विज्ञापन लोड हो रहा है...
कृपया एडब्लॉक बंद करें। हमारा कंटेंट मुफ्त रखने के लिए विज्ञापन ज़रूरी हैं।
Tejendra Sharma लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Tejendra Sharma लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

प्रवासी साहित्यकार समाज में पुल का काम करें - तेजेन्द्र शर्मा


ब्रिटेन के प्रमुख साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा ने कहा कि “ब्रिटेन के हिन्दी साहित्यकारों का उद्देश्य होना चाहिये कि उनका साहित्य ब्रिटिश हिन्दी साहित्य कहलाए ना कि भारत का प्रवासी हिन्दी साहित्य। हमें अपने साहित्य में से नॉस्टेलजिया को धीरे धीरे बाहर निकालना होगा। हमारे लेखन के सरोकार ब्रिटिश समाज के सरोकार होने चाहियें। मेरा मानना है कि प्रवासी साहित्यकारों को प्रवासी समाज एवं स्थानीय गोरे समाज के बीच एक पुल का काम करना चाहिये।”

तेजेन्द्र शर्मा कल यानि कि 28 सितम्बर 2013 को ब्रिटेन के लेस्टर शहर की लेस्टर मल्टीकल्चर एसोसिएशन के एक ख़ास कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में अपनी बात श्रोताओं के सामने रख रहे थे।
संस्था ने युगाण्डा से चालीस साल पहले इदी अमीन द्वारा निकाले गये भारतीय मूल के लोगों के सम्मान में एक पूरा प्रोजेक्ट बनाया था। उनमें से अधिकांश भारत के गुजरात प्रान्त से सम्बन्ध रखते थे। इन भारतवंशियों ने ब्रिटेन में आकर यहां की संस्कृति को एक नया रंग दिया और भारतीय संस्कृति को ब्रिटेन में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

संस्था के सचिव श्री विनोद कोटेचा ने संस्था का परिचय देते हुए बताया कि उन्होंने तेजेन्द्र शर्मा को  अपनी 50 कविताओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने की दावत दी और कहा कि अपने साहित्य के माध्यम से ये कविताएं प्रवासी जीवन स्थानीय लोगों के साथ साझा करें। उन्होंने श्रोताओं को बताया कि तेजेन्द्र शर्मा की कविताओं को दोनों भाषाओं में संकलन के रूप में प्रकाशित किया जाएगा।

कार्यक्रम के अन्त में एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें डॉ. निखिल कौशिक (वेल्स), डॉ. अजय त्रिपाठी, परवेज़ मुज़फ़्फ़र, नरेन्द्र ग्रोवर (तीनों बर्मिंघम), नीना पॉल (लेस्टर) एवं स्वयं मैं यानि कि तेजेन्द्र शर्मा ने कविता पाठ किया।

प्रोजेक्ट की संयोजक सुखी ठक्कर ने प्रोजेक्ट के बारे में विस्तार से बताया। संचालन डॉ. राजीव वाधवा ने किया। लेस्टर की लेबर पार्टी काउंसलर एवं डिप्टी मेयर मंजुला सूद एवं रश्मिकान्त जोशी के अतिरिक्त भारतीय समाज के सम्मानित वयक्तित्व कार्यक्रम में मौजूद थे। धन्यवाद ज्ञापन संस्था के अध्यक्ष सरदार गुरमेल सिंह दिया।

इन्दु शर्मा कथा सम्मान कभी किसी कमज़ोर किताब को नहीं दिया गया: तेजेन्द्र शर्मा

अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान के 19 वर्ष

: तेजेन्द्र शर्मा


लगता है कल ही की बात है जब डा धर्मवीर भारती, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित एवं मैं स्वयं भारती जी के घर पर इंदु जी की मृत्यु के एक महीने बाद ही इकठ्ठे बैठे थे. यह पहला मौका था जब दीक्षित जी डा. भारती के घर गये थे. दीक्षित जी इंदु जी के अंतिम दिनों के विशेष मित्र थे. कई कई बार घन्टों इंदु जी के साथ बैठा करते थे. भारती जी भी इंदु को बहुत प्यार करते थे दोनों इलाहाबाद से जो थे. बातचीत के दौरान मैं कह बैठा, ''भारती जी, मैं तो किस्मत वाला था कि इन्दु जी मेरे जीवन में थीं. मेरी कहानियों की व्याकरण, भाषा, कथ्य सभी पर इंदु जी अपनी राय देतीं थीं. हर युवा लेखक तो इतना भाग्यशाली नहीं होता होगा.''

भारती जी तत्काल कह उठे, तो तुम युवा लेखकों के लिए इंदु के नाम पर कुछ करो. लगभग एक घन्टे भर में इंदु शर्मा कथा सम्मान का नाम, पुरस्कार राशि, कहानीकारों की 40 वर्ष की आयु सीमा सभी भारती जी एवं दीक्षित जी ने मिल कर तय करवा दी. और मैं तैयार हो गया टुकड़ा टुकड़ा इंदु युवा कथाकारों में बांटने के लिए. मैंने भारती जी से एक शर्त रखी की कार्यक्रम तभी होगा यदि पहले सम्मान-समारोह के मुख्य अतिथि बनना वे स्वीकार करें. और वे मान भी गये.

मई 1995 में इंदु शर्मा मेमोरियल ट्रस्ट की स्थाप्ना हुई. विश्वनाथ सचदेव (जिन्हें मैं अपना स्थानीय अभिभावक कहा करता था), राहुल देव एवं सिने कलाकार नवीन निश्चल इसके न्यासी बने. और ट्रस्ट का पंजीकरण मुंबई में हो गया.

दूसरी मीटिंग में शामिल थे विश्वनाथ सचदेव, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, और डा. विजय कुमार. विचार विमर्श हुए और इन तीनों निर्णायकों ने प्रथम सम्मान के लिए कहानीकार के चयन का काम अपने सिर ले लिया. भारती जी ने साहित्यिक कार्यक्रमों में शिरकत पर स्वयं ही प्रतिबंध लगा रखा था. सेहत ठीक नहीं रहती थी और हिन्दी साहित्य में बढ़ती राजनीति से परेशान भी रहते थे. बहुत लम्बे अंतराल के बाद मुंबई के हिन्दी साहित्य प्रेमियों ने डा. धर्मवीर भारती को मंच से सुना. भारती जी ने गीतांजलिश्री के कहानी संग्रह अनुगूंज पर एक गहरा, गंभीर एवं सारगर्भित वक्तव्य दिया जिसकी लम्बे अर्से तक चर्चा सुनने को मिली.

एअर इंडिया के अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने भी इंदु शर्मा कथा सम्मान को जैसे अपना आधिकारिक कार्यक्रम मान लिया था. मुंबई में पहली बार किसी हिन्दी साहित्यिक कार्यक्रम का आयोजन एक कारपेट से लैस, वातानुकूलित हॉल में आयोजित हुआ था. नरीमन पांइट पर एअर इंडिया बिल्डिंग का ऑडिटोरियम इंदु शर्मा कथा सम्मान का प्रतीक बन गया था.

कहते हैं ना कि यदि शुरूआत अच्छी हो जाए, तो काफ़िला चल निकलता है. कुछ यूं ही हुआ भी. पहले ही कार्यक्रम को प्रेस द्वारा इतना सराहा गया कि इंदु शर्मा कथा सम्मान को मुंबई के हिन्दी जगत का प्रतिनिधि कार्यक्रम बनने में जरा भी समय नहीं लगा नहीं लगा. कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मनोहर श्याम जोशी, गोविन्द मिश्र, कामता नाथ, ज्ञानरंजन, कन्हैया लाल नंदन, सूर्यबाला, सुधा अरोड़ा, जितेन्द्र भाटिया, सुदीप, देवमणि पाण्डेय, दिनेश ठाकुर, राजेन्द्र गुप्ता, सुरेन्द्र पॉल, कन्हैया लाल सराफ़, राम नारायण सराफ़, सभी इस सम्मान के साथ जुड़ते चले गये. चालीस वर्ष से कम उम्र के कथाकारों के लिए यह एकमात्र सम्मान उभरने के पश्चात अब प्रतिष्ठित भी हो चला था.

इंदु शर्मा के पुत्र एवं पुत्री मुंबई के सेठ दामोदर दास चुनीलाल बरफ़ीवाला ट्रस्ट के कॉस्मोपॉलिटन स्कूल में पढते थे. इसलिये यह निर्णय लिया गया कि उस स्कूल के पांचवीं एवं नवीं कक्षा में हिन्दी मे प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय आने वाले छात्रों को सौ सौ रुपये के पुरस्कार दिए जाएं. इसके लिए कुछ राशि बैंक में जमा करवा दी गई जिसके व्याज से यह पुरस्कार आज भी दिए जा रहे हैं.

महाभारत में भीष्म पितामह कहते हैं कि काल की गति न्यारी है. समय ने करवट ली और मेरी पत्नी नैना और पूरे परिवार ने मिल कर लंदन वासी होने का निर्णय ले लिया. मित्रों को यह शक हो चला था कि मेरे लंदन-वासी होने के पश्चात यह यज्ञ यहीं समाप्त हो जाएगा. लेकिन मेरे परम मित्र कथाकार सूरज प्रकाश को यह मंजूर नहीं था. उसने ट्रस्ट के सभी काम अपने सिर ले लिए. अपनी पत्नी मधु के साथ वह इंदु शर्मा कथा सम्मान को समर्पित से हो गये. उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि ट्रस्ट के लिए काम करके उन्हें क्या हासिल होता है.उनके लिए मित्रता कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. हम दोनों में तक़रार भी होती है, हम झगड़ते भी हैं, लेकिन सूरज की कमिटमेन्ट में कभी कोई कमी नहीं आती. उन्होंने वर्ष 1999 के लिए मुंबई में कार्यक्रम के आयोजन का भार उठाया जहां मैं और मेरा परिवार अतिथि बन कर पहुंचे. उस वर्ष मनोज रूपड़ा सम्मानित हुए थे. लेकिन आयोजन में पेश आई मुश्किलों को देख कर हमें महसूस हुआ कि अब इस कार्यक्रम का आयोजन लंदन में ही होना चाहिए. वैसे भी हिन्दी साहित्य के लिए कोई अंतर्राष्ट्रीय सम्मान या पुरस्कार तो अब तक कोई था नहीं, और नई शताब्दी शुरू होने जा रही थी. तय किया गया कि इंदु शर्मा कथा सम्मान को अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप दे दिया जाए.लेकिन इसके लिए साधन कहां से आयेंगे?

लन्दन पहुंच कर इंदु शर्मा मेमोरियल ट्रस्ट के नए स्वरूप कथा (यू.के.) का गठन किया गया. माननीय दिव्या माथुर, रमेश पटेल एवं नैना शर्मा ने मिल कर लंदन में कथा (यू.के.) का पौधा रोपा. दिव्या जी के अनूठे व्यक्तित्व एवं नेतृत्व का लाभ हमें मिला और बहुत ही कम समय में इंगलैण्ड में कथा (यू.के.) की कथा गोष्ठियों का आयोजन होने लगा. इन गोष्ठियों में दो कहानीकार अपनी रचनाओं का पाठ करते और उपस्थित प्रतिभागी कहानी पर अपनी निष्पक्ष राय देते. इन गोष्ठियों में पद्मेश गुप्त, भारतेन्दु विमल, दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, उषा वर्मा, शैल अग्रवाल, डा. गौतम सचदेव, अरुण अस्थाना, कैसर तमकीन, शाहिदा अज़ीज़ ज़ैसे रचनाकारों ने तो अपनी कहानियों का पाठ किया ही, भारत से अलका सरावगी एवं न्युयार्क से सुषम बेदी ने भी अपनी रचनाओं से इन्हें समृद्ध किया. कैलाश बुधवार, रवि शर्मा, अचला शर्मा, सत्येन्द्र श्रीवास्तव, महेन्द्र वर्मा, डा. कृष्ण कुमार, चित्रा कुमार, तितिक्षा शाह, डा. के.के.श्रीवास्तव, नरेश भारतीय, अनिल शर्मा, के.बी.एल. सक्सेना, सलमान आसिफ़, के.सी.मोहन, परवेज. आलम आदि ने इन गोष्ठियों में शिरकत करके इन गोष्ठियों के स्तर को ऊंचा उठाने में सहायता की. हमारा प्रयास यही रहा कि यह गोष्ठियां लोगों के घरों मे आयोजित की जा सकें ताकि उनके घर में हिन्दी कम से कम सुनी तो जा सके. रमेश पटेल, अनिल शर्मा, सुनील पटेल, कैप्टन बिहारी, अरुणा अजितसरिया, ज़किया ज़ुबैरी, महेन्द्र दवेसर, शैल अग्रवाल आदि हमारी कई गोष्ठियों के मेज़बान बने. ऐसी ही एक गोष्ठी में तितिक्षा शाह ने हमें सुझाया कि भारत के लेखकों के लिए तो हम इंदु शर्मा कथा सम्मान के आयोजन की बात सोच रहे हैं लेकिन इंगलैण्ड में रचे जा रहे हिन्दी साहित्य का मूल्यांकन कैसे होगा? इस तरह पद्मानंद साहित्य सम्मान की योजना बनी. इस सम्मान के लिए किसी विधा की सीमा नहीं बांधी गई. कथा (यू.के.) के वर्तमान पदाधिकारी हैं काउंसलर ज़किया ज़ुबैरी (संरक्षक),  श्री कैलाश बुधवार (अध्यक्ष), रमेश पटेल (कोषाध्यक्ष), श्रीमती मधु अरोड़ा (मुंबई प्रतिनिधि), एवं तेजेन्द्र शर्मा (महासचिव)

सदा की तरह एअर इंडिया एक बार फिर हमारा साथ देने के लिए तैयार थी. यू.के. में एअर इंडिया के क्षेत्रीय निदेशक कैप्टन के. बिहारी ने प्रायोजन का जिम्मा अपने सिर उठा कर हमारे विचारों को अमली जामा पहनाया. लंदन का नेहरू केन्द्र इंदु शर्मा कथा सम्मान की नई पहचान बन गया. वर्ष 2000 में नई शताब्दी के आगमन से इंदु शर्मा कथा सम्मान अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप ले कर सामने आया. सम्मान के अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप को देखते हुए 40 वर्ष की आयु सीमा हटा दी गई और इसे अधिक विस्तार देने के लिए कहानी के साथ साथ उपन्यास विधा को भी जोड़ दिया गया ताकि सम्मान पूरे कथा साहित्य का प्रतिनिधित्व कर सके. प्रथम अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान के लिए चित्रा मुद्गल के उपन्यास आवां का चयन किया गया, वहीं प्रथम पद्मानंद साहित्य सम्मान प्राप्त करने वाले साहित्यकार बने डा. सत्येन्द्र श्रीवास्तव जिन्हें यह सम्मान उनकी रचना टेम्स में बहती गंगा की धार के लिए प्रदान किया गया.

कार्यक्रम की सफलता का अंदाज़ उसकी प्रेस कवरेज देख कर लगाया जा सकता है. सूरज प्रकाश प्रथम कार्यक्रम को देखते हुए लंदन स्वयं पहुंचे और हमारा मार्गदर्शन किया. चित्रा जी के उपन्यास के चयन पर जहां हमें आमतौर पर सराहना मिली, वहीं हंस पत्रिका ने हमारी कडी आलोचना करते हुए इसे पिछले दरवाजे से किया गया कार्य घोषित किया. आवां को हाल ही में मिले व्यास सम्मान ने हमारे निर्णायकों की समझ बूझ और चयन पर स्वीकृति की एक और मोहर लगा दी है.मजेदार बात यह है कि वही मित्र जो पहले चालीस वर्ष की आयु सीमा पर एतराज क़रते थे, आज वही आयु सीमा हटाने और उपन्यास को भी कहानी के साथ जोडने की आलोचना कर रहे थे. हमें ख़ुशी इस बात की थी कि यदि कोई हमारे काम की तारीफ़ कर रहा है, तो कोई आलोचना कर रहा था. यानि कि प्रतिक्रियाएं मिल रही थीं. कोई भी हमारे काम के प्रति उदासीन नहीं था.

चित्रा जी जब हमारे परिवार के साथ रहीं और लंदन देख कर लगभग एक बालक की सी प्रतिक्रियाएं दीं, तो हमे महसूस हुआ कि हर व्यक्ति में एक बालक हमेशा जिन्दा रहता है.

दरअसल एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान की कुछ वांछित जरूरतें होती हैं और फिर यदि यह सम्मान हिन्दी का पहला ही अंतर्राष्ट्रीय सम्मान हो तो हमारी जिम्मेदारियां और भी बढ ज़ाती हैं. अब क्योंकि मैं स्वयं किसी साहित्यिक ख़ेमे से जुडा हुआ नहीं हूं, इसलिए (मुझे ऐसा लगता है कि मेरी कहानियों का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया. हमें महसूस हुआ कि ऐसा बहुत सा लेखन हिन्दी में मौजूद है जो केवल इसलिए उपेक्षित पड़ा है क्योंकि किसी मठाधीश ने उस पर अपना हाथ नहीं धरा. संजीव, ज्ञान चतुर्वेदी, एस आर हरनोट, और विभूति नारायण राय, विकास कुमार झा, हृषिकेश सुलभ कुछ ऐसे ही नाम हैं जिन्होंने उच्चकोटि के साहित्य का सृजन किया है किन्तु पुरस्कार एवं सम्मान उनसे कन्नी काट कर निकल जाते हैं. हमारे निर्णायक मण्डल के सदस्य इस बात की चिन्ता नहीं करते कि लेखक का कद कितना बडा है, उसकी किस किस से पहचान है उसके माध्यम से कथा (यू.के.) को क्या क्या लाभ हो सकते हैं. उनका केवल एक ही पैमाना होता है कि रचना कितनी सशक्त है. चाहे फिर वो रचना किसी लेखक की पहली रचना ही क्यों न हो. इस मामले में हम इंगलैण्ड के बुकर्स प्राइज क़ी राह पर चलते हैं. इस मामले में एक पुस्तक ऐसी याद आती है जो दो वर्षों तक दूसरे स्थान पर रही. अब सम्मान तो एक ही रचना को मिल सकता है, किन्तु भगवान दास मोरवाल का उपन्यास काला पहाड, और मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास शिगाफ़ हमें हमेशा अपनी याद दिलाता रहेगा कि कई बार एक से अधिक महत्वपूर्ण रचनाएं प्राप्त होने से निर्णय लेने में कितनी कठिनाई होती है। लगता है कि हम किसी एक रचना के साथ नाइन्साफ़ी कर रहे हैं। हमें बहुत बार सुनने को मिलता है कि फलां लेखक का काँट्रीब्यूशन फलां से कहीं अधिक है, हमारा कहना है कि हम सम्मान काँट्रीब्यूशन के लिए नहीं दे रहे हैं.

अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान केवल उत्कृष्ट कृति के लिए दिया जाता है.

एक मजेदार बात और, मैं व्यक्तिगत तौर पर सम्मानित साहित्यकारों से परिचित भी नहीं था. अधिकतर लेखकों को पहली बार एअरपोर्ट पर ही पहली बार मिला. इसीलिये हम एकदम नये लेखकों जैसे कि प्रमोद कुमार तिवारी (डर हमारी जेबों में) एवं महुआ माजी (मैं बोरिशाईल्ला) को सम्मानित करने का साहस कर पाये. मैं बोरिशाईल्ला का रूपा प्रकाशन द्वारा अंग्रेज़ी में अनुवाद करवा कर प्रकाशित करवाना हमारे निर्णायक मण्डल की समझ बूझ और हिम्मत की दाद देता है।

बहुत से वरिष्ठ लेखकों ने और अन्य मित्रों ने भी कहा कि संस्था को चाहिए कि निर्णायकों के नाम सार्वजनिक किये जाएं. उससे पारदर्शिता बढेग़ी. हमारा उनसे एक ही प्रश्न है कि साहित्य अकादमी अपने निर्णायकों के नाम सार्वजनिक करती है, क्या आम लोग उनके निर्णय से सहमत हो पाते हैं. क्या लोगों को नहीं लगता कि कहीं कोई गडबड हो गई है. जब तक हमारे निर्णायक सही काम कर रहे हैं, उनके सार्वजनिक होने या न होने से क्या अन्तर पडता है. प्रक्रिया से अधिक हमारे काम पर निगाह रखिये. कहीं हम चूकें या किसी कमज़ोर रचना को सम्मानित करें, हमें अवश्य सही राह दिखाइए.

हमसे बहुत बार कहा जाता है कि हम अपने निर्णायक मण्डल की घोषणा क्यों नहीं करते। यह ठीक वैसा ही है कि जैसे कोई कहे कि आप आम खिला रहे हैं गुठली क्यों नहीं दिखा रहे। हम अपना काम पूरी शिद्दत और ईमानदारी से कर रहे हैं। मुझे विश्वास है कि हमारे सम्मानित साहित्यकारों की सूचि इस बात की गवाह है। वैसे तो  साहित्य अकादमी के बारे में समाचार उड़ते हैं कि आजकल गुलज़ार, गोपीचन्द नारंग के यहां आते जाते देखे गये तो इस साल गुलज़ार को साहित्य अकादमी का सम्मान मिल जायेगा। हमने अपने निर्णायक मण्डल को इन सब बातों से बचा रखा है। न उन्हें कोई जाने और न उनसे संपर्क साधने का प्रयास करे। हमने देखा है कि अंतिम तीन पुस्तकों में से चयन करना आसान काम नहीं है। बहुत बारीक़ी से परखने के बाद ही निर्णय होता है। देखिये हम यह दावा नहीं करते कि देश में प्रकाशित प्रत्येक पुस्तक हम पढ़ ही लेते हैं। यह दावा कोई भी पुरस्कार या सम्मान नहीं कर सकते। हां हम यह अवश्य कह सकते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान कभी किसी कमज़ोर किताब को नहीं दिया गया।

हमारी संस्था के साथ एअर इण्डिया की भागेदारी सबसे पुरानी है। हमारे पहले पांच कार्यक्रम (1995-1999) नरीमन पाइण्ट स्थित एअर इण्डिया बिल्डिंग के वातानुकूलित सभागार में आयोजित किये गये। एअर इण्डिया हमारे पुरस्कार विजेताओं एवं मुख्य अतिथि के लिये हवाई टिकट भी देती रही। लंदन में हमारे रीजनल डायरेक्टर के अतिरिक्त श्री यादव शर्मा का योगदान हमेशा याद रखेंगे।

इन 19 वर्षों ने हमें बहुत सी यादें दी हैं, खट्टी, मीठी, कड़वी सभी तरह की. लेकिन मैं केवल उन्हें ही याद रखना चाहूंगा जो मन में ख़ुशियां भरती हैं. दिव्या माथुर के नेतृत्व के दो वर्ष, एअर इंडिया लंदन के  कैप्टन बिहारी , कैप्टन अश्विन शर्मा, श्री आर.डी. राव, शैलेन्द्र तोमर एवं भाषा ठेंगडी क़ा सहयोग, भारतीय उच्चायोग के श्री पी सी हलदर, रजत बागची, आसिफ़ इब्राहिम, एस.एस. सिद्धु अनिल शर्मा, राकेश दुबे, आनन्द कुमार एवं बिनोद कुमरा का निरंतर साथ एवं प्रेरणा, विभाकर बख्शी जैसे मित्रों का साथ यह सभी हमारी यादों की धरोहर हैं. जब तक सूरज प्रकाश हमारे साथ जुड़े रहे  उनका व्यक्तित्व हमारी सोच को संतुलन प्रदान करता था. कमलेश्वर जी का दिल्ली - मुंबई के लिए हवाई जहाज क़ी टिकट के पैसे लेने से इन्कार कर देना, ज्ञान चतुर्वेदी, एवं एस आर हरनोट द्वारा सम्मान की सूचना मिलने पर भीगी सी प्रतिक्रिया देना, नैना जी एवं उनकी सहेलियों का कमिटमेन्ट एवं जुडाव, ज्ञान चतुर्वेदी का कहना कि तेजेन्द्र का पूरा परिवार इस यज्ञ से जुडा हुआ है भारत एवं इंगलैण्ड के साहित्यकार मित्रों का स्नेह यह सभी हमारी हिम्मत बढाते हैं.

हम आत्ममुग्ध नहीं हो रहे. यह केवल पीछे मुड क़र देखने की एक प्रक्रिया है. क्या हमने एक मजबूत नींव बना ली है, जिस पर हम कल एक सुदृड ऌमारत खडी क़र पायेंगे? यह सपना ज़रूर देखता हूं कि जिस तरह अंग्रेज़ी में बुकर पुरस्कार के लिये लेखक साहित्य जगत प्रतीक्षा करता है, ठीक वैसे ही इन्दु शर्मा कथा सम्मान के लिये भी हो।
वर्ष रचनाकार सम्मानित रचना विधा/प्रकाशक कार्यक्रम के मुख्य अतिथि स्थल
1995 गीतांजलिश्री अनुगूंज कहानी संग्रह / राजकमल प्रकाशन  डा. धर्मवीर भारती, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित एअर इंडिया भवन मुंबई
1996 धीरेन्द्र अस्थाना उस रात की गंध कहानी संग्रह / वाणी प्रकाशन कमलेश्वर, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित एअर इंडिया भवन मुंबई
1997 अखिलेश शापग्रस्त कहानी संग्रह / राधाकृष्ण प्रकाशन  राजेन्द्र यादव, कन्हैया लाल नंदन एअर इंडिया भवन मुंबई
1998 देवेन्द्र शहर कोतवाल की कविता कहानी संग्रह / आधार प्रकाशन  मनोहर श्याम जोशी, ज्ञानरंजन एअर इंडिया भवन मुंबई
1999 मनोज रूपड़ा दफन कहानी संग्रह / आधार प्रकाशन  गोविन्द मिश्र, कामता नाथ एअर इंडिया भवन मुंबई
2000 चित्रा मुद्गल आवां उपन्यास / सामयिक प्रकाशन डा. गिरीश कारनाड, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित नेहरू सेंटर, लंदन
2001 संजीव जंगल जहां शुरू होता है उपन्यास / राजकमल प्रकाशन  डा. गिरीश कारनाड, केशरी नाथ त्रिपाठी नेहरू सेंटर, लंदन
2002 ज्ञान चतुर्वेदी बारामासी उपन्यास / राजकमल प्रकाशन  नीलम अहमद बशीर, श्री पीसी हलदर नेहरू सेंटर, लंदन
2003 एस.आर. हरनोट दारोश कहानी संग्रह / राजकमल प्रकाशन  जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, श्री पीसी हलदर नेहरू सेंटर, लंदन
2004 विभूति नारायण राय तबादला उपन्यास / राजकमल प्रकाशन  रवीन्द्र कालिया, पवन कुमार वर्मा नेहरू सेंटर, लंदन
2005 प्रमोद कुमार तिवारी डर हमारी जेबों में उपन्यास / सामयिक प्रकाशन  पवन कुमार वर्मा  नेहरू सेंटर, लंदन
2006 असग़र वजाहत कैसी आगी लगाई उपन्यास / राजकमल प्रकाशन  टोनी मैकनल्टी रजत बागची हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स
2007 महुआ माजी मैं बोरिशाइल्ला उपन्यास / राजकमल प्रकाशन  टोनी मैकनल्टी मोनिका मोहता  हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स
2008 नासिरा शर्मा कुइयां जान उपन्यास / सामयिक प्रकाशन टोनी मैकनल्टी, ज़कीया ज़ुबैरी हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स
2009 भगवान दास मोरवाल रेत उपन्यास / राजकमल प्रकाशन टोनी मैकनल्टी, मोनिका मोहता हाउस ऑफ़ कॉमन्स
2010 हृषिकेश सुलभ वसन्त के हत्यारे उपन्यास / राजकमल प्रकाशन नलिन सूरी, बैरी गार्डिनर हाउस ऑफ़ कॉमन्स
2011 विकास कुमार झा मैकलुस्कीगंज उपन्यास / राजकमल प्रकाशन नलिन सूरी, विरेन्द्र शर्मा हाउस ऑफ़ कॉमन्स
2012 प्रदीप सौरभ तीसरी ताली उपन्यास / वाणी प्रकाशन विरेन्द्र शर्मा (M.P.), ज़किया ज़ुबैरी हाउस ऑफ़ कामन्स

ब्रिटेन में हिन्दी कविता कार्यशाला - तेजेंद्र शर्मा

ब्रिटेन में बसने के बाद हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति बहुत से कार्य करने का अवसर मिलता रहा है। किन्तु हाल ही का अनुभव एक मामले में अनूठा रहा जहां लेस्टरशायर के लिण्डन प्राइमरी स्कूल के बच्चों के साथ मुझे एक कविता कार्यशाला (Poetry Workshop) करने का अवसर मिला। इस कार्यशाला का आयोजन Leicester Multi Cultural Association द्वारा किया गया था।

इस प्रोजेक्ट के तहत मुझे अपनी ही पचास कविताओं का हिन्दी से अंग्रेज़ी में अनुवाद करना है और लेस्टर के स्कूली बच्चों के साथ एक कविता कार्यशाला भी करनी थी।

     स्कूल के प्राध्यापक श्री मुहम्मद ख़ान, नैरोबी से ब्रिटेन आए एक भारतीय मूल के व्यक्ति हैं जिनके साथ हुई मुलाक़ात मुझे बरसों तक याद रहेगी। विद्यार्थियों के प्रति उनका पॉज़िटिव और सृजनात्मक रवैया देख कर बहुत कुछ सीखने को मिला। मुझे सबसे अधिक हैरानी यह देख कर हुई की श्री ख़ान को प्रत्येक विद्यार्थी का नाम याद था और वे सभी विद्यार्थियों को उनके पहले नाम से पुकार रहे थे। उस स्कूल में गोरे, काले, चीनी, अरबी, एव भारतीय उपमहाद्वीव आदि सभी स्थानों के बच्चे मौजूद थे।



     स्कूल के मुख्य द्वार पर गुजराती, उर्दू, पंजाबी, अरबी, एवं अंग्रेज़ी में स्वागतम लिखा था। थोड़ा असहज हो गया क्योंकि वहां हिन्दी नदारद थी। मेरा प्रयास रहेगा कि जल्दी ही वहां हिन्दी भाषा में भी स्वागतम लिखा जाए।

     मुझे पंद्रह-पंद्रह विद्यार्थियों के दो गुटों के साथ कविता की कार्यशाला करनी थी। उन्हें कविता की यात्रा सरल शब्दों में बताते हुए ब्रिटेन के हिन्दी कवियों के विषय में जानकारी देनी थी। उन्हें यह भी समझाना था कि कविता की बुनावट कैसी होती है; कविता के शब्द कैसे होते हैं; कविता में शब्दों की मित्वययता का महत्व क्या है... आदि, आदि। प्रवासी कविता किस प्रकार प्रवासियों एवं स्थानीय लोगों में एक पुल का काम कर सकती है।

     मैनें विद्यार्थियों को दावत दी कि वे चाहें तो अपनी मातृभाषा यानि कि गुजराती, उर्दू, हिन्दी या अरबी भाषा में कविता लिखने का प्रयास करें। मगर मैनें पाया कि अधिकतर विद्यार्थी अपनी मातृभाषा समझ तो पाते हैं... किसी तरह थोड़ी थोड़ी बोल भी लेते हैं... मगर लिखने का अभ्यास उन्हें बिल्कुल भी नहीं है। फिर भी एक बच्ची ने अपनी मातृभाषा अरबी में कविता की पहली दो पंक्तियां लिखीं और बाक़ी की कविता अंग्रेज़ी में पूरी की... मैनें अपनी हिन्दी कविताओं के साथ साथ उनका अंग्रेज़ी अनुवाद भी पढ़ा।

     कार्यशाला खुले में स्कूल द्वारा निर्मित एक छोटे से जंगल में भी हुई... फिर एक गोलमेज़ के इर्दगिर्द भी हुई और अंततः स्कूल के एसेम्बली हॉल में जा कर मेरे अंतिम वक्तव्य के साथ समाप्त हुई जहां बच्चों ने अपनी कर्यशाला में लिखी कविताएं पूरे आत्मविश्वास से सुनाईं।

     कुल मिला कर यह एक अद्भुत अनुभव रहा। मैं इसके लिये Leicester Multi Cultural Association के श्री विनोद कोटेचा (कोषाध्यक्ष), श्री गुरमैल सिंह (अध्यक्ष), सुनीता परमार, प्राध्यापक श्री मुहम्मद ख़ान एवं बीबीसी के भूतपूर्व पत्रकार श्री दीपक जोशी का धन्यवाद करना चाहूंगा।

 तेजेंद्र शर्मा

तेजेन्द्र शर्मा की कहानी "टेलिफ़ोन लाईन"


“पांच मिनट का इन्तज़ार तुमको इतना लम्बा लगा? यहां तो एक ज़िन्दगी ही निकल गई! ”
    टेलिफ़ोन की घन्टी फिर बज रही है।

    अवतार सिंह टेलिफ़ोन की ओर देख रहा है। सोच रहा है कि फ़ोन उठाए या नहीं। आजकल जंक फ़ोन बहुत आने लगे हैं। लगता है जैसे कि पूरी दुनियां के लोगों को बस दो ही काम रह गये हैं – मोबाईल फ़ोन ख़रीदना या फिर घर की नई खिड़कियां लगवाना। अवतार सिंह को फ़ोन उठाते हुए कोफ़्त सी होने लगती है। सवाल एक से ही होते हैं, “हम आपके इलाके में खिड़कियां लगा रहे हैं। क्या आप डबल ग्लेज़िंग करवाना चाहेंगे? ” या फिर “सर क्या आप मोबाइल फ़ोन इस्तेमाल करते हैं? ”

    ‘मैं फ़ोन इस्तेमाल करता हूं या नहीं, इससे आपको क्या लेना देना है? ’

    “सर हमारे पास एकदम नई स्कीम है। दरअसल ये कोई सेल्स कॉल है ही नहीं। हमारे कम्पयूटर ने आपका नाम सुझाया है, राईट! आपको फ़ोन एकदम फ़्री मिलेगा। राईट!  ..यू डू नॉट हैव टु पे ईवन ए पेन्नी फ़ार दि फ़ोन... ”

    “यार बिल तो मुझे ही देना पड़ेगा न?”

    एक दिन तो एक ने कमाल ही कर दिया। अवतार सिंह का नाम सुन कर बोला, “अंकल जी मैं दिल्ली तों टोनी बोल रिहा हां। अंकल जी प्लीज़ फ़ोन ले लीजिये न। मेरा टारगेट नहीं हो पा रहा। प्लीज़! ”

अवतार ने फिर टेलिफ़ोन की तरफ़ देखा है। प्रतीक्षा कर रहा है कि आंसरिंग मशीन चालू हो जाए तो बोलने वाले की आवाज़ सुन कर ही तय करेगा कि फ़ोन उठाना है या नहीं।

किसी ज़माने में पिंकी के फ़ोन की कितनी शिद्दत से प्रतीक्षा होती थी। फिर पिंकी का फ़ोन और उसका फ़ोन एक हो गये थे। पिंकी अपने पिता का घर छोड़ कर अवतार के पास आकर उसकी पत्नी बन कर रहने लगी थी। कुछ साल तो सब ठीक चलता रहा। लेकिन फिर जैसे उनके संबंधों के नीचे से ज़मीन भुरभुरी होती चली गई।
    .... फ़ोन ज़रूर किसी सेल्स वाले का ही होगा। संदेश नहीं छोड़ रहा।

    पिंकी भी बिना कोई संदेश छोड़े उसे अकेला छोड़ गई थी। पिंकी के इस तरह उसके जीवन से निकल जाने ने अवतार के व्यक्तित्व पर बहुत से गहरे निशान छोड़े हैं। उसे आज तक समझ ही नहीं आया कि कमी कहां रह गई। क्या हालात सचमुच इतने बिगड़ गये थे कि पिंकी को घर छोड़ कर जाना पड़ा?

पिंकी अवतार को छोड़ कर उसके दोस्त अनवर के साथ भाग गई। सुना है आजकल तो पूरा बुरका पहन कर घर से निकलती है। अवतार हैरान भी है और परेशान भी। पिंकी के भागने से अवतार को बहुत से नुक़्सान हुए हैं। पहले तो दोस्ती पर से विश्वास उठ गया है। फिर मुसलमानों के विरुद्ध उसके मन में गांठ और पक्की हो गई है। हालांकि कुसूर पिंकी का भी उतना ही था जितना कि अनवर का।

पिंकी मुसलमानों के विरुद्ध कितनी बातें किया करती थी! वह तो बुरक़ा पहनने वाली औरतों को बन्द गोभी तक कहा करती थी! फिर ऐसा क्या हो गया कि वह स्वयं औरत न रह कर बन्द गोभी बनने को तैयार हो गई?

    अनवर जब लंदन आया था तो उसका पहला दोस्त अवतार ही बना था। अनवर मिघयाणे का रहने वाला था। जगह का नाम सुनते ही अवतार की आंखें नम हो आईं थी। उसके अपने माता पिता हमेशा ही झंग की बातें करते थे। झंग और मिघयाणा तो जैसे जुड़वां शहर थे। अनवर की बोली भी अवतार के माता पिता की बोली से कितनी मिलती जुलती थी। अनवर जब बोलता तो अवतार बस सुनता रहता। अनवर हीर बहुत मीठी गाता था।

    हीर के मकबरे की बातें करता अनवर अपनी आंखों में पानी ले आता। हीर माई की बातें और तख़्त-हज़ारे का रांझा - दोनों दोस्त ख़्यालों के सागर में नहाते रहते। और फिर एक दिन हो गई थी अवतार की शादी और अनवर को भी घर का खाना मिलने लगा था। वरना तो दोनों दोस्त हाउंसलों के ढाबे-नुमा रेस्टोरेण्टों की कमाई बढ़ाने का काम करते रहते थे। तीनों इकठ्ठे फ़िल्में देखने भी जाते थे। आख़री फ़िल्म बार्डर ही देखी थी तीनों ने। और पिंकी घर की सीमा पार कर उस पार चली गई थी।

    अब तो संदेसे भी नहीं आते। बस कभी कभी कोई समाचार आ जाता है। जब अवतार का कोई दोस्त सायरा को साउथहॉल या ईलिंग रोड की मुख्य सड़कों पर ख़रीददारी करते देख लेता है तो चुटकी लेते हुए अवतार को बताता ज़रूर है। पिंकी को सायरा बानू नाम भी पसन्द था और इस नाम की फ़िल्मी हिरोईन भी सुन्दर लगती थी। उसने कई बार अवतार से कहा भी था, “मैं किहा जी, मैं अपना नाम सायरा बानू रख लवां? किन्ना प्यारा नाम लगदा है! ” शायद यही नाम रखने के लिये ही वो मुसलमान हो गई!

    फ़ोन फिर बजने लगा है। बे-ध्यानी में उसने उठा भी लिया है। फ़ोन श्रीवास्तव जी का है। अवतार समझ गया कि चालीस पैंतालीस मिनट का नुस्ख़ा तो हो गया। श्रीवास्तव जी के साथ उसकी बातचीत कम से कम इतनी तो चलती ही है। श्रीवास्तव जी की पत्नी तो अवतार को अपनी सौतन कह कर बुलाती है। लेकिन प्यार भी बहुत करती हैं। श्रीवास्तव जी उम्र में भी अवतार से बड़े हैं। पांच सात साल तो बड़े होंगे ही। कट्टर मार्क्सवादी हैं। कभी कभी अवतार को भी बोर कर देते हैं। अवतार किसी वाद विवाद को नहीं मानता। इन्सानियत उसका धर्म है और इन्सानियत ही ज़िन्दगी। वो स्वयं न तो गुरुद्वारे अरदास करने जाता है और न ही मंदिर में पूजा करने। 

    अवतार की मां सिख थीं और पिता हिन्दू। मां ने अवतार को सिख धर्म की सीख दी। लेकिन माता पिता दुर्गा के मंदिर भी उसी श्रद्धा से जाते थे जैसे कि गुरूद्वारे। घर में गुरू नानक और श्री कृष्ण जी की फ़ोटो साथ साथ टंगी रहतीं। अवतार को भगवान कृष्ण के सिर में लगा मोर का पंख बचपन से ही आकर्षित करता था। हालांकि श्रीवास्तव जी के साथ वह नीस्डन के स्वामी नारायण मंदिर भी चला जाता और साउथहॉल के गुरूद्वारे में लंगर भी खा आता। लेकिन श्रद्धा वाली कोई बात नहीं थी।


    श्रीवास्तव जी ने नई ग़ज़ल लिखी है। वे जब जब कोई नई नज़्म या ग़ज़ल कहते हैं, बेचारे अवतार पर ही ज़ुल्म ढाते हैं ! अवतार भी उनकी रचनाओं का आनंद उठाता है। दोनों दोस्त कभी कभी दोपहर को भोजन  भी इकट्ठे कर लेते हैं। श्रीवास्तव जी अवतार के कम्पयूटर को हिन्दी भी सिखाते हैं और गुरमुखी भी। लेकिन कम्पयूटर के सीख लेने के बावजूद अवतार कम्पयूटर के मामले में अपने को अनाड़ी ही पाता है। दोनों को जब कभी कोई नया लतीफ़ा कहीं से सुनने को मिलता है, तो दूसरे के साथ जल्दी से बांट लेते हैं। अवतार का तकिया कलाम रहता है, “हां जी, कोल कोई खलोता तां नहीं ? .. लो फिर ताज़ा ताज़ा हो जाए।” फिर दोनों दोस्त देर तक हंसते रहते। 

    श्रीवास्तव जी ने कभी भी अवतार से पिंकी के बारे में बातें नहीं कीं। श्रीवास्तव जी का परिवार अवतार के जीवन में पिंकी के जाने के बाद ही आया। अवतार को अच्छा भी लगता है कि श्रीवास्तव जी ने कभी भी उसकी निजि ज़िन्दगी के बारे में कभी कुछ नहीं पूछा। उसे अपनी आंखों में आंसू बिल्कुल पसन्द नहीं हैं !
फ़ोन रख दिया है। श्रीवास्तव जी की नई नज़्म हैरो शहर पर लिखी गई है। वही सुना रहे थे। अवतार के दिमाग़ में दो पंक्तियां अभी भी गूंज रही थीं, “बाग़ में जिसने बना डाले भवन / तय करो उसकी फिर सज़ा क्या है ! ” हाउंसलो ही की तरह हैरो की भी शक्ल बदल रही है। बदल तो उसकी अपनी ज़िन्दगी भी बहुत गई है। आज पिंकी बहुत याद आने लगी है। पिंकी और अनवर, भारत और पाकिस्तान, हिन्दू और मुसलमान – सभी उसके दिमाग़ को मथ रहे हैं। अचानक ये सब उसे अपने स्कूल में पहुंचा कर खड़ा कर देते हैं। 

 
 फ़ोन की घंटी फिर बज उठी है। अवतार ने गिलास में व्हिस्की डाल ली है। वह रोज़ाना शाम को व्हिस्की के दो पैग लेता है। जब कभी यादें सुकून से खिलवाड़ करने लगती हैं, वह दो से तीन तक भी पहुंच जाता है। उसकी प्रिय व्हिस्की है कुछ नहीं । जब पहली बार श्रीवास्तव जी ने इस व्हिस्की के बारे में बताया था तो वह अपनी हैरानी नहीं छिपा सका था। कुछ नहीं ! भला इस नाम की भी स्कॉच व्हिस्की हो सकती है ? श्रीवास्तव जी ने ही बताया था कि यह व्हिस्की एक भारतीय मूल के व्यक्ति के दिमाग़ की उपज है। आप व्हिस्की पियो तो भी कुछ नहीं पियोगे और अगर नहीं पियोगे, तब तो कुछ पी ही नहीं रहे !.. वैसे अब जीवन में कुछ बचा ही कहां था ?

    जब से अनवर से दोस्ती टूटी है, व्हिस्की ज़रूरत सी बन गयी है। मुश्किल यह है कि जब अनवर की याद सताने लगती है तो व्हिस्की पीकर बिना भोजन किये ही सो जाता है। किन्तु अनवर को भुलाने की तमाम कोशिशें नाकाम ही रहती हैं। क्योंकि अनवर के साथ ही जुड़ी हैं पिन्की की यादें। भला अपनी ज़िन्दगी को कोई कैसे भूल सकता है ? आजकल मीट भी नहीं बनाता है। भला अकेले बन्दे के लिये क्या भोजन पकाना ? मीट खाना लगभग छूट ही गया है।

    स्कूली जीवन में भी मीट कहां खाता था। घर में मां और पिता दोनो ही शाकाहारी थे। अवतार की बहन निम्मो भी शाकाहारी है। अवतार ने ख़ुद भी लंदन आकर ही मीट खाना शुरू किया था। हालांकि जानता था कि इन्सान को मीट नहीं खाना चाहिये। बहुत देर तक शाकाहार पर लेक्चर दे सकता था। लेकिन फिर भी दोस्तों के साथ बैठ कर मीट खा लेता था। हां एक बात तय थी कि न तो वह गाय का मीट खाता और न ही सुअर का गोश्त। ले दे कर चिकन और मछली ही खा पाता था।

    स्कूल में भी एक दिन उसके दोस्त ने उसे मछली पेश की थी। मगर उन दिनों कहां खा सकता था मछली। मछली की महक से ही उबकाई महसूस हुई थी। तभी अचानक एक आवाज़ सुनाई दी थी, “अरे कहां पंडित जी को मछली खिला रहे हो ?.. तुम सचमुच के सरदार तो हो न ? या खाली बस पगड़ी सजा रखी है सिर पर ? ”
यह आवाज़ थी सोफ़िया की। सोफ़िया भी दसवीं में पढ़ रही थी; वो भी विज्ञान की विद्यार्थी थी; फिर भी अवतार से अलग कक्षा में बैठती थी। सोफ़िया पढ़ रही थी बायलॉजी यानि कि मेडिकल साइंस और अवतार पढ़ रहा था मैकेनिकल और ज्योमैट्रिकल ड्राइंग यानि कि उसका लक्ष्य था इन्जीनियर बनना। इसलिये विज्ञान के विद्यार्थी होने के बावजूद दोनों अलग अलग क्लास में बैठने को मजबूर थे।

    किन्तु दोनो की क्लासों के कमरे कुछ इस तरह के कोण बनाते थे, कि खिड़की  में से दोनो एक दूसरे को निहार सकते थे। और दोनों यही किया भी करते थे। अवतार ज़रा झेंपू किस्म का लड़का था और सोफ़िया दबंग। सो लड़कों वाले सभी काम सोफ़िया को ही करने पड़ते। यद्यपि अवतार सोफ़िया को प्रेम का संदेश कभी प्रेषित नहीं कर पाया, फिर भी स्कूल में दोनों को लेकर खुसर-फुसर ज़रूर शुरू हो गई थी। ढिंढोरची अरुण माथुर तो एक एक को बताता फिरता, “बेटा देख लियो, सोफ़िया तो थोड़े दिनों में फुला हुआ पेट ले कर चलती दिखाई देगी। यह साला सरदार ऊपर से शरीफ़ बना फिरता है। ख़ूब खेला खाया है। तुम क्या समझते हो छोड़ता होगा ऐसे माल को। गुरू, पेल रहा है आजकल, ज़ोरों शोरों से। और सोफ़िया साली कौन सी कम है, लूट रही है मज़े, सरदार के साथ भी, और नसीर सर के साथ भी। ऐश हैं लौण्डी के, दोनों टाईप का मज़ा है गुरू।”

    अवतार को इतनी ओछी बातें कभी पसन्द नहीं आईं। वह चुप रह जाता। लेकिन सोफ़िया कहां चुप रहने वालों में थी, “अबे जा तूं, पेट फुलाउंगी तो अपना; मज़े लेती हूं तो मैं लेती हूं;... तूं क्यों मरा जा रहा है? जानती हूं तेरे बस का तो कुछ है नहीं। तूं तो ढंग से पेशाब ही करले, तो भी हो गई तेरी कमाई।”

    माथुर की मर्दानगी पर चोट होती तो वह तिलमिला जाता। लेकिन न तो वह स्वयं ही  चुप होता और न ही सोफ़िया। जब से पिंकी अनवर के साथ भाग गई है, तब से अवतार को सोफ़िया की याद शिद्दत से सताने लगी है, “कहां होगी, क्या करती होगी, कैसा परिवार होगा। उसकी शादी तो हायर सेकण्डरी के बाद ही हो गई थी। अब तो उसके बच्चे भी जवान होंगे।” 

    अवतार और पिंकी तो अपना परिवार भी शुरू नहीं कर पाये। जब से लंदन आया है अपने हाथ का बना या ढाबे का खाना खाने को अभिशप्त है अवतार। अपने आप को व्यस्त रखने का प्रयास करता है। दोस्तों की एक लम्बी से फ़ेहरिस्त है। इंटीरियर डेकोरेटर का काम है अवतार का, दूसरों के घर सजाता है, लेकिन अपना घर नहीं बसा पाया। 

    बेचैन हो उठा है अवतार, उठ कर म्यूज़िक सेंटर के पास जाता है, शिव कुमार शर्मा का सी.डी. लगा देता है। संतूर की लहरियों पर दिमाग़ बेलगाम तैरने लगता है। स्कूल यूनिफ़ॉर्म में सोफ़िया फिर सामने आ खड़ी हुई है। उसके पिता तो राष्ट्रपति भवन में ही काम करते थे। उसका तो घर भी वहीं प्रेसिडेन्ट्स इस्टेट में था। लंदन आने के बाद एक बार गया भी था वहां। अपना स्कूल देखने के बहाने गया था। अपने स्कूल को भुला पाना भी कौन सा आसान काम था। सोफ़िया जिस क्लास में बैठती थी; जिस कॉरीडोर में चलती थी; जहां पहली बार उसके हाथ से हाथ मिलाया था... वो सब उसकी यादों के धरोहर हैं। 

    पता चला था कि सोफ़िया के अब्बा रिटायर हो कर जमुना पार किसी कालोनी में फ़्लैट ख़रीद कर वहां चले गये हैं। अब तो असली दिल्ली जमुना पार ही बसती है। हालांकि वहां वाले पुराने लोग आज भी जब जमुना पार करते हैं तो कहते हैं कि दिल्ली जा रहे हैं। अवतार ने अपने स्कूल को एक नया कम्पयूटर दान में दिया। आंखों में गीलापन लिये बस इतना ही कह पाया, “सर, इस स्कूल से इतना कुछ पाया है कि यह कर्ज़ तो कभी नहीं उतार सकता।”

    अब तो प्रिंसिपल भी बदल गये हैं। उसके ज़माने में तो बेदी साहब प्रिंसिपल हुआ करते थे। करीब छ : फ़ुट लम्बा कद, भरा हुआ शरीर, देखने में एकदम इटैलियन लगते थे। पूरा स्कूल उनसे डरता भी था। आज प्रिंसिपल के कमरे के बाहर की तख़्ती बता रही है – ओम प्रकाश गुप्ता। तख़्ती हिन्दी में ही लगी है। बेदी साहब की शायद अंग्रेज़ी में थी। वैसे क्या फ़र्क पड़ता है कि तख़्ती किस भाषा में है। प्रिंसिपल तो प्रिंसिपल ही रहेगा। प्रिंसिपल के कमरे के सामने एक खाली स्थान था जहां कुछ फूलों के पौधे लगे थे। उसके बाद दूसरा बराम्दा था। और वहां था कंट्रोल रूम।

   उस कंट्रोल रूम के इंचार्ज हुआ करते थे, सर आर. के. सीम। सीम सर से एक बार पूछा भी था कि उनके सरनेम का अर्थ क्या है। वे बस मुस्कुरा कर रह गये थे। सीम सर ड्राइंग भी पढ़ाते थे और कंट्रोल रूम भी देखते थे। अवतार की आवाज़ बहुत सुरीली थी। स्कूल में जब सुबह की प्रार्थना होती थी तो अवतार ही मुख्य गायक की तरह पहले प्रार्थना शुरू करता। बाकी तमाम बच्चे उसके पीछे पीछे गाते। अवतार जब जब एसेम्बली के सामने जा कर प्रार्थना शुरू करता, सोफ़िया उसे निहारती। शरमाता हुआ अवतार अपना काम करता जाता। यदि किसी दिन बरसात हो रही होती तो अवतार को कंट्रोल रूम से ही प्रार्थना की शुरूआत करनी होती। उसदिन उसे सोफ़िया की मुस्कुराहट कंट्रोल रूम के बेहिसाब बटनों में ही ढूंढनी पड़ती। सोफ़िया के लिये उस दिन प्रार्थना का कोई अर्थ ही नहीं होता।

    इस कंट्रोल रूम में इतने बटन लगे रहते कि इस के भीतर का माहौल खासा रहस्यमयी लगता था। यदि स्कूल की ओर से कोई घोषणा करनी होती, तो कंट्रोल रूम से सीम सर या प्रिंसिपल वो घोषणा कर देते। यदि किसी क्लास में शोर हो रहा होता तो कंट्रोल रूम में उस क्लास की पूरी आवाज़ सुनाई दे जाती, और फिर गूंजती सीम सर की आवाज़, “क्लास टेंथ-ए, मानीटर कम टू दि कंट्रोल रूम। इतना शोर क्यों हो रहा है।” टेंथ-ए का मानीटर तो अवतार ही था। कई बार उसको भी बुलाया जाता था। 

    वैसे उसकी अपनी क्लास की सुनीता भी उसे चाहने लगी थी। अपने घर मिण्टो रोड ले कर भी गई थी। उस दिन वह घर पर अकेली थी। लेकिन अवतार को समझ नहीं आया कि सुनीता उसे अकेले अपने घर क्यों ले गई, “अरे जब ममी पापा घर पर नहीं हैं, तो मुझे आने को क्यों कहा? तुमको तो मैं स्कूल में भी मिल लेता हूं।” आज सोचता है तो अपने पर स्वयं ही हंसी आ जाती है। लेकिन अब सुनीता का पता नहीं कि कहां है।
    फ़ोन फिर बजा है। अचानक उसे एक शरारत सूझती है। सोचता है कि थोड़ी देर रॉंग नंबर पर ही बात कर ली जाए। फ़ोन उठाता है, “हलो! ”

    “हलो, इज़ दैट अवतार सिंह! ”

    आवाज़ की भारतीयता को पहचानते हुए अवतार हिन्दी में ही बोला, “जी मैं अवतार सिंह ही बोल रहा हूं।”

    “अवतार, मैं सोफ़िया बोल रहीं हूं दिल्ली से।” आवाज़ में एक घबराहट भरी तेज़ी थी, “प्लीज़ मेरा नंबर नोट कर लो और मुझे दिल्ली फ़ोन करो। तुम से ज़रूरी बात करनी है।”

    अवतार ने यह भी नहीं पूछा कि कौन सोफ़िया; और अभी बात क्यों नहीं कर पा रही; अवतार क्यों फ़ोन करे। बस काग़ज़ उठाया और फ़ोन नंबर लिखने लगा। 

    फ़ोन क्लिक से बंद हुआ और अवतार फ़ोन हाथ में लिये ही खड़ा रह गया। कितने हक से सोफ़िया ने आदेश दे दिया था कि फ़ोन करो। और अवतार भी तो कुछ कह नहीं पाया। मन में द्वन्द्व है कि फ़ोन करे या न करे। वह जानता है कि वो फ़ोन करेगा। सोफ़िया का फ़ोन हो, तो वह कैसे वापिस फ़ोन किये बिना रह सकता है। 

    अवतार ने महसूस किया कि उसके हाथ कांप रहे हैं। उम्र के इस पड़ाव पर भी किसी के व्यक्तित्व का इतना गहरा असर हो सकता है क्या? हो सकता हो या नहीं, किन्तु हो तो रहा है। दिमाग़ सवाल पर सवाल पूछे जा रहा है, “आज कल देखने में कैसी लगती होगी?.. कितन बच्चे होंगे? पति है या मर गया?... कहीं मुझ से शादी तो नहीं करना चाहती?... क्या मैं किसी मुसलमान औरत से शादी कर सकता हूं...क्या अनवर और पिंकी की घटना के बाद वह किसी मुसलमान के प्रति कोमल भावनाएं महसूस कर सकता है.. और अगर शादी हुई ते कैसी होगी?.. कोर्ट में या फिर निकाह? ” फिर अपने आप पर कोफ़्त होने लगी। क्या बेहूदा बातें सोचने बैठ गया है वो? पता नहीं उसे क्या ज़रूरत आन पड़ी है।... कहीं पैसे तो नहीं मांगेगी? क्या फ़र्क पड़ता है अगर मांग भी ले तो। कम से कम उससे बात तो होगी। पैसे देना या न देना तो मुझ पर निर्भर करता है। 

    अवतार ने एक नम्बर कहीं लिख कर रखा है जहां भारत की टेलिफ़ोन कॉल पांच पैंस प्रति मिनट में हो जाती है। सोचा बात तो लम्बी चलने ही वाली है। वैसे भी पिछले दो तीन वर्षों में टेलिफ़ोन कॉल की दरों में भारी कमी आई है। पांच वर्ष पहले तो भारत फ़ोन करना एक गुनाह जैसा लगता था। एक पाउण्ड बीस पेंस प्रति मिनट। दरें इतनी मंहगी थीं, कि बात की चुभन जेब तक पहुंच जाती थी।

    स्कूली अवतार ने सोफ़िया का नंबर मिला ही लिया। फ़ोन का नंबर मिलाते मिलाते पिंकी, अनवर, श्रीवास्तव जी, सुनीता सभी धुंधले पड़ते जा रहे थे। अवतार को अर्जुन की तरह केवल सोफ़िया ही दिखाई दे रही थी। फ़ोन की घन्टी बजते ही सोफ़िया ने फ़ोन उठा लिया, “हेलो अवतार!...फ़ोन करने में पूरे पांच मिनट लगा दिये! मैं घबरा रही थी कि तुम फ़ोन करोगे या नहीं।”

    “पांच मिनट का इन्तज़ार तुमको इतना लम्बा लगा? यहां तो एक ज़िन्दगी ही निकल गई! ”

    “अरे तुम को तो बोलना भी आ गया!.. फ़ैन्टैस्टिक!... मुझे तो डर था कि जो नम्बर मुझे मिला, वो ठीक है या नहीं।”

    “कहां से लिया मेरा नंबर?...वैसे कैसी हो?...तुम्हारी आवाज़ तो आज भी वैसी ही है।”

    “अरे मेरा क्या पूछते हो। मैं तो कॉलेज तक भी नहीं पहुंच पाई। स्कूल के बाद ही मेरे कज़न से मेरी शादी हो
गई थी। मेरे चाचा का ही लड़का था – जावेद। ..दि बास्टर्ड लेफ़्ट मी विद टू किड्ज़।”

    “क्या! छोड़ गया तुम्हें!” अचानक रोशनी की एक लकीर अवतार की आंखों के सामने झिलमिला उठी। हुआ     क्या”

    “उसे हमेशा से शक था कि मेरा किसी हिन्दू लड़के से चक्कर है। ... वो बस उस लड़के को कोई नाम, कोई चेहरा देने के चक्कर में था।... गधे को पता नहीं कि हमने ज़िन्दगी में बस एक ही लड़के को पसन्द किया था... और वो हिन्दू नहीं था... सरदार था!”

    “अरे हिन्दू और सरदार में कोई फ़र्क थोड़े ही होता है।... तुम्हारा तो पता नहीं, लेकिन मैं तो तुम्हारे चक्कर में था ही। ...वैसे चक्कर कोई अच्छा शब्द नहीं है। मैं तुम्हें प्यार करने लगा था।”

    “तुम और प्यार!... लल्लू थे तुम, याद नहीं वो बात? ”

    “कौन सी बात? ”

    “अरे जब तुम प्रिंसिपल के पास मेरी शिकायत ले कर गये थे और उसके सामने घिघिया रहे थे कि सर मुझे एक लड़की छेड़ती है – सोफ़िया हक़, तो प्रिंसिपल ने क्या जवाब दिया था? ”

    “हां, बेदी सर ज़ोर से हंसे थे और बोले थे, ‘अबे लल्लू, अगर वो छेड़ती है तो तू छिड़। बेवक़ूफ़ तुझे ज़रा भी शर्म नहीं आती कि तू एक लड़की की शिकायत कर रहा है?...  हम इतने बड़े हो गये हैं लेकिन आजतक हमें किसी लड़की ने नहीं छेड़ा। अरे तुम सचमुच बीसवीं सदी के लड़के हो या विक्टोरियन एज के बचे हुए नमूने हो?”
 
“तुम को एक बात बताऊं, तुम हमेशा बहुत शरीफ़ लगा करते थे।... तुम्हारी पगड़ी इतनी स्टाइलिश बंधी होती थी कि मैं तो फ़िदा ही हो गई थी।”

    “वैसे एक बात बताओ, अगर मैं झेंपू किस्म की चीज़ नहीं होता तो क्या होता। हमारी दोस्ती कहां तक पहुंच जाती? ”

    “अरे वो माथुर याद है?.. जो वो कहता था, बस वही हो जाता। ... मैं पेट फुलाए स्कूल में आती कि अवतार जी ने मेरे पेट में नया अवतार लिया है! हा हा हा हा... वैसे क्या तुम्हारा कभी जी नहीं चाहा कि आगे बढ़ कर मेरा हाथ पकड़ लो ?”

    “जी चाहने से क्या होता है ? हिम्मत भी तो होनी चाहिये। मुझ में तुम्हारे वाली हिम्मत ही कहां थी ?... तुम्हें वो उषा याद है क्या ? ”

    “कौन सी उषा ? ”

    “वही जो स्कूल के बाहर ही रहती थी। आर्ट्स में थी। वो मुकेश का गाना गाया करती थी, जियेंगे मगर मुस्कुरा न सकेंगे, कि अब ज़िन्दगी में मुहब्ब्त नहीं है। ” 

    “हां जी, उस रोंदड़ को कौन भूल सकता है। बोलती थी तो लगता था कि अब रोई के तब रोई।...उसने छ : साल तक बस वो एक ही गाना सुना सुना कर बोर कर दिया।....वैसे अवतार, गाती ठीक थी, ...मुझे मुस्कुराए हुए तो एक ज़माना ही बीत गया है।”


    “जानती हो उसने एक दिन मुझे कहा था कि अवतार तुम कोई माडर्न नाम रख लो न ! आई विल कॉल यू ऐवी ! अवतार बहुत पुराना सा नाम लगता है। तुम में जो सेक्स अपील है, नाम भी वैसा ही होना चाहिये।... उसके बाद उसने मुझे हमेशा ऐवी कह कर ही बुलाया।.. मुझे पता ही नहीं चलता था कि मुझे बुला रही है।... वैसे रोंदड़ नहीं थी यार। अच्छी भली लड़की थी।.. सांवली भी थी। मुझे गोरे रंग के मुकाबले हमेशा सांवला रंग ज़्यादा अट्रेक्ट करता है।”

    “मैने भी नोट किया था कि तुमने यह बात स्कूल में दो तीन बार दोहराई थी। तुम्हें अपर्णा सेन बहुत सुन्दर लगती थी।... गोरी चिट्टी हिरोइनें नहीं।.. फिर इंगलैण्ड में क्या करते हो ?.. किसी गोरी मेम से चक्कर नहीं चला क्या ? ”

    “अरे हमारा क्या चक्कर चलना, एक शादी की थी, वो भी संभाली नहीं गई।... फिर से कंवारा बना बैठा हूं। ”

    “हां अशोक बख़्शी और नरेश मिले थे। दोनों ने बताया कि तुम उनसे कांटेक्ट रखते हो। उन्होंने ही बताया कि तुम्हारा डिवोर्स हो गया या समथिंग लाईक दैट। ”

    “हां बख़्शी और नरेश तो अब भी मिलते हैं। लेकिन बाकी की क्लास से तो कट ही गया। .. तुम मेरी छोड़ो, अपनी बताओ। तुम्हारे जावेद मियां का क्या हुआ ? ”

    “होना क्या था यार, बस शक्की दिमाग़ का आदमी था। मेरी गोद में दो लड़कियां डाल कर कहीं भाग गया। आजकल एक प्राईवेट नौकरी कर रही हूं। साला गुज़ारा तक ठीक से नहीं हो पाता। मैने अपनी बड़ी वाली की तो शादी भी कर दी थी। लेकिन उसकी किस्मत मेरे से भी ज़्यादा ख़राब निकली। ”

    “अरे तुम्हारी बेटी की भी शादी हो गई ? ”

    “शादी भी और विधवा भी। ... अब क्या बताऊं तुम्हें।”

    “यार यह सुन कर तो लगने लगा है कि मैं भी बूढ़ा होता जा रहा हूं। क्या हम इतने बड़े हो गये हैं कि हमारे बच्चों की शादियां होने लगें? अपने यार को तो यह एक्सपीरियेंस कभी हुआ ही नहीं। ”

    “अवतार मियां तुम भूल रहे हो कि मेरी शादी हायर सेकेण्डरी पास करते ही हो गई थी। अभी तो अट्ठारह की भी नहीं हुई थी।... जब शादी होगी, तो सुहागरात भी होगी।.. और जब वो होती है तो पेट फूल ही जाता है। दो बार फूला और दो बार हवा निकलवा दी। वर्ना चार चार को ले कर बैठी होती। हमारे मर्द भी तो जाहिल होते हैं। उनके लिये औरत बस इसी काम के लिये होती है। हर साल एक बच्चा बाहर निकाल लो।...बेग़ैरत होते हैं सब। ”

    “आई एम सॉरी सोफ़ी ! मुझे कुछ भी नहीं पता था।.. वैसे तुम बोलती आज भी उतना ही बिन्दास हो।...  ”

    “जानते हो कितना जी चाहता था कि मुझे कोई सोफ़ी कह कर लिपटा ले अपने साथ। आज पहली बार किसी मर्द ने मुझे यह कह कर बुलाया है। लगता है अचानक नई नवेली दुल्हन बन गई हूं। काश मैं भी कॉलेज और यूनिवर्सिटी जा पाती। मुझ में भी थोड़ी नफ़ासत आ जाती। मुझे तो नौकरी भी वैसी ही मिली हुई है जैसी किसी हायर सेकेण्डरी पास टाइपिस्ट को मिल सकती है। बस टाइपिंग सीख ली थी जो काम आ रही है। ” 

    “काम क्या करता था जावेद ? ”

    “जमादार था नामुराद। निकम्मा एक नंबर का बाप के सिर पर खा रहा था और मुझे भी खिला रहा था। वो भागा तो उसके बाप ने मुझे और बच्चियों को भी निकाल बाहर किया। .. वैसे तो मैं तुम्हें कभी भूली ही नहीं थी... पर उन दिनों तुम्हारी बहुत याद आयी। तुम हिन्दू लोग अपने परिवार को कितना प्यार करते हो। ”

    “नहीं सोफ़ी ऐसी कोई बात नहीं। अच्छे लोग अच्छे ही होते हैं। चाहे वो हिन्दू हों या फिर मुसलमान या ईसाई।... वैसे थोड़ी देर पहले तुमने मुझे सिख कहा था ! .... अब देखो मेरी पत्नी मुझे छोड़ कर अनवर के साथ चली गई। उसे कोई मुसलमान पसन्द आ गया। मैनें सुना है अब तो दोनों के दो बच्चे भी हैं। ”

    “या अल्लाह, तुम कैसे मर्द हो जी। अपनी बीवी को जाने दिया ? दो झापड़ नहीं लगाए उसे ? ”

    “सोफ़ी घर बनता है प्यार से, विश्वास से। झापड़ से घर टूटते हैं बनते नहीं। ”

    “एक बात बताओ। ”

    “पूछो। ”

    “तुम हिन्दू लोग क्या अपनी पूरी तन्ख़ाह अपनी बीवी को दे देते हो? .... क्या घर का खर्चा वो चलाती है ?  हमारे पड़ोस में दो तीन पहचान वाली हैं। जब वो बात करती हैं तो जलन सी होती है। वो अपने मरद के बारे में कितने हक से बात करती हैं। हमारे मरद तो गिन गिन कर पैसे निकालते हैं दांत के नीचे से।”

    “मैं औरों की बात तो नहीं कह सकता सोफ़ी, लेकिन हमारे अपने घर में तो सारा खर्चा पहले दादी चलाती थी फिर मां और यहां लंदन में पिंकी। हमें लगता है कि हम कमा कर थक जाते हैं, इसलिये खर्चे का हिसाब बीवी को करने देते हैं।.. बीवी घर की मालकिन जो होती है। ”

    “अल्लाह करे कि हमारे मरद भी तुम लोगों की तरह सोचने लगें। यहां तो मामला एकदम उलट ही होता है। ”

    “......”

    “........”

    “कुछ बोलो न, तुम चुप क्यों हो गये ? ”

    “नहीं कुछ नहीं, बस स्कूल के दिनों की बातें याद आ रही थीं।...याद है हमने स्कूल में पहली हड़ताल करवाई थी ? ”

    “मियां हमने मत कहिये। वो हड़ताल तो पूरी तरह से आपके दिमाग़ की उपज थी। और हड़ताल करवा कर ख़ुद मेरठ भाग गये।...डरपोक कहीं के ! ”

    “ऐसी बात नहीं है सोफ़ी, तीन दिन तक तो हम सब इकट्ठे तालकटोरा गार्डन में नारे लगा रहे थे। पहली बार प्रिंसिपल सर से बात करने भी तो मैं ही गया था। वो तो मेरी नानी अचानक हस्पताल में भर्ती हो गई थी। इसलिये मुझे जाना पड़ा। मगर वापिस आकर सारा ज़िम्मा तो मैने अपने सिर ले लिया था। ”

    “लेकिन मुझे तुम पर बहुत गुस्सा आ रहा था उन दिनों। तुम चाह रहे थे कि हायर सेकेण्डरी के इम्तहान से पहले प्रिपरेटरी लीव मिले और मैं चाह रही थी कि आख़री दिन तक स्कूल चले। इस तरह तुम से आख़री दिन तक मिल सकती थी। ”

    “मैनें इस ऐंगल से कभी सोचा ही नहीं। मैं तो बस लीडर बना हुआ था। फिर माथुर और खन्ना ने मुझे बांस के झाड़ पर चढ़ा दिया था। मुझे भी लगने लगा था कि मैं कोई लीडर बन गया हूं।... अब सोचता हूं तो हंसी आती है। ”

    “तुम प्रिंसिपल के चहेते थे, इसलिये बच भी गये, वर्ना वो छोड़ता नहीं। ”

    “वैसे अपनी फ़ेयरवेल याद है क्या ? ”

    “अरे उसे कौन भूलना चाहेगा। तुम्हारे साथ लिया गया ज़िन्दगी का एक अकेला चुम्बन। मुझे तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि दाढ़ी वाले चेहरे पर किस कहां करूं।... ज़बरदस्त करंट लगा था। तुम तो कुछ कर ही नहीं रहे थे। अगर मैं न हिम्मत करती तो यह यादगार पल भी हमारी ज़िन्दगी में कभी न आ पाता।”

    “इसीलिये तो मैं भी तुम्हें कभी नहीं भूल पाया। तुम वो पहली लड़की हो जिसको छूकर मुझे पता चला था कि औरत मर्द से कितनी अलग होती है। दोनों के मिलने से क्या फ़ीलिंग होती है।”

    “और अब कितने तरह की कितनी औरतें तुम्हारे जीवन में आ चुकी हैं ? ”

    घबरा सा गया अवतार। वैसे उसे सोफ़िया से ऐसे प्रश्न की आशा तो होनी ही चाहिये थी, “अरे कहां सोफ़ी,     हमारी ज़िन्दगी में कहां ऐसी बहार है। एक थी वो भी छोड़ कर चली गई। ”

    “घबराइये मत, इन्शाअल्लाह जल्दी ही बहारें लौट भी आयेंगी।... तुम्हारा कोई बच्चा नहीं हुआ पहली बीवी से ? ”

    “अरे पहली क्या और आख़री क्या। हमारी ले दे कर एक ही तो बीवी हुई। अभी बच्चे के बारे में सोचा ही नहीं था कि बीवी डोली में बैठ कर पराए घर चली गई।... सुनो, दो दो बच्चों के साथ तुम्हें मुश्किल तो बहुत होती होगी।... बेटी इतनी कम उम्र में विधवा कैसे हो गयी ? ”

    “क्या बताऊं दोस्त, अल्लाह की मर्ज़ी के आगे किस का ज़ोर चलता है। जल्दबाज़ी में बेटी की शादी कर दी। अपनी अम्मी की रिश्तेदारी में ही की थी। लड़का श्रीनगर में नौकरी करता था। सोचा कि लड़की को दिल्ली से दूर भेज दूं ताकि मनहूस बाप का साया भी न पड़ सके उसकी ज़िन्दगी पर। लेकिन क्या बताऊं... ! ”
“बोलो न, क्या हुआ फिर ? ”

    “वो लड़का तो आतंकवादी निकल गया। किसी गिरोह के साथ मिल कर दहश्तग़र्दी का काम करता था। एक दिन पुलिस के साथ मुठभेड़ हो गई, और गोली लगी उसके दो कानों के ठीक बीच। वहीं सड़क पर ही ढेर हो गया। अभी तो बेटी को यह भी नहीं पता चला था कि शादी का मतलब क्या होता है, और बेचारी बेवा भी हो गई। तीन महीने ही तो रही अपने ससुराल। पुलिस की दरिंदग़ी से बचाने के लिये मैं उसे वापिस दिल्ली ले आई। अब तो सब अल्लाह पर नज़रें टिकी हैं।”

    “सोफ़ी अगर मैं कोई मदद कर सकूं तो कहो। तुम्हारी बेटी मेरी भी तो कुछ लगती है। उसका दुःख मेरा भी तो दुःख है। ”

    “अरे अब तुम्हें ही तो सब करना है। मैं तो थक सी गयी हूं। ” आंसू सोफ़िया के शब्दों के साथ टेलिफ़ोन से बाहर आये जा रहे थे। 

    रोते रोते सोफ़िया ने टेलिफ़ोन बन्द कर दिया। अवतार हेलो हेलो ही करता रह गया।

= = = = = = = = = = = = = = = = = = = = = = =

    अब सोफ़िया ने अवतार के दिल-ओ-दिमाग़ पर कब्ज़ा बना लिया था। शाम को शराब के गिलास में जब पानी डाला तो लगा कि सोफ़िया के बदन पर होली का रंग डाल रहा है। कुछ नहीं में सब कुछ दिखाई देने लगा था। 

    दिमाग़ में बहुत से सवाल कुलबुलाने लगे। -  “आख़िर सोफ़िया मुझ से चाहती क्या है ? ... क्या मुझ से विवाह करना चाहती है ... ताकि मैं उसकी बेटी की ज़िम्मेदारी उठा लूं ? क्या मुझे इस लफ़ड़े में पड़ना चाहिये ? ... इतने वर्षों में न जाने सोफ़िया कैसी औरत बन गयी होगी ? ...उसका दामाद तो आतंकवादी था। कहीं... वो और उसकी बेटी भी ?.. यह क्या बेहूदा बातें सोचना लगा है ? ... लेकिन... फिर इतने लम्बे समय के बाद अचानक उसे मेरी याद क्यों आई।... बात यही होगी ... वर्ना ऐसे ही थोड़े मुझे फ़ोन किया है ! ”

    कुछ नहीं के पैग की मात्रा में आज अतिरिक्त वृद्दि हो गई थी। तीन के बाद भी रुक नहीं पा रहा । अवतार लगातार पीता जा रहा है। आज पिंकी उसके सिस्टम में से निकल कर कहीं दूर चली गयी है जबकि अनवर का चेहरा धुंधला होता जा रहा है – बस एक ही चेहरा आंखों के सामने है, किन्तु वो चेहरा भी क्या सचमुच का चेहरा है ? जो आवाज़ आज टेलिफ़ोन लाईन पर सुनाई दी थी, उसका चेहरा तो स्कूल की यूनिफ़ॉर्म पहने सोफ़िया का था। आज का चेहरा कहां है ?

    रात बिना कपड़े बदले ही बिस्तर पर लुड़क गया था। साईड टेबल पर शराब का गिलास अभी भी आधा भरा पड़ा था। भारी सिर लिये सुबह उठा। लगभग घिसटता हुआ बाथरूम तक गया। सोफ़िया ने उसकी सपाट ज़िन्दगी में अचानक हलचल मचा दी थी। उसकी बेटी के भविष्य के बारे में चिन्ता होने लगी थी। अगर धर्म आड़े न आ गये होते तो शायद यह लड़की उसकी अपनी बेटी होती।... सोच बेलगाम हो कर दौड़े जा रही थी। 

    फ़ोन की घन्टी फिर बजी।.... आज दुविधा बढ़ गयी थी। फ़ोन उठाये या नहीं ? कहीं सोफ़िया का न हो। ... अभी निर्णय ले ही नहीं पाया था कि फ़ोन की आंसरिंग मशीन शुरू हो गयी।... किसी ने कोई संदेश नहीं छोड़ा।         ... बस सोच रहा है.. किसका फ़ोन हो सकता है? क्या यह ठीक रहेगा कि वह सोफ़िया के फ़ोन की प्रतीक्षा करता रहे। सोफ़िया तो रोते रोते फ़ोन बन्द कर गयी। क्या यह उसका कर्तव्य नहीं बनता कि वह स्वयं आगे बढ़ कर सोफ़िया को फ़ोन करे और उसके आंसू पौंछ दे।

    पूरी चौबीस घन्टे बीत गये हैं।... अपने आपको  संयत करने का प्रयास कर रहा है अवतार। तय नहीं कर पा रहा है कि सोफ़िया के प्रति कैसा रवैया अपनाए। न जाने सोफ़िया इतने लम्बे अर्से में किस किस तरह के लोगों से मुलाक़ात करती रही है। .. फिर एक गन्दी सी सोच दिल में आती है... साले मुसलमान मेरी बीवी को ले गये हैं, मैं भी किसी मुसलमान लड़की के साथ घर बसा लूं तो हिसाब बराबर हो जायेगा। फिर अपने आपको ही डाट लगाता है। कितनी घटिया बात सोचने लगा है! आज नहीं तो कभी तो प्यार किया था सोफ़िया से। अवतार तो बेगानों के बारे में ऐसी बातें नहीं सोचता, तो फिर ..... ? फिर तय करता है। ठीक है, मैं पहले फ़ोन नहीं करूंगा।     लेकिन यदि सोफ़िया करेगी तो उसको प्रोपोज़ कर दूंगा। 

    टेलिफ़ोन लाईन में फिर हलचल हुई। घन्टी बजी। अपनी चिर-परिचित आवाज़ में बोला, “ हां जी ? ”

    “वाह जी, लंदन में रहके भी हांजी कहने की आदत अभी भी चल रही है! मान गये भई।”

    “तुम फ़ोन रखो, मैं करता हूं।”

    “कोई बात नहीं अवतार, आज तो कार्ड ख़रीद रखा है।”

    “कोई बात नहीं, कभी इमरजेन्सी में काम आ जायेगा। अभी फ़ोन रखो, मैं करता हूं।”

    सोफ़िया ने फ़ोन नीचे रखने से पहले कह ही दिया, “मेरे सरदारा, तू है बड़ा प्यारा ! ”

    अब मुश्किल अवतार की थी, फ़ोन मिलाते हुए उंगलियां कांप रही थीं, दिल धड़क रहा था। फिर भी फ़ोन तो मिलाना ही था। फ़ोन मिला, “हां, बोलिये।”

    “कल हम क्या बात कर रहे थे ? ”

    “तुम कह रही थीं कि सब कुछ मुझे ही करना है। लेकिन तुमने बताया नहीं कि करना क्या है।”

    “बस मेरी पगली बेटी के लिये कुछ कर दो।”

    “लेकिन अगर मैं तुम्हारे लिये कुछ करना चाहूं तो?”

    “अब मेरी ऐसी उम्र कहां रह गयी अवतार। अब तो अपने बच्चों के लिये जी रहे हैं।”

    “हम अपने लिये कभी भी जी पायेंगे क्या?”

    “देखो अवतार अब हालात बहुत ख़राब हो चुके हैं। तुम मेरी बेटी के बारे में सीरियसली सोचो।”

    “तुम बताओ, क्या चाहती हो तुम?”

    “देखो अगर उसको किसी तरह लंदन बुलवा सको और वहां सैटल करवा सको तो उस बिन बाप की बेटी की ज़िन्दगी बन जाएगी।.. वैसे निगोड़ी है तो बी.ए. सैकण्ड ईयर पास। पूरी करने से पहले ही उसका निकाह जो हो गया था। ”

    “बात तो तुम्हारी ठीक है पर यहां ब्रिटेन में आजकल कानून बहुत मुश्किल हो गये हैं। या तो लड़की प्रोफ़ेशनल हो ऊंची पढ़ाई वाली या फिर किसी से शादी करके यहां सैटल हो सकती है। मैं अपने पहचान वालों से बात करके देखता हूं अगर कोई शादी के लिये लड़का मिल जाए तो... ”

    “....”

    “...”

    “हैलो सोफ़ी, क्या तुम लाईन पर हो ? हैलो... ! ”

    “हां अवतार, सुन रही हूं।... तुम मेरी बात सुनो... तुम मेरे दोस्त हो... तुम तो मुझ से प्यार भी करते थे.... तुम आजकल हो भी अकेले...भला तुम... तुम ख़ुद ही मेरी बेटी से शादी क्यों नहीं कर लेते? तुम्हारा घर भी बस जायेगा और मेरी बेटी की ज़िन्दगी भी सैटल हो जायेगी।... तुम सुन रहे हो..... ”

    अवतार को लगा जैसे टेलिफ़ोन लाईन में बहुत घरघर्राहट सी पैदा हो गई है। उसे सोफ़ी की आवाज़ बिल्कुल सुनाई नहीं दे रही। उसने टेलिफ़ोन बंद कर दिया।

तेजेन्द्र शर्मा को मिला हरियाणा साहित्य अकादमी सम्मान

    नई दिल्ली 17 जनवरी। हरियाणा साहित्य अकादमी ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए सूचना दी है कि अकादमी का अगला विशेष साहित्य सेवी सम्मान ब्रिटेन के हिंदी कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा को उनके हिंदी साहित्य एवं भाषा के लिए उनकी सेवाओं के लिए प्रदान किया जाएगा।

 ज़किया ज़ुबैरी (ब्रिटेन की प्रमुख कथाकार  काउंसलर) का कहानी पाठ सुनते तेजेन्द्र शर्मा, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली  | फोटो: भरत तिवारी
सम्मान के तहत 51,000 रूपए की धनराशी शामिल है।
    तेजेन्द्र शर्मा के अब तक सात कहानी संग्रह काला सागर, ढिबरी टाइट, देह की कीमत, ये क्या हो गया, सीधी रेखा की परतें, कब्र का मुनाफा, दीवार एं रास्ता प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कहानिओं एवं गजलों की ऑडियो सी डी  भी जारी हो चुकी हैं।


 
    New Delhi, 17 January. Haryana Sahitya Academy in its press release informed that Hindi writer from London, Britain Tejendra Sharma would be honored with the Vishesh Hindi Sahitya Sewak Samman in the coming month. The award carries a shield and a cash amount of Rs.51,000/-.
    Mr. Tejendra Sharma is the writer of Kaala Sagar, Dhibri Tight, Deh ki Keemat, Ye kya ho gaya, Seedhi Rekha ki Partein, Qabra ka Munafa, Deewar mein Raasta (All collections of short stories). Audio CDs of his stories and ghazals have also been released.
[] शब्दांकन [] Shabdankan

परिचय: तेजेन्द्र शर्मा

तेजेन्द्र शर्मा (Tejendra Sharma)

जन्मः 21 अक्टूबर  (जगरांव – पंजाब), भारत।

मातृ भाषाः पंजाबी।

प्रकाशित कृतियां -

कहानी संग्रहः 
काला सागर (1990) ढिबरी टाईट (1994), देह की कीमत (1999) यह क्या हो गया (2003), बेघर आंखें (2007), सीधी रेखा की परतें – समग्र भाग 1 (2009), क़ब्र का मुनाफ़ा (2010), दीवार में रास्ता (2012) ।

कविता / ग़ज़ल संग्रहः 
ये घर तुम्हारा है - (2007)।

संपादित कृतियां –
ब्रिटेन में उर्दू क़लम (2010) समुद्र पार रचना संसार (2008), यहां से वहां तक (2006) समुद्र पार हिन्दी ग़ज़ल (2011)।

अनूदित कृतियां – पासपोर्ट का रङहरू (नेपाली – कहानी संग्रह), ईंटों का जंगल (उर्दू – कहानी संग्रह), ढिम्बरी टाइट, कल फेर आंवीं (दोनो पंजाबी कहानी संग्रह)।

अंग्रेज़ी में
Black & White (biography of a banker – 2007),  Lord Byron - Don Juan (1977),  John Keats - The Two Hyperions (1978)

विशेषः 
दूरदर्शन के लिये शांति सीरियल का लेखन।
अन्नु कपूर निर्देशित फ़िल्म अभय में नाना पाटेकर के साथ अभिनय।

कथा यू.के. संस्था की लंदन में स्थापना जिसके माध्यम से ब्रिटेन की संसद के हाउस ऑफ़
कॉमन्स में प्रतिवर्ष अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान एवं पद्मानंद साहित्य सम्मान का आयोजन।

पुरस्कार / सम्मान: 1.ढिबरी टाइट को महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार – 1995,  2.सहयोग फ़ाउंडेशन का युवा साहित्यकार पुरस्कार – 1998, 3.सुपथगा सम्मान -1987, 4. कृति यू.के. द्वारा बेघर आंखें को ब्रिटेन की सर्वश्रेष्ठ कहानी का सम्मान,  5.प्रथम संकल्प साहित्य सम्मान – दिल्ली (2007), 6. तितली बाल-पत्रिका साहित्य सम्मान – बरेली (2007),  7.भारतीय उच्चायोग द्वारा डॉ. हरिवंशराय बच्चन सम्मान (2008)।

कहानी अभिशप्त चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के एम.ए. पाठ्यक्रम में शामिल। 

संपर्कः kahanikar@gmail.com; kathauk@gmail.com 

दूरभाषः 00-44-7400313433