़ते हैं कि — ‘मनुष्य को व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करके संभवतः किसी समाज की रचना नहीं की जा सकती।14 स्पष्ट है कि गांधीजी के लिए स्वतंत्रता का आशय ‘मनुष्य की अपने ऐश्वर्य के साथ पूर्ण स्वतंत्रता15 है जिसे वे अपने लोकतंत्र यानी स्वराज्य में फलित होते देखना चाहते हैं। अगर राज्य लोकतंत्र का बाना ओढ़कर भी व्यक्ति की इस संपूर्ण स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकता, तो वह राज्य अपने लोकतंत्र सहित विफल और त्याज्य है। इसलिए भी त्याज्य है कि ‘स्वराज्य सभी प्रकार की पराधीनताओं से मुक्ति है,’16 और यदि लोकतंत्र के होते या स्वीकार करते मात्र राजनीतिक स्वतंत्रता देकर शेष सभी स्वतंत्रताओं पर कुठाराघात किया जाए, तो यह अनर्थकारी है, अस्वीकार्य है। निश्चय ही यह समग्र स्वतंत्रता सरकार के नियंत्रण से मुक्ति में ही सम्भव है। वे कहते भी हैं — ‘स्वराज का अर्थ है — सरकार के नियंत्रण से मुक्त होने का प्रयास यह सरकार चाहे विदेशी हो या राष्ट्रीय।17 

लेकिन मुश्किल प्रश्न है कि आधुनिक राज्य के लोकतंत्र में इसकी सम्भावना बेहद कम है कि वह केन्द्रीकरण से बचे; और यदि यह केन्द्रीकरण से नहीं बचता, तो फिर वह समाज की अहिंसक संरचना से मेल नहीं खा सकता — ’एक प्रणाली के रूप में केन्द्रीकरण समाज की अहिंसक संरचना से मेल नहीं खाता।18 इस तरह केन्द्रीकरण के माध्यम से वह निरन्तर हिंसक होता जाता है और अपने दायरे में सभी संस्थाओं की स्वायत्तता को निगल जाता है। गाँधीजी इसीलिए स्वतंत्रता पाकर खुश या संतुष्ट होने का भाव प्रदर्शित नहीं करते; क्योंकि उन्हें यह बराबर महसूस होता है कि राज्य की जो संरचना वैश्विक स्तर पर दिखती है, यह भयभीत करती है। भारत में भी यही स्थिति संभावित है, इसलिए यह उन्हें रास नहीं आता — ’मैं राज्य की शक्ति में वृद्धि से भयभीत हूँ। यद्यपि यह जाहिरा तौर पर शोषण को न्यूनतम करके लोगों की भलाई के लिए प्रयास करता है, पर यह वैयक्तिकता को विनष्ट करके मानव-जाति की सबसे बड़ी हानि करता है; क्योंकि वैयक्तिकता ही तो सारी प्रगति की कुंजी है।19

यही कारण है कि गांधीजी स्थानीय शासन निकायों को सर्वाधिकार देकर ग्राम्य तंत्र और ग्राम पंचायत को शासन के लिए उपयुक्त बताते हैं और उम्मीद करते है कि इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा हो सकेगी। गाँधीजी ने जिस तरह समुद्री वलयाकार ढाँचे के तहत अपने स्वराज के तंत्र की कल्पना की और पाया कि इससे राज्य के केन्द्रीकरण से मुक्ति मिल पाएगी; उसी तरह सोचते हुए मानवेन्द्रनाथ राय ने भी लिखा — ’संगठित स्थानीय लोकतंत्रों के आधार पर निर्मित राज्य की पिरामिडाकार संरचना में ही सरकार में जनता की भागीदारी हो सकती है। संगठित स्थानीय लोकतंत्रों का प्राथमिक कार्य व्यक्ति-नागरिकों को अपने संप्रभु अधिकारों के प्रति पूर्ण जागरूक करना तथा अपने अधिकार का शुद्ध अन्तःकरण से बुद्धिमतापूर्ण प्रयोग करने में समर्थ बनाता है। सम्पूर्ण समाज के समान, लोकतांत्रिक राज्य का व्यापक आधार एक प्रकार की राजनीतिक शालाओं के एक तंत्र पर निर्मित होगा। जनमत-संग्रह और निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार संगठित स्थानीय लोकतंत्र को राज्य-तंत्र पर प्रत्यक्ष और प्रभावी नियंत्रण रखने में समर्थ बना देगा।20

इस तरह गाँधीजी और मानवेन्द्रनाथ राय यानी एम. एन. राय स्वायत्तशासी स्थानीय निकायों में ही वास्तविक लोकतंत्र को देख पाते है। इसकी सबसे बड़ी शक्ति यही है कि इसमें अपनी स्थानीयता के प्रति अनन्यता के साथ हर व्यक्ति को अपनी संप्रभुता के सुरक्षित रहने का बोध होगा, जो हर तरह की समस्याओं के निवारण में सहायक होगा। 

इसका निष्कर्ष यह नहीं निकाला जाना चाहिये कि राष्ट्रवाद को लोकतंत्र में समन्वित मानते हुए गाँधीजी राज्य को ही निरस्त कर रहे हैं। सच्चाई जबकि यह है कि गांधीजी स्थानीय संस्थाओं को स्वशासित कर वृहद्तर स्तर पर स्वतंत्रता को व्यक्ति की संप्रभुता और गरिमा से जोड़ना चाहते हैं ताकि कोई भी संस्था केन्द्रीकरण का शिकार न होकर अपनी प्रभावी भूमिका निभा सके। इससे अधिकतम स्तर पर राज्य समृद्ध और प्रभावी होगा; बस अनियंत्रित और हिंसक हो उठने वाले उसके अधिकार संकुचित होंगे, वह हिंसा को अपना प्राथमिक कर्तव्य मानकर अराजक हो सकने से बचा रह सकेगा। गोपीनाथ धवन ने गाँधीजी के स्वराज की राज्यविहीनता को स्पष्ट करते हुए ठीक ही कहा है — ’राज्यविहीन होने का तात्पर्य है — राज्य का संप्रभु होना नहीं, बल्कि एक समस्तरीय समन्वयक या संयोजक हो जाना।21

कह सकते हैं कि गाँधीजी वैश्विक आधुनिकता और राष्ट्र-राज्य के समानांतर राष्ट्रवाद और लोकतंत्र को विशुद्ध भारतीय परिप्रेक्ष्य देते हैं तथा उसी में उसकी सिद्धि देखते हैं। उनके राष्ट्रवाद और लोकतांत्रिक राज्यविधान स्वराज्य में नैतिकता का केन्द्रीय स्थान है। व्यक्ति का नैतिक होना, देश के प्रति एकनिष्ठ होना है और स्वयं में अपने स्वराज्य के प्रति प्रतिबद्ध होना है। इस नैतिकता का सम्बंध व्यक्ति की अन्तरात्मा से है जिसका शुद्ध रहना जितना स्वयं उसके लिए आवश्यक है, उतना ही समाज और राज्य के लिए अनिवार्य है। एक मनुष्य या व्यक्ति के रूप में अन्तरात्मा के प्रति निष्ठा रखना वस्तुतः अपने को नैतिक बनाये रखते हुए समाज को एक सार्थक दिशा देना भी है। लास्की ने भी कहा था कि — ’हमारा प्रथम कर्तव्य अपनी अन्तरात्मा के प्रति निष्ठावान होना है।22 नन्दकिशोर आचार्य उचित ही कहते हैं कि — ’गाँधीजी के लिए भी अन्तरात्मा का सत्य ही वास्तविक संप्रभुता है; और उस सत्य को ग्रहण करना, सत्याग्रही होना ही, सत्याग्रह को भी सत्याग्रही बना देना; अर्थात् अपनी अन्तरात्मा की सिद्धि है। महात्मा गाँधी के लिए सत्य का व्यावहारिक रूप अहिंसा है, इसलिए किसी भी अन्याय जो हिंसा है का अहिंसक प्रतिरोध अपनी अन्तरात्मा के सत्य अर्थात् अपने स्वराज्य में रहना है।23

यहाँ तक आकर हम समझ पाते हैं कि गाँधीजी के राष्ट्रवाद और लोकतंत्र में इसी अन्तरात्मा के प्रति निष्ठावान होने की संस्तुति है। अंतर के प्रति निष्ठा से संबलित मानव-प्रेम और उस अन्तर को पोषण देकर व्यक्ति की गरिमा को बनाये रखने के लिए कटिबद्ध विधान; यह दोनों ही उक्त का अर्थ देते हैं जो व्यवहार में अन्तरदीप्त प्रेम और स्वराज के बोधक हैं।

गाँधीजी के इस त्रृक् का तीसरा तत्व है— स्वदेशी; जो उनके देशप्रेम और स्वराज को विशुद्ध धरातल प्रदान करता है; क्योंकि वही है जो देश, काल और उसकी मिट्टी से मनुष्य के स्वत्व को सिरजता है। गाँधीजी ने स्वदेशी के सिद्धान्त निर्मित किये और उसके महत्व को विस्तार दिया। श्री बाल जी देसाई ने लिखा है — ’उन्होंने स्वदेशी से सम्बंधित सिद्धांत को जेल में नहीं लिखा, क्योंकि उन्हें लगा कि राजनीति के प्रतिबंधित क्षेत्र का अतिक्रमण किये बिना सम्भवतः वे इस विषय का सम्यक् विवेचन नहीं कर सकते।24

श्री देसाई के कथन से यह स्पष्ट है कि गाँधीजी के लिए स्वदेशी का बहुत महत्व है; क्योंकि वह उनकी राजनीति और समग्र तपश्चर्या को एक विशेष दिशा देता है। यह वह तत्व है जो उनके राष्ट्रवाद और लोकतंत्र सम्बंधी विचारों को तो पुष्ट करता ही है, अंग्रेजी शासन से मुक्ति-संघर्ष में भी मदद करता है। स्वदेशी को समझाने की यह एक आसान युक्ति है, पर वह कहीं अधिक व्यापक और मूल्यवान तत्व है जो गाँधीजी के समस्त चिन्तन को प्रभावित करता है और उससे हम उनकी भारत-चिन्ता के परिप्रेक्ष्य में अधिक सहजता से समझ सकते हैं। उनकी दृष्टि में इसका व्यापक सामाजिक महत्व है जो भारतीय चिन्तन परम्परा से ग्रहण किया गया है। ’स्वदेशी’ गाँधीजी के एकादस व्रतों में एक है जिसमें सत्य, ब्रह्मचर्य, रसना निग्रह, अस्तेय, अपरिग्रह, अभय, अस्पृश्यता-निवारण, जीविकार्य श्रम, विनम्रता, और सहिष्णुता शामिल हैं। इसमें ’स्वदेशी’ को मिलाकर ग्यारह व्रत होते हैं जिनकी विशद् व्याख्या कर गाँधीजी ने उनकी सैद्धांतिकी निर्मित की, और उससे अपना व्यवस्थित दर्शन प्रस्तुत किया। यहाँ हम सिर्फ स्वदेशी पर बात करेंगे, क्योंकि राष्ट्रवाद और लोकतंत्र के साथ जिस त्रृक में हम स्वदेशी को समझना चाहते हैं, उसमें दूसरे व्रतों पर चर्चा करना समीचीन नहीं है। अन्य व्रत स्वयं परिभाषित हैं जो यथा-प्रसंग अनेक स्थलों पर विवेचित व्याख्यायित हैं। 

स्वदेशी के बारे में वे कहते हैं — ’स्वदेशी हमारी वह भावना है जो दूरवर्ती का निषेध कर हमारे निकटवर्ती परिवेश का उपयोग एवं सेवन करने के लिए हमें प्रतिबद्ध करती है।’ वे इसे विस्तार से समझाते हुए कहते हैं — ’धर्म के क्षेत्र में हमें अपने पैतृक धर्म का पालन करना चाहिये, अर्थात् धर्म में अपने निकटवर्ती परिवेश का उपयोग करना चाहिये। यदि हमें लगे कि मेरा धर्म सदोष है यानी उसमें विकार आ गया है, तो उसे दोषमुक्त कर उसकी सेवा करनी चाहिये। राजनीति के क्षेत्र में हमें अपनी देसी पद्धति का उपयोग करना चाहिये और उसके जो दोष प्रमाणित हो चुके हों, उन्हें दूर कर उसकी सेवा करनी चाहिये।अर्थनीति के क्षेत्र में हमें उन्हीं वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए जो निकटवर्ती पड़ोसियों द्वारा निर्मित की गई हों; (यहाँ निकटवर्ती पड़ोसियों से आशय अपने देश के लोगों द्वारा निर्मित वस्तु से है।) और उन उद्योग-धंधों की कमियों को दूर कर उनको कार्यक्षम एवं परिपूर्ण बनाकर उनकी सेवा करनी चाहिये।25

यह गाँधीजी के ’स्वदेशी’ के सिद्धांत हैं जिन्हें हम उनके संकल्प कह सकते हैं। इसमें हम देख पाते हैं कि पैतृक धर्म, राजनीति की देसी पद्धति और स्वदेश में निर्मित वस्तु के उपयोग का निर्देश है। पर स्वदेशी की अर्थवत्ता इतने तक ही सीमित नहीं है। उसका विस्तार वहाँ तक है जहाँ तक हम अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक की विभिन्न यात्राओं से गुजरते हैं। निसन्देह गाँधीजी ने इस पद की खोज की, उसे नाम दिया; पर इसकी प्रेरणा उन्हें भारतीय चिन्तन से मिली। इस तत्व की प्रेरणा उन्हें ’गीता’ के इस श्लोक से मिली, जिसमें कहा गया है —

अर्थात् अपने धर्म का पालन करते हुए मरना भी श्रेयस्कर है जबकि दूसरे का धर्म भयावह होता है। यद्यपि कि अपने धर्म में दोष हो, फिर भी हमें उसी को अंगीकार करते हुए उसमें स्थित होना चाहिये।

यहाँ स्वधर्म केवल अपने विहित धर्म का बोधक नहीं है। वह मानवोचित कर्तव्यबोध भी है, तो अपनी मिट्टी, अपने परिवेश और अपने पर्यावरण का बोधक भी है। कदाचित इसी को ध्यान में रखते हुए गांधीजी ने कहा था —


समझने की बात यह है कि स्वदेशी अपने विस्तृत अर्थ में समूचे देश, काल, प्रकृति, संस्कृति, धर्म, परम्परा, लोग और विचार का बोधक है; पर उसमें व्यर्थ की श्रेष्ठता के दम्भ से इन्कार है। अपने और अपने देश की सभी चीजों से प्रेम का यह अर्थ कदापि नहीं है कि अपनी चीजों के दोषों से हम आँखें मूँदें रहें, उसका परिष्कार करने का जतन न करें और बाहर की अनुकरणीय चीजों से अपने को विकसित करने का प्रयत्न न करें। इसके विपरीत गाँधीजी निरंतर अपने परिष्कार की बात करते रहे तथा दूषित चीजों के विरोध में खड़े रहे। अगर संस्कृति के स्तर पर ही स्वदेशी का उदाहरण लें तो गाँधीजी को यह कहते हुए पायेंगे कि —


स्पष्ट है कि अपने को अधिक सम्पन्न और पुष्ट बनाने के लिए किसी भी बाहरी चीज से प्रेरित होना बुरा नहीं है, बुरा है उसी में खप जाना, उसी को श्रेष्ठ मानकर अपने को तज देना; और इस तरह अपनी पहचान मिटा देना । यही कारण है कि उन्होंने पश्चिमी सभ्यता की कड़ी आलोचना की और उसके अनुकरण को विनाशक बताया था। उनकी ’हिन्द स्वराज’ पुस्तक आधुनिक सभ्यता की कटु आलोचना है जो भारतीय स्वत्व और अस्मिता पर विमर्श करती हुई उनके व्यापक स्वराज की पृष्ठभूमि तैयार करती है जिसमें ’स्वदेशी’ का बड़ा वितान दिखता है। स्वदेशी अपने मूलार्थ में इस तरह ’स्व’ और ’देशी’ के जिन पदबन्धों में बँधा है, उसमें ’स्व’ अपना, अपने का अर्थ देता हुआ अपने भूभाग पर स्थित समस्त परिभूमि को विन्यस्त कर लेता है। देशी का भाव ही है — देश का; जिसमें वह सब कुछ शामिल है जो इस देश का है, जिससे देश जुड़ा है। एक संवाद में गाँधीजी ’स्वदेशी’ को, उसकी नीति को ईश्वर से उद्भूत मानते हैं, ईश्वर-विश्वास से मानते हैं — ‘जिस ईश्वर ने संसार के लिए शाश्वत सुख की व्यवस्था कर रखी है, जिसके लिए जो परिवेश उपयुक्त है, प्रत्येक मनुष्य को उन्होंने वही परिवेश दिया है जिससे वह मनुष्य अपने प्रत्येक कर्तव्य को समुचित रूप से पूरा कर सके। मनुष्य का प्रत्येक कार्य जीवन के उस विशेष परिवेश के लिए उपयोगी होना चाहिये। अपना जन्म या परिवार या देश या संस्कृति — हम अपने लिए इनमें से कुछ चुन नहीं सकते। भगवान ने जो दिया है, केवल उसे ही ग्रहण कर सकते हैं। परम्पराओं को ईश्वर प्रदत्त मानकर उसका कड़ाई से पालन करना होगा। उनका विरोधाचरण पाप होगा।29 

गाँधीजी के इन शब्दों को उनके राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है, जो उनके अंतर्राष्ट्रीयतावाद का पोषक है। यहाँ स्वदेशी पूरी मानवता के देशकाल और परिवेश से जुड़ जाता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के स्वदेश और स्व-परिवेश का भाव आ जाता है। स्वयं में लोकतंत्र का सच्चा आशय इसी विश्वजनीनता को बढ़ावा देता है, उसका विरोध नहीं करता। रोमां रोलां ठीक ही कहते हैं कि ’वस्तुतः स्वदेशी विराट धर्म-नीति है, जिसका उद्देश्य है — विद्वेषपूर्ण द्वन्द्व से संसार का त्राण करना, मनुष्य को मुक्ति देना।30 यानी यह समझना कि ’स्वदेशी’ सिर्फ अपने देश, जाति और परिवेश पर ही आग्रह करना नहीं है। उसका सम्बन्ध मानवता से है और हर तरह के अन्याय के प्रतिकार से है। इसके पीछे का तर्क यह है कि जो व्यक्ति स्वप्रेम से विरत है, वह किसी और के प्रति श्रद्धा नहीं रख सकता। इस रूप में स्वदेशी राष्ट्रवाद को अंतर्राष्ट्रीयतावाद और लोकतंत्र को मानवतावाद में देखने वाला विराट नीति-नियामक बन जाता है; इसीलिए इस पद की व्यंजना में न जाकर जब हम उसके वाच्य का अर्थ लेते हैं तो उसके व्यापक अर्थ से वंचित हो जाते हैं। यह अकारण नहीं है कि गाँधीजी ने ’द गोस्पेल ऑफ स्वदेशी’ यानी ’स्वदेशी के सिद्धान्त’ की भूमिका में लिखा था — ’जगत का उद्धार करने के लिए युग-युग में भगवान अवतार ग्रहण करते हैं। लेकिन हमेशा वे मनुष्य के रूप में ही अवतरित होंगे, ऐसा कोई बँधा-बँधाया नियम नहीं है। कभी उनका आविर्भाव किसी ऐसी अमूर्त नीति अथवा आदर्श के रूप में भी होता है, जो जगत् के मर्म को बेध देता है। स्वदेशी का सिद्धान्त उनका नया अवतार है।31 

कह सकते हैं कि स्वदेशी का विचार बेशक भारतीय परिप्रेक्ष्य और यहाँ की विशेष परिस्थितियों में आया, पर वह संकीर्ण नहीं है। उसमें मानवधर्मिता, उदारता और सार्वजनिनता है; क्योंकि उसमें किसी विशेष देश या धर्म का आग्रह नहीं है। भारत के लोग अपने देश, धर्म, संस्कृति और वस्तु से प्रेम करें, उससे जुड़े रहें, पर शेष विश्व के प्रति घृणा को न अपनायें, बल्कि उसके अनुकरणीय पक्षों को आत्मसात् करके अपने को तनिक और ऊँचा उठायें। इसी तरह यह विचार दूसरे देश और काल के लोगों को भी यही सन्देश देता है। यह गाँधीजी के विचारों की एक नीति है जो स्व से प्रेम करते हुए ही जगत् से प्रेम करने की सीख देती है। लेकिन यह प्रेम कहीं से भी अपने तिरस्कार या अप्रेम को बढ़ावा देकर दूसरे को महत्वपूर्ण मानने का समर्थन नहीं करता। प्रकारांतर से देखें तो गाँधीजी के राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और स्वदेशी का त्रृक एक-दूसरे से अनुस्यूत होते हुए सर्वथा एक ही सार को व्यक्त करते हैं और वह है अपनी भूमि, धर्म और वस्तु से प्रेम के साथ, समस्त विश्व के प्रति विनीत, करुण और आत्मीय रहना; जिससे परस्पर विद्वेष की अपसंस्कृति समाप्त हो और आधुनिक सभ्यता के नीच-ऊँच विभाजनों का समूल नाश हो सके।

गाँधीजी स्वदेशी को जब आत्मा का धर्म कहते हैं तो समझ में आता है कि वह कितना विराट और मूल्यवान है — ’स्वदेशी आत्मा का धर्म है पर वह बिसर गया है, इससे उसके विषय में व्रत लेने की जरूरत रहती है। आत्मा के लिए स्वदेशी का अंतिम अर्थ सारे स्थूल सम्बंधों से आत्यंतिक मुक्ति है। देह भी उसके लिए परदेशी है, क्योंकि देह अन्य आत्माओं के साथ एकता स्थापित करने में बाधक होती है, उसके मार्ग में विघ्नरूप है। जीवमात्र के साथ ऐक्य साधते हुए स्वदेशी धर्म को जानने और पालने वाला देह का भी त्याग करता है।'32

सारांशत: कह सकते हैं कि स्वदेशी अपने निहितार्थ में अपने आत्म का अन्वेषण और उसकी प्राप्ति कर उसी में विन्यस्त हो रहने का विरल भाव है। गाँधीजी का राष्ट्रवाद जिस तरह ’देशप्रेम के दायरे में प्राणिमात्र का समावेश33 है; और लोकतंत्र ‘अपने को मानवी तथा दैवी, सभी नियमों का स्वेच्छापूर्वक पालन करने का अभ्यस्त विधान34 उसी तरह स्वदेशी स्वयं को अपनी आत्मा में स्थित करने और समस्त आत्माओं के प्रति सदय रखने का परम-मूल्य है। कहने को यह तीन पद अलग-अलग दिखते हों; (और हैं भी क्योंकि राष्ट्रवाद स्वराज के लिए संघर्ष से उपजा भारतीय स्वत्वबोध का भाव है, तो लोकतंत्र भावी भारत के शासन से सम्बंधित पद्धति के रूप में विचारणीय बना है; और स्वदेशी गाँधीजी के एकादस व्रतों में से एक व्रत है,) किन्तु इन सबका सम्बन्ध परस्पविद्ध है और सब एक ही मानवीय दृष्टि की अभिव्यक्तियाँ हैं।

अपने पर दृढ़ रहते हुए, चाहे अपनी धरती हो, चाहे अपना जीवन-व्यवहार और शासन हो तथा चाहे अपनी हर चीज अनन्य लगती हो, लगनी भी चाहिये; पर इससे दूसरे के प्रति घृणा, तिरस्कार या वर्जनशीलता नहीं आनी चाहिये। जितना संभव हो, हम अपने और अपनी इयत्ता को यथायोग्य बनाते हुए उनका उपयोग करें; और समस्त मानवता के प्रति करूण हों। गांधीजी के इस त्रृक में हमें मानवता के हित की विशद् चिन्ता दिखती है।  
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

संदर्भ
1. ’यंग इंडिया’, 16 मार्च, 1921
2. ’यंग इंडिया’, 16 मार्च, 1921
3. ’यंग इंडिया’, 16 मार्च, 1921
4. ’यंग इंडिया’, 18 जून, 1925
5. ’यंग इंडिया’, 18 जून, 1925
6. ’यंग इंडिया’, 18 जून, 1925
7. ’यंग इंडिया’, 12 मार्च, 1925
8. ’यंग इंडिया’, 3 जून, 1926
9. ’हरिजन सेवक’, 18 मई, 1940
10. ’हरिजन सेवक’, 18 मई, 1940
11. ’हरिजन’ 27 मई, 1939
12. ‘मॉडर्न रिन्यू’ अक्तूबर, 1935, पृ. 412
13. ’हरिजन’, 12 नवम्बर, 1938
14. ’यंग इंडिया’, 2 जुलाई, 1931
15. ’हरिजन’, 7 जून, 1942
16. ‘यंग इंडिया’, 12 जून, 1924
17. ’यंग इंडिया’, 6 अगस्त, 1925 
18. ’हरिजन’, 18 फरवरी, 1942
19. ’मॉडर्न रिव्यू’, अक्तूबर, 1935
20. ’नव-मानववाद’ - एम० एन० राय, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, 1998, पृ. 48-49
21. ' सभ्यता का विकल्प ' -नन्दकिशोर आचार्य, वाग्देवी प्रकाशन, 2012, पृष्ठ-8
22. ‘द पॉलिटिकल फिलॉसॉफी ऑफ महात्मा गाँधी’ - गोपीनाथ धवन, गाँधी शांति प्रतिष्ठान, 1990, पृ. 258 पर उद्धृत
23. ‘स्वराजः आधार और आयाम’ - नन्दकिशोर आचार्य, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, 2022, पृ. 65
24. ’फ्रॉम यरवदा मंदिर’ - महात्मा गांधी, नवजीवन, अहमदाबाद, 1931, पृ. 67 
25. ’चरखा संघ का नव-संस्करण’, मनोहर प्रेस, जतनबर, वाराणसी, 1962
26. ’गीता’ अध्याय-3, श्लोक-35
27. ’फ्रॉम यरवदा मन्दिर’, पृ. 63
28. ’महात्मा गाँधीः जीवन और दर्शन’ - रोमां रोलां, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2011, पृ. 117
29. ’महात्मा गाँधीः जीवन और दर्शन’ - रोमां रोलां, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2011,, पृ. 56
30. . ’महात्मा गाँधीः जीवन और दर्शन’ - रोमां रोलां, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण 2011,, पृ. 56
31. ’गोस्पेल ऑफ स्वदेशी’, मद्रास, प्रकाशन वर्ष-1922
32. ’धर्मनीति’ - महात्मा गाँधी, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली, संस्करण-2013, पृ. 131
33. ’यंग इंडिया’, 4 अप्रैल, 1929
34. ’हरिजन सेवक’, 28 मई, 1939



००००००००००००००००

एक टिप्पणी भेजें

2 टिप्पणियाँ