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किसके पास नहीं हैं द्रोणाचार्य —अशोक चक्रधर | Ashok Chakradhar on Suhash Joshi

चौं रे चम्पू

किसके पास नहीं हैं द्रोणाचार्य

— अशोक चक्रधर


— चौं रे चम्पू! उदैपुर ते सूधौ ई मुंबई चलौ गयौका?


द्रोणाचार्य ने एकलव्य को नहीं बनाया, एकलव्य ने बनाया था द्रोणाचार्य को। उसके पास तो बस एक कल्पना थी द्रोणाचार्य की।
— नहीं चचा, एक दिन के लिए दिल्ली रुका था। ये मुंबई भी अपनी गति से चलने वाली नगरी है। काम आते हैं तो बुलावे आते हैं, तत्काल चले आओ। चले आए। काम भी किए जाएंगे, पर कल शाम एक शानदार व्यक्ति से मुलाकात हुई।

— सानदार कूं सानदार ई मिल्यौ करैं हैं।

— मुझे अपनी तारीफ़ नहीं सुननी चचा! मुझे मिले थे, सुहास जोशी। मुम्बई आता हूं तो जुहू स्थित पृथ्वी थिएटर जाना बहुत अच्छा लगता है। ये जगह नाट्यकर्मियों के लिए ही नहीं, कला प्रेमियों और शास्त्रीय सौंदर्याभिरुचियां रखने वालों के लिए भी बड़े सुकून की जगह है। यहां की प्रकाश-व्यवस्था,अच्छा खाना, बैठने का साफ़सुथरा सलीका लुभाता है। यहां आने वाले लोग नामीगिरामी भी होते है, नवोदित भी। कोई हाय तौबा नहीं, सब धीमी आवाज़ में बतियाते हैं। ग्लैमर को वहां कोई परेशानी नहीं होती। क्रिएटिविटी यहां ग्लैमर की रक्षा करती है।रचनात्मक क्षमता रखने वालों के बीच अंतर्संवादहोते हैं। एक बरगद का पेड़ है जिसके तले अनुभवों का लेना-देना होता है। सुहास जोशी उसी पेड़ के नीचे बैठकर अठारह साल से बांसुरी बजा रहे हैं। जब भी यहां आता हूं, मेरा सौभाग्य है कि हर बार मैं उन्हें वहां देखता हूं। कल उनसे पहली बार बात करने का मन हुआ।

— तेरे बारे में पतौ ई उनैं कै तू कबी ऐ?

— नहीं चचा, उन्हें मेरे बारे में कुछ भी नहीं पता था। कुछ बताया भी नहीं। उन्होंने जानना भी नहीं चाहा। अपनी दुनिया में मग्न रहने वाला एक भव्य सा व्यक्तित्व। मूलत: आर्किटैक्ट हैं। लम्बी धवल दाढ़ी। खल्वाट मस्तक। मोटे फ्रेम का चश्मा। आईपैड पर तानपुरे और तबले की संगत। मेरे एक पुराने मित्र ने बताया कि वहां से कुछ लेते या वहां का कुछ खाते नहीं देखा गया उन्हें। शाम को आते हैं, रात को लौटते हैं। कोई बड़ा स्पीकर नहीं लगाते। न लोग उनके बांसुरी बादन पर तालियां बजाते हैं। एक मधुर मद्धम सी बांसुरी की गूंज अब पृथ्वी थिएटर का हिस्सा बन चुकी है। जिस दिन वे नही आते,पृथ्वी थिएटर को बुरा लगता है।

— तेरी का बात भई उन्ते?

— उन्होंने बताया कि पेड़ के नीचे का यही ठिकाना अपना लगता है। मैंने पूछा कि इस पेड़ में कोई ख़ूबी ज़रूर है जो आपको बुलाता रहता है। वे बोले, इस पूरी जगह में ही ख़ूबी है। बैठने के बाद पेड़ तो मुझे दिखता ही नहीं है। पेड़ मुझे देखता रहता है। स्कूल टाइम से थियेटर किया करता था। काफ़ी समय मैंने सोचा कि प्रोफेशन करना है या नाटक करना है। नाटक से पेट नहीं पलता, प्रोफ़ेशन ज़रूरी है। मैंने पूछा कि बांसुरीवादन की तरफ़ झुकाव कैसे हुआ, वे बोले, एक दिन सोलह-सत्रह घंटे काम करने के बाद दिमाग एकदम से खिसक गया कि ये मैं क्या कर रहा हूं! अपना सारा समय प्रोफेशन और फैमिली को दे रहा हूं, अपने लिए कोई समय नहीं। पेन्सिल और स्केल रख दिए एक तरफ़। म्यूजिक सुनने का शौक था, सोचा बांसुरी सीखेंगे। यूजर फ्रेंड्ली वाद्य है। बांसुरी को बगल के थैले में डालकर कहीं भी ले जाओ। मैंने पूछा किसने सिखाई? जवाब देने के स्थान पर उन्होंने मेरे ऊपर ही एक सवाल दागा।

— का सबाल दागौ?

— महाभारत का कौन सा चरित्र सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है? मैंने ज़्यादा दिमाग यह सोचकर नहीं लगाया कि उनके पास कोई निश्चित उत्तर निश्चित रूप से होगा, कह दिया, कृष्ण। वे हंसे, फंस गए न? आउट ऑफ़ द बॉक्स सोचा ही नहीं। कृष्ण! सब लोग यही जवाब देते हैं। मुझे एकलव्य अच्छा लगता है। उसने मुझे, कैसे सीखना है, ये सिखाया है। उसने अपना मार्ग स्वयं बनाया था। द्रोणाचार्य ने एकलव्य को नहीं बनाया, एकलव्य ने बनाया था द्रोणाचार्य को। उसके पास तो बस एक कल्पना थी द्रोणाचार्य की। असली द्रोणाचार्य से कुछ लेना-देना नहीं था उसका। अधिकांश कलाकार एकलव्य हैं और… किसके पास नहीं हैं द्रोणाचार्य! फ़िल्मी गीतों से सीखता हूं, सिर्फ़ बांसुरी वादकों से नहीं, अन्य वादकों और गायकों से सीखता हूं। बांसुरी की तानों में ख़ुद को खोजता हूं। मैंने कहा, अपनी खोज को रोकिए मत सुहास जी, उठाइए बांसुरी।

— फिर?

— फिर क्या? हमारी बातचीत बंद हो गई, वे आंख मूंद कर बांसुरी बजाने लगे।

—अशोक चक्रधर

हिंदी सिखाने में हिंदी फिल्मों की भूमिका — अशोक चक्रधर | Choun re Champoo - Ashok Chakradhar

nakornpathom

चौं रे चम्पू 

बैंकाक क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन

—अशोक चक्रधर


—चौं रे चम्पू! बैंकाक के हिंदी सम्मेलन के बारे में चौं नायं बतावै?  

—आप जानना ही कहां चाहते थे? आपके सवाल तो बैंकाक के दूसरे पक्षों पर ज़्यादा केंद्रित थे। अब क्या बताऊं? तब से अब तक समय-गंगा के घाट से न जाने कितनी घटनाएं बह गईं। तुम्हारे चम्पू को तीन दिन पहले पद्मश्री मिली, उसकी क्यों नहीं पूछते?

—वाकी का पूछैं? बो तौ मिलि गई! सबन्नैं देखि लई, सबन्नैं पतौ चलि गयौ। जो नायं पतौ सो बता, बगीची के लोगन्नैं! बता सम्मेलन में का भयौ?

—आपकी बात भी ठीक है चचा! दरअसल, भारत में जिस तरह हम हिंदी पढ़ाते हैं, उस तरह से विश्व के अन्य हिस्सों में नहीं पढ़ा सकते। हर देश की अपनी अलग-अलग मिजाज़ की भाषा और संस्कृति हैं, जिनकी निजी-विशिष्ट आवश्यकताएं हैं। उनको ध्यान में रखते हुए हिंदी के पाठ्यक्रम और पाठ्य-सामग्री का निर्माण करना होगा और उनके अनुसार ही नई शिक्षण-पद्धतियां ईजाद करनी पड़ेंगी।

—काम कहां होयगौ? भारत में कै बिदेसन में?
दिल्ली में बैठकर निदेशालयों, संस्थानों में (हिंदी सिखाना) नहीं हो सकता। रचनात्मक क्षमता रखने वाले ऐसे विद्वान अध्यापकों को शिक्षण-सामग्री-निर्माण के लिए विदेशों में भेजा जाना चाहिए, जिनमें भाषाई संरचनाओं को समझने और सीखने का माद्दा हो।
—अगर हम भारत में रहकर कार्य नहीं करा सकते तो उन अध्यापकों की सहायता लें जो भारत से भेजे जाते हैं। हर भूखण्ड, उपमहाद्वीप या महाद्वीप के देशों की भाषाएं मिलती-जुलती होती हैं। क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलनों का लाभ यही है कि जिस देश में आयोजित किया जाए, उसके आसपास के देशों के हिंदीकर्मी जुटते हैं और समस्याओं को साझा करते हैं।

—कित्ते देसन के लोग आए हते लल्ला?

—दक्षिण पूर्व एशिया के म्यांमार, मलेशिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर और फिलीपीन्स से लोग आए थे। इन सभी जगहों पर छोटे-बड़े स्तर पर हिंदी पढ़ाई जा रही है। मलेशिया से आए नर्तक श्रीगणेशन ने बताया कि पारम्परिक रूप से तो हिंदी पढ़ाई ही जाती है, लेकिन इधर के वर्षों में हिंदी सिखाने में हिंदी फिल्मों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। भारतीय फ़िल्मों के गीतों, संवादों की मदद से विद्यार्थी बड़ी तेज़ गति से हिंदी सीखते हैं। और यह बात सिर्फ़ उन्हीं की नहीं है चचा! न्यूयॉर्क में अंजना संधीर ने हिंदी फ़िल्मी गीतों के उपयोग से शिक्षण-सामग्री बनाई। वे तो एक ही गीत से तीन काल पढ़ाती थीं, भूत, वर्तमान और भविष्य, ‘सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा’। इसी तरह से कारक-विभक्तियां, संधि, समास, मुहावरे इन सबका शिक्षण प्रो. तोमिओ मिज़ोकामी ने जापान में किया, लोकप्रिय हिंदी गीतों और नाटकों के ज़रिए।  थाईलैंड के प्रो बमरुंग खामिक मुझे सात-आठ साल पहले जापान में मिले थे उन्होंने एक पावर-प्वाइंट प्रस्तुति से अपने हिंदी-शिक्षण के तरीक़े बताए। इधर उन्होंने थाईलैंड के अपने हिंदी अध्ययन-अध्यापन के अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि वे यूनीकोड का व्यापक स्तर पर प्रयोग करना चाहते हैं, लेकिन सही प्रशिक्षण का अभाव है। म्यांमार में हिंदी पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों का प्रकाशन फिर से होने लगा है, ऐसा डॉ. सुशील कुमार बाजौरिया ने बताया। एस. पी. सिंह का मानना था कि बौद्ध-धर्म से तो संस्कृत और पालि पल्लवित हुईं लेकिन आर्य समाज के आंदोलन ने हिंदी के विकास में बहुत बड़ी भूमिका अदा की। थाई भाषा में कितने ही शब्द हैं  जो संस्कृत या पालि से लिए हुए हैं और हमें लगते हैं हिंदी के निकट। ‘अ जर्नी फ्रॉम संस्कृत टु हिंदी’, सनित सिनाग का पर्चा भी अच्छा था। उनका मानना था कि भाषायी निकटता के सूत्रों को खोजकर अगर ज्ञात से अज्ञात की और चला जाए तो अच्छी शिक्षण-सामग्री बनेगी।

—ज्ञात से अज्ञात! का मतलब भयौ?

—मतलब यह कि जितनी जानकारी सीखने वालों के पास पहले से है, उसी को प्रस्थान-बिंदु बनाया जाए। बास्निन नाम का एक शोधछात्र मुझे नौकोर्न पौथोम पगोडा दिखाने ले गया। कहते हैं कि यह पगोडा थाईलैंड में बौद्ध-धर्म का प्रवेश-द्वार है। बास्निन ने बताया कि ‘नौकोर्न पौथोम’ बना है ‘नगर प्रथम’ से। हिंदी में कहते तो ‘प्रथम नगर’ कहते। यानी, ज्ञात से अज्ञात का एक शिक्षण-बिंदु यह बना कि हिंदी में विशेषण पहले लगाए जाते हैं, थाई भाषा में बाद में। चचा, काम सरल नहीं है। दिल्ली में बैठकर निदेशालयों, संस्थानों में नहीं हो सकता। रचनात्मक क्षमता रखने वाले ऐसे विद्वान अध्यापकों को शिक्षण-सामग्री-निर्माण के लिए विदेशों में भेजा जाना चाहिए, जिनमें भाषाई संरचनाओं को समझने और सीखने का माद्दा हो। डॉ. केदार नाथ शर्मा ऐसे ही विद्वान अध्यापक हैं बैंकाक में।

चौं रे चम्पू, 'थाई पुण्यवी की अल्पना' —अशोक चक्रधर | Choun re Champoo - Ashok Chakradhar


चौं रे चम्पू 

थाई पुण्यवी की अल्पना  

—अशोक चक्रधर

—चौं रे चम्पू! कब लौटि कै आयौ बैंकाक ते?

—कल रात ही लौटा हूं। तीन दिन पहले वहां एक कविसम्मेलन था। दिव्य हुआ। श्रोता चार घंटे हिले नहीं। लतीफ़ाविहीन शुद्ध उमंग-तरंग का कविसम्मेलन। मेरे साथ पवन दीक्षित, तेज नारायन तेज और मधुमोहिनी उपाध्याय ने ख़ूब रंग जमाया। आयोजक सुशील धानुका और प्रदीप सिंहल प्रसन्न थे। कुछ श्रोता जिन्हें पिछले सात-आठ बरस में हास्य कविसम्मेलन के नाम पर लतीफ़े सुनने की आदत पड़ गई है वे ज़रूर थोड़े निराश हुए होंगे।

—तौ तुम चारों कल्ली लौटे औ का?

—नहीं! वे तीनों तो अगले ही दिन लौट गए थे। मैं गया बैंकाक शहर से लगभग तीस किलोमीटर दूर शिल्पाकोर्न विश्वविद्यालय। वहां ‘द्क्षिणपूर्व एशियाई देशों में हिंदी भाषा एवं साहित्य के विविध रूप’ विषय पर दो दिन की अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रीय हिंदी संगोष्ठी होनी थी। एक दिन पहले ही पहुंच गया था। 

—तैंनैं बैंकाक की रातन की रंगीनी नायं देखी?

—अरे चचा बीस-पच्चीस साल पहले सपत्नीक गया था। देह-व्यापार देख कर बड़ी वितृष्णा सी हुई थी। पुराने क़िस्से फिर कभी, अभी शिल्पाकोर्न विश्वविद्यालय की सुनो। संगोष्ठी के स्थानीय संयोजक संस्कृत के आचार्य डॉ. केदार नाथ शर्मा थे। सीधे सरल स्वभाव के बिंदास विद्वान। विश्वविद्यालय के संस्कृत अध्ययन केंन्द्र में पिछले तीन साल से संस्कृत और पालि पढ़ा रहे हैं। उन्होंने देखा कि संस्कृत और पालि भाषा में नए विद्यार्थियों की रुचि कम हो रही है क्योंकि वे अब अपने भारत-प्रेम में हिंदी सीखना चाहते है। केदार जी अनौपचारिक रूप में, अलग से, हिंदी की कक्षाएं भी लेने लगे। फिर उनके मन में विचार आया कि क्यों न अपने विभाग में हिंदी को औपचारिक रूप से पढ़ाना प्रारंभ कराएं। विश्वविद्यालय परिषद के अध्य़क्ष प्रो. खुन्यिंग खैस्री स्री अरून और अन्य अधिकारियों ने सहमति दे दी। हमारे यहां की तरह तो था नहीं कि शिक्षा का एक टापू बन गया तो वह किसी अन्य द्वीप से मिल ही नहीं सकता। बहरहाल, परिणाम अच्छा निकला। तीन साल पहले चार-पांच विद्यार्थी थे अब लगभग डेढ़ सौ हो गए हैं। हमारा विदेश मंत्रालय और यहां का भारतीय दूतावास भी उन्हें प्रोत्साहित कर रहा है। विदेश मंत्रालय की उपसचिव हिंदी, डॉ. सुनीति शर्मा भारत से खूब सारी पुस्तकें ले आईं। थाईलैंड में भारत के राजदूत श्री हर्षवर्धन शृंगला, हैं तो नॉर्थ ईस्ट के पर हिंदी में गहरी रुचि रखते हैं। अगले दिन संगोष्ठी के उद्घाटन के लिए आए थे।

—एक दिना पैलै जाय कै का कियौ जे बता।

—आपकी दिलचस्पी संगोष्ठी में नहीं है चचा। वहां अगले दिन के लिए तैयारी करते बच्चों को देखा। बी.ए. की एक छात्रा रंगीन बुरादों से अल्पना बना रही थी। एक दीपक की लौ के ऊपर एक मोरपंख था। मैं बोला, अरे ये मोरपंख जल जाएगा। वह हिंदी में निष्णात नहीं थी। उसने कोई उत्तर नहीं दिया पर अपने आईफोन पर अल्पना की एक सम्पूर्ण डिज़ाइन दिखाई, जिसमें दीप के चारों ओर लगभग पंद्रह मोरपंख थे। डिज़ाइन देख कर यह भय जाता रहा कि मोरपंख जल जाएगा। भाषा की चार दक्षताओं, सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना में से वह सुनकर समझना सीख गई थी। यानी, मेरा प्रश्न समझ गई थी। मैंने उसे ‘अल्पना’ और ‘रंगोली’ दो शब्द बोलने सिखाए। नाम पूछा, उसने बताया, पुण्यवी सोंग्सर्म। वाह, पुण्यवी कितना अच्छा नाम है। अगले दिन मैंने देखा कि उसके पुण्य-कार्य के साथ बड़ा अन्याय हुआ।

—का भयौ?

—अगले दिन मैंने देखा कि पुण्यवी की रंगोली पूरी हो चुकी थी। शानदार कलाकृति! ऐसा लगता था मानो वह अल्पना फ़र्श के पत्थर का ही एक हिस्सा हो। थोड़ी देर बाद आशियान देशों से आए हुए प्रतिभागी बेध्यानी में अल्पना को रौंदते हुए चले गए। पुण्यवी तो वहां नहीं थी लेकिन उसकी छात्रा मित्रों की आंखों में आंसू आ गए। छात्र भी गुमसुम से थे। ज़ाहिर है पुण्यवी ने कई घंटे मेहनत की होगी। मुझे भी काफ़ी दुख हुआ। ’थाईलैंड हिंदी परिषद’ के अध्यक्ष, अपने पुराने मित्र सुशील धानुका भी दुखी हुए। हम संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में चले गए। सत्र के बाद बाहर निकले तो देखा कि रंगोली सबने मिलकर ठीक कर दी है और उसके चारों ओर सुरक्षा के लिए गमले रखे हुए हैं। सच चचा, बड़ी राहत मिली। 

—तू पहले दिना की और बातन्नै बता!

—मैं समझ गया चचा, तुम्हारी दिलचस्पी, संगोष्ठी में नहीं है। 


चौं रे चम्पू, 'ज़रा सी ज़िंदगी ज़रा सा ज्ञान' —अशोक चक्रधर | Choun re Champoo - Ashok Chakradhar

संस्थान और अकादमी का यह योगदान मैं कैसे भूल सकता हूं कि इन्हीं के ज़रिए एक से एक दिग्गज महनीय साहित्यकार और श्रेष्ठ व्यक्तियों के निकट आने और सम्मान देने-पाने का सुयोग मिला — अशोक चक्रधर


चौं रे चम्पू 

ज़रा सी ज़िंदगी ज़रा सा ज्ञान 

—अशोक चक्रधर


—चौं रे चम्पू! तेरे अंदर काए बात कौ गरूर ऐ?

—मैं तो समझता हूं कि मगरूर नहीं हूं, गुरूर से दूर हूं, पर अंदर-अंदर गुरूर जैसा कुछ ज़रूर होगा। इंसान को अपना गुरूर और अपने अवगुण मुश्किल से दिखाई देते हैं। कमंडल में कसैला जल होगा तो पीने वाले के मुख पर कसैला भाव आएगा। कुंडल में कस्तूरी होगी तो महक अपने आप फैलेगी। चचा, बताओ क्या मैं आपको आत्म-मुग्ध मृग दिखाई देता हूं।

—फेसबुक पै अपनी फोटू चढ़ाइबे वारे खुद पै लट्टू होंय कै नायं?

—ओहो, अब आप मुझ पर व्यंग्य कर रहे हैं चचा। चाहने वाले बढ़ते जाएं या कुछ न चाहने वाले भी हों तो वे जानना तो चाहेंगे कि बंदा कर क्या रहा है इन दिनों। श्वेत-श्याम में तो कुछ नहीं होता। ज़िंदगी सिलेटी होती है। फेसबुक की स्लेट पर हर तरह की रंगीन-संगीन इबारत दिखाई देती हैं। प्रशंसाएं मुग्ध तो करती हैं, पर आत्म-मुग्धता नहीं बढ़ातीं, कुछ और अच्छा करने की चुनौतियां बढ़ाती हैं। हां, निंदानुमा कुछ ज़रा सा भी आ जाए, तो दग्धता स्वाभाविक है, पर उसमें भी मैं ’सुखे-दुखे समेकृत्वा’ वाला भाव बनाए रखने का प्रयास करता हूं। इंटरनेट के जनतंत्र में सबको बोलने का अधिकार है। मैंने एक मुक्तक बना कर स्वयं प्रसन्न रहने का एक नुस्ख़ा तैयार किया था।

—हमैंऊ बताय दै।

—मैंने लिखा, ’मदद करना सबकी, इनायत न करना। न चाहे कोई तो हिदायत न करना। शिकायत अगर कोई रखता हो तुमसे, पलट के तुम उससे शिकायत न करना।’ लेकिन दिक़्क़त ये है कि आदमी हर हाल में प्रसन्न रहना नहीं चाहता। मदद करते हो, फिर जताते हो कि इनायत की है। कुपात्रों को नसीहत देने से बाज़ नहीं आते। ज़रा सी निंदा हो जाय तो स्वयं को शिकायतों का पुलिंदा बना लेते हो। अरे, ज़िंदगी में जो अच्छा किया है वह एक मधुर गीत है। उसकी अनुगूंज में मुग्ध रह लो तो बुरा नहीं, आत्म-मुग्ध होते ही गीत बेसुरा होने लगता है। ज़रा सी ज़िंदगी, ज़रा सा ज्ञान, कैसा मान कैसा अभिमान! तो आपने मुद्दा उठाया था गुरूर वाला। उसका उत्तर सुनिए!

—मोय पतौ ऐ कै तू का जबाब दैबे वारौ ऐ! छोड़!

—क्यों छोड़ूं? आपको सब पता है, फिर भी सुन लीजिए। अहंकार और स्वाभिमान में अंतर होता है। उर्दू में कहूं? गुरूर और ख़ुद्दारी में फ़र्क़ होता है। मैं स्वाभिमान और ख़ुद्दारी का पक्षधर हूं। अभिमान या अहंकार तो आडंबरपूर्ण होता है। उसमें खरदिमागी रहती है, वह मदांध बना सकता है। दिमाग अर्श पर हो तो फ़र्श पर आते देर नहीं लगती। दर्प-दंभ किसका टिकता है भला? ऐंठ में रहकर पेंठ जाओगे तो कोई टके सेर नहीं पूछेगा। घमंडी का मंडी में क्या काम? मिजाज़ सातवें आसमान पर होगा तो सात लोग साथ नहीं रहेंगे। अहम्मन्यता आक्रामक बनाती है। जबकि स्वाभिमान और ख़ुद्दारी विनम्र और सकारात्मक। हां, स्वाभिमान के साथ आत्मगौरव, आत्मसम्मान, आत्मप्रतिष्ठा और ग़ैरतमंदी आने से अपने अंदर एक हवा सी तो बनती है। स्वयं कुप्पा होने को जी चाहने लगता है।

—तू सब्दन की हुसियारी मती दिखा चम्पू!

—शब्दों की हुशियारी से कई बार गड़बड़ हो जाती है चचा। होली के दिन लंदनवासी तेजेन्द्र शर्मा से बात हो रही थी। वे भी फ़ुरसत में थे और मैं भी। काफ़ी लंबी बातें हुईं। मित्रों के साथ तो दुख-दर्द सांझा किए ही जाते हैं। उन्होंने पूछा आपकी तकलीफ़ फेसबुक पर चढ़ा दूं? मैंने भी आत्मीयता में कह दिया, जैसा मन करे। बातचीत में कहीं मैं कह बैठा था, ‘अकादमियों से जुड़ा तो आदमियों से दूर होता चला गया’। बातचीत में मेरा भाव था कि दो-दो संस्थाओं की व्यस्तता के रहते अपने आदमियों को पर्याप्त समय नहीं दे पाया। उन्होंने फेसबुक पर इसे शीर्षक बना दिया। मेरे बारे में अच्छा ही लिखा, पर लोग तो इस शीर्षक के कितने ही अर्थ निकाल सकते हैं, जो मैंने स्वप्न में भी न सोचे हों। अब बताइए, संस्थान और अकादमी का यह योगदान मैं कैसे भूल सकता हूं कि इन्हीं के ज़रिए एक से एक दिग्गज महनीय साहित्यकार और श्रेष्ठ व्यक्तियों के निकट आने और सम्मान देने-पाने का सुयोग मिला। हां, कुछ के कोसने भी मिले। मैं क्या करूं बताइए!

—भौत मैं-मैं कल्लई। सब्दन के खेल ते कबहुं-कबहुं खेल बिगरि जायौ करै चम्पू! अपनी तकलीफन की नायं, जमाने की और जमाने की तकलीफन की बात कियौ कर।

चौं रे चम्पू, "सान्निध्य बनाम सहभागिता" —अशोक चक्रधर | Choun re Champoo - Ashok Chakradhar


चौं रे चम्पू 

सान्निध्य बनाम सहभागिता 

—अशोक चक्रधर

—चौं रे चम्पू! उड़ौ ई फिर रह्यौ ऐ? पिछले हफ्ता कहां-कहां डोलि आयौ?

—चचा, इस सप्ताह मुम्बई, रांची, जमशेदपुर, कोलकाता और गुवाहाटी गया। कल ही लौटा हूं। अब फिर से मुम्बई जाना है।

—ऐसौ का है गयौ कै घर में टिकै ई नायं? 

—चचा, मैं प्रायः कहता हूं कि कविसम्मेलन में जाने वाले कवियों के लिए ये फसल-कटाई के दिन हैं। आंधी के आम इसी दौरान टपकते हैं। एक-एक दिन के चार-चार निमंत्रण हैं। कहां जाओ, कहां मना करो, बड़ी दुविधा रहती है। ऊपर से लिखाई-पढ़ाई के काम भी रहते हैं। फ्लाइट में रहूं या रेल में, लगा रहता हूं अपने कम्प्यूटर पर लेखन के खेल में। होली के दौरान लोग रंगारंग-कार्यक्रम करते हैं, उत्सवधर्मिता रहती है। ये हमारे देश और पूरे भारतीय महाद्वीप का ही जलवा है कि कविता सुनने के लिए हज़ारों की संख्या में लोग एकत्रित होते हैं। मैं जाता रहता हूं। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि पैसा मिलता है, बल्कि इसलिए भी कि सुनने वालों से निगाहें मिलती हैं। इधर, कविसम्मेलनों में फिर से जाना पसन्द करने लगा हूं।

—तौ बन्द चौं कियौ जानौ?

—बन्द नहीं, कम किया था। संस्थान और अकादमी के कार्यों में इतना व्यस्त रहता था कि आयोजकों से क्षमा मांगनी पड़ती थी। दिल्ली की हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष रहकर मैंने सैकड़ों कार्यक्रमों को आयोजित करने-कराने में अपनी सकर्मक भूमिका निभाई। इतने कार्यक्रम हुए कि अख़बार में अपना नाम ‘सान्निध्य’ में देखकर अकुलाहट होने लगी थी। मैंने सचिव महोदय से अनुरोध किया कि मेरे नाम से पहले ‘सान्निध्य’ न छापा करें। फ़कत सान्निध्य-सुख पाने के लिए तो नहीं आता हूं। आपके साथ योजनाओं के बनाने, कार्यक्रमों को आयोजित कराने, आपके नाटकों, आपकी फिल्मों में अपना योगदान देने में लगा ही रहता हूं, इसलिए ‘सान्निध्य’ नहीं, ‘सहभागिता’ लिखा करिए। मेरी बात चल गई। निमंत्रण-पत्रों और विज्ञापनों मे वे ‘सहभागिता’ लिखवाने लगे। तीन-चार बार तो छपा, लेकिन मैंने फिर से निमंत्रण-पत्र में ‘सान्निध्य’ छपा देखा। मैंने सचिव महोदय से पूछा, ऐसा क्यों करने लगे? सचिव महोदय भी संवेदनशील लेखक हैं, उन्होंने कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया, कहने लगे आप स्वयं समझ जाइए। मैंने कहा, मैं समझ गया।

—तू का समझौ हमैंऊ समझाय दै।

—चचा, मैं यह समझा कि दिल्ली सरकार की छः अकादमियां हैं, हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, पंजाबी, सिंधी और भोजपुरी। इन सभी में उपाध्यक्षों का नाम सान्निध्य के रूप में ही छपता है। मुझे नहीं मालूम कि उनकी कितनी सहभागिता रही अथवा रहती होगी। उनसे यही उम्मीद की जाती है कि वे कार्यक्रमों में दीप-प्रज्जवलन करने, पुष्प गुच्छ लेने, प्रारम्भ में दो शब्द बोलने और कलाकारों के मनोबल-वर्धन के लिए शोभा-वर्धक बनकर कर आएं। मैं कोई दखलंदाजी तो नहीं करता था सचिवों के कामों में, लेकिन नाटक हों या साहित्य-संगोष्ठी, शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम हों या लोकवृन्द प्रस्तुतियां, लोकनृत्य हों या लोकनाट्य, अकादमी के लिए फिल्म-श्रृंखला का कार्य हो या मल्टी-मीडिया प्रस्तुतियां, लगा ही रहता था। पैसा किसी कार्य के लिए लेता नहीं था। लेता क्या, मिलता ही नहीं था। अकादमी ने एक सहायक दिया, वह इन कार्यक्रमों के सुचारु समायोजन के लिए सक्रिय रहता था। जितने कार्यक्रम हुए उनमें सिर्फ़ दो शब्द नहीं बोलता था। दो शब्द के नाम पर विषय प्रवर्तन से लेकर अंत में रोचक समीक्षा, अपने अंदाज़ में किया करता था। पुनः ‘सान्निध्य’ लिखे जाने ने यह संदेश दिया कि आप तो दीप जलाओ, पुष्पगुच्छ पाओ पर सहभागिता न बढ़ाओ। फिलहाल तो उस आई-गई सरकार के कारण मैंने त्याग-पत्र दे ही दिया। अब अच्छा रहेगा।

—अब अच्छौ चौं रहैगौ?

—अगर हिन्दी अकादमी वाले मुझे पहले की तरह कवि-लेखक के रूप में बुलाएंगे तो अब पहले की तरह ही पारिश्रमिक भी देंगे। पहले सिर्फ़ दो-ढाई हज़ार रुपए मिलते थे, मेरे कार्यकाल में सबका पारिश्रमिक बढ़ा है तो अब मुझे भी ज़्यादा मिलने लगेगा। मैं अपनी सहभागिता बन्द नहीं करूंगा। 

—और संस्थान कौ का भयौ?

—अरे, क्या मैंने आपको बताया नहीं? फरवरी में मेरा कार्यकाल पूरा हो रहा था। इन पदों के लिए मैंने न तो मानव संसाधन विकास मंत्री से कहा था, न दिल्ली की मुख्यमंत्री को कोई आवेदन दिया था। उन्होंने मेरा मनोनयन किया, मैंने स्वीकार किया। पद पर पुनः बने रहने की मेरी कामना संस्थान के अकर्मण्य रवैये के कारण समाप्त हो गई। वहां एक विज़न ट्वैंटी-ट्वैंटी देकर आया हूं। मुझे पूरी उम्मीद है कि नए उपाध्यक्ष डॉ. वाई. लक्ष्मी प्रसाद उस दिशा में, और अपने दृष्टिकोण के हिसाब से, कामकाज को आगे बढ़ाएंगे। मित्र हैं, आत्मीयता है उनसे, उम्मीदें हैं। बहरहाल मैं फिर से एक आज़ाद परिन्दा हूं। फेसबुक पर मेरे पेज को लाइक करने वाले निरंतर बढ़ रहे हैं। उनकी बढ़ती संख्या देखकर एक बच्चे की तरह ख़ुश होता हूं। आज एक लाख पांच हज़ार से ज़्यादा हैं। अपनी फ़ोटोग्राफ़ी के शौक को पूरा करता हूं और खींचे गए छाया-चित्र से जुड़ी हुई कवितानुमा पंक्तियां जोड़ता रहता हूं। आनन्द में कोई कमी नहीं है। तुमने बगीची में टेसू भिगो दिए होंगे, जिस दिन ठंडाई बनाओगे, उस दिन किसी कविसम्मेलन में नहीं जाऊंगा।  तुम्हारी बहूरानी का जन्म-दिन सत्रह को होली वाले दिन ही है, उस दिन रख लो। और अगले दिन भी क्यों जाऊंगा कहीं! भंग-भवानी कहां जाने देगी?

—भंग मिलायबौ बन्द कद्दियौ लल्ला! ठंडाई में मन की हुरियाई की हरियाली कौ उल्लास घोलौ जायगौ। सत्रह कू अइयौ जरूल!

अशोक चक्रधर
जे - 116, सरिता विहार, नई दिल्ली - 110076


चौं रे चम्पू, "उल्लू ने सूरज पर मुकदमा किया" —अशोक चक्रधर Choun re Champoo - Ashok Chakradhar

चौं रे चम्पू 

उल्लू ने सूरज पर मुकदमा किया

—अशोक चक्रधर

—चौं रे चम्पू! उल्लू, गधा, कुत्ता, जे गारी ऐं का?

—ये प्रेमपूर्ण गालियां हैं। वैसे यह बात इन तीनों जंतुओं से पूछनी चाहिए कि जब मनुष्य से इनकी तुलना की जाती है तो इन्हें कैसा लगता है? मेरा मानना है कि तीनों जंतु मनुष्य को लाभ ही पहुंचाते हैं, ख़ास नुकसान तो नहीं करते। उल्लू मनुष्य-समाज से दूर रहना पसन्द करता है। गधा एक सधा प्राणी है। कुत्ता निकट रहकर वफ़ादारी के कीर्तिमान बनाता है। कहा भी जाता है, ‘ज़माने में वफ़ा ज़िन्दा रहेगी, मगर कुत्तों से शर्मिन्दा रहेगी।’ जहां तक उल्लू का सवाल है, उल्लू को निर्बुद्ध, अपशकुनी और निशाचर माना जाता है। मेरी एक कविता की शुरुआत कुछ इस तरह से होती है, ‘गुर्गादास, कुछ उदास! मैंने पूछा, कष्ट क्या है ज़ाहिर हो! वे बोले, आजकल उल्लू टेढ़ा चल रहा है। मैंने कहा, तुम तो उल्लू सीधा करने में माहिर हो।’ आजकल चचा, सब अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। चुनाव आने वाले हैं इसलिए सारे गुर्गादास परेशान हैं।

—जे बता चम्पू कै उल्लू सीधौ करिबे कौ मलतब का ऐ?

—यह एक शोध का विषय है। मुहावरों का जन्म किसी न किसी कारण से होता है, यह बात तय है। मुझे लगता है लक्ष्मी का वाहन होने के कारण माना जाता है। अपनी मूर्खता के रहते वह उचित-अनुचित का ध्यान नहीं रखता कि कहां लक्ष्मी की आवश्यकता है कहां नहीं है। जहां लक्ष्मी पहले से धनवृष्टि कर चुकी होती हैं, वहां उल्लू और-और कृपाएं दिलवाता है। अपने वाहन पर लक्ष्मी का कोई अंकुश तो शायद होता नहीं। ऐसे में जो लोग उल्लू में कंकड़ मार कर या सीटी बजा कर या गुलेल से दिशा बदल कर, अपने घर की तरफ सीधा करते रहे होंगे, वे ही उल्लू सीधा करने में माहिर माने जाते होंगे।

—दम ऐ तेरी बात में लल्ला, और काठ कौ उल्लू?

—अब ये कोई गाली है क्या? हमारे प्रशासन में कितने ही ऐसे व्यक्तित्व हैं जो काठ की मेज कुर्सी पर काठवत बैठे रहते हैं। ज़्यादा काम करो, ज़्यादा तनाव। कम काम करो, कम तनाव। कोई काम न करो, कोई तनाव नहीं। ऐसे काठ के उल्लू तनाव-शून्य रहते हैं।

—और उल्लू की दुम, उल्लू कौ पट्ठा?

—उल्लू की दुम का मुहावरा, ‘तुम’ से तुक मिलाने के लिए बना होगा। उल्लू कौ पट्ठा, तुम्हारे लिए नहीं, तुम्हारे संरक्षक के लिए उलाहना है।

—हास्य-ब्यंग के कवीन कूं जे तीनोंई प्रानी भौत पसन्द ऐं।

—हां चचा! इन पर हज़ारों कविताएं लिखी गई होंगी। ‘बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी है, हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा?’ लेकिन चचा, अभी साहित्य अकादमी ने एक काव्य-उत्सव कराया। सोलह विदेशी कवि थे, पच्चीस भारतीय भाषाओं के। मॉरीशस से मेरे एक पच्चीस साल पुराने मित्र धनपाल राज हीरामन भी आए हुए थे। उन्होंने उल्लू पर एक मज़ेदार कविता सुनाई, ‘उल्लू ने सूरज पर मुकदमा कर दिया, उसकी शिकायत थी कि उसे दिन में भी दिखाई नहीं देता। सबूत के तौर पर उसने न्यायाधीश को अपनी मोटी-मोटी आंखें दिखाईं। सूरज मामला हार गया। जब से उसको जेल हुई, तबसे उल्लू रात को भी देखने लगा।

—जा कबता में का ब्यंग भयौ?

—कमाल है! एक व्यंग्य तो यह है कि आजकल उल्लू जैसे निर्बुद्ध, सूरज जैसे लोगों पर मुकदमा कर सकते हैं। दूसरा यह कि सूरज कैद में होगा तो समाज में चेतना का उजाला कैसे फैल पाएगा? उल्लूओं का ही साम्राज्य होगा।

—तोय उल्लू कह्यौ जाय तौ बुरौ तौ नायं मानैगौ?

—क्यों मानूंगा? उल्लू निशाचर है। हम भी रात-रातभर कविताएं सुनाने वाले निशाचर हैं। बुरा क्या मानना! जब हमारी व्यंग्य कविताएं इसीलिए होती हैं कि दूसरे बुरा मानें तो हमें भी कोसने वालों को नहीं कोसना चाहिए। अपना धैर्य परोसना चाहिए।

—धैर्य कौ धन तौ गधा कह्यौ जाय?

—वह भी कह लो, कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि गधा तो स्वर्ग का अधिकारी है। निर्भय जी ने लिखा था, ’कोई कहता कूड़ा-करकट कीच गधा है। कोई कहता निपट-निरक्षर नीच गधा है। पर शब्दों के शिल्पी ने जब शब्द तराशे, उसने देखा स्वर्गधाम के बीच गधा है।’ चचा! फ़ाइनली, प्रेम ऐसा मामला है जो इंसान को उल्लू, गधा, कुत्ता कुछ भी बना सकता है।