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सरकार मैनेजर की भूमिका में है — पुरुषोत्तम अग्रवाल @puru_ag



'तहलका' पत्रिका वह काम कर रही है ... जिसे सारे समाज द्वारा किये जाने की ज़रुरत है - उस सच को कहने की क्षमता रखना जिसका नहीं-कहा-जाना ही अब सच बन गया है. कृष्णकांत जैसे पत्रकारों का होना और उनके साथ संपादक का खड़े होना - वर्तमान दौर के हाल-ए-मीडिया में - तक़रीबन असंभव-सा है फिर सबसे बड़ा पक्ष यह दीख पड़ता है कि अगर ये हो भी तो बगैर पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसी बेबाकी, ज्ञान, भूत,भविष्य और वर्तमान की अचूक समझ, समाज के उत्थान को अपना दायित्व मानना, के किस काम का होगा? 

प्रो० अग्रवाल के बेहतरीन शिक्षक होने को सिद्ध करता एक बहुत ज़रूरी साक्षात्कार जिसका हर-तरफ पढ़ा जाना, समय की 'आवश्यकता' है. जिस पर चर्चा नितांत ज़रूरी है. यह लिखते समय मुझे याद आता है, जब नाकोहस को पाखी में पढ़ने के बाद मैंने प्रेम भारद्वाज से उसे शब्दांकन के लिए माँगा और किस तरह पाठकों ने उसे पसंद किया था और कुछ-एक कहानीकारों ने उसमें कहानीपन के न होने का रोना रोया था.... पुरुषोत्तम जी याद है न आपको ? आपने यदि नाकोहस कहानी नहीं पढ़ी हो तो इस बातचीत को पढ़ने समझने के बाद पढ़िएगा (लिंक बातचीत के अंत में दे रहा हूँ)

भरत तिवारी
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अगर आपके जीवन में एकांत का कोई पल न बचे तो यह आपकी मनुष्यता के समाप्त होने की हालत है

 — पुरुषोत्तम अग्रवाल

मेरे मन में हल्की-सी चिंता यह है कि मेरे मुंह से कुछ ऐसा तो नहीं निकल रहा कि जिसकी वजह से कल मुझे पकड़कर ठोक दिया जाए कि हमारी भावनाएं आहत हुई हैं. क्या आज यह डर हमारे मन में नहीं है? यह बात मैं औपचारिक-अनौपचारिक, हर रूप में कहना चाहता हूं कि क्या ये सच नहीं है कि किसी भी चीज पर बात करते समय आज स्थिति ये हो गई है कि आप आसपास देख लेना चाहते हैं कि कोई ऐसा व्यक्ति तो नहीं सुन रहा जिससे खतरा हो. असहमति व्यक्त करने में डर लग रहा है. यह स्वस्थ समाज का लक्षण नहीं है, जहां आपको अपनी आवाज से डर लगे.


आलोचक के तौर पर ख्यात पुरुषोत्तम अग्रवाल कवि भी हैं और कथाकार भी. कबीर पर लिखी उनकी किताब ‘अकथ कहानी प्रेम की’ आलोचना के क्षेत्र में मील का पत्थर है. वे लगातार कविताएं लिखते हैं पर कविरूप में बहुत कम ही सामने आते हैं. उनकी कई कहानियां समय-समय पर प्रकाशित हुई हैं. कुछ समय पहले उनकी लिखी एक कहानी ‘नाकोहस’ ने खासी चर्चा और प्रशंसा बटोरी. कहानी का दायरा इतना व्यापक था कि बाद में उन्होंने इसे उपन्यास का रूप दिया. पुरुषोत्तम अग्रवाल से बातचीत. — कृष्णकांत. (तहलका, जून 15, 2016)

आपके उपन्यास नाकोहस (नेशनल कमीशन फॉर हर्ट सेंटिमेंट्स) की खूब चर्चा हुई. मौजूदा परिवेश में बात कहते ही आहत होती भावनाओं से व्याप्त डर और अराजक माहौल के चलते उपन्यास शायद ज्यादा प्रासंगिक हो गया है. आपका क्या अनुभव रहा?

समाज में टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट का जो आतंक है और पढ़ने-लिखने का मतलब वही समझ लिया जाता है

यह सही है कि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य के चलते उपन्यास को उसी संदर्भ में पढ़ा गया, लेकिन उसमें और भी बहुत चीजें थीं जिस पर लोगों का ध्यान कम गया. उपन्यास में प्रेम है, जीवन है, अंतर्विरोध है तो दुख और भय भी है.
tehelka Hindi, magazine in Hindi by Tehelka - News magazine: Vol-8 Issue-11.

उपन्यास बुद्धिजीवी समाज की विसंगतियों और विडंबनाओं पर भी चुटकियां लेता है. बुद्धिजीवी वर्ग का अंतर्विरोध बार-बार उसमें सामने आया है. उसमें एक प्रसंग है कि आजकल प्रगतिशील लोगों की थाली में भी दो-चार राष्ट्रवादी आइटम जरूर पाए जाते हैं. ऐसा नहीं है कि यह बुद्धिजीवियों के अधिकार और आत्माभिमान का ही घोषणा पत्र है. उपन्यास में बुद्धिजीवी का मतलब वो है जो किसी न किसी रूप में धरातल पर जाकर समाज से जुड़े. उपन्यास जहां से शुरू होता है, एक पात्र सुकेत की यादें जहां से शुरू होती हैं, वह सब आपको नेल्ली (असम) तक ले जाता है कि उत्तर-पूर्व आपकी सोच में भी कहीं नहीं है. किसी को पता तक नहीं है कि 1983 में नेल्ली में क्या हुआ था. नेल्ली के बाद 1984 का सिख विरोधी दंगा, हाशिमपुरा और मलियाना का संदर्भ है.

यह उपन्यास किसी समाज में बुद्धिजीवी वर्ग की भूमिका को रेखांकित करता है, समाज में टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट का जो आतंक है और पढ़ने-लिखने का मतलब वही समझ लिया जाता है, ये उस पर बात करता है. मैं मानता हूं कि यह उपन्यास आपको याद दिलाता है कि अगर आप साहित्य, संस्कृति, इतिहास आदि की उपेक्षा करेंगे और इन पर स्पष्ट बोलने वालों को लगभग गाली की तरह बुद्धिजीवी कहने लगेंगे तो अंतत: आप अपना ही नुकसान करेंगे. क्योंकि ऐसा समाज अनिवार्य रूप से नाकोहस की तरह है. जैसा कि नाकोहस का प्रवक्ता गिरगिट कहता है बुद्धिजीवियों के सम्मान का नाटक बहुत हो चुका. ये नहीं कि आप कुछ भी बकते रहें और हमारी भावनाएं आहत हों. उपन्यास तीनों चरित्रों की मानवीयता को भी रेखांकित करने की कोशिश करता है. उपन्यास तीन बुद्धिजीवियों का एक रात का अनुभव मात्र नहीं है.

आपकी पहचान मुख्य रूप से आलोचक की रही है फिर आपको उपन्यास लिखने की जरूरत क्यों महसूस हुई?

जीवन को उसकी समग्रता में अगर साहित्य की कोई विधा व्यक्त कर सकती है तो वह उपन्यास है.

मैं आलोचना लिखता रहा हूं लेकिन नियमित रूप से कविता भी लिखता हूं. ये बात और है कि उसे प्रकाशित नहीं कराता. यहां तक कि सुमन जी (अपनी पत्नी) को भी नहीं पढ़ाता. कभी मन हुआ तो ठीक-ठाक करके कहीं भेजा, वरना लिखकर रख लेता हूं. फिक्शन में मेरी रुचि शुरू से थी. कॉलेज के दिनों में दो-तीन कहानियां लिखी थीं, पुरस्कृत भी हुईं. बाद में आलोचना लिखने लगा. लोगों को लगने लगा कि ये आलोचना अच्छी लिखते हैं. चर्चा होने लगी. तत्काल की जो स्थितियां बन जाती हैं, वही पहचान बन जाती है. लेकिन परिवार और निजी मित्रों को मालूम है कि मैं 25 साल से ये धमकी देता रहा हूं कि मैं उपन्यास लिखूंगा. इसका कारण मैं ये मानता हूं कि कविता और तमाम दूसरी विधाओं के प्रति सम्मान के साथ, जीवन को उसकी समग्रता में अगर साहित्य की कोई विधा व्यक्त कर सकती है तो वह उपन्यास है.

मैं ये नहीं कह रहा कि सिर्फ उपन्यास ऐसा करता है. लेकिन उसी तरह जैसे भाषा का सबसे सघन और सर्जनात्मक उपयोग कविता में हो सकता है- ऐसा कहकर मैं दूसरी विधा का अपमान नहीं कर रहा, सिर्फ कविता की विशेषता बता रहा हूं- उसी तरह चाहे समाज हो, आपका अंतर्मन, आपकी अस्तित्वगत वेदना या चाहे आपकी ऐतिहासिक चिंता, उसका जिस समग्रता में अनुसंधान उपन्यास करता है, कोई दूसरी विधा नहीं कर सकती. उपन्यास में कई आवाजें होती हैं. गोदान में केवल होरी की आवाज नहीं है. गोदान में राय साहब, बदमाश अफसरों, थानेदार, झिगुरी, पंडित यानी होरी के शोषकों की भी आवाजें हैं. वह उपन्यास जो अपने पसंदीदा चरित्र के अलावा किसी और चरित्र को बोलने ही न दे या लेखक सिर्फ अपनी मर्जी की बात कहलवाए, वह काफी घटिया उपन्यास होगा. अच्छा उपन्यास वह होता है जिसमें ऐसे भी चरित्र हों जिन्हें आप लेखक के साथ जोड़कर देख सकते हैं. इसे देखते हुए मैं पिछले 25 साल से उपन्यास लिखने की बात सोच रहा था. एक वृहद उपन्यास पर काम करना बाकी है.


जब मैंने नाकोहस कहानी लिखी, जो 2014 में छपी, उस पर जिस तरह का विवाद या बहस हुई, वह बहुत रोचक था. जिन लोगों से मैं अपेक्षा करता था कि उसकी निंदा करेंगे, उन्होंने तो की ही, लेकिन बहुत सारे लोगों ने आलोचना की. यह ठीक भी है. लेकिन कुछ लोगों ने कहा कि रघु नाम का पात्र ईसाई है, तो आप हिंदू नायकत्व का पीछा कर रहे हैं. या उसको हिंदू परंपरा की जानकारी है तो आप खुद हिंदू सांप्रदायिकता को शह दे रहे हैं. इस पर काउंटर भी किया गया. कहानी पर चर्चा दिलचस्प रही. इस पर मित्रों-परिजनों ने सलाह दी कि इसको उपन्यास में बदलिए. फिर मैंने इस पर सोचना शुरू किया उपन्यास के रूप में और लिखा.

जब कहानी छपी थी तो सवाल उठाए गए थे कि इसमें कहानीपन नहीं है. क्या कहेंगे आप?

क्या देश की राजधानी में यह एक अनोखी घटना नहीं है कि कोर्ट परिसर में एक लड़के पर जानलेवा हमला हो और पुलिस कुछ न कर पाए?

मुझे कहानीपन की बात बिल्कुल समझ में नहीं आती. ठीक है कहानीपन एक बात है, लेकिन कहानीपन का कोई एक बुनियादी रूप नहीं है जिसके आधार पर आप एक कहानी को खारिज कर दें और एक को कहानी मान लें. अब मुझे नहीं पता कि कहानीपन या कथातत्व पर बात करते हुए ‘कुरु कुरु स्वाहा’ को उपन्यास माना जाएगा या नहीं. या ‘नौकर की कमीज’ को उपन्यास मानेंगे या नहीं. लेकिन ठीक है यह सवाल उठाने वालों की राय है.

मेरी समझ के मुताबिक एक बुनियादी घटनाक्रम है, एक वैचारिक संघर्ष है, कोई कहानी इस वजह से कहानी नहीं रहती, ऐसा मैं नहीं मानता. जब उपन्यास के तौर पर मैंने इसको सोचा तब तक चीजें काफी साफ होने लगी थीं और समाज की जिस परेशानी से मैं गुजर रहा था, जिसे गोविंद निहलानी ने उपन्यास पर चर्चा करते हुए ‘डिस्टर्बिंग डिस्टोपिया’ कहा था, शायद उसकी कल्पना कर रहा था. डिस्टर्बिंग यानी जो बुरी तरह आपको परेशान करे या डरा दे, ये डर कम से कम मेरा निजी है. इस डर को एक फैंटेसी के रूप में रचा गया है. उपन्यास का पात्र टेलीविजन बंद करना चाह रहा है लेकिन वह बंद नहीं हो रहा है. वह रिमोट का बटन दबा रहा है, पीछे से पावर ऑफ कर रहा तब भी वह बंद नहीं हो रहा है. उसके कमरे की हर दीवार टेलीविजन स्क्रीन में बदल गई है. एक टेलीविजन तुम फोड़ भी दो तो भी फर्क नहीं पड़ेगा.

जेएनयू प्रसंग या अन्य हालिया प्रसंगों में भी कुछ टेलीविजन चैनल जिस तरह का माहौल बनाते हैं, उसमें जिन लोगों का नाम लेकर इंगित किया जाता है, आपको नहीं पता कि उनके साथ कब, कैसी अनहोनी घटित हो सकती है. क्या देश की राजधानी में यह एक अनोखी घटना नहीं है कि कोर्ट परिसर में एक लड़के पर जानलेवा हमला हो और पुलिस कुछ न कर पाए? बाद में भी कुछ नहीं हुआ. यह ‘लिंच मेंटालिटी’ है. आप लिंच मेंटालिटी (मारपीट या हत्या करने की मानसिकता) का निर्माण कर रहे हैं और यह उपन्यास यही याद दिलाता है.

उपन्यास में एक वाक्य आता है, ‘जिससे भय होता है उस पर करुणा नहीं होती.’ लोगों के मन में भय बैठाया जा रहा है कि यह आदमी देश के लिए खतरनाक है, समाज के लिए खतरनाक है, आपके परिवार, बहन, बेटी के लिए खतरनाक है. भले ही वह आदमी अपने आप में कितना निर्दोष हो. उसकी जान लेने में न आपको संकोच होगा, न कोई अपराधबोध. अगर आप सचमुच ऐसा समाज बनाना चाह रहे हैं, जिसमें किसी निर्दोष को भी मार देने में उसे संकोच न हो तो वह समाज कैसा होगा?

उपन्यास में जिस तकनीकी अतिक्रमण का जिक्र है कि टीवी चैनल बंद नहीं हो पा रहा, मोबाइल स्क्रीन मन की बात जान ले रहा है, यह लिखते समय आपके दिमाग में क्या था? व्यवस्था द्वारा किया जा रहा अतिक्रमण या संचार माध्यमों का पूंजीपन जो लोगों के जीवन में निर्बाध प्रवेश कर रहा है?


मैं सीधे कहूंगा कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था में ये दोनों चीजें लागू होती हैं. खुद में यह व्यवस्था भी और पूंजीवाद भी. लेकिन मैं यह मानता हूं कि अगर आपके जीवन में एकांत का कोई पल न बचे तो यह आपकी मनुष्यता के समाप्त होने की हालत है. जब आपके पास अपने भी साथ होने का थोड़ा-सा समय नहीं है, जब आप किसी से बात न कर रहे हों, फेसबुक पर किसी से दंगल न कर रहे हों, कुछ देर आप चुपचाप बैठें, संगीत सुन रहे हों, या कुछ भी करें. अपने साथ रहें. एकांत में दो चीजें होती हैं. एक तो शांत चित्त से सोचने का वक्त मिलता है. दूसरा, एकांत में आप अपनी कल्पनाओं और स्मृतियों को थोड़ा-सा व्यवस्थित होते देखते हैं. इन दोनों स्थितियों से आपको लगातार वंचित रखा जा रहा है. मनुष्य के एकांत का अतिक्रमण राजसत्ता तो कर ही रही है, लेकिन ये इस पूंजीवादी व्यवस्था या कहिए खास तरह के पूंजीवाद की बड़ी स्वाभाविक विशेषता है. उसकी हर जगह दखलंदाजी है. आपका कोई क्षण ऐसा नहीं है जो आपका अपना हो. वह एडवर्टाइजिंग कल्चर का हिस्सा है, जब आपके बेडरूम से लेकर आपका कमोड तक विज्ञापन और उत्पाद की जद में है. इसलिए जरूरी है कि वह आपकी हर चीज तक पहुंचे. इस क्रम में आपका जो भी एकांत है, जिससे आपका व्यक्तित्व परिभाषित होता है, वो खत्म हो जाता है. ये मुझे बहुत भयावह स्थिति लगती है. मैं ऐसे परिवारों को जानता हूं जहां घर में चार कमरे हैं तो चार टीवी हैं. वेे साथ खाना नहीं खाते. सब अपने-अपने कमरे में टीवी देखते हुए खाना खाते हैं.

 नाकोहस की कल्पना कैसे की?

नेशनल कमीशन आॅफ हर्ट सेंटिमेंट्स

2003 या 2004 में आपको याद हो तो एक किताब छपी थी, ‘शिवाजी हिंदू किंग इन इस्लामिक इंडिया’. उसके लेखक थे अमेरिकी विद्वान जेम्स लेन. वे पुणे में भंडारकर इंस्टिट्यूट में रिसर्च के लिए आए थे. इस दौरान महाराष्ट्र में घूमते हुए उन्हें शिवाजी के बारे में कुछ बातें मालूम हुईं, जिन पर उन्होंने किताब लिख दी. किताब में सहयोग के लिए संस्थान का आभार प्रकट किया गया था. इस पर ‘संभाजी ब्रिगेड’ नामक एक संगठन ने संस्थान में घुसकर तोड़-फोड़ की. उस समय गोपीनाथ मुंडे जी ने बयान दिया कि हमारी भावनाएं तो जवाहरलाल नेहरू की किताब से भी आहत होती हैं.

तब मैंने एक लेख लिखा कि भावनाएं बहुत आहत हो रही हैं. भावनाएं आहत होकर कूदकर सड़क पर आ जाती हैं. इससे राष्ट्रीय संपदा का नुकसान होता है तो सरकार को चाहिए कि आहत भावनाओं और आक्रांत अस्मिताओं का एक आयोग बनाए, नेशनल कमीशन आॅफ हर्ट सेंटिमेंट्स (नाकोहस). तो ये विचार दस-बारह साल पुराना है. इसका पिछले आम चुनाव के परिणाम से कोई संबंध नहीं है. पिछले पांच-छह साल में जैसा माहौल देश में बनता चला गया है, उसमें सुधारवाद और प्रतिक्रियावाद में कोई भेद नहीं है. पुणे में जब यह वाकया हुआ तब वहां कांग्रेस की सरकार थी. जब सलमान रुश्दी को भारत नहीं आने दिया तब कांग्रेस की सरकार थी. एक गांव की पंचायत आदेश दे देती है कि अब गांव की लड़कियां मोबाइल फोन नहीं रखेंगी, किसी लड़की के पास मोबाइल पाया जाता है तो मार-मारकर उसकी हालत खराब कर दी जाती है. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कह देते हैं कि समाज के मामले में सरकार क्या कर सकती है. इन लोगों ने सरकार की धारणा ही तब्दील कर दी है. इन लोगों को आधुनिक राजसत्ता का बोध ही नहीं है. आधुनिक राजसत्ता समाज को केवल व्यवस्थित ही नहीं करती, बल्कि समाज को बदलने की कोशिश करती है. कोई आधुनिक राजसत्ता यह नहीं कह सकती कि स्त्रियों या दलितों की क्या हालत है, इससे हमें कोई लेना-देना नहीं है, यह तो सामाजिक मसला है.

उदाहरण से समझिए कि समस्या कहां होती है. एक सज्जन ने घोषणा की कि वे कन्हैया को मार देंगे तो उनको माला पहनाई गई. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक नेता जी ने घोषणा की कि वे सलमान रुश्दी को मारने वाले 51 लाख रुपये देंगे. बाद में वो बड़े-बड़े सेक्युलर नेताओं के साथ मंच पर दिखे. पिछले दस-बारह साल में जिस तरह की स्थितियां पैदा हुई हैं कि आहत भावनाओं का मामला एक तरह से किसी भी विमर्श की सर्वस्वीकार्य शर्त बन गया है. यानी विमर्श तब ही होगा अगर आपकी भावनाएं आहत हुई हैं.

पिछले 10-15 साल में एक तरह के अनवरत गुस्से से भरे, सतत रूप से क्रुद्ध समाज की रचना हुई है

आहत भावनाओं की राजनीति और 24 घंटे का मीडिया, इसने बहुत बुरी स्थिति पैदा की है. मैं इसे असहिष्णुता नहीं कहता, यह पर्याप्त शब्द नहीं है. पिछले 10-15 साल में एक तरह के अनवरत गुस्से से भरे, सतत रूप से क्रुद्ध समाज की रचना हुई है. इस दौरान समाज में क्रोध का विस्तार होता चला गया, समझदारी की कमी होती गई, भाषा में सपाटपन आता चला गया. मैंने जनवरी में फेसबुक पर शरारत के तौर पर लिखा, विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि इस बार गणतंत्र दिवस पर प्रधानमंत्री जी मुख्य अतिथि होंगे. (ठहाका लगाते हुए) कुछ लोगों को पसंद नहीं आया तो उन्होंने निंदा की, कुछ ने गालियां दीं. लेकिन एक सज्जन ने बाकायदा मुझे कोसा कि आप बड़े भारी प्रोफेसर बनते हैं, बुद्धिजीवी बनते हैं, इतना भी नहीं मालूम कि प्रधानमंत्री तो हर साल गणतंत्र दिवस पर होते ही हैं.

ये जो सतत रूप से क्रुद्ध समाज तैयार हुआ है, ये कैसे संभव हुआ?

इसका सबसे बड़ा कारक है निर्बाध उपभोक्तावाद. मैं यह नहीं मानता कि आप प्रकृति की ओर लौट जाएं, लेकिन एक अर्थशास्त्री मित्र कहते हैं कि ओपन इकोनॉमी की एक सीमा तो है ही और वह है धरती पर उपलब्ध संसाधन. उससे ज्यादा ओपन तो नहीं हो सकती.

अर्थशास्त्री ब्रह्मदेव जी एक बात कहा करते थे कि अगर आपको अमेरिका और यूरोप के वर्तमान जीवन स्तर पर पूरी दुनिया को ले जाना है तो यह एक ही तरीके से संभव है कि आपके पास आठ पृथ्वियां हों और उन आठों का वैसा ही दोहन हो जैसा पिछले 400 साल में हुआ. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा संभव नहीं है. तो निर्बाध उपभोक्तावाद नहीं चल सकता. आप किसी एक सेक्टर के लिए बाकी को छोटा करेंगे. दिल्ली में आॅड इवेन करेंगे लेकिन आॅटोमोबाइल इंडस्ट्री पर लगाम नहीं लगाएंगे. एक परिवार में चार सदस्य हैं और बारह गाड़ियां हैं. आप निर्बाध उपभोग की स्थिति पैदा करेंगे तो जाहिर है कि समाज में अंतर्विरोध पैदा होगा.

तो एक तो इस अबाध, बेरोकटोक उपभोग की स्थिति ने समस्या पैदा की है. दूसरे, पूंजीवाद का सहज स्वभाव है कि यह मनुष्य को उपभोक्ता में बदलता है. यह उसके जिंदा रहने के लिए जरूरी है, इसलिए वह मनुष्य की मनुष्यता को कमतर करेगा. प्रतियोगिता को इस स्तर तक बढ़ाएगा कि वह गलाकाट प्रतिस्पर्धा में बदल जाएगी.

किसी समुदाय के प्रतिनिधि बनकर हत्या कर दें तो आपको कुछ नहीं होगा, बल्कि आपका अभिनंदन होगा. आप मुख्यमंत्री बन सकते हैं

दूसरी समस्या है हमारे अपने समाज के संदर्भ में. हमारे लोकतंत्र का एक बुनियादी अंतर्विरोध दिनोंदिन बढ़ता चला जा रहा है कि एक स्तर पर हम लोकतंत्र हैं, चुनाव से सरकार चुनी जाती है, जनता का शासन है. लेकिन रोजमर्रा की प्रैक्टिस में सामाजिक न्याय और कानून के राज का क्या हाल है? आप निजी तौर पर हत्या करें तो आपको सजा हो जाएगी, लेकिन किसी समुदाय के प्रतिनिधि बनकर हत्या कर दें तो आपको कुछ नहीं होगा, बल्कि आपका अभिनंदन होगा. आप मुख्यमंत्री बन सकते हैं. ये हमारे अपने देश की समस्या है. एक तरह से कानून के राज की समाप्ति हो रही है. न्याय का बोध खत्म हो रहा है. तीसरी बात, पिछले 20 साल में नवउदारवादी व्यवस्था के आने के बाद आप महसूस करते हैं कि पहले एक मध्यवर्गीय आदमी यह मानकर चलता था कि व्यापक समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारी है, जो कुछ उसे मिलता है वह एक व्यापक वितरण हिस्सा है. आजकल एक बड़ा मजबूत बोध विकसित हुआ है कि हम टैक्सपेयर हैं. टैक्सपेयर मनी, ये मुहावरा बहुत झल्लाहट पैदा करता है कि सब कुछ टैक्सपेयर मनी से हो रहा है.

सरकार मैनेजर की भूमिका में है

हमारे समाज में नई तरह की समस्या यह पैदा हुई है कि सरकार मैनेजर की भूमिका में है, संसाधनों का केंद्रीकरण हो रहा है. अमेरिका में जो बात बार-बार कही जाती है कि 99 फीसदी संसाधनों पर एक फीसदी लोगों का कब्जा है, ऐसा अमेरिका नहीं चल सकता. ऐसे समाज में गुस्सा बढ़ता है जो हिंसा या सांप्रदायिकता या दूसरे खतरनाक रूप में सामने आता है.

जिन वजहों से ऐसा समाज बनता है, जाहिर है कि वह आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था है. क्या कोई वैकल्पिक व्यवस्था है जिससे ऐसी स्थिति से बचा जा सके?

किसी भी तरह का अथॉरिटेरियन समाज, उसकी रंगत कुछ भी हो, उसका अस्तित्व नहीं हो सकता.

हां, बिल्कुल है. अार्थिक व्यवस्था से अगर आपका आशय है अर्थतंत्र तो उद्योग अनिवार्य है. अब लोग केवल प्रकृति के नहीं, बल्कि संस्कृति और प्रौद्योगिकी के नजदीक हैं. तो उद्योग होंगे, छोटे भी और बड़े भी. लोगों को वाकई अगर जीवन का एक स्तर चाहिए और विकास चाहिए तो उसके लिए एक जटिल समाज और अर्थतंत्र की जरूरत होगी. सवाल यह है कि उस अर्थतंत्र में संवेदनशीलता संभव है या नहीं. इसीलिए इस उपन्यास में बार-बार कहा गया है कि किसी भी तरह का अथॉरिटेरियन समाज, उसकी रंगत कुछ भी हो, उसका अस्तित्व नहीं हो सकता.

मोटे तौर पर आप कह सकते हैं सोशल डेमोक्रेसी या डेमोक्रेटिक सोशलिज्म. मैं निजी तौर पर मानता हूं कि नए तरह का नेहरू मॉडल हो सकता है जो अपने समय के अनुकूल हो, जो गलतियों से सीखा गया हो. मुझे अपने आपको नेहरूवादी कहने में कोई हिचक नहीं है. एक नवनिर्मित नेहरू मॉडल, एक मिश्रित अर्थव्यवस्था ही सबसे अनुकूल हो सकती है जिसका डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूशन का सपना हो, डेमोक्रेटिक प्रैक्टिसेज का सपना हो. देश आजाद हुआ तो लोगों ने नेहरू से कहा कि तरह-तरह की समस्याएं हैं, ये प्रेस फ्रीडम संपन्न और फैंसी देशों की लक्जरी है, इसको फ्री मत छोड़ो वरना गैरजिम्मेदार हो जाएगा और आपको परेशान करेगा. इस पर नेहरू ने कहा, मैं प्रतिबंधित प्रेस की जगह गैरजिम्मेदार मगर फ्री प्रेस को तवज्जो दूंगा. नेहरू ने गलतियां भी कीं, लेकिन उन्होंने देश की नींव रखी. विज्ञान, कला, साहित्य, सिनेमा, उद्योग हर चीज की नींव रखी.

आपने लिखा है-  ‘आज के दौर का लेखक भी उन बातों को दर्ज करने से दूर है जो सच तो है लेकिन कही नहीं जा रही है’, यह अपने समय और समाज पर गंभीर सवाल है. 

जरूरी है उसे लिखना जो दिखता नहीं है लेकिन जिसे लिखा जाना चाहिए

इसके पीछे एक वाक्य है एक इतिहासकार का, नाम याद नहीं, जो दिखता है उसे लिखना तो जरूरी है ही, लेकिन ज्यादा जरूरी है उसे लिखना जो दिखता नहीं है लेकिन जिसे लिखा जाना चाहिए. मुझे लगता है कि इतिहासकार हों, साहित्यकार, या समाजशास्त्री, सभी की मूल प्रतिक्रिया यही है कि चीजों को समग्र रूप में देख सकें और जो चीजें कही जानी चाहिए उसे कहा जाए. जैसे मिसाल के तौर पर, नाकोहस को लीजिए. असल में नाकोहस नाम की कोई संस्था तो है नहीं. लेकिन जो पूरा माहौल आपने बना दिया है कि आपसे बात करते समय मेरे मन में हल्की-सी चिंता यह है कि मेरे मुंह से कुछ ऐसा तो नहीं निकल रहा कि जिसकी वजह से कल मुझे पकड़कर ठोक दिया जाए कि हमारी भावनाएं आहत हुई हैं. क्या आज यह डर हमारे मन में नहीं है? यह बात मैं औपचारिक-अनौपचारिक, हर रूप में कहना चाहता हूं कि क्या ये सच नहीं है कि किसी भी चीज पर बात करते समय आज स्थिति ये हो गई है कि आप आसपास देख लेना चाहते हैं कि कोई ऐसा व्यक्ति तो नहीं सुन रहा जिससे खतरा हो. असहमति व्यक्त करने में डर लग रहा है. यह स्वस्थ समाज का लक्षण नहीं है, जहां आपको अपनी आवाज से डर लगे. चैनलों की इसमें अहम भूमिका है. बुद्धिजीवियों को आप अपराधी घोषित करके, उन्हें राक्षस बताकर आप जो कर रहे हैं, वो कितना खतरनाक है यह बात कोई नहीं कहता. इसीलिए दुख है कि जो कहा जाना चाहिए वो बिल्कुल नहीं कहा जा रहा है. इसीलिए मैंने यह उपन्यास लिखा है. मुझे नहीं पता कि यह उपन्यास, उपन्यास की दृष्टि से कैसा है, लेकिन एक लेखक के तौर पर अनुभव करता हूं कि कहीं न कहीं लोगों ने उसे खुद से जुड़ा पाया है और वे सिर्फ इसलिए नहीं जुड़े रहे हैं कि वह डर का एक सपाट चित्र प्रस्तुत करता है, बल्कि इसलिए जुड़ाव महसूस करते हैं कि उपन्यास के उन तीन बुद्धिजीवी चरित्रों की मानवीयता, संवेदनशीलता, मन, उनके अंतर्विरोध ये सारी चीजें कहीं न कहीं लोगों से जुड़ती हैं. यह इसलिए भी कि जिस डर को उपन्यास फैंटेसी या कल्पना के रूप में रच रहा है, वह डर लोगों के मन में कहीं न कहीं मौजूद है.

इसी से जुड़ी एक और बात लेखकों की भूमिका को लेकर है कि पहले तीन बुद्धिजीवियों की हत्या, फिर कई को धमकी और हमले, जेएनयू व अन्य विश्वविद्यालयों की घटनाएं हुईं. ऐसे में क्या मानते हैं कि लेखक उस भूमिका में नहीं हैं जिसमें उन्हें होना चाहिए?

नहीं, ऐसा मैं नहीं मानता. लेखक की भूमिका यह नहीं है कि वह हर जगह सीधा हस्तक्षेप करेगा. कुल मिलाकर मुझे लगता है कि सभी भाषाओं के लेखकों ने अपनी बात कही. विरोधस्वरूप पुरस्कार भी लौटाए. जिन लेखकों ने पुरस्कार नहीं लौटाए, उनकी प्रतिबद्धता पर भी मैं संदेह नहीं करता. मिसाल के तौर पर राजेश जोशी और अरुण कमल ने नहीं लौटाया. काशीनाथ सिंह ने लौटाया, नामवर सिंह ने नहीं लौटाया, इससे नामवर सिंह और अरुण कमल कम लोकतांत्रिक नहीं हैं. न उनकी चिंताएं कम प्रामाणिक हैं. पिछले दो-तीन साल में बुद्धिजीवियों और लेखकों ने जैसी भूमिका निभाई है, वह उम्मीद की बड़ी किरण है. आप लेखक से ये उम्मीद मत कीजिए कि वह जाकर किसी पुलिस बंदोबस्त से टकराए, लाठी खाए और जेल जाए. लेखक का बतौर लेखक वह सब कहना मायने रखता है जो कहा जाना चाहिए.
साभार तहलका 
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नमिता गोखले की कल्पसृष्टि की 'शकुन्तला' — पुरुषोत्तम अग्रवाल


Namita Gokhale Shakuntala the play of memory. Excerpts and Purushottam Agrawal's comment.

शकुन्तला — स्मृति जाल

उपन्यास अंश



पुरुषोत्तम अग्रवाल Purushottam Agrawalयह महाभारत की शकुन्तला की कथा नहीं, एक और शकुन्तला की कहानी है। नमिता गोखले की अपनी स्मृति और कल्पसृष्टि की शकुन्तला। उस समय की शकुन्तला जबकि भारत पर सिकन्दर के आक्रमण को हजार वर्ष बीत चुके हैं, और ‘शाक्य मुनि का नया धर्म प्राचीन मत के आधार को खंडित’ कर रहा है। यह उथल-पुथल पृष्ठभूमि में अवश्य है, किन्तु उपन्यास का मर्म उस समय की ही नहीं,  किसी भी समय की स्त्री द्वारा इस सचाई के साक्षात्कार का रेखांकन करने में है कि, ‘तुम्हारे संसार में शक्तिशालिनी स्त्रिायों के लिए बहुत कम स्थान है, और अबलाओं के लिए बिल्कुल नहीं’।

शकुन्तला के लिए सारा जीवन इस संसार में अपना मार्ग, अपना स्थान खोजने का अनुष्ठान है। इस खोज में पहाड़ी गीत की तरह सुख-दुःख का मिश्रण तो है ही, अप्रत्याशित स्वर-कम्पन और उतार-चढ़ाव भी हैं। शरीर और मन दोनों धरातलों पर चल रही प्रेम और तृप्ति की इस खोज में शकुन्तला के व्यक्तित्व का रेखांकन भी है, और निम्नतम इच्छाओं के सामने समर्पण भी। उसकी आत्मखोज का एक धु्रव इस बोध में है कि जीवन जिया और दूसरा इस अहसास में कि इस जीने में ही अपना एक अंश खो भी दिया।
मार्के की बात है इन दोनों स्थितियों के प्रति, शकुन्तला की सजगता-जिसे नमिता गोखले बहुत सधे हुए ढंग से, रोचक आख्यान में पिरोती हैं।

यह कल्पसृष्टि इतिहास के एक खास बिन्दु पर घटित होने के साथ ही ऐन हमारे समय की स्त्री द्वारा भी अपनी अस्मिता की खोज का आख्यान रचती है, स्त्री के कोण से यौनिकता को देखती है, रचती है और उसकी विवेचना करती है। कर्तव्य, अकर्तव्य और मर्यादा के ही नहीं, स्त्री के अपने मन के द्वन्द्वों से भी नितान्त गैर-भावुक और इसीलिए अधिक मार्मिक ढंग से साक्षात्कार करती है। अपने अप्रत्याशित फैसलों से रचे गये जीवन के अन्त में, शकुन्तला घृणा, स्पष्टता, उत्साह और अर्थहीनता के मिले-जुले भावों के बावजूद मानती है, ‘‘संसार सदैव अपने मार्ग पर चलता है, किन्तु कम से कम मैंने अपना मार्ग खोजा तो। यही तारक था, शिव का मुक्तिदायक मन्त्र’’।

अत्यन्त पठनीय, इस उपन्यास की खूबी यह है कि शकुन्तला द्वारा अर्जित साक्षात्कार किसी सपाट नैतिक फैसले का साक्षात्कार नहीं, बल्कि स्याह-सफेद के बीच के विराट विस्तार का साक्षात्कार है, जोकि पाठक के लिए भी अवकाश छोड़ता है कि वह शकुन्तला के जीवन जीने के ढंग से सहमत या असहमत हो सके। उसके द्वारा अर्जित ‘तारक-मन्त्र’ से विवाद कर सके।

 — पुरुषोत्तम अग्रवाल


शकुन्तला

— नमिता गोखले


काशी, शिव की नगरी। यहाँ मृत्यु का वास है, जीवन का उपहास उड़ाती मृत्यु। लोग यहाँ प्राण त्याग जीवन-मृत्यु के चक्र से बचने आते हैं। इन घाटों पर शिव मृतकों के बीच घूमते हैं, उनके कानों में तारक मन्त्र पढ़ कर उन्हें मुक्ति देते हैं।

बनारस की वह पहली छवि मैं कभी भूल नहीं पायी: घाटों पर लपलपाती चिताओं की अग्नि, लहरों पर टूटती उनकी परछाइयाँ। उनके प्रकाश से धूमिल पड़ गया चन्द्रमा। जिह्ना लपलपाती आकाश की ओर लपकती ज्वाला। चिताओं के प्रकाश और चरमराहट के पीछे अँधेरे में डूबा नगर। शकुन्तला ने यहीं प्राण त्यागे थे, इस पवित्र नदी के तट पर। उस जन्म का स्मृति जाल मुझे मुक्त नहीं होने देता।

वर्षा ऋतु के अन्तिम बादल आकाश के किनारों पर छाये हुए हैं। पवन के झोंकों के साथ वर्षा की हल्की, क्लान्त-सी बौछार आती है, मेरे चेहरे पर नम राख छितर जाती है, राख मेरे केशों में भर जाती है। बिखरी हुई स्मृतियों की यह अग्नि-शय्या इसे कैसे नकार दूँ मैं? वह मुझे नहीं त्यागेगी, वह शकुन्तला। मैं उसकी पीड़ा और उसके प्रेमों का यह बोझ उठाये फिरती हूँ, जिसे मैं अभी तक समझ नहीं पायी हूँ।

सदैव की भांति वही पथरीली दीवार पर दीये की काँपती-थरथराती लौ की प्रकाश-क्रीड़ा। बाहर पत्थरों और चट्टानों से टकराती नदी की लहरें, रेतीला तट जहाँ एक मछुआरा अलाव जलाए प्रतीक्षारत बैठा है। शकुन्तला अपने प्रियतम के समीप लेटी है। दोनों की श्वासों की लय जैसे परस्पर गुँथ जाती है। उस पुरुष की देह से मिट्टी और चन्दन की गन्ध उठती है। उसके वक्ष के एक-एक रोम को वह पहचानती है, कैसे उनमें घूँघर पड़ते हैं और कैसे उसके अंक में आते ही वे सपाट हो जाते हैं। उसका मुखड़ा अन्धकार में छिपा है, लेकिन वह जानती है उसके नेत्र शान्त और सतर्क हैं। उसके अंग-अंग को वह पहचानती है। इस पहचान में प्रेम है, समझ है। इसमें वेदना है।

जब वह उससे लिपटी हुई थी, तब उस पुरुष ने उसके कान में क्या कहा था? मुझे तो बस अहाते में मोरों की पिऊ, पिऊ और अशान्त नदी के बहने की प्रतिध्वनि ही सुनाई देती है। एक कौआ निरन्तर काँव-काँव कर रहा था, उसकी विचार-शृंखला को तोड़ता, उसे कुछ बताता।

जल पर प्रकाश का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है, मेरी आँखें चुँधिया गयीं। मैं जैसे किसी और ही काल में पहुँच गयी थी, तब भी गंगा ऐसे ही दमकती थी। सूरज चढ़ आने के बाद भी नदी का जल शीतल है। शकुन्तला को लगा जैसे जल ने आतुरता से आकर उसके घुटनों को जकड़ लिया है, अधीर बालक की तरह उससे लिपट गया है, उसे खींचे ले जा रहा है। पीछे कुछ हलचल-सी हुई,
नमिता गोखले Namita Gokhale

नमिता गोखले


प्रख्यात भारतीय लेखिका, साहित्यकार व प्रकाशक हैं। भारतीय साहित्य के पाठ्यक्रम में पक्षपात को समाप्त करने में संघर्षशील, नमिता गोखले सकारात्मक विरोध की प्रतीक के रूप में जानी जाती हैं।

कॉलेज छोड़ने के तुरन्त बाद नमिता गोखले ने वर्ष 1977 के अन्त में ‘सुपर’ नाम की फिल्मी पत्रिका प्रकाशित की। उनका पहला उपन्यास ‘पारो: ड्रीम्स ऑफ पैशन’ अपनी बेबाकी और स्पष्ट यौन मनोवृत्ति के कारण काफी विवादों में रहा। भारतीय साहित्य के प्रसिद्ध नीमराणा अन्तरराष्ट्रीय महोत्सव और अफ्रीका एशिया साहित्य सम्मेलन शुरू करने का श्रेय उनको ही जाता है। गोखले जयपुर साहित्योत्सव की भी सह-संस्थापक हैं। साथ ही भूटान के साहित्यिक समारोह की सलाहकार भी हैं। वह ‘यात्रा-बुक्स’ की सह-संस्थापक हैं। ‘पारो: ड्रीम्स ऑफ पैशन’, ‘हिमालयन लव स्टोरी’, ‘द बुक ऑफ शाडौस’, ‘शकुन्तला: द प्ले ऑफ मेमोरी’, ‘प्रिया इन इनक्रेडिबल इण्डिया’, ‘द बुक ऑफ शिवा’, ‘द महाभारत’ और  ‘इन सर्च ऑफ सीता’ उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।

ईमेल: namitagokhale@gmail.com

मद्धम-सी छपाक और मृदु हास्य। वह पलट कर देखती है, जल के समीप एक अश्व खड़ा है, उसके उन्नत मस्तक पर एक बड़ा-सा श्वेत चिद्द है। उसकी लगाम थामे खड़ा है एक पुरुष — सुन्दर, बलिष्ठ पुरुष, एक पथिक जिसके नेत्रों में अदमनीय उल्लास झलक रहा है।

और फिर स्वर्ण शिखर पर लहराता-फरफराता लाल ध्वज। दोपहर की बयार उस शाश्वत नगरी की भूलभुलैयों और भवनों से होकर बहती है। नदी के पार, पहले रेत और फिर जंगल हैं। मन्दिरों की घंटियाँ बिना थमे मानो आर्तनाद करती गूँजती हैं। उसके गर्भ में एक घाव है, रक्त की धारा बह रही है। शकुन्तला की श्वास टूट रही है।

स्मृतियों से पीड़ित, पहचान लिए जाने के भय से व्याकुल, वह काशी में परित्यक्ता-सी पड़ी है, लहरों की तटस्थ झिलमिल जैसे उसका उपहास कर रही है। एक श्वान मार्ग के दूसरी ओर से लँगड़ाता हुआ आता है और उत्सुकता से उसे तकता है। उसकी पीड़ा को महसूस कर वह सखा की भाँति उसके समीप बैठ जाता है। भगवा वस्त्राधारी संन्यासियों का एक समूह वहाँ से निकलता है, पाँच संन्यासी। क्या उनमें संन्यासी गुरेश्वर भी है? गुरेश्वर की शान्त दृष्टि उसकी दृष्टि से टकरायी, उनमें भय नहीं है, बस एक नकारने का भाव है। उसमें, उसके भाई में दया नहीं है।

स्वप्न में मैं सियार को देखती हूँ, उसकी आँखें जल प्रवाह में कुछ खोज रही हैं, हमले के लिए प्रतीक्षारत-सी। काली, उसके वक्ष पर मुंडमाला सजी है, वह उसके साथ चल रही है। काली, इच्छाओं की संहारक, स्वप्नों के अवशेषों का भोज करने वाली। यद्यपि वह लगती निर्मम है, पर अत्यन्त ममतामयी है, उसके समीप पीड़ा नहीं है, कोई आशा-आकांक्षा नहीं है। पर शकुन्तला इस सान्त्वना से बच निकली और धारा के विपरीत संघर्ष करती उस जीवन की ओर चल पड़ी, जिसे वह बिना विचारे त्याग आयी थी।

इन छायाचित्रों के मध्य एक जीवन छिपा है।

हम किसलिए जीते हैं? किसलिए मृत्यु को प्राप्त होते हैं? स्वयं से भागने के लिए? क्या जीवन-क्षुधा स्वयं अपना आहार बन जाती है? क्या नदी का जल कभी अपनी पिपासा मिटा सकेगा?

गंगा किनारे एक पंडे से मैं पूछती हूँ कि ये स्मृतियाँ क्यों मेरे पीछे पड़ी हैं। वह क्लान्त है, कुछ उकताया सा। रुपये और सिक्के उसके फटे आसन के नीचे से निकले पड़ रहे हैं। सहस्रों वर्षों से उसके पूर्वज इस नगरी की इन्हीं सीढ़ियों पर बैठते रहे हैं और मेरे जैसे तीर्थयात्रियों का विवरण दर्ज करते आये हैं। शीत ऋतु का आरम्भ है, पर उसने मात्र एक धोती पहन रखी है। नग्न वक्ष पर मात्र एक जनेऊ पड़ा है। उसका वक्ष ढलक गया है और बड़े-बड़े नेत्र दृष्टिविहीन हैं।

‘‘तुम पहले भी यहाँ आयी हो, बहन,’’ उसने कहा, ‘‘इसी नदी के तट पर, इन्हीं सीढ़ियों पर।’’ अपने प्रकाशविहीन नेत्रों से नदी के बहाव को देखते हुए उसने अपनी काँखें खुजाईं। ‘‘अतीत जीवित रहता है। हम सब अपने साथ अपने अपूर्ण कर्मों के अवशेष लेकर आते हैं, ऋणों का बोझ जिन्हें हमें इस जन्म में उतारना होता है। तुम और नहीं भाग सकतीं, बहन। इस जीवन का सामना करो। स्वीकार करने में ही मुक्ति है।’’

सन्ध्या की आरती का समय है। आरती के दीयों की आभा गंगा में बिम्बित हो रही है। घड़ियाल और शंखों की ध्वनि के बीच, मैं घंटियों का रुदन सुनती हूँ। अनवरत रुदन। यहाँ तक कि उनकी प्रतिध्वनि भी अनवरत थी।

कहते हैं भगवान शंकर संहारक हैं, स्मृहर्ता, स्मृतियों के विनाशक। उनकी ही नगरी में मैंने प्राण त्यागे, किन्तु मैं तो कुछ नहीं भूली। अभी तक मुझे याद है कि कैसे शकुन्तला की देह भूखी थी, और कैसे देह को भोगती, उसे चूस कर फेंकती वह वीभत्स हो गयी थी। धूमकेतु की तरह, उस जीवन का अवशिष्ट जन्म-जन्मान्तरों से मेरा पीछा कर रहा है।


लखाती, पतित-पावनी गंगा आषाढ़ माह पार कर गयी। पहाड़ियाँ दूर तक फैले मैदानों को तकती हैं। काँपता नीला-हरा आकाश कमल की पंखुड़ी के रंग का सा हो गया है। ग्रीष्म ऋतु की शान्त धुन्ध में बिजली की पहली गूँज छुपी है।

माँ को घर के कामों में लगा छोड़ कर मैं जंगल में खेलने भाग आयी हूँ। लम्बी घास पर लेट कर आकाश में मँडराते गिद्धों और उकाबों को देखती हूँ, और फिर बादल गिनने में लग जाती हूँ, सबको कोई आकृति और नाम देती हूँ। आकाश में दुन्दुभि बजाता हाथी और एक गदबदा-सा खरगोश मुझे दीख पड़ता है।

बादल छा जाते हैं, और नियति के अपशगुन की भाँति एक अन्धकारपूर्ण समूह बना लेते हैं। मेरा संसार छोटा होने लगता है, आकाश दूर हो जाता है, सब जैसे बच भागते हैं। निराशा का अथाह बोझ मुझे सुन्न कर देता है। व्यक्ति पर यह तब हावी होता है जब सब कुछ समाप्त सा होता लगता है। मैं बदली में डूब जाती हूँ। दुख की आँधी मुझे साथ उड़ा ले जाती है। मैं कहीं गहरे छुपे, अनजाने क्रोध के प्रचंड वेग से संघर्ष करती हूँ। कड़कती बिजली मेरे भयों का उपहास उड़ाती है। वर्षा, गड़गड़ाहट, बिजली, ये सब क्या मेरे दुख, मेरी हताशा को जानते हैं?

फिर वर्षा थम गयी। नम, दबी घास से मिट्टी की सुगन्ध का भपारा फूट निकला। झींगुरों ने अपना उत्तेजक, क्रुद्ध गान छेड़ दिया। तीव्र बौछार ने नीले कीड़ों की समूहबद्ध पंक्ति को डुबो दिया। पहाड़ों में इन्हें इन्द्रगोपा कहते हैं। मेढकों की टरटराहट और मोरों की तीव्र पुकार ने मेरे कानों को बींध दिया। अपने चारों ओर की नमी, थम गयी वर्षा की कोंचती स्मृति से घबरा कर मैंने रोना बन्द कर दिया। भावनाओं को निरन्तर रौंदे जाने से थक कर मैं रीत गयी थी, मृतप्राय हो गयी थी। मेरा मलमल का घाघरा भीग कर कीचड़ में लिथड़ गया था, और जब किसी तरह घर पहुँची तो माँ ने मेरे मुँह पर तीन-चार चाँटे जड़ दिये।

‘‘दुष्ट, निर्लज्ज लड़की!’’ वे चिल्लाईं। ‘‘तू क्या मुझे सताने, यातना देने के लिए ही जन्मी है?’’

शुष्क नेत्रों से मैं उन्हें जैसे दूर से देखती रही: झुर्री पड़ा धँसा चेहरा, काँपता मुँह, फटे, सफेद होंठ, उनके किनारों पर थूक की हल्की सी परत जम गयी थी। मुझे उन पर दया आयी, कुछ-कुछ घिन भी।

एक बार पुनः, भावनाओं का बोझ मेरे भीतर टूटने लगा। मैं अनबहे आँसुओं से काँप उठी। माँ ने अचकचे भाव से मुझे सीने से लगाना चाहा, वे जानती थीं कि मैं उन्हें परे कर दूँगी। पूरी रात मैं बाँज की लकड़ी की पुरानी देहरी पर बैठी रही, अकेली अपने क्रोध और दुख से जूझती। मेरे रोने-धोने के बीच किसी पल पूर्व से प्रभात की सुनहरी किरणें फूट पड़ीं, और तब मैं पीछे के कमरे में अपनी छोटी-सी पुआल पर सोने चली गयी।

कालिदास के महाकाव्य की नायिका के नाम पर मेरा नाम शकुन्तला रखा गया था, यद्यपि उसकी शकुन्तला मेरी भाँति मनुष्य नहीं थी। मेरी नामराशि वह दिव्य थी, अमरत्व प्राप्त अप्सरा मेनका की पुत्री। मेनका, जिसने ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग करके उनका वीर्य चुरा लिया था। उस शकुन्तला को उसकी माँ मेनका ने त्यागा, जन्मदाता पिता विश्वामित्रा ने त्यागा और बाद में उसके पति दुष्यन्त ने त्याग सम्भवतः वह अपने भीतर त्यागे जाने का संस्कार वहन कर रही थी। कुछ लोग इस नाम को अभागा कह सकते हैं।

मेरी माँ ने मेरा नाम शकुन्तला रखा था। मैंने कभी इसका कारण नहीं पूछा। वे कोई दिव्यात्मा या अप्सरा नहीं थीं, न ही विदुषी रसिका थीं, बल्कि एक मामूली-सी पहाड़ी स्त्री थीं, जिन्हें जड़ी-बूटियों द्वारा चिकित्सा करने का व्यसन था। मैं चार वर्ष की थी तभी मेरे पिता चल बसे थे। हमारे अरक्षित जीवन में उनकी अनुपस्थिति सदैव उपस्थित रही। मुझे अपनी माँ की पहली याद उनके चिकित्सा में रत होने, हमारे उपवनों में लगन से जड़ी-बूटियाँ छाँटते रहने की ही है। मेरे पिता वैद्य थे। माँ ने जो थोड़ा-बहुत जड़ी-बूटियों का ज्ञान पाया, वह उन्हीं की देन थी। आमलक का तेज कसैलापन, अश्वगन्धा की खट्टी गन्ध बचपन की इन्हीं स्मृतियों में स्वयमेव जुड़ गये थे।

हमारी दोनों गायों का चारा-सानी भी माँ करतीं। उनके हाथों और कपड़ों में बसी पहाड़ी जड़ी-बूटियों की गन्ध में दूध और गोबर की गन्ध भी समा गयी थी। मुझे गायों से, उनके भले नेत्रों और लाल खुरदुरी जिह्ना से स्नेह था, लेकिन उन्हें दुहने में मुझे भय लगता कि मैं भी माँ के समान गन्धाने लगूँगी। माँ मुझे वक्ष से लगातीं, तो मिलीजुली गन्धों का एक भभका-सा आता, और मैं उनके बेध्यानी में भरे आलिंगनों से चुपचाप निकल भागती और घर के बाहर उद्यान में खेलने लग जाती।

सादा-सा उद्यान था हमारा। हमने पुष्प कम ही लगाये थे, किन्तु पोदीना, तुलसी, कान्ताकारी और अन्य उपयोगी जड़ियाँ बहुतायत से लगायी हुई थीं। माँ उन्हें स्वयं ही रोपतीं, उनका ध्यान रखतीं, उसी क्रम में जिसे उन्होंने यत्नपूर्वक सीखा था, समझा था और बाद में अपने अनुभव से सुधारा था। पटुआ को अमावस्या की चन्द्रविहीन अर्द्धरात्रि में ही रोपा जाता है, श्यामा तुलसी की पत्तियों को सूर्य देव के दिन अर्थात रविवार को नहीं तोड़ा जाता। उन्होंने ज्ञान की अपनी यह थाती मुझे सौंपनी चाही, किन्तु मैंने इस प्रबलता से इन प्रयासों का विरोध किया कि मुझे स्वयं पर आश्चर्य हुआ। माँ की हर बात से मुझे घृणा थी, उनके उलझे केशों, लँगड़ाती चाल और उनके कटे-फटे गन्दे पाँवों, सबसे। मैं उनके समान कभी नहीं बनना चाहती थी।

महाकाव्य की शकुन्तला की भाँति मैं भी पर्वतों में पली-बढ़ी थी। हमारी ओर के पहाड़ी लोग वनवासी कहलाते हैं। जीवन पथ कठिन था, सुख-साधन कम थे और नगरवासियों की तुलना में हमारा रहन-सहन अत्यधिक भिन्न था। नहाने आदि के लिए जल नहीं था, हमें बहुत दूर पहाड़ी के नीचे से जल भर कर लाना होता था। हमारा घर सदैव ठंडा, सीलनभरा और नम रहता था। मैं पुआल के बिस्तर पर सोती थी और प्रायः मकड़ी या कनखजूरे के रेंगने से जग जाती थी।

[ 2 ]

सँकरी घुमावदार गली के नुक्कड़ पर तीन गाय झुंड बनाये खड़ी थीं। उनकी उष्ण पशुगन्ध ने मुझे घर का स्मरण करा दिया। दास्यु और उसका बछड़ा मेरे नेत्रों के सामने साकार हो गये। क्या उन्होंने मुझे स्मरण किया होगा अथवा मेरी कमी अनुभव की होगी? इस विचार के साथ ही पहाड़ों के ताज़ा मक्खन और थक्केदार दही का स्वाद मेरी जिह्वा पर तिर गया।

दूर कहीं से मन्त्रोच्चार की ध्वनि उभरी, संन्यासियों की एक शोभायात्रा आती दिखाई दी। उनमें सबसे लम्बे संन्यासी में उसे गुरेश्वर की सी छवि प्रतीत हुई, वही सकुचाहटभरी उदारता, अपूर्ण सा अलगाव। क्या यह वही है? वे अभी भी दूर हैं। वह समझ नहीं पाती कि संन्यासियों की ओर बढ़े अथवा छुप जाए। उनके पीछे कहीं से एक आक्रामक साँड़ दौड़ा चला आता है, उनको छिटका कर अलग करता, मन्त्रोच्चार को शान्त करता। एकनिष्ठ उद्देश्य से वह शकुन्तला पर आक्रमण कर देता है। उसका गर्भ अनार की भाँति फट जाता है, पथरीली पगडंडी पर रक्त की बूँदें बिखर गयीं।

एक संन्यासी उसकी ओर दौड़ा। अपने भगवा वस्त्रा को फटकार कर उसने क्रुद्ध पशु को दूर किया। इस दंड से शान्त हो वह शिव का वाहन दूर चला गया। तीनों गाय, नियति की मूक त्रिधारा सी मन्दिर के बाहर पड़ी भेंटों और प्रसाद के अवशिष्ट खाती रहीं।

एक काषिणी ऊँचे तलवों वाली पादुकाएँ पहने पगडंडी पर लड़खड़ाती-सी चली जा रही थी। धूप से बचने के लिए उसने बाँस और रेशम से निर्मित छत्रा ले रखा था। शकुन्तला की याचक दृष्टि उसके नेत्रों से टकराई। ‘मेरी पुत्री को बचा लो,’ वह कह रही थी, यह मौन स्वर काषिणी को खींच लाया। स्त्री पगडंडी पर बहते रक्त को पार कर शकुन्तला के समीप आ कर बैठ गयी। सतर्क हाथों ने उसके गर्भ को जाँचा, रक्त के ढेर में जीवन के चिद्द खोजे।

‘‘अपना वस्त्र दीजिए,’’ काषिणी ने आदेशात्मक स्वर में संन्यासी से कहा। विनीत भाव से उसने अपना वही भगवा वस्त्रा काषिणी को सौंप दिया, जिससे उसने शिव के बैल को भगाया था। काषिणी ने मरणासन्न स्त्राी के उदर पर वस्त्रा बाँध दिया। क्षणांश में वस्त्र पर माणिक की सी गहरी लाल बूँदें झलक आयीं।

शकुन्तला पीड़ा से दोहरी हो रही थी। गहन पीड़ा से वह कराह रही थी, छटपटा रही थी। शिशु को गर्भ से निकालती काषिणी की उँगलियों में धारण की रत्नजड़ी अँगूठियों ने उसके घाव को और छील दिया था। जीवन का रुदन गूँज उठा, शिशु का कोमल रुदन।

‘‘वह जीवित है,’’ भयाक्रान्त स्वर में संन्यासी कह उठा, ‘‘शिव की कृपा से बालक जीवित है!’’ उसने बालक को लेने के लिए बाँहें फैला दीं।

‘‘एक शिशु और है,’’ काषिणी ने कहा। ‘‘इसके गर्भ में एक जीवन और है!’’ शकुन्तला को अपनी पुत्री की आशा थी, उसकी प्रतीक्षा थी। संन्यासियों के मन्त्रोच्चार के साथ ही शिशु के रुदन का स्वर भी दूर होता गया। ‘‘ईश्वर के अनुगामी तुम्हारे पुत्रा को साथ ले गये हैं,’’ काषिणी ने कहा। ‘‘यह तुम्हारा सौभाग्य है कि वह उनके आश्रय में है।’’

शेष बचे जीवन के भार को अपनी देह से निकालने के प्रयास में शकुन्तला के अधरों पर रक्त झिलमिला उठा। काषिणी ने उसे सान्त्वना दी, उसका मस्तक सहलाया। अपनी पुत्री का, उसके साथ अकेले जीवन बिताने का स्वप्न देखती शकुन्तला मुस्कुरा दी। उसका मस्तिष्क भटकता हुआ निर्जन परित्यक्त मन्दिर में उसे ले गया, उसके गर्भगृह में जहाँ थरथराती-सी दीये की लौ है, पाषाण-योनि पर पुष्प अर्पित हैं।

वह काषिणी की रत्नजड़ित उँगलियों को शिशु को निकालते अनुभव करती है। वह धैर्य से शिशु आगमन की सूचना देते रुदन को सुनने की प्रतीक्षा करती है, किन्तु कुछ सुनाई नहीं देता। समय विस्तृत होता है, संकुचित होता है। शिव, स्मृहर्त्ता, स्मृति-विनाशक। वे शकुन्तला के ऊपर झुकते हैं, उसके कान में तारक मन्त्र पढ़ते हैं। वह उनके वाहन, बैल के क्रुद्ध नेत्र देखती है, उसके सींग शिव के मस्तक पर विराजे चन्द्रमा की भाँति चमक रहे हैं। मृत्यु-छाया उसे घेर लेती हैं।

यह उसे नदी की कलकल सुनाई दे रही है, अथवा शिव का डमरू, समय की ताल है अथवा उसके रक्त का प्रवाह, अथवा उसकी टूटती साँसों की लय है? वह अपनी पुत्राी को पकड़ने का यत्न करती है, काषिणी उसे रोकती है। ‘‘इस संसार में हमारे लिए स्थान नहीं है,’’ वह हौले से कहती है।

सूर्य अभी आधा ही चढ़ा है, दोपहर ठहर गयी है। एक श्वेत प्रकाश मुझ पर छा जाता है। उदार हाथ पीतल के पात्रा से जल उड़ेल रहे हैं, किन्तु मेरे मुख में रक्त और ज़ंग का ही स्वाद है, मैं जल नहीं पी पाती। नदी असहज हो रही है। मेरे भीतर एक क्रोध फन उठाता है, घृणा, स्पष्टता और उत्साह का मिलाजुला भाव। यह अर्थहीन था, मैं जान गयी थी कि मैंने अपना जीवन निश्चित मार्ग की जगह अन्य प्रकार से जीना चाहा। संसार सदैव अपने मार्ग पर चलता है, किन्तु कम से कम मैंने अपने मार्ग को खोजा तो। यही तारक था, शिव का मुक्तिदायक मन्त्र।

सम्भवतः मैं सो गयी थी, क्योंकि जब दुबारा आँख खोली, तो मेरे समक्ष तारे जगमगा रहे थे। मैंने चिरपरिचित त्रिकोणीय वाण को देखा। ओरायन नक्षत्रा, नीरकस कहता था। उसने कहा था जब श्वान नक्षत्रा ऊपर उठता है, तो एजिप्टस नदी के पास की धरती को बाढ़ निगल लेती है।

संसार बहुत विशाल है, किन्तु यहाँ, नदी के किनारे, रात्रि की मन्द बयार मेरे मस्तक को शान्त करती है, लहरों की ध्वनि मेरा आलिंगन करती है।

उषा ने आकाश में अपना कपटजाल फैला दिया है। ब्रह्ममुहूर्त है, जब विधाता सारे संसारों को सन्तुलन में रखते हैं। मैं आने वाले वर्षों की झलक देखती हूँ, वे प्रातः की श्वास की भाँति थे, मेरे कानों में एक फुसफुसाहट के समान, एक आमन्त्राण देते से। तभी मन्दिर के घंटे अनवरत रूप से बजने लगे।

लम्बे अन्तराल के पश्चात मुझे अपनी माँ का ध्यान आया, वे कभी किसी बात से नहीं डरती थीं। उनका मुख मेरे स्मृति-पटल पर साकार हो गया, चिन्तित, सतर्क, जब मैं शिलाजीत की खोज में पहाड़ी पर चढ़ रही थी, क्या उनके नेत्रों में अश्रु थे?

‘‘मेरे लिए रोओ मत,’’ मैंने धीमे से कहा, प्रत्यक्षतः किसी से नहीं। मैं अपनी पुत्री के लिए नहीं रोऊँगी, अपने अश्रु व्यर्थ नहीं करूँगी। मैंने अपना जीवन भी वृथा नहीं किया। मैंने जीवन जिया।

मन्द पवन की भाँति मैं स्वयं को तैरते, ऊपर और ऊपर आकाश की ऊँचाइयों में एक काली पतंग के समकक्ष उड़ते देखती रही।
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कहानी: नाकोहस - पुरुषोत्तम अग्रवाल

ये वो समय है - जब ‘सच’ से सरोकार रखने वाली तक़रीबन हर बात और खबर आदि छुपा दी गयी है, अभिव्यक्ति एक ऐसे दौर से गुज़र रही है, जिसके बुरा होने और इसे जानने के बावजूद भी अच्छा-दौर कहा जा रहा है.

इस अच्छे समय की सच्चाई को कहानी में बांधने का काम ‘नहीं’ हो रहा है, शायद यही कारण है कि इतिहास से वो सच, जो उस समय के शासक के खिलाफ़ होता रहा होगा, हमें आमतौर से पढ़ने को नहीं मिलता. ‘’नाकोहस’’ एक कहानी के रूप में ‘’पाखी’’ में प्रकाशित हुई है, विधा चूँकि कहानी की है इसलिए प्रो० पुरुषोत्तम अग्रवाल की इस कृति ‘’नाकोहस’’ को ‘कहानी’ कहना पड़ रहा है... वर्ना  पुरुषोत्तमजी ने इसमें जो लिखा है वो, जैसा मैंने शुरुआत में आपसे कहा है उसी में आगे जोडूं तो कह सकता हूँ “आज के दौर का लेखक भी उन बातों को दर्ज़ करने से दूर है जो सच तो हैं किन्तु सच कही नहीं जा रही”

फिलहाल ‘’नाकोहस’’ शब्दांकन पर इस लिए प्रकाशित हो रही है कि आने वाली पीढ़ी हमें वही गालियाँ न दे जो हम इतिहासकारों को देते हैं कि उन्होंने सच को लिखा ही नहीं; और इसलिए भी कि कहानी को पढ़ आप अपने इर्दगिर्द और अपने भीतर झांक सकें...

कहानी उपलब्ध कराने के लिए पाखी संपादक भाई प्रेम भारद्वाज को आभार...

भरत तिवारी



नाकोहस

पुरुषोत्तम अग्रवाल

सुकेत जानता था कि हमेशा यादों में डूबे रहना व्यक्ति और समाज के बचपने का लक्षण है, कहता भी था ‘यार, बहुत ज्यादा अतीत घुसा हुआ है हमारी चेतना में...वी हैव टू मच ऑफ हिस्ट्री...संतुलन होना चाहिए...’
सपने में वह गली थी, जहाँ बचपन बीता था। सड़क से शुरु हो कर गली, चंद कदम चलने के बाद चौक पर पहुँचती थी, जहाँ मोहल्ले का घूरा था और जहाँ होली जला करती थी। यहाँ से तीन दिशाओं की ओर सँकरी गलियाँ जाती थीं। सामने की ओर जाने वाली गली में आगे चल कर एक और चौक आता था, जहाँ मंदिर और मजार का वह संयुक्त संस्करण था, जिससे वह गली अपना नाम अर्जित करती थी। सुकेत ने देखा, उस गली से एक मगरमच्छ आ रहा है, रेंगता हुआ, दुम इत्मीनान से मटकाता हुआ, गली की छाती पर मठलता हुआ, आता है घूरे वाले चौक तक। अरे, सुकेत पहली बार देखता है कि यहाँ एक हाथी लेटा हुआ है, मगरमच्छ हाथी की एक टाँग चबाना शुरु कर देता है, हाथी छटपटाता है, लेकिन जैसे जमीन से चिपका दिया गया है, केवल चीख सकता है, अपनी जगह से हिल नहीं सकता। इसी बीच दूसरी गली से एक और मगरमच्छ आता है, हाथी की दूसरी टाँग पर शुरु हो जाता है। हाथी की दर्द और दुख से भरी चीखें जारी हैं, वह शायद वैकुंठवासी नारायण को ही पुकार रहा है, जैसे पुराण-कथा में पुकार रहा था, किंतु या तो चीखें वैकुंठ तक पहुँच नहीं रहीं, या नारायण को अब फुर्सत नहीं रही।

‘मैं ईसाई घर में जन्मा जरूर, लेकिन ईसाई हूँ नहीं...’
‘आप स्वयं को ईसाई कहलाना पसंद नहीं करते, लेकिन पसंद का जमाना गया, यह पहचान का जमाना है, आप चाहें ना चाहें आपकी पहचान तो ईसाई की है, मरते दम तक रहेगी, मरने के बाद तक रहेगी... (नाकोहस - पुरुषोत्तम अग्रवाल)


जिंदगी हस्ब-मामूल चल रही है। वाटरकर साहब काली टोपी, लाल टाई लगाए साइकिल पर दफ्तर रवाना... त्रिवेदीजी अपनी मोटर-साइकिल पर। सब्जी वाला ठेला लेकर आया है, उसने हाथी और उसे भंभोड़ते मगरमच्छों से बस जरा सा बचाकर ठेला लगा दिया है, आवाज लगा रहा है... ‘कद्दू ले लो, भिंडी ले लो, लाल-लाल टमाटर...’ गृहणियाँ ठेले की तरफ बढ़ रही हैं, मगरमच्छ हाथी को चबा रहे हैं.... हाथी की चिंघाड़ें करुण रुदन में बदल रही हैं, धीमी हो रही हैं, जमीन पर चिपकी देह में जो थोड़ी-बहुत हलचल थी, वह कम से कमतर होती जा रही है... आँखें आसमान बैकुंठ की ओर तकते-तकते अब अपनी जगह से लुढ़कती जा रही हैं... कहीं नहीं दिख रहे गरुड़ासीन, चतुर्भुज नारायण... सुकेत खुद हाथी की ओर से प्रार्थना कर रहा है कि गरुड़ासीन नारायण नहीं तो महिषासीन यम ही आ जाएँ... दोनों में से कोई न हाथी पर कान दे रहा है, और न सुकेत पर... हाथी की चिंघाड़-चीत्कारें बस शून्य में जा रही हैं, वापस आकर दर्द की लहरों का रूप लेती उसी की देह में व्याप रही हैं, उन्हें न वैकुंठ लोक के नारायण सुन रहे हैं , ना यमलोक के देवता और ना भूलोक के नर-नारी...


सपने के अक्स पसीने की बूंदों में ढलकर जगार तक चले आये थे, स्मृति में बस गये थे। स्मृति ताकत भी थी, कमजोरी भी। बचपन में उसे पींपनी-फुग्गे वाले के खिलौनों में सबसे ज्यादा चाव चूड़ियों के टुकड़ों से बनाए गये कैलिडोस्कोप का था। वह न जाने कितनी-कितनी देर गत्ते के उस छोटे से सिलेंडर को आँख से चिपका कर घुमाता, दूसरे सिरे पर बनते, पल-पल शक्ल बदलते, रंग-बिरंगे आकारों को निहारता रहता था। बचपन से इतनी दूर, आज भी मन में एक दूसरे से जुड़ी-अनजुड़ी हजारों यादें चूड़ियों के उन टुकड़ों जैसी अनगिनत शक्लें बनाती रहती थीं। फर्क यह था कि गत्ते के कैलिडोस्कोप में चूड़ियों के टुकड़े मनमोहक आकारों में ढलते थे, यादों के कैलिडोस्कोप में बनने वाले ज्यादातर आकार या तो भरमाते थे, या डराते थे। मगरमच्छों द्वारा भंभोड़े जा रहे हाथी का अक्स आज भी देह को पसीने से भर देता था। वह नहीं भूल पाया था कि परंपरा में हाथी शरीर-बल के साथ बुद्धि-बल के लिए भी अभिनंदित प्राणी है। वह नहीं भूल पाया था, गजोद्धार की, तथा दीगर कथाएँ। यह कथा-स्मृति सपने के हाथी की बेबसी को, उसकी दुचली-कुचली हालत को, नर- नारायण और यम की बेरुखी को और गाढ़े दुख में रंग देती थी। हालाँकि, सुकेत जानता था कि हमेशा यादों में डूबे रहना व्यक्ति और समाज के बचपने का लक्षण है, कहता भी था ‘यार, बहुत ज्यादा अतीत घुसा हुआ है हमारी चेतना में...वी हैव टू मच ऑफ हिस्ट्री...संतुलन होना चाहिए...

संतुलन? इस समय, कुछ लोग वर्तमान को अतीत के हिसाब-किताब बराबर करने वाला अखाड़ा समझ रहे थे, तो कुछ वर्तमान के जादुई गलीचे पर सवार ऐयाशी की हवा में उड़ानें भर रहे थे। जिन्दगी की चाल भी बहुत तेज-रफ्तार थी, क्या घर में, क्या सड़क पर, हर जगह हर आदमी न जाने कहाँ फौरन से पेश्तर पहुँच जाने की जल्दी में था। तेज-रफ्तार वक्त में सुकेत और उसके जैसे लोग बीते वक्त में कहीं जमे रह गये फॉसिल थे, ऐसे पुरालेख थे, जिन्हें हर कोई कोसता था कि दफ्तरों में, गलियारों, दुनिया में खामखाह जगह घेरे हुए हैं।

यह मगरमच्छों द्वारा भंभोड़े जा रहे हाथी की करुण चिंघाड़ के साथ टूटी नींद की आधी रात थी, देह को पसीने से भिगोती जगार के साथ शुरु हुई आधी रात....

चलो’....

अरे, ये तो वही बलिष्ठ गण हैं, जो कभी मोहल्ले में दिखते हैं, कभी टीवी के परदे पर। कभी किसी फिल्म-शो में पत्थर फेंकते नजर आते हैं, कभी पार्क में बैठे नौजवान जोड़ों को सताते... कभी किसी साहित्योत्सव में किसी लेखक के आने की संभावना भर से वहाँ नमाज पढ़ कर अपनी ताकत दिखाते, कभी किसी पेंटर के देशनिकाले का उत्सव मनाते... कभी लड़कियों को रेस्त्राँ से मार-पीट कर भगाते, कभी माथे पर सिन्दूर लगा लेने वाली लड़कियों के विरुध्द मुहिम चलाते, कभी किसी फिल्म पर रोक लगाने को सामाजिक न्याय का प्रमाण बताते, कभी किसी लेखिका को धर्मगुरुओं के सामने घुटने टेकने का आदेश देकर अपनी धर्मनिरपेक्षता साबित करते... हर तरफ आहत भावनाओं का बोल-बाला था... 

टीवी की ब्रेकिंग न्यूज के इन दिनों में ये सारे देश में ग्राउंड-ब्रेकिंग रफ्तार से बढ़ते ही चले जा रहे थे। टीवी चैनल ऐसे नमूनों को जन्म देने वाली जच्चाओं की भूमिका निभा रहे थे, और सुधी विमर्शकार दाइयों की। 


एक बार खुर्शीद ने कहा भी था, “अमाँ, यह ससुरी धर्मनिरपेक्षता तो अपने देश में आहत भावनाओं की एंबुलेंस बनती जा रही है...” 

और अक्ल की बात करने वालों की मुर्दागाड़ी...” रघु ने टुकड़ा जड़ा था। रघु तो अपने नाम से ही भावनाएं आहत करने का अपराधी था, क्योंकि “यह दुष्ट ईसाई होकर भी हिन्दू नाम धारण करता है, सो भी भगवान राम के पूर्वपुरुष का”। रघु क्या बताता कि उसके ईसाई पिता को हिन्दू परंपराओं की कितनी भावपूर्ण जानकारी थी, रघु के चरित्र से वे कितने प्रभावित थे, अपने बेटे का नाम रघु रख कर कितना सुख अनुभव करते थे....बताने से होना भी क्या था?

सुकेत को याद था कि बचपन के दिनों में उस उनींदे नगर में भी ऐसे नमूने थे, लेकिन उपेक्षित... आजकल के मुहाविरे में, ‘हाशिए पर’। लोग उनकी नैतिक चिंतावली सुन भी लेते थे, और हँस कर टाल भी देते थे। लेकिन, टीवी की ब्रेकिंग न्यूज के इन दिनों में ये सारे देश में ग्राउंड-ब्रेकिंग रफ्तार से बढ़ते ही चले जा रहे थे। टीवी चैनल ऐसे नमूनों को जन्म देने वाली जच्चाओं की भूमिका निभा रहे थे, और सुधी विमर्शकार दाइयों की। लेकिन, अपनी जच्चाओं और दाइयों को छोड़ ये नैतिक नौनिहाल मेरे घर में कैसे घुस आए? कौन हैं ये लोग, गुंडे या यमदूत? ले कहाँ जा रहे हैं? यमलोक?

यमदूत आत्मा को पता नहीं किस वाहन में ले जाते हैं। सुकेत को तो कार में उन्हीं जानी-पहचानी सड़कों से सशरीर ले जाया रहा था। बड़े-बड़े होर्डिंगों पर, फ्लाई-ओवरों और अंडर-पासों की दीवारों पर अजीब से नारे, अजीब से ऐलान चमकते दिख रहे थे। रास्ते में पड़ने वाले अंधेरे टुकड़ों में भी ये ऐलान फ्लोरसेंट रंगों से लिखे हुए थे—‘नाश हो इतिहास का’, ‘दस्तावेजों को जला दो, मिटा दो’, ‘कला वही जो दिल बहलाए’, ‘साहित्य वही जो हम लिखवाएँ’... 


हर ऐलान के नीचे एक लाइन ज़रूर लिखी थी, कहीं-कहीं वह लाइन ही मुख्य ऐलान थी—‘ हर सच बस गप है, सबसे सच्ची हमारी गप है’...यह लाइन हर जगह अंग्रेजी में भी लिखी थी। आखिर मूल लाइन तो इस वक्त, यहीं क्यों, हर जगह अंग्रेजी से ही आ रही थी, इंग्लैंड वाली नहीं, अमेरिका वाली अंग्रेजी से—‘ऑल ट्रूथ इज़ फिक्शन, अवर फिक्शन इज़ दि ट्रूएस्ट वन’...

इतनी चमक थी सड़क पर कि अँधेरे टुकड़े भी स्याह चमक में नहाए से लग रहे थे। इतनी रफ्तार थी कि सुकेत को ले जा रही कार के साथ सड़क भी तेजी से दौड़ती लग रही थी। तेज-रफ्तार ट्रैफिक के साथ ही ताल दे रही थी कार के भीतर और बाहर हर तरफ गूँजते गाने की रफ्तार। उसी तेज-तर्रार अंदाज का था गाना जैसे सुकेत ने दो-एक बार मॉल्स में या नौजवानों के पसंदीदा हैंग-आउट्स में सुने थे -

‘अक्कड़-बक्कड़ बंबे बौ, अस्सी नब्बे, पूरे सौ 
सौ में लगा धागा/ विकास निकल कर भागा/ 
इसके संग-संग तू भी दौड़/ बाकी सबको पीछे छोड़ 
बुद्धि को तू रख पकड़/ मुट्ठी में कसके जकड़
जो न माने तेरी बात, खुपड़िया उसकी फौरन फोड़
बाकी सबको पीछे छोड़
बम चिक बम चिक बम चिक...’ 

सुकेत के आस-पास बैठे दोनों बलिष्ठ उसके कंधों पर हथेलियाँ ठोकते हुए टेक में टेक मिला रहे थे—‘खुपड़िया उसकी फौरन फोड़/ बाकी सबको पीछे छोड़...बम चिक बम चिक बम चिक’। सुकेत की चिढ़ भरी निगाहों या अपने शरीर को सिकोड़ने का उन पर कतई कोई असर नहीं पड़ रहा था।

जहाँ सुकेत को लाया गया, वह कोई थाना नहीं, कई मंजिलों वाली एपार्टमेंट टावर थी। जिस फ्लैट में उसे ले गये, उसे देख कर लगता नहीं था कि अंदर इतनी ऊंची दीवारों वाला, इतना बड़ा गोल कमरा भी हो सकता है। सामान्य सा घर, सामान्य सा दरवाजा...कदम रखने के पल तक सुकेत किसी सामान्य ड्राइंग-रूम में ही घुसने की उम्मीद कर रहा था, लेकिन दरवाजा खुला डरावनी विशालता से भरे इस इस गोल, नीम-अंधेरे कमरे में।

रघु और खुर्शीद कमरे में पहले से मौजूद थे, या शायद उसी पल वे भी कमरे में लाए गये, जिस पल सुकेत...लेकिन किस दरवाजे से? सुकेत ने पूछना चाहा, असंभव...उसने सुनना चाहा नामुमकिन...तीनों दोस्त एक साथ एक छत के तले...लेकिन बोलने-सुनने से वंचित... उस चिकनी दीवारों, चिकने फर्श वाले गोलाकार के अलग अलग बिंदुओं पर ये तीन दोस्त अनबोले, अनसुने खड़े हैं, जिस सर्वव्यापी बम-चिक शोर से गुजर कर सुकेत यहाँ आया था, उसने यहाँ दीवारों से उधार लेकर चिकना सन्नाटा पहन लिया था। तीनों अपनी अपनी जगह इंतजार कर रहे थे, ना जाने किस बात का, किस घटना का, किस इंसान का...

सुकेत को एकाएक लगा जैसे कोई लंबा गलियारा साँप की सी कुंडली मार कर गोलाकार हो गया है। यह अहसास होते ही वह चिकनी दीवार से कुछ इंच आगे सरक गया, दीवार उसे साँप की देह जैसी लगने लगी थी, सुकेत ने कभी साँप की देह छुई नहीं थी, उस छुअन की कल्पना तक उसे डरावनी भी लगती था, घिनौनी भी...वह सर्प-देह के चंगुल में खड़ा है, यह अहसास ही सुकेत की आत्मा के रेशे-रेशे में डर और बेबसी भरे दे रहा था...मन को समझाने के लिए वह बताने लगा खुद को - नहीं यह साँप की देह नहीं, कोई बहुत लंबी, बल्कि अनंत में चली जा रही सुरंग है जो गोल गोल घूम रही है, घूमते घूमते थक-थक गयी है, गोल कमरे का रूप लेकर सुस्ता रही है...

कमरे के बीचों-बीच यह मंच एकाएक कहाँ से आ गया? शायद मैंने ही ध्यान नहीं दिया...मंच भी है, उस पर मेज भी...मेज के पीछे कुर्सी और कुर्सी पर सिर्फ एक आवाज...

वेलकम, सुस्वागतम...नाकोहस के इस फ्रेंडली इंटरएक्शन—मित्रतापूर्ण वार्त्ता-सत्र—में आप तीनों बुद्धिजीवियों का स्वागत है...

शब्द स्वागत के, लेकिन ‘बुद्धिजीवीकहते समय स्वर में खिल्ली...तीनों को इस पाखंड पर चिढ़ हुई। मैत्रीपूर्ण वार्तासत्र’ के लिए किसी को आधी रात उठवा नहीं लिया जाता। डरावनी सर्प-देह की कुंडली में फँसा कर नहीं रखा जाता। और, यह नाकोहस है क्या बला?



चिंता न करें, आप लोगों को यहाँ आने का कष्ट इसीलिए दिया गया है कि आपके सारे सवालों के आखिरी जबाव दिये जा सकें, आप लोग सवाल-जबाव की बेवकूफी से आखिरी बार छुट्टी पाकर भले लोगों की तरह जीवन के आखिरी दिन तक चैन से जी सकें...

अंतर्यामी का दरबार है क्या यार’....सुकेत ने सोचा, अंतर्यामी आवाज फिर से बोल पड़े इसके पहले ही उसने सवाल दाग दिया, “ चक्कर क्या है...क्या जुर्म है हम लोगों का- जो पुलिस, नहीं पुलिस नहीं, गुंडों के जरिए...”

“इतनी हड़बड़ी से कैसे काम चलेगा?” आवाज एक चेहरे में बदल रही थी। ‘आश्चर्य लोक में एलिस’ के चेशायर बिल्ले की तरह धीरे-धीरे चेहरे का आकार खुल रहा था, लेकिन बिल्ले की नहीं, गिरगिट की शक्ल। उस चेहरे को खुलते देख, सुकेत को अपने सपने के मगरमच्छ याद आने लगे। वैसी ही लंबी सी थूथन खुल रही थी, लेकिन डरावने दाँतों की कतार की जगह लपलपाती जीभ । देह शायद इंसान की ही थी, थूथन बिल्कुल गिरगिट की, जिस पर चेशायर बिल्ले जैसी दोस्ताना शरारत नहीं, सारे सवालों का हल हासिल कर चुकी चेतना की चिकनी कठोरता थी, अटूट आत्मविश्वास की चमक थी, और आवाज में ताकत का ठहराव, ‘आप लोगों को यहाँ पुलिस नहीं लेकर आई है, और गुंडे कह कर, आप जिनकी भावनाएं आहत कर रहे हैं, वे असल में बौनैसर हैं...

बौने सर या बाउंसर ? जो सर लोग हमें यहाँ लेकर आए हैं, देह से तो बौने के बजाय बाउंसर ही लग रहे थे, हाँ, बुद्धि से...

इतना अहंकार उचित नहीं, मान्यवर। अहसान मानिए कि आपकी लद्धड़ बुद्धि फास्ट डेवलपमेंट के इस तेज-रफ्तार जमाने में अब तक बर्दाश्त की गयी है...बाउंसर नहीं, बौनैसर माने बौद्धिक नैतिक समाज रक्षक, संक्षेप में बौनैसर...यू सी, हम कोई बुद्धि-विरोधी नहीं, बल्कि बुद्धि के रक्षक हैं...लेकिन यह अब नहीं चलेगा कि स्वयं को बुद्धिजीवी कहने वाले भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाली समाजद्रोही, राष्ट्रविरोधी हरकतें करते रहें...बुद्धि की मनमानी बहुत हो ली, बुद्धिजीवियों के सम्मान का तमाशा बहुत हो चुका, अब जरूरत है, अनुशासन की... भावनाओं की रक्षा की, इसीलिए बौद्धिक नैतिक समाज रक्षक—बौनैसर—समाज की रक्षा तो करते ही हैं, यह ध्यान भी रखते हैं कि बौद्धिक कर्म अनुशासन-हीनता का रास्ता न पकड़ ले...याद रहे, इन समाज-रक्षकों के बारे में बकवास करना दंडनीय अपराध है...वैसे, यह अपमानजनक टिप्पणी भी तो आपने ही की थी ना सुकेत सर...कुछ ही दिन पहले कि इन दिनों इमारतें ऊंची होती जा रही हैं, और मनुष्य बौने...

इसमें अपमानजनक क्या है? किसका अपमान किया मैंने?

सारे मनुष्यों को बौने कहा, और पूछ रहे हैं कि अपमान किसका किया...

  यों तो मैंने अपना भी अपमान किया...

आप अपना अपमान नहीं कर सकते, जैसे आत्महत्या नहीं कर सकते”, अधिकारी की आवाज का ठंडापन बर्फ का सा था, हाँ थूथन लाल हो गयी थी, “आत्म- हत्या हो या आत्म-अपमान...आप ही कर लेंगे तो हम क्या करेंगे? हमारा काम हमें करने दीजिए....

सुकेत को एकाएक याद आया, बचपन में, घर में फ्रिज नहीं था; गर्मी में मुन्ना बर्फ वाले से किलो-दो-किलो बर्फ लाने आम तौर से वही जाता था। मुन्ना सुए और हथौड़े की सहायता से बड़ी सी सिल्ली में से बर्फ का टुकड़ा तोड़ कर तराजू पर रखता था। क्या होगा सुए और हथौड़े की चोट का नतीजा... बर्फीली आवाज की सिल्ली में धकेले जा रहे सुकेत की हिम्मत नहीं हुई, कल्पना करने की।



तो फिर हमारा काम क्या है?’ सुकेत चौंका, यह रघु की आवाज थी, अभी कुछ ही देर पहले तो हम एक दूसरे की आवाज नहीं सुन पा रहे थे, अब...

अंतर्यामी फिर से बोल पड़े, ‘ यह एक छोटा सा डिमांस्ट्रेशन था, सुकेतजी, आप लोगों को समझाने के लिए कि आपकी बोली-बानी, आपके कान-जबान कितने आपके रह गये हैं, और कितने हमारे हो गये हैं...’,सुकेत को लगा कि वह उस आवाज को छू सकता है, यह छुअन भी ऐन वैसी ही, जैसी दीवार की छुअन लग रही थी...सर्पदेह की सी। सुकेत को अपने चेहरे पर, सारी देह पर नीले-काले धब्बे उभरते लगे। उसने हड़बड़ा कर हथेलियों, कलाइयों पर निगाह डाली। कोई धब्बे नहीं थे, लेकिन उसी पल सुकेत अपनी रगों में किसी को दुम मटकाता, मठलता हुआ महसूस कर रहा था....उसकी चीख निकल गयी, ‘मेरे भीतर यह मगरमच्छ...’

अंतर्यामी ने ध्यान नहीं दिया, रघु और खुर्शीद ने भी नहीं। चीख गले से निकली भी थी, या भीतर ही? अधिकारी रघु से मुखातिब था...‘ आपका काम है कमाना, खाना, सोना, रोना और मस्त रहना। यार, कितने तो तरीके हैं इन्फोटेनमेंट के...मन करे तो दूसरों के रोने का रस लो, मन करे तो खुद ही टीवी पर रो कर दिखा दो, भगवान के नाम पर रो लो, देश के नाम पर रो लो...टीवी पर रोने पर कोई रोक नहीं, हाँ, एकांत में रोने के चक्कर में मत पड़ना। एकांत जैसी समाजद्रोही हरकतों को काफी हद तक तो टीवी ने कम कर ही दिया है...बाकी काम जारी है...लोगों को सिखाने के लिए, उनके सीखने को ‘मॉनिटर’ करने के लिए राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण आयोग, राष्ट्रीय अनुशासन संस्थान, विवेक-पुनर्निर्माण समिति आदि का गठन किया गया ही है....हम नाकोहस वालों का अपना मैंडेट है...कुल मिला कर टारगेट यह—कोई भी नागरिक किसी भी हालत में अपने चरित्र को, दूसरों की भावनाओं को चोट ना पहुँचा पाए। एकांत खतरनाक है, एकांत में सवाल पैदा होते हैं, सवालों से निजी दुख और सामाजिक उत्पात जन्म लेते हैं, सो....क्या कहते हैं आप इंटेलेक्चुअल लोग उसे... हाँ, कैथारसिस, विरेचन.... मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी... सारे समाज के लिए रंग-बिरंगा, सुंदर कैथार्सिस मुहैया कराने के लिए तो छोटे से शुक्रिया के मुस्तहक तो हम हैं ही.... क्या ख्याल है ज़नाब खुर्शीद साहब....

मेरे नाम की वजह से उर्दुआने की ज़रूरत तो नहीं थी, बहरहाल शुक्रिया’ खुर्शीद ने अपने जाने-पहचाने अंदाज में कहा, ‘किंतु मेरा निवेदन भी यही है, कृपया बताएँ... हम यदि अपना स्वयं का अपमान तक नहीं कर सकते तो मनुष्य योनि का करें क्या?

अंतर्यामी गिरगिट एकाएक सोच में डूबा लगने लगा। क्या उसे याद आ गया था कि शक्ल गिरगिट की हो, ड्यूटी मगरमच्छ की, लेकिन वह स्वयं भी अंतत: मनुष्य था...

 कमरे में जाने कितनी देर सन्नाटा गूँजता रहा। इन तीनों की आवाज और हरकत फिर से स्थगित कर दी गयी थी। वे अपनी जगह जरा सा हिल लेने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते थे। हाँ, चुपचाप साझा ढंग से मुस्कराना मुमकिन था...रघु और खुर्शीद की मुस्कान बता रही है कि वे भी वही सोच रहे हैं, जो सुकेत खुद सोच रहा है—यह एक सपना है, जो मैं देख रहा हूँ, बाकी दोनों मेरे सपने में हैं, बस। कुछ ही देर की बात है, नींद खुलेगी, सपना टूटेगा, और मैं बाकी दोनों को छका-छका कर बताऊंगा कि सपने में मेरे साथ उन दोनों की भी क्या दुर्गति हुई। मजे मजे में बुलाऊंगा भी कि आज रात फिर दोनों साथ-साथ चले आना मेरे सपने में...

वैसे तो, जैसा कि आप जानते हैं, जगत ही ब्रह्म का सपना है...’ गिरगिट चेहरे के रंग लाल, हरे, नीले हुए जा रहे थे, चिकनी आवाज अब लपलपाती जबान से नहीं, उस गोल कमरे का रूप ले चुकी सुरंग के, उस साँप की कुंडली के कोने-कोने से आ रही थी, ‘ लेकिन, आप यह भी तो जानते हैं कि सपना था, यह अहसास सपने में नहीं, उसके खत्म हो जाने के बाद ही होता है...इस वक्त आप किसी सपने में नहीं, नाकोहस के मैत्रीपूर्ण वार्तासत्र में है...नाकोहस याने नेशनल कमीशन ऑफ हर्ट सेंटिमेंट्स—संक्षेप में नाकोहस, आप आहत भावना आयोग भी कह सकते हैं... ग़ौर करें, ‘नाकोहस’ — इस एब्रिविएशन से यह भी मतलब निकलता है कि आप जैसे लोगों द्वारा फैलाया गया कुहासा दूर करना ही इस कमीशन का मैंडेट है... हिन्दी में भी, ‘आभाआ’ याने बकवास के अंधकार को दूर कर, आनंद और विकास की आभा को बुलाना...आभा आ...आभा को हाँ, कुहासे को ना...नाकोहस...

नाकोहस? आभाआ?’ रघु, सुकेत और खुर्शीद ने एक दूसरे की आँखों में झाँका। आँखों के तीनों जोड़ों में एक सा अचंभा था, ‘ यह बक क्या रहा है, यार...ढेर सारे कमीशन हैं, रोजाना दो-चार बन जाते हैं, लेकिन ये कौन-कौन से कमीशन बखान रहा है, चरित्र-निर्माण आयोग, आहत भावना आयोग, नेशनल कमीशन ऑफ हर्ट सेंटीमेंट्स...हमें पता तक नहीं चला...

 अंतर्यामी गिरगिट-शक्ल ने फिर से जल्दी-जल्दी रंग बदले, शायद यह इन लोगों के बिगूचन पर खुशी जाहिर करने का उसका तरीका था, ‘नाकोहस आपके ऊपर-नीचे-दायें-बायें हर तरफ है...नाकोहस आपका पर्यावरण है। समझदार लोग समझ भी गये हैं, आप जैसों को समझाने की कोशिशें भी बौनेसरों ने की तो हैं...

 बात एक तरह से सही थी, तीनों दोस्त अलग-अलग भी, और साथ-साथ भी भावनाएं आहत करने के आरोप में गालियाँ भी झेल चुके थे, पिटाई भी। आईपीसी 153 ए और आईटी एक्ट 66 ए के केस भी तीनों पर चल ही रहे थे, लेकिन वे सब तो गुंडागर्दी और राजनैतिक बदमाशी की घटनाएँ थीं... यह बाकायदा कमीशन--- नाकोहस---आभाआ....

फैसला किया गया है कि नाकोहस को हवा में घोल दिया जाए, आभाआ की आभा को हर नागरिक के भीतर-बाहर फैला दिया जाए.... मेरे प्यारे बुद्धुओ, नाकोहस तुम्हारी जानकारी में हो ना हो, इसे तुम्हारी नींद में, तुम्हारी साँस में होने की जरूरत है, तुम्हारे घर में, तुम्हारी सड़क पर होने की जरूरत है। मुझे विश्वास है कि इस मैत्रीपूर्ण वार्तासत्र के बाद, तुम तीनों में जरूरी सुधार आ जाएगा, नाकोहस को तुम भी अपने भीतर पाओगे और भावनाएँ आहत करने वाली पापबुद्धि को सदा के लिए बाहर निकाल फेंकोगे’।

रघु चुप नहीं रह सकता था, सुकेत को मालूम था कि वह बोलेगा जरूर। जब वह दमदमी टकसाल में, गोद में एके 47 को लाड़ से बिठाए, खालिस्तान समझा रहे खाड़कुओं के सामने चुप नहीं रहा था, तो इस इस सपने में, इस गिरगिट के सामने उसके चुप रहने की बात तो सपने में भी नहीं सोची जा सकती । लेकिन वह बोला, और अपन सुन ही नहीं पाए तो?



सुकेत की आँखें जीभ लपलपाते गिरगिट की ओर अनुरोध के साथ देखने लगीं। वह जिससे घृणा कर रहा था, उसी से अनुरोध कर रहा था कि रघु की आवाज सुनने दी जाए। रघु इस गिरगिट की ऐसी-तैसी करेगा, यह तय था, लेकिन उस ऐसी-तैसी का मजा ले पाने के लिए सुकेत निर्भर था उसी गिरगिट की मर्जी पर। उसकी मर्जी के बिना वह सुन नहीं सकता था, रघु की आवाज, जैसे कुछ देर पहले रघु और खुर्शीद सुकेत की आवाज नहीं सुन पा रहे थे...

सुकेत के मन में ऐसी घृणा और निर्भरता एक साथ होने की स्मृति अब तक नहीं थी...क्या कभी बाहर आ पाएगा वह विवशता की इस स्मृति से कि अपने रघु की नाकोहस की ऐसी-तैसी करती आवाज सुनने के लिए वह नाकोहस के ही निहौरे कर रहा है...

गिरगिट मुस्कराया, अंतर्यामी ठहरा...सुकेत और खुर्शीद सुन पा रहे थे, रघु की आवाज, ‘सुनिए भाई साहब, ऐसे जादू-तमाशे हमने बचपन से देखे हैं। बड़े होकर तो हालत यह हो गयी है कि...

होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे’...खुर्शीद ने गिरह लगाई, जैसे पचीस बरस पहले दमदमी टकसाल में लस्सी छकते, उपदेश सुनते अपन हँस-हँस कर खुद के डर को छका पा रहे थे, वैसे ही इस अजूबे को भी जिन्दादिली से ही निबटा रहे हैं...

लेकिन इस अजूबे की अपनी इज़ाज़त से...’ मगरमच्छों द्वारा भंभोड़ा जा रहा हाथी सुकेत के समूचे अस्त्तित्व में चिंघाड़ उठा। बल-बुद्धि से महिमामंडित वह विशाल प्राणी बेबस और लाचार था, मगरमच्छों की क्रूरता के सामने...उसकी पुकारें नारायण से दया की भीख माँग रही थीं, या देह चबाते मगरमच्छों से...मैंने तो नारायण के बारे में सोचा तक नहीं, बल्कि इस गिरगिट की ओर ही टिकाई निहौरा करती निगाह, उफ...क्या हो गया है मुझे....क्या हो रहा है हम तीनों को...मैं अकेला ही नहीं, बाकी दोनों की निगाहें भी तो मेरी ही तरह निहौरे कर रहीं हैं इस गिरगिट के...न करें तो आवाज नहीं सुन सकते, कौन जाने अगले पल देख भी न सकें एक दूसरे को...

स्मृति जा रही है पंचतंत्र की कहानी की ओर। मगरमच्छ की क्रूर मूर्खता की, बंदर की चतुराई की उस कहानी में तो बंदर बच गया था, मगरमच्छ को यकीन दिला कर कि वह अपना कलेजा पेड़ पर छुपा कर रखता है। हम उस बंदर की चतुराई से ही तो सीख रहे हैं, रणनीति के तहत निहौरे कर रहे हैं, इस घिनौने गिरगिट से, कोई बात नहीं...

मगरमच्छ मूर्ख मान गया था कि बंदर अपना स्वादिष्ट कलेजा शरीर में नहीं पेड़ की खोखल में छिपा कर रखता है, हम भी इस गिरगिट को मूर्ख बनाकर निकल जाएंगे कि, ‘जी, हम तो अब भावनाएं आहत करने वाली शरारतें घर पर छोड़ कर ही निकला करेंगे...

गिरगिट ने नारंगी रंग लेते हुए सुकेत की ओर तिरस्कार भरी निगाह डाली, ‘मेरी ही मेहरबानी से अपने दोस्त की बकवास सुन पा रहे हो, मन ही मन फिर भी हीरोपंथी झाड़ रहे हो, चाहूँ तो सुनना-बोलना तो क्या हिलना-डुलना तक इसी पल रोक सकता हूँ, याद कर रहे हो उस बदमाश बंदर को, उस बेवकूफ मगरमच्छ को...भूल जाओ यह बकवास, बस अपना सपना याद रखो, सच वही है...

हाथी हिल नहीं सकता। नारायण को परवाह नहीं, यम को जल्दी नहीं। मगरमच्छ आश्वस्त—जीभ को गोश्त का स्वाद, कानों को क्रंदन का सुख मिलने में कोई बाधा नहीं। हाथी की विवशता, मगरमच्छों की आश्वस्ति का सच सुकेत की चेतना में बर्फ तोड़ने वाला सुआ बन कर चुभा...अंदर ही अंदर सारा खून निचुड़ सा गया, चेहरा शर्म और दर्द से बैंगनी होने लगा, गिरगिट ने तृप्ति से जीभ लपलपाई, और खुद भी बैंगनी रंग अख्तियार करते हुए सुकेत की ओर आँख मारी, ‘मेरे बैंगनीपन का कारण अलग है, समझे...

 सुकेत को अपने नाम पर शर्म आने लगी, कैसा सुकेत—सूर्य— हूँ मैं कि...

थैंक्यू खुर्शीद’ रघु कह रहा था, मैं आपकी कोमल भावनाएँ आहत नहीं करना चाहता, लेकिन सरजी इतना तो जानते ही होंगे कि किसी भी वक्त में चालू मान्यताओं और उनसे जुड़ी भावनाओं से ही चिपका रहता तो इंसान आज भी नरबलि चढ़ा रहा होता। बात को समझिए नाकोहस साहब, कहीं न कहीं सत्य तो है ना, कुछ तो है उसकी शकल, हालाँकि उसको पूरा जान पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है, इसीलिए तो उस पर सतत पुनर्विचार जरूरी है...दैट इज ब्लासफेमी फॉर यू...जिसके बिना इंसान आगे बढ़ ही नहीं सकता...



मिस्टर रघु मैं जानता हूं कि ब्लासफेमी क्या चीज है...आपकी तरह ईसाई भले...

मैं ईसाई घर में जन्मा जरूर, लेकिन ईसाई हूँ नहीं...

आप स्वयं को ईसाई कहलाना पसंद नहीं करते, लेकिन पसंद का जमाना गया, यह पहचान का जमाना है, आप चाहें ना चाहें आपकी पहचान तो ईसाई की है, मरते दम तक रहेगी, मरने के बाद तक रहेगी...बाई दि वे, आप पर एक चार्ज यह भी है कि आप अपनी पहचान छुपाने की कोशिश करते हैं, खैर, न जाने किस जमाने की बात आप कर रहे हैं, सत्य होता है एब्साल्यूट सत्य होता है भले ही पूरी शकल न दिखाता हो, पढ़े-लिखे हो कर ऐसी बेवकूफी की बातें...’ आवाज में वह लाड़ भरी सख्ती आने लगी थी जिसका इस्तेमाल पालतू जानवरों से बात करने में किया जाता है, ‘मेरे प्यारे बेवकूफो, सत्य वत्य कुछ होता नहीं, वजूद केवल ताकत का है, इतिहास में पहली बार इस व्यावहारिक सत्य को दार्शनिक रूप मिला है, अब पीछे नहीं जा सकते हम...कोई जरूरत नहीं ब्लासफेमी की, सत्य की खोज, माई फुट... सत्य है क्या? प्याज की गाँठ-- छीलते जाओ, छीलते जाओ, हर परत के नीचे एक और परत, और आँखों में पनीली जलन...बहुत डेमोक्रेसी-वेमोक्रेसी बघारते हो, तुम लोग, जनता को पनीली जलन से बचाना सरकार का कर्तव्य है या नहीं ...सत्य-वत्य बहुत हो लिया अब जो भी खोज होनी है एटीएम में होनी है...एटीएम समझते हो ना?

यार, यह हमें इतना घामड़ समझता है...एटीएम माने ऑटोमेटिक टेलर मशीन, पॉपुलर मुहावरे में एनीटाइम मनी...

मैं जानता था’ गिरगिट की देह ने खुशी के मारे इस बार रंग ही नहीं बदला, फुरहरी भी ली, ‘ जानता था मैं, पुराना इडियम घुसा पड़ा है इडियट किस्म की खोपड़ियों में, एटीएम का नया मतलब है—ऑल टेक्नॉलॉजी ऐंड मैनेजमेंट—साइंस ऐंड टेक्नालॉजी में कन्फ्यूजन की गुंजाइश है, कुछ बेवकूफ हवाई किस्म की थ्योरिटिकल रिसर्च में राष्ट्रीय संसाधन नष्ट करने लगते हैं...मैनेज करना है कि साइंटिस्ट अपने काम से काम रखें, फिजूल के पचड़ों में ना पड़ें... पॉलिसी डिसीजन स्टैटिक्स के आधार पर लिए जाने चाहिएं...तुम्ही बताओ तुम्हारा महान साहित्य, महान संगीत विचार समाज के कितने फीसदी लोगों के काम का है? इन सारी चीजों को मैनेज करना है, इसलिए एटीएम—ऑल टेक्नॉलॉजी ऐंड मैनेजमेंट—इसी में रिसर्च, इसी में विकास... बंद करनी है बाकी हर बकवास...ऐंड दैट इज़ दि फाइनल ट्रूथ, कभी मत भूलना यह सबक़—सत्य वही जो हम बतलाएँ...’

रघु , खुर्शीद और सुकेत गिरगिट की लंबी स्पीच सुनते ही रह गये, बीच में बोलना संभव कहाँ था? गिरगिट अपने मुँह का माइक ऑन करने के साथ ही इन तीनों की जबान पर ताला लगाना भूला कहाँ था? वे केवल ठंडी आवाज सुन सकते थे— ‘मुझे पता है, आप लोग सोच रहे हैं कि...’, पहली बार उस मेज से आती आवाज में बर्फ की सिल्ली की ठंडक के बजाय इंसानी शरारत सुनाई दी, ‘ईसा मसीह का उदाहरण दें या नचिकेता का, उद्धरण नैयायिक उदयन का दें या इब्ने सिन्ना इज्तिहादी का, या वाल्टेयर का, या लाओत्जे का...कबीर और मीरां के नाम तो बस आपके मुँह से अब निकले कि तब निकले...आपको लगता है कि नाकोहस अनपढ़ों का जमावड़ा है? सब मालूम है हमें...आप तीनों का लेख, ‘राइट टू ब्लासफेमी’ भी ध्यान से बांचा गया है नाकोहस द्वारा, “ ब्लासफेमी याने धर्म और भगवान तक की शान में गुस्ताखी करना इंसान का अधिकार तो है ही, मानव-समाज की प्रगति की शर्त भी है...” यही फरमाते हैं ना आप लोग उस निहायत कन्फ्यूजिंग हेंस मॉरली रिपगनेंट ऐंड सोशली डेंजरेस लेख में....उस लेख के बाद हमारी कार्यवाही का कोई असर आप पर नहीं पड़ा, इसीलिए तो आपको इस खास इंटर-एक्शन में आने की जहमत दी गयी है...

उस लेख के बाद नाकोहस की कार्यवाही? तीनों ने एक दूसरे की आँखों से सवाल पूछा, ‘यार, यह हो क्या रहा है? जिस नाकोहस का नाम तक नहीं सुना, उसने अपने खिलाफ कार्यवाही भी कर डाली?’’

कानून की जानकारी ना होना लीगल डिफेंस नहीं होता, यह तो आप लोग नाकोहस बनने के पहले भी जानते-मानते ही आए हैं ना....’ नाकोहस के गिरगिट का अंतर्यामीपन सहज लगने लगा था, जो मन में सोचते थे, उस पर गिरगिट की टिप्पणी अब तीनों में से किसी को जरा भी नहीं चौंका रही थी। गिरगिट कह रहा था, ‘ नाकोहस के होने से आप नावाकिफ हैं, तो नाकोहस का काम रुक थोड़े ही जाएगा...हाँ, हमारे तरीके कुछ अलग हैं, पुलिस-वुलिस से ज्यादा, हम बौद्धिक नैतिक समाज रक्षकों याने बौनेसरों पर या फिर लोगों की अपनी सद्बुद्धि पर भरोसा करते हैं... खुद दुखी, आहत और उत्पीड़ित होने का दावा करते हुए किसी की ठुकाई करना कितना मादक सुख देता है, आप क्या जानें...मैं तो...मुझे तो.. आ..ह...’ गिरगिट को कोई रोमांचक पल याद आ रहा था, ‘मेरी भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले, तुझे तो मैं...ओह...आ...तेरी तो मैं आह...अरे बेवकूफों तुम क्या जानो, कितना मजा है इसमें...हाय...आह ओह...

गिरगिट उस सुख को याद कर रहा था, जो वह भावनाएँ आहत करने वालों की देहों को क्षत-विक्षत करते समय पाता था, मुँह से निकलती सीत्कारें, लंबोतरे चेहरे पर छा रही खुमारी, लपलपाती जीभ पर चमक रही तृप्ति ऐसी थी मानो वह किसी परम काम्या नारी के साथ सेक्स का सुख ले रहा हो।

सुकेत को याद आ रहा था, ब्लासफेमी वाले लेख के पहले भी, बहुत तीखी गाली-गलौज, बहुत जहरीले कटाक्ष झेले थे उसने, और रघु, खुर्शीद जैसे उसके कई दोस्तों ने। उसे अपनी वह प्रेमिका भी याद आयी जो मोहब्बत की बातें ऐसे करती थी कि पचास के दशक की फिल्मों की घोर सेंटिमेंटल नायिका तक पस्त हो जाए; और कटाक्ष ऐसे करती थी, जैसे कोई तीखी छुरी त्वचा से माँस तक पहुँचाए, उसे गोल-गोल घुमाए, फिर ताजे घाव पर नमक-मिर्च बुरके...

जैसे यह गिरगिट कह रहा है, वैसे ही वह भी दावा करती थी—दोष उसी का है जिसके माँस में छुरी गपाई जा रही है, जिसके घावों पर नमक-मिर्च बुरका जा रहा है...वह तो बेचारी स्वयं अपनी भावनाओं के आहत होने से पीड़ित है...यह सब करते समय उसे सुख भी वैसा ही मिलता था, जैसे सुख की यादें इस गिरगिट के मुँह से सीत्कारें निकलवा रही हैं, इसके चेहरे पर खुमारी ला रही हैं...प्रेमिका की यह कटाक्ष-कला सुकेत ने झेली थी, उसके लिए अनुपयोगी हो जाने के बाद। सुकेत के लिए बहुत भारी और अबूझ थे वे दिन। समझ नहीं आता था कि ऐसा क्यों? आज एकाएक कौंध—कहीं वह इस गिरगिट द्वारा या इसके गिनाये अजीबोगरीब कमीशनों में से किसी के द्वारा तो तैनात नहीं की गयी थी? कौन कर रहा है निजी रिश्तों और निजी पलों में ऐसी तैनाती? कौन चला रहा है आहत भावनाओं का कारोबार ? किस इरादे से चला रहा है? वह स्त्री उसके जीवन में जैसे अधिकार के साथ घुसी थी, उसने सुकेत को जैसे लुभाया था... क्या किसी योजना के तहत ? किसकी थी योजना? क्या अब रिश्ते भी नाकोहस जैसे कमीशनों की देखरेख में बन-बिगड़ रहे हैं?

सुकेत भीतर बीते दिनों को देख रहा था, और बाहर..



...नाकोहस हमारे सामने गिरगिट की शक्ल में खास संदेश लेकर आया है...रंग ओढ़ लो स्वयं आहत होने का, भंभोड़ डालो मगरमच्छी निर्ममता से...तीखी दंत-पंक्ति से, जहरीली जीभ-छुरी से, लोहे की छुरी से भी, भावनाओं को आहत करने वाला अपना हर अधिकार खो चुका, मारो-पीटो, जो चाहो करो... घर फूँक दो उसका, मत देखो कि साथ में तुम्हारा घर भी जला जा रहा है...पल-पल रंग बदलते रहो...अपनी भावनाओं का खेल हो तो हर पिटाई जायज, किसी और की भावनाओं का मामला या तो प्रतिक्रियावाद या राष्ट्रद्रोह...गिरगिट-भाव और मगरमच्छ-ताव दिन-दूने रात चौगुने ढंग से समाज में न पसरा तो नाकोहस के होने का मतलब ही क्या?
ब्लासफेमी वाले लेख के बाद तीनों को कई बार पिटाई झेलनी पड़ी थी, घरों के दरवाजों पर अश्लील गालियों और भद्दे चित्रों का प्रसाद भी मिला था। अपने-अपने धर्म के नरकों में जाने के सुझाव, और स्वयं नहीं गये तो भेजने की व्यवस्था के आश्वासन भी तीनों को मिले थे...उस वक्त, समझ रहे थे कि लोग पगला गये हैं, आज मालूम पड़ रहा है कि पागलपन में पद्धति थी—मेथड इन मैडनेस। नाकोहस, आभाआ की पद्धति।

डर लगता था, साथ होते थे तो हँसी की ढाल डर के आगे अड़ा देते थे, अकेले में खुद को याद दिलाते थे, डरना इंसानी फितरत है, डर कर घर बैठ जाना, मोर्चे से भाग जाना कमजोरी। कोशिश करते थे साथ-साथ भी, अपने अपने एकांत में भी कि डर इंसानी फितरत ही रहे, भगोड़ी कायरता न बन जाए...आज जो डर सुकेत को लगने लगा था, वह और तरह का था, अपनों से कटाक्ष, गैरों से पिटाई का नहीं, नाकोहस की व्यापकता का डर...मेथड इन मैडनेस का डर...गिरगिट अधिकारी का चेहरा गायब था, मेज के ऊपर अधभर में टँगी लपलपाती जीभ ही दिखी सुकेत को... आवाज सुनाई दी, ‘हम हवा में हैं, हम आवाजों में हैं, हम मुस्कानों में हैं, हम रिश्तों में हैं...कहाँ तक जानोगे कौन कौन है हमारा एजेंट—भद्दा शब्द है एजेंट—सही नाम है, बौनेसर— बौद्धिक नैतिक समाज रक्षक...वह गाना था ना तुम्हारे बचपन की किसी फिल्म में, ‘जहाँ जाइएगा, हमें पाइएगा...

याने...याने...शायद रघु भी, शायद खुर्शीद भी...क्यों नहीं...क्यों नहीं...मैं खुद क्यों नहीं...कुछ ही देर पहले मैं निहौरे करती निगाह से निहार नहीं रहा था, इस घिनौने गिरगिट को? कुछ देर पहले लग रहा था, मेरी देह पर नीले धब्बे आ रहे हैं, कहीं इस वक्त मेरी देह का रंग पीला, नारंगी या हरा तो नहीं हो रहा? सुकेत की हिम्मत नहीं हुई अपनी हथेलियों, कलाइयों पर निगाह डालने की...सर्पदेह की जकड़ में तो वह यहाँ आते ही ले लिया गया था, अब उसे जलते तवे पर खड़े होने का भी अहसास हो रहा था...हर तरफ से तपिश की लपटें लपक रहीं थीं, कमरे की जो दीवारें उसे कुछ ही देर पहले बहुत ऊंची लगी थीं, सिकुड़ रही थी, छत धीरे-धीरे, जैसे मजा लेते हुए नीचे आ रही थी, सुकेत को गोया जिन्दा चिना जा रहा था, वह चीख रहा था, पता नहीं रघु और खुर्शीद तक उसकी आवाज पहुँच रही थी या नहीं...उसने पूरी ताकत से चीख लगाई, ‘छोड़ो हमें, जबाव दो, मुक्ति दो...’ वाकई चीख पाया क्या वह? उसे खुद तो अपनी आवाज सुनाई दी नहीं, औरों ने क्या सुनी होगी...

यह क्या दिख रहा है मुझे...खुर्शीद अपनी जगह से हिल पा रहा है, रघु भी, अरे, मैं खुद भी...हममें से कोई भी एक-दूसरे की तरफ नहीं बढ़ रहा, हम तीनों की गति नाकोहस के गिरगिट की ओर है, हम में से हरेक उस तक बाकी दोनों से पहले पहुँचा जाना चाहता है...क्यों? आखिर क्यों? यकीनन उस की दुम पकड़ कर झटका देने के लिए, उसकी कुर्सी खींच लेने के लिए....या...या...या...इस या के आगे सोचने की हिम्मत नहीं हो रही थी, सुकेत की...ना अपने बारे में, ना बाकी दोनों के बारे में...

तीनों जोड़ी आँखों में डर का घुमावदार गलियारा था, आशंका की सुरंग थी, जो सामने खड़े इंसान को भेदती जाने कहाँ चली जा रही थी...वे तीनों एक दूसरे को देखना चाह रहे थे, देख रहे थे गिरगिट को, जो पल-पल रंग बदलता बेहद खुश लग रहा था...‘इस मैत्रीपूर्ण वार्तासत्र में आने के लिए आप तीनों का धन्यवाद, विदाई-भेंट के रूप में सलाह है, आप तीनों कुछ दिन आराम करेंगे, चाहें तो घर पर ही, बात ना समझ पाएँ तो शायद किसी नर्सिंग होम में....बट रेस्ट इज ए मस्ट फॉर यौर हैल्थ’, मेज से उठता गिरगिट मुस्करा रहा था...

सुकेत को यकीन हो चला कि या तो सपना है या हैल्यूसिनेशन, वरना कैसे हो सकता है कि कोई सचमुच का गिरगिट सचमुच की मेज पर सचमुच का सूट पहने बैठा हो और सचमुच की हिन्दी बोल रहा हो... लगता है, आज पीने- खाने में कुछ गड़बड़ की है, इसीलिए इतना डिस्टर्बिंग सपना आया है...जो गालियाँ, पिटाई खाईं, खाते ही रहते हैं, उससे इस घिनौने गिरगिट का, इसके नाकोहस का क्या लेना-देना है...मैं रौब में आ गया हूँ, बाजीगरी तो देखो बेहूदे की, बंबइया फिल्मों के भाई लोगों की तरह स्टाइलिश धमकियाँ दे रहा है...

सुकेतजी, बात हैल्यूसिनेशन की नहीं, भावनाओं के एसेसिनेशन की है, जो आप आगे से ना करें तो अच्छा है...बाई दि वे, कभी घाव पर चलती चींटियाँ महसूस की हैं, आपने?

अच्छा तो धमकी का स्टैंडर्ड कुछ रचनात्मक हो रहा है...सुकेत ने रघु और खुर्शीद की ओर ताका, लेकिन उनके चेहरे सपाट थे...याने गिरगिट ने फिर उनके सुनने पर रोक लगा दी है...गिरगिट मेज से उठ खड़ा हुआ, इंसान की तरह चलने के बजाय रेंगने का फैसला किया, दरवाजे तक पहुँच कर उसने ताबड़तोड़ रंग बदले, गर्दन घुमाई, बोला, ‘जिस वक्त आप मुन्ना बर्फ वाले के सुए को याद करके डर रहे थे ना, ऐन उसी वक्त आपके दोस्तों को लग रहा था, उनके घावों पर चींटियाँ चल रही हैं, पूछ लीजिएगा, नाकोहस से बाहर...माफ कीजिएगा...नाकोहस से बाहर तो अब क्या निकलेंगे...इस इमारत से बाहर निकल कर...

पूछने की जरूरत नहीं थी, रघु और खुर्शीद के चेहरे ही गिरगिट की बात की ताईद कर रहे थे...जिस वक्त मुझे सुए का डर था, उसी वक्त इन लोगों को घाव पर चलती चींटियों का अहसास...



ऐसी की तैसी तेरी, तेरे नाकोहस की’ आतंक के भँवर में फँसते सुकेत ने प्रतिवाद में पूरी की पूरी ताकत झोंक दी, जोर से चिल्लाया, ‘ऐसी की तैसी तेरी, घिनौना गिरगिट कहीं का, नाकोहस की दुम...’

इस ताकतवर चीख के साथ उसकी आवाज वापस आ गयी, सुनने की ताकत भी, उस लेख के बाद जो हुआ था, उसे याद करने की कूवत भी...सुकेत को अपनी आवाज सुनते ही उम्मीद बँधी, बस बहुत हुआ, अब आँख खुली जाती है, पसीना जरूर भरा होगा बदन में, लेकिन इस दु:स्वप्न से मुक्ति तो मिल ही जाएगी...

बिस्तर से उतरना चाहा सुकेत ने...यह क्या? टाँगें साथ नहीं दे रहीं, घुटने मुड़ नही रहे, जैसे लॉक कर दिये गये हैं...ओ....कितना दर्द...क्यों? कैसे? हे भगवान...किसी तरह उठ कर, चलने के नाम पर घिसटते हुए वह बाथरूम गया, हिम्मत बाँध कर, वैसे ही घिसटता सा किचन में पहुँचा,चाय बनाने के लिए खड़े रहना जैसे उम्र भर खड़े रहना हो गया, अकेला इंसान...करना तो सब कुछ खुद ही था, आदत भी थी, लेकिन आज जैसा दर्द...पहले कभी नहीं, तब भी नहीं जब पिटाई झेलनी पड़ी थी...किसी तरह वह हाथ में मोबाइल लिये बालकनी तक पहुँचा...सब कुछ सामान्य ही तो है यार...घुटनों में कुछ समस्या है तो चलते हैं ना डाक्टर के पास, किसी दोस्त के साथ, सबसे पहले तो रघु और खुर्शीद को ही बुला लेते हैं...मोबाइल पर नंबर डायल कर ही रहा था कि मैसेजों पर निगाह गयी, कई मैसेज थे, आम तौर से जितने होते थे, उनसे बहुत ज्यादा...आशंकित सुकेत ने मैसेज बाक्स खोला, दर्जनों मैसेज, भेजने वाले वही चंद दोस्त...सूचना एक ही ‘ तुम्हारा फोन मिल ही नहीं रहा है, कहाँ गायब हो तुम, सुकेत, कल रात किसी ने खुर्शीद को सीढ़ियों से धकेल दिया है, रघु का मोटर-साइकिल एक्सीडेंट हो गया है, दोनों हस्पताल में हैं...आपरेशन दोनों के होने हैं, जैसे ही मैसेज देखो, फौरन पहुँचो...

टाँगे ही नहीं, सुकेत की समूची देह अकड़ गयी, पता नहीं रोमों से पसीना बह रहा है, या गुम घावों पर चींटियाँ चल रही हैं...टाँगों में दर्द जकड़न का है, या मगरमच्छों के चबाने का...चिड़ियों की चहचहाट कानों में गूँज रही है, या गिरगिट की ठंडी आवाज...रीढ़ की हड्डी पर किसी ने बर्फ की सिल्ली चिपका दी है...सारा शरीर सुन्न...उसके हाथ से मोबाइल फिसल गया, झुक कर उठाना असंभव, झुकने की तो बात क्या, कुर्सी पर बैठना नामुमकिन...घुटने सीधे ही रह सकते थे, वह खड़ा ही रह सकता था या लेटा। भयानक दर्द पर अब आतंक के नमक-मिर्च की बुरकी भी थी...सुकेत तड़प रहा था, लेकिन तड़प की चीख इंसानी आवाज के बजाय हाथी की चिंघाड़ सी क्यों...सुकेत ने थर-थर काँपते हुए देखा, बालकनी से नजर आती सड़क की ओर, सब कुछ बादस्तूर चल रहा था, धीरे-धीरे बढ़ता ट्रैफिक, तेजरफ्तारी, आवा-जाही, सब कुछ वैसे का वैसा..बस, वहाँ बीचोंबीच... मगरमच्छ इतमीनान से हाथी की टाँगें चबा रहे हैं... हाथी बस चीख सकता है, अपनी जगह से हिल नहीं सकता...

टूट रहे घुटनों पर किसी तरह देह को ढोता सुकेत खड़ा है—महानगरीय फ्लैट की बालकनी में नहीं..किसी पहाड़ी कगार के छोर पर...गिरा तो न जाने कहाँ जाकर गिरेगा... हड्डडियों का भी पता जाने चलेगा या नहीं...
हाथी की चिंघाड़ें करुण रुदन में बदल रही हैं, धीमी हो रही हैं, जमीन पर चिपकी देह में जो थोड़ी-बहुत हलचल थी, वह कम से कमतर होती जा रही है...आँखें आसमान बैकुंठ की ओर तकते तकते अब अपनी जगह से लुढ़कती जा रही हैं...
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पुरुषोत्तम अग्रवाल
संपर्क: purushottam53@gmail.com

 साभार पाखी अगस्त २०१४

पुरुषोत्तम अग्रवाल - कहानी: चौराहे पर पुतला | Purushottam Agrawal

हंसती खेलती सी दिखने वाली ये कहानी दरअसल हमारे समय के भयावह सत्य को उजागर करती है और अपनी रोचकता भी बनाये रखती है। पुरुषोत्तम जी ने एक साथ तीन-चार गंभीर मुद्दों को इस कहानी में उठाया है और हर मुद्दे के साथ पूरा न्याय किया है, इसलिए कहानी थोड़ी लम्बी है लेकिन... सफल है, रोचक है।

पुरुषोत्तम जी की हिंदी पर पकड़ को कुछ कहना बड़ी मूर्खता होगी, लेखक की अपनी भाषा के मुहावरे पर गज़ब की पकड़ है और यह पकड़ जाने-माने मुहावरों के अनोखे रचनात्मक प्रयोग में दिखती है । ये पढिये... “मुख्यमंत्री को बचपन में पढ़े अनेक मुहावरों का बोधार्थ और भावार्थ एक ही झटके में सिद्ध हो गया। उन्हें मालूम पड़ गया कि पाँव के नीचे से धरती कैसे खिसकती है, रीढ़ की हड्डी में ठंडक कैसे दौड़ती है, सर पर आसमान कैसे टूट पड़ता है, जबान कैसे तालू से चिपक जाती है। उनका चेहरा अपने ही नहीं, प्रधानमंत्री के कुर्ते से भी ज्यादा सफेद हो गया।"

कहानी प्रहार करती है “सुंदरी-सहानुभूति बटोरने के चक्कर में अकेलेपन के गीत अलापते कवियों-कलाकारों ...” और ये भी कहती है “प्रगतिशील हूँ, वामपंथी हूँ, नामर्द तो नहीं…” ऐसे अनेक हिस्से हैं कहानी में जहाँ भाषा और शब्द अपनी गुम हो रही सुन्दरता दिखाते हैं। 

हिंदी कहानियों आदि में भाषा पर संकरण का आक्रमण इतना व्यापक हो चला है कि यदि इस पर ध्यान ना दिया गया तो जिस तरह भाषाएँ लुप्त हो रही हैं वैसे ही शब्द भी एक दिन। यहाँ तीन और नाम ज़ेहन में आते हैं जो हिंदी की समृद्धता का महत्व समझते हुए, इसके लिए काम कर रहे हैं ओम थानवी, अभय दूबे राहुल देव। 

हिंदी ! शायद, हमारा वो कर्तव्य है - जिसे अब हमने अपना कर्तव्य मानना छोड़ दिया है। 

पुरुषोत्तम जी को आभार कि उन्होंने “नया ज्ञानोदय” में प्रकाशित अपनी यह कहानी “शब्दांकन” को उपलब्ध करायी।        

भरत तिवारी 
संपादक

चौराहे पर पुतला  

पुरुषोत्तम अग्रवाल
कलाकारों, बुद्धिजीवियों के बीच रवि संदिग्ध हुए जरूर, लेकिन उन्होंने मुख्यमंत्री और गंगाधर दोनों की तीखी निन्दा करके फिर से कलाकार-बुद्धिजीवी समुदाय को अपनी मूल क्रांतिकारिता का विश्वास दिलाया। उधर, जैन साहब के साथ जा कर मुख्यमंत्रीजी से, और शुक्लाजी के साथ जा कर गंगाधरजी से मिलने में भी देर नहीं लगाई। बात दोनों नेताओं को जम भी गयी, तय हुआ कि यदि सरकार ऐसी कोई पहलकदमी करे तो गंगाधरजी सुनिश्चित कर लेंगे कि उनकी पार्टी भी पुतले को हटाने की जिद छोड़ कर उसे चड्डी पहनाने पर राजी हो जाए।


मुख्यमंत्री सिंह साहब और पंडित गंगाधर के कदम एकदम मिले हुए थे। दोनों महानुभावों का ताल्लुक परस्पर विरोधी राजनैतिक पार्टियों से था, लेकिन यहाँ दोनों नेता राजनैतिक मतभेदों से उसी तरह कोई छह इंच ऊपर उठ कर चल रहे थे जैसे कि ‘अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा’ वाली हरकत करने के पहले युधिष्ठिर का रथ चला करता था। दोनों के नेतृत्व में चलते जन-समूह में भी राजनैतिक जुलूसों वाला छिछोरा जोश नहीं, धार्मिक चल-समारोह सरीखा भावपूर्ण उत्सव था। दृश्य भी ऐन वैसा ही– सबसे आगे शहनाई बजाने वाले अपनी चमकीली अचकनों में, फिर बैंड वाले अपनी दमकीली पोशाकों में, रास्ते पर पुष्प-वर्षा करते युवक-युवतियाँ, मुख्यमंत्रीजी और गंगाधरजी साथ-साथ। फौजी लोग क्या कदम मिलाएंगे, जिस तरह गंगाधरजी मुख्यमंत्री से कदम मिलाए हुए थे। मामला संस्कृति का था, और गंगाधरजी की पार्टी तो जानी ही सांस्कृतिकता के लिए जाती थी। जिस विवाद का हल करने आज जा रहे थे, उसके प्रसंग में भी इन मुख्यमंत्री ने,जो विवाद आरंभ होने के समय विधायक ही थे, और इनकी पार्टी ने तो शुरु में दुष्ट तत्वों का ही साथ दिया था, और आज देखो, ऐसा जता रहे हैं, जेसे जन-भावनाओं का सारा बोध इन्हीं को है…याने, मेहनत गंगाधरजी और उनकी पार्टी के लोग करें, विवाद की आँच सुलगाएँ, भावनाओं के आटे को हौले-हौले भून-भून कर, उपयुक्त मात्रा में शब्दों की शर्करा और चतुराई का घृत मिला कर; सुनहरी, स्वादिष्ट पंजीरी बनाएँ और जब प्रसाद बँटने का समय आए तो मुख्यमंत्री ही बाँटने वाले भी बन जाएँ और पाने वाले भी—यह भला कैसे हो सकता है। इसीलिए उम्र में मुख्यमंत्री से आगे होते हुए भी, गंगाधरजी कटिबद्ध थे कि संस्कृति के इस प्रसाद-वितरण समारोह में मुख्यमंत्री को आगे न होने देंगे।

       प्रोफेसर रवि सक्सेना भी कोशिश तो जी-तोड़ कर रहे थे, दोनों नेताओं के साथ कदम मिला कर चलने की, लेकिन कामयाबी की राह में रोड़े बहुत थे। बरसों पहले वे इस नगर में लेक्चरर होकर आए थे। नौकरी तो एमए करते ही पा गये थे, लेकिन पीएचडी करने में बीस साल लगा दिये थे, सो भी वाइस-चांसलर के धमकाने पर ही की थी। पीएचडी के लिए समय निकालना मुश्किल यों था कि रविजी का अधिकांश समय पढ़ने-लिखने जैसे तुच्छ कामों में नहीं, छात्रों को क्रांति के लिए तैयार करने में गुजरता था या फिर साथी अध्यापकों को अपने ज्ञान से कायल करने और अपने प्रिय छात्रों से घायल करवाने में। दीगर सामाजिक दायित्व भी थे। मसलन, जो आज होने जा रहा था, उसे ही प्रगितशील शास्त्रसम्मता प्रदान करने में सक्सेनाजी ने पिछले कई साल लगा दिये थे। खूबी यह थी कि ऐसा करते समय वे मुख्यमंत्री और गंगाधरजी दोनों की पार्टियों की निंदा करके अपनी सत्ता-विरोधी छवि भी बनाए रखते थे। वे तथा उनके मौसेरे भाई अरुण काँख ढँकी रखते हुए ही मुट्ठी तनी दिखाने की कला में माहिर थे। अरुण तो मुख्यमंत्रीजी की पार्टी को भर मुँह गालियाँ देते देते ही, उन्हीं की कृपा से पिछले कई वर्षों से यूरोप में हिन्दी-सेवा कर रहे थे, दोनों बेटियाँ आईटी प्राफेशनल्स का पति-रूप में वरण कर आनंदपूर्वक अमेरिका में निवास कर रही थीं। रवि इस लिहाज से थोड़े पिछड़ गये थे, अभी तक यहीं इसी पिछड़े देश में पड़े थे। कलेजा फुँकता था, अपने इस पिछड़ेपन पर…करें क्या, यह नालायक जया…लाइफ वर्स करके रख दी है, अपने बेटर हाफ ने…अब इसी प्रसंग को लो…

       खैर, जया का उपचार तो बस कुछ देर में हुआ ही चाहता है, अभी तो यहाँ ध्यान लगाएं, चल-समारोह में। इसमें शामिल होने को लेकर काफी पशोपेश से गुजरे थे प्रोफेसर साहब, अब तक तो रणनीति एकांत में मुख्यमंत्री की मुसाहिबी करने और खुले में उनकी खिल्ली उड़ाने की ही रही थी, मैनेज भी बखूबी कर लेते थे। लेकिन पिछले कुछ दिन से मुख्यमंत्री कामना करने लगे थे कि जो सुखद अहसास रवि उन्हें एकांत में प्रदान करते हैं, उसकी सार्वजनिक प्रस्तुति भी हो ही जाए। अब रवि क्या करें? ‘कोई बात नहीं, अपना लक्ष्य महत्वपूर्ण है, और रणनीति स्पष्ट। अरुण की ही तरह का चक्कर चलाना है। अब मुख्यमंत्री चाहते हैं तो यही सही, एकांत-सेवा की सार्वजनिक प्रस्तुति ही सही। वैसे भी, जहाँ तक आज के आयोजन का सवाल है, आइडिया तो अपना ही था। बौद्धिक समर्थन देते ही रहे हैं, चलो, शामिल भी हो जाते हैं। काँख जरा सी और उघड़ेगी जरूर, कोई बात नहीं, मौका मिलते ही, फिर से ढाँप लेंगे। और फिर, चल-समारोह में मुख्यमंत्री के साथ चलते-चलते खिंचवाए गए फोटो काम तो आएंगे ही, थानेदार से ले कर वाइस-चासंलर तक’।

       लेकिन आज, जब रवि मुख्यमंत्री और गंगाधरजी के कदमों से कदम मिला कर, कैमरों के जरिए आमो-खास के आकलन में वीआईपी स्टेटस हासिल करने के चक्कर में थे, तब…मुख्यमंत्री की कनखियों की भाषा समझने वाले सुरक्षाकर्मियों ने प्रोफेसर साहब को उनकी उचित जगह पहुँचा दिया था, याने चल-समारोह के दोनों नेताओं से कोई बीस कदम पीछे।

       रवि सक्सेना को प्रेमचंद का अमर कथन बड़ी शिद्दत से याद आ रहा था, ‘साहित्य राजनीति के पीछे नहीं, आगे चलने वाली सचाई है…’ और उनका मन उपन्यास-सम्राट को जबाव भी दे रहा था, ‘होगी आपके ख्याल में जनाब, हकीकत हम तो जानते ही हैं, आप भी देख लीजिए’। प्रेमचंद पर खीझ के साथ, रविजी को जया पर भी एक बार फिर से गुस्सा आने लगा था—‘उसी की वजह से पिछले बीस साल तबाह हो गये…बनती है इंटेलेक्चुअल की औलाद… मुझ सरीखे फर्स्ट क्लास, लेफ्टिस्ट इंटेलेक्चुअल की अंडरस्टैंडिंग कामरेड होने तक की सांस्कृतिक जिम्मेवारी तो ठीक से निभा नहीं पाई… पुतला छाया रहता था देवीजी के ऊपर, ‘क्या होगा पुतले का? लोग क्यों पीछे पड़ गये हैं बेचारे के?’

       पुतला…पुतला… काश कोई इस हरामजादे पुतले को बम से ही उड़ा देता, कलात्मकता के नाम पर पतनशील सामंती संस्कृति को चौराहे पर परोसता, बेहूदा, लुगाई-लुभावन कमीना पुतला…पति साले के सारे मूड का, उन प्रेम-पलों से लेकर जीवन के सारे पलों तक के लिए पटरा हो जाए, हमारी देवीजी तो अपनी कामना के पटरे पर पुतले को ही पधराए रहेंगी…कुछ कह दो तो समता-स्वाधीनता बखानने लगेंगी, स्टुपिड कहीं की.. मैं कब तक झेलता ऐन निजी पलों में होने वाला यह अनाचार; प्रगतिशीलता के चक्कर में कब तक उस हरामी पुतले को इजाजत देता कि वह मेरी लुगाई को लुभाता रहे.. प्रगतिशील हूँ, वामपंथी हूँ, नामर्द तो नहीं…’

       ‘धत्तेरे की, क्या हो रहा है यार मुझे, यह साला मेल शाविनिज्म मेरी चेतना में क्यों घुसा जा रहा है…नहीं, नहीं, नहीं… मर्द-नामर्द की बात नहीं, मैंने तो सार्वजनिक नैतिकता की रक्षा करने के जनवादी कर्तव्य का निर्वाह किया है। डिक्लास, वर्गच्युत तो अपने आप को न जाने कितने लोग करते आए हैं, इस साले पब्लिक एनेमी नंबर वन पुतले का उपचार करने के लिए, अपने ही नहीं न जाने कितनों के दांपत्य-जीवन की रक्षा करने के लिए मैंने तो स्वयं को विचारच्युत किया है। इतिहास-देवता मेरे इस बलिदान पर कितने खुश होंगे…’ इतिहास-देवता के भव्य दरबार में खुद को खिलअत पहनाए जाने की कल्पना करते ही रवि रोमांचित और पुलकित हो उठे, लेकिन इतिहास–देवता के सामने पेशी जब होगी तब होगी, अभी तो यहाँ फोटो खिंचाने तक के रास्ते में मुख्यमंत्री के दुष्ट सुरक्षा-कर्मी आ अड़े थे, लेकिन, कोई बात नहीं…जैसे अपन पब्लिक में मुख्यमंत्री से दूरी बरतने को मजबूर हैं, वैसे ही मुख्यमंत्री भी तो…

       मुख्यमंत्री की मजबूरी समझते ही प्रोफेसर रवि सक्सेना पूरमपूर क्षणजीवी हो गये। वर्तमान क्षण का सत्य तो यही है कि पुतले की बदमाशी का उपचार होने में बस कुछ ही पल की देर है। जया पड़ी दिखाती रहे, पुतले के प्रति करुणा, सराहना, चाहना और ना जाने क्या, क्या…विजय ने तो मेरा वरण कर ही लिया है। इस विजय-वरण के मनमोहक, मादक स्वरूप पर मोहित होते रविजी रोक नहीं सके खुद को जयकारा उछालने से, ‘सिंह साहब की जय हो, गंगाधरजी की जय हो…’

       दोनों जयकारे एक साथ लगाए जाएं यह उस अलिखित समझौते का केंद्रीय प्रावधान था, जिसके तहत सिंह साहब और गंगाधरजी के कदम मिल कर उठ रहे थे। विवाद का अंत करने की सद्भावना का ही प्रमाण यह फैसला भी था कि कोई राजनैतिक नारे इस जुलूस में नहीं लगेंगे सिवा सर्वमान्य नारे ‘भारत माता की जय’ के। और,मुख्यमंत्रीजी की जय या गंगाधरजी की जय को तो राजनैतिक नारा कहा नहीं जा सकता। आखिरकार, जिस विवाद के अंत का आज उत्सव मनाया जा रहा था, उसकी समाप्ति भारत माता की जय की सूचना तो देती ही थी; साथ ही दोनों महानुभावों की जय की भी। सो, चल-समारोह में शामिल भाव-विह्वल लोग बारंबार जयकारे कर रहे थे। तीनों स्वीकृत जयकारों–भारत माता की जय, मुख्यमंत्री सिंह साहब की जय और गंगाधरजी की जय—की बारंबारता के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता था कि जयकारे के असली पात्र सिंह साहब और पंडितजी ही थे, भारत माता तो बेचारी राजनीति और संस्कृति के गुरु-गंभीर पाठ के पन्ने पर छोटा सा फुटनोट थी। रवि सक्सेना तो भारत-माता की अवधारणा को सिद्धांतत: ही दक्षिणपंथी भ्रम मानते थे, सो उन्होंने पूरे चल-समारोह में यह फुटनोट एक बार भी नहीं लगाया; गले की सारी ताकत असली जय पर ही केंद्रित रखी।

       दोनों नेताओं के कानों में रवि सक्सेना के उछाले असली जयकारे सुख ढाल रहे थे। दोनों ने लगभग एक ही साथ पुचकारती निगाहों से रवि सक्सेना को देखा, लेकिन रविजी को बीस कदम का प्रोमोशन देकर अपने साथ चलने की अनुमति देने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।

       यह सचमुच उत्सव का दिन था। पिछले बीस सालों से नगर ही नहीं, सारा देश जो संताप झेलता रहा था, आखिरकार उसके अंत का दिन। हालाँकि कुछ लोग अभी तक संतप्त थे, संताप का अंत वे भी चाहते ही थे, हालाँकि किसी और विधि से। लेकिन विधि के विधान के बारे में तो बात वही पुरानी, ‘मेरे मन कछु और है विधना के कछु और’…। वक्त अपनी राह बढ़ता गया था; किसी और विधि की तलाश में लगे संतप्तों की तादाद घटती चली गयी थी। बचे-खुचे जो रह गये थे, वे और अधिक संतप्त थे, क्योंकि इन्होंने मुख्यमंत्री से उम्मीद बाँध रखी थी कि विवाद का अंत गंगाधर जैसे लोगों के दबाव में आए बिना, अच्छी तरह सोच-विचार कर किया जाएगा। बीस साल के अरसे में, गंगाधर तो वहीं के वहीं थे, लेकिन मुख्यमंत्री ये पाँचवें थे, और गंगाधर के विरोधियों को इन्हीं से सबसे ज्यादा उम्मीदें थीं। उम्मीद इन लोगों को विवाद पर विचार करने के लिए बनाए गये जस्टिस लेबयान आयोग से भी थी। लेकिन न्यायमूर्ति लेबयान ने भी फैसला अंत-पंत गंगाधरजी के मन-माफिक ही दिया था, और बचे-खुचे संतप्त ‘कोई उम्मीद बर नहीं आती,कोई सूरत नजर नहीं आती’ की मनोदशा को प्राप्त हो गये थे। उनकी निराशा का आलम यह था कि अपना बचा-खुचा संताप किसी सार्वजनिक कार्यक्रम के जरिए व्यक्त करने की भी न उनके पास हिम्मत बची थी, ना ख्वाहिश। जो भी ख्वाहिशें बची थीं, वे फेसबुक और ट्वीटर के जरिए निंदा, कुंठा, संत्रास आदि की सर्जनात्मक अभिव्यक्तियों तक सिमट गयी थीं। असली दुनिया के हाशिए पर धकेल दिये गये संतप्त आभासी दुनिया में अपना कल्पनालोक सँवार रहे थे, सारे घटनाक्रम को नींदते, मुख्य-धारा को दूषते पुण्य-श्लोक उच्चार रहे थे। आभासी दुनिया के भीतर भी जोखिम कम नहीं थे, क्या जाने किसको कौन सी बात किस कारण खटक जाए; और आभासी दुनिया में की गयी आभासी टीका-टिप्पणी पर बिल्र्कुल ठोस टिप्पणी करने इलाके का थानेदार, आईटी एक्ट की धारा 66-ए से लैस आपके सर आ धमके। लेकिन फिर भी…

       लेबयान आयोग की रिपोर्ट आने के बाद गंगाधरजी ने विजय-दर्प की हुंकार छोड़ी थी, और मुख्यमंत्रीजी ने पिंड छूटा वाली राहत की साँस। वे रिपोर्ट पर फौरन अमल करना चाहते थे। धनतेरस के दिन पुष्य-नक्षत्र का योग सोने की खरीदारी के लिए तो श्रेष्ठतम जाना ही जाता है, वैसे भी परम शुभ योगों में इसकी गणना होती है। मुख्यमंत्रीजी ने तय किया था कि यह शुभ काम पुष्य नक्षत्र में, धनतेरस के शुभ दिन ही संपन्न होगा। दुष्ट लोग भले ही सोने की खरीदारी से वोटों की खरीदारी की तुक मिलाते रहें, मुख्यमंत्री ऐसे तुक्क्ड़ों की परवाह करें तो हो चुका राज-काज। बीस सालों से चले आ रहे विवाद का निपटारा धन-तेरस के दिन होने का राजनैतिक संदेश यह था कि मुख्यमंत्री दिवाली का तोहफा दे रहे हैं। इसीलिए बाकी आयोगों की रपटों के लिए भले ही सचिवालय गुमनामी का कब्रिस्तान साबित होता हो, लेबयान आयोग की रपट पर अमल करने में सरकार ने एक महीना भी नहीं लगाया। मुख्यमंत्री ने राजधानी से घोषणा कर दी थी कि वे धनतेरस को नगर पधारेंगे और इस विवाद का अंत हो जाएगा।

       मुख्यमंत्रीजी और गंगाधरजी कदम से कदम मिलाते हुए, विवाद के अंत की ओर बढ़ रहे थे। सड़क किनारे खड़े और नाखड़े लोगों की ओर करबद्ध नमस्ते उछालने में भी दोनों के बीच पूरा तालमेल था। लग रहा था, दो सगे भाई इकलौती बहन को भात पहनाने जा रहे हैं। सुरक्षा-कर्मियों द्वारा अपनी सही जगह पर पहुँचा दिये जाने के बावजूद रवि सक्सेना मौका देखते ही मुख्यमंत्री और गंगाधर से चिपकने के गुंताड़े में पड़ जाते थे, हालाँकि जरा सी सफलता मिलते ही सुरक्षाकर्मी उन्हें फिर से पीछे धकेलने में पल भर की भी देर नहीं करते थे। लेकिन रवि क्या कम थे, समारोह के आगे-आगे उल्टे चल रहे फोटोग्राफरों के कैमरों में कम से कम दो-तीन बार तो मुख्यमंत्रीजी और गंगाधरजी के साथ दर्ज होने में कामयाबी उन्होंने पा ही ली थी। अपनी गुंताड़ेबाजी में रवि सक्सेना भात पहनाने जा रहे संपन्न सगे भाइयों के दरिद्र, दूर के रिश्ते के भाई जैसे लग रहे थे। सुरक्षा-कर्मियों को रवि की गुंताड़ेबाजी पर कभी खुंदक आती थी, कभी हँसी। इस तरह की हँसियों, खुंदकों, गुंताड़ों और बैंड-बाजों को साथ लिए हुए, यह जनसमूह वैसे ही जा रहा था जैसे भात पहनाने वाला भाई बहन को आश्वासन देने जाता है कि ब्याह की खुशी में भी बहन के साथ है और जोखिम में भी। मुख्यमंत्रीजी और देशप्रेमीजी चौराहे पर खड़े पुतले को आज बताने जा रहे थे कि उसके अकेलेपन और निर्वासन के दिन दूर करने में, तमाम राजनैतिक मतभेदों के बावजूद दोनों नेता साथ हैं। जैसे भात के चल-समारोह में सबसे आगे भात का सामान थालों में सजा कर ले जाया जाता है, वैसे ही इस चल-समारोह में मुख्यमंत्री और गंगाधरजी के ठीक पीछे-पीछे दो युवक विवाद-समाधान की सामग्री के थाल श्रद्धा और प्रेमपूर्वक हाथों में लिए चल रहे थे।

       विवाद-ग्रस्त पुतला संगमरमर का था, सो निर्जीव ही कहलाएगा। लेकिन इंसान की शक्ल में ढलते ही पत्थर में भी कुछ तो इंसानियत आ ही जानी चाहिए, और इंसान अकेलापन कितनी देर सह सकता है? एकांत के बड़े से बड़े साधक को भी किसी न किसी पल दूसरे की जरूरत पड़ती है। अकेलेपन की महिमा साधने वाले साधक और पैगंबर भी अनुयायियों की तलाश में निकलते हैं। इंसान तो इंसान, भई आखिर जब परब्रह्म को भी कहना पड़ा कि एकोहं बहुस्याम-अकेला हूँ, बहुतों में बदल जाऊँ—तो हमारी आपकी क्या औकात।

       खुशी या ग़म या गुस्से के पलों में तो इंसान को दूसरों की जरूरत और भी ज्यादा महसूस होती है। इस विवाद में भी कोई इंसान अकेला नहीं था, विवाद में वह इस तरफ हो या उस तरफ। मौका खुशी का हो या ग़म का, जीत का हो या हार का…हरेक के साथ कोई ना कोई था, हरेक किसी ना किसी के साथ था। अकेला था तो वह पुतला था, जिसको लेकर सारा विवाद था। संगमरमर में ढला वह इंसान पिछले बीस साल से अकेला था। फैन-क्लब बनाने के चक्कर में, सुंदरी-सहानुभूति बटोरने के चक्कर में अकेलेपन के गीत अलापते कवियों-कलाकारों के विपरीत, यह संगमरमरी पुतला सचमुच अकेला था। दुनिया के सारे मजे लूटते, साल के अधिकांश दिन यूरोप के एग्जाटिक स्थानों में बिताते, फिर भी स्वयं को उत्पीड़ित, निर्वासित बताते; करुण की सृष्टि करने की कोशिशों में वीभत्स का संचार करते कथाकारों-लेखकों के आत्म-घोषित निर्वासन के विपरीत, यह पुतला सचमुच निर्वासित था। विवाद के केंद्र में वह जरूर था, लेकिन विचार के केंद्र तो क्या, हाशिए तक पर उसे कोई जगह हासिल ना थी।

       उसकी जगह थी, बरसों से चले आ रहे अकेलेपन और निर्वासन में। चौराहे पर कहा जाने वाला संगमरमरी पुतला, अपने निर्वासन में चौराहे के एक कोने पर खड़ा था, कुछ दिन उसने भी चौराहे की रौनक देखी भी, उसमें कुछ अपना योगदान भी किया। बनाने वाले कलाकार का ही था यह विचार कि पुतले को चौराहे के हरियाले गोलंबर में नहीं, बल्कि उसके बाहर जहाँ दो सड़कें मिल रही हैं, वहाँ खड़ा किया जाए; इस तरह पुतला लोगों के आने-जाने के बीच पड़ता नहीं, उनके साथ होता लगेगा। कुछ दिन तक सब ठीक-ठाक रहा, लोग पुतले को देख मुस्कराते थे, पुतला भी उन्हें मुस्कराते देख खुश हो लेता था। लेकिन, जल्दी ही विवाद शुरु हो गया और फिर उसे वहीं खड़े-खड़े निर्वासित कर दिया गया था। उसके खड़े होने की जगह को ईंटों की गोल दीवार से घरे दिया गया। इस दीवार में एक दरवाजा भी था, लेकिन ताला-जड़ा।

       पिछले बीस बरस से वह गोल दीवार के भीतर था, यहाँ तक कि उसके सर पर भी सीमेंट का चंदोवा तान दिया गया था, लक्ष्य यह था कि कोई उसे देख ना पाए—ना सड़क से, ना आस-पास के छज्जों और छतों से। पुतले का निर्वासन काला पानी भेज दिए गये बंदी का निर्वासन नहीं, अपने ही घर में नजरबंद कर दिये गये मनुष्य का निर्वासन था। उसका अकेलापन दीवार में जिन्दा चुनवा दिए गए इंसान का अकेलापन था। वह इस अकेलेपन को झेलते-झेलते थक चुका था, कभी-कभी तो वह स्वयं ही टूट जाना चाहता था, लेकिन विवाद का एक पक्ष कहता था, हम तुझे मरने नहीं देंगे; और दूसरा ताल ठोंकता था कि हम तुझे जीने नहीं देंगे।

       आज का दिन, विवाद की समाप्ति का ही नहीं गोल दीवारों में कैद, चंदोवे में कैद पुतले की यंत्रणा की समाप्ति का दिन भी था। विवाद समाप्त होने से लोग बेहद खुश थे, उम्मीद करनी चाहिए कि पुतला भी खुश ही रहा होगा। दीवार के बाहर आकर, खुला आसमान फिर से देखने का मौका पाकर भला कौन खुश नहीं होगा, इन्सान हो या जानवर या फिर पुतला।

       पुतले के अकेलेपन, संस्कृति के विलाप और नगर से देश तक फैलते संताप की यह कथा आरंभ होती है, बीस बरस पहले।

       पुतले का इस चौराहे के कोने पर खड़ा होना ऐसी कोई बड़ी बात नहीं थी। नगरपालिका ने अभियान चलाया था, नगर के सुंदरीकरण का; इसलिए किसी चौराहे पर पत्थर के मोर जड़े गये ताकि नयी पीढ़ी ‘एक जानवर ऐसा जिसके सिर पर पैसा’ वाली पहेली को बूझने के क्लू सड़क चलते-चलते हासिल कर सके; कहीं नर्तक-नर्तकी प्रतिमाएं खड़ी कर दी गयीं कि आते-जाते लोग स्वयं नृत्य करें ना करें, उनके मन-मयूर तो नृत्य कर ही लें। यह सब पुतले-प्रतिमाएं बनवाए गये बड़े-बड़े कलाकारों से, उन्हें कला-कल्पना की छूट भी दी गयी ताकि नगरपालिका को कलाप्रेमी और महापौर को संवेदनशील होने की प्रतिष्ठा हासिल हो सके। कुछ कलाकारों ने यह छूट इतनी लंबी भी खींच ली कि खुद बनाए, खुदा समझे। ऐसी एक कलाकृति थी काले ग्रेनाइट की वह आकृति जिसे साधारण जन तो खैर क्या खा कर समझते, अमूर्त कला के पारंगत पारखी भी जिसकी व्याख्या करने में चीं बोल जाते थे। किसी को यह ग्रेनाइट सीधा खड़ा प्रश्नचिन्ह लगता था तो किसी को उल्टा खड़ा मनुष्य। कलाकार से पूछा गया तो उन्होंने तिरस्कार और करुणा के समन्वित स्वर में आर्ट एप्रीशिएन कोर्स शुरु करने की सलाह नगरपालिका को नि:शुल्क दे डाली थी।

       अपने कथा-नायक पुतले के निर्माता ने ऐसी कोई अमूर्त कलाबाजी नहीं की थी। उन्होंने तो साँवले संगमरमर का यह पुतला बनाया था, कोई पाँच साल के बच्चे का वह साँवला पुतला वहाँ खड़ा नहा रहा था, सर पर लोटे से पानी ढालता हुआ। लोटे से पानी लगातार गिरता रहे, इसकी व्यवस्था कर ही ली गयी थी। पानी लोटे से गिर, पुतले के सर और शरीर से गुजरता हुआ नाली से निकल जाता था। पुतले के चेहरे पर, मम्मी की मदद के बिना खुद नहाने का आत्म-गौरव, नहाने से आ रहा ताजापन, सहज भोलापन तो साफ पढा ही जा सकता था; लेकिन कहीं वह शरारत भी थी उसके चेहरे में, खड़े होने के अंदाज में, जो अपनी शारीरिक उम्र से कुछ ज्यादा मानसिक उम्र से संपन्न बच्चों में आ जाती है।

       बच्चा नहा रहा था, लेकिन शरारती अंदाज में। हालाँकि सभी समझदार लोग मानते हैं कि बच्चा हो या जवान या बूढ़ा, औरत हो या मर्द, स्वास्थ्य के लिहाज से नहाना उसी तरह चाहिए जैसे कि पुतला नहा रहा था। शायद कलात्मकता के साथ-साथ यह स्वास्थ्य-परक सामाजिक संदेश भी देना कलाकार का मंतव्य ही था।

       सांवले संगमरमर का बना, निहायत भोला दिखता यह पुतला नंगा नहा रहा था, उसकी कमर में चड्डी या कच्छा या अंगोछा पहनाने की जरूरत कलाकार ने नहीं समझी थी।

       पुतले के पक्ष में यह जरूर कहा जाना चाहिए कि उसकी मुद्रा जान-बूझ कर कुछ दिखाने की नहीं थी, लेकिन फिर भी दुनिया देख तो रही ही थी, और दुनिया के कुछ सदस्य जो देख रहे थे उसके आकार-प्रकार; विश्वसनीयता-प्रामाणिकता आदि पर विमर्श भी कर रहे थे। आकार-प्रकार की प्रामाणिकता पर विमर्श के क्रम में यह प्रश्न भी उठा था कि पुतला पाँच वर्ष के बच्चे का है, या आठ-दस वर्ष के बच्चे का। कलाकार से पूछे जाने पर, वे प्रश्न की संवेदनहीनता और प्रश्नकर्ता की बुद्धिहीनता पर उखड़ गये थे, और स्वयं उत्तरहीन रहने का चुनाव कर लिया था। बहरहाल, पुतले की उम्र जो भी रही हो, यह तो था कि जो दुनिया पुतले को देख रही थी, उस दुनिया के कुछ सदस्यों को पुतला चुनौती देता प्रतीत हो रहा था, तो कुछ को आमंत्रण देता।

       पुतले की यह बहुलार्थक स्नान-भंगिमा आगे चल कर कविता और अन्य सर्जनात्मक तथा वैचारिक उपक्रमों की भी विषय-वस्तु बनी। लेकिन, पुतले के नग्न-नहान के छींटे उस चौराहे से शुरु हो कर, सारे देश पर पड़ती विवाद की बौछारों में तो कुछ ही दिन में बदल चुके थे।

       शुरु के दो-तीन सप्ताह तो खैरियत से ही गुजरे थे। पुतला नहाता रहा, पानी बहाता रहा, लोग आते-जाते, देखते-मुस्कराते रहे। धीरे-धीरे नगर के अश्लीलता-संवेदी राडारों ने अनुभव किया कि साइकिलों, मोटर-साइकिलों पर कालेज जाते लड़के पुतले के पास उतर न भी जाएं, तो रफ्तार जरूर कम कर लेते हैं। यह भी नोट किया गया कि पुतले के पास की पान-दुकानों का बिजनेस एकाएक वृद्धि को प्राप्त होने लगा है। सबसे ज्यादा चिंता की बात यह नोट की गयी कि कालेज जाती लड़कियों के झुंडों के कदमों की रफ्तार उस चौराहे पर ध्यातव्य ढंग से घटने लगी थी, और उनकी खी-खी का वाल्यूम बढ़ने लगा था। लड़के-लड़कियों की ही नहीं, अच्छे खासे सद्गृहस्थों की चाल में भी उस चौराहे पर धीमापन आने लगा था, वाहन चलाने वाले आपस में टकराने लगे थे। चाल पर पड़ने वाले ये कुप्रभाव चाल-चलन पर पड़ रहे कुप्रभाव के परिणाम भी थे और प्रमाण भी। नगर के गंभीर संस्कृति-प्रेमी लोग इस निष्कर्ष को प्रकाशित करने पर बाध्य हुए कि पुतले के कारण बहन-बेटियों के चरित्र पर चिंतनीय प्रभाव पड़ रहा है। अधिक सच्चे निष्कर्ष को अप्रकाशित रखने में ही बुद्धिमत्ता समझी गयी थी– पुतले के कारण बहन-बेटियों के चरित्र पर चिंतनीय प्रभाव पड़ रहा हो या न पड़ रहा हो, भाई-बापों के आत्म-विश्वास पर शोचनीय प्रभाव निस्संदेह पड़ रहा था।

       बात गंगाधरजी के नोटिस में लाई गयी। वे अपनी पार्टी के कदरन समझदार नेताओं में गिने जाते थे, उन्होंने बात का बतंगड़ बनाने में पहले तो कोई रुचि नहीं ली; लेकिन जब उन्हीं की पार्टी के घनश्याम महाराज को पुतले के नग्न-नहान में राजनैतिक तीर्थ-लाभ की संभावनाएं नजर आने लगीं, तो गंगाधरजी गंभीर होने पर विवश हुए। उन्होंने पुतले द्वारा फैलाई जा रही अश्लीलता की निंदा करते हुए एक बयान तो जारी कर ही दिया, अपनी पार्टी के पार्षदों को निर्देश भी दे दिया कि नगर-पालिका में पुतले को हटाने का प्रस्ताव फौरन पेश कर दें।

       तुरंत ही नगर के लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, कला-प्रेमियों, ललित-कला महाविद्यालय के छात्रों-अध्यापकों ने प्रतिक्रिया की। बयान जारी करके गंगाधरजी और उनकी पार्टी की इस माँग को फूहड़ और संस्कृति-द्रोही निरूपित किया, नगर-पालिका को ऐसे तत्वों के दबाव में ना आने की चेतावनी भी दे डाली। प्रोफेसर रवि सक्सेना भी इन लोगों में शामिल थे, बल्कि इस बयान की पहलकदमी करने वाले दो-तीन लोगों में से एक थे।

       नगर-पालिका में प्रस्ताव लाया गया। गंगाधरजी की पार्टी अल्पमत में थी, अधिसंख्य पार्षद और महापौर मुख्यमंत्री की पार्टी के थे, उसी पार्टी की सरकार दिल्ली में थी। गंगाधरजी को फिर भी विश्वास था कि उनके पार्षदों का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो ही जाएगा, एक नाकुछ से पुतले की ही तो बात है। महापौर ने उन्हें आश्वस्त ही नहीं कर दिया, बल्कि उस शाम नगर-पालिका से निकलते-निकलते अखबार वालों से कह भी दिया कि पुतला हटाने का प्रस्ताव कल पारित हो जाएगा।

       वह रात महापौर पर प्रेत-बाधा से भी ज्यादा भारी गुजरी। उन दिनों, अखबारों के दफ्तरों में टेलीप्रिंटर नामक जंतु पाया जाता था। उसी ने खबर महापौर के अपने निवास पहुंचने के पहले ही प्रदेश की राजधानी तक, मुख्यमंत्री के कार्यालय तक पहुँचा दी थी। महापौर घर में ठीक से घुस भी नहीं पाए कि पत्नी की बेहद खुश और किलकती आवाज कान में पड़ी थी, ‘सीएम ऑफिस से कई बार फोन आ चुका है, लगता है, अब महापौरी छोड़ राजधानी के बंगले में रहने के दिन आ ही गये, हे नहर वाली मैया चाँदी का सिंहासन, सोने का छतर चढ़ाऊंगी’…महापौर महोदय गद्-गद् हुए, लेकिन व्यक्तित्व की गंभीरता के तकाजे से महापौरनी को बस लाड़ भरी निगाह से देख कर, जरा सा मुस्करा कर ही रह गये, ‘ देखते हैं, कौन सा विभाग देते हैं, ऐरा-गैरा विभाग तो मैं लेने से रहा…’

       अपने महत्वपूर्ण विभाग के मद में अभी ठीक से प्रवेश कर भी नहीं पाए थे कि फोन फिर से घनघना उठा, महापौर स्वयं ही लपके, महापौरनी ने इशारा किया कि स्पीकर स्विच ऑन कर दें, महापौर ने आँखों-आँखों में ही ऐसे बचकानेपन से उन्हें बरजा, और रिसीवर कान से लगाया, ‘जी बोल रहा हूँ…’

       महापौर जिन बुद्धिमत्ताओं के लिए, उस पल के बाद ताउम्र खुद को बधाई देते रहे, उनमें से एक यह भी थी कि उन्होंने स्पीकर स्विच ऑन नहीं किया था। अब तक उन्होंने दूसरों से ही सुना था कि मुख्यमंत्री का गुस्सा बहुत खराब है, और यह भी कि गुस्से में आ जाएं तो कहनी-अनकहनी का कोई विवेक मुख्यमंत्री को नहीं रहता। आज फोन पर अपने कानों से उन्होंने जो सुना, उसके बाद मुख्यमंत्री के गुस्से के ही नहीं, वे मुख्यमंत्री की सर्जनात्मक गाली-क्षमता के भी जीवन भर के लिए कायल हो गये। गोपन-क्षणों की जो गतिविधियां उनकी कल्पना के भी परे थीं वे मुख्यमंत्री के मुख से नि:सृत गालियों में पूर्णतया संभाव्य बल्कि इतनी यथार्थ-परक लग रही थीं कि अब संपन्न हुईं कि तब हुईं। गोपन गतिविधियों को फौरन अंजाम देने की घोषणा करती इस कल्पना-सृष्टि के कर्ता पात्र मुख्यमंत्री स्वयं थे और भोक्ता की भूमिका उन्होंने गंगाधरजी के साथ-साथ महापौर को भी सौंप रखी थी। महापौर ने देवी-देवताओं को धन्यवाद दिया कि वे मुख्यमंत्री के साथ फोन-लाइन पर ही हैं, उनके शयन-कक्ष के एकांत में नहीं।

       फोन रख कर जब पलटे तो महापौरनी नहर वाली माता के पक्ष में की गयी सिंहासन-छत्र घोषणा तो वापस ले ही चुकी थीं, आशंका से काँप भी रही थीं, उन्होंने महापौरजी को फोन हाथ में लिए काँपते देखा जो था। कुछ पूछने की ना जरूरत थी, ना हिम्मत।

       महापौर बाहर वाले कमरे में आए, सचिव को बुलाया और बयान डिक्टेट करने लगे।

       अगले दिन महापौर की पार्टी ने नगर-निगम में पुतले को हटाने के प्रस्ताव का घोर विरोध किया, गंगाधरजी के पार्षद चीखे-चिल्लाए जरूर लेकिन न महपौर का कुछ बिगाड़ सके, न पुतले का।

       महापौर अब तक उस भयानक दु:स्वप्न का कारण जान चुके थे, जिससे वे कल शाम जागती आँखों ही गुजरे थे। इतनी सर्जनात्मक गालियाँ संभव कराने वाला गुस्सा मुख्यमंत्री को पुतले के प्रति प्रेम के कारण नहीं, इस कारण आया था कि उस नंगे, बेहूदे पुतले को बनाने वाला कलाकार कोई ऐरा-गैरा नहीं, प्रधानमंत्री का खास-उल-खास था, उनके पारिवारिक मित्रों में से था। उनसे जो झाड़ मुख्यमंत्री ने खाई थी, उसी का पृथुल विस्तार मय गालियों के उन्होंने महापौर तक पहुँचाया था।

       हंगामाखेज मीटिंग के बाद नगर-पालिका भवन की सीढ़ियाँ उतरते महापौर देख पा रहे थे कि अगले कुछ दिन झंझट में ही बीतने हैं।

       महापौर जहाँ तक देख पा रहे थे, झंझट की व्याप्ति उससे कहीं बहुत अधिक होने जा रही थी, यह दो ही दिन में साफ हो गया। उन दिनों चौबीसें घंटे खबरें तोड़ते रहने वाले चैनल और सर्वव्यापी सोशल मीडिया भले ना रहे हों, अखबार तो थे ही। प्रधानमंत्री और कलाकार की मित्रता के समाचार को लोक-वृत्त में स्थापित होने में कोई खास वक्त नहीं लगा। अब, मामला पुतले का कम, सरकारी काम में निजी संबंधों के कारण प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप का बनने लगा, ऊपर से, खोंचड़ यह कि नंगा पुतला बनाने वाले कलाकार का ताल्लुक गलत मजहब से था।

       गंगाधरजी की पार्टी के लिए मामला अब स्थानीय अश्लीलता से बहुत आगे बढ़ कर राष्ट्र भर की सांस्कृतिक अस्मिता का बन गया। कलाकार को प्रेस वाले प्रधानमंत्री की नाक का बाल बता रहे थे, मुख्यमंत्री और महापौर को वह जान का बवाल लग रहा था, लेकिन करते क्या? उधर, गंगाधरजी की पार्टी ने प्रधानमंत्री की नाक के इस बाल की खाल खींच डालने का पूरा मन बना लिया। प्रधानमंत्रीजी की पार्टी भी ताल ठोंक कर मुकाबिले के लिए तैयार हो गयी।

       उसके बाद की गर्मा-गर्मी में इतिहास-चक्र बड़ी तेजी से घूमा, जैसे गर्मी की दोपहर में छत का पंखा घूमता है। पुतले के निर्माता कलाकार महोदय प्रधानमंत्री के पारिवारिक मित्र तो थे ही, कलाकारों के जगत में भी उनका बहुत सम्मान था, दुनिया भर में नाम था। उनके बनाए पुतले को हटाए जाने की बात ने देखते-देखते कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के प्रशन का ही नहीं, कला और साहित्य के प्रति लोकतांत्रिक राज्य-सत्ता की संवेदनशीलता और जिम्मेवारी के सवाल का भी रूप ले लिया। पुतले की हैसियत स्थानीय, प्रांतीय से बढ़ कर राष्ट्रीय हुई, फिर वैश्विक। गंगाधरजी की पार्टी को नंगा पुतला परंपरा और संस्कृति को अत्यंत अश्लील चुनौती अत्यंत द्रष्टव्य रूप में देता दिखने लगा, तो कलाकार समुदाय गंगाधरजी की पार्टी को नियमित रूप से कोणार्क और खजुराहो के चित्र दिखाने लगा। दोनों पक्षों की ओर से धरने-प्रदर्शन का दौर चलने लगा। जो बात हल्की-फुल्की सी लगती रही थी, धीरे-धीरे राष्ट्रीय ,समस्या का रूप लेने लगी। धरने-प्रदर्शन तनावपूर्ण बल्कि हिंसक होने लगे। कलाकार तो बेचारे क्या हिंसा करते, प्रधानमंत्रीजी की पार्टी भी जो करती थी, सो आधे मन से। हाँ, गंगाधरजी की पार्टी का सांस्कृतिक जोश पूरे उबाल पर था। उनके प्रदर्शनों में अश्लीलता के दुष्ट समर्थकों की शारीरिक समीक्षा करने और पुतला बना कर संस्कृति और शील को हानि पहुँचाने वाले, प्रधानमंत्री के सखा, कलाकार सरीखे परकीय तत्वों की तथाकथित कला-कृतियों का क्रिया-कर्म करने का उत्साह सक्रिय रूप से अभिव्यक्ति पाने लगा। उनके राष्ट्रीय नेता ने तो घोषणा कर दी कि वे देश के एक कोने से दूसरे तक, दूसरे से तीसरे तक पुतला-विरोधी, संस्कृति-रक्षक यात्रा निकालते हुए आएंगे, पुतले को उखाड़ेंगे फिर देश के चौथे कोने तक यात्रा ले जाकर पुतले को समुद्र में फेंक आएंगे। उनकी चुनौती थी कि ‘ हम तो पुतला ले जाएंगे; कोई रोक सके तो रोक ले…’

       कलाकार समुदाय तो भला क्या खा कर इस चुनौती को झेलता, लेकिन प्रधानमंत्री की नाक बीच में फँसी होने के कारण उनकी पार्टी को जरूर स्टैंड लेना पड़ा कि दुनिया इधर की उधर हो जाए, पुतला जहाँ है वहीं रहेगा, जैसा है वैसा ही रहेगा। पुतले की सुरक्षा के लिए केंद्रीय सुरक्षा बल तैनात कर दिये गये।

       रवि पुतले के घोर समर्थक थे, नंगे नहाने के उसके लोकतांत्रिक अधिकार के पक्ष में पहला बयान जारी करने वालों में तो उनका नाम था ही, बाद में भी वे पुतले के पक्ष में लिखते-बोलते रहे थे। उधर, मामले के स्थानीय से राष्ट्रीय बनने के अनुपात में ही अश्लीलता-संवेदी राडारों और संस्कृति-प्रेमियों की चिंता भी बढ़ती जा रही थी, हिंसा भी। पुतला समर्थक होने के नाते एक दो बार गालियाँ तो रवि को भी खानी पड़ीं थीं, लेकिन हिंसा से साफ बच गये क्योंकि उस पार्टी में भी उनके अपने लोगों की कोई कमी नहीं थी। उन्हें गालियाँ देने वाले लौंडों को भी शुक्लाजी ने विभाग में रवि के सामने ही डाँटा, और निर्देश दिया था कि दुनिया भर मे आग भले ही लगा देना, लेकिन खबरदार, जो हमारे प्रो. रवि सक्सेनाजी की तरफ आँख उठा कर देखा। शुक्लाजी रवि के सहकर्मी थे, और उन्हीं की तरह लौंडों से जिस-तिस को पिटवा देने की प्रेरणादायक क्षमता में माहिर भी। रवि के प्रति उनके नरम रवैए का कारण था। रवि प्रगतिवाद-मार्क्सवाद आदि दिव्य अमूर्तनों का सार्वजनिक नाम-जाप एवं पूजा-पाठ करते हुए, असली साधना जातिवाद, क्षेत्रवाद और सर्वोपरि, समान-स्वार्थवाद जैसे मूर्त देवताओं की करते थे। इसी साधना की एक विधि यह थी कि हिन्दी के जातीय रूप के तौर पर खड़ी बोली के प्रचंड समर्थक रवि अपने क्षेत्र के किसी भी मनुष्य को देखते ही क्षेत्रीय बोली में शुरु हो जाते थे।

       शुक्लाजी भी रवि के क्षेत्र के निवासी थे। उनसे रवि का निन्यानबे फीसदी संवाद खड़ी बोली हिन्दी के बजाय क्षेत्रीय भाषा में ही होता था। दोनों विद्वानों की परस्पर विरोधी विचार-धाराओं के अंदर-अंदर बहती व्यवहारिकता की धारा के बीच समान स्वार्थों का वह द्वीप भी था जहाँ हृदय का हृदय से गोपन, प्रिय संभाषण हुआ करता था। ऐसे गहन हार्दिक संबंध के चलते शुक्लाजी को करनी ही थी रवि सक्सेनाजी की सहायता। उस दिन के बाद से, नगर के न जाने कितने पुतला-समर्थकों की सांस्कृतिक ठुकाई हुई, लेकिन रवि का बाल तक नहीं बाँका नहीं हुआ। शुक्लाजी से प्राप्त हार्दिक सहायता पुतला समर्थक क्रांति करते करते प्रतिक्रियावादी ताकतों से सुरक्षित रहने में रवि के बहुत काम आई। काँख भी दबी रही, मुट्ठी भी तनी रही। दूसरी तरफ यही स्थिति मुख्यमंत्री की पार्टी के प्रसंग में थी। शुक्लाजी के जरिए रवि की पहुँच गंगाधरजी तक थी, तो जैन साहब के जरिए मुख्यमंत्री तक। सब कुछ आनंद से चल रहा था, प्रगतिशील बुद्धिजीवी का जीवन इस पिछड़े देश के सुख-भोग के साथ ही, अमेरिका में टीचिंग असाइनमेंट, और फिर ग्रीन-कार्ड प्राप्ति जैसे महत्तर सुखों के भोग की दिशा में भी निरंतर प्रगति कर रहा था। रवि मन ही मन पुतले के आभारी थे कि नंगे ने मुख्यमंत्री से चिपकने का बहाना दिया, लोक-परलोक सुधारने का अवसर दिया।

       इस बीच इंटरनेट, मोबाइल फोन और प्राइवेट टीवी चैनलों के जरिए इन्फोटेनमेंट क्रांति के युग का श्रीगणेश होने लगा था। अब, पुतले का नंगापन भी चौराहे तक ही न रह कर घर-घर पहुँचने लगा, और यहीं से रवि शुरु हुआ की आनंद-कथा में बिगूचन-तत्व का प्रवेश। उनके अपने ड्राइंग-रूम में बजरिए टीवी, पुतला जब पहली बार नजर आया तो उन्हें कुछ अजीब सा अहसास हुआ। टीवी पर चलती रिपोर्ट में रिपोर्टर सारे विवाद का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य दे रही थी, कैमरामैन विभिन्न कोणों से पुतले को दिखा रहा था…रवि की नजर पुतले के कोणों पर क्या होती, वह तो रिपोर्टर-सुंदरी की देह के कोणों पर ही थी। लेकिन, उसी पल, रवि को यह क्यों दिख रहा था कि जया पुतले की ओर कुछ ज्यादा ही देख रही है…

       उस वक्त तो उन्होंने कुछ नहीं कहा, लेकिन रात में जया के अनमनेपन से उनका माथा ठनका, इतना ठंडापन…इतनी उदासीनता जैसे कि बस बेमन से पत्नी-धर्म निभा रही हो…मामला क्या है…

       किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले उचित पड़ताल करना वैज्ञानिक मनोवृत्ति की माँग थी। रवि ने उन पलों को किसी तरह निबटाया, जया के ठंडेपन से आधे ठंडे तो वे हो ही गये थे, बाकी की खानापूरी किसी तरह कर, पीठ फेर कर सो गये…सो क्या गये, वैज्ञानिक मनोवृत्ति की माँग पर विचार करते रहे। अगले दिन, घूमने के लिए रवि जया को लेकर पुतले वाले चौराहे से ही गुजरे, जया की कनखियों, नजरों और चेष्टाओं पर वैज्ञानिक दृष्टि रखते हुए। रवि का शक यकीन में बदलने लगा… कहीं कुछ गड़बड़ है जरूर…लेकिन अभी धीरज से काम लेना ही बेहतर है, रात में देखते हैं…

       यह रात भी वैसी ही थी, जैसी कि पिछली रात…फर्क यह था कि इस रात, जया के ठंडे, निपटाऊ तरीके से बाहर निकल कर रवि मुँहफेरी नींद के हवाले होने की बजाय छज्जे पर आ गये, सिगरेट सुलगाई और सोचने लगे…

       शाम को पुतले पर पड़ी जया की नजर उचटती नजर थी, या कसकती? उचट कर वह नजर पुतले के चेहरे तक ही रुकी रह गयी थी या सरक कर कमर के नीचे तक भी गयी थी? और क्या फिर वहाँ से चुप सी चतुराई के साथ फिसलती हुई मेरी कमर के नीचे तक नहीं आई थी? पुतले की कमर पर जो नजर उमंग के साथ घूम रही थी, वह मेरी कमर तक आते-आते क्या उदासी को छुपाती सी नहीं लग रही थी ?

       और, अभी कुछ ही देर पहले, उन पलों में, वहाँ हाथ फेरते समय, क्या जया की हथेली ऐसी नहीं लग रही थी कि फिर वहाँ रही है, छू कुछ और रही है…चल वहाँ रही है, जा कहीं और रही है…आम तौर से बिटर-बिटर आँखें खोले रहने वाली जया पिछले कुछ दिनों से आँखें मूँद क्यों लेती है? मूँद भर लेती है, या मुँदी आँखों किसी और को देखती रहती है…

       और, वह हरामी पुतला…जया की नजरों के सफर को देखते-देखते क्या उसने मुझे आँख नहीं मारी थी?

       क्या बेहूदा बात करते हो यार, पत्थर का पुतला…

       बेहूदा बात का मतलब? जो बेहूदा खुलेआम सबको दिखा सकता है, वह और क्या बेहूदगी नहीं कर सकता?

       कैसी बातें कर रहे हो, इररेशनल….सीधे बात करो ना जया से…

       बेवकूफ हूँ क्या…बात करूँ…क्या बात करूँ…कौन मान कर देगी ऐसी बात…और फिर अपनी प्रगतिशील छवि में मर्दवादी होने का बट्टा मैं खुद ही लगाऊँ…किसी और तरह से सत्य का अंतिम निर्धारण करना होगा, करना ही होगा…और जल्दी से जल्दी…

       अगली रात समस्या और गंभीर हो गयी। साहित्यिक संस्कारों से संपन्न रवि और जया प्रेम करते समय कुछ कविताएँ आदि याद किया करते थे, स्वरचित भी, पररचित भी। जया ने विवाह के कुछ ही दिन बाद एक कविता रची थी—‘ मेरे पुरुष, मेरे अनूठे पुरुष, कितना मादक, मृदुल है तुम्हारा परुष स्पर्श…’ जया के अधरों से होने वाला इस कविता का अस्फुट उच्चार रवि को बहुत भाता और लुभाता था।

       लेकिन, उस रात, उन पलों में, वहाँ हाथ फेरते हुए, जया के मुख से जो अस्फुट स्वर निकले थे, उनकी टेक, ‘मेरे पुरुष’ थी या ‘मेरे पुत…’ जोकि समय रहते सँभाल ली गयी थी। जया उस समय रवि को सराह रही थी या पुतले को? आज जया के अनमने होने से पहले ही रवि पूरी तरह ठंडे हो गये। जया को ताज्जुब हुआ। उसकी ताज्जुब भरी, सवाल करती आँखो के जबाव में कहीं अपनी नफरत आँखों में उतर ना आए, इसलिए रवि ने फौरन मुँह फेर लिया।

       संदेह की कोई गुंजाइश अब बाकी नहीं बची थी। दोष जया का नहीं, उस हरामजादे पुतले का था, जिसकी नंगई का मैं मूर्खों की तरह समर्थन करता आया हूँ। वे उठे और छज्जे में जाकर सिगरेट के जरिए विचारक मुद्रा में प्रविष्ट हो गये। विचार का मुद्दा यह था कि यार कुछ भी कहो, पुतला है तो बच्चे का ही, तो, फिर…वह, साला प्रतिक्रियावादी, पतनशील आधुनिकतावादी फ्रायड…उसके कहने में कुछ दम भी था क्या? ये साले अपने स्थानीय दक्षिणपंथी…इनका कहना कि ‘बहन-बेटियों के चरित्र पर चिंतनीय प्रभाव…’ इसमें भी कुछ…

       रवि को कुछ बरस पहले देखी फिल्म ‘चक्र’ का एक संवाद याद आने लगा, ‘दुनिया की सारी समस्याओं की जड़ में या तो पेट है, या उसके नीचे वाला…’। फिल्म देखने के बाद रविजी ने मार्क्स और फ्रायड के इस प्रतिक्रियावादी घालमेल की, और अपनी प्रगतिशील छवि को धता बता कर, परदे पर यह संवाद बोलने के लिए नसीरुद्दीन शाह की भूरि-भूरि निंदा की थी। आज भी…वे स्वयं तो पूरी कोशिश कर रहे थे, इस घालमेल से बचने की; विचार-धारा के प्रति निष्ठा बनाए रखने की…लेकिन सच यही था कि विचारों की धारा भले ही पेट तक जा कर रुक जाए, अनुभव और अनुभूति का रेला पेट से नीचे की ओर ही खिंचा चला जा रहा था।

       सवाल फिर से वही कि पुतला है तो आखिरकार बच्चे का…एकाएक रवि के चित्त में गुत्थी का समाधान कौंधा, कहीं ऐसा तो नहीं कि जया की निगाह वर्तमान के बजाय भविष्य पर; यथार्थ के बजाय उसमें निहित संभावना पर रहती हो…?

       इस हृदय-विदारक प्रश्न की गहराई ठीक से मापने का एक ही तरीका था। रवि लपक कर कमरे में आए। बत्ती जलाए बिना ही, मेज की दराज से इंचीटेप निकाला, और उत्तेजना से काँपते हाथ लिए, आशंका में धड़कता दिल लिए बाथरूम में जा घुसे, नाप लेने लगे और इस ह्रदयविदारक सत्य से टकराए कि तीस साल की उम्र में भी आकार उस पाँच साल के बताए जा रहे पुतले के आकार से कुछ कम ही था। उनके सामने स्पष्ट हो गया कि वर्तमान के यथार्थ में निहित भविष्य का सत्य यही है कि आज से कुछ साल बाद ही, ‘इन दि मोमेंट ऑफ हीट, हिज थिंग इज बाउंड टु बी स्ट्रांगर, लांगर ऐंड थिकर…’ आगे मन में जो आया वह रवि से शब्दों में ढालते भी नहीं बन रहा था… ‘दैन माइन…’

       अर्थशास्त्र के ज्ञाता मित्रों से इकॉनामी ऑफ स्केल के बारे में सुना था। इस वक्त, रवि अपने भीतर फीयर ऑफ स्केल झेल रहे थे। हाथ में पकड़ा इंची-टेप उन्होंने घिन और गुस्से से भर कर एक तरफ उछाल दिया था; लेकिन स्केल, माप, पैमाना जैसे शब्दों और इनसे सूचित होने वाली वस्तुओं से जो भय, वितृष्णा और घिन वे महसूस कर रहे थे, उसे कैसे फेंकें? कहाँ फेंकें? ये तो अब जीवन भर ढोया जाने वाला बोझा है, पूर्व-जन्म के पापों की तरह…

       मैं कोई मूर्ख भाग्यवादी हूँ क्या?

       यह रवि के ह्रदय-परिवर्तन का पल था। उनके मन में साफ हो गया कि कलात्मक संवेदनशीलता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सार्वजनिक जीवन में नग्नता का समर्थन करना निहायत जन-विरोधी हरकत है, ऐसी हरकत जो कि वस्तुनिष्ठ ऐतिहासिक आकलन की दृष्टि से प्रतिक्रियावादी तत्वों को ही मजबूत करती है। पुतले के नंगेपन का जो समर्थन करते आए थे, वह रवि को अपनी ऐतिहासिक भूल -‘हिस्टारिक ब्लंडर’- लगने लगा।

       सवाल यह था कि इस ऐतिहासिक भूल को सुधारने की रणनीति और कार्यनीति क्या हो? जन्मजात रणनीतिकुशलता के कारण, आत्म-साक्षात्कार और भूल-साक्षात्कार के इस मार्मिक पल में भी यह वास्तविकता रवि की आँखों से ओझल नहीं थी कि बात जहाँ तक पहुँच चुकी है, प्रधानमंत्री की नाक जिस तरह पुतले के साथ बिंध चुकी है, उसे देखते हुए पुतले का हटा दिया जाना तो असंभव है। ‘मौजूदगी तो उस कमीने नंगे की झेलनी ही पड़ेगी, बंधु’, रवि ने स्वयं से कहा, ‘व्यावहारिक यही है कि जिस बेहूदगी से हरामजादा दिखा-दिखा कर मुझे चिढ़ाता और जया को लुभाता रहता है, उस बेहूदगी का इलाज करके ही संतुष्ट हो लिया जाए’।

       लेकिन वह इलाज हो कैसे?

       सवाल पर थोड़ी ही देर सोचने के फलस्वरूप रवि फिर से एकबार अपनी मौलिकता और सर्जनात्मकता पर मुग्ध होने का अवसर पा गये। इस मुग्धता के साथ वे बाथरूम से भी बाहर आए, और किसी हद तक ‘स्ट्रांगर, लांगर, थिकर’ वाली तुलना की मर्मांतक वेदना से भी। उन्होंने द्वंद्वात्मक पद्धति का सार्थक उपयोग कर, थीसिस-ऐंटी थीसिस के परस्पर अनुप्रवेश से गुजरते हुए सिंथेसिस की खोज कर ली थी। यह खोज भारतीय परंपरा की मूल समन्यवयात्मक जीनियस के भी सर्वथा अनुरूप थी।

       बाथरूम में चिंतन के पल बिताने के बाद रवि पुतले को एकदम हटा ही देने या उसे नंगा ही रहने देने के अतिरेकों के परे समाधान की दिशा में बढ़ गये थे। इंचीटेप लेकर बाथरूम में घुसने के पहले तक समाज में कला-संवेदना फैलाने की बात करते आए थे, इंचीटेप फेंक, बाथरूम से निकलते समय संवेदना फैलाने की बजाय, रवि पुतले को चड्डी पहनाने के समर्थक हो चुके थे।

       यही एकमात्र रास्ता था। नंगेपन की बेहूदगी से स्वस्थ संस्कृति को, विवाद से नगर बल्कि देश को, और पुतले की चिढ़ाऊ चुनौती से स्वंय रवि को राहत देने वाला रास्ता सिर्फ और सिर्फ चड्डी से हो कर जाता था। इसी में सबकी भलाई थी। यही वह पंथ था जिस पर महाजनों को चलना चाहिए। तुच्छ जन तो पीछे-पीछे स्वयं ही आ जाएंगे। सो, कोशिश महाजनों को पटाने की होनी चाहिए। मुख्यमंत्री और गंगाधरजी को मनाया जाना चाहिए कि अपनी-अपनी जिदें छोड़ कर पुतले को चड्डी पहना कर वहीं खड़े रहने देने के मध्य-मार्ग पर चल पड़ें। रवि की आँखें अपनी महानता पर स्वयं गद्-गद् होने के कारण भर आईं…कितना बड़ा काम, कितने घोर विवाद का निबटारा करा रहे हैं प्रभु…आई मीन इतिहास-प्रभु मुझ से…धन्य हो भगवन…आई मीन धन्य हो, इतिहास देवता…भरे कंठ के मौन शब्दों के जरिए रवि इतिहास-देवता को कृतज्ञता के पुष्प अर्पित कर रहे थे…

       यह कृतज्ञता का पल था, यह आत्म-साक्षात्कार का पल था, यह इतिहास के मंदिर में आत्मार्पण का पल था, यह ऐसा कुछ कर जाएं कि यादों में बस जाएं वाले जोश का पल था, यह दूरगामी सामाजिक-सांस्कृतिक योगदान कर पाने के संतोष का पल था, यह ऐतिहासिक भूल को सुधारने के शुभारंभ का पल था।

       यह चड्डी-पल रवि सक्सेना के जीवन में लक्ष्य की स्फटिकवत् स्पष्टता का पल था।

       इस पल के बाद से, पुतले की नग्नता औरों के लिए जो हो, रवि के लिए नितांत निजी चुनौती थी; चड्डी औरों के लिए जो हो, रवि के लिए जीवन का लक्ष्य थी, शब्द और कर्म की एकता का प्रमाण थी। अब तो, बस, मन में ठान ली थी, सो ठान ली थी–हरामजादे पुतले को चड्डी ना पहनाई तो, ‘क्या किया, जीवन क्या जिया…’

       अब रणनीति सोचनी थी। पुतले को चड्डी पहनाने के सपने के साथ ही काँख और मुट्टी की नाजुक द्वंद्वात्मकता को भी तो साधे रखना था, पुतले के उपचार के साथ ही अपने और सपने भी पूरे करने थे। जरूरत थी सतत सावधान साधना की।

       रवि के जीवन के पिछले बीस साल इसी साधना के साल थे।

       धीरज और चतुराई के साथ रवि ने चड्डी-परियोजना पर अमल आरंभ किया। सबसे पहले तो लेख लिखा विवाद का समाधान संवाद के जरिए करने का आव्हान करते हुए। लोगों को, खासकर कलाकार समुदाय को बात अच्छी भी लगी, लेकिन जब संवाद-सभा में रवि ने बीच का रास्ता सुझाया कि पुतले को चड्डी पहना दी जाए तो कलाकार समुदाय उखड़ गया। इस तरह तो कलाकृति की ऐसी की तैसी हो जाएगी, यह तो वैसा ही है कि ललित कला अकादमी में टंगें न्यूड कैनवासों पर साड़ी पेंट कर दी जाए, या खजुराहो से लेकर आज तक के नग्न शिल्पों को निक्कर पहना दी जाए। यह कैसी बेतुकी और इनसेंसिटिव बात कर रहे हैं, रवि? सभा में मौजूद जया रवि का सुझाव सुन कर सनाका खा गयी। रवि उसकी ओर देख ही नहीं रहे थे कि वह आँखों-आँखों में रवि से इस तरह गुलाँट खाने की वजह दरियाफ्त कर सके।

       कलाकारों, बुद्धिजीवियों के बीच रवि संदिग्ध हुए जरूर, लेकिन उन्होंने मुख्यमंत्री और गंगाधर दोनों की तीखी निन्दा करके फिर से कलाकार-बुद्धिजीवी समुदाय को अपनी मूल क्रांतिकारिता का विश्वास दिलाया। उधर, जैन साहब के साथ जा कर मुख्यमंत्रीजी से, और शुक्लाजी के साथ जा कर गंगाधरजी से मिलने में भी देर नहीं लगाई। बात दोनों नेताओं को जम भी गयी, तय हुआ कि यदि सरकार ऐसी कोई पहलकदमी करे तो गंगाधरजी सुनिश्चित कर लेंगे कि उनकी पार्टी भी पुतले को हटाने की जिद छोड़ कर उसे चड्डी पहनाने पर राजी हो जाए।

       समस्या थी, बेहूदे कलाकारों की ओर से। वह मोर्चा भी रवि ने ही सँभाला, उन्होंने सामाजिक दायित्व की उपेक्षा करने वाले, नग्नता को कलात्मक मूल्य का दर्जा देने वाले कलावाद के खिलाफ ताबड़तोड़ कड़े से कड़े लेख लिखे, लिखवाए, भाषण दिए, दिलवाए। कुछ बुद्धिजीवियों को मुख्यमंत्री की ओर से आश्वासन और पद-पुरस्कार भी दिलवाए। माहौल धीरे-धीरे चड्डी के पक्ष में बनने लगा। यह सब करते हुए रवि को पुतले पर इन दिनों गुस्से और नफरत का अहसास तो होता ही था, ईमानदारी के पलों में वे उस नंगे के प्रति कृतज्ञ भी होते थे। आखिर यह उस नंगे का ही कमाल था कि मुख्यमंत्री से रवि लगभग हर सप्ताह मिलते थे, यह उस बेहूदे का ही कमाल था कि रवि के लिए मुख्यमंत्री तक पहुँचने के वास्ते जैन साहब और गंगाधरजी तक पहुँचने के वास्ते शुक्लाजी अप्रासंगिक हो चले थे।

       लेकिन, चड्डी साधना इतनी आसान फिर भी नहीं थी। मुख्यमंत्री के लिए तो बिल्कुल ही नहीं थी। प्रधानमंत्री की नाक जहाँ फँसी हो, उस मामले में सरकार किसी भी तरह के समझौते का रुख दिखाए तो दिखाए कैसे?

       मुख्यमंत्री ने तय किया कि कलाकार से बात करके उन्हें चड्डी पहनने, माफ कीजिएगा, पुतले को चड्ड़ी पहनाने को राजी कर लें, फिर बाकी कलाकार, बुद्धिजीवी आदि तो मान ही जाएंगे। पहले तो, उन्होंने कलाकार महोदय से परवारे* ही बात करने की सोची थी, लेकिन लगा कि कहीं पीएम उखड़ गये तो? उधर पीएम भी अब विवाद से चट चले थे, जिसने उन्हें ना उगलते बने ना निगलते की दशा में ला छोड़ा था। सोचने लगे थे कि पुतला चड्डी पहन ही लेगा तो कौन सा आसमान टूट पड़ेगा? कभी कभी स्वयं को कोसते भी थे कि खामखाह नंगे पुतले को नाक का सवाल बना बैठे। ऐसे में, कलाकार स्वयं मान जाए तो क्या हर्ज है? वैसे भी, बात मुख्यमंत्री करेंगे, अपनी कला-प्रेमी और दृढ़ राजनेता की छवि तो बनी ही रहनी है। उन्होंने मौनम् स्वीकृतिलक्षणम् वाली मुद्रा अपना ली।

       कलाकार से बात करने का अनुभव मुख्यमंत्री के लिए बड़ा दुखदायी सिद्ध हुआ। एक तो, न जाने कितने बरस बाद, उन्हें भाषण देने की बजाय लेना पड़ गया। कलाकार सिद्धहस्त मूर्तिकार होने के साथ ही सिद्धमुख, अनथक बोलक भी थे, और अपने महत्व से अवगत भी। उन्होंने न मुख्यमंत्री के समय की परवाह की, न मूड की। पूरे पचास-साठ मिनट का क्लास-रूम लेक्चर दे डाला, सो भी कलाकृति की इयत्ता, उसके अस्तित्व की पावन स्वायत्तता, शरीर की समग्रता में हर अंग की अपनी समग्रता की अनुल्लंघनीय पवित्रता, कला में नग्नता की महिमा, स्नान में निर्वस्त्रता का महत्व सरीखी शब्दावली से लिथड़ा हुआ।

       कलाकार ने कला के प्रति संवेदनशीलता का मार्मिक उपदेश देते देते मुख्यमंत्री को लोक-कथा के उस पात्र की दशा में पहुँचा दिया था, जिसे प्याजों से बचने के लिए जूते खाने पड़े थे, और जूतों से बचने के लिए प्याज। मुख्यमंत्री के मन में बार-बार आ रहा था कि कलाकार का कुछ उपचार तो स्वयं उसी विधि से कर दें, जिस विधि की दूरभाष पर की गयी घोषणा मात्र ने महापौरजी को प्रेतबाधा की प्रतीति करा दी थी; बाकी के लिए साले को ऐसे उपचारों के लिए विख्यात, अपने विश्वस्त पुलिसकर्मियों के हवाले कर दें।

       काश, यह मूर्तिकार पीएम का मुँहलगा न होता… काश इतने सारे टीवी चैनल कुकुरमुत्तों की तरह उग ना रहे होते…काश नौजवानों के बीच इंटरनेट नामक बीमारी का इतना विस्तार ना हो रहा होता…

       इतने सारे काशों के आगे कुछ कर पाना मुख्यमंत्रीजी के लिए कठिन था। अब तो प्रधानमंत्री का मार्गदर्शन लेना ही पड़ेगा।

       प्रधानमंत्री मन ही मन पुतले से, पुतले के निर्माता कलाकार से, सारे माहौल से कुढ़े बैठे थे, लेकिन मुख्यमंत्री को कुढ़न की हवा तक नहीं लगने दी। उनकी सारी बात ध्यान से सुनी, उनके प्रदेश के और उनके स्वास्थ्य के हाल-चाल पूछे। पुतले के बारे में एक शब्द नहीं बोले। एपाइंटमेंट का समय समाप्त हो चला, मुख्यमंत्री बेचैन हो चले। क्या करें? एकाएक प्रधानमंत्री ही बोले, ‘चुनाव निकट आ रहे हैं, सोचता हूँ, आपकी प्रतिभा और क्षमता का उपयोग संगठन के लिए किया जाए…’

       मुख्यमंत्री को बचपन में पढ़े अनेक मुहावरों का बोधार्थ और भावार्थ एक ही झटके में सिद्ध हो गया। उन्हें मालूम पड़ गया कि पाँव के नीचे से धरती कैसे खिसकती है, रीढ़ की हड्डी में ठंडक कैसे दौड़ती है, सर पर आसमान कैसे टूट पड़ता है, जबान कैसे तालू से चिपक जाती है। उनका चेहरा अपने ही नहीं, प्रधानमंत्री के कुर्ते से भी ज्यादा सफेद हो गया। हे प्रभो…यह क्या…यह क्यों…

       प्रधानमंत्री मेज पर रखी फाइलें देखने लगे थे। मुख्यमंत्री ने किसी तरह अपने बिखरते तन-मन को समेटा, और कुर्सी से उठने की तैयारी करने लगे। एकाएक प्रधानमंत्री फाइलों पर निगाह टिकाए टिकाए ही आकाशवाणी सी करते हुए बोले– ‘लोकतंत्र में न्यायिक प्रक्रिया का भी तो महत्व है, आखिर, हम कानून का राज चला रहे हैं, किसी की मनमानी नहीं…’

       आकाशवाणी करके प्रधानमंत्री तो अपने मौन में, और फाइल में पुन: प्रविष्ट हो गये। इधर, आकाशवाणी से लाभान्वित मुख्यमंत्री को अब दूसरी तरह के मुहावरों का अर्थ सिद्ध होने लगा। दिखने लगा कि कैसे मन-मयूर नृत्य कर उठता है, कैसे अंधेरी सुरंग के सिरे पर रोशनी की किरण नजर आने लगती है।

       अपनी राजधानी वापस पहुँचते ही, मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री के कुशल नेतृत्व के लिए देश की ओर से कृतज्ञता प्रकट की, साथ ही, पुतला विवाद हल करने के लिए एक आयोग के गठन की घोषणा कर डाली। यह भी स्पष्ट कर दिया कि आयोग की रपट आने तक पुतले जहाँ है, वहीं रहेगा,जैसा है, वैसा ही रहेगा, लेकिन रहेगा लोगों की निगाह से दूर। इस तरह पुतले के एकांतवास और निर्वासन के दिन आरंभ हुए, उसे आनन-फानन में दीवार और चंदोवे में कैद कर दिया गया।

       आयोग की नियुक्ति में थोड़ा समय लगा। न्यायमूर्ति लेबयान जब इस एक सदस्यीय आयोग के अध्यक्ष नियुक्त हुए तो कलाकारों और पुतले के अन्य समर्थकों के बीच हर्ष की लहर दौड़ गयी और गंगाधरजी की पार्टी में अमर्ष की। लेबयान साहब खाँटी लिबरल थे, पुतला-विवाद में भी कला की स्वायत्तता और अभिव्यक्ति की स्वाधीनता आदि की बातें कर चुके थे। गंगाधरजी ने बयान जारी करके चेतावनी दे दी कि आयोग के अध्यक्ष लेबयान हों, या देबयान; नंगई किसी भी दशा में सहन नहीं की जाएगी। देश की सांस्कृतिक परंपराओं और नगर के चरित्र के साथ खिलवाड़ करने की अनुमति कदापि नहीं दी जाएगी। मुख्यमंत्री ने स्पष्ट कर दिया कि न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान सबको करना ही होगा। रहे कलाकार, लेखक आदि, सो उनमें से अधिकांश धीरे-धीरे मानने लगे थे कि यार, ‘और भी ग़म हैं, जमाने में पुतले के सिवा’।

       जस्टिस लेबयान ने भी बयान जारी किया कि अपनी सिफारिशें वे बहुत सोच-विचार कर, गहन और विशद अध्ययन के बाद ही देंगे। और, उन्होंने अपने इस बयान पर सचमुच ‘लेटर ऐंड स्प्रिट’ में अमल कर दिखाया। मामले की तह तक पहुँचने के लिए समाज, साहित्य, संस्कृति, कला और परंपरा के अंतस्संबंधों को समझना जरूरी था। कलाकारों, लेखकों का मानस समझने के लिए उनके उत्सवों के औपचारिक-अनौपचारिक हिस्सों में हिस्सेदारी भी जरूरी थी। सो, जस्टिस लेबयान अंतर्राष्ट्रीय साहित्य समारोहों से लेकर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों तक में नियमित रूप से, सरकारी खर्चे पर मौजूद रहने लगे। लेबयान साहब पुतले के भाग्य का फैसला करने का गंभीर दायित्व निभाने अनेक बार बुकर एवार्ड की सेरेमनी में शामिल हुए, अनेक बार एकेडमी एवार्ड्स के फंक्शन में। कान भी गये, स्टाकहोम भी हो आए। देश में भी उन्होंने जयपुर लिटफेस्ट से लेकर मुंबई में फिल्मफेयर नाइट तक के समारोह खूंद डाले। यही नहीं, समारोह-धर्मिता के बाहर, दैनंदिन जीवन में संस्कृति की उपस्थिति का मर्म समझने के इरादे से जस्टिस लेबयान संसार के कोने-कोने में गये। अफ्रीका महाद्वीप में जरूर ईजिप्ट, मोरक्को, दक्षिण अफ्रीका और मारीशस को छोड़ किसी अन्य देश में कदम रखना लेबयान साहब ने जरूरी नहीं समझा, बाकी तो दुनिया का कोई देश लेबयान आयोग की रिपोर्ट के परिशिष्ट का हिस्सा बनने से बच नहीं पाया।

       काम इतना फैला-पसरा हो, तो समय-सीमा का क्या मतलब? जब भी आयोग की घोषित अवधि पूरी होती, लेबयान साहब एक्सटेंशन माँग लेते, जोकि फौरन मिल भी जाता। पुतले के सच्चे समर्थकों को लगने लगा था कि सारा मामला नूरा कुश्ती में बदल गया है। लेबयान आयोग की असली भूमिका विवाद को टालते-टालते ठंडा कर देने की है। लेबयान साहब ऐसी बातें करने वालों को समझाने की कृपा बीच-बीच में कर देते थे।उनका कहना था कि विवाद खड़ा करना आसान है, उसका स्थायी समाधान धीरज से ही खोजा जा सकता है। ऐतिहासिक महत्व की गतिविधियों को समय के अखबारी पैमाने पर मापना बेवकूफी है। आयोग सिफारिश देगा तो ऐसी कि सब मानें, अनंत काल तक के लिए मानें, यह नहीं कि आज सिफारिश दी, कल दूसरे आयोग की नियुक्ति की नौबत आ गयी।

       इतनी गंभीरता से लिया लेबयान आयोग ने अपनी संभावित सिफारिशों के स्थायित्व को कि उनका इंतजार करते करते, लेबयान आयोग की नियुक्ति करने वाले मुख्यमंत्री धरा-धाम से ही सिधार गये, सिफारिश नहीं आई। उन्हें आकाशवाणी के जरिए मार्गदर्शन देने वाले प्रधानमंत्री भी पीछे-पीछे चले गये, सिफारिश नहीं आई। पुतले के निर्माता कलाकार वृद्धावस्था को प्राप्त हो कर सिद्धहस्तता और सिद्धमुखता दोनों से वंचित हो चले, सिफारिश नहीं आई। गंगाधरजी अपनी पार्टी में दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करते स्थानीय से राष्ट्रीय नेता बन गये, सिफारिश नहीं आई। नयी पीढ़ी पुतले के बारे में स्थानीय इतिहास और विश्वव्यापी अंतर्जाल के जरिए ही जानने की अवस्था को प्राप्त हो गयी, सिफारिश नहीं आई। कुछ लोग तो यह तक भूल चले कि लेबयान आयोग का गठन हुआ किसलिए था, लेकिन सिफारिश नहीं आई तो नहीं ही आई।

      इन बीस सालों में पुतला-विवाद काफी कमजोर पड़ गया था। जस्टिस लेबयान जब इस सिलसिले में किसी नयी विदेश-यात्रा पर जाते या सरकार से एक्सटेंशन की माँग करते या कोई नेता बयान देते तब आ जाने वाली थोड़ी-बहुत गर्माहट को छोड़ दें तो बस ठंडक ही ठंडक थी। सबसे गहरी ठंडक आ गयी थी रवि और जया के संबंधों में, यहाँ तक कि दोनों को इस ठंडक की आदत सी पड़ गयी। पुतले के लोटे से बहता पानी जैसे नाली में बहने की बजाय बर्फ की नदी के रूप में रवि और जया के बीच जमने लगा था। बरस-दर-बरस मोटी होती जा रही इस बर्फ की परत यदि कभी पल-दो-पल के लिए दरकना भी चाहती तो, उन पलों में भी जया की मुस्कान में रवि को कहीं न कहीं पुतले की शरारती मुस्कान छुपी दिख जाती थी।

       जया कभी-कभी सोचती थी कि मुझे तो बस पुतले को देख कर हँसी आई थी, रवि को मेरे गालों पर लाज की लाली कैसे दिख गयी? मैं पुतले को देख कर कम हँसी थी, और रवि के भोले से बुद्धूपन पर अधिक। इस भोलेपन को बेवकूफी में किसने बदला? जिस प्यार से मैं हँसी थी, उसे बेतुकी तुलना में किसने बदला? दोस्ती की जिस जमीन पर खड़ी मैं हँस रही थी, उसमें निराधार ईर्ष्या की बारूदी सुरंग किसने लगाई?

       जया इन प्रश्नों के उत्तर भली भाँति जानती थी, लेकिन जानने का फायदा क्या था?

       कभी-कभी रवि के सामने भी आते थे इस तरह के सवाल। लेकिन, हमेशा सही होने की गलतफहमी तो उनकी चेतना के पोर-पोर में पैबस्त थी। उनकी चेतना अपने सदा सही होने के जिस अँधेरे कमरे में निवास करती थी, उसमें किसी और के सही होने की संभावना की किरणें कभी कभी ही झाँक पाती थीं। रवि का मन ऐसी झिर्रियों को बंद करने में देर भी नहीं लगाता था, जिनसे किसी और के सच के किरणें इस अँधेरे कमरे में घुस पाएँ। रवि अपने सतत प्रकाश के अँधकार में थे, और ऐसे अँधकार से निकल पाना…

       नामुमकिन नहीं, तो, बहुत, बहुत मुश्किल जरूर था।

       

       चौराहे पर नहाने का नाटक करता बदमाश पुतला रवि की जिन्दगी के हर कोने में घुस गया था। शतरंज की बिसात पर जैसे घोड़ा सब मोहरों को फलांगता चलता है, वैसे ही वह हरामी पुतला जब चाहता, ढाई घर की दुलत्ती मारता और रवि को जहाँ जी चाहे दबोच लेता। उसके लिए कोई क्षेत्र वर्जित क्षेत्र नहीं था। क्लास, स्टाफ-रूम, बाजार, सभा-सेमिनार…यहाँ तक कि रवि और जया के ऐन अपने पलों में भी कमीना बीच में आ घुसता। स्ट्रांगर, लांगर, थिकर की भवितव्यता के आंतक में रवि और सिकुड़ जाते, जया और मुरझा जाती।

       कभी-कभी रवि झल्लाते अपने आप पर, कभी रोते अपने भाग पर। तर्कशीलता का सहारा लेकर अपनी इस मनो-व्याधि से निकलने का यत्न करते, लेकिन विधिवत सायकाट्रिस्ट से मिलना उन्हें कतई मंजूर नहीं था, जया ने एक बार सुझाव दिया था तो संध्याकालीन सुरा-वंदन करते रवि के मुँह से गालियाँ निकलने लगी थीं। जया के लिए तय करना मुश्किल हो चला था कि वह इस बीमार इंसान पर दया करे या इस कूढ़मगज, जिद्दी पति में एक हाथ जमा दे। दोनों ही विकल्प असंभव से थे, जया ना तो ठीक से रवि नाम के इंसान पर दया कर पाती थी, और रवि नाम के पति का उपचार। जो कर पाती थी, उसे दया और घृणा, कृपा और क्रोध के बीच कहाँ रखा जाए, इस उलझन को जया कभी नहीं सुलझा सकी।

       रवि जल्दी ही अपनी झल्लाहट, अपने भाग्य पर रुदन से बाहर निकल कर अपनी मर्दानगी साबित करने पर उतारू मर्द, प्रतिशोध के लिए खड्ग-हस्त पुरुष-पुंगव में बदल जाते। स्वयं को सायास चड्डी-साधना में डुबो देते।

       आज इस साधना की सार्थकता का दिन था।

       लेबयान साहब ने रिपोर्ट दे दी थी। इस बीच तीन मुख्यमंत्री और बदल चुके थे, वर्तमान का नंबर पाँचवाँ था। प्रधानमंत्री भी तीसरे चल रहे थे, हालाँकि केंद्र और राज्य में शासक पार्टी वही थी, इसलिए पुतले और लेबयान दोनों के प्रति कमिटमेंट भी ऐन वैसा भले ना हो, तो भी था जरूर। रिपोर्ट ने कलाकारों को भी निराश किया और पुतले के आम समर्थकों को भी। कुछ दुष्टों ने तो लेबयान आयोग की दीर्घकाय रिपोर्ट को ‘खोदा पहाड़, पाई चुहिया’ की संज्ञा भी दे डाली। दुनिया भर की सभ्यताओं में कला की स्थिति का विस्तृत विवेचन करते हुए; कला, समाज,राज्य और कानून के संबंधों पर गंभीर विमर्श करते हुए लेबयान साहब इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि, यों तो, पुतले की कलात्मक स्वायत्तता और समग्रता, उसकी सहज नग्नता में ही है; किंतु, समाज और कला के संबंधों की नजाकत को देखते हुए; व्यापक जन-भावनाओं को ध्यान में रखते हुए, पुतले को चड्डी पहना देना ही उचित होगा।

       लेबयान साहब ने यह सिफारिश भी लगे हाथ कर दी कि पुतले की चड्डी को बेगार की तरह से न लिया जाए। ऐसा नहीं कि गंदी सी रबड़ या प्लास्टिक की चड्डी पहनाई, और छुट्टी पाई। चड्डी रोजाना बदली जानी चाहिए, पर्याप्त संख्या में चड्डियो की व्यवस्था होनी चाहिए, सारी चड्डियाँ एक ही रंग और एक ही डिजाइन की नहीं होनी चाहिएँ। चड्डी पहना दिए जाने के बावजूद पुतले से छलकते ताजगी और नवीनता के अहसास पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।

       आज का चल-समारोह इन सिफारिशों पर अमल का ही समारोह था। आगे-आगे चल रहे नौजवानों के हाथ में जो थाल थे, उनमें पूरी तीस चड्डियाँ थीं। आज पहनाई जाने वाली, शांति और सद्भावना के सफेद रंग की चड्डी एक अलग थाल में अकेली सुसज्जित थी। केयरटेकर की नियुक्ति हो चुकी थी, आज मुख्यमंत्री और गंगाधरजी द्वारा संयुक्त रूप से पहली चड्डी पहनाई जाने के बाद, नियमित रूप से पुतले की चड्डियाँ बदलना, धुलवाना, उनकी सार-सँभाल करना केयरटेकर का ही काम होने वाला था।

       सारी व्यवस्थाएँ ठीक थीं, बस पुतले का आवरण हटना था। उसके पहले नेताओं का माल्यार्पण से स्वागत, फिर उनके भाषण और दूसरे रीति-रिवाज हस्बमामूल होने ही थे…इस सब के बाद, गोल दीवार के दरवाजे पर बरसों से जड़ा ताला खोला गया…

       पुतले का आवरण अंतत: हटा, और हटते ही…

       गंगाधरजी को पुराणों का कलि-काल वर्णन याद आने लगा, कभी विष्णुपुराण के श्लोक याद आएं, तो कभी अग्निपुराण के। कलिकाल में वस्तुएँ अपना धर्म त्याग देती हैं, आग जलना बंद कर देती है, पानी बहना…सब कुछ उलटा-पुलटा हो जाता है, यहाँ तक कि मनुष्यों का कद छोटा होने लगता है, लोग बौने होने लगते हैं…चौंक पड़े गंगाधरजी…कलियुग यानी बौना समय, बौनों का समय…याने हमारा समय…लेकिन, गंगाधरजी किसी भी पुराण के कलियुग वर्णन में वैसा कुछ होने का संकेत याद नहीं कर पा रहे थे जैसा उनके सामने इस पल था…

       उधर, मुख्यमंत्री का पुराण-बोध तो प्रधानमंत्री के वंश-पुराण तक ही सीमित था, हालांकि उस पुराण में भी चमत्कारों की कोई अभाव नहीं था, लेकिन ऐसी अनहोनी के संकेत तो वहाँ भी नहीं थे।

       प्रो. रवि सक्सेना की प्रतिक्रिया दोनों महानुभावों से कुछ कुछ मिलती-जुलती; कुछ-कुछ अलग थी…जो देख रहे थे उसे देख कर मन में अचंभा भी था, क्रोध भी, लेकिन खुद के सही साबित होने के संतोष का बोध भी…मैं तो पहले से ही जानता था कि हरामी कुछ अनहोनी करेगा ही करेगा, जिस दिन साले ने मुझे सताया था, बरसों से चले आ रहे, अच्छे-खासे दांपत्य-जीवन के बावजूद इंचीटेप हाथ में उठवाया था, मैं तो उसी दिन भाँप गया था इस कमीने का हरामीपन….यार लोग मुझे ही पागल समझने लगे थे, परम-प्रिया जया जी तो चोरी-छुपे सायकाट्रिस्ट से कंसल्ट भी कर आई थी, साली गंदी-गंदी फैंटेसी खुद पालती थी, सायकिक केस मुझे बताती थी, अब यहाँ लेके आ अपने उस फ्रायड की नाजायज औलाद सायकाट्रिस्ट को…देख, देख इस साले पुतले की हरकत…

       सही साबित होने के संतोष के अजीब से क्रुद्ध बोध के साथ ही रवि हताश भी बहुत थे…चकित तो वे क्या सारा जन-समूह था, टीवी पर लाइव कवरेज देख रहा सारा देश था…

       जो लोग पुतले को उसके निर्वासित एकांत में भेज उसकी नियति पर विमर्श, विवाद, संवाद और संग्राम करते रहे थे, आज उनके चकित होने का ही दिन था। नहीं, पुतला गायब नहीं हुआ था, वह अपनी उसी जगह पर था जिसे उसकी जेल में बदल दिया गया था। लेकिन आज पुतले ने जेल को चुपचाप अपनी जगह में फिर से बदल डाला था, अपने निर्वासित एकांत को अपने होने की खामोश मुनादी में बदल डाला था।

       पुतला वहीं था, नहा वैसे ही रहा था, लेकिन था वैसा ही नहीं, जैसा कि बीस साल पहले। उसे निर्वासित करने वालों ने सोचा था कि सड़ता रहेगा, विवाद का निपटारा होने तक; पुतला निर्वासन में सड़ने की बजाय एकांत में बड़ा हो गया था। थाल में भात की सामग्री की तरह सजा कर लाईं गयीं चड्डियाँ तो पाँच साल के बच्चे के लिए थीं, और यहाँ भतैयों के सामने नहा रहा था–पचीस साल का सजीला, सांवला, संगमरमरी नौजवान…वैसे ही भोले शरारतीपन के साथ, अकेले नहा सकने के आत्म-विश्वास के साथ, निर्वस्त्र नहा सकने के सुख के साथ…पुतले के भोले शरारतीपन के सामने गंगाधरजी को याद आ रहे पुराणों का कलि-काल-वर्णन उलटा हो गया था। गंगाधरजी को समझ नहीं आ रहा था कि इस उलटबाँसी का क्या अर्थ निकालें कि जीवित होने का दावा करने वाले मनुष्य जिस कलिकाल में बौने होते जा रहे हैं, उसी कलिकाल में पत्थर का यह जड़ पुतला अपने कद में बढ़ता चला गया था।

       जो चड्डियाँ पुतले को पहनाने के लिए लाईं गयी थीं, वे उसकी निर्वस्त्रता के आगे छोटी पड़ गयीं थीं, और उसे चडडी पहनाने पर आमादा अक्लें उसकी हिमाकत के सामने बौनी हो गयीं थीं। पथरीले पुतले की खामोशी के आदी लोग खुद पथरीली खामोशी में चले आए थे। कलियुग-वर्णन सटीक उतर रहा था। सभी वस्तुएँ अपना-अपना स्वधर्म त्याग रहीं थीं। बैंड वाले बैंड बजाना भूल गये थे, नारे लगाने वाले नारे लगाना। चीख-चीख कर खबरें तोड़ने वाले, हरेक इंसान से तुके-बेतुके सवाल पूछने वाले और खुद को देश भर की आवाज बताने वाले टीवी एंकर तक हकबका कर चुप हो गये थे।

       इस खामोशी में, यह मंजर यह नजारा सीधे या टीवी के जरिए देख रहे अंतर्जालजनित-ज्ञान-संपन्न महानुभवों और देवियों की स्मृतियों में यूरोप के विभिन्न म्यूजियमों में संरक्षित निर्वसन पुतले प्रकट होने लगे थे… स्मृतियाँ तो यूरोप की सैर कर रही थीं, वर्तमान पल में महानुभावों की चेतना में कुंठा और ईर्ष्या सक्रिय हो चली थी और देवियों की चेतना में जिज्ञासा और कामना…

       सारा देश स्तब्ध था, मौन था, लेकिन प्रोफेसर रवि सक्सेना के भीतर, संगमरमरी चट्टान के इस दुष्ट टुकड़े, साँवले पुतले को देख कर चट्टानें तोड़ने वाले डायनामाइट के विस्फोट हो रहे थे… अपनी जन्मजात प्रगतिशीलता को साथ लिए दिए ही उन्हें, इस पल धार्मिक अंधविश्वासों पर विश्वास ही नहीं उन्हें जीने की अदम्य कामना भी हो रही थी। वे एक पल अपनी कल्पना किसी राक्षस के रूप में कर रहे थे कि इस दुष्ट को कच्चा ही चबा जाएँ, अगले पल किसी अगियाबैताल ऋषि-मुनि के रूप में कि शाप उच्चारें और पुतला अपने अंग-प्रत्यंग-उपांग सहित खंड-खंड हो जाए। लेकिन पुतला तो खड़ा था, पुतला तो बड़ा था, अपने अंग-प्रत्यंग-उपांग सहित बड़ा। एक पल के लिए ही सही, रवि को इस घोर कुंठा के क्षण में भी अपनी तारीफ करने का मन हो आया, ‘देखा, मेरा सहज कवि-स्वभाव। पुतले की कमीनगी तक कविता बन कर ही, खड़ा और बड़ा के अनुप्रास में ही, दर्ज हो रही है मेरे मन में…’

       लेकिन, अगले ही पल उनके क्रोध का लावा जया की ओर बह निकला था—तिरिया चरित्तर, तिरिया चरित्तर साला…

       फिर पालिटिकली इनकरेक्ट मुहावरा…

       ऐसी की तैसी पालिटिकल करेक्टनेस की…तिरिया-चरित्तर नहीं तो और क्या है कि पहले पुतले के नंगेपन का खुलेआम समर्थन किया, फिर मेरा लिहाज करने का नाटक करके बाहर तो चुप रहने लगी, लेकिन घर में… तिरिया-चरित्तर, तिरिया-चरित्तर…शुद्ध तिरिया-चरित्तर… साजिश थी दोनों की। यह साला पुतला यहाँ चुपचाप खड़ा-खड़ा बड़ा होता रहा, वहाँ वो कमीनी मेरी धरम की पत्नी सब जानते हुए चुप्पी साधे रही…मेरा कार्टून बनाती रही…मिल कर किया है दोनों ने….इस साले का तो क्या करें, लेकिन इस लुगाई को ठीक नहीं किया तो मैं वाकई…साला और कुछ नहीं, शुद्ध कोल्ड ही रहा…

       कुछ ही देर पहले तक सिंह-गर्जना के अंदाज में उछाले गये जयकारों के जरिए जया की पराजय का उत्सव मनाते रवि, इस पल कूं-कूं तक ठीक से नहीं कर पा रहे थे। वे इस हृदय-विदारक वेदना को और उसे सारे जीवन झेलने के अभिशाप को ऐन आँखों के सामने देख रहे थे कि कद-काठी में ही नहीं; जया के मन में उसके और खुद के बीच चलने वाली जिस तुलना की आशंका में रवि पिछले बीस साल में लगातार कमजोर, बौने और दुबले होते चले गये थे, उस तुलना में भी, पुतला निश्चय ही, स्ट्रांगर, लांगर और थिकर हो गया था।

*परवारे: अलग से , उदा०: मुख्यमंत्री ने कलाकार से परवारे ही, बिना प्रधानमंत्री को बताये, बात कर ली ।

‘नया ज्ञानोदय’ फरवरी' 2013 में प्रकाशित