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वरिष्ठ लेखिका नासिरा शर्मा को मिलेगा वर्ष 2014 का कथाक्रम सम्मान | Nasera Sharma to get 'Kathakram' National award for the year 2014

वरिष्ठ लेखिका नासिरा शर्मा को मिलेगा वर्ष 2014 का कथाक्रम सम्मान | Nasera Sharma to get 'Kathakram' National award for the year 2014

अभी आयी ख़बर के अनुसार  वर्ष 2014 के प्रतिष्ठित 'आनंद सागर कथाक्रम सम्मान' वरिष्ठ लेखिका नासिरा शर्मा को मिल रहा है. 

शब्दांकन परिवार की तरफ से नासिरा शर्मा जी को अशेष बधाई तथा चयन-प्रक्रिया से जुड़े सभी सुधीजनों व शैलेन्द्र सागर जी को भी बधाई.

शैलन्द्र जी ने फ़ोन पर बताया कि सम्मान की औपचारिक घोषणा कल होगी.

(शब्दांकन पर आप नासिरा जी की कहानियाँ बेगाना ताजिर और असली बात पढ़ सकते हैं)

शब्दांकन परिवार से जुड़ी गीताश्री अपनी प्रिय नासिरा आपा के लिए कहती हैं 

"वरिष्ठ साहित्यकार नासिरा शर्मा को वर्ष 2014 का प्रतिष्ठित कथाक्रम सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई है. नासिरा आपा साहित्य जगत में किसी परिचय की मोहताज नहीं है फिर भी कुछ वे बातें जो उन्हें अपने समकालीनो से अलग ठहराता हैं.

युवा पीढी की रचनाओ को लेकर बुजुर्ग पीढी कई बार बेहद हमलावर नजर आती हैं वहीं नासिरा जी नए मन मिजाज को समझने की कोशिश करती हैं. वे नई पीढ़ी के प्रति सहृदय हैं, निर्मम नहीं. इसके पीछे है उनका वह प्रगतिशील माहौल जिससे वे आती हैं. वह बदलते समय और समाज को अच्छी तरह से रेखांकित करती और समझती हैं."


लखनऊ से कवयित्री-संपादिका प्रज्ञा पाण्डेय नासिरा जी को बधाई देते हुए उनके बारे में विस्तार से लिखती है ...

नासिरा शर्मा को एक सितम्बर २०१४ को लखनऊ में राही मासूम रजा सम्मान से सम्मानित किया गया। मुझे उनका परिचय पढने का सौभाग्य मिला तब उनके बारे में और उनके द्वारा किये गए कार्यों की जानकारी हुई। क्या एक आदमी अपनी एक ज़िंदगी में इतना काम कर सकता है ? उनका परिचय पढ़िए फिर उनका साहित्य पढ़िए। 

नासिरा शर्मा हिंदी की प्रसिद्ध कहानीकार और लेखिका हैं। २२अगस्त 1948 में इलाहाबाद में जन्मी नासिरा शर्मा को साहित्य के संस्कार विरासत में मिले। आपने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से फारसी भाषा - साहित्य में एम ए की डिग्री ली लेकिन आपके समृद्ध रचना संसार में दबदबा हिंदी का ही रहा. हिंदी,के अतिरिक्त उर्दू, पर्सियन ,पश्तो एवं अंग्रेज़ी भाषा पर भी आप की गहरी पकड़ है. ईरानी समाज और राजनीति के साथ-साथ आपको साहित्य, कला व सांस्कृतिक विषयों का भी विशेषज्ञ माना जाता है।अफगानिस्तान -बुज़कशी का मैदान , मरजीना का देश -इराक विषय पर आपका विशेष अध्ययन है . ईरान , अफगानिस्तान तथा भारत के राजनीतिज्ञों और प्रसिद्द बुद्धिजीवियों के साथ किये गए आपके साक्षात्कार बहुत चर्चित रहे। ईरानी युद्धबंदियों पर जर्मन व् फ्रेंच दूरदर्शन के लिए बनी फिल्मों में आपका महत्वपूर्ण योगदान है।

आपने तीन वर्ष जामिया मिलिया इस्मालिया विश्विद्यालय में अध्यापन कार्य किया , आप सृजनात्मक लेखन के साथ ही स्वतंत्र पत्रिकारिता में भी संलग्न रहीं हैं।

शामी कागज ,पत्थर गली ,इब्ने मरियम ,संगसार , सबीना के चालीस चोर ,ख़ुदा की वापसी, इंसानी नस्ल,बुतखाना, दूसरा ताजमहल ,आपके कहानी संग्रह हैं. 

सात नदियां एक समंदर, ठीकरे की मंगनी, जिंदा मुहावरे, अक्षयवट, कुईयांजान, अजनबी जज़ीरा, पारिजात, बिछते ज़हर, जीरो रोड एवं आपके उपन्यास हैं। इसके अतिरिक्त कागज़ की नाव आपका ताज़ा प्रकाशित उपन्यास है। 

दहलीज, सबीना के चालीस चोर, प्लेटफॉर्म नंबर सेवन एवं पत्थर गली आपके द्वारा रचित नाटक हैं इसके अतिरिक्त राष्ट्र और मुसलमान, औरत के लिए औरत लेख-संग्रह, संस्मरण की पुस्तक यादों के गलियारे तथा (आलोचना) की एक पुस्तक किताब के बहाने एवं रिपोर्ताज - जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं। 

आपने इकोज़ ऑफ़ ईरानियन रेवोल्यूशन का हिंदी उर्दू पर्सियन तथा अंग्रेजी चार भाषाओं में अनुवाद किया, शाहनामा-ए-फिरदौसी की कहानियों का अनुवाद, ईरान की रोचक कथाओं का अनुवाद, विएतनाम की लोक कथाओं का अनुवाद बर्निंग पायर, छोटी काली मछली का फारसी से अनुवाद जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य आपने किये हैं, सारिका एवं पुनश्च हिंदी पत्रिकाओं का ईरानी क्रांति विशेषांक विषय पर सम्पादन तथा वर्तमान साहित्य के महिला लेखन अंक का सम्पादन भी आपने किया, क्षितिज पार नाम से राजस्थानी लेखकों की कहानियों का सम्पादन, इसके अतिरिक्त बच्चों के लिए तथा नवसाक्षरों के लिए आपने अनेक पुस्तकें लिखीं। बच्चों के लिए लिखी गयीं आपकी लगभग पांच सौ कहानियां विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।

शिमला का दरख़्त, काली मोहिनी, आया बसंत सखी, माँ, तड़प, बावली कहानियों पर दूरदर्शन द्वारा छह फिल्मों का निर्माण तथा आपकी कहानियों वापसी, सरज़मीं और शाल्मली पर टी वी सीरिअल का निर्माण भी हुआ। 

विभिन्न देशों के राजनेताओं उच्च पदासीन अधिकारियों से आपके द्वारा लिए गए साक्षात्कार बेहद महत्वपूर्ण हैं। पाकिस्तान के सईद मुहम्मद राज़ी रिज़वी, मौलवी नूरानी तथा नाहिद किश्वर जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों से साक्षत्कार के अतिरिक्त सीरिया के कुछ लेखकों एवं धार्मिक नेताओं का पाकिस्तान में भारत के हाई कमिश्नर एस के सिंह, काबुल के पूर्व उप राष्ट्रपति अब्दुल रहीम आतिफ ,  भारत-अफगानिस्तान के अंतर्राष्ट्रीय शांति एकता सचिव मेहरचंद वर्मा, अफगानिस्तान महिला संगठन की अध्यक्ष मासूम अस्वाति वर्दक, कवि दस्त गिरी पनशीरी, कवि अब्दुल्ला नबी, लेखक रहमान वर्द ज़रयाब, लेखक जलाल नूरी, लेखक अब्दुल्ला किदतमतग़र पख्तानी, पाकिस्तान के पीर गिलानी का एवं मुजाहिदीन के कई नेताओं के साक्षात्कार आपने किये । स्विडिश प्रेसिडेंट कमिटी के श्री स्टीफेन फुशायि, बांगलादेश के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद ज़िया उर्रहमान , पूर्व यूनियन मिनिस्टर आरिफ मोहम्मद खान, डेनियल लतीफ़ अधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट (सबानो केस), श्री सुब्रह्मण्यम स्वामी, पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी, भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह जैसे विशेष पदों पर आसीन व्यक्तियों के साक्षात्कार आपने किये। उपरोक्त साक्षात्कारों में से कुछ का प्रकाशन का भारतीय एवं विदेशी पत्रिकाओं जैसे एशिया वीक, द मिडिल ईस्ट, अरेबिया एंड लन्दन आदि में भी हुआ। आपने बग़दाद में होने वाले अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में चार बार हिस्सा लिया तथा विभिन्न विषयों पर होने वाले सेमिनारों में अनेकों बार शिरकत की। दूरदर्शन के किये गए साक्षात्कारों में - मन्नू भंडारी, शिवानी, इश्तियाक मोहम्मद खान, अशफ़ाक़ मोहम्मद खान ईरान के कवि अशगर अली के साक्षात्कार महत्वपूर्ण हैं।

अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्वों के साक्षात्कारों में ईरान के सत्ता में रहने वाले एवं सत्ता के बाहर रहने वाले लोगों के अतिरिक्त निष्काषित नेताओं के साक्षात्कारों में ईरान के अयातुल्ला खुमैनी, राष्ट्रपति रफ़संजानी, पूर्व प्रधान मंत्री लेफ्टिनेंट मोहम्मद रज़ाए, तेहरान के स्वर्गीय डॉ बेहश्ती, आयतुल्लाह मुनतेज़री, माइनॉरिटी कमीशन के ज़फर सैफुद्दीन आदि नेताओं के साक्षात्कार लेने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किये। दूरदर्शन के लिए विभिन्न पुलिस आयुक्तों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं कलाकारों का आपने समय-समय पर साक्षात्कार लिया। ईरान के पूर्व प्रधानमंत्री शाहपौर बख्तियार, मुजाहिदीन नेता मसूद, ईरान के पूर्व राष्ट्रपति बनीसद्र, ईरान के बुद्धिजीवियों -अह्मदे शामलु, सिमिन बेहबहानी, गुहार मुराद, सईद सुल्तानपुर, इस्माईल खोयी, नादिर नादिरपोर, इसके अतिरिक्त इराक के सूचना एवं संस्कृति मंत्री मोहम्मद लतीफ़ एम जसीम , औकाफ मंत्री अब्दुल्लाह फद अब -अब्बास। मदान इब्ने युसूफ,मुनीर बशीर एवं कवयित्री सज्जादा के साक्षात्कार भी आपने लिए। यू के, ईरान बीबीसी और वॉयस ऑफ़ अमेरिका रेडिओ समाचार चैनल के लिए भी आपने काम किया। बग़दाद फ़्रांस और अफगानिस्तान रेडिओ पर अंग्रेजी में कार्यक्रमों के अतिरिक्त चिड़ियों पर तथा भारतीय दस्तकार स्त्रियों पर भी आपने विशेष कार्यक्रम किये। आपने यू के, ईरान, फ़्रांस, जापान, हांग कोंग, अफगानिस्तान, थाईलैंड नेपाल सीरिया एवं दुबई आदि देशों की यात्रा की। 

आपको समय समय पर विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। १९८० में आपको पत्रकार श्री सम्मान से तथा अर्पण सम्मान हिंदी अकेडमी दिल्ली से वर्ष ८७-८८ में गजानन मुक्तिबोध राष्ट्रीय सम्मान भोपाल में वर्ष १९९५ में वर्ष १९९७ में राजभाषा पटना महादेवी वर्मा पुरस्कार विशेष मध्य पूर्व लेखन और आपकी कृति शाल्मली पर हिंदी अकेडमी द्वारा कीर्ति सम्मान, बच्चों के साहित्य के लिए इंडो- रशियन सम्मान वर्ष २००२ में इंडो-रशियन लिटरेसी क्लब द्वारा दिल्ली में, कला-संस्कृति रशियन केंद्र द्वारा वर्ष २००९ में आपको नयी-धारा रचना सम्मान तथा महात्मा गांधी सम्मान  उत्तरप्रदेश द्वारा वर्ष २०१३ में सम्मानित किया गया, वर्ष २०१३ में आपको उर्दू-अकेडमी दिल्ली तथा उर्दू अकेडमी पटना द्वारा सम्मानित किया गया, आपको स्पंदन कथा शिखर सम्मान द्वारा भी सम्मानित किया गया। आपके उपन्यास 'कुइयांजान' के लिए वर्ष २००८ में आपको यूके कथा सम्मान से सम्मानित किया गया।

हिंदी भाषा के साहित्य को दिए गए आपके अक्षुण्ण योगदान के लिए हम सभी आपके प्रति आभार व्यक्त करते हैं तथा आपका बहुत बहुत स्वागत करते हैं।

नासिरा जी को शुभकामनायें

बधाई
नासिरा जी की कहानियाँ बेगाना ताजिर और असली बात
Senior Author Writer Nasera Sharma to get 'Kathakram' National award for the year 2014

नासिरा शर्मा - कहानी: बेगाना ताजिर Hindi Kahani Tajir by Nasera Sharma

बेगाना ताजिर*

नासिरा शर्मा

* ताजिर = Trader

सब कुछ माल की खपत पर होता है । जब ख़रीदार नहीं मिलता तो माल पड़ा रहता है । सारे दरवाज़े बंद मिलते हैं । जैसे कि यह एक बेकार–सी चीज़ हो, जिसका न कोई ख़रीदार, न ज़रूरतमंद!

कल एक ताज़िर से मुलाक़ात हुई । कहता था कि मैं ताज़िर हूँ । मुझे तो झूठ लगा । यूँ ही कोई मामूली लेन–देन करता होगा । मगर कपड़े ? कपड़े से क्या होता है ? आजकल तो सब ही सूट–टाई का इस्तेमाल करते हैं ।
मैंने उससे कहा कि तुम दौलतमंद हो और इस घर में सज नहीं रहे हो, बल्कि तुम्हारे आने से मेरे आस–पास की चीज़ें अपना अस्तित्व खो रही हैं । इस मामूली घर में तुम्हारे आने का मतलब ?

हँसा । “सुनो, मुझे समझने की कोशिश करो, दौलत मेरे लिए एक घोड़ा है, जिस पर मैं सवार होकर दुनिया का सफ़र तय कर रहा हूँ । यह याद रखो कि मैं सवार ज़रूर हूँ मगर दौलत का रकाब नहीं ।”

मैं सोच में डूब गया ।

“मैं ताज़िर हूँ । सामान ख़रीदता हूँ, बेचता हूँ मगर मेरे अपने माल का कोई ख़रीदार नहीं है, जो माल मेरा है वह पड़े–पड़े ढेर लग रहा है और इस बोझ के दबाव की वजह से मेरी रूह ज़ख़्मी होती जा रही है ।”

“ऐसा क्यों है ?”

“सब कुछ माल की खपत पर होता है । जब ख़रीदार नहीं मिलता तो माल पड़ा रहता है । सारे दरवाज़े बंद मिलते हैं । जैसे कि यह एक बेकार–सी चीज़ हो, जिसका न कोई ख़रीदार, न ज़रूरतमंद!”

मुझे आदमी दिलचस्प लगने लगा । उपमाओं और इशारों से भरी उसकी बातों की गहराई ने मुझे अपनी ओर खींचा । मैंने उसे बहुत अनुरोध के साथ खाने के लिए रोका ।

घर में खाने को था भी क्या ? फिर भी रसोई के हर कोने से निकालकर बेहतरीन खाना, अपनी हैसियत के मुताबिक़ उसके आगे चुन दिया । उसने सिर्फ़ चावल खाए । सिर्फ़ नमकीन, उबले चावल । मुझे फिर कुछ शुबहा हुआ । वह बोला, “कल मैं जापान जा रहा हूँ । फिर इंग्लैंड और फिर कनाडा और उसके बाद हिंदुस्तान लौटूँगा । चंद दिन ठहरकर फिर यहाँ से अपने देश लौटूँगा और फिर वहाँ से यही चक्कर शुरू होगा संसार को नापने का । कुछ नहीं पता, कल क्या होगा ? ज़िंदगी से कई बार मैंने यह प्रश्न किया, क्यों पैदा हुआ हूँ ? क्यों जी रहा हूँ ? क्यों मर जाऊँगा ?”

मुझे लगा कि इसके दिमाग़ का कोई पेंच ज़रूर ढीला है । लोगों का मक़सद इस दुनिया में पेट पालना है और इसी मक़सद को जीवन का उद्देश्य बनाकर जीवनयापन के लिए जाने क्या–क्या करते हैं ? फिर भी अपनी कोशिशों से घबराकर वे प्रश्न नहीं करते हैं, बल्कि वे अपने को कुछ पाने की राह पर बेलगाम छोड़ देते हैं । यह सब कुछ पाकर आख़िर क्या पाना चाहता है ?

“तुम दुनिया घूम रहे हो, तरह–तरह के लोगों को देखते हो । उनसे मिलते हो, अभी तक तुम्हें कोई ख़रीदार नहीं मिला ?”

“मिला क्यों नहीं ? जो मिला, वह भी मेरी तरह सामानों से भरा हुआ था ।”

“ताज़्ज़ुब है!”

उसने सिर हिलाया और थोड़ी देर बाद बोला, “अपनी इस छोटी–सी ज़िंदगी में, इस बड़ी–सी दुनिया में मैं तीन तरह के जानदारों से मिला हूँ । नर्तकी, तोता और बंदर ।”

“क्या ?”

“तुम मेरा मतलब अभी समझोगे । नर्तकी से मेरा मतलब उन लोगों से है जो दूसरों के साज़ पर, दूसरे की धुन पर नाचते हैंय तोते वे हैं जो दूसरों के कहे को दोहराते हैं जबकि वे ख़ुद नहीं समझते वे क्या कह रहे हैं । तीसरे वे बंदर हैं जिन्हें ज़ंजीर में बाँधकर, मार–मारकर सधाया जाता है ।”

“तुम ताज़िर नहीं हो ।” उसकी बातों ने मेरी साँसों का उतार–चढ़ाव बढ़ा दिया । मैं एकाएक चीख़ पड़ा । “और अगर हो तो तुम्हारा काम सिर्फ़़ रुपए को अँधेरी कोठरी में बंद रखना है, समझे ?”

“नहीं, मैं ताज़िर होने पर भी इंसान हूँ । देखो!” यह कहकर उसने अपनी कमीज के बटन खोल दिए । दिल की जगह पर सिर्फ़़ एक गड्ढा था । मैंने पूछा, “सामान कहाँ है जिससे तुम्हारी रूह का बोझ बढ़ रहा था ?”

हँसा । “यही तो चक्कर है जो तुम भी नहीं समझ पाए ।” लिबास से उसने सीने को ढक लिया । पसीने की बूँदों से नहाया मैं बैठा रहा । इस बार मेरा अपना मित्र, जिसके साथ वह आया था, मेरी प्रतिक्रिया को देखकर उदासी से मुस्करा पड़ा । 

इसके बाद बातों का सिलसिला चल पड़ा । वह बातें करता रहा । मैं उसको सुनता रहा । फिर मुझे लगा कि उसका क़द इतना बढ़ गया है कि वह एक ऊँचा छायादार दरख़्त बन गया है और पहाड़ों पर अपनी छाया डाले अपने क़द की बुलंदी पर उदास, हर शाख़ पर बने घोंसले को पत्तियों से ढाँके खड़ा है । उसके जाने के बाद काफी देर तक उसकी कविताओं की पंक्तियाँ मेरे आस–पास घूमती रहीं । मन भारी हो उठा । वहीं सड़क के किनारे पड़े बड़े–से पत्थर पर बैठकर मैं बड़ी देर तक उसके बारे में सोचता रहा । हवा जाने कहाँ से ढेरों बिनौले उड़ाकर ले आई थी । अपने चारों ओर उड़ते बिनौलों में से एक को चुटकी से पकड़कर हथेली पर जमा लिया, उसके कत्थई वजूद के चारों तरफ़ लरज़ते हुए सफे़द बर्फ़ीले रोओं को मैं देखता रहा । फिर जाने क्यों एकाएक फँूक मार उसको उड़ा दिया । हवा ने लपककर उसके हलके–फुलके वजूद को अपने साथ ले लिया । ऊपर–नीचे, दाएँ–बाएँ हवा उसको आसमान की ओर ले जाने लगी । लगा कि यह रुई का गोला मुझसे जुदा हुआ मेरा ताज़िर दोस्त है जिसके माल का कोई ख़रीदार नहीं, जो हर जगह अजनबी है ।
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नासिरा शर्मा की कहानी : 'असली बात' | 'Asli baat' a story by Nasera Sharma

असली बात

नासिरा शर्मा


पीर–औलिया इनसानों में फ़र्क़ नहीं करते । यह दर सबके लिए खुला है - अमीर–ग़रीब, हिंदू–मुसलमान, छोटा–बड़ा । ख़बरदार, जो फिर कभी अपनी ज़ाहिलाना राय मुझे देने यहाँ आए !”
शहर में फ़साद हुए आज पहला ही दिन था । हिंदू–मुसलमान मोहल्लों के बीच तमतमाती हवा बह रही थी । प्रशासन ने मौक़े की नज़ाकत देख कड़े पहरे और बंदूक के ज़ोर पर उनके जोश पर रोक ज़रूर लगा दी थी, मगर अंदर खदबदाते लावे को शांत नहीं कर पाए थे । ख़ाली सड़क और गली में पुलिस की गश्त के बावजूद गुनजान घरों की छतों से कभी–कभार सनसनाती बोतलें और अद्धों का आदान–प्रदान जारी था, जिसका पता लगाना पुलिस के लिए मुश्किल था कि किस घर से हमला किस घर पर हुआ है । सो गोलियों की बौछार और हवाई फ़ायर के दबदबे ने या फिर कबाड़ा ख़त्म हो जाने के कारण दोनों मोहल्लों में रात के आख़िरी पहर के लगभग ख़ामोशी छा गई ।

सिपाही रामदीन की ड्यूटी बताशे वाली गली में लगी थी । आज दंगे का दूसरा दिन था । पूरा शहर होशियार की मुद्रा में खड़ा था । नए एस०पी० ने कड़े आदेश देते हुए पुलिसकर्मियों से साफ़ शब्दों में कहा था कि तुम्हारी ड्यूटी है कि कोई घटना न घटे, वरना सबको लाइन हाज़िर करवा दूँगा और जो कोई संदेहात्मक स्थिति में दिखे उसे गोली मार दो । इस आदेश के बाद सिपाही रामदीन घरों के अंदर की भी सुनगुन लेने की कोशिश करता सुबह से गली के कई चक्कर लगा चुका था । अब सुस्ताने के लिए वह लैंपपोस्ट से टिककर खड़ा हुआ और मुँह में बीड़ी लगा लंबे–लंबे कश लिए ।

“भैया जी ! बच्चा गरमी से हलकान हो रहा है–––ज़रा खुली हवा में टहला देते ।”

दरवाज़े की ओर से ज़नाना आवाज़ सुन सिपाही रामदीन चैंक पड़ा । बीड़ी फेंक आगे बढ़ा । उसने बंद दरवाज़ों और खिड़कियों को घूरा और मन ही मन झल्लाया । खुले दरवाजे़ से दो हाथ एक बच्चे को बढ़ाते दिखे । काले–कलूटे, नंग–धड़ंग रोते बच्चे को आगे बढ़कर रामदीन ने सँभाला और चुटकी बजा उसे बहलाने लगा ।

“यह चकल्लस कब से लगाए हो  ?” दूसरी गली का कांस्टेबिल मोड़ पर खड़ा हो मुस्कराया, जिसका कोई जवाब रामदीन ने नहीं दिया । बच्चे का सारा बदन घमौरियों से भरा था जिनकी चुनचुनाहट से बेहाल वह मुँह फाड़े आलाप लगाता रहा । रामदीन ने सीटी बजाई और हाथ का डंडा ‘खट–खट’ ज़मीन पर मारता आगे बढ़ने लगा । मकान की दोतरफ़ा क़तारों के बीच फँसी गली तंग थी, मगर गरमी के बावजूद वहाँ हवा का गुज़र था । थोड़ी देर बाद लड़का शांत हो गया और सिपाही की सीटी से खेलता उसके कंधे पर सिर रख सो गया ।

“यह साला भी मामा की गोद समझ ठाठ से सो रहा है । इससे पहले कि वरदी ख़राब करे, इसको इसकी माँ को वापस कर देना चाहिए ।” रामदीन ने प्यार से काले–कलूटे लड़के का मुँह ताका और दरवाज़े पर पहुँच डंडा बजाया ।

“कब तक कर्फ़्यू खुलेगा, भैया जी  ?” औरत ने दरवाज़े की चौखट से हाथ बढ़ा बच्चे को उठाया ।

“लड़ते वक़्त तो तुम लोग सोचते नहीं हो, अब हम का बताएँ !” रामदीन का खीजा स्वर उभरा ।

“अब जहाँ चार बरतन साथ होंगे तो वहाँ टकराहट तो होगी न, भैया जी !” औरत का मद्धिम स्वर गूँजा ।

रामदीन सिपाही का आज तीसरा दिन था । उसे लगने लगा था कि तनाव लगभग अपनी मौत मर चुका है, मगर दरवाज़े–खिड़कियाँ पुलिस के डर से इस गरमी में भी किसी ने खोले नहीं हैं । कल शाम को कोने वाले घर से ज़ोर की रुलाई फूटी थी । बहुत पूछने पर भी जब अंदर ख़ामोशी छाई रही तो रामदीन हनुमानगढ़ी की तरफ़ तैनात दो सिपाहियों को सीटी बजा बुलाने पर मजबूर हो गया । तीनों के दरवाजा़ तोड़ने की धमकी पर अंदर से आवाज़ आई कि ‘दादी गुज़र गई हैं ।’

‘तो इसमें छुपाने की कौन–सी बात है  ?’

थाना इत्तला भेजी गई । खुद सुखबीर और परशुराम हवलदार ने बाहर से सांत्वना दी तो भी दरवाज़ा नहीं खुला । कर्फ़्यू हटने के समय कफ़न–दफ़न जो भी घंटे–भर में कर सकते थे, उसे अंजाम दे वे फिर दरवाज़ा बंद कर बैठ गए । रामदीन के नरम व्यवहार ने दिलों से डर कम नहीं किया और न किसी ने उसकी तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ा चाय–पानी को ही पूछा । ‘उसका तो कर्तव्य है’, यह सोचकर रामदीन ने कंधे उचकाए । आख़िर आदमी ही तो समय पड़ने पर आदमी के काम आता है । अब यह विधवा तंबोलन है, दो माह पहले पति ट्रक से दब मर गया, अकेली है । मदद माँगती है सो कर देता हूँ । मगर बाक़ी लोग पुलिस की गोली से इस तरह भयभीत हैं जैसे पहले कभी दंगा–फ़साद किया न हो ।
रामदीन को चार दिन पहले की घटना याद आई । जहाँ दोनों मोहल्लों की गलियाँ एक–दूसरे को काटती सड़क पर मिलती हैं, वहाँ एक बूढ़ी मस्जिद है । उसी से मिला हुआ प्याऊ है जो सूख गया है, मगर बैठकबाज़ी ख़त्म नहीं हुई है । वहीं पर हनुमानगढ़ी है, जहाँ पर आना–जाना लगा रहता है । पीपल के पेड़ पर हनुमान जी का पुराना मंदिर है । अकसर छोटी–मोटी वारदातें उसी दोराहे से उठकर आसपास तनाव पैदा करती हैं । उस दिन भी वही हुआ । लाइट दो–तीन घंटे से थी नहीं, गली अँधेरे में डूबी थी । एकाएक चीख़–पुकार से वहाँ खड़ा परेशान सिपाही समझ नहीं पाया कि शांत माहौल में ऐसा क्या हुआ जो लोग रोने–चिल्लाने लगे हैं । ख़बर मिलते ही थाने से टॉर्च ले चार–पाँच हवलदार दोराहे पर पहुँच गए । पूछने पर कि आख़िर हुआ क्या, जितने मुँह उतनी कहानियाँ । भीड़ अँधेरे में जमा भी हुई और छँट भी गई । जो लोग पुलिस के हत्थे चढ़े, उनसे कोई बात वे उगलवा न सके । तंग आकर प्रभारी ने बताशे वाली गली और हनुमानगढ़ी में कर्फ़्यू लगवा दिया और हिदायत दी, ‘कड़ा पहरा और सख़्त बरताव शहर के उन सभी संवेदनशील इलाक़ों में बरता जाए, ताकि बदमाश अपनी चौकड़ी भूल जाएँ ।’ सब समझ चुके थे कि नया अफ़सर सख़्त है, किसी की सुनता नहीं है, जवान है और क़ानून का मतवाला है । मगर शहर के खाए–पिए अधेड़ बदमाशों के हाथ खिलौना लग गया था, उसे चिढ़ाने और तपाने में उन्हें मज़ा आने लगा था । जो समाज हरदम बारूद के ढेर पर बैठा हो वहाँ ऐसी दिल्लगी कितनी महँगी पड़ सकती है, इस बात की गंभीरता समझना उनका काम नहीं था । अनुभवी दरोगा ताड़ गए थे कि इस हंगामे में भी उन्हीं की खुराफ़ात का हाथ है, तभी कुछ हाथ नहीं लगा । इस बात को वह अफ़सर से कह नहीं सकते थे, वरना उलटा उन्हें ही लताड़ पड़ती कि भारतीय पुलिस की हैसियत यह हो गई है कि गुंडे–बदमाश उनसे मसखरी करें !
नवरात्र शुरू होने वाला था । शहर में रौनक़ लगनी शुरू हो गई थी । लाउडस्पीकर से भजन, कीर्तन, ऐलान सुनकर हनुमानगढ़ी वाले जितना कुढ़ रहे थे, उनसे ज़्यादा बताशे वाली गली के हलवाई, माली और उनसे अधिक झुग्गी–झोंपड़ी वाले ख़ुश, जो इस  आशा में साल–भर रहते हैं कि शक्तिपीठ में नवरात्र शुरू होने के साथ भंडारा खुल जाएगा और उन्हें भरपेट स्वादिष्ट खाना खाने को मिलेगा, जिससे वे चार पैसे बचा पाएँगे । मगर बैठे–ठाले यह कर्फ़्यू की मुसीबत तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही है ।

पुलिसवालों को अंदाज़ा हो गया था कि तनाव दम तोड़ गया है, मगर अफ़सर तो सबकी कमर की हड्डी तोड़ने का प्रण ले चुका था, दोनों मोहल्लों के ग़रीबों ने पछताना शुरू कर दिया था । सुस्ती अब उदासी में बदल गई थी । मज़दूर ने मज़दूरी से हाथ धोए, दुकानदारों ने ग्राहकों से । चूल्हे तो घर–घर दूसरे दिन से ही ठंडे पड़ने लगे थे । कर्फ़्यू खुलता भी घंटे–भर को तो ख़रीदारी की सकत किसमें थी  ? बताशों के बिना हनुमान जी का मंदिर सूना पड़ा था । चींटे–चींटियाँ अलबत्ता बताशों का चूरा ढो–ढोकर बिल भर रहे थे । आख़िर कुछ दुकानदारों ने सलाह–मशविरा कर एस०पी० को मनाने की बात सोची और कर्फ़्यू खुलते ही सीधे थाने पहुँचे तथा विपदा कह सुनाई ।

“घर–घर फ़ाक़ा है, न काम है, न रोटी, न ख़रीदार, न मुनाफ़ा । ऐसी स्थिति में अब हमारी ग़लती माफ़ करें । सज़ा बहुत हो गई, महाराज !”

“वह सब ठीक है, मगर इस बार कर्फ़्यू तभी हटेगा जब आपस में लड़ना छोड़ोगे ।”

“यह तो बड़ी मुश्किल शर्त है । हम तो ठहरे अहिंसा के पुजारी, मगर उधर वालों से राम बचाए ।” छक्कू स्टोर वाले ने कान को हाथ लगाया ।

“बहुत सीधे हो, लाला, तुम–––बात–बात पर धमकी कौन देता है !” मुन्ना बढ़ई बिगड़ गया ।

“देखा, बिना किसी कारण मेरे सामने भी शुरू हो गए ! भागो यहाँ से, वरना सबको दंगा फैलाने के जुर्म में लॉकर में बंद करा दूँगा–––रामसिंह ! आज से कर्फ़्यू एक घंटे की जगह सिर्फ़ आधा घंटा खुलेगा । अभी इनका दिमाग़ ठंडा नहीं हुआ है ।”

यह ख़बर छोड़े हुए तीर की तरह दोनों मोहल्लों में जाकर लोगों के दिल व दिमाग़ में बिंध गई । लपकते–दौड़ते झुंड के झुंड लोग सिरफिरे प्रभारी के पास पहुँचे और मिन्नतें करने लगे । प्रभारी पांडेय ने मिलने से इनकार कर दिया । थाना बाहर से घिरने लगा था । उसने ऊपर छत से ऐलान कर दिया कि जो चाहे आप लोग करें, प्रभारी बात नहीं सुनेंगे, क्योंकि उनका विचार है कि आप सब यहाँ आपस में अपने–अपने को गामा और रुस्तम पहलवान समझकर कुश्ती लड़ लें । सुनकर लोग मन ही मन पछता उठे कि आख़िर किसलिए उन्हें यह दिन देखना पड़ रहा है  ? घरों में रोटी नहीं, काम पर कोई गया नहीं । बताशा उधर वालों ने बनाया नहीं, इधर वालों ने उसे शहर ले जाकर बेचा नहीं । इस परेशानी में ‘सुलेमान भाई’ और ‘राजू भैया’ कहकर सब एक–दूसरे को सफ़ाई देने लगे कि भला हमने कभी दुश्मनी निभाई आपस में  ? पता नहीं कौन है जो यह सब करता है और गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है । आधे घंटे की नाक रगड़वाई के बाद एस०पी० को यक़ीन हो गया कि अब लोहा गरम है और सबने ‘किसी और’ को अपने अंदर से पकड़ लिया है । कल पहचान भी लेंगे । प्रभारी द्वारा ऐलान करवाया गया कि इस शर्त पर कर्फ़्यू अभी इसी समय हटाया जा रहा है कि अब कोई दंगा–फ़साद नहीं होगा, वरना–––

“नहीं होगा, नहीं होगा ।” ऐलान के बीच ही लोग चीख़ने लगे और उसी जोश में बाक़ी बात सुने बिना घरों को लौटने लगे ।
कल शाम से तंबोलन के लड़के को बुख़ार हो गया था । अब कर्फ़्यू हटा तो जेब में फूटी कौड़ी नहीं, फिर डॉक्टर या अस्पताल जाए कैसे  ? कुछ सोचकर सूफ़ी बाबा की दरगाह की तरफ़ चल पड़ी कि वहाँ के मुजाविर से विनती कर फुँकवा लेगी । दवा न सही, दुआ तो असर कर सकती है । तौलिये में लपेट बेटे को लेकर जब दरगाह पहुँची तो शाम ढल गई थी । भीड़ आज ग़ज़ब की थी । किसी तरह बच्चे को बचाती अंदर दाख़िल हुई । चबूतरे के सामने बच्चे को लिटाकर माथा टेका और बेक़रार नज़रों से बड़े मुजाविर को ढूँढ़ा । नमाज़ ख़त्म हो गई थी । हारमोनियम उठाकर क़व्वाल अपनी जगह ले चुके थे । धीरे–धीरे करके मजमा बढ़ने लगा और क़व्वाली शुरू हो गई । एक–दो रुपए की भेंट हारमोनियम के सामने रख लोग झूमने लगे । वातावरण में एक शांति की छटा–सी फैलने लगी । उसी बीच उसने देखा कि मुजाविर साहब अंदर से आ रहे हैं । वह लपकी, साथ ही एक गेरुए कपड़े वाला संन्यासी भी उठा ।

“लो, सँभालो ।” मुजाविर ने आठ–दस बंडल अगरबत्ती के उस आदमी को थमाए ।

“यह रखो ! कल से शुरू करवा देना । अब मैं चलता हूँ ।” रुपए मुजाविर के सामने रख, अगरबत्ती झोले में डाल गेरुए कपड़े वाला मुड़ा और शीश नवा बाहर की तरफ़ चला गया ।

“भूख से अधमरा मेरा बेटा कल से बीमार है, मुजाविर साहब !” जवान तंबोलन देखते–देखते बूढ़ी लगने लगी ।

“घबराने की बात नहीं ।” मुजाविर ने बच्चे के सिर पर हाथ फेरा और सीने पर कुछ पढ़कर फूँका । फिर पास पड़े इलायचीदानों के पैकेटों के ढेर से एक उठा तंबोलन को दिया ।

तंबोलन बच्चे को उठा दूसरी तरफ़ सरक गई और बेचैन हो उसने पैकेट को खोला और एक दाना बेटे के मुँह में डाला, जिसे वह फ़ौरन चूसने लगा - और खुद अपने मुँह में पाँच–छह दाने डाले । दो दिन बाद ज़बान को खाने का स्वाद मिला था, जिसने भूख पर लगा प्रतिबंध तोड़ दिया था । तंबोलन का भूख के मारे बुरा हाल हो गया । उसी के साथ उसे चक्कर महसूस हुआ कि कल दुकान खोलने के लिए कत्था, चूना, सुपारी, पान कहाँ से लाएगी  ? इस हालत में किसी से कुछ माँगना भी मुश्किल है । सभी की जेबें ख़ाली हैं । उसने शुक्रिया–भरी नज़रों से मुजाविर को ताका और इलायचीदाने की फाँकी मुँह में डालने वाली थी कि उसका हाथ मुजाविर के चेहरे पर दौड़ते ग़ुस्से को देख बीच में ही रुक गया, जो सामने बैठे दो–तीन लोगों को दबी ज़बान से फटकार रहे थे ।

“हाँ–––हाँ, यहाँ टीले वाले मंदिर के महंत आए थे । मज़ार से छुली अगरबत्तियों का पैकेट ले गए हैं और नवरात्र के नौ दिन तक मज़ार पर क़ुरानख़्वानी करवाने के लिए ये पैसे भी दे गए हैं–––फिर  ? यह उनका एतक़ाद है । बचपन से वह आते रहे हैं । यह रिश्ता तब से बना है जब तुम लोग पैदा भी नहीं हुए थे । उनकी ख़्वाहिश रहती है कि सूफ़ी बाबा के मज़ार की तरह उनके मंदिर से कोई ग़रीब निराश न लौटे तो इसमें तुम्हारी दख़लअंदाज़ी का क्या मतलब है  ? पीर–औलिया इनसानों में फ़र्क़ नहीं करते । यह दर सबके लिए खुला है - अमीर–ग़रीब, हिंदू–मुसलमान, छोटा–बड़ा । ख़बरदार, जो फिर कभी अपनी ज़ाहिलाना राय मुझे देने यहाँ आए !”

आसपास के लोगों के कान खड़े हो गए । तीन–चार मर्द बड़ी शालीनता से उनको जाने का इशारा कर तब तक खड़े रहे जब तक वे दोनों हाथ जोड़, सिर झुका बाहर की तरफ़ नहीं बढ़े ।

कुछ देर बाद बड़ी पतीली और रोटी उठाए कुछ औरत–मर्द दाख़िल हुए, जिनको देख दीवार से लगे मर्द–औरत अपना कटोरा ले आगे बढ़ने लगे । उनकी मुराद पूरी हुई थी । तंबोलन भी प्रसाद के इंतज़ार में आगे की तरफ़ खिसकी, मगर अफ़सोस, जब तक उसकी बारी आई तब तक रोटियाँ और शोरबा ख़त्म हो गया था । वह निराश–सी उठी और बेटे को उठाकर बाहर सड़क पर आ गई, जहाँ फ़कीरों की भीड़ होटलों के सामने बैठी थी । भूख से बेताब होकर उसके क़दम मुड़े, मगर फिर वह ठिठककर खड़ी हो गई कि वह तंबोलन है, फ़कीरन नहीं । कल तक भूखी रह सकती है ।
दूसरे दिन बेटे का बुख़ार तो उतर गया था, मगर होंठों पर पपड़ी जम गई थी । पानी पिला–पिलाकर वह कब तक उसे ज़िन्दा रख सकती थी । शाम ढले जब भीड़ को टीले की तरफ़ जाते देखा तो वह भी चल पड़ी । कुछ दूर चलकर फिर उसके क़दम रुकने लगे कि वह तो–––वहीं टीले के नीचे बैठ हसरत से भीड़ को ऊपर जाते और ख़ुश-ख़ुश लौटते देख वह अपने को रोक नहीं पाई । ऊपर पहुँच उसने देखा कि वही संन्यासी सबके पत्तलों में खाना डालता आगे बढ़ रहा है । उसके आठ–दस साथी सबकी आवभगत में लगे हैं । गंदे, चिथड़े वाले कपड़े पहने बूढ़े, बच्चे, मर्द, औरत खाना खा रहे हैं । उसकी आँखें भीगने लगीं । वह मुड़ी और टीले से उतरने को हुई कि तभी पीछे से आवाज़ आई, “माँ, भंडारे की रोटी तो चखती जाओ–––आओ, इधर आओ–––यह तो तुम्हारा अधिकार है ।”

तंबोलन ने घबराकर पीछे देखा । आग्रह में इतना प्यार था कि वह उधर ही बढ़ गई । पत्तल पर एक साथ कई व्यंजन देख उसे अजीब लगा । पेट भरकर जब वह उठी तो उसे अपने स्तन बहुत भारी लगे । हाथ धो वह कुछ दूर पेड़ के नीचे बैठ बेटे को दूध पिलाने लगी । एक असीम सुख में डूबते हुए उसने सोचा, ‘रोटी में कितनी ताक़त है ! जब चाहती है, बाँट देती है और जब चाहती है, एक कर देती है ।’

नासिरा शर्मा