विज्ञापन लोड हो रहा है...
कृपया एडब्लॉक बंद करें। हमारा कंटेंट मुफ्त रखने के लिए विज्ञापन ज़रूरी हैं।
राजकमल लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
राजकमल लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

वंदना राग - कहानी: मोनिका फिर याद आई | 'Monika Fir Yaad Aayi' by Vandana Rag


'मोनिका फिर याद आई' सौभाग्य से, चंद रोज़ पहले ही एक कहानी-पाठ में इसे लेखिका के मुख से सुना. कहानी के बारे में सिर्फ इतना ही कहुंगा कि अपना पाठ शुरू करने से पहले वंदना राग बोलीं - "कहानी थोड़ी लम्बी है" और कहानी कब शुरू हुई और कब ख़त्म, मुझे पता ही नहीं लगा... 

दरअसल कहानी का बड़प्पन, उसमे मौजूद शब्दों की संख्या से नहीं, बल्कि उसमें मौजूद समय को चुरा लेने की शक्ति में होता है. और 'मोनिका फिर याद आई' का  हर्फ़-हर्फ़ उस शक्ति से लबरेज़ है... यदि मैं गलत निकलूँ तो ज़रूर बताइयेगा.

आपका 
भरत तिवारी
19/9/2015

वंदना राग - कहानी: मोनिका फिर याद आई | 'Monika Fir Yaad Aayi' by Vandana Rag

मोनिका फिर याद आई

~ वंदना राग

बच्चों के मुँह से बड़ी बात सुन बड़ों को शर्मसार होना पड़ता है और बड़ों के मुँह से बच्चों-सी बात सुन? क्या कहता है शास्त्र और आपका विज्ञान? बच्चों के रंगीन बयानों से कुछ डिग्री रंग हटाकर स्थिति का जायज़ा लेना चाहिए? लेकिन फ़ज़र् कीजिए, जब वही बयान एक बड़ा हो गया बच्चा सुनाने लगता है तो? क्या आप उसकी तथाकथित 'समझदारी’ का अंश घटाकर उसके बयानों को दर्ज करेंगे? ठीक है, यह आपको ही तय करना होगा कि यहाँ आप 'कितना सच’ और 'कितना किस्सा’ मान बयानों को स्वीकृत करना चाहते हैं।

'अस्सी का दशक, संक्रमण काल का वास्तविक स्वयम्भू दशक था।’

तो सच यह है कि इसी काल के दौरान एक शहर था जो फन्तासी में नहीं था बिलकुल वास्तविक था, यहीं कहीं था, आपके पास अपने ही देश में। वहाँ रहते थे इस कि़स्से के राजा (नायक) प्रतीक, इस कि़स्से की रानी (नायिका) मोनिका और दोनों की कि़स्साबयानी करती एक लड़की (कि़स्सागो) अनामिका। यहाँ पर ज़रा गौर फ़रमा लें और विशेष टिप बतौर याद रख लें कि यह काल अनामिका के जीवन का भी अन्दरूनी संक्रमण काल था और दो प्रकार के घातक संक्रमणों से मुठभेड़ करती यह लड़की, कि़स्से के दरम्यान उपस्थित हो न सि़र्फ अपने द्वारा अवलोकित स्थितियों को जज़्ब करती जा रही थी बल्कि उन सभी घटनाक्रमों पर अपने फैसले भी दर्ज करती जा रही थी। न जाने इसमें तथ्य कितने हैं, कितनी कल्पनाशीलता है और कितनी पश्य-दृष्टि!

आज वह छत पर फिर खड़ी दिखी। बड़ी खूबसूरत लग रही थी। उसने स़फेद सलवार के ऊपर कसा हुआ नीला कुर्ता डाल रखा था। उसकी कमर तक झूलती घनी गुँथी हुई दो चोटियाँ हमेशा की तरह पीठ पर लहरा रही थीं। उसका रंग 

वही 'फेयर एंड लवली’ नामक क्रीम लगाने के बाद सा, दूध में घुली गुलाब की गुलाबी रंगत-सा खिल रहा था। निश्चित था, उसने गोरा होने की किसी क्रीम का कभी प्रयोग नहीं किया था, मगर इसके बावजूद वह ऐसी क्रीमों का विज्ञापन करने वाली नायिका लगती थी। चौंकाने की हद तक आखेट करती, खूबसूरती से नवाज़ी हुई नायिका।

छत पर आते ही उसने अपना स़फेद दुपट्टा, वहीं लावारिस पड़ी एक टूटी-फूटी टेबल पर, मोटी किताबों के साथ सजाकर रख दिया था। दुपट्टा हटाने पर उसके शरीर के उठान और कटाव एक साथ ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे का रेखाचित्र गढ़ते थे। दूसरों पर इस उद्घाटन के खुलनेवाले प्रभावों से वह शर्तिया ही अवगत थी, इसीलिए प्रत्येक दिन छत पर पहुँचते ही वह अपना दुपट्टा, उतारकर रख देती थी। मैं उसकी इस बात को समझ सकती थी, क्योंकि मेरे अन्दर भी भविष्य को लेकर कुछ इस तरह की योजना तैयार होती जा रही थी, वह तब जब मैं भी दुपट्टे से अपना कुछ ढकने लायक हो जाऊँगी। तब उस न ढकने में ''कितना मज़ा आएगा।’’ अवज्ञा वाली बेतकल्लु़फी का मज़ा। मैं उन मज़े के पलों को दूरगामी भविष्य से निकट की ओर खिसकाने के लिए ढेरों प्रार्थनाएँ भी किया करती थी। 

वह जिस घर में रहती थी, वह शहर के ऊँचे तबके से सेवानिवृत्त पुलिस अफ़सर का मकान था। बहुत शानो-शौकत से भरा उसका बाहरी हिस्सा था। अगले हिस्से के इंटीरीयर्स भी काँच, स्टील और लकड़ी की संरचनाओं से जगमगाते रहते थे। मगर जिस हिस्से में वह रहती थी, वह हिस्सा किराए पर उठाया गया हिस्सा था। कई जगह कंस्ट्रक्शन अभी पूरा नहीं हुआ था, मसलन—छत की बाउंड्री वाल अभी चारों ओर खड़ी नहीं हो पाई थी, इसीलिए मैं अपने कमरे में से बैठे-बैठे ही अपनी खिड़की से उसके छत पर चल रही सारी गतिविधियों को देख पाती थी। मेरी स्टडी टेबल उसी खिड़की के सामने थी और वहाँ बैठकर अपने स्कूल का होमवर्क निपटाते हुए मुझे उस पर नज़र रखने में बड़ा मज़ा आता था। मैं जानती थी, छत की दूसरी तरफ़ से कॉलोनी की सड़क दिखती थी और वहीं से हर आने-जानेवाला उसे मेरी ही तरह देखा करता था। वह भी जान-बूझकर उजाला रहने तक वहाँ टहलती रहती थी। कभी-कभी टेबल पर रखी किताबें उठाकर हाथ में ले उन्हें उलट-पुलट किया करती थी।

जिस वक्‍़त मेरे टेबल लैम्प जलाने की बारी आती थी, उस वक्‍़त वह टेबल पर रखे अपने दुपट्टे को बड़े जतन से उठाकर अपनी छातियों पर जमाकर सीढ़ियों से नीचे उतर जाती थी।

एक दिन उसने मुझे देखते हुए पकड़ लिया था और उसके बाद वह वहीं से चिल्लाई थी—

''आओ...ऊपर चले जाओ।’’

मैं अचानक यूँ पकड़े जाने पर शरमा गई थी और चँूकि वह मुझे बेपनाह खूबसूरत लगती थी इसलिए मैं अपने को उसके सामने ले जाने से सकुचा भी गई थी। कहाँ वो, कहाँ मैं? 

''आज तो बहुत होमवर्क है,’’ मैंने सिर झुकाते हुए बहाना बनाया, ''कल आऊँगी।’’

उस रात मैं बिलकुल भी सो नहीं पाई। अपने नीम के दातुन सरीखे शरीर को उठ-उठकर देखती रही थी और एक नए तरह के बोध से भरकर मैंने यह भी देखा था कि मेरा शरीर ही नहीं, मेरे तो बाल भी बड़े रूखे और छोटे हैं। और मेरी आँखें? वे तो ठीक से दिखलाई भी नहीं पड़ती थीं। अंडाकार काले फ्रेम के चश्मे के भीतर पूरी तरह कैद रहती थीं। मानो उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व अथवा उससे जुड़ा कार्य दायित्व कभी हो ही नहीं सकता था। मैं जितनी बार अपनी तुलना उससे कर रही थी उतनी ही बार एक नए प्रकार की हीन भावना से ग्रसित होती जा रही थी। 

मुझे पहले ऐसा कभी नहीं लगा था। इस नए शहर में आने के बाद भी नहीं। नए स्कूल में जाने के बाद भी नहीं। नए दोस्तों के न बनने के बाद भी नहीं। 

वैसे नए शहर में आए हुए दिन ही कितने हुए थे? कुल जमा छह महीने चार दिन बस!

वह रात बेहद दुरूह रही, इतनी कि अगले दिन स्कूल की बस पकड़ना मुश्किल हो गया। नींद पूरी न होने से हर काम शिथिल और ढीला बना रहा। मुश्किल तो इतनी और हो गई कि टीचर ने उड़ी शक्ल और सूरत को क्लास में मन न लगाने वाली बात से जोड़कर देखा और सज़ा बतौर डबल होमवर्क दे डाला।

अजीब-सी तिलमिलाहट मेरे चारों ओर घिरने लगी और लगने लगा कि रुलाई जल्द ही आने को है, लेकिन मैंने घर पहुँच तुरन्त अपने पर काबू पा लिया और मुस्तैदी से होमवर्क निपटाने में जुट गई। दरअसल रात भर उससे न मिलने के हर तर्क के प्रस्तुत होने के बावजूद मेरे अन्दर उससे मिलने और दोस्ती करने की एक तीव्र चाहत धड़क रही थी जिसे मुझे बिना किसी रुकावट के आज अंजाम देकर रहना था।

पाँच बजते-बजते वह छत पर चढ़ आई। शाम के आगाज़ को झुठलाती, उजली धूप-सी, चारों ओर तीखी रोशनी फैलाती। आते ही रोज़ की तरह उसने अपना दुपट्टा नियत जगह पर रख दिया और मेरी खिड़की के सामने आकर खड़ी हो गई।

''आ जाओ, गप्पें मारेंगे।’’ मैंने सिर हिलाकर मंज़ूरी दे दी और ममा से इजाज़त लेने चल दी। ''ममा वो ब़गल बाली लड़की है न, बुला रही है।’’

''कौन? सुरिन्दर सिंह की बेटी? बेटा, वो तो तुमसे बहुत बड़ी दिखती है, तुम्हें उसे दीदी बुलाना चाहिए।’’ 

''ममा ऽऽ,’’ मैं तुनक गई, ''अरे वो इतनी बड़ी भी नहीं। ज़्यादा से ज़्यादा मुझसे चार-पाँच साल बड़ी होगी, बस, अब इस तरह की बातें कर आप मुझे जाने से रोकिए मत।’’

''धत्, कैसी बात करती हो बेटा, मैं तुम्हें क्यों रोकना चाहूँगी, बल्कि मैं तो चाहती हूँ कि इस शहर में भी तुम्हारे कुछ दोस्त बनें, जाओ...लेकिन उसे भी कभी घर बुलाओ।’’

जब ममा से मैंने बिना किसी नाराज़गी के यह कुबुलवा लिया कि उन्हें उस लड़की से मेरी दोस्ती पर कोई एतराज़ नहीं, उसके बाद ही मैं उसकी छत पर 

जाने का निर्णय कर पाई। जाने क्यों, लगा था उस वक्‍़त, कि उस जैसी ख़तरनाक कि़स्म की खूबसूरत लड़की से दोस्ती करने के लिए, ममा की मंज़ूरी का हौसला ज़रूरी था।

''हैलो...मेरा नाम मोनिका है।’’ उसने मक्खन की लोई-सी नरम मख़मली हथेली मेरी ओर बढ़ा दी। मैं उत्साह से भर गई और अपनी आवाज़ को अतिरिक्त रूप से मीठा बनाकर बोलने लगी, जो उसकी खूबसूरती के मारक प्रभावों को झेलने की ताक़त रखेगा।

''मालूम है, मालूम है, तुम्हारी मम्मी जब तुम्हें बुलाती हैं तो हमारे घर पर सुनाई पड़ता है।’’ मैं उछलती हुई पहले वाक्य से ही 'तुम’ पर आ गई थी, उसे जतला देने के उद्देश्य से कि हमारी उम्रों में बड़ा फासला नहीं और हम बाइज़्ज़त दोस्त हो सकते हैं। पता नहीं पहचान की अन्तरंग नींव रखने की इस हड़बड़ी को वह पहचान पाई कि नहीं क्योंकि मेरी बात सुनते ही वह बहुत सोचते हुए, मेरे अनुमान से बिलकुल अलग कि़स्म की बात बोल गई थी।

''सच? और मेरे घर का क्या-क्या सुनाई देता है?’’

मुझे उसका यह सोचकर बोलनेवाला अन्दाज़ बिलकुल अच्छा नहीं लगा इसीलिए मैंने खट से झूठों को सच बनाकर पेश कर दिया, ''अरे और कुछ नहीं सुनाई देता है सिवाय टायलेट के फ्लश खिंचने की आवाज़ के।’’

इतना सुन वह खूब ज़ोर से हँस दी थी। एकदम नक़ली वाली ज़ोर की हँसी। मुझे अजीब लगा। एक, क्योंकि ज़ोर से हँसना उसका स्टाइल नहीं था (कम से कम अभी तक तो मैंने नहीं देखा था) और दो, क्योंकि मुझे उसकी हँसी में राहत की झलक दिखलाई पड़ी थी, इसीलिए उसकी हसीन श़िख्सयत के बावजूद उसकी हँसी बिखरने लगी थी।

उससे मिलने के बाद चूँकि मैं अपने आपको का़फी महत्त्वपूर्ण मान रही थी इसलिए मैंने उसकी हँसी वाली बात को देर तक मन में टिकने नहीं दिया। जल्दी से पोंछकर साफ़ कर दिया।

''किस स्कूल में पढ़ती हो तुम?’’

''न्यू इंग्लिश एकेडमी।’’ मैं उससे सारी बातें जल्दी से बाँट लेना चाहती थी, धड़...धड़। धड़...।

''किस क्लास में हो?’’

''आठवीं में और तुम?’’

''मैं बारहवीं में हूँ,’’ वह फिर सोचते हुए बोलने लगी थी, ''बोर्ड का इम्तिहान देना है इस साल। वो वी. के. गर्ल्स कॉलेज है न, उसी में पढ़ती हूँ। असल में वहाँ पर पढ़ने का एक फायदा है। कम नम्बर आने पर भी ग्रेजुएशन में वहीं दा़िखला मिल जाता है।’’

मेरे दिल में छन से कुछ कटा। हुँऽऽ? इसके इतने कम नम्बर आते हैं क्या, कि आगे पढ़ने की समस्या से भी ये जूझती रहती है? मेरे लिए यह एक अनहोनी थी। ऐसा महसूस करने के बावजूद मैंने अपने अन्दरूनी भाव के विपरीत अपने ऊपर लापरवाही का रंग चढ़ाते हुए अपने चश्मे को अपनी उँगली से नाक के और ऊपर खिसकाते हुए कहा, ''क्या बात करती हो? तुम्हारे और कम नम्बर?’’ मेरे हदय से निकली हुई कारुणिक मिठास भरी आवाज़ मुझे ख़ुद भी विडम्बनाओं से भरी लगी और मैंने अपने ऊपर 'पूरा बड़ा होना’ ओढ़ उसे आश्वस्त किया—

''हा...हा...हा...’’

''नहीं...नहीं, यही सच है।’’ और वह धीमी-धीमी हँसी हँसने लगी थी। वह उदास नहीं हुई थी। वह लज्जित भी नहीं हुई थी। मैं और दुविधा के चक्रों में फँसने लगी थी। अरे, यह क्या है? तभी मुझे सड़क पर एक बाइक के जाने की आवाज़ सुनाई पड़ी। इस आवाज़ पर मेरे खिंचावों की प्रतीक मोनिका सिंह जिसे मैं न जाने ख़ुश करने के कितने यत्न कर रही थी वहीं मुझे छत के उस छोर पर अकेला छोड़ के दूसरे हिस्से पर भागकर चली गई। उसके इस बेसब्र बेसुधपने से मैं अचकचा गई और नहीं जानती क्यों, मेरी नज़र पहले उसके दुपट्टे पर गई और उसे वहीं रखा देखकर मेरी नज़र तल्लीनता से उसका पीछा करने लगी थी। वह कुछ देर वहीं खड़े-खड़े नीचे देख हथेलियों से इशारे करती रही, फिर उसने पीछे मुड़कर मुझे भी इशारा कर अपने पास बुला लिया। मैं आसक्त, चुम्बक से खिंची, उसकी ओर चल दी। उसने मुझे नीचे का दृश्य दिखाया। मैंने देखा वह सड़क पर धीमी गति से चल रही एक मोटरबाइक मुझे दिखा रही थी। मोटरबाइक से भिन-भिन करती ढेर सारी मधुमक्खियों की आवाज़ आ रही थी। बाद में उसने रहस्य से मेरे कान में खूब स्पष्ट शब्दों में बोला था, ''वह जो बाइक पर पीछे बैठा है न, वह प्रतीक है...हमारे बीच कुछ... कुछ चल रहा है।’’

उसका यह बताने का अन्दाज़ इतना िफल्मी था कि मैं रोमांचित हो गई। मेरे शरीर के मुलायम रोएँ तनाव में तन गए। उसके बाद ही मैंने दृश्य की महत्ता को समझा। मैंने पहले आवाज़ सुनी, फिर बाइक की पिछली सीट पर बैठे सवार को देखा। सबका सब 'स्लो मोशन’ में।

प्रतीक जो बाइक के पीछे बैठा था मुझे देख ताक़त लगाकर मुस्कुरा दिया था। मैं भभूके-सी लाल पड़ गई थी। पता नहीं, मैं अपने ऊपर हँसे जाने पर गरम हो गई थी (जिसे मैंने अपने ऊपर हँसा जाना समझा)और अचानक अपने हीनताबोध के चरम पर पहुँच मेरे शरीर का ताप अपने आप ही चढ़ने लगा था या प्रतीक और मोनिका का आपस में कुछ चल रहा है, इस उत्तेजक ख़बर के रहस्य की साझीदार होने से मेरे अन्दर एक कि़स्म की आग प्रज्वलित हो गई थी।

''सुनो, इस बात को कहीं बताना मत।’’ —वह फुसफुसाकर कह रही थी। 

''नही...नहीं,’’ मैंने अन्दर उठते बलबले को बाहर आने से रोकने का भरपूर प्रयास किया और ऊपर से सामान्य बनते हुए बोली, ''अब मैं जा रही हूँ, थोड़ा होमवर्क बचा है।’’

''अरे, नहीं...थोड़ा और रुको न...! और कल से न, अपनी किताबें यहीं ले आना, दोनों पढ़ेंगे, मज़ा आएगा।’’ वह नई िफल्म की तरंग में बोलने लगी थी। इससे एक अबूझ सा गुस्सा मुझपे छाने लगा। मन किया पूछ लूँ—

'ऐसा होता है तुम्हारा पढ़ना? कहीं इसीलिए तो...?’

जाने कैसा आकर्षण था लेकिन, जिसके तहत बँधकर मैं उससे कभी कोई ऐसा सवाल नहीं कर पाई और जैसा-जैसा वह कहती चली गई, मैं धीरे-धीरे उसी को करने लगी थी।

एक रात रेडियो पर छायागीत का कार्यक्रम बज रहा था और अचानक मन की रात को डगमग करता एक गीत बज उठा, 'मेरा पढ़ने में नहीं लागे दिल-क्यों?’ रात मन में जमते हुए फैसलाकुन स्वरों में सोचने लगी थी, लोगों का पढ़ने में दिल कब नहीं लगता था और लोग बिना अपराध-बोध के इतनी मस्ती में कब गाने लगते थे? 'क्या जब प्रतीक जैसा कोई मिल जाता था, और उसके साथ कुछ चलने लगता था तब?’

वैसे प्रतीक भैया बड़े स्मार्ट थे। मोनिका ने इतरा के बताया था—कॉलोनी की दसियों लड़कियाँ उनकी दीवानी थीं, मगर वे तो सि़र्फ मोनिका के दीवाने थे। रोज़ अरदास के पूरे नियम से वे बाइक पर पीछे बैठे हुए, उस सड़क के कई चक्कर लगाते थे, जिस सड़क से मोनिका के छत की दूरी सि़र्फ बित्ता भर रह जाती थी, और मोनिका और वे एक-दूसरे को अपलक देखते रहते थे, घंटों, सि़र्फ देखते रहते थे। एक-दूसरे को देखते हुए वे कभी मुस्कुराते थे, कभी दिल पर हाथ रख इशारा करते थे। एक दिन मोनिका ने वहीं से मुझे ज़ोर से गाने को उकसाया था और मैं निर्देशानुसार ज़ोर-ज़ोर से आवेश में भर गा उठी थी—

'जीजा जी...जीजाजी, होने वाले जीजाजी, शादी के फेरे हैं सात और हमारी शर्तें सात...।’ मेरी अनगढ़, बेसुरी मगर साफ़ ल़फ्ज़ों वाली आवाज़ में गाना सुन प्रतीक भैया सड़क पर बाइक पर बैठे-बैठे ही खूब ठठा के हँसने लगे थे।

छत पर किए गए खुलासों में से मोनिका का प्रतीक भैया के फ्यूचर के बारे में किया गया खुलासा बहुत आशा से भर देनेवाला था। (उसके लिए) ''पता है, प्रतीक पढ़ने में बहुत अच्छा है और कॉलेज यूनियन में भी है।’’

मेरे सामने एक हीरो का वितान खिंचने लगा था।

''वैसे उसका फैमिली बिज़नेस है, अंकल (उसके पापा) वकील हैं, मगर प्रतीक के बड़े भैया फैमिली बिज़नेस सँभालते हैं।’’

इस कथन के पीछे उसका यह आशय तो ज़रूर ही था—'प्रतीक को पढ़ने के बाद मगज़ खपाने की ज़रूरत नहीं होगी, फैमिली बिज़नेस उसका इन्तज़ार कर रहा है।’ इतना बताकर वह छत पर गोल घुमेर लगाने लगी थी, जैसे कोई फूल सुरक्षा भाव से भरा हुआ तेज़ हवा में भी मदमस्त हो कँपकँपाता रहता है।

जिस रोज़ ममा ने एक नए तरी़के से मुझसे पूछा था, 'बेटा, मोनिका कुछ अपने बारे में बताती है? ख़ुश रहती है वह?’ उस दिन मैं उनके नए तरी़के को समझ न पाने की असफलता से खीजकर बोली थी, 'ममा...कैसी बातें पूछती हैं आप?’ ममा ने ठीक तरह से मेरे मामलों में अपने हस्तक्षेप को समझकर बड़े प्यार से कहा था—'चिढ़ो मत बेटा, मैं तो इसलिए पूछ रही हूँ, क्योंकि कॉलोनी के लोग बता रहे थे कि मोनिका के पापा थोड़े अजीब हैं। उनकी नौकरी भी परमानेंट नहीं और वे उस पर बड़ी स़ख्ती भी करते हैं, कहीं बाहर आने-जाने भी नहीं देते। सुना है...।’

अपनी खीज से उबरकर जब सोचा तो ममा की बातें सही लगने लगीं। वाक़ई मैंने मोनिका को कॉलेज जाने के अलावा, सि़र्फ छत पर अकेले देखा था, कहीं और अकेले तो बिलकुल नहीं देखा था, न बाज़ार में, न किसी दोस्त के घर। इसीलिए तो प्रतीक भैया और मोनिका छत के सहारे ही प्यार करते थे। बेचारे दोनों! मेरे मन में दोनों के प्यार को अंजाम देने की अवसरहीनता को ले दया उमड़ने लगी।

अगले दिन जब उसने वहीं छत से खड़े हो मुझे छत पर आ जाने का इशारा किया तो मैंने चिल्लाकर कह दिया—

''न, आज मैं नहीं आ पाऊँगी, आज तुम आओ।’’

मैं जानती थी, यह समय प्रतीक भैया और उसके छत पर देखने का समय होता था और इसे छोड़कर मेरे घर चले आना वह आसानी से गवारा नहीं करेगी, मगर फिर भी मैंने कोशिश की थी।

थोड़ी ही देर बाद मैंने देखा कि वह छत पर अपनी मम्मी को ले आई थी और मेरा कमरा और पढ़ने का टेबल दिखाकर कुछ कहने लगी थी। इसके पाँच ही मिनट बाद मेरे घर के दरवाज़े की घंटी बज चुकी थी। यह तो बड़ी नई बात हो गई...मेरी साँसें तेज़ी से दौड़ने लगीं। 

उसका यूँ मेरे घर आना हम दोनों के लिए नई, आज़ाद हवाओं को साथ लाना भी था। वह अपने ऊपर थोपी गई स़िख्तयों की वजह से और मैं अपने संकोच की वजह से अभी तक कॉलोनी की सड़कों पर अन्य लड़कियों की तरह चहल-क़दमी करने से महरूम रहे थे। अब हम बेलौस हवाओं की तरह रोज़ मुहल्ले में बहने लगे थे। इसी के साथ प्रतीक भैया से चुपचाप, गुपचुप मिलने का सिलसिला भी शुरू हो गया था और मैं ईमानदारी से दोनों की मदद करने में जुट गई।

दोनों के मिलने के नियत स्थानों में एक अधबना मकान भी शामिल था जिसकी दीवारें खड़ी हो गई थीं, घर को कमरों में बाँटा जा चुका था मगर जिसकी छत अभी डली नहीं थी। वहाँ बैठकर हम तीनों अक्सर चाँदनी और तारों से बने चँदोवे को देर तक आँख उठाकर देख सराहते रहते थे। वक्‍़त उस दौरान कैसे इतना सरपट भाग जाता था, समझ में ही नहीं आता था।

इधर कॉलोनी में मोनिका जैसी खूबसूरत लड़की के साथ घूमने से मेरी भी पूछ-परख बढ़ गई थी। अब उसकी ओर खिंचनेवाली लड़कियाँ मुझे भी भाव देने लगी थीं। मोनिका का व्यक्तित्व तो ज़बर्दस्त ढंग से बदलता जा रहा था। छुप-छुपकर करनेवाले काम अब वह निडर हो करने लगी थी। जैसे कभी वह सड़क पर चलते हुए ज़ोर से कुछ गाने लगती थी, कभी शरारत से अपना दुपट्टा गिरा देती थी और देर तक उसे नहीं उठाती थी। इस बीच बीसियों लोग उसे देख लेते थे। इस पर खूब ज़ोर से हँसने लगती थी। कभी-कभी तो वह प्रतीक भैया का हाथ पकड़ लेती थी और कभी मेरी अकबकाहट को नज़रअन्दाज़ करते हुए वह, उनके कन्धे पर ढलक जाती थी, यूँ ही चलते-चलते। जहाँ तक प्रतीक भैया की बात थी, तो वह वैसे ही धैर्यवान बने रहे जैसा छत पर मोनिका को देखने के समय में हुआ करते थे। वे मोनिका के पागलपन पर धीरे से हँस देते थे। प्यार से ख़ुश होकर उसके सिर पर हाथ फेर देते थे। और मुझे ढेर सारे गि़फ्ट देते थे। जैसे एक बार एक खूबसूरत-सा पेन, मेरी प्रिय किताब और अनेक बार मेरी पसन्द के ढेरों चॉकलेट्स भी।

जब पहली बार मोनिका ने मुझे अलगाकर प्रतीक से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की थी, तो मैं उसकी आकांक्षा के तनाव से भी अधिक तनावग्रस्त हो गई थी। मुझे अजीब लगा था, बहुत अजीब। वह हड़बड़ाते हुए कह रही थी—

''आज तुम संजना के साथ थोड़ा घूम लो, इस बीच मैं प्रतीक से अकेले में मिलना चाहती हूँ।’’

''हाँ...हाँ, ठीक है, मगर पन्द्रह मिनट में आ जाना वरना आंटी डाँटेंगी।’’ मैं चेहरे पर अजीब लगनेवाला भाव लाए बिना बोली और उससे आँख न मिला पाने की अवश सी भावना से भर, महत्त्वपूर्ण भाव से अपनी घड़ी देखने लगी थी। उसने मेरे जवाब का इन्तज़ार भी नहीं किया था। वह घोड़ों की तरह तेज़ भागती 

हुई कहीं गुम हो गई थी। मुझे लगा, वह मेरे अन्दर से भी कुछ चुराकर भाग गई थी। मैं लस्त भाव से चलकर संजना के ग्रुप में बैठ गई। लेकिन मुझे उनकी बातों में ज़रा भी मज़ा नहीं आया। जब मोनिका को गए हुए आधा घंटा हो गया, और वह 

फिर भी नहीं आई तो मैं नाराज़ क़दमों से घर की ओर चल दी। तभी मुझे अपने पीछे दो जोड़ी क़दमों के दौड़ने की आवाज़ सुनाई पड़ी। वे ही दोनों थे। वे मेरे नज़दीक आए।

''सॉरी,’’ मोनिका हँसते हुए बोली।

''थैंक्स,’’ प्रतीक भैया भी उतना ही हाँफते हुए बोले थे और दुलार से मेरे बालों में हाथ फेर लौट गए थे। मैं और सुनना चाहती थी। साझे राज़ की ताज़ा राज़दाराना बातों से रू-ब-रू होना चाहती थी, मगर मेरे सामने कुछ भी प्रस्तुत नहीं किया गया। नि:शब्दों की दुनिया में वास करते हुए हम मोनिका के घर पहुँच गए थे।

आज दरवाज़ा उसके पापाजी ने खोला। उन्हें देखते ही मोनिका के गले से एक घुटी हुई सिसकी बाहर आने लगी।

''पापाजी, थोड़ी देर हो गई।’’

''देर हो गई? देर...थोड़ी देर हो गई?’’

पापाजी ने दाँत पीसकर चिल्लाते हुए कहा और मोनिका का हाथ निहायत खुरदरेपन से खींचकर उसे घर के भीतर कर लिया। बहुत डर के शोर के बाद का सन्नाटा मेरे कानों में सीटी की शक्ल में बजने लगा। साँय-साँय। मैं थरथराते हुए अपने घर पहुँची।

अगले दिन मोनिका छत पर नहीं दिखी, न ही मेरे घर आई। फ़ोन उसके घर था नहीं, अत: उसके साथ क्या कुछ हो रहा होगा—इन्हीं आशंकाओं में डूबे हुए मैंने तीन-चार दिन बिता दिए। ममा के कॉलोनी में घूमने न जाने के बारे में पूछने पर मैंने कह दिया था—'बहुत सारी कॉपियाँ कम्प्लीट करनी हैं, ममा, जब हो जाएँगी तो जाऊँगी।’ ममा ने मेरे कहे पर सहजता से विश्वास कर लिया और ज़्यादा सवाल नहीं किए।

फिर वह कई दिनों बाद शनिवार की एक दोपहर को दिखी थी। मैं उस दिन स्कूल से जल्दी आ गई थी, इसीलिए मैं उसे उस दोपहर को देख पाई। उसने स़फेद शलवार पर गहरे लाल रंग का कुर्ता पहन रखा था। वह अपने माता-पिता के साथ थी। वे तीनों चिपककर स्कूटर पर बैठे थे। दोनों के बीच फँसी हुई वह मुझे लाल नाज़ुक फल-सी लगी, जो थोड़े दबाव में कुचलकर पूरा मलीदा बन जाता है। मुझे उसपे तरस आने लगा, मगर दूसरे ही क्षण जब उसे ज़ोर से हँसते देखा तो छले जाने का एहसास मन में ठाठें मारने लगा। वह तो लगभग ख़ुश-सी दिख रही थी। उस वक्‍़त मेरे मन में एक बार भी यह ख़याल नहीं आया कि वह अपने मम्मी-पापा को ख़ुश करने के लिए शायद ऐसा कर रही होगी। किसी समझौते के तहत। भविष्य में घटनेवाली कल्पनातीत घटनाओं को सुरक्षित करने के वास्ते?

उस शायद का सच, उसी शाम मुझ पर खुल गया। वह उस शाम मेरे घर आ पहुँची। उसके चेहरे पर उसके कुर्ते का रंग खिल रहा था और वह परेशान दिख 

रही थी।

''आज हम वो वाली नई पिक्चर देखने गए थे, जिसमें 'पूनम ढिल्लन’ है। पता नहीं क्यों गए हम? मम्मीजी को लगा होगा इतने दिन मैं घर के अन्दर बन्द रही इसीलिए कुछ बाहर की हवा खिला लाएँ...मगर सब उलटा हो गया।’’

वह बिना रुके, मेरी प्रतिक्रियाओं का इन्तज़ार किए बिना किसी और दुनिया में पहुँची हुई-सी बोले जा रही थी।

''हाफ़ टाइम में मैं टॉयलेट गई तो कॉरीडोर में खड़े लड़कों का ग्रुप चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा—

'ओए पूनम ढिल्लन...स्क्रीन से उतर यहाँ आ गई है...ओए देख, ओए पूनम ढिल्लन...हाय-हायऽऽ देख तो क्या बात है!’

''इतना सुनते ही पापाजी को ज़ोर का गुस्सा आ गया, वो हमें फिल्म पूरी दिखाए बिना ही वापस ले आए।’’

''अरे टॉयलेट गई तो पापाजी को क्यों साथ ले गई, मम्मीजी को ले जाना 

था न?’’

''जानती नहीं क्या,’’ वो शिकायती स्वर में बोली, मानो मेरा यह सवाल उसके लिए कितना बेमानी था, ''पापाजी क्या मुझे मम्मीजी के साथ अकेले जाने देते हैं? खैर, अब ये सब छोड़ो, बड़ी मुश्किल से पाँच मिनट की परमीशन ले तुमसे मिलने आई हूँ, क्या इस बीच प्रतीक मिला?’’

''नहीं, मैं भी इस बीच बाहर नहीं गई।’’

''ओहऽऽ’’ वह अजीब ढंग से उदास हो गई मानो प्रतीक की ख़बर भर से उसका प्रतीक से मिलना हो गया होता और मुझसे मिलने का प्रयोजन इस ख़बर के आदान-प्रदान के अलावा कुछ और हो ही क्या सकता था? उसके इस तरह के व्यवहार से मैं कट-सी गई।

''सुनो,’’ उसने उसी दूसरी दुनिया की खोह से निकलती आवाज़ में कहा, ''कल आना, मुझे लेने, कल पापाजी शहर से बाहर जा रहे हैं, कल...।’’

उसका कल देर तक हमारे बीच अटका रहा और मैंने जब धीरे से कटी हुई उसे अखर जानेवाली आवाज़ में कहा 'अच्छा’ तो भी वह अपनी खो जानेवाली दुनिया से वापस लौटकर नहीं आई थी और उसी बदहवास दुनिया से होती हुई अपने घर लौट गई थी।

अगले दिन भी वह वैसी ही बनी रही। एकदम कातर और धुन में रँगी हुई।

प्रतीक भैया ने हमें देखते ही खामोशी से इशारा किया और हम उस अधबने मकान की ओर चल दिए जो अब उन दोनों के एकान्त में मिलने का स्थायी सुरक्षित ठिकाना बन चुका था। जैसे ही हम मकान के फ़र्श की उगती घास पर बैठे थे, वह रोने लगी थी, पागलों-सी बुदबुदाते हुए। उन बुदबुदाहटों के अर्थ खोजना नामुमकिन था। खासतौर से मेरे लिए, लेकिन प्रतीक भैया ज़रूर समझ गए थे, तभी उन्होंने उसे खींचकर अपनी बाँहों में भर लिया था और मैं दृश्य देख ज़ोर से अकबका गई थी। मुझे इस तरह देख प्रतीक भैया ने कहा था—

''थोड़ी देर के लिए बाहर चली जाओ...प्लीज़!’’

''हाँ-हाँ, हाँ-हाँ, हाँ-हाँ...।’’ मेरी 'हाँ’ रुकने का नाम नहीं ले रही थी। वह मेरे दृश्य में उपस्थिति को नकारती हाँ थी और अच्छा हुआ अँधेरा गहराता जा रहा था क्योंकि उसी की आड़ में मैं अपनी आँखों से बहते गरम पानी को छिपा पाई। कह नहीं सकती यूँ दोनों के प्रति अपने समर्पण भाव को एक्शन में तब्दील होते देख मेरे अन्दर यह नया दुख जगा था अथवा शर्म के रेले के अपने ऊपर से गुज़र जाने की वजह से मैं ऐसा महसूस कर रही थी। अधबने मकान के बाहर सीढ़ियों पर बैठ, नज़रें ज़मीन में गड़ाए हुए मैं अनवरत प्रतीक्षा में जम गई थी। सामने से सूनी, अँधियारी सड़क पर जाते इक्का-दुक्का लोग मुझे सवालिया निगाह से देख रहे थे, और मैं अपनी जगह पर सिमटकर धँसती जा रही थी। जी, डर और पसोपेश के मारे हलाकान हुआ जा रहा था और मैं चौंककर बार-बार अपनी घड़ी देखती जा रही थी। मेरा चश्मा पसीने की वजह से नाक से नीचे लुढ़कता जा रहा था। मेरे अन्दर गीली, निकृष्ट दर्जे की चिपचिपाहट फैलती जा रही थी।

जब बीस मिनट का समय मुझे अझेल युगों समान लगने लगा तो मैं अपनी अस्थिर अवस्था को बड़ी मेहनत से उठाकर उस जगह की ओर ले गई जहाँ उन दोनों को छोड़ आई थी। मैंने चोर की तरह झाँककर देखा और पाया कि मैं एक अनधिकृत क्षेत्र में प्रवेश कर गई हूँ जहाँ पर दिखलाई पड़नेवाले तमाम रेखाचित्र पूरे अँधेरे के बाद भी अपनी विद्युत चमक लिये ताजीवन मेरे आगे कौंधते रह जाएँगे।

प्रतीक भैया को मोनिका ने कभी न छूटनेवाले आलिंगन में कसकर बाँधा हुआ था और वे उसकी ठुड्डी अपनी दो उँगलियों पर टिकाए उसके होंठों को अपने होंठों से कभी खोल, कभी बन्द करते हुए एक ऐसे क्षण की गिऱफ्त में फँसे हुए थे जिसका सम्मोहन सि़र्फ और सि़र्फ मेरे जाने से टूटता।

ऐसा ही हुआ। चूँकि मोनिका की पीठ मेरी ओर थी और उनका मुँह, लिहाज़ा वे ही मुझे पहले देख पाए। मुझे देखते ही उनकी पेशानी पर खीज के बल उभरे, मगर उन्होंने अपने प्रख्यात धैर्य का परिचय देते हुए, उन बलों के नामोनिशान तुरन्त ही मिटा दिए और मुस्कुराते हुए बोले—

''मोनिका जाओ, घर जाओ, ये घबरा रही है।’’ मुझे लगा, मुझे चक्कर आ जाएगा। और यहाँ की गहराई में एक अनावश्यक-सा उथला कोलाहल फैल जाएगा, इसीलिए मुझे जल्द अपने आपको सँभाल लेना चाहिए। मैंने व्याकुल नज़रों से प्रतीक भैया की ओर ताका। उन्होंने मोनिका को अपने से खींचकर अलग किया और मेरा हाथ पकड़कर मुझे सहारा देते हुए सड़क के मोड़ तक हमें छोड़ने 

चले आए।

उस दिन मोड़ से घर तक की यात्रा मीलों चली थी और उसकी थकन घटाने को हम दोनों में से किसी के पास भी शब्दों के खनक की स्फूर्ति नहीं बची थी।

उसी रात भयंकर बारिश हुई थी। मैं रात भर इस डर और दुख से करवटें बदलती रही थी कि बारिश कहीं उफनती नदी बन मुझे डुबा तो नहीं देगी। मुझे भीतर कहीं इतना दर्द होने लगा था कि मैं सोचने लगी थी—जि़न्दगी के बहुत सारे मायने जाने बिना मुझे आज मर जाना होगा क्या? वह भी सि़र्फ इसलिए क्योंकि मैं उस हैंगर के समान हूँ जिसमें सुन्दर तस्वीरें टँगती हैं। सब तस्वीरों को ही देखते हैं हैंगर को किसने देखा आज तक?’ उस दिन अपने लिए बहुत रोई थी मैं।...

''तुम भी किसी को चाहती हो क्या?’’ मोनिका ने एक दिन यह दहला देनेवाला सवाल भी मुझसे किया था। 

''मैं?’’ मैंने घबराकर कहा था, ''अअहाँ...नहीं, मेरा कहाँ...?’’ 

''हाँ...हाँ...हाँ,’’ उसने मुझे टुकड़ा-टुकड़ा करनेवाली हँसी के साथ देखकर कहा था, ''प्यार करने के लिए सुन्दर होना ज़रूरी थोड़ी होता है।’’

मैं उसकी इस क्रूर खूबसूरती को ताकती रह गई थी, बार-बार अपना चश्मा ऊपर-नीचे खिसकाते हुए।

न दिन याद है, न महीना मगर दशक वही था और काल वही, खालिस रूप से वही जो कि़स्से के पहले भाग से चलता आ रहा है।

रात के आठ बज रहे थे और हम दूरदर्शन पर फिल्मी गीतों का लोकप्रिय कार्यक्रम चित्रहार देख रहे थे जब मोनिका के घर से खूब रोने-चिल्लाने और दौड़ने की आवाज़ें आने लगीं। हमारा ध्यान टी.वी. से हट, आवाज़ों पर चला गया और जब हमारे घर के दरवाज़े को पीटने की आवाज़ आई तो ममा और मैं दोनों ने दौड़कर दरवाज़ा खोल दिया।

सामने मोनिका खड़ी थी, लम्बेे बाल खुले थे, माथे पर पसीने से कुछ लटें चिपकी हुईं, गालों पर तरह-तरह से प्रहार किए जाने के निशान थे और बाँहों पर हज़ारों खरोंचें थीं।

''आंटी...आंटी,’’ वह विक्षिप्तों की तरह चीख़ रही थी, ''देखो, आज पापा ने कितना मारा मुझे। कह रहे थे, मैं ही लड़कों को देख गन्दे इशारे करती हूँ।’’

''अरे-रे-रे, न-न...अन्दर आओ बेटा।’’ ममा उसे जल्दी से अन्दर लाकर, मेरे पलंग पर बिठा रही थीं। वे दौड़कर उसके घावों पर डेटोल भी लगा रही थीं।

''आंटी देखिए यहाँ...यहाँ और यहाँ भी,’’ वह चीख़-चीख़कर रो रही थी, ''आंटी, आज तो पापा ने हद कर दी, कहने लगे—मैं कॉलोनी के प्रतीक के साथ आँख लड़ाने जाती हूँ, रोज़ घूमने जाने के बहाने, बताइए आंटी, मैं तो रोज़ अनामिका के साथ ही रहती हूँ, आप उसी से पूछ लीजिए मेरा प्रतीक से कोई चक्कर नहीं, वो तो चूँकि अनामिका उसे भैया मानती है तो रास्ते में मिलने पर हम बातें कर लेते हैं, वरना तो...? पता नहीं कॉलोनी के लोग भी सारी ऊल-जलूल बातें पापाजी को बताते रहते हैं और वो मुझ पर ही गुस्सा करते रहते हैं। आँ...आँ-आँ!’’

ममा उसे सहलाती रहीं, दुलारती रहीं, चुप कराती रहीं। मैं सामने एकटक उसे देखती रही। मुझे दिखाई दे रही थी दुपट्टा उतारकर इतराती मोनिका, खाली मकान में विभिन्न मुद्राओं समेत प्रतीक भैया के साथ सायों में समा जानेवाली मोनिका, अपने पीछे मुझे दौड़ाती हुई मोनिका और मुझ पर खूब हँसती हुई मोनिका। 

मैंने ममा से ठंडी आवाज़ में उनके मोनिका को पुचकारने के दौरान पूछा था, ''ये दुनिया इतनी क्रुएल कैसे हो जाती है ममा?’’

ममा ने दुलार से मेरे सिर पर हाथ फेर, मुझे भी मोनिका के साथ-साथ आश्वस्त करने की कोशिश की थी, और जीवन के पहले ख़तरनाक मोहभंग से उत्पन्न होनेवाले विकारों से मुझे बचा लिया था। 

उस वर्ष होली के त्योहार के ठीक चार दिन बाद मैं तेरह वर्ष की होने वाली थी। मैं टीनएजर बनने को बेहद उत्सुक थी। दोस्तों की बातें सुन लगता था टीनएजर बनते ही, एक नई दुनिया 'खुल जा सिम-सिम’ वाले अन्दाज़ में जादुई ढंग से मेरे सामने खुल जाएगी। वह कौन-कौन से जादुई करिश्मे अपने साथ लाएगी, मैं यही सोच-सोच विस्मित होती रहती थी। 

कॉलोनी में होली का त्योहार जमकर मनाया जाता था। सब लड़कियाँ टोली बनाकर एक-दूसरे के घर जाती थीं और हम खूब रंग खेलते थे। मोनिका को भी उस दिन रंग खेलने की इजाज़त मिल गई थी। यह हैरत की बात थी। मगर वह उस दिन सबसे पहले मेरे घर आई, मेरे मन के गिले पर मरहम-सी लगाती और फिर हम कॉलोनी में निकल गए। बारी-बारी सबके घर जाते हुए हम संजना के घर भी गए। उसके यहाँ बड़ा धमाल मचा हुआ था। हम भी उसमें शामिल हो गए। तभी तेज़ी से कुलाँचें भरती हुई एक बाइक आकर संजना के घर के सामने रुकी। उसमें से प्रतीक भैया और उनके दोस्त उतरे। सारी लड़कियाँ हँसते-हँसते, एक ओर हो गईं और जैसा कि ज़ाहिर था, प्रतीक भैया ने उनमें से मोनिका 

को बाहर खींच निकाला और उसके गालों पर रगड़कर गुलाल मलने के बजाय, गुलाल से उसके गालों को हल्के-हल्के थपथपा दिया, मानो वे अपनी मोनिका को तंग करना नहीं चाहते, छेड़ना नहीं चाहते, बस धीरे-धीरे सहेजते चले जाना चाहते हों।

बस इतना ही होली खेले वे मोनिका के साथ। बस इतना ही! मैं 'बस इतनी ही होली’, की परिभाषा में बेवजह फँस-सी गई थी, जब प्रतीक भैया मेरे नज़दीक आ गए और मुझे देख, हँसते हुए बोले, ''कैसी गत बन गई है तेरी हाँऽऽ!’’

मैं उनकी ठिठोली पर शरमा गई थी और दूसरी लड़कियों की तरह टूटकर उनको रंग लगाने से बचती रही। एक ओर कोने में जाकर चुपचाप खड़ी हो गई थी। वे सबके साथ खूब खेले, फिर हम सभी वहीं संजना के घर के बरामदे में थककर बैठ गए थे। कुछ लोग घर भी जाने लगे थे। जब मैं उठने को हुई तो प्रतीक भैया ने मुझे अपने पास बुलाया—

''एक काम है, ज़रा लॉन की ओर चलो।’’

संजना के घर के लॉन में केले और कटहल के कई घने पेड़ थे, प्रतीक भैया मुझे लेकर वहीं पहुँच गए। मैं समझ गई, अब भैया मुझसे मोनिका को बुलवाने की कोशिश करेंगे और अगर कहीं और मिलने की बात होगी, तो भयानक देर हो जाएगी और उसके बाद डाँट...।

''क्या भैया, क्या?’’ मैं आशंकाओं से भर उन्हें देख पूछ रही थी। 

''कुछ नहीं, बस आज तो ये...।’’ कहकर भैया ने मेरा चिबुक उठाया और मेरे होंठों पर धीरे से अपने होंठ रख दिए। महीनों की कल्पना के बाद वास्तविकता में जो क्षण जीवन में कभी न बीतनेवाले क्षण के रूप में दर्ज हो जाना चाहिए था, वह फुर्र से उड़ गया। मेरे सारे तन्तुओं को छुए बिना ही, परे होता हुआ वह एक क्षण, बेमेल, बेअदब, बे़कायदा लोगों के बीच घटित हुआ। शायद इसीलिए इतना फौरी, इतना उड़नछू बन पड़ा था। निस्सन्देह उस क्षण में निहित, पुरस्कार का सन्देश ही वह तत्त्व था जिसे व्यक्त कर प्रतीक भैया रूई के फाए समान हल्के हो उठे थे। मेरे द्वारा मोनिका और उनके प्रेम को बढ़ाने और सुरक्षित रखने के कृत्यों को उपहारों द्वारा नवाज़े जाने की परम्परा उन्होंने कायम रखी थी। उपकृत कर देने पर आ जानेवाला हल्कापन, रिश्तों की स्थिरता और गोपनीयता बनाए रखने का प्रयास उन पर हावी होने लगा था और वे उमंग से भरकर गा रहे थे—

'आज बिरज में होली ओ रसिया।’

उस रोज़ पहली बार नहाते वक्‍़त मैंने अपने होंठों पर साबुन मला था और उस उपहार को हमेश के लिए धो देना चाहा था जिससे मेरी श़िख्सयत को रँगकर, रिश्तों में मेरी भूमिका को पु़ख्ता ढंग से रेखांकित कर दिया गया था। 

जो सच मैं हमेशा से जानती थी, उसे सील कर दिया गया था और मैं शुरुआती ईमानदारी से अधिक, जि़म्मेदारीपूर्वक अपनी भूमिका को निभाने लगी थी। मिल्स एंड बून्स की अंग्रेज़ी रोमांटिक किताबों सरीखे, पहले चुम्बन, स्नेह झंकृत होते तन और मन की तैयारी अभी बा़की थी, और मि. राइट के साथ अनूठी अनुभूतियों के घटित होने की बारी अभी आई नहीं थी, यह भी मैं अच्छी तरह समझ गई थी। इस दूसरे कि़स्म के मोह-भंग ने मेरे अन्दर और दृढ़ता भर दी थी, लिहाज़ा मैं प्रतीक भैया और मोनिका को मिलवाने की अब और ज़्यादा कोशिशें करती थी और अपनी स्थिति और उम्र की वजह से सफल भी होती थी। बीतते समय की गति ने उसके पापाजी के भीतर हमारी दोस्ती के प्रति आस्था की हल्की परत जमा दी थी। अब वह ममा को भी गाहे-बगाहे देख नमस्ते कर दिया करते थे। मोनिका को मेरे घर कभी भी चले आने की छूट मिल गई थी और वह इस अवसर का बेधड़क इस्तेमाल करने लगी थी।

मेरे घर आने के बाद वह बिना संकोच प्रतीक भैया को हमारे घर के फ़ोन से फ़ोन मिला दिया करती थी और वहीं से मिलने की जगह और समय निश्चित कर लेती थी। फिर वह धीरे से मुझे लेकर दिन के अनजाने, अनसोचे पहरों में मेन रोड की ओर चल देती थी। वहाँ किसी बड़े छायादार पीपल के पेड़ के नीचे प्रतीक भैया अपनी बाइक लिये इन्तज़ार करते रहते थे। वह उनकी बाइक की पिछली सीट पर सवार हो जाती थी और अपना दुपट्टा छाती से उतार अपने माथे और मुँह पर ऩकाब की शक्ल में बाँध लेती थी। बाइक स्टार्ट करने से पहले प्रतीक भैया दुलार से कभी मेरे बाल सहला देते थे और कभी शरारत से मेरा चश्मा मेरी आँखों पर और ऊपर की ओर चढ़ा देते थे। मेरी ओर देखती उनकी आँखें एक राज़ के मज़े से मुस्कुराती रहती थीं। मैं अपने दायित्वों के बोध से और झुककर, उन्हें बाय-बाय करती रहती थी और तब तक करती रहती थी, जब तक बाइक सड़क में धुआँ उड़ाता बिन्दु बन विलीन नहीं हो जाती थी। लौटने के पहले दूर तक दिखलाई पड़नेवाले दृश्यों में मोनिका की प्रतीक भैया की पीठ में धँसाए गए शरीर का दृश्य भी देर तक टिका रहता था और मैं उस सड़क के बेज़ुबान पत्थरों को ताक़त से ठोकर मारते हुए घर लौट आती थी।

इस तरह यह कि़स्सा अन्त की ओर दौड़ने लगा था और अपनी परिणति को प्राप्त होने के लिए तैयार हो रहा था। लेकिन यहाँ हमें थोड़ा रुकना होगा और इससे पहले कि अन्त की ओर पहुँचा जाए, अन्त से पहले के एक दृश्य का वर्णन करना होगा। यह बेहद ज़रूरी है, इसलिए और क्योंकि यह मेरे सामने घटित हुआ था। उसके बाद के कि़स्से के ब्योरे मेरे सामने घटित नहीं हुए थे, सि़र्फ मुझे सुनाई पड़े थे, इधर-उधर से। 

सुबह के दस बज रहे थे और उस दिन निश्चित ही छुट्टी का दिन था क्योंकि मैं घर पर ही थी। उस दिन बहुत दिनों के अन्तराल के बाद हमें मोनिका के घर से एक बार फिर रोने, चीख़ने-चिल्लाने की आवाज़ें आने लगी थीं। आवाज़ों को सुनते ही ममा और मैं दौड़कर उसके घर की बाउंड्री वाल तक गए थे, जहाँ से एड़ियों पर उचकते हुए मोनिका के घर का आँगन दिखाई पड़ता था। उसी दिन मैं ऐसे खौफ़नाक दृश्य से रू-ब-रू हुई थी जिसे याद कर आज भी मेरी रूह काँपती है। मोनिका आँगन के फ़र्श पर चित्त लेटी हुई थी। उसकी मम्मीजी ने उसे कन्धों के बल दबा रखा था और उसके पापाजी उसकी जाँघों पर लगभग उकड़ूँ बैठे उस पर तमाम प्रहार कर रहे थे। मोनिका की अपने हाथों द्वारा उन्हें रोकने की कोशिश निरर्थक साबित हो रही थी। उसका शरीर माँ-बाप के स्पर्शों से बिंधा हुआ, प्रतिरोध की क्षमता खोता जा रहा था। उसके गले से निकलती आवाज़ भी निहायत बैठी हुई, फँसी सी और अस्फुट थी। जो हम समझ पा रहे थे, वह बस इतना ही था—

''पापाजी...पापाजी...बस नहीं...नहीं...मर जाऊँगी...नहीं...छोड़ दो...छोड़ दो आप जो कहोगे, वही करूँगी, सि़र्फ आपकी बात मानँूगी...घर के बाहर क़दम भी नहीं रखूँगी...बस...अब छोड़ दो...छोड़ दो।’’

काठ मार गया वाले अन्दाज़ में ममा और मैं काठ हो चुके थे। कोई हरकत हमसे आज़ाद नहीं हुई, न ही हमारे गले से ध्वनि की कोई सम्भावना प्रकट हुई। हमारी वस्तुस्थिति इतनी कातर थी और उसी अवस्था में हमें देखते हुए मोनिका के पापाजी ने देखा था, वे बिफरे, पागल कुत्ते समान भौंके थे—

''भागो, तुम लोगों की शह की वजह से हमारी लड़की बर्बाद हो गई...भागो।’’

भों...भों...भों।

यह कितने ख़राब तरह का मोह-भंग था। मैं पहली बार समझी थी, माँ-बाप सि़र्फ अच्छे नहीं, ऐसे भी होते हैं।

बाद के दिनों में अपमान से घनीभूत चुप्पी और दूरी की ऊँची दीवार दोनों घरों के बीच खींच दी गई थी। सुना था, मकान मालिक ने छत की बाउंड्रीवाल उठाने और नीचे की बाउंड्रीवाल ऊँची करने की मोनिका के पापाजी की इच्छा का सम्मान किया था और देखते ही देखते निर्माण कार्य शुरू हो गया। 

दीवार बनने के पहले, एक-दो बार मुझे मोनिका नज़र आई थी। छत पर मम्मीजी के साथ टहलते हुए। उसका सर और उसकी छाती मोटे दुपट्टे से पूरी तरह ढँके रहते थे। उसकी नज़रें छत की ज़मीन कुरेदती रहती थीं। वह एक बार भी मेरी खिड़की की ओर नहीं देखती थी। एक बार भी नहीं!

मेरा भी कॉलोनी में आना-जाना घट गया था। दरअसल घूमने का अब मेरा मन ही नहीं करता था। मैं अब बहुत-बहुत पढ़ने लगी थी। पढ़ना मुझे हमेशा से ही अच्छा लगता रहा था, अब और अच्छा लगने लगा। कभी-कभी जी करता था, प्रतीक भैया को फ़ोन कर उनका हाल लूँ। कुछ पता तो चले, सब कुछ ठीक चलने के दरम्यान, अचानक ऐसा क्या हो गया कि सारी दुनिया उलट-पुलट हो गई। मगर फ़ोन करने के ख़याल सि़र्फ ख़याल साबित हुए। फ़ोन का नम्बर घुमाते वक्‍़त मुझे, अपने होंठों को साबुन से मलकर धो लेने का मन करता था, और उसी में इतनी देर लग जाती थी कि फ़ोन करना रह ही जाता था।

कभी कॉलोनी की मार्केट में प्रतीक भैया दिखे भी तो बस इतना कहकर पास से गुज़र जाते थे—

'अच्छे से पढ़ रही हो न?’

'एक्ज़ाम कब हैं तुम्हारे?’

'आंटी कैसी हैं?’

मुझे घनघोर अविश्वास होता था उनके व्यवहार पर। वह मुझे अपने और मोनिका के बीच से कैसे ठंडे अन्दाज़ में अलग कर दे रहे थे? मैं क्या लगती थी उनकी? कुछ लगती थी क्या?

जल्द ही, इन घटनाओं के बीतने के बाद, वह शहर छूट गया मुझसे। कहने को तो शहर के भौगोलिक क्षेत्र से दूर चली गई मैं, मगर संवेदनाओं के स्तर पर भी वहाँ बहुत-कुछ दफ़न कर आई थी मैं।

मैं बड़ी हो गई थी। सारे मोहभंगों से उबर, समझदार। टफ। उन लोगों के बारे में जानने की कोई कोशिश नहीं की अपनी तरफ़ से, लेकिन बाद में उन दोनों से सम्बद्ध कुछ छिटपुट ब्योरे मिलते रहे। उन्हें नकारने के बावजूद अन्दर एक बेचैनी बनी रहती थी। अन्तिम सत्य तक पहुँचे बिना क्या जीवन का कोई हिस्सा पूरी तरह दफ़न किया जा सकता है अथवा जिया जा सकता है? त्रिशंकु होने से बेहतर तो चुनाव ही होगा न। फिर वह ग़लत हो या सही। इसीलिए उनकी ख़बर मिलती रहे ऐसी इच्छा हमेशा बरकरार रही। यह बात अलग है कि बाद में प्राप्त छितराए कि़स्म के ब्योरे, मुझे सच से ज़्यादा लोगों की अद्भुत कल्पनाशीलता की उपज लगे, जिनमें से सच को ढूँढ़ना बेहद कठिन था—

जैसे—किसी ने कहा था, ''उन दोनों ने भागने का कार्यक्रम बना लिया था, मगर पकड़े गए थे।’’

''जिस दिन भागना था, उसके पहले ही मोनिका के पापाजी को भनक लग गई थी। उन्होंने उसी रात कॉ़फी में नशे की दवा मिला दी थी, क्योंकि सारी दुनिया जानती थी मोनिका किसी चीज़ को हाथ लगाए अथवा नहीं, मगर कॉ़फी को मना नहीं कर सकती थी।’’

''न...न...न, कॉ़फी में नहीं, उस दिन उसकी माँ ने उसके प्रिय खाने राजमा-चावल और भिंडी में से किसी में वह दवा मिलाई थी।’’

''जिस प्लेटफॉर्म पर प्रतीक भैया इन्तज़ार करते रह गए थे, उसी के ठीक ब़गल वाले प्लेटफॉर्म पर बेसुध-बेहोश मोनिका को दो लोगों की मदद से ट्रेन में लादकर जालन्धर पहुँचा दिया गया।’’

''जालन्धर में उसके पापाजी के कुछ रिश्तेदार थे। वहाँ उसका क्या हुआ कुछ पता नहीं।’’

''कोई मिला था मोनिका के पापाजी से दिल्ली में। यूँ ही, दिल्ली करोल बा़ग में टकरा गया था उनसे, वे उस व्यक्ति को देख सकपका गए थे, मगर फिर बड़ी शान से बिना पूछे कहने लगे थे, ''मोनिका ससुराल में राज़ी-ख़ुशी है।’’

अस्सी का दशक मेरे जीवन का नेपथ्य काल हो चुका है और मुझे आश्चर्य है, कालों को सीमाबद्ध करने का बैरोमीटर अभी तक क्यों नहीं बन पाया है। क्या कर रही टेक्नोलॉजी? और ये विकास...?

कैसा है? क्या है यह...?

माने विकास और सिया नाम के दो प्रेमी हरियाणा, पंजाब या...या, के जो कहीं भाग गए थे, और फिर पकड़कर माँ-बापों और समाजों द्वारा मार दिए गए। आप सबने सुना होगा, पढ़ा होगा, अख़बारों में यह हाल ही की बात तो है। इसी इक्कीसवीं सदी की...! यानी नेपथ्य का कोई अर्थ नहीं? यानी भूत और वर्तमान सबका घालमेल ज़बर्दस्त है। यानी प्रतीक भैया और मोनिका ही विकास और सिया हैं, या थे? सब कुछ कितना कन्फ्यूजि़ंग है!
पुस्तक के लिए प्रकाशक से सम्पर्क करें -
राजकमल प्रकाशन
1-B, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज
नयी दिल्ली - 110002
फ़ोन: 011-23274463/23288769
फैक्स: 011-23278144
ईमेल: info@rajkamalprakashan.com


हिजरत से पहले
यह सब कुछ दर्ज करने के पहले एक अन्तिम ख़बर और आई थी। सुना था, प्रतीक भैया को लोग रोज़ रात को प्लेट़फॉर्म पर भटकते देखते हैं। कुछ घंटे वहीं बिताकर वह लौट आते हैं। एक दिन किसी दोस्त ने उनकी बाँह पकड़, रोककर पूछा था—

'क्या करने आते हो यहाँ?’

उन्होंने उस दोस्त को अजीबो़गरीब नज़रों से देखते हुए कहा था—

'कुछ नहीं।’

वे पागल नहीं हुए हैं। उन्होंने हाल ही में शादी भी कर ली है मगर वे उस 'कुछ नहीं’ को आज भी ढूँढ़ते हैं।

अब अगर कन्फेस करूँ तो कहूँगी अपनी सारी शंकाओं, शिकायतों, अवधारणाओं और मोहभंगों के बावजूद मोनिका मुझे कई बार कचोट-कचोट कर याद आती है। निरन्तर भीतर से कुछ छीलकर अपनी उपस्थिति बनाती हुई।

(लेखक का नोट—अनामिका के कन्फेक्शन के बाद हमें रुक जाना चाहिए, वरना कि़स्सा तो 'हरि कथा अनन्ता’ की तज़र् पर चलता ही जा रहा है, चलता ही जाएगा और पाठक दर्शक बन उन प्रक्रियाओं में डूबकर सहभागी होते रहेंगे, साल-दर-साल, युग-दर-युग।)

अनामिका—''पता है, बचपन से मुझे कहानियों के वो वाले अन्त पसन्द नहीं...(सुन रही हो न), भले ही वे मज़ाक में कहे जाएँ।’’

मोनिका—''कौन से पागल...?’’

अनामिका—''दोनों मर गए ख़त्म कहानी।’’

००००००००००००००००

कहानी: एक पेड़ की मौत - अलका सरावगी | HindiKahani 'Ek Ped ki Mout' by Alka Saraogi


ये कहानी आपको बहुत पसंद आने वाली है... हो सकता है कि आप सोचे कि 'यह कहानी क्यों प्रकाशित की गयी ' या फिर 'इतनी अच्छी कहानी - अभी तक पढ़ी क्यों नहीं थी?' ये भी हो सकता है कि आपने पढ़ी हो...  बहरहाल एक रोज़ बातोंबातों में मैंने अलका जी से पूछा 'आपकी पसंदीदा कहानी कौन सी है ?' 

- एक पेड़ की मौत 

फिर संग्रह का नाम पूछा और प्रकाशक 'राजकमल प्रकाशन' से बात की, कुछ देर से सही, लेकिन कहानी मिल गयी. 
कहानी कैसी है ? ... अपनी राय ज़रूर दीजियेगा... कहानी और कहानीकार दोनों पर.

अलका सरावगी और राजकमल प्रकाशन का शुक्रिया.

भरत

धर्म के सारे नकली कर्मकांड और ताम–झाम किसी सच्ची–मुच्ची के प्रेम–पात्र के न होने पर पैदा होते हैं । आदमी के अंदर ऐसे अनुभव की गहरी चाह कभी मरती नहीं, जहाँ उसका अहंकार मटियामेट हो जाए । और कुछ नहीं होता, तो वह धर्म की शरण में जाता है ...
पहली और अंतिम नौकरी - अलका सरावगी |  Excerpt of Alka Saraogi's Novel 'Jankidas Tejpal Mansion'

एक पेड़ की मौत 

- अलका सरावगी

कहानियाँ कई बार शीर्षक लगाकर ही पैदा होती हैं और चूँकि यह एक ऐसी ही कहानी है, इसके साथ यह खतरा जुड़ा हुआ है कि आप समझ लें कि आप इसे पहले ही भाँप सकते हैं और खारिज कर दें । यों भी पेड़–और वह भी कलकत्ता जैसे महानगर में–तो मरते ही रहते हैं और किसे पड़ी है कि यहाँ–वहाँ सड़कों पर पेड़ों तले टूटे–फूटे बरतन–भाँड़ों के साथ गृहस्थी जमाए मरते–जीते लोगों के शहर में, एक पेड़ की मौत का मातम मनाए  ?

लेकिन जिस व्यक्ति से हमने यह कथा सुनी, उसी की शैली में हम आपको कथा सुनाने से पहले ही यह बता देना चाहते हैं कि इस पेड़ की मौत में कुछ ऐसा है कि आप चकरा जाएँगे और कथा के अंत में जो सवाल आपसे पूछा जाएगा, उसका उत्तर आप जो भी देंगे, वह न सिर्फ आपको खुद अपने बारे में कुछ जानकारी दे जाएगा, बल्कि आपको इस शक में डाल देगा कि क्या आप पूरी तरह सही हैं  ?

जगन्नाथ बाबू हमारे पुराने पड़ोसी हैं और उन्हें कथाएँ–किस्से सुनाने का बेहद शौक है । उनमें खासियत है कि वे हर उम्र और हर किस्म के व्यक्ति को ऐसी कथा सुना सकते हैं कि वह ऊब ही नहीं सकता । शायद उनसे ज्यादा कोई यह बात नहीं जानता कि हर आदमी की पसंद की कहानी अलग होती है और कोई ऐसी कहानी नहीं हो सकती जो सबको पसंद आए ।

जगन्नाथ बाबू के पास इतने कहानी–किस्से होना और उससे भी ज्यादा उन्हें सुनाने की ऐसी इच्छा होना–दोनों ही उन्हें जान लेने के बाद कोई अनोखी बातें नहीं हैं । एक तो जगन्नाथ बाबू ने आज तक छ: साल से ज्यादा कभी भी एक जगह नौकरी नहीं की है और पचास के पास पहुँचते–पहुँचते अब तक तीस–चालीस नौकरियाँ बदल चुके हैं । जिंदगी में इस तरह दफ्तर बदलनेवाले लोग एकाध नहीं तो, कम–से–कम दुर्लभ तो होते ही होंगे । जहाँ सारा जमाना इस फिराक में हो कि जैसे–तैसे–कैसे जूते खाकर भी एक जगह टिकने के फायदों को उठाकर जिंदगी को सहा जाए, वहीं जगन्नाथ बाबू का जब सुनो, तभी दफ्तर बदल जाता है । कहते हैं कि शहर में उनका नाम है कि उनके जैसा मुनीम होना मुश्किल है; बड़े–बड़े ऑडिटर और एकाउंटेंट तक उनके आगे फेल हैं–किसी भी कंप्यूटर या कैलकुलेटर से जल्दी वे हिसाब कर सकते हैं और उनके पास अपने ईजाद किए हुए ऐसे–ऐसे फार्मूले हैं कि वे किसी भी गलती को पकड़ने में दो मिनट से ज्यादा समय नहीं लगाते ।

जगन्नाथ बाबू बेशक गुणी तो हैं ही कि दफ्तर बदलने में उन्हें दिक्कत न हो, सबसे बड़ी बात यह है कि शादी न करने के कारण उनके पास कोई बीवी भी नहीं, जो आम दुनियावी औरतों की तरह एक जगह टिके पड़े रहने की कायल हो और प्रोविडेंट फंड, ग्रैच्युटी आदि के नुकसान की बातें उन्हें समझा सके । नतीजा यह कि जगन्नाथ बाबू मानो कहानी–किस्से बटोरने के लिए ही दफ्तर–पर–दफ्तर बदलते जाते हैं । कहीं न टिकना जैसे उनका स्वभाव है । न जाने कैसे उन्हें समझ में आ जाता है कि यहाँ काम पूरा हो गया और अब जिंदगी को दूसरे खाँचे में डाल देना है । उन्हें अपनी जिंदगी के सारे टुकड़े अलग–अलग नौकरियों में काटी जिंदगियों की तरह पूरे–पूरे याद हैं और वे अक्सर अपनी बात इसी तरह शुरू करते हैं कि ‘यह उन दिनों की बात है जब मैं फलाँ जगह काम करता था ।’
इसी तरह कलकत्ते में जब दिल की बाइपास सर्जरी करनेवाला पहला–पहला अस्पताल खुला, तभी कंप्यूटरों के बटन दबाती, चमकीली आँखोंवाली तन्वंगी लड़कियों को देखकर ही हमें समझ में आ गया था कि अस्पतालवालों का सौंदर्य–संग्रह–बोध रंग लाएगा । सुना है कि वहाँ बाइपास सर्जरी कराने के लिए कई बार महीने–महीने इंतजार करना पड़ता है क्योंकि अक्सर बहुत लंबी ‘क्यू’ लगी होती है ।
संभवत: कहानी सुनाने की इच्छा भी और–और दूसरी आदतों की तरह रक्त में अपने पूर्वजों से चली आती है–कम–से–कम जगन्नाथ बाबू के साथ तो यही सच है । दरअसल जगन्नाथ बाबू की कहानियों में उनके अपने जीवन की कहानी भी बार–बार चली आती है और उन्हें सुनते–सुनते उनके नजदीक के लोग अब उन बातों को एक फिल्म के हिस्से की तरह देख सकते हैं । जगन्नाथ बाबू के ऐसा कुछ कहते ही सब लोग अपनी–अपनी फिल्में देखने लगते हैं । सबने जगन्नाथ बाबू की बातों से अपनी–अपनी कल्पना में अलग–अलग शक्ल–सूरतों के पात्र अलग–अलग मकानों–इलाकों में बैठा रखे हैं और यह कोई कैसे जान सकता है कि सबकी फिल्म एक–दूसरे से कितनी अलग है–भले ही वह एक ही कहानी के आधार पर बनी हो ।

सबकी फिल्मों में जगन्नाथ बाबू के पिता कलकत्ता के श्यामबाजार के इलाके में एक बंद गली–या अंधी गली, जिसके आगे कोई रास्ता नहीं फूटता और वहीं से वापस लौट आना होता है–के अंतिम मकान में एक व्हील–चेयर पर बैठे हुए कहानियाँ बुनते रहते हैं । वे हर आनेवाले को देखकर प्रसन्न होते रहते हैं, जबकि उनकी माँ सिर झुकाए आम की गुठलियाँ सुखाती रहती है । उनकी माँ के चेहरे पर कभी हँसी का लेश भी नहीं रहता । वह एक कड़े चेहरेवाली मर्दाना–सी औरत है, जो अपने संकल्प की बिलकुल पक्की है । अपने जीवन में आ पड़ी दरिद्रता, बीमारी और अपाहिजपन से लड़ने का उसका संकल्प ऐसा दृढ़ है कि वह एक मिनट खाली नहीं बैठती । हर वक्त काम में जुटी रहती है । उसके लिए पति–सेवा– और वह भी एक अपाहिज पति की सेवा–एक ऐसा कर्त्तव्य है जो मानो खुद ईश्वर ने उसके हाथों में थमाया है । उसके पालन में वह एक क्षण का आलस नहीं करती, एक क्षण के लिए भी नहीं थकती और कभी किसी काम में एक क्षण की देर नहीं करती । संभवत:–जैसा कि जगन्नाथ बाबू ने एक बार कहा–अपाहिजपन से जूझनेवाले लोग बहुत बार जिंदगी को एक घोर कर्त्तव्य की तरह ही जी पाते हैं ।

जगन्नाथ बाबू की दोनों बड़ी बहनें हर समय नाच–गान के ट्यूशन देने और सिलाई–बुनाई में लगी रहती हैं । इन दोनों कामों से फुरसत मिलने पर वे एक चौकी पर चॉक से हिंदी की सारी वर्णमाला अ, आ, से क्ष, त्र, ज्ञ तक लिखकर–यानी एक प्लेनचेट बनाकर–उस पर एक कटोरी को उलटाकर उस पर अँगुली रखकर न जाने किस–किस की आत्मा का आह्वान करती रहती हैं । उन्हें खासतौर से गाँधीजी की आत्मा को बुलाने का शौक है, हालाँकि उन्हें ठीक समझ नहीं पड़ता कि गाँधीजी की आत्मा कटोरी में इतनी चुप क्यों बैठी रहती है । वह जैसे हमेशा कुछ सोच में डूबी निस्पंद पड़ी रहती है । लेकिन वह महात्मा–यानी एक महान आत्मा–होने के कारण दोनों बहनों को कभी डराती नहीं । उन्हें मालूम है कि वह उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाएगी । एक बार बड़ी बहन ने एक अखबार में कहीें एक लेख देखा था जिसका शीर्षक था–‘गाँधीजी की आत्मा आज रो रही है’ । तब जाकर उन्हें समझ में आया था कि गाँधी की आत्मा चुप क्यों रहती है । उस दिन व्हील–चेयर पर बैठे जगन्नाथ बाबू के पिता ने इसी शीर्षक की एक कहानी बुनी थी ।

कई बार आत्माएँ हिंसक होती हैं और वे बुलानेवाले के शरीर में कुछ तकलीफ पैदा कर देती हैं–गला घुटने लगता है, कान सूँ–सूँ करने लगते हैं, आदि–आदि । तब ऐसे मौकों पर आत्मा से हाथ जोड़कर बहुत दीन होकर प्रार्थना करनी पड़ती है कि वह उन्हें माफ कर दे और अपने स्थान पर वापस लौट जाए । कई बार आत्माओं को–खासकर नजदीकी लोगों की आत्माओं को–इतना संसार से मोह हो आता है कि वे वापस जाना नहीं चाहतीं । जगन्नाथ बाबू की बड़ी बहनें ऐसे मौकों पर रो–रोकर माँ का डर दिखाकर इन आत्माओं से लौट जाने की प्रार्थना करती हैं ।

हम लोगों की फिल्मों में जगन्नाथ बाबू के परिवार से जुड़े ऐसे और बहुत सारे अद्भुत ब्यौरे हैं, जिन्हें कहने से हमें बचना पड़ेगा क्योंकि कहानी का पहले से लगा शीर्षक फिर हमें याद दिला रहा है कि यह कहानी का मूल कथ्य नहीं है । न कभी जगन्नाथ बाबू के साथ ऐसा हुआ और न कभी व्हील–चेयर पर बैठे–बैठे कहानियाँ बुनते–सुनाते उनके पिता के साथ–कि उन लोगों ने कहानी कुछ सुनानी शुरू की हो और सुना कुछ और गए हों । वे हमेशा ठीक–ठीक कहानी कहनेवाले लोग रहे हैं और उन्हें हमेशा मालूम रहता है कि कहानी कितनी सुनानी है, किस तरह सुनानी है और सबसे बड़ी बात कि कहाँ क्या कहना है और किस तरह कहना है ।

अलका सरावगी, अन्तरराष्ट्रीय ख्याति रखने वाली लेखिका हैं। 2001 में हिंदी के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कृत (कलिकथा वाया बायपास) अलका सरावगी का जन्म 1960 में कलकत्ता में हुआ है। साहित्य में पीएचडी और पत्रकारिता में डिप्लोमा रखने वाली लेखिका की कृतियों का अनुवाद, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, इतालियन, स्पेनिश और तमाम भाषाओँ जिनमे अधिकतर भारतीय भाषाएँ भी शामिल हैं, में हो चुका है।

उनका बहुचर्चित उपन्यास ‘कलिकथा वाया बायपास’ को कैंब्रिज, टुरिन, नैप्लस, हेइदेल्बेर्ग जैसी यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में शामिल है।

विदेशों में उनकी उपस्थिति कुछ इस तरह दर्ज है –


  • भारतीय लेखन का प्रतिनिधित्व, Belles estranges, फ्रांस, 2002
  • भारतीय लेखन में सामूहिक यादों पर संगोष्ठी, ट्यूरिन, इटली 2003 
  • मॉरीशस साहित्य महोत्सव, 2004
  • बर्लिन साहित्य महोत्सव, 2004
  • Calendidonna  2005, उडीन, इटली
  • फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेला 2005, 2006
  • Salon du Livre, पेरिस, 2007
  • ट्यूरिन पुस्तक मेला, 2007
  • Incroci di civilita, वेनिस, 2010

कहानी संग्रह
१) कहानी की तलाश में
२) दूसरी कहानी (‘अ टेल रीटोल्ड’ नाम से पेंगुइन से प्रकाशित)

उपन्यास
१) काली-कथा वाया बायपास 
२) शेष कादंबरी 
३) कोई बात नहीं
४) एक ब्रेक के बाद
५) जानकीदास तेजपाल मैनशन 

सम्पर्क
2/10, सरत बोस रोड, 
गार्डन अपार्टमेंट्स, गुलमोहर, 
कोलकाता – 700 020
मो०: 98301 52000.
ईमेल: alkasaraogi@gmail.com
हाँ, तो जगन्नाथ बाबू इस पिछली नौकरी में पूरे–पूरे छह वर्ष टिके । सब कोई हैरत में थे कि क्या जगन्नाथ बाबू को कोई साँप सूँघ गया है या उन्होंने ही किसी साँप को सूँघ लिया है । अब देखिए, साँप का बिंब भी हमारी कथा में जगन्नाथ बाबू के कारण ही चला आया है । दरअसल जगन्नाथ बाबू की छोटी बहन सर्प–नृत्य में बहुत कुशल थी और कहते हैं कि वह नाचते समय बिलकुल साँप की तरह ही लचीली और गति–थिरकन से युक्त हो जाती थी । ऐसे लगता था कि उसमें किसी नागिन की आत्मा प्रविष्ट हो गई हो । उसने इस नृत्य में न जाने कितने पुरस्कार जीते थे । अंत में यही नृत्य करते–करते एक दिन उसकी एक पसली टूटकर उसके फेंफड़ों में घुस गई और वह स्टेज पर ही मर गई ।

बहरहाल, कहने का आशय यह था कि जगन्नाथ बाबू का एक नौकरी में छह साल तक टिक जाना उन्हें जाननेवालों को अचंभे में डालने के लिए बहुत था और सब समझ सकते थे कि इसका कारण कुछ–न–कुछ अद्भुत ही होगा । क्या जगन्नाथ बाबू किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गए थे  ? – सबसे पहले लोगों को ऐसा शुबहा हुआ । आखिरकार स्त्रियाँ दफ्तरों में खिले हुए कमल के फूलों की तरह होती हैं जिन पर पुरुष भँवरों की तरह मँडराने के लिए मजबूर होते हैं । अभी हाल में कलकत्ते में बैंक ऑफ अमेरिका ने अपनी शाखा खोली है और वहाँ कटे हुए छोटे–छोटे झूलते रेशमी बालोंवाली लड़कियों को देखकर ऐसा लग ही रहा था कि कलकत्तेवालों के सारे खाते यहीं खुल जाएँगे कि दो बड़े पुराने विदेशी बैंकों के अपना कार्यालय बंद करने की घोषणा अखबार में आ गई । इसी तरह कलकत्ते में जब दिल की बाइपास सर्जरी करनेवाला पहला–पहला अस्पताल खुला, तभी कंप्यूटरों के बटन दबाती, चमकीली आँखोंवाली तन्वंगी लड़कियों को देखकर ही हमें समझ में आ गया था कि अस्पतालवालों का सौंदर्य–संग्रह–बोध रंग लाएगा । सुना है कि वहाँ बाइपास सर्जरी कराने के लिए कई बार महीने–महीने इंतजार करना पड़ता है क्योंकि अक्सर बहुत लंबी ‘क्यू’ लगी होती है ।

जगन्नाथ बाबू के एक दफ्तर में टिके होने का कारण किसी सुंदरी की उपस्थिति होना इसलिए भी समझ में आ रहा था क्योंकि जगन्नाथ बाबू का यह दफ्तर एक ‘पॉश’ इलाके की एक बहुमंजिली इमारत के नौवें तल्ले पर था और वहाँ ऐसे किसी आकर्षण के उपस्थित होने की संभावना आमतौर से कहीं अधिक थी । आखिर पैसे का आकर्षण ही तो सुंदरता के लिए चुंबक का काम करता है । लोगों का यह सोचना कि जगन्नाथ बाबू प्रेम में पड़ गए हैं, और भी पक्का हो चला, जब जगन्नाथ बाबू अचानक चिड़ियों की बातें करने लगे । लोग ‘चिड़ियों’ का अर्थ लड़कियाँ लगाते और जगन्नाथ बाबू की बातों पर बड़ी भेद–भरी मुसकराहट लिये मुसकराते । खासकर जगन्नाथ बाबू एक लाल चोंचवाली पीली–काली चिड़िया की जब बातें करते, जो ‘क्या कहूँ’ ‘क्या कहूँ’ बोलती है, तब लोगों के लिए हँसी दबाना मुश्किल हो जाता ।

जगन्नाथ बाबू के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा तत्त्व था कि लोग उनकी ओर सहज आकर्षित होते थे । शायद यह जिंदगी को एक कहानी की तरह देख पाने से अन्तस् से उपजी प्रसन्नता ही होगी जिसकी तरफ आदमी खिंचे बिना नहीं रहता था । जगन्नाथ बाबू को कभी किसी ने दुखी नहीं देखा था–यहाँ तक कि अपने अपाहिज पिता, आम की गुठलियाँ सुखाती माँ और स्टेज पर मर जानेवाली बहन की बातें भी वे इस तरह बताते थे जैसे जीवन को रहस्य की तरह देख पाने के कारण भीतर–ही–भीतर बहुत आनंदित हों । अलबत्ता उनकी बड़ी बहन का क्या हुआ, यह बात उन्होंने कभी किसी कहानी में नहीं बताई । उनकी माँ ने विधवा होने के बाद अनाज, नमक और चीनी खाना और चप्पल पहनना छोड़ दिया था । जिस लगन से उन्होंने अपने पति की सेवा की थी, उससे भी अधिक दृढ़ता से उन्होंने अपने कुल की कई सौ साल पहले हुई एक सती–जमुली सती–के प्रचार–प्रसार में अपना जीवन लगा दिया था । वे उनका जुलूस लेकर सैकड़ों मीलों की कई बार पैदल यात्राएँ कर चुकी थीं और उनका यह साध्वी रूप इतना प्रभावशाली था कि जमुली सती दादी की तसवीरें घर–घर में लग गई थीं और उनका मंदिर भव्य से भव्यतर होता चला गया था । एक बार जगन्नाथ बाबू ने ही बताया कि जमुली सती दादी के आदेश से ही उनकी माँ ने अपने इकलौते बेटे–यानी जगन्नाथ बाबू–की शादी न करने की इच्छा को भी सहर्ष स्वीकार कर लिया था ।

जगन्नाथ बाबू में छिपी एक विचित्र आकर्षण–शक्ति को जाननेवाले लोगों को इस बात में कोई पोल नहीं लगी कि कोई काली–पीली साड़ी पहननेवाली लड़की इस कदर उनके प्रेम में पड़ गई है कि ‘क्या कहूँ’, ‘क्या कहूँ’ कहती रहती है । लोग भीतर–ही–भीतर बहुत प्रसन्न हुए । कहीं तो इस आदमी के अंदर अकेलापन और उदासी छिपी होगी–क्या ऐसा संभव है कि कोई ऐसा आदमी हो, जिसके अंदर यह सब न हो और वह धरती पर साँस लेता हो  ? चलो, इस उम्र में ही सही, इसने मनुष्य का शरीर धारण कर मिलनेवाली इस अमूल्य वस्तु यानी प्रेम का अनुभव तो किया । क्या पता इसीलिए यह शख्स दफ्तर–दर–दफ्तर भटकता रहा कि इस अनुभव से गुजर सके । जगन्नाथ बाबू ने ही एक बार एक कहानी में बताया था कि प्रेम ही आदमी की एकमात्र ऐसी सच्ची अनुभूति है जिसमें उसका ‘स्व’ किसी दूसरे के सामने विलीन हो जाता है और उसका अहंकार लुप्त हो जाता है । वे अपनी माँ के लिए अपने पिता की मृत्यु के बाद जमुली सती की उपस्थिति की जरूरत के बारे में बताते हुए कह गए थे कि धर्म के सारे नकली कर्मकांड और ताम–झाम किसी सच्ची–मुच्ची के प्रेम–पात्र के न होने पर पैदा होते हैं । आदमी के अंदर ऐसे अनुभव की गहरी चाह कभी मरती नहीं, जहाँ उसका अहंकार मटियामेट हो जाए । और कुछ नहीं होता, तो वह धर्म की शरण में जाता है ।

जगन्नाथ बाबू की इस तरह की बातों को सुनकर, उनकी कहानियाँ सुनते हुए लोगों के दिल में एक शूल–सा चुभ जाता था कि क्या जगन्नाथ बाबू अपने जीवन में इस तरह की कमी नहीं महसूस करते  ? क्या वे आदमी मात्र की इस चरम अभीप्सा के परे हैं  ? इसलिए अब लोगों के दिल में उनकी ‘क्या कहूँ’, ‘क्या कहूँ’ कहनेवाली ‘चिड़िया’ के प्रति एक सच्ची सदाशयता जागी और उनके कलेजे ठंडे पड़ गए कि जगन्नाथ बाबू के जीवन की यह अपूर्णता तो मिटी । जगन्नाथ बाबू न जाने लोगों की समझ के बारे में क्या समझ रहे थे । न उन्होंने लोगों की भेद–भरी मुसकराहट पर प्रकट रूप से कोई ध्यान दिया और न अपने तौर–तरीके बदले । वे पूरे उत्साह से दूसरी ‘चिड़ियों’ के बारे में भी लोगों को बताने लगे कि एक लंबी पूँछवाली काली–सफेद–भूरी–मटियाली रंगवाली चिड़िया इस तरह बोलती है जैसे कोई दरवाजा खुल और बंद हो रहा हो; लाल सिरवाली हरी चिड़िया हुड़ुक–हुड़ुक बोलती है और नीली चिड़िया खाली तभी नीली दिखती है जब वह उड़ने के लिए अपने पंख खोलती है ।

जगन्नाथ बाबू की इन बातों ने लोगों के दिल को धक्का–सा पहुँचाया । उन्हें यह काली–पीली साड़ीवाली प्रेमिका के प्रति गैर–वफादारी का रुख लगा और उनके दिलों में जगन्नाथ बाबू के प्रति किंचित् रोष भी उत्पन्न हुआ । इधर जगन्नाथ बाबू ने अचानक चिड़ियों की बातें करनी कम कर दीं, जैसे अब उनकी दिलचस्पी कहीं और मुड़ गई हो और पेड़ों की बातें करने लगे । वे गुलमोहर, अमलतास, पलाश, सेमल आदि पेड़ों के नाम इस तरह लेते, जैसे ये सब उनके कितने पुराने बंधुओं के नाम हों । उनकी हर कहानी में घूम–फिरकर कोई–न–कोई पेड़ चला आता । कभी वे बहाने से कहते कि यह उस समय की बात है कि जब पलाश फूल रहा था; कभी कहते कि उम्र बीत चली और अब जाना कि हर पेड़ का पतझड़ और वसंत अलग समय पर होता है । फिर एक दिन अचानक वे सबको भूलकर एक पेड़ की बात करने लगे, जिसका कोई नाम नहीं था ।

जगन्नाथ बाबू ने बताया कि उनका वह पेड़, जिस पर वे चिड़ियों को देखा करते हैं, वसंत के मामले में सबसे ढीला है । उसमें तब वसंत आता है, जब और सारे पेड़ों के पत्ते पुराने पड़ जाते हैं । उसका नाम उन्होंने ‘चिड़ियोंवाला पेड़’ रख दिया क्योंकि उन्हें किसी तरह उस पेड़ का नाम पता नहीं चल रहा था । न जाने कैसे उनमें यह परिवर्तन आया कि उन्होंने कहानियाँ तक बुननी–सुनानी छोड़ दीं और दफ्तर के बाद वृक्षों पर लिखी हुई ढेर सारी किताबों को लाकर उनमें मगजमारी करने लगे । लोग हैरान थे कि उन्हें क्या हो गया है । अब जाकर लोगों को मानना ही पड़ा कि जगन्नाथ बाबू की चिड़ियाँ सचमुच की चिड़ियाँ थीं और उनके पेड़ सचमुच के पेड़ हैं ।

जगन्नाथ बाबू वृक्षोंवाली किताबों के पन्ने इस कदर उलटते–पलटते रहते, जैसे न जाने किस पन्ने में कोई चीज दबाकर भूल गए हों और उसे ढूँढ़ रहे हों । जब लोगों ने बहुत बार पूछ लिया कि वे क्या खोज रहे हैं, तो जगन्नाथ बाबू ने जैसे मजबूर होकर बताया कि दरअसल वह पेड़, जिस पर सब नीली–पीली–हरी–कत्थई चिड़ियाँ आती हैं, एक विचित्र पेड़ है, जिसका नाम कहीं खोजे से भी नहीं मिल रहा है । वह पेड़ सौ साल पहले अंग्रेजों के द्वारा कलकत्ते में बनाई गई सैकड़ों एक–जैसी पीले रंग की एक–मंजिली कोठियों में से उनके दफ्तर के पिछवाड़े में बनी एक ऐसी ही कोठी में न जाने किसके द्वारा कहाँ से लाकर लगाया गया पेड़ है । इस पेड़ का नाम उन्हें शहर के सबसे जानकार वनस्पति–शास्त्री भी नहीं बता सके हैं । यह पेड़ बहुत पुराना है और ऐसा मालूम होता है कि सब चिड़ियों को पीढ़ी–दर–पीढ़ी इस पेड़ के बारे में मालूम रहता है । इस पेड़ में दूर–दूर से आनेवाली चिड़ियों के लिए जैसे एक आकर्षण है । न जाने कहाँ–कहाँ से यह चिड़ियों को अपनी ओर खींच लेता है और उस पेड़ पर बैठने के लिए ही शायद वे दूर–दूर का सफर तय करती हैं ।

जगन्नाथ बाबू की इन बातों से लोग बहुत चकित हुए । चकित ही नहीं, मुग्ध भी हुए । कितनी सुंदर बात है कि कोई ऐसा पेड़ हो, जो पीढ़ी–दर–पीढ़ी चिड़ियों को अपने पास बुला सकता हो । ऐसा पेड़ तो शायद स्वर्ग की कल्पना में ही कभी किसी ने देखा–सोचा हो । असलियत में ऐसा पेड़ हो सकता है, यह तो कल्पना के परे है । लेकिन जगन्नाथ बाबू की कहानियाँ सुननेवाले लोगों में हर तरह के लोग थे, जैसे कि दुनिया में हर जगह हर समय मौजूद रहते हैं । उनमें से कुछ को यह बात नितांत असंभव लगी कि एक भीड़–भाड़वाले शहर में बहुमंजिली इमारतों से घिरे एक पुराने मकान में ऐसा कोई अद्भुत, अनोखा पेड़ मौजूद हो, और जगन्नाथ बाबू के सिवाय किसी और को उसके बारे में पता तक न हो । यदि सचमुच कोई ऐसा पेड़ होता, तो क्या अब तक सारे संसार में यह खबर सुर्खियों में नहीं आ जाती  ? क्या अब तक अमेरिका के वैज्ञानिक हाथ–पर–हाथ धरे बैठे रहते, और इस पेड़ के रहस्य का पता न लगा लेते  ?

बाकी लोगों ने सहज रूप से जगन्नाथ बाबू की बातों को सच ही नहीं माना, बल्कि उतनी ही सहजता से उस पेड़ को देखने की इच्छा व्यक्त की । जगन्नाथ बाबू ने तब उन्हें सालिम अली नामक एक चिड़िया–विशेषज्ञ की किताबों में उन नीली–पीली–हरी–कत्थई चिड़ियों की तस्वीरें भी दिखार्इं, जिन्हें वे उस पेड़ पर देखते आ रहे थे । उन्होंने बताया कि अब सालिम अली के सहारे वे न सिर्फ उन चिड़ियों के नाम जान गए हैं, बल्कि उन चिड़ियों को उनकी बोली से भी पहचानने लगे हैं । बिना देखे भी उन्हें पता चल जाता है कि उस पेड़ पर फलाँ चिड़िया आई है । जगन्नाथ बाबू ने सब लोगों को आश्वासन दिया कि एक–एक करके ‘लंच’ के समय उनमें से हरेक व्यक्ति को दफ्तर बुलाकर वह पेड़ दिखा देंगे–अलबत्ता मुश्किल यह रहेगी कि उस बेला में प्राय: चिड़ियाँ दिखाई नहीं पड़तीं । वे अक्सर दोपहर तीन बजे के आसपास आनी शुरू होती हैं ।

जगन्नाथ बाबू के ‘पॉश’ इलाके के शानदार दफ्तर में उनके सारे लोग एक–एक करके अपने सबसे अच्छे कपड़े धारण करके पहुँचे और वहाँ उपस्थित शानदार लोगों के बीच अपने–आपको निहायत घटिया महसूस करते हुए वह पेड़ देख आए । लेकिन इस ‘देखा–देखी’ ने उनके और जगन्नाथ बाबू के बीच जैसे कुछ बदल डाला । यों तो जगन्नाथ बाबू के सुदर्शन व्यक्तित्व और आंतरिक प्रसन्नता के कारण उनके सभी साधारण वस्त्र हमेशा असाधारण रूप से शानदार दिखते थे, पर अब उनके दफ्तर में जाकर लोगों के मन में यह भ्रम पैदा हो गया कि जगन्नाथ बाबू ने उन लोगों पर मानो तरस खाकर ही उन्हें अपना मित्र बना रखा है । क्या हैसियत का इतना बड़ा फर्क मन को आच्छादित होने से रोक सकता है  ? लोगों ने पहली बार पाया कि जगन्नाथ बाबू के प्रति उनके हृदय में गाँठ–सी पड़ गई है । इसी गाँठ के चलते लोगों ने पाया कि उन्हें वह पेड़ कलकत्ता शहर के हजारों–लाखों पुराने पेड़ों की तरह एक मामूली पेड़ लगा, जिस पर न उनकी कल्पना के ‘कल्पतरु’ की तरह कोई अद्भुत रंग के फूल खिले थे और न ही उनसे कोई दिव्य सुगंध उठ रही थी । दोपहर के वक्त रंगीन चिड़ियों की जगह एकाध कौवे, गौरैया और मैना जैसी आम और मामूली चिड़ियाँ ही वहाँ बैठी नजर आर्इं ।

आश्चर्य को नियोजित करना प्रकृति का शायद एक खेल है, जिसे एक खेल की तरह से न देख सकनेवाले ‘संयोग’ कहकर पुकारते हैं । इसी संयोग से जगन्नाथ बाबू की इस अद्भुत पेड़ की कहानी पर रत्ती–भर भी विश्वास न करनेवाले हमारे ही इलाके के बैरिस्टर निमाईसाधन घोष ठीक तीन बजे जगन्नाथ बाबू के दफ्तर की उसी इमारत की छत पर दरबान को दस रुपए घूस खिलाकर अकेले पहुँचे और उन्होंने अपने साथ ली हुई दूरबीन से न सिर्फ नीली–पीली–हरी–कत्थई चिड़ियाँ देखीं, बल्कि आधे शरीर में जेबरा जैसी धारियों और आधे शरीर में गेरुआ रंगवाली एक शानदार किलंगीवाली चिड़िया भी देख ली ।

उस शाम हमारे इलाकेवालों को एक अद्भुत दृश्य दिखाई पड़ा । बैरिस्टर निमाईसाधन घोष जगन्नाथ बाबू के पैरों के पास जमीन पर बैठे थे और किसी तरह उनके बगल में सोफे पर बैठने को तैयार नहीं हो रहे थे । उन्होंने जगन्नाथ बाबू को अपना गुरु घोषित कर दिया था और सालिम अली की किताबों के पन्ने इस कदर धीरे–धीरे पलटकर श्रद्धापूर्वक उस किलंगीवाली चिड़िया को खोज रहे थे, जैसे किसी वेद–उपनिषद के पन्ने उलट रहे हों । अंतत: उन्होंने एक किलकारी–सी मारी और सबको पता चला कि उस चिड़िया का नाम ‘हूपू’ है । इस चिड़िया को आज तक जगन्नाथ बाबू ने भी नहीं देखा था । बाद में किसी विशेषज्ञ से पता चला कि उस चिड़िया का कलकत्ते में दिखाई पड़ना भी अपने–आप में एक आश्चर्य है क्योंकि यह चिड़िया प्राय: अधिक सूखे प्रदेशों में दिखाई पड़ती है ।

आगे की कथा पेड़ों, चिड़ियों और अद्भुत किस्सों से दूर जिंदगी के यथार्थ की कथा है । जगन्नाथ बाबू, जो खुद किसी दफ्तर में आज तक इतने बरस नहीं टिके थे, अब एक पेड़ के प्रेम में बँधे हुए उसी दफ्तर में टिके रहना चाहते थे । लेकिन अचानक दफ्तर के मालिक ने उन्हें सारे दिन खिड़की के बाहर देखते रहने के कारण दफ्तर के हिसाब में हुई भूलों के कारण बरखास्त कर दिया । यह तो लोगों को बाद में ही मालूम पड़ा कि जगन्नाथ बाबू को इसके पहले कई बार चेतावनी दी जा चुकी थी । प्रेम का सबसे बड़ा दुर्गुण यह है–जगन्नाथ बाबू ने यह कहानी सुनाते हुए कहा–कि वह व्यक्ति के जीने के ढंग को उलट–पलटकर रख देता है । आदमी अपने पर नियंत्रण खो बैठता है और चकरघिन्नी हो जाता है । उसके संस्कार, उसकी मान्यताएँ, उसकी धारणाएँ और उसकी आदतें–सब रातोंरात हवा हो जाते हैं । ‘‘लेकिन’’–जगन्नाथ बाबू ने एक लंबी साँस छोड़कर कहा–‘‘यह कोई नहीं कह सकता कि यह कोई फायदेवाली बात है या नुकसानवाली । सच तो यह है कि कोई नुकसान सचमुच कोई नुकसान नहीं है और यह फायदे–नुकसानवाली भाषा ही गड़बड़ है ।’’

यह सब कहने के बावजूद लोगों ने देखा कि जगन्नाथ बाबू उदास रहने लगे । तीन दिन तक दफ्तर के क्रम से निजात पाकर उनके पास काफी समय था कि वे पच्चीसों कहानियाँ बुन लेते, लेकिन वे जैसे किसी गम में घुले जा रहे थे । अंत में उनके शिष्य बने हुए निमाईसाधन वकील बाबू ही उनके काम आए । निमाई बाबू ने उनके घुलने का कारण ढूँढ़ने के क्रम में–क्योंकि उसके बिना जगन्नाथ बाबू का पहले जैसा हो जाना संभव नहीं था–बंगाल के वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस की ‘अव्यक्त’ नाम की पुस्तक प्राप्त की और जगन्नाथ बाबू को उसमें से पढ़कर सुनाया––––वृक्ष क्या कभी बोलते हैं  ? लोग बोलेंगे कि भला यह क्या प्रश्न है  ? लेकिन गाछ मूक भले ही हो, क्या यह निस्पंद है  ? नहीं, यह तो हमारा मूक संगी है जो जीवन के गंभीर मर्म की कथा हमारे लिए भाषाहीन करके लिपिबद्ध कर रहा है । मैंने कभी यों ही बिना सोचे–समझे लिखा था कि वृक्ष–जीवन मानव–जीवन की छाया है, आज देख रहा हूँ कि मेरा वह स्वप्न आज जागरण में भी सच हो गया है–––

निमाई बाबू ने देखा कि जगन्नाथ बाबू यह सुनकर कुछ प्रकृतिस्थ हुए हैं और उनकी प्रसन्नता कुछ वापस लौटती–सी लग रही है । निमाई बाबू ने पुस्तक बंद कर दी और कहीं से भी वकील जैसी न लगनेवाली भाषा और स्वर में बोले– ‘‘जगन्नाथ बाबू, बचपन में कहानी सुनी थी कि बुद्ध को एक पीपल के वृक्ष के नीचे निर्वाण प्राप्त हुआ था–तब समझ में नहीं आया था कि इस बात का उस वृक्ष से क्या संबंध है । लेकिन अब सोचता हूँ तो लग रहा है कि हम सभी एक ही अस्तित्व के तो हिस्से हैं–ये वृक्ष ऑक्सीजन छोड़ रहे हैं, तो हम श्वास ले रहे हैं; हम श्वास छोड़ रहे हैं, तो उसी कार्बन–डाइऑक्साइड से ये वृक्ष श्वास ले रहे हैं; और हमारे अंदर वही तो रस है जो इनमें है–जो घास में है–जो फूल में है । आपने हमारे और इनके बीच की लय का अनुभव कर लिया है, जगन्नाथ बाबू  ।’’

जगन्नाथ बाबू का चेहरा दमक उठा । न जाने वकील बाबू ने ऐसा क्या कहा और न जाने जगन्नाथ बाबू ने क्या समझा, लेकिन लगा कि जगन्नाथ बाबू अपने में लौट आए हैं । अब निमाई बाबू लगभग एक तीर्थयात्री की तरह जगन्नाथ बाबू को साथ लेकर ठीक तीन बजे दोपहर अपने उसी परिचित दरबान की मारफत उसी दफ्तर की इमारत की छत पर पहुँचे । लेकिन वहाँ जाकर उन दोनों को ऐसा धक्का पहुँचा कि उनकी बोलती बंद हो गई । वहाँ कोई पेड़ ही नहीं था । वह पेड़ इस तरह गायब हो गया था, जैसे वह कभी वहाँ था ही नहीं ।

जगन्नाथ बाबू के मन में इस पेड़ की मौत ने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया, जिसका उत्तर शायद किसी के पास कभी नहीं होगा–क्या वह पेड़ भी उनसे प्रेम करता था और उनके वियोग में देह–त्याग का संकल्प करके उसने तीन दिनों में ही अपने को कटवा दिया  ? क्या वह पेड़ बरसों से–दशकों से किसी का इंतजार कर रहा था  ? चूँकि यह कोई मनगढ़ंत कथा नहीं है, जैसा कि जीवन में सहज विश्वास करनेवाले जान रहे होंगे, निश्चय ही वे भी इस अबूझ प्रश्न से जगन्नाथ बाबू की तरह ही जूझेंगे ।

जगन्नाथ बाबू ने उस पेड़ की द्वादशी का श्राद्ध किया । इस संसार में प्रियजनों की मौतें होती हैं तो हमारे यहाँ बारह दिन की बैठकें होती हैं, जिनमें मातमपुरसी करनेवालों की आवभगत, घर की सफाई, पूजा, विधि–विधान और भोजन का प्रबंध करने में सब मशगूल रहते हैं । जगन्नाथ बाबू ने इन बारह दिनों में न कुछ खाया, न पीया । उनकी आँखें एक क्षण के लिए भी सूखी नहीं दिखीं । जगन्नाथ बाबू के साथ के लोगों ने भी मौन रहकर उनके दुख में उनका साथ दिया । सभी जगन्नाथ बाबू के प्रश्न से ही जूझ रहे थे और किसी के पास कोई उत्तर नहीं था । यदि वह पेड़ कटना ही था, तो पिछले छह वर्षों के दो हजार दिनों में क्यों नहीं कटा  ? वह उन्हीं तीन दिनों में क्यों कटा, जब जगन्नाथ बाबू को वहाँ से निकाल दिया गया । क्या वह पेड़ भी जगन्नाथ बाबू को देखा करता था अपने को देखते हुए  ?

बहुत सारे लोग इक्कीसवीं सदी के मुँह पर वृक्ष–पूजन जैसी इस तरह की आदिम बातों से कुढ़ सकते हैं । वृक्षों में संवेदना है, यह तो विज्ञान भी मानता है । यह बात और है कि हमें पता नहीं कि वह किस हद तक जीवित और क्रियाशील है । बहरहाल, जगन्नाथ बाबू इन पक्ष–विपक्ष के तर्कों से आगे निकल आए हैं । उनके नए दफ्तर के दो तल्ले से बिलकुल सटा हुआ एक सेमल का वृक्ष है । जगन्नाथ बाबू का मानना है कि वे सारी चिड़ियाँ, जो उस अनाम पेड़ से उसी तरह बँधी हुई थीं जैसे कि वे खुद, अब इसी सेमल के वृक्ष पर उनके बिलकुल नजदीक आती हैं ।

००००००००००००००००

अलका सरावगी साहित्यिक कसौटियों पर खरी हैं | Alka Saraogi's Novel 'Jankidas Tejpal Mansion' getting popular


Alka Saraogi, Kolkata, Novel, Rajkamal कोलकाता में जानकीदास तेजपाल मैनशन पर आयोजित परिचर्चा में साहित्य-प्रेमियों की उमड़ी भीड़

कोलकाता में 'जानकीदास तेजपाल मैनशन' पर आयोजित परिचर्चा में साहित्य-प्रेमियों की उमड़ी भीड़ - 

विमर्शों के इस दौर में जब साहित्य खॉंचों में विभाजित हो गया है, उनमें विमर्श अधिक है और साहित्य कम। ऐसी स्थिति में अलका सरावगी का साहित्य बहुत राहत लेकर आया है। बढ़ते वैश्विक गाँव के परिप्रेक्ष्य में यदि हम साहित्य के दो पैमाने- पठनीयता व विश्वसनीयता मानें तो इन दोनों कसौटियों पर अलका की विलक्षण पकड़ है अतः इस उपन्यास को मैं उच्च कोटि के साहित्य के दर्जे में रखूँगी।’ उपरोक्त बातें पूर्व राज्यसभा सदस्य व कोलकाता विश्व विद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. चन्द्रा पाण्डेय ने स्टारमार्क, क्वेस्ट मॉल, कोलकाता में अलका सरावगी के नए उपन्यास ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ पर आयोजित परिचर्चा (18 मई 2015) में कही। 

राजकमल प्रकाशन समूह व स्टारमार्क के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस परिचर्चा के सूत्रधार राजश्री शुक्ला ने कहा, “अलका सरावगी का यह उपन्यास बेहतरीन है। पठनीय व रोचक है। इसका विषयवस्तु गंभीर व प्रासंगिक है। विकास के रेल को चलाए जाने के क्रम में इमारतें ढहाई जाती हैं। यह उपन्यास ढहाए जाने के प्रतिरोध को बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करता है।

‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ के बारे में बताते हुए लेखिका अलका सरावगी का कहना है, “समय के एक ऐसे दौर को लिखना; जो अभी जारी है, चक्रव्यूह में लड़ते हुए लिखना है। न नक्सलवाद चुका है, न वियतनाम, न तिकड़मों का तंत्र, न मैनशनों को ढहाना। समय की नब्ज़ लेखक के हाथ के नीचे धड़क रही हैं।” 

अपने पात्रों को संबोधित करते हुए अलका जी कहती हैं, “जानकीदास तेजपाल मैनशन’ का इंजीनियर आज़ादी के बाद पहले-पहल जवान हुई अपनी पीढ़ी के मोहभंग और क्षोभ का अपने चारों तरफ़ विस्फोट देखता है- कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में भी, और अमेरिका जाने पर वियतनाम विरोधी आंदोलन में भी, मगर वह एक तरह से इन सबके बाहर है। उसे अपने परिवार और समाज के मापदंडों पर सफल होना है। यह तो जब वह लौटकर ख़ुद को एक ढहती हुई दुनिया में पाता है, तो विस्थापन को रोकने की लड़ाई में लग जाता है। विडंबना यह है कि उसके लड़ने के साधन और तरीक़े इसी तंत्र के आज़माए हुए तरीक़े हैं। बाज़ार से लड़ते हुए वह बाज़ार का ही हिस्सा बनकर रह जाता है और उसे पता भी नहीं चलता कि वह कुछ और बन गया है।

इस उपन्यास की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए लेखिका पुनः कहती हैं, “उपन्यास लिखते हुए नक्सलवादी आंदोलन की उपज और उसके कारणों की फिर से समझ पैदा हुई। हालांकि ‘कोई बात नहीं’ उपन्यास के जतीन दा और जीवन चांडाल भी नक्सली चरित्र ही थे, मगर उनकी परिणति क्रांति की विफलता से टूटे हुए लोगों की थी। ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ में दिखता है कि बहुत से लोगों की रोमैंटिक क्रांतिकारिता बाद में ‘सफल’ होने की दौड़ में बदल गई और बाज़ार ने उन्हें निगल लिया। अब उनके पास दो तरह की कहानियाँ थीं अपने बच्चों को सुनाने के लिए--किसी मल्टीनेशनल कंपनी में फिलहाल ‘ऊँचा पोस्ट’ और कभी जान पर खेल कर आधी रात को लाल रंग से शहर की दीवारों पर पोस्टर रंगने की। बाजार सबके लिए मूल्यबोध के सरकते-दरकते पैमाने बनाता गया है। बाजार ही साधन और साध्य बन गया है इस देश में- चाहे वह पुराने नक्सलवादी रहे हों या फिर फॉरेन रिटर्न्ड इंजीनियर।”

गौरतलब है कि करीब बीस बरस पहले अलका सरावगी का पहला उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाइपास’ आया। बीच के अंतराल में तीन और उपन्यास ‘शेष कादंबरी’, ‘कोई बात नहीं’, और ‘एक ब्रेक के बाद’ आए। और अब उनका नया उपन्यास ‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ राजकमल से प्रकाशित होकर आया है। 

इस परिचर्चा में राजकमल प्रकाशन के निदेशक अलिंद महेश्वरी, प्रो. मंजू रानी सिंह, कवि राजेश्वर वशिष्ठ, कवि राज्यवर्धन, कवि व उपन्यासकार विमलेश त्रिपाठी सहित सैकड़ों साहित्य-प्रेमी उपस्थित थे। 
 ००००००००००००००००

जानकीदास तेजपाल मैनशन - अलका सरावगी | Excerpt of Alka Saraogi'sNovel 'Jankidas Tejpal Mansion'


‘जानकीदास तेजपाल मैनशन’ एक नहीं दो उपन्यास हैं, एक जो आत्मकथा के रूप में लिखा गया है और दूसरा उसी के साथ बेहद रचनात्मक ढंग से बुनी गयी घटनाओं का तानाबाना। इसका अंग्रेजी अनुवाद भी जल्दी ही होना चाहिए... शायद उसे पढ़ कर, हिंदुस्तान में मौलिक-अंग्रेजी-लेखन के नाम पर उपन्यासों को पढ़ाने वालों को समझ आये कि लेखन क्या होता है! 

भरत तिवारी
पहली और अंतिम नौकरी - अलका सरावगी |  Excerpt of Alka Saraogi's Novel 'Jankidas Tejpal Mansion'

पहली और अंतिम नौकरी



उपन्यास अंश - 'जानकीदास तेजपाल मैनशन'

अलका सरावगी 

‘‘अमेरिका से पढ़कर लौटे हो। यहाँ काम कर सकोगे?”- ‘घुरघुर’ बोला था। कम्पनी का नम्बर दो या नम्बर तीन आदमी और ऐसी आवाज? जयदीप को हैरत हुई थी। फटे बाँस की सी आवाज वाले बास का नाम उसने पहले ही दिन घुरघुर रख लिया था। उसने जवाब दिया था- ‘‘काम करने के पहले कैसे बताया जा सकता है!” अनजाने ही उसकी आवाज जवाब देते समय कुछ फटी हुई सी निकली थी। घुरघुर का चेहरा तन गया था। एक तो यह कोई जवाब जैसा जवाब नहीं था। ऊपर से क्या यह कल का लौंडा उसकी आवाज की नकल उतार रहा था? जयदीप जानता था कि उसे आदरपूर्वक कहना चाहिए था- ‘‘सर, एक मौका मिले तो कर के ही बता सकता हूँ।” पर घुरघुर के शब्दों में ही सिर्फ अविश्वास नहीं था, उसकी पूरी ‘बाडी लैग्ंवेज’ यानी हाव-भाव से यह साफ था कि वह यकीनन जानता है कि जयदीप वहाँ काम नहीं कर सकेगा। जयदीप को इससे बुरी तरह चिढ़ हुई थी और वह इसे छिपा नहीं पाया था।

नौकरी पर रखने के लिए घुरघुर कोई जयदीप का इंटरव्यू नहीं ले रहा था। जयदीप को खुद बिड़लाजी ने वहाँ भेजा था। एडवोकेट बाबू के पुराने मित्र बिड़ला बिल्डिंग का सारा कानूनी काम देखते थे। सीनियर बिड़ला जी से मिलने वह आर.एन.चटर्जी लेन की शानदार सोलह मंजिली इमारत में गया था, तो एडवोकेट बाबू के वकील मित्र वहाँ मौजूद थे। उससे कोई प्रश्न नहीं पूछा गया था। जयदीप को आश्चर्य हुआ था कि बिड़लाजी को उसकी पढ़ाई से लेकर एडवोकेट बाबू की बीमारी तक हर बात की जानकारी थी। जयदीप को बाद में पता चला था कि बिड़लाजी का ‘दरबार’ रोज सुबह विक्टोरिया मेमोरियल में लगता है या फिर उनके घर में सुबह की चाय पर, जहाँ ‘बाबू’ के कृपापात्र उन्हें हर तरह की जानकारियाँ देते हैं। शायद एडवोकेट बाबू अपने चुप रहने की आदत के कारण ही इस दरबार में शामिल नहीं हो पाए थे। वरना वे उस माहौल के लिए बिलकुल मुफीद थे।

जयदीप ने बिड़लाजी के विशाल चेम्बर से बाहर निकलकर बहुत गहरी चैन की साँस भरी थी। सिर्फ इसलिए नहीं कि उसे नौकरी मिल गई थी, बल्कि इसलिए भी कि वहाँ की हवा में उसे वही जानी-पहचानी परेशान करनेवाली गंध आ रही थी। कायदे ओर मर्यादा की नसीहतों के बोझ से दबा है आदमी इस देश में। बिड़ला है तो क्या और टाटा है तो क्या। कोई अपने मन की न कह सकता है, और न ही कोई बात किसी के मन की कही सुन सकता है। एडवोकेट बाबू के सामने वह जैसे घुट जाता है, वैसे ही बिड़लाजी के सामने भी जैसे जमीन पर बिछ गया था। क्या अमेरिका में कोई राकफेलर या हेनरी फोर्ड से मिलने जाता है, तो ऐसे ही अपने को अदना महसूस करता है? यहाँ हर समय एक तरह की वर्ण-व्यवस्था चलती रहती है- कोई तुमसे उम्र में बड़ा है तो, कोई तुमसे धन या पद में बड़ा है। बस सबका लिहाज करते चलो। एक मिनट के लिए भी यह मत जताओ कि तुम अपने विषय को भी उनसे ज्यादा जानते हो, जो तुमसे ऊपर बैठकर तुम्हें देख रहे हैं।

कितना अलग माहौल था अमेरिका में यूनिवर्सिटी का। प्रोफेसर इस तरह मिलने जैसे दोस्त हों। हर तरह का मजाक करते। अंग्रेजी में कोई ‘आप’ और ‘तुम’ का भेद नहीं है। हर कोई ‘यू’ है- छोटा हो या बड़ा। हर किसी को उसके नाम से बुलाया जा सकता है। शुरू शुरू में जयदीप को अजीब लगता था कि प्रोफेसर होने का कोई जैसे रुतबा ही नहीं दिखता। पर धीरे-धीरे वह उस खुलेपन और दोस्ताने का कायल हो गया था। खुद उसे ‘असिस्टेंट टीचर’ का काम दिलाने में प्रोफेसर हैनिंग ने कितनी मदद की थी। जब हैनिंग को पता चला था कि जयदीप स्कालरशिप के लिए दूसरी यूनिवर्सिटी में ट्रांसफर लेना चाहता है, तो उन्होंने तुरंत वहीं काम दिलाकर उसके खर्चे की व्यवस्था कर दी थी।

जयदीप ने अपने कमाए डालरों से फोर्ड मुस्टांग खरीदी। ग्रुनडिग कम्पनी का जर्मन टेपरिकार्डर लेकर जापान, हांगकौंग, सिंगापुर होते हुए घर पहुँचा था, तो सबकी आँखें फटी रह गई थीं। यह सब मौज वह सिर्फ प्रोफेसर हैनिंग के कारण कर पाया था। पर उन्होंने कभी ऐसा नहीं जताया कि वे उस पर कोई अहसान कर रहे हों। इंडिया में न ऐसी उदारता कोई दिखलाएगा और दिखा भी दे, तो तुम्हें अपना गुलाम बनाकर रखेगा। अपने घर में झाड़ू भी लगवा ले, तो कोई बड़ी बात नहीं। जयदीप के साथ जादवपुर में पढ़े हुए उसके दोस्त अशोक घोष के बड़े भाई की पी.एच.डी. तीन साल लटकी रही थी। उसका गाइड कोई जल्दी में नहीं था कि घोष को अपने हाथ से निकल जाने दे। उसे अपने प्रोफेसर के नाम से पेपर लिखने और समय-समय पर उसकी जगह क्लास लेने के अलावा प्रोफेसर की पत्नी के छोटे-मोटे काम भी करने होते थे। ‘‘प्रोफेसर उसे कभी यह नहीं कहता कि मेरा यह काम दो। पर वह इस तरह अपनी दिक्कतें बताया है कि मेरा भाई कह उठता है, सर मैं कर देता हूँ न आपका काम। आप चिंता न करें। उसकी सेवा भावना का उसे कोई पुरस्कार न मिले, ऐसा भी नहीं है। भाई को प्रोफेसर ने बंगलौर में एक सेमिनार में भाग लेने भेज दिया है”- अशोक हँस-हँस कर बताता था।

जयदीप घुरघुर को देखता दोनों दुनियाओं की तुलना करता रहा था। यह घाघ शायद जानता है या इसने तय कर लिया है कि यह हर तरह से कोशिश करेगा कि जयदीप वहाँ न टिके। जयदीप ने भी उसी क्षण ठान लिया था कि उसकी ऐसी हर कोशिश को वह नाकाम कर देगा। जयदीप के पास चुनने के लिए और रास्ते भी कहाँ थे। पूरे पूर्वी भारत में सिर्फ आठ कम्पनियों में कम्पयूटर लगे हुए थे। टाटा कंसलटेंसी सर्विस से बम्बई में इंटरव्यू देने के लिए उसके पास कल ही चिट्ठी आई थी। पर उसे अच्छी तरह मालूम था कि एडवोकेट बाबू उसे बम्बई जाने नहीं देंगे। बंगाल में नक्सल आंदोलन से घबराकर कई उद्योगपति अपना दफ्तर दिल्ली या बंबई ले जा चुके थे या ले जा रहे थे। जो पढ़ाई वह करके आया था, वह इस देश के लिहाज से अपने समय से बहुत आगे की पढ़ाई थी। बंगाल या कलकत्ता में दूसरी नौकरी की संभावना लगभग शून्य थी। मारवाड़ी घरों के पढ़े-लिखे लड़कां के लिए बिड़लों के यहाँ नौकरी मिलना न केवल आसान था बल्कि बिड़ला में काम करनेवालों की समाज में इज्जत भी थी। एडवोकेट बाबू और उनके मित्र की कृपा से मिली नौकरी पर वह नहीं टिकेगा तो आखिर करेगा क्या?

अलका सरावगी, अन्तरराष्ट्रीय ख्याति रखने वाली लेखिका हैं। 2001 में हिंदी के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कृत (कलिकथा वाया बायपास) अलका सरावगी का जन्म 1960 में कलकत्ता में हुआ है। साहित्य में पीएचडी और पत्रकारिता में डिप्लोमा रखने वाली लेखिका की कृतियों का अनुवाद, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, इतालियन, स्पेनिश और तमाम भाषाओँ जिनमे अधिकतर भारतीय भाषाएँ भी शामिल हैं, में हो चुका है।

उनका बहुचर्चित उपन्यास ‘कलिकथा वाया बायपास’ को कैंब्रिज, टुरिन, नैप्लस, हेइदेल्बेर्ग जैसी यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में शामिल है।

विदेशों में उनकी उपस्थिति कुछ इस तरह दर्ज है –


  • भारतीय लेखन का प्रतिनिधित्व, Belles estranges, फ्रांस, 2002
  • भारतीय लेखन में सामूहिक यादों पर संगोष्ठी, ट्यूरिन, इटली 2003 
  • मॉरीशस साहित्य महोत्सव, 2004
  • बर्लिन साहित्य महोत्सव, 2004
  • Calendidonna  2005, उडीन, इटली
  • फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेला 2005, 2006
  • Salon du Livre, पेरिस, 2007
  • ट्यूरिन पुस्तक मेला, 2007
  • Incroci di civilita, वेनिस, 2010

कहानी संग्रह
१) कहानी की तलाश में
२) दूसरी कहानी (‘अ टेल रीटोल्ड’ नाम से पेंगुइन से प्रकाशित)

उपन्यास
१) काली-कथा वाया बायपास 
२) शेष कादंबरी 
३) कोई बात नहीं
४) एक ब्रेक के बाद
५) जानकीदास तेजपाल मैनशन 

सम्पर्क
2/10, सरत बोस रोड, 
गार्डन अपार्टमेंट्स, गुलमोहर, 
कोलकाता – 700 020
मो०: 98301 52000.
ईमेल: alkasaraogi@gmail.com
इस देश में फारेन-रिटर्न्ड होना वरदान है या श्राप है, उसे अब ठीक-ठीक समझ में नहीं आ रहा था। यहाँ हर आदमी विदेशों से आई छोटी-से-छोटी चीज के लिए भी लालायित दिखता है। उसने अपने एक अमेरिकी दोस्त पैट्रिक से सुना था कि दिल्ली की सड़कों पर उसने अपना लाइटर, पेन और घड़ी बेचकर रहने का सारा खर्च निकाल लिया था। पैट्रिक के पीछे जब-तब लोग पड़ जाते थे और पूछते थे कि क्या उसके पास बेचने के लिए फारेन का कुछ सामान है। कस्टम्सवाले एयरपोर्ट पर हर आनेवाले की तरफ भिखमंगों की तरह देखते रहते हैं कि कुछ मिल जाए। अक्सर लोग उनके लिए सिगरेट का पैकेट या एक चाकलेट ले आते हैं ताकि वे लोग परेशान न करें। बाहर से आनेवाला हर शख्स यहाँ के लोगों के लिए जैसे कोई कल्पवृक्ष है। पर अब जब वह यहाँ आकर रह ही गया है, तो लोगों को न जाने क्या परेशानी है। वे जैसे उसे किसी-न-किसी तरह पीटकर उसके अंदर से अमेरिका का भूत निकालना चाहते हैं। उसे ऐसा लगता है कि सिवाय उसके परिवार के हर आदमी चाह रहा है कि वह वापस अमेरिका लौट जाय। हर आदमी जैसे कह रहा है कि उसके लिए यहाँ कोई जगह नहीं हो सकती।

हिन्द मोटर फैक्टरी पहुँचने के लिए पहले दिन उसने हावड़ा स्टेशन से उत्तरपाड़ा स्टेशन की ट्रेन पकड़ी, तो उसे बहुत अजीब सा अनुभव हुआ था। उसे लग रहा था कि हर आदमी उसे ऐसे देख रहा हो जैसे वह कोई अजूबा हो। मुश्किल यह थी कि जयदीप को भी सबलोग ऐसे लग रहे थे जैसे वे उसी के देश के लोग न होकर किसी प्राचीन पिछड़ी हुई सभ्यता से आए हुए लोग हों। कोई बगल से गुजरता या पास खड़ा होता या बैठता, तो जयदीप को उससे एक तरह की बदबू-सी आती। बाद में उसे पता चला था कि यह लोगों की गंध न होकर ट्रेन और स्टेशन की ही गंध है जो सर्वव्यापी है। बार-बार उसे मिशिगन यूनिवर्सिटी की साफ-सुथरी बसों में बैठे गोरे-चिट्टे सजे-धजे लोग याद आते, जो कुछ दूसरी तरह से ही हँसते-बोलते थे। यहाँ तो कोई हँसता, तो उसके गंदे दाँतों को देख जयदीप को घिन आ जाती। बहुत ही कम लोग दिखते, जो पान या तम्बाकू या पान-मसाला न खाते हों। तब उसने सोचा भी नहीं था कि एक दिन ऐसा आएगा कि पान-मसाला खाए बिना उसका दिमाग काम ही नहीं करेगा। अब सोचो तो लगता है कि इस देश में आदमी जिस तरह तनावों में जीता है, उसके पास यही एक सस्ता और समाज द्वारा स्वीकृत साधन है कि वह अपना दिलोदिमाग हल्का कर सके। एडवोकेट बाबू के सामने वह सिगरेट या शराब नहीं पी सकता था, पर बाद के दिनों में पान-मसाला धड़ल्ले से खाने लगा था। दफ्तरों की इमारतों में हर तल्ले की सीढि़यों पर पान-जरदे की थूकी हुई पीक के निशानों की तरफ उसका ध्यान जाना बिलकुल बंद हो गया था।

जयदीप पीछे मुड़कर अपने जीवन को देखे, तो उसके जीवन के ‘हार्ड-ड्राइव’ में क्या-क्या ‘डाटा’ या तथ्य जमा हं? कितनी उदारता बनाम कितना घटियापन? कितना आदर्शवाद बनाम कितनी चालूपंथी या दाँव-पेंच? कितना सच बनाम कितना झूठ को सच बनाने की कला? जयदीप ने उन दिनों ही ‘साइंस-फिक्शन’ यानी वैज्ञानिक कल्पनाओं पर आधारित किताबें पढ़नी शुरू की थीं। उसका जीवन उसे हाँककर जिस पतली गली में ले आया था, उसमें से कहीं कोई रास्ते नहीं फूटते थे दोनों तरफ से उसे चूर करने के लिए जैसे दो रोडरोलर चले आ रहे थे। उसमें से कहीं बचने का रास्ता निकलता था, तो सिर्फ आकाश में उड़कर बच जाने का। यह उड़ान जयदीप को इन काल्पनिक विज्ञान की पुस्तकों से मिल रही थी। जहाँ मौका मिलता, वह आर्थर क्लार्क की ‘रामा-1’, रामा-2 और रामा-3 खोलकर बैठ जाता। तीसरी पूरी होने पर वह वापस पहली कड़ी पढ़ने लग जाता। हिन्द मोटर कम्पनी का ‘सिस्टम्स’ मैनेजर किस योग्यता के बल पर उस पद पर पहुँचा था, यह जयदीप को कभी पता नहीं चला। हिंदुस्तान में शायद योग्यताओं की बिलकुल अलग परिभाषाएँ काम करती हैं। मारवाड़ी होना एक काफी बड़ी योग्यता है, यह उसे पहली बार पता चला। शायद खुद उसके चुनाव के पीछे भी यह योग्यता ज्यादा काम कर रही है, ऐसा सोचकर वह पहले कुछ मायूस हुआ। फिर उसने अपने को याद दिलाया कि पूरे भारतवर्ष में कम्प्यूटर का ज्ञान रखने वाले इने-गिने लोग हैं। उनमें कम-से-कम यह सिस्टम्स मैनेजर अगरवाल हरगिज नहीं है। अगरवाल को नौकरी किसी भी कारण से मिली हो, उसकी और अगरवाल की कोई तुलना किसी हाल में नहीं की जा सकती।

अगरवाल ने पहले दिन ही उसे काम पर आने से रोकना चाहा ‘‘आई.बी. एम कम्पनी ने हमारे यहाँ कम्प्यूटर की मशीन लगाते वक्त ही कह दिया था कि उनके ‘एपटिट्यूड’ टेस्ट को बिना ‘पास’ किए कोई यहाँ काम नहीं करेगा। आपको पहले वह परीक्षा देनी पड़ेगी।” जयदीप का खून उबल पड़ा। ऐसी कोई बात बिड़ला जी ने नौकरी देते वक्त नहीं कही थी। वह क्या आई बी एम में नौकरी करने आया है कि उनकी योग्यता की परीक्षा दे? शायद अगरवाल जैसे-तैसे वह परीक्षा पास करके ही यहाँ मैनेजर बना बैठा है और अस्सी लोगों की टीम पर हुक्म चला रहा है। इस देश में कुछ भी हो सकता है। यहाँ तक कि आप किसी और को अपने नाम से परीक्षा में बैठा सकते हैं। ‘‘आप जिस ‘यूनिकोड’ भाषा का कम्प्यूटर में इस्तेमाल कर रहें हैं, वह अब अमेरिका में पढ़ाई नहीं जाती। मैने तो सिर्फ उसे इसलिए अपने-आप पढ़ा है ताकि यहाँ काम कर सकूँ”- जयदीप ने जानबूझकर अपना लहजा अमेरिकन अंग्रेजी का बना लिया- ‘‘आप जिस कम्प्यूटर का यहाँ इस्तेमाल कर रहे हैं, वह आई.बी.एम ने पाँच साल पहले यानी 1966 में बनाना ही बंद कर दिया था।” अगरवाल उसकी बातों और फकाफक अंग्रेजी बोलने से कुछ सकपका गया। उसके बाद उसने उस परीक्षा की कोई बात नहीं की। जयदीप को आज तक नहीं मालूम कि आई.बी.एम ने ऐसी कोई शर्त रखी थी या यह अगरवाल के दिमाग की खुराफात थी। इसके पीछे घुरघुर का भी हाथ हो, ऐसी पूरी संभावना थी। अगरवाल ने उसे कुछ दिन लाइब्रेरी में बैठने और फाइलों को देखने के काम पर लगा दिया था। ऑफिस में बैठने के लिए उसे कोई कुर्सी टेबल नहीं दिया गया था। अपने लिए चेम्बर की तो उसे कोई सपने में भी गुंजाइश नहीं दिख रही थी। कम्प्यूटर की लाइबेरी में पंखा नहीं था और एयर-कंडीशन जाने कब से खराब पड़ा था। वह एक महीने तक प्रायः हर दिन सुबह-शाम एयर-कंडीशन ठीक करवाने की पेशकश करता रहा। तब तक वह समझ नहीं पाया था कि ऐसा भी हो सकता है कि कोई जानबूझकर उसे तंग करने के लिए ऐसा कर रहा हो। उसे यही लग रहा था कि आजादी के तेईस साल बाद भी देश में इतने इंजीनियर नहीं हुए हं कि छोटी-मोटी मशीनों की मरम्मत सही ढंग से हो सके। उसे इस बात पर निराशा जरूर थी। पर गुस्सा नहीं था। जब उसने अमेरीका की सुविधाओं को छोड़कर इस देश में रहने का फैसला कर ही डाला था, तो जो हो, उसे सहना था। सहना ही नहीं, बदलना भी था। मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी में विभिन्न विभागों में तकरीबन तीन सौ भारतीय विद्यार्थी थे, पर उसकी जानकारी में उसके अलावा सिर्फ दो ही और थे, जो भारत लौटे थे। जयदीप को यह सिद्ध करना है कि उसने जो किया वही सही था। आखिर हम आजादी के समय पैदा होने वाली भारत की पहली जवान पीढ़ी हैं। हम ने बाहर की दुनिया देखी है। हम ही भारत को नहीं बदलेंगे तो कौन बदलेगा?

बिना एयरकंडीशन वाली सिस्टम्स लाइबे्ररी में फाइलों के बीच घिरा जयदीप हँस पड़ा। उसने अपने रूमाल से माथे पर आया पसीना पोंछ डाला। वह जो कुछ सोच रहा है, पूरा का पूरा उधार का सोच है। उसके साथ ही भारत लौटे दीपंकर सेन ने जब ये सारी बातें मिशिगन में भारतीय संस्कृति समूह द्वारा आयोजित विदाई समारोह में कही थीं, तो जयदीप के साथ-साथ सबके चेहरों पर एक व्यंग्य भरी हँसी उग आई थी। बाकी लोगों को लौटना नहीं था- उन्हें यह आदर्शवाद निरा थोथा लग रहा था। जयदीप की हँसी के पीछे उसका जाना हुआ यथार्थ था। उसे मालूम था कि दीपंकर सेन एक जाने-माने वैज्ञानिक का बेटा है। उसके लिए दिल्ली के विज्ञान भवन से लेकर देश के किसी भी आईआईटी में नौकरी तैयार है। मुश्किल तो उस जैसे को होनेवाली थी, जो कलकत्ता के नक्सल आंदोलन के कारण रोज बंद होते कारखानों और बोरिया-बिस्तर समेटकर भागती कम्पनी के छोड़े हुए ऊसर में फसल उगाने पर मजबूर था। उसका आदर्श सिर्फ एक बेटा होने तक सीमित था। देश की बात तो दीपंकर ही कर सकता था।

उसका अनुमान बिलकुल सही निकला था। दीपंकर सेन को आई.आई.टी दिल्ली में आते ही नौकरी मिल गई थी और वह माइक्रोचिप्स पर लिखे गए अपने रिसर्च पेपर के कारण पूरे देश के इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग विभागों के सेमिनार में बुलाया जाने लगा था। कलकत्ते के टालीगंज में अपने पुश्तैनी मकान में उसने पिछले दिनों कलकत्ता आने पर उसे खाने के लिए बुलाया था। जयदीप ने जानबूझकर उसे हिन्द मोटर कम्पनी के अपने अनुभवों के बारे में कुछ नहीं बताया था। बल्कि उसने कहा था कि वह वहां के सिस्टम्स डिपार्टमेंट को ‘आरगेनाइज’ कर रहा है और देश की सबसे ज्यादा बिकनेवाली गाड़ी की कम्पनी के साथ जुड़कर बहुत गौरव का अनुभव कर रहा है।

दीपंकर के घर पर उसका एक मित्र विजेन राव उसे मिला था, जो दीपंकर के साथ आईआईटी खड़गपुर में था। विजेन उर्फ विज्जू की बातों से जयदीप बहुत हैरान हुआ था, खासकर यह सुनकर कि उन जैसों का अमरीका जाना एक बड़ी योजना का हिस्सा था। भला एक व्यक्तिगत निर्णय, जिसमें कोई आपको सलाह-मशविरा तक न दे रहा हो, किसी दूसरे की योजना कैसे हो सकती है? ‘‘अमेरिका ने आजादी के दस साल बाद पी.एल-480 नाम का गेहूँ भारत को डालर की बजाए रुपये लेकर दिया था। उस रुपये को अमेरिका ने कृषि विश्वविद्यालय बनाने में भारत में ही लगा दिया। वहाँ से पढ़नेवाले आगे रिसर्च के लिए अमेरिका की स्कालरशिप पर जाने लगे। इस तरह अमेरिका भारत में खाद, बीज आदि उत्पादों के लिए अपना बाजार बनाने की शुरुआत कर रहा था। तुम सब लोग जो अमेरिकी यूनिवर्सिटी में इंजीनियरिंग या डाक्टरी पढ़ने गए, ये सब उसी योजना के हिस्से थे”- विज्जू की बातें बिल्कुल बेबुनियाद नहीं लग रही थीं, ‘‘अच्छा बताओ, तुम्हारे यहाँ अमेरिका की ‘स्पैन’ मैगजीन आती है या नहीं?”- विज्जू ने पूछा था। जयदीप ने हामी भरते हुए सोचा- तो क्या अमेरिका हर आनेवाले विद्यार्थी के अते-पते अपनी जानकारी में रखता है? ‘‘बिल्कुल। तुम जाने-अनजाने अमेरिकी चीजों और जीने के तरीकों को चाहने लगते हो। एक दिन तुम्हारी सब बातें, तुम्हारे शब्द, तुम्हारी भाशा, तुम्हारे त्योहार, तुम्हारे घर की सब चीजों अमेरिका की होंगी”- विज्जू ने कहा था।

जयदीप का माथा कुछ भन्ना गया था। बेचारे एडवोकेट बाबू ने किस मुसीबत से उसे अमेरिका भेजा था। उतनी ही मुश्किलों से उसे अमेरिका द्वारा हजम किए जाने से बचाकर वापस बुलाया। आनेवाले समय में शायद एडवोकेट बाबू जैसे पिता ऐसा कर नहीं पाएँगे। विज्जू के जाने के बाद जयदीप ने दीपंकर की ओर देखा था कि वह कुछ कहे। आश्चर्य की बात थी कि अमेरिका में रहते हुए तो दीपंकर हर समय अमेरिकी कल्चर का मजाक बनाता था। पर आज एकदम गूंगा बनकर बैठा रहा था। ‘‘मैं ‘अपोलिटिकल’ आदमी हूँ”- दीपंकर ने कहा- ‘‘मैं किसी तरह की राजनीति में नहीं हूँ। न मं किसी के पक्ष में हूँ, न विपक्ष में। हम वैज्ञानिक हैं। हमारा काम प्रकृति को बांधकर आदमी के जीवन को सुगम बनाना है। विज्जू की सुनोगे तो चकरा जाओगे। वह अमेरिका को नव-साम्राज्यवादी देश मानता है। कम्युनिस्टों के हिसाब से हर कोई अमेरिका से पैसे खाकर यहाँ पर सी.आई.ए. का एजेंट बना हुआ है। मुझे इन सब बातों से कोई लेना-देना नहीं है। विज्जू सौ प्रतिशत सही हो या सौ प्रतिशत गलत, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।”

बिना पंखे और एयरकंडीशन की लाइब्रेरी में चार सौ फाइलों को एक महीने तक पढ़कर जयदीप ने तीस पन्नों की रिपोर्ट तैयार कर डाली थी। वाकई आदमी को ईमानदारी और मेहनत से काम करने के अलावा कुछ और सोचने की जरूरत नहीं है। अपनी भूलां ओर कमियां की रिपोर्ट सीधे बिड़लाजी तक पहुँचने की आशंका से सारा डिपार्टमेंट हिल गया था। उनका यह अंदाजा कि अमेरिका से पढ़कर लौटा यह चिकना लड़का गर्मी से घबराकर दो-चार दिन में ही हार मान लेगा, गलत निकला था। जयदीप को सिस्टम्स डिपार्टमेंट के एक आदमी ने हिंदमोटर के लिए ट्रेन पकड़ते वक्त यह सब बताया। उसकी बातें सुनकर जयदीप सोचता रहा कि अब उसे दुश्मनों के साथ कुछ दादागिरी करनी होगी। उसी दिन उसने फाइनेंस मैनेजर को उसके चेम्बर में बिना इजाजत घुसकर अमेरिकी लहजे की अंग्रेजी में आदेश दिया था कि उसके लिए विभाग में एक नई टेबुल कुर्सी की व्यवस्था किस जगह पर की जाएगी। उसने देखा था कि यहाँ इस देश में ऐसी अंग्रेजी बोलते ही सामनेवाला हार जाता है। उसकी अंग्रेजी को पूरी तरह समझ नहीं पाने के कारण लोग हर बात पर हामी भर लेते हैं। जयदीप ने उसी अंदाज से बात करते हुए चार पंक्तियों का एक ‘नोट’ बनाकर उसे थमा दिया था जिसमें लिखा था कि विभाग के कौन-कौन लोग सीधे उसे रपट करेंगे। इस तरह उसने अपने नीचे साठ लोगों को ले लिया था। बाद में यह नोट उसने नोटिस बोर्ड पर खुद चिपका दिया था। देखो कि अमेरिका रिटर्न्ड चिकना लड़का यहाँ कैसे टिकता है!

जयदीप की फितरत नहीं थी कि वह अपनी बात को इस तरह मनमानी के तौर पर चलाए। आज तक उसने एडवोकेट बाबू से कोई जिरह तक नहीं की थी कि उसके जीवन के फैसले उससे बिना पूछे क्यों लिये गए। न ही उसने स्कूल, विश्वविद्यालय या अमेरिका में कभी किसी को कुछ करने का आदेश दिया था। पर उस दिन उस पर जैसे कोई भूत सवार हो गया था। यह सिस्टम ऐसे ही बदलेगा। उसे मन-ही-मन आश्चर्य भी हुआ जब फाइनेंस मैनेजर ने उसकी सारी बातें मान लीं। क्या इस देश में लोग इसी तरह बातें मानने के आदी हैं? क्या अंग्रेजी बोलकर इनसे कुछ भी करवाया जा सकता है? शायद उनलोगों ने समझ लिया था कि यदि वह एक महीने गर्मी में मरकर रिपोर्ट तैयार कर सकता है, तो वह टूटने-बिखरने वाला इंसान नहीं है। या हो सकता है कि उन्हें लगा हो कि बिड़लाजी तक उसकी सीधी पहुँच है। वह जो कह रहा है, उसे न मानने पर उनकी शिकायत ऊपर तक जा सकती है। न जाने क्या कारण था, पर उसे दो पाँव टिकाने भर की जमीन उस देश में मिल गर्द थी। या कम-से-कम उस समय तो उसे ऐसा ही लगा था।

लोगों की आँखों में जयदीप को कभी अदब का भाव नजर आता था तो कभी धीरज से भरी हिकारत का। छह महीने बाद जब उसने कहा कि शेयरहोल्डर के हिस्से और वितरण की प्रणाली का जो काम वे लोग कम्प्यूटर पर करने में चार से छह घंटे लगाते हैं, उसे वह बीस मिनट में कर सकता है, तो मीटिंग में सन्नाटा छा गया था। घुरघुर के अंदर की घुरघुराहट बंद हो गई थी। उसने सामान्य बोली में लगभग फुसफुसाकर कहा था- ‘‘तो आपको लगता है कि अभी तक यहाँ आराम हो रहा था, काम नहीं!” ‘‘दिस इस नाट द पांइट सर”- जयदीप तुरन्त अमेरिकी लहजे की अंग्रेजी की शरण में चला गया था- ‘‘मुद्दा यह है कि आप परिवर्तन चाहते हैं या नहीं? हम दो सौ स्क्वायर फीट जगह को घेरकर पन्द्रह के.वी. पावर खानेवाली इस पुराने मॉडल के कम्प्यूटर पर तीन सौ रुपए प्रति घंटे खर्च करते हैं। आप तीन शिफ्ट में जितना काम इस कम्प्यूटर से करवा रहे हं, मैं उतना ही काम दो शिफ्ट में करवा सकता हूँ।” घुरघुर के पास उसे शाबासी देने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। चारों ओर से जो आवाजें उनके कान तक पहुँच रही थीं, उनमें ‘कर के देखना तो चाहिए ही’, ‘वाह क्या बात है’- जैसे जुमले थे।

जयदीप फूला नहीं समा रहा था। मीटिंग से बाहर निकलते हुए घुरघुर ने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा कि उसे कम्पनी के वाइस पे्रसिडेंट ने मिलने के लिए बुलाया है। आ गए ना बच्चू तुम हमारे वश में। अमेरिका से पढ़कर आया हुआ आदमी यहाँ किस तरह काम कर सकता है, समझ में आया तुम्हें?- जयदीप मन-ही-मन घुरघुर से बात करता आगे बढ़ गया था।

धीरे-धीरे हिन्द मोटर कम्पनी की बातें उसे पता चलने लगी थीं क्योंकि कम्पनी में काम करनेवाले अधिकतर युवा लोग उससे किसी-न-किसी बहाने से बात करने लगे थे। कई तो हावड़ा स्टेशन से हिन्दमोटर की ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पर उसका इंतजार करने लगे थे। जादवपुर विश्वविद्यालय से ही उससे दो साल सीनियर रहकर मैकेनिकल इंजीनियरिंग किए हुए जयंत सेन से उसे पता चला था कि विदेश से पढ़कर आए इंजीनियरों की तनख्वाह वहाँ सात-आठ सौ रुपये से अधिक नहीं, पर गोरी चमड़ीवाले अमेरिका ‘जेसमोर’ को पचीस हजार रुपए की तनख्वाह मिलती है। जयंत सेन का भी कहना था कि जेसमोर अमेरिका में किसी मोटर कम्पनी में मामूली वर्कर्स सुपरिंटंडेंट था। उसकी योग्यता सिर्फ उसका गोरा साहब होना है। ‘‘तुम्हें भी बड़े बाबू ने इसीलिए रख लिया होगा क्योंकि तुम फिरंगियों की तरह ही गोरे हो”- जयंत की बात सुन जयदीप का मन कड़वाहट से भर गया था। ‘बड़े बाबू’ यानी सीनियर बिड़लाजी! तो क्या जयंत को पता है कि उसका एपायंटमेंट कहां से हुआ है। और क्या वह सोच रहा है कि उसकी तनख्वाह भी जेसमोर जैसी है?
जादवपुर के दिनों से ही उसे मालूम है कि बंगाली दोस्त बनते हैं लेकिन अचानक कुछ ऐसा कहते हैं कि आपके पैरों के नीचे की जमीन खिसक जाय। न वे आप पर भरोसा करते हैं और न आप उन पर कर सकते हैं। ‘‘कौन बड़े बाबू जयंत? क्या घुरघुर को तुम बड़े बाबू की कह रहे हो,” जयदीप ने जानबूझकर जयंत के सामने ऐसे दिखाया था जैसे वह समझा न हो। बंगाली ‘बाबू’ का मतलब होता है कोई क्लर्क जैसा आदमी, जिसके हाथ में इतनी ताकत होती है कि आपका कोई भी काम अटका सके या कभी होने ही न दे। बिड़ला लोगों को उनके सारे खिदमतगार ‘बाबू’ कहते हं, चाहे वे उनके सबसे सीनियर लोग क्यों न हों। यहां ‘बाबू’ का मतलब है ‘बास’, जो आपसे कई दरजे ऊँचा इन्सान है।

‘‘अरे तुम बुरा मान गए?”- जयंत ने भाँप लिया था कि जयदीप को अच्छा नहीं लगा है- ‘‘मुझे पता है कि तुम जहाँ से गुजरते हो, लोग बात करना बंद कर देते हैं। बिना इंटरव्यू के जाब मिलने पर ऐसा ही होता है बंधु। घुरघुर तुमसे नफरत क्यों करता है, सारा ऑफिस जानता है। हर रोज उसे लगता है कि तुम आज ‘बिड़ला पार्क’ में बाबू के दाढ़ी बनाते समय उनके सामने बैठ कर आए होगे।” जयदीप जयंत के साथ ठहाका लगाकर हँस पड़ा। ‘‘जबकि सच यह है जयंत कि अगर बिड़लाजी खुद मुझे चाय पर बुलाने के लिए फोन करें, तो भी मैं न जाऊँ। एक मेरा बाप यानी एडवोकेट बाबू ही बहुत है मेरे लिए, जिसके सामने मैं साँस भी गिन-गिन कर लेता हूँ। तुम्हारी तो बड़े बाबू से मुलाकात होती रहती है। बताओ, तुम उनके सामने साँस ले पाते हो?” जयदीप की बातों से जयंत खुल गया था- ‘‘अरे तुम सच पूछो, तो बाबुओं को खाली प्राफिट से मतलब है। मैंने सुना है कि रात को नींद खुलने पर साढ़े बारह बजे हों या रात के दो बजे हों फैक्टरी में फोन कर के बड़े बाबू पूछते हैं कि कितनी गाडि़याँ असेंम्बली लाइन से निकलीं। एक गाड़ी भी कम निकल जाय, तो उनका ‘मूड’ बिगड़ सकता है। इसलिए हमारा डिपार्टमेंट करता क्या है जानते हो? प्रोडक्शन को हमेशा कम कर के बताता है ताकि किसी दिन कम हो, तो पिछले को जोड़कर बता दिया जाय। ‘रिस आक्सफोर्ड’ गाड़ी के बीस साल पुराने मॉडल पर गाड़ी बना रहे हैं और नाटक ऐसा कि हमारी अपनी देसी गाड़ी हो। वहाँ कब का यह मॉडल पिट गया, पर ये कम-से-कम तीस चालीस साल इसी मॉडल को जरा-सा हेर-फेर कर के चलाएगें जब तक पब्लिक उसे खरीदना न बंद कर दे।”
Flipkart: Install the Best App

जयदीप को मालूम है कि खुद एडवोकेट बाबू ने जब पहली एम्बेसेडर गाड़ी खरीदी, तो उन्हें छह महीने इंतजार करना पड़ा था। गाड़ी का दाम शायद तब बीस हजार रुपये था, पर जल्दी लेने के लिए दो हजार ‘प्रीमियम’ या ज्यादा पैसा देना पड़ता। बिड़लाजी के पास सालाना तीस हजार गाडि़याँ बनाने का लाइसेंस है, जबकि गाड़ी की माँग बहुत ज्यादा है। गाड़ी के ‘डीलर’ इसीलिए प्रीमियम वसूल कर पाते हैं। खुद बिड़लाजी की मौज है क्योंकि कोई मौजूद नहीं है जो उन्हें टक्कर दे सके। अमेरिका में फोर्ड मुस्टांग चलाकर अब एम्बेसेडर को चलाना ऐसा है जैसे कोई ट्रक चला रहा हो। ऊपर से कोई भरोसा नही कि कब गाड़ी का ‘एक्सल’ टूट जाय या कि कब ‘गियर बाक्स’ जवाब दे जाय। खुद बिड़लाजी को अपनी कम्पनी की गाड़ी पर भरोसा नहीं है, इसीलिए इम्पोर्टेड स्टूडीबेकर में बैठते हैं। यह बात तो उसे अब मालूम हुई है, जब वह खुद इस कम्पनी में आया है।

अरे, क्या मैं वाकई अमेरिका का ‘इटेंलेक्चुअल काम्परेडोर’ बन गया हूं जो इस तरह सोच रहा हूँ?- जयदीप को दीपंकर का दोस्त विज्जू याद आ गया था। विज्जू ने कहा था कि अमेरिकी यूनिवर्सिटी इसी मकसद से भारतीय विद्यार्थियों को स्कालरशिप देकर बुलाती है। अब जब वह यहाँ वापस आ ही गया है, तो क्या उसका या उसकी पीढ़ी के इंजीनियरों का यह कर्तव्य नहीं है कि हम अपनी चीजों को दुनिया की टक्कर का बनाएँ? जयंत सेन के चेहरे पर विद्रूप भरी हँसी आ गई थी- ‘‘बड़े बाबू हर महीने प्रोडक्शन रूम आते हैं जहाँ एम्बेसेडर के हर पार्ट अलग-अलग चारों तरफ रखे हुए हैं। हर पार्ट के साथ लिखा हुआ है कि वह इम्पोर्ट होता है या यहाँ बनता है। जाहिराना तौर पर धीरे-धीरे गाड़ी को पूरी स्वदेशी बनाना है, पर उसके पीछे यह मत समझना कि कोई आदर्श-वादर्श का मामला है। सरकार ने इम्पोर्ट पर रोक लगाकर इन्हें मजबूर कर दिया है कि गाड़ी के सारे-के-सारे पार्ट्स यहीं बनाओ। गाड़ी अच्छी बने या नहीं, इससे न सरकार को मतलब है न कम्पनी को। प्रोडक्शन डिपार्टमेंट की भी चांदी है। जो रुपया खिलाएगा, उसी फैक्टरी या वर्कशाप का माल सही बताकर खरीद करवा देंगे। बाद में गाड़ी खरीदनेवाला रोएगा या किसी वर्कशाप के चक्कर लगाता रहेगा।”

जयदीप का मन मर गया। उसके दोस्त वहाँ अमेरिका में कम-से-कम पन्द्रह हजार की नौकरियाँ कर रहे हैं और यहाँ चौदह सौ की तनख्वाह में वह क्या इसलिए पड़ा है कि एक पुराने मॉडल की घटिया गाड़ी बनानेवाली फैक्टरी में पुराने मॉडल का कम्प्यूटर पुराने तरीकों से चलाता रहे? दुनिया कहाँ आगे जा रही है, इस देश में किसी को जानना ही नहीं है। सरकार ने एक तरफ विदेशों से तकनीक का आयात कम करने के चक्कर में घटिया माल गाडि़यों में इस्तेमाल करने के लिए कम्पनी को मजबूर कर दिया है। दूसरी तरफ गाड़ी का दाम ही नहीं, डीलर की कमीशन भी सरकार ही तय कर रही है कोई भी कम्पनी ऐसे माहौल में ऐसे माहौल में बढि़या माल या किसी गाड़ी का नया माडॅल बनाने की कोशिश क्यों करेगी?

फँस गए तुम जयदीप। तुम ही नहीं, इस देश में हर आदमी फँसा है। प्रिवी पर्स खत्म कर और बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर इंदिरा गांधी ‘गरीबी हटाओ’ का नारा लगाकर वोट बटोर रही है। गरीबी तो जाने हटेगी या नहीं, पर दुनिया की टक्कर का सामान बनाने का सपना तो सबको भूल ही जाना चाहिए। हर आदमी इसी फिराक में लगा हुआ है कि कैसे वह ज्यादा-से-ज्यादा पैसा कमा ले। इससे ज्यादा इस देश में कोई कुछ सोच ही नहीं पाता। पूर्वी पाकिस्तान में आजादी के लिए लड़ाई चल रही है। लाखों लोग सीमा में इस पार आ गए हैं। कलकत्ता शहर में ट्रेड यूनियनों ने पहले ही कोई कम मुसीबतें नहीं खड़ी कर रखी थीं। अब रिफ्यूजी आकर रही-सही कसर पूरी कर रहे हैं। पर हर युद्ध में कुछ लोग पैसे जरूर कमाते हैं। हिन्दमोटर कम्पनी के पास बेडफोर्ड ट्रक के आर्डर आए हैं। कारखाने की भारी ‘प्रेसिंग’ मशीन को एम्बेडेसर गाड़ी बनाने से फुरसत नहीं है, ट्रक कैसे बनेंगे? एक ही उपाय है कि लोहारों के यहाँ ठोंक-पीट कर ट्रक तैयार करवाए जाएँ। पर कम्पनी बदनामी के डर से यह काम बाहर नहीं करवा सकती। इसलिए कम्पनी के अंदर ही यह काम करवाया जा रहा है। मुनाफे का कोई मौका छूटना नहीं चाहिए- यही मानो मूलमंत्र है इस देश का।

जयदीप ने वाइस प्रेसिडेंट के चेम्बर में घुसते हुए निश्चय किया कि वह इन सब बातों पर कुछ नहीं सोचेगा। देश जाए भाड़ में उसकी बला से। जिस देश में एक नया टेलिफोन कनेक्शन लेने में दस साल लग जाते हैं, और आने के बाद भी वह काम नहीं करता, उस देश में रहना है, तो ऐसे ही रहना होगा। अपने बूते पर जो कुछ वह कर सकेगा, उतना जरूर करेगा। इनके कम्प्यूटर को तीन शिफ्ट से दो शिफ्ट पर लाकर दिखाएगा।

जयदीप ने अपनी राजेश खन्ना वाली मुस्कान चेहरे पर लाकर हल्की सी गरदन टेढ़ी कर वाइस प्रेसिडेंट की तरफ देखा। जवाब में उसे एक पथरीला चेहरा देखा, जो कभी जीवन में शायद ही मुस्कुराया हो। ‘‘देखिए, मिस्टर जयदीप गुप्ता! हर कम्पनी के कुछ तौर-तरीके, उसूल होते हं। बेशक आप अमेरिका से पढ़कर आए हैं, पर हमें अनुशासन में रहकर ही तरक्की कर सकते हैं। देखिए मिसेज गांधी ने पाकिस्तान को किस तरह पन्द्रह दिनों में उसकी औकात बता दी”- वाइस प्रेसिडेंट की बातों का सिर-पैर जयदीप के समझ में नहीं आ रहा था।

‘‘सर, मैंने कम्पनी का क्या कोई नियम अनजाने में तोड़ दिया है? प्लीज़ मुझे बताइए कि अगर मैं तीन शिफ्ट की जगह दो शिफ्ट में काम करवाकर कम्पनी का फायदा करवाना चाहता हूँ तो क्या मैं गलत हूँ ? आप कह सकते हैं कि मुझे मीटिंग में यह बात न बोलकर अलग से कहनी चाहिए थी। पर सर, जब बात कम्पनी के फायदे की हो, तो वह कहीं भी बोली जानी चाहिए। अगर बाबू भी सामने होते, तो मैं कह देता। आय एम सारी, पर मैं इसे अनुशासन तोड़ना नहीं मान सकता “- जयदीप का चेहरा लाल हो गया था और उसकी साँसें तेज चल रही थीं। ‘‘आपकी पीढ़ी की यही समस्या है, मिस्टर गुप्ता। आपलोग बिना पूरी बात सुने अपनी बात कहने लगते हैं। आपके सुझाव पर हमें भला क्या आपत्ति हो सकती है? मगर आप ट्रेड यूनियनों के मजदूरों की तरह बात-बात पर आपे से बाहर होकर नारे लगाएंगे तो इससे क्या कम्पनी को फायदा होगा?” वाइस प्रेसिडेंट की बातों से जयदीप का सर चकरा रहा था। या तो यह आदमी पागल है या वह पागल हो जाएगा। मन तो उसका सचमुच हो रहा था कि शहर में जगह-जगह नारे लगाते जुलूसों की तरह चिल्ला-चिल्ला कर कहे- ‘गली- गली में शोर है, हमारा वी.पी. चोर है। नहीं चोर नहीं, पागल है’। पर वह बुत बना वाइस प्रेसिडेंट की ओर देखता रहा। ‘‘हमारे यहाँ हमेशा से चाय काँच के गिलास में पिलाई जाती है। अब आप अगर हल्ला मचाएँगे कि मेरे लिए कप में चाय लाओ, तो इससे आप जानते हैं क्या होगा?”- अब जाकर जयदीप को मामला समझ में आया। कहाँ तो वह सोच रहा था कि वी.पी. उसे एक शिफ्ट के पैसे बचाने के लिए शाबासी देने बुला रहा है और कहाँ दो-पाँच रुपए के एक कप के लिए उसे लताड़ रहा है। जयदीप का चेहरा तमतमा गया। चाहे दुनिया रसातल में चली जाए, वह यह बेहूदगी नहीं बरदाश्त कर सकता। ‘‘हां, मैं जानता हूं कि कप में चाय माँगने से क्या होगा” -उसने बिल्कुल धीमी आवाज में फुसफुसाकर कहा जैसे कोई रहस्य की बात बतानेवाला हो- ‘‘हो सकता है कि चीन और अमेरिका मिलकर पाकिस्तान के दो टुकड़े होने से बचाने के लिए इंडिया पर हमला कर दें।” वी.पी. के चेहरे पर आई हैरत या गुस्से को देखे बिना जयदीप उठकर बाहर निकल गया।

जयदीप सीधे स्टेशन की तरफ चल पड़ा कि ट्रेन पकड़कर कलकत्ता चला जाय। ये लोग उसे टिकने नहीं देंगे। शायद उसे यह बात समझ लेनी चाहिए। स्टेशन पर आकर पता चला कि रेल लाइन पर किसी ने कटकर आत्महत्या कर ली है, इसलिए ट्रेनों का आवागमन बंद है। आज उसे जीवन में पहली बार समझ में आ रहा था कि कोई आदमी इस तरह जीवन से मायूस होकर अपनी जान कैसे दे सकता है। वह स्टेशन में बेंच पर बैठ गया और अपना लैटरपैड निकालकर अपना त्यागपत्र लिखने लगा। अचानक उसने देखा कि जयंत सेन दौड़ता हुआ उसकी तरफ आ रहा है। जयदीप को आश्चर्य हुआ कि क्या जयंत को सब बातों का पता चल गया है। जयंत हाँफता हुआ आकर बगल में बेंच पर बैठ गया। ‘‘मुझे किसी तरह घर पहुँचना होगा। मेरे काका ने पंखे से लटककर फाँसी लगा ली है। स्टेशन पर आया तो पता चला कि यहाँ भी कोई रेल लाइन पर कटकर मर गया है। उफ्, उसे भी आज ही मरना था।” जयंत की बात सुन जयदीप हतप्रभ हो गया। वाकई हर आदमी सिर्फ अपने सुख-दुख के बारे में सोच पाता है। कैसी अजीब मारकाट की दुनिया बन गई है। ‘‘तुम्हारे काका ने ऐसा क्यों किया”- जयदीप ने पूछा।

‘‘अरे क्या बताऊँ, काका पूर्वी पाकिस्तान से अपने बेटे को लेकर चले आए। थोड़ा बहुत सोना कपड़ों में छिपाकर लाए थे। उसी को बेच-बाचकर काम चला रहे थे। हमने घर के पिछवाड़े में एक कोठरी उनको रहने के लिए दे दी थी। साथ में खाना खिला रहे थे। इससे ज्यादा हम भी क्या करते? मानिकतला में हमारा पुश्तैनी घर काफी बड़ा है। पर पिछली तीन पीढि़यों में बँटते-बँटते अब सबके पास एक या दो कमरे ही हाथ आए हैं”- जयंत सेन ऐसे बता रहा था जैसे अपना अपराध-बोध कम करने के लिए सफाई दे रहा हो- ‘‘काका काकी और अपने बेटे की पत्नी को एक बचपन के मुसलमान दोस्त के घर रखवाकर आए थे। बाकी सोना जमीन के नीचे दबाकर आए थे कि वापस तो जाना ही है। बेटे को लेकर इसलिए आना पड़ा था कि वहाँ जमीन को लेकर मुसलमान पड़ोसी से बहुत झगड़ा चल रहा था। उन्हें डर था कि युद्ध की आड़ लेकर कहीं उसकी हत्या न करवा दी जाय। जबसे आए थे, रोज बाप-बेटा सारी रात झगड़ते थे। फिर लड़का बुरी तरह रोने लगता। रात के सन्नाटे में रोज उसका रोना सुनता। उसे लगता था कि उसकी पत्नी को उनका मुसलमान दोस्त कभी वापस नहीं लौटाएगा। बेचारे की नई-नई शादी हुई थी-” जयंत का गला भर्रा गया और वह चुप हो गया।
Flipkart: Install the Best App

जयदीप सुन्न सा बैठा रहा। उसका मन नहीं हुआ कि सांत्वना के दो शब्द जयंत को बोले। न ही जयंत को अपने मन की बात बताने का अभी सही वक्त था। सब अपने-अपने नरक में अकेले ही रह सकते हैं। जितना गुस्सा, आक्रोश, नफरत आदमी अपने अंदर दबाए रखने के लिए मजबूर है उसे निकालने से तो विस्फोट हो जाएगा। अच्छा होता कि वह सबको उसी तरह की बातें बोलता जैसी सुनना उन्हें पसंद है। कितना आसान जीवन जिया जा सकता था सबकी मिजाजपुरसी करके। एक तरफ उसकी एक मनचाही पढ़ी-लिखी इंजीनियर लड़की के साथ सगाई पक्की हो रही है और दूसरी तरफ वह त्यागपत्र लिख रहा है। वह जानता है कि सगाई पक्की होने के पीछे भी बिड़ला में नौकरी की भूमिका है। नौकरी छूटने से एडवोकेट बाबू का डर और उनके मित्र का डर जिनकी बदौलत यह नौकरी मिली थी- सब उससे नाराज हो जाएंगे। कोई यह नहीं समझेगा कि किस तरह उसने यहाँ एक साल निकाला है। काश वह कभी अमेरिका गया ही नहीं होता। तब शायद वह इस तरह के अपमान को सह पाता और हर हालत में इसी नौकरी पर टिका रहता। जो फायदा वह कम्पनी को करवा रहा था, उसके लिए शाबासी के दो शब्द तो दूर की बात है। एक चाय के कप के लिए इस तरह उसे जलील किया जा रहा है।

सारी दुनिया इसी तर्ज पर चलती है। आदमी आदमी का खून पीना चाहता है। अमेरिका वियतनाम को मार रहा है। पाकिस्तान अपने ही धर्म के बंगाली भाइबन्दों को। नक्सली पुलिस को, पुलिस नक्सलियों को। कोई किसी को जीने नहीं दे सकता। हर आदमी दूसरे का हक मारना चाहता है। तभी लोग जीवन से इतना घबड़ा जाते हैं कि आत्महत्या ही आसान रास्ता लगता है। एडवोकेट बाबू और माँ क्या जानते हैं इस दुनिया के बारे में? सारे परिवार भाई-बहन-रिश्तेदार-दोस्त- सबको यही लगता है कि जयदीप बड़ी जीत में हैं। अमेरिका में पढ़ने का मौका आखिर कितने लोगों को मिलता है? उन्हें यह नहीं मालूम कि अमेरिका ने उससे उसका देश छीन लिया है। वह कहीं और का नहीं हो सकता। होना भी नहीं चाहता। पर ये सारे लोग उसे यहाँ का मान नहीं पाते। उसे जाने क्यों वहीं वापस भेज देना चाहते हैं- हर कदम पर उसके लिए कांटे बिछाना चाहते हैं।

जयदीप ने जयंत सेन की ओर देखा। जयंत उसकी तरफ प्रश्नों से भरी निगाह से देख रहा था। इस वक्त ट्रेन पकड़ने जयदीप क्यों आया था? ‘‘मैं यहाँ काम छोड़ रहा हूँ। अपनी ‘प्राइवेट कंसलटेन्सी’ चलाऊँगा। किसी के नीचे अब जिंदगी में कभी काम नहीं करूँगा”- जयदीप ने निश्चय भरे स्वर में कहा। अपने ही शब्दों में उसे एक नई राह दिख रही थी और वह फिर जिन्दा हो रहा था। ‘‘त्यागपत्र लिख दिया है”- जयदीप आदतन हल्की सी गरदन टेढ़ी कर मुस्कराया। जयंत का मुँह व्यंग्य से टेढ़ा हो गया। -‘‘तुम्हें शायद मालूम नहीं कि तुम्हारा त्यागपत्र मंजूर नहीं होगा क्योंकि तुम्हें सिर्फ बिड़लाजी छोड़ सकते हैं, जिन्होंने तुम्हें रखवाया था। और किसी की ताकत नहीं कि तुम्हें छोड़ दे। जयदीप तुम्हें अभी यहीं रहना होगा जब तक ऊपर से छुट्टी न मिले।” जयदीप ने ऊपर आकाश की ओर देखा। ‘‘अरे, वह ऊपरवाला नहीं यार”- कहकर जयंत आती हुई ट्रेन पर चढ़ने के लिए खड़ा हो गया- ‘‘वैसे तुम चाहो, तो तुम्हें बिड़लाजी भी नहीं छोड़ पाएँगे। जैसे ही ट्रेड यूनियन को पता चलेगा, वे तुम्हारे पास आकर कहेंगे कि आप चिंता न करें। बिड़ला को हम देख लेंगे। ट्रेड यूनियन के दबाव से बिड़लाजी ने हर किसी को फैक्टरी में नौकरी दे रखी है। हजार लोग कम से कम ऐसे हैं जिनको न कुछ आता है और न वे कुछ करते हैं। तुम चाहो, तो मैं यूनियन लीडर को कह दूँगा।” जयदीप ने गरदन हिलाई- ‘‘नहीं, मैं खुद छोड़ रहा हूँ। और बरदाश्त नहीं होता।”