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महादेवी वर्मा की कहानी सोना हिरनी


Mahadevi Verma Sona story in Hindi

आज प्रसिद्ध कवियित्री महादेवी वर्मा के जन्म दिवस पर उनका रेखाचित्र सोना 

Mahadevi Verma Sona story in Hindi

महादेवी वर्मा रेखाचित्र के विषय में लिखती हैं —


चित्रकार अपने सामने रखी वस्तु या व्यक्ति या रंगीन चित्र जब कुछ रेखाओं के इस प्रकार आंक देता है कि उसकी मुद्रा पहचानी जा सके तब उसे हम रेखाचित्र की संज्ञा देते है। साहित्य में भी साहित्यकार कुछ शब्दों में ऐसा चित्र अंकित कर देता है जो उस व्यक्ति या वस्तु का परिचय दे सके, परन्तु दानों में अन्तर होता है।

सोना हिरनी

सोना की आज अचानक स्मृति हो आने का कारण है। मेरे परिचित स्वर्गीय डाक्टर धीरेन्द्र नाथ वसु की पौत्री सस्मिता ने लिखा है :

'गत वर्ष अपने पड़ोसी से मुझे एक हिरन मिला था। बीते कुछ महीनों में हम उससे बहुत स्नेह करने लगे हैं। परन्तु अब मैं अनुभव करती हूँ कि सघन जंगल से सम्बद्ध रहने के कारण तथा अब बड़े हो जाने के कारण उसे घूमने के लिए अधिक विस्तृत स्थान चाहिए।'

 'क्या कृपा करके उसे स्वीकार करेंगी? सचमुच मैं आपकी बहुत आभारी हूँगी, क्योंकि आप जानती हैं, मैं उसे ऐसे व्यक्ति को नहीं देना चाहती, जो उससे बुरा व्यवहार करे। मेरा विश्वास है, आपके यहाँ उसकी भली भाँति देखभाल हो सकेगी।'

कई वर्ष पूर्व मैंने निश्चय किया कि अब हिरन नहीं पालूँगी, परन्तु आज उस नियम को भंग किए बिना इस कोमल-प्राण जीव की रक्षा सम्भव नहीं है।

सोना भी इसी प्रकार अचानक आई थी, परन्तु वह तब तक अपनी शैशवावस्था भी पार नहीं कर सकी थी। सुनहरे रंग के रेशमी लच्छों की गाँठ के समान उसका कोमल लघु शरीर था। छोटा-सा मुँह और बड़ी-बड़ी पानीदार आँखें। देखती थी तो लगता था कि अभी छलक पड़ेंगी। उनमें प्रसुप्त गति की बिजली की लहर आँखों में कौंध जाती थी।

सब उसके सरल शिशु रूप से इतने प्रभावित हुए कि किसी चम्पकवर्णा रूपसी के उपयुक्त सोना, सुवर्णा, स्वर्णलेखा आदि नाम उसका परिचय बन गए।

परन्तु उस बेचारे हरिण-शावक की कथा तो मिट्टी की ऐसी व्यथा कथा है, जिसे मनुष्य निष्ठुरता गढ़ती है। वह न किसी दुर्लभ खान के अमूल्य हीरे की कथा है और न अथाह समुद्र के महार्घ मोती की।

निर्जीव वस्तुओं से मनुष्य अपने शरीर का प्रसाधन मात्र करता है, अत: उनकी स्थिति में परिवर्तन के अतिरिक्त कुछ कथनीय नहीं रहता। परन्तु सजीव से उसे शरीर या अहंकार का जैसा पोषण अभीष्ट है, उसमें जीवन-मृत्यु का संघर्ष है, जो सारी जीवनकथा का तत्व है।

जिन्होंने हरीतिमा में लहराते हुए मैदान पर छलाँगें भरते हुए हिरनों के झुंड को देखा होगा, वही उस अद्भुत, गतिशील सौन्दर्य की कल्पना कर सकता है। मानो तरल मरकत के समुद्र में सुनहले फेनवाली लहरों का उद्वेलन हो। परन्तु जीवन के इस चल सौन्दर्य के प्रति शिकारी का आकर्षण नहीं रहता।

मैं प्राय: सोचती हूँ कि मनुष्य जीवन की ऐसी सुन्दर ऊर्जा को निष्क्रिय और जड़ बनाने के कार्य को मनोरंजन कैसे कहता है।

मनुष्य मृत्यु को असुन्दर ही नहीं, अपवित्र भी मानता है। उसके प्रियतम आत्मीय जन का शव भी उसके निकट अपवित्र, अस्पृश्य तथा भयजनक हो उठता है। जब मृत्यु इतनी अपवित्र और असुन्दर है, तब उसे बाँटते घूमना क्यों अपवित्र और असुन्दर कार्य नहीं है, यह मैं समझ नहीं पाती।

आकाश में रंगबिरंगे फूलों की घटाओं के समान उड़ते हुए और वीणा, वंशी, मुरज, जलतरंग आदि का वृन्दवादन (ऑर्केस्ट्रा) बजाते हुए पक्षी कितने सुन्दर जान पड़ते हैं। मनुष्य ने बन्दूक उठाई, निशाना साधा और कई गाते-उड़ते पक्षी धरती पर ढेले के समान आ गिरे। किसी की लाल-पीली चोंचवाली गर्दन टूट गई है, किसी के पीले सुन्दर पंजे टेढ़े हो गए हैं और किसी के इन्द्रधनुषी पंख बिखर गए हैं। क्षतविक्षत रक्तस्नात उन मृत-अर्धमृत लघु गातों में न अब संगीत है; न सौन्दर्य, परन्तु तब भी मारनेवाला अपनी सफलता पर नाच उठता है।

पक्षिजगत में ही नही, पशुजगत में भी मनुष्य की ध्वंसलीला ऐसी ही निष्ठुर है। पशुजगत में हिरन जैसा निरीह और सुन्दर पशु नहीं है - उसकी आँखें तो मानो करुणा की चित्रलिपि हैं। परन्तु इसका भी गतिमय, सजीव सौन्दर्य मनुष्य का मनोरंजन करने में असमर्थ है। मानव को, जो जीवन का श्रेष्ठतम रूप है, जीवन के अन्य रूपों के प्रति इतनी वितृष्णा और विरक्ति और मृत्यु के प्रति इतना मोह और इतना आकर्षण क्यों?

बेचारी सोना भी मनुष्य की इसी निष्ठुर मनोरंजनप्रियता के कारण अपने अरण्य-परिवेश और स्वजाति से दूर मानव समाज में आ पड़ी थी।

प्रशान्त वनस्थली में जब अलस भाव से रोमन्थन करता हुआ मृग समूह शिकारियों की आहट से चौंककर भागा, तब सोना की माँ सद्य:प्रसूता होने के कारण भागने में असमर्थ रही। सद्य:जात मृगशिशु तो भाग नहीं सकता था, अत: मृगी माँ ने अपनी सन्तान को अपने शरीर की ओट में सुरक्षित रखने के प्रयास में प्राण दिए।

पता नहीं, दया के कारण या कौतुकप्रियता के कारण शिकारी मृत हिरनी के साथ उसके रक्त से सने और ठंडे स्तनों से चिपटे हुए शावक को जीवित उठा लाए। उनमें से किसी के परिवार की सदय गृहिणी और बच्चों ने उसे पानी मिला दूध पिला-पिलाकर दो-चार दिन जीवित रखा।

सुस्मिता वसु के समान ही किसी बालिका को मेरा स्मरण हो आया और वह उस अनाथ शावक को मुमूर्ष अवस्था में मेरे पास ले आई। शावक अवांछित तो था ही, उसके बचने की आशा भी धूमिल थी, परन्तु मैंने उसे स्वीकार कर लिया। स्निग्ध सुनहले रंग के कारण सब उसे सोना कहने लगे। दूध पिलाने की शीशी, ग्लूकोज, बकरी का दूध आदि सब कुछ एकत्र करके, उसे पालने का कठिन अनुष्ठान आरम्भ हुआ।

आज प्रसिद्ध कवियित्री महादेवी वर्मा के जन्म दिवस पर उनका रेखाचित्र सोना
उसका मुख इतना छोटा-सा था कि उसमें शीशी का निपल समाता ही नहीं था - उस पर उसे पीना भी नहीं आता था। फिर धीरे-धीरे उसे पीना ही नहीं, दूध की बोतल पहचानना भी आ गया। आँगन में कूदते-फाँदते हुए भी भक्तिन को बोतल साफ करते देखकर वह दौड़ आती और अपनी तरल चकित आँखों से उसे ऐसे देखने लगती, मानो वह कोई सजीव मित्र हो।

उसने रात में मेरे पलंग के पाये से सटकर बैठना सीख लिया था, पर वहाँ गंदा न करने की आदत कुछ दिनों के अभ्यास से पड़ सकी। अँधेरा होते ही वह मेरे कमरे में पलंग के पास आ बैठती और फिर सवेरा होने पर ही बाहर निकलती।

उसका दिन भर का कार्यकलाप भी एक प्रकार से निश्चित था। विद्यालय और छात्रावास की विद्यार्थिनियों के निकट पहले वह कौतुक का कारण रही, परन्तु कुछ दिन बीत जाने पर वह उनकी ऐसी प्रिय साथिन बन गई, जिसके बिना उनका किसी काम में मन नहीं लगता था।

दूध पीकर और भीगे चने खाकर सोना कुछ देर कम्पाउण्ड में चारों पैरों को सन्तुलित कर चौकड़ी भरती। फिर वह छात्रावास पहुँचती और प्रत्येक कमरे का भीतर, बाहर निरीक्षण करती। सवेरे छात्रावास में विचित्र-सी क्रियाशीलता रहती है - कोई छात्रा हाथ-मुँह धोती है, कोई बालों में कंघी करती है, कोई साड़ी बदलती है, कोई अपनी मेज की सफाई करती है, कोई स्नान करके भीगे कपड़े सूखने के लिए फैलाती है और कोई पूजा करती है। सोना के पहुँच जाने पर इस विविध कर्म-संकुलता में एक नया काम और जुड़ जाता था। कोई छात्रा उसके माथे पर कुमकुम का बड़ा-सा टीका लगा देती, कोई गले में रिबन बाँध देती और कोई पूजा के बताशे खिला देती।

मेस में उसके पहुँचते ही छात्राएँ ही नहीं, नौकर-चाकर तक दौड़ आते और सभी उसे कुछ-न-कुछ खिलाने को उतावले रहते, परन्तु उसे बिस्कुट को छोड़कर कम खाद्य पदार्थ पसन्द थे।

छात्रावास का जागरण और जलपान अध्याय समाप्त होने पर वह घास के मैदान में कभी दूब चरती और कभी उस पर लोटती रहती। मेरे भोजन का समय वह किस प्रकार जान लेती थी, यह समझने का उपाय नहीं है, परन्तु वह ठीक उसी समय भीतर आ जाती और तब तक मुझसे सटी खड़ी रहती जब तक मेरा खाना समाप्त न हो जाता। कुछ चावल, रोटी आदि उसका भी प्राप्य रहता था, परन्तु उसे कच्ची सब्जी ही अधिक भाती थी।

घंटी बजते ही वह फिर प्रार्थना के मैदान में पहुँच जाती और उसके समाप्त होने पर छात्रावास के समान ही कक्षाओं के भीतर-बाहर चक्कर लगाना आरम्भ करती।

उसे छोटे बच्चे अधिक प्रिय थे, क्योंकि उनके साथ खेलने का अधिक अवकाश रहता था। वे पंक्तिबद्ध खड़े होकर सोना-सोना पुकारते और वह उनके ऊपर से छ्लाँग लगाकर एक ओर से दूसरी ओर कूदती रहती। सरकस जैसा खेल कभी घंटों चलता, क्योंकि खेल के घंटों में बच्चों की कक्षा के उपरान्त दूसरी आती रहती।

मेरे प्रति स्नेह-प्रदर्शन के उसके कई प्रकार थे। बाहर खड़े होने पर वह सामने या पीछे से छ्लाँग लगाती और मेरे सिर के ऊपर से दूसरी ओर निकल जाती। प्राय: देखनेवालों को भय होता था कि उसके पैरों से मेरे सिर पर चोट न लग जावे, परन्तु वह पैरों को इस प्रकार सिकोड़े रहती थी और मेरे सिर को इतनी ऊँचाई से लाँघती थी कि चोट लगने की कोई सम्भावना ही नहीं रहती थी।

भीतर आने पर वह मेरे पैरों से अपना शरीर रगड़ने लगती। मेरे बैठे रहने पर वह साड़ी का छोर मुँह में भर लेती और कभी पीछे चुपचाप खड़े होकर चोटी ही चबा डालती। डाँटने पर वह अपनी बड़ी गोल और चकित आँखों में ऐसी अनिर्वचनीय जिज्ञासा भरकर एकटक देखने लगती कि हँसी आ जाती।

कविगुरु कालिदास ने अपने नाटक में मृगी-मृग-शावक आदि को इतना महत्व क्यों दिया है, यह हिरन पालने के उपरान्त ही ज्ञात होता है।

पालने पर वह पशु न रहकर ऐसा स्नेही संगी बन जाता है, जो मनुष्य के एकान्त शून्य को भर देता है, परन्तु खीझ उत्पन्न करने वाली जिज्ञासा से उसे बेझिल नहीं बनाता। यदि मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल नेत्रों से बात कर सकता, तो बहुत-से विवाद समाप्त हो जाते, परन्तु प्रकृति को यह अभीष्ट नहीं रहा होगा।

सम्भवत: इसी से मनुष्य वाणी द्वारा परस्पर किए गए आघातों और सार्थक शब्दभार से अपने प्राणों पर इन भाषाहीन जीवों की स्नेह तरल दृष्टि का चन्दन लेप लगाकर स्वस्थ और आश्वस्त होना चाहता है।

सरस्वती वाणी से ध्वनित-प्रतिध्वनित कण्व के आश्रम में ऋषियों, ऋषि-पत्नियों, ऋषि-कुमार-कुमारिकाओं के साथ मूक अज्ञान मृगों की स्थिति भी अनिवार्य है। मन्त्रपूत कुटियों के द्वार को नीहारकण चाहने वाले मृग रुँध लेते हैं। विदा लेती हुई शकुन्तला का गुरुजनों के उपदेश-आशीर्वाद से बेझिल अंचल, उसका अपत्यवत पालित मृगछौना थाम लेता है।

यस्य त्वया व्रणविरोपणमिंडगुदीनां
तैलं न्यषिच्यत मुखे कुशसूचिविद्धे।
श्यामाकमुष्टि परिवर्धिंतको जहाति
सो यं न पुत्रकृतक: पदवीं मृगस्ते॥
             - अभिज्ञानशाकुन्तलम्

शकुन्तला के प्रश्न करने पर कि कौन मेरा अंचल खींच रहा है, कण्व कहते है :

कुश के काँटे से जिसका मुख छिद जाने पर तू उसे अच्छा करने के लिए हिंगोट का तेल लगाती थी, जिसे तूने मुट्ठी भर-भर सावाँ के दानों से पाला है, जो तेरे निकट पुत्रवत् है, वही तेरा मृग तुझे रोक रहा है।

साहित्य ही नहीं, लोकगीतों की मर्मस्पर्शिता में भी मृगों का विशेष योगदान रहता है।

पशु मनुष्य के निश्छल स्नेह से परिचित रहते हैं, उनकी ऊँची-नीची सामाजिक स्थितियों से नहीं, यह सत्य मुझे सोना से अनायास प्राप्त हो गया।

अनेक विद्यार्थिनियों की भारी-भरकम गुरूजी से सोना को क्या लेना-देना था। वह तो उस दृष्टि को पहचानती थी, जिसमें उसके लिए स्नेह छलकता था और उन हाथों को जानती थी, जिन्होंने यत्नपूर्वक दूध की बोतल उसके मुख से लगाई थी।

यदि सोना को अपने स्नेह की अभिव्यक्ति के लिए मेरे सिर के ऊपर से कूदना आवश्यक लगेगा तो वह कूदेगी ही। मेरी किसी अन्य परिस्थिति से प्रभावित होना, उसके लिए सम्भव ही नहीं था।

कुत्ता स्वामी और सेवक का अन्तर जानता है और स्वामी की स्नेह या क्रोध की प्रत्येक मुद्रा से परिचित रहता है। स्नेह से बुलाने पर वह गदगद होकर निकट आ जाता है और क्रोध करते ही सभीत और दयनीय बनकर दुबक जाता है।

पर हिरन यह अन्तर नहीं जानता, अत: उसका अपने पालनेवाले से डरना कठिन है। यदि उस पर क्रोध किया जावे तो वह अपनी चकित आँखों में और अधिक विस्मय भरकर पालनेवाले की दृष्टि से दृष्टि मिलाकर खड़ा रहेगा - मानो पूछता हो, क्या यह उचित है? वह केवल स्नेह पहचानता है, जिसकी स्वीकृति जताने के लिए उसकी विशेष चेष्टाएँ हैं।

मेरी बिल्ली गोधूली, कुत्ते हेमन्त-वसन्त, कुत्ती फ्लोरा सब पहले इस नए अतिथि को देखकर रुष्ट हुए, परन्तु सोना ने थोड़े ही दिनों में सबसे सख्य स्थापित कर लिया। फिर तो वह घास पर लेट जाती और कुत्ते-बिल्ली उस पर उछलते-कूदते रहते। कोई उसके कान खींचता, कोई पैर और जब वे इस खेल में तन्मय हो जाते, तब वह अचानक चौकड़ी भरकर भागती और वे गिरते-पड़ते उसके पीछे दौड़ लगाते।

वर्ष भर का समय बीत जाने पर सोना हरिण शावक से हिरण में परिवर्तित होने लगी। उसके शरीर के पीताभ रोयें ताम्रवर्णी झलक देने लगे। टाँगें अधिक सुडौल और खुरों के कालेपन में चमक आ गई। ग्रीवा अधिक बंकिम और लचीली हो गई। पीठ में भराव वाला उतार-चढ़ाव और स्निग्धता दिखाई देने लगी। परन्तु सबसे अधिक विशेषता तो उसकी आँखों और दृष्टि में मिलती थी। आँखों के चारों ओर खिंची कज्जल कोर में नीले गोलक और दृष्टि ऐसी लगती थी, मानो नीलम के बल्बों में उजली विद्युत का स्फुरण हो।

सम्भवत: अब उसमें वन तथा स्वजाति का स्मृति-संस्कार जागने लगा था। प्राय: सूने मैदान में वह गर्दन ऊँची करके किसी की आहट की प्रतीक्षा में खड़ी रहती। वासन्ती हवा बहने पर यह मूक प्रतीक्षा और अधिक मार्मिक हो उठती। शैशव के साथियों और उनकी उछल-कूद से अब उसका पहले जैसा मनोरंजन नहीं होता था, अत: उसकी प्रतीक्षा के क्षण अधिक होते जाते थे।

इसी बीच फ्लोरा ने भक्तिन की कुछ अँधेरी कोठरी के एकान्त कोने में चार बच्चों को जन्म दिया और वह खेल के संगियों को भूल कर अपनी नवीन सृष्टि के संरक्षण में व्यस्त हो गई। एक-दो दिन सोना अपनी सखी को खोजती रही, फिर उसे इतने लघु जीवों से घिरा देख कर उसकी स्वाभाविक चकित दृष्टि गम्भीर विस्मय से भर गई।

एक दिन देखा, फ्लोरा कहीं बाहर घूमने गई है और सोना भक्तिन की कोठरी में निश्चित लेटी है। पिल्ले आँखें बन्द करने के कारण चीं-चीं करते हुए सोना के उदर में दूध खोज रहे थे। तब से सोना के नित्य के कार्यक्रम में पिल्लों के बीच लेट जाना भी सम्मिलित हो गया। आश्चर्य की बात यह थी कि फ्लोरा, हेमन्त, वसन्त या गोधूली को तो अपने बच्चों के पास फटकने भी नहीं देती थी, परन्तु सोना के संरक्षण में उन्हें छोड़कर आश्वस्त भाव से इधर-उधर घूमने चली जाती थी।

सम्भवत: वह सोना की स्नेही और अहिंसक प्रकृति से परिचित हो गई थी। पिल्लों के बड़े होने पर और उनकी आँखें खुल जाने पर सोना ने उन्हें भी अपने पीछे घूमनेवाली सेना में सम्मिलित कर लिया और मानो इस वृद्धि के उपलक्ष में आनन्दोत्सव मनाने के लिए अधिक देर तक मेरे सिर के आरपार चौकड़ी भरती रही। पर कुछ दिनों के उपरान्त जब यह आनन्दोत्सव पुराना पड़ गया, तब उसकी शब्दहीन, संज्ञाहीन प्रतीक्षा की स्तब्ध घड़ियाँ फिर लौट आईं।

उसी वर्ष गर्मियों में मेरा बद्रीनाथ-यात्रा का कार्यक्रम बना। प्राय: मैं अपने पालतू जीवों के कारण प्रवास कम करती हूँ। उनकी देखरेख के लिए सेवक रहने पर भी मैं उन्हें छोड़कर आश्वस्त नहीं हो पाती। भक्तिन, अनुरूप (नौकर) आदि तो साथ जाने वाले थे ही, पालतू जीवों में से मैंने फ्लोरा को साथ ले जाने का निश्चय किया, क्योंकि वह मेरे बिना रह नहीं सकती थी।

छात्रावास बन्द था, अत: सोना के नित्य नैमित्तिक कार्य-कलाप भी बन्द हो गए थे। मेरी उपस्थिति का भी अभाव था, अत: उसके आनन्दोल्लास के लिए भी अवकाश कम था।

हेमन्त-वसन्त मेरी यात्रा और तज्जनित अनुपस्थिति से परिचित हो चुके थे। होल्डाल बिछाकर उसमें बिस्तर रखते ही वे दौड़कर उस पर लेट जाते और भौंकने तथा क्रन्दन की ध्वनियों के सम्मिलित स्वर में मुझे मानो उपालम्भ देने लगते। यदि उन्हें बाँध न रखा जाता तो वे कार में घुसकर बैठ जाते या उसके पीछे-पीछे दौड़कर स्टेशन तक जा पहुँचते। परन्तु जब मैं चली जाती, तब वे उदास भाव से मेरे लौटने की प्रतीक्षा करने लगते।

सोना की सहज चेतना में मेरी यात्रा जैसी स्थिति का बोध था, नप्रत्यावर्तन का; इसी से उसकी निराश जिज्ञासा और विस्मय का अनुमान मेरे लिए सहज था।

पैदल जाने-आने के निश्चय के कारण बद्रीनाथ की यात्रा में ग्रीष्मावकाश समाप्त हो गया। 2 जुलाई को लौटकर जब मैं बँगले के द्वार पर आ खड़ी हुई, तब बिछुड़े हुए पालतू जीवों में कोलाहल होने लगा।

गोधूली कूदकर कन्धे पर आ बैठी। हेमन्त-वसन्त मेरे चारों ओर परिक्रमा करके हर्ष की ध्वनियों में मेरा स्वागत करने लगे। पर मेरी दृष्टि सोना को खोजने लगी। क्यों वह अपना उल्लास व्यक्त करने के लिए मेरे सिर के ऊपर से छ्लाँग नहीं लगाती? सोना कहाँ है, पूछने पर माली आँखें पोंछने लगा और चपरासी, चौकीदार एक-दूसरे का मुख देखने लगे। वे लोग, आने के साथ ही मुझे कोई दु:खद समाचार नहीं देना चाहते थे, परन्तु माली की भावुकता ने बिना बोले ही उसे दे डाला।

ज्ञात हुआ कि छात्रावास के सन्नाटे और फ्लोरा के तथा मेरे अभाव के कारण सोना इतनी अस्थिर हो गई थी कि इधर-उधर कुछ खोजती-सी वह प्राय: कम्पाउण्ड से बाहर निकल जाती थी। इतनी बड़ी हिरनी को पालनेवाले तो कम थे, परन्तु उससे खाद्य और स्वाद प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों का बाहुल्य था। इसी आशंका से माली ने उसे मैदान में एक लम्बी रस्सी से बाँधना आरम्भ कर दिया था।

एक दिन न जाने किस स्तब्धता की स्थिति में बन्धन की सीमा भूलकर बहुत ऊँचाई तक उछली और रस्सी के कारण मुख के बल धरती पर आ गिरी। वही उसकी अन्तिम साँस और अन्तिम उछाल थी।

सब उस सुनहले रेशम की गठरी के शरीर को गंगा में प्रवाहित कर आए और इस प्रकार किसी निर्जन वन में जन्मी और जन-संकुलता में पली सोना की करुण कथा का अन्त हुआ।

सब सुनकर मैंने निश्चय किया था कि हिरन नहीं पालूँगी, पर संयोग से फिर हिरन ही पालना पड़ रहा है।

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#HyderabadUniversity — Amnesty condemns police crackdown #JusticeforRohith


एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया, हैदराबाद विश्वविद्यालय (UoH) के छात्रों और संकाय के शांतिपूर्ण विरोध पर पुलिस की कार्रवाई की निंदा और उनकी तत्काल रिहाई की मांग करती है 


Hyderabad: Students and faculty arrested for peaceful protests must be released

— Amnesty International India


25 March 2016, 01:06PM

Amnesty International India condemns the police crackdown on peacefully protesting University of Hyderabad (UoH) students and faculty and demands their immediate release.


There should be an independent investigation into allegations of excessive use of force by the police. On 22 March, the Telangana police assaulted protesting students in the UoH campus. Students were protesting against the return of the vice-chancellor of the university whom they hold responsible for the suicide of a Dalit Student, Rohith Vemula, in January 2016.

Violence against protesting students in a university cannot under any circumstance be justified. Allegations of sexual violence and threats by the police to women students must be investigated and those suspected of being responsible must be prosecuted,’ said Aakar Patel, Executive Director at Amnesty International India.

“Any protesters who can legitimately be charged for acts of violence or vandalism must be prosecuted and tried in proceedings which meet international fair trial standards.”

एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया, हैदराबाद विश्वविद्यालय (UoH) के छात्रों और संकाय के शांतिपूर्ण विरोध पर पुलिस की कार्रवाई की निंदा और उनकी तत्काल रिहाई की मांग करती है
Policemen try to stop Indian students as they march towards the office of Hindu nationalist Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) or the National Volunteers Association's office during a protest against the death of 26-year-old doctoral student Rohith Vemula in New Delhi, India, Saturday, Jan. 30, 2016. Saturday marked the birthday of Vemula whose body was found hanging in a hostel room, on January 17 weeks after he along with four others, was barred from using some facilities at his university | ASSOCIATED PRESS



Akshita Chitla, Police told us not to behave like prostitutes and threatened us with rape
Male police brutally grabbed, molested, tossed and beat female students and faculties alike. Female faculties were grabbed by their hair and dragged into vans. Male students were swept inside the van and were beaten without mercy,’ said Vaikhari Aryat, a UoH student, in her Facebook post. Akshita Chitla, a student of UoH told Amnesty International India, ‘I was dragged outside from the VC office where I was protesting. Police told us not to behave like prostitutes and threatened us with rape. Most of my friends who were girls were slapped and kicked by male and female police officers.’ 25 students and two faculty members among the protesters have been arrested for allegedly vandalizing the vice-chancellor’s office and booked for rioting, criminal intimidation and damage to public property. If found guilty they could be imprisoned for up to 7 years.




Udaya Bhanu, a UoH student and President of the Madiga Students Federation is one of many students admitted in hospital because of the police assault. He said there are injuries across his body including blood clot in his ear and that the doctors suspect internal bleeding. “Yesterday there was no food and water in the campus. So we decided to help the protesting students by arranging some food and water for them. While we were bringing the food packets the police spotted us and said we were encouraging the protesting students. They started beating us up and threatened us if we supported the protesting students,’ said Udaya Bhanu from the hospital. On Tuesday evening the university authorities closed the gates to the campus, preventing the protesters from accessing essential supplies. It was only on Thursday morning, in response to some students underlining human rights violations, that the university authorities restored such essential supplies. The situation in the campus remains tense.
‘Students have a right to protest. Denying students electricity, water and food merely because they are protesting is unacceptable,’ said Aakar Patel.

Caste-based discrimination on campus has been at the center of the protests in UoH. Students who belong to Dalit, Adivasi and other vulnerable communities have consistently spoken out against their marginalization on the campus, and claim that civil liberties are being eroded. An anti-discrimination committee meeting on the UoH campus that was scheduled on March 24 to look into wider representation of Dalit and Adivasi students in decision making bodies was never convened.

‘The university must act to ensure it remains an inclusive place for everyone; there must be no discrimination against those who belong to certain castes or profiling of students because they are politically active on this issue’, said Aakar Patel.

The assault on students in campus and their arrest by the police violates many provisions of the Scheduled Caste and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, and the Indian Constitution. Article 19 of the Constitution guarantees the right to freedom of speech and expression and freedom of peaceful assembly. Arrests of peaceful protesters violate India’s obligations under international law, specifically the International Covenant on Civil and Political Rights (ICCPR), to respect and protect the right to freedom of expression and peaceful assembly, set out in Article 19 and Article 21 of that treaty. The arrest of the students and holding them for almost 24 hours without giving any information about their status is in breach of numerous international human rights standards including the UN Body of Principles for the Protection of All Persons under Any Form of Detention or Imprisonment.

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कहानी — समृद्धि की स्कूटी — सक्षम द्विवेदी



Hindi Kahani Smridhhi ki scooty

- Saksham Dwivedi



एक लड़की भीगी भागी सी,
सोती रातों में जागी सी,
मिली एक अज्ज ।

दिन भर गाना सुनती रहती हो कुछ अपने बारे में सोचो, एक्जाम सिर पर है। दादी के अचानक गाना बंद कर देने के बाद ,समृद्धि प्रतिरोध के रूप में अपनी किताबों का बंडल तेज से मेज पर पटकी और कुर्सी से तेज से उठी,जिससे कुर्सी के अगले दो पाये थोड़ा ऊपर उठे, फिर जमीन पर आ गये और समृद्धि तेजी से रूम से निकल गयी।

उस फ्लैट में सिर्फ समृद्धि और उसकी दादी ही रहा करतीं थीं। दादी समृद्धि से काफी परेशान रहा करती थीं,इसीलिए बात-बात पर समृद्धि डांट सुना करती थी।

समृद्धि पढने में काफी लापरवाह थी, पढ़ने में क्या वो सब चीजों में ही लापरवाह थी ‘फुल्की’ के मामले को छोड़कर। वो अपनी कॉलोनी से निकलते समय गेट की बांयी ओर वाली चाट की दुकान पर आते जाते समय फुल्की खाया करती थी ये काम वो एकदम नियम से किया करती थी। वो एक बार में दस फुल्कीयां खाया करती थी जिसमें पहली 6 सिर्फ जीराजल से फिर 3 जीराजल और मीठी चटनी के साथ और आखिरी सिर्फ मीठी चटनी से।

लेकिन इस बार समृद्धि पढ़ाई को लेकर कुछ गंभीर दिख रही थी और होती भी क्यों न उसकी दादी ने 12वीं में फर्स्ट डीवीजन पास होने पर स्कूटी दिलाने का वादा जो किया था। हालांकि उसकी दादी के इकोनॉमिकल कंडीशन उन्हे इस बात की इजाजत नहीं देते थे, पर कॉलोनी के 12वीं में पढ़ने वाले लगभग सभी स्टूडेन्टस के पैरेन्टस से अपने बच्चो से इसी प्रकार के वादे किये थे इसीलिए दादी ने भी ऐसा किया।

समृद्धि की दादी एक रिटायर्ड डाककर्मी थीं, उनकी पेंशन से घर आराम से तो चल रहा था परन्तु किसी भी प्रकार का अतिरिक्त खर्च उनके बस की बात नहीं थी क्यों कि उनकी अस्थमा की दवाईयों में पेंशन का एक बड़ा हिस्सा चला जाता था। और फिर आगे समृद्धि की शादी भी तो करानी थी। हमारे देश में शादी और त्योहार एक बड़े तबके के लिए खुशी और समस्या साथ लेकर आते हैं।

उसकी दादी इस वादे के बाद थोड़ा चिन्तित जरूर रहतीं थीं लेकिन समृद्धि का पुराना एकेडमिक रिकार्ड उनको ढंाढस दिलाने का काम करता था क्यों कि समृद्धि आज तक फस्ट तो दूर की बात सेकेण्ड डीवीजन भी बमुश्किल आ पायी थी। इसलिए दादी को लग रहा था कि उनकी इज्जत बच जाएगी।

समृद्धि कॉलेज और कोचिंग दोनो जगह ही दरवाजे के पास वाली सीट पर ही बैठा करती थी जिससे क्लास खत्म होते ही सबसे पहले वो निकल जाए। लेकिन वो अब पढ़ने की कोशिश कर रही थी क्यों  कि उसके दिमाक में आलिया भट्ट और करीना कपूर के स्कूटी वाले विज्ञापन घूमते रहते थे। वो हेलमेट की दुकान पर रूककर हेलमेट बदल-बदलकर अपने को शीशे में देखा करती थी तथा एक्सीलेटर बढ़ाने की एक्टिंग भी करती थी।

समृद्धि ने अपनी पॉकेटमनी से च्वींगम का व्यय कम करके दो धानी रंग के स्केच पेन खरीद लिये थे जिससे वो इंम्पॉरटेंट कंटेट को हाई लाईट किया करती थी। विलियम वर्ड्सवर्थ की पोयम के सेन्ट्रल आईडिया को उसने रट लिया था तथा ऐथेन बनाने कि विधि का चार्ट अपने पढ़ने की टेबल के सामने चिपका दिया था।

अपने मोटिवेशन के लिए करीना कपूर का हेलमेट वाला एक पोस्टर भी अपनी गोदरेज वाली अलमारी के अंदरूनी हिस्से में चिपका दिया था। लेकिन फुल्की के बजट में कटौती को वो अभी भी तैयार नहीं थी।

धीरे-धीरे परीक्षा का समय करीब आ रहा था। सिर्फ 15 दिन बचे रह गये थे। समृद्धि पहली बार पूरी गंभीरता से पढ़ाई में जुट गयी थी उसने बाहर निकलना बंद कर दिया था । यह देखकर दादी को अच्छा तो लगता था पर वो अंदर ही अंदर घबड़ाने भी लगी थीं। सच बात तो यह थी कि वो घर के वर्तमान हालात को देखकर तय नहीं कर पा रही थीं कि समृद्धि का फर्स्ट डीविजन आना अच्छा रहेगा या बुरा। अब वो खुद ही कभी-कभी उसका ध्यान पढ़ाई से डायवर्ट कर कभी घर के किसी काम या अन्य कामों में लगाने का प्रयास करती थीं।

परीक्षाएं शुरू हो गयीं, दादी ने समृद्धि को टीका लगाया तथा डरते-डरते बेस्ट ऑफ लक भी बोला।

समृद्धि के सारे पेपर अच्छे गये थे सिवाय केमेस्ट्री के पर उसकेा लग रहा था कि पी0टी0 वाले मार्क्स उसको कवर कर लेगें। पेपर के आखिरी दिन समृद्धि अपने दोस्तों के साथ घूमने गयी और फिर रिजल्ट का इंतजार होने लगा।
15 तारीख को रिजल्ट आने की घोषणा की गयी। 14 तारीख की पूरी रात समृद्धि बेड पर बस करवट बदलती रही या फिर उठकर पानी पीती और फिर बेड पर चली जाती। दादी पानी पीने तो नहीं उठी पर रात भर सोईं भी नहीं।
सक्षम द्विवेदी
रिसर्च ऑन इंडियन डायस्पोरा, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा,महाराष्ट्र
संपर्क:
20 नया कटरा,दिलकुशा पार्क,इलाहाबाद,
मो: 07588107164
ईमेल: saksham_dwivedi@rediffmail.com


15 तारीख की सुबह से ही सायबर कैफे में छात्रों का हुजूम इकट्ठा होने लगा। रिजल्ट हो दोपहर ढाई बजे आना था लेकिन सर्वर डाउन होने की वजह से शाम 5 बजे आना  शुरू हुआ। एक लंबी लाइन के बाद कैफे में समृद्धि का नंबर आया समृद्धि को रोल नं0 कैफं संचालक ने भरा। रिजल्ट सामने आया । समृद्धि का 58 प्वाइंट 70 प्रतिशत नंबर मिले थे जो कि फर्स्ट डीवीजन से 1 प्वाइंट 30 प्रतिशत कम थे। समृद्धि ने कैफे वाले से बोला एक बार और देखिये, कैफे वाले ने बोला अरे एक बार और देखने से रिजल्ट थोड़ी बदल जाएगा। समृद्धि ने कहा प्लीज अंकल एक बार फिर देख लीजिए शायद रोल नं0 भरने में गलती हो गयी हो। कैफे वाले ने उसके कहने पर फिर एक बार देख लिया पर परिणाम वही था। हालांकि समृद्धि का ये अभी तक सर्वाधिक अच्छा प्रदर्शन था पर इस बार वो सबसे अधिक दुखी थी। उसने फोन करके दादी को बताया। दादी को तत्कालिक रूप से बड़ी राहत प्राप्त हुयी उन्हे लगा कि उन्होने लड़ाइ 1 प्वांइट 30 प्रतिशत से जीत ली है। दादी ने बोला घर आओं बात करते हैं।

समृद्धि सिर झुकाकर जैसे ही घर में प्रवेश की दादी ने डांटना शुरू कर दिया और बोला ‘‘पता नहीं क्या पढ़ती रहतीं थीं पूरी कॉलोनी के सामने नाक कटा दी मेरी तुमको छोड़कर बाकी सब फर्स्ट आये हैं’’ समृद्धि मुंह नीचे किये हुये अपने कमरे में चली गयी। घर में लाईट नहीं आ रही थी। समृद्धि अपने बेड पर लेट गयी और कुछ देर में सेा गयी। लाइट आने पर पंखा चलने लगा जिससे समृद्धि को ठण्ड लगने लगी वो सोते-सोते अपने आप को सिकोड़ने लगी और लगभग हाफ सर्किल सा बनाकर सो रही थी। लाइट आने पर दादी हर कमरे की लाइट जलाने का क्रम शुरू करती हुयी समृद्धि के कमरे में आयीं उसको इस हालात में सोता देखकर एक चादर लाकर उसको उढ़ाने लगी और देखा कि उसके चेहरे पर आंसू के कुछ सूखे निशान थे, आई लाईनर भी आंसू के साथ बहकर कुछ दूर तक फैल गया था। दादी ने पंखे के रेगूलेटर को 5 से 3 पर किया। समृद्धि की फैली किताबों को समेटा। फिर उसकी गोदरेज की अलमारी का दरवाजा बंद करने गयी तो अंदर करीना कपूर के हेलमेट वाले पोस्टर को देखा।

फिर दादी कमरे से निकलकर बगल वाले अग्निहेात्री जी के यहां जाकर कुछ देर बात करने लगीं। अग्निहोत्री जी के यहां से निकलकर कुछ देर बाहर चलीं गयीं फिर घर आ गयीं। रात में समृद्धि थोड़ा सा खाना खाकर सो गयी।
अगले दिन सुबह समृद्धि को बाहर निकलना था। वो अपनी सायकिल की चाभी ढूंढ रही थी बहुत ढूंढने के बाद भी नहीं मिली। बार-बार कह रही थी यहीं तो रखे थे कहां गयी। थोड़ी देर बार दादी ने उसे उसकी सायकिल की चाभी वाला कीरिंग ढूंढ़ के दिया पर उसमें अब सायकिल की जगह स्कूटी की चाभी लगी हुयी थी।

उसने उसे लेते ही दादी को गले से लगा लिया और स्कूटी में बैठकार सबसे पहले फुल्की की दुकान पर ले गयी।

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हिंदी कहानी — लव यू है- हमेशा — अनुज

उत्तर आधुनिक जगत की कहानियों में युवाओं में प्रेम का जो स्‍वरूप आया है वह अकादमिक जगत का है युवाओं का प्रथम प्रेम सबसे पहले महसूस कालेज या विश्‍वविद्यालय (अकादमिक संस्‍थाओं से) में होता है। अनुज की कहानी ‘लव यू हमेशा' अकादमिक जगत में होने अंतर्द्धन्‍द का खुला चित्रण करती है। सोनल और तिमिर का ‘प्‍लेटोनिक लव' नहीं ‘रीयल लव' है, ‘‘हाँ मिलते हैं। चल फिर, लव यू है.................। लव यू है............।''  — नया ज्ञानोदय, सितम्‍बर 2009

Hindi Prem Kahani Love you hai - Hamesha — Anuj

Hindi Prem Kahani 

Love you hai - Hamesha — Anuj


"लव यू है- हमेशा —अनुज


{"यह एक काल्पनिक कहानी है। इस कहानी के सभी पात्र और स्थान काल्पनिक हैं जिनका किसी भी जीवित अथवा मृत व्यक्ति या किसी भी स्थान विशेष से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी पात्र या स्थान विशेष से किसी व्यक्ति या स्थान विशेष की किसी प्रकार की समानता का कोई भ्रम होता भी है तो यह महज एक संयोग होगा। " -अनुज, (इस कहानी का लेखक)}



सोनल ने डायरी के पन्ने खोले और कुछ लिखने की कोशिश करने लगी। पहला शब्द लिखा- "तिमिर...ज़िन्दगी में सबकुछ पूर्वनियोजित हो, ज़रूरी नहीं होता। बहुत कुछ ऐसा भी होता चलता है जिसकी ना कोई पूर्वपीठिका होती है और ना ही अनुमान। आदमी बस उसे भोगते जाने को अभिशप्त होता है।"  फिर  लेट गयी चित। छत पर लटके पंखों को देखते हुए उसने कलम का पिछला हिस्सा मुँह से दबा लिया। ऐसा लगा जैसे खोई-सी जा रही हो किसी कभी ना ख़त्म होने वाले ख़यालों में।

सोनल की ज़िन्दगी में सब कुछ अप्रत्याशित ही तो था! एक छोटे से कस्बे से आकर किसी महानगर में पढ़ना उसकी ज़िन्दगी की कोई कम बड़ी घटना नहीं थी!  हिन्दू कॉलेज में दाखिला एक बड़ी बात होती थी। लेकिन 'प्लस-टू' में इतने अच्छे अंक थे कि दाखिला आसानी से मिल गया था। उस दिन सोनल ने तो फोन पर ही न जाने कितने ही रुपये खर्च कर दिए थे! सभी दोस्तों से लेकर रिश्तेदारों तक, सब को ख़बर देना ज़रूरी था। पापा भी फूले नहीं समा रहे थे! लेकिन ईर्ष्यालुओं की भी कहाँ कमी थी! उन्हें तो किसी का अच्छा भी बुरा ही लगता था।

कइयों ने तो यह उलाहना भी दे डाली, "एक तो बेटी, दूजे घर से इतनी दूर, इतने बड़े शहर में जाकर अकेले रहकर पढ़ना! और पढ़ना भी क्या- हिन्दी, राम-राम!" पूरी रिश्तेदारी में काना-फूसी होने लगी थी।

कुछेक को तो रहा न गया तो आकर बोल भी गए- "सोमेश्वर बाबू, आपकी एक बेटी डॉक्टर है और दूसरी इंजीनियर, फिर यह कहाँ से आ गयी टाट में पैबंद। इसे क्यों भेज रहे हैं हिन्दी-फिन्दी पढ़ने! अरे, जब दिन ही काटना है तो यहीं भागलपुर में रहकर पढ़ने में क्या दिक्कत है? यहाँ भी तो बच्चे पढ़ ही रहे हैं?"

लेकिन पापा पर कहाँ पड़ता था किसी का प्रभाव!  बस मुस्करा-भर रह जाते थे। वे जानते थे कि बच्चों को वही पढ़ाना चाहिए जिसमें उनकी  रुचि हो। पढ़ाई-लिखाई और कैरियर से लेकर शादी-ब्याह तक, पापा का विचार था कि बच्चों की इच्छा और रुचि ही सर्वोच्च होती है। पापा सामाजिक चाल-चलन से अधिक बच्चों की पसंद-नापसंद का ध्यान रखते थे।

वे कई बार हँसते हुए मम्मी को कहते -"मोनी-माँ, तुम्हारी इस कलाकार बेटी के लिए, कहाँ से ढूँढ़ कर लाएँगे चित्रकार-साहित्यकार!"

इसबात पर मम्मी हँसते हुए कहतीं -"आजकल का बच्चा लोग कहाँ है माँ-बाप के कहने में। ई सब तो अपने से कर लेगा अपने पसंद का।"

तब पापा हँसते हुए कहते-"अच्छा ही है ना। आप जितना हमसे चोरा-चोरा कर आलमारी में रखते रहते हैं, आपका उ सब बच जाएगा। कुछ देना नहीं पड़ेगा।"

इसबात पर मम्मी नाराज़ हो जातीं और बोल पड़तीं-"हाँ, हम तो उ सब लेकर ही ऊपर जाएँगे। अब हमलोग करें या फिर कि ई सब कर ले अपने से, देना तो पड़ता ही है। अरे, लोग तो दामाद को एस्टेट लिख देता है, हम तन्का सा बचा के रख लेते हैं बेटी-दमाद के लिए तो लगता है आपको आँख में गड़ने!"

मम्मी नाराज़ होकर रूठ जातीं और चोर नज़र से देखते हुए इंतज़ार करने लगतीं कि पापा मनाने के लिए आते हैं या नहीं।

पापा आकर मनाते और बोलते- "तुम आज भी गुस्से में उतनी ही सुन्दर दिखती हो।" मम्मी खिलखिला कर हँस पड़तीं।

हिन्दू कॉलेज आने के पहले तक सोनल का पूरा जीवन तो संरक्षण में ही बीता था। कब दाखिला मिला और कब फीस जमा हो गयी, कहाँ कुछ पता होता था! सबकुछ तो पापा ही कर आते थे। दो-दो बड़ी बहनें थीं संरक्षण को और एक छोटा भाई प्यार बाँटने को। सबकुछ कितना सुखद था जीवन में! ज़िन्दगी सुरक्षा घेरे में चल रही थी। शहरी वातावरण में पले-बढ़े किसी 'प्रोटेक्टेड चाइल्ड' की जैसी स्थिति हो सकती थी, सोनल की भी वैसी ही थी।

पापा और मम्मी दोनों स्कूल में शिक्षक थे इसलिए घर का माहौल भी स्कूल जैसा ही था। शिक्षा-दीक्षा का वातावरण बना रहता था। नैतिकता ही मूल-मंत्र होती थी। आँखें खुली तो घर में 'विज्ञान प्रगति', 'सार्इंस रिपोर्टर' और 'नंदन' जैसी मौजूदा समय की चर्चित और ज्ञानवर्धक बाल-पत्रिकाएँ दिखीं। बात 'चंपक' और 'चंदा-मामा' से आगे बढ़ी भी तो 'धर्मयुग' और 'फ्रंटलाइन' पर आकर टिकी। माँ अंग्रेजी पढ़ाती थीं इसीलिए पापा से जब लड़ाई भी होती, तो मम्मी के मुँह से 'यू टू ब्रूटस' से बड़ी झिड़की कोई दूसरी ना निकल पाती!

बच्चों पर पापा से अधिक मम्मी का ज़ोर चलता था। पापा ने बच्चों को एक बात ख़ूब अच्छी तरह से समझा दी थी कि पढ़ाई-लिखाई से जी चुराने वाले बच्चों को ज़िन्दगी में बकरी चरानी पड़ती है या  फिर कि उन्हें भीख माँगनी पड़ती है। लेकिन पापा को शायद पढ़ाई से जी चुराने वाले बच्चों में ही सबसे ज्यादा दिलचस्पी रहती थी! तभी तो सोनल के घर के दलान में शाम के समय बकरी चराने वाले तमाम छोटे-छोटे बच्चों का मजमा जमा रहता और पापा उन्हें अपनी फुलवारी से तोड़े हुए आम-अमरूद और लीची बाँटते हुए गिनती-जोड़-घटाव सिखलाया करते।

पापा ज्ञान बाँटने में कभी कोताही न करते। जब भी मौका मिलता पूरा फायदा उठाते। रोटी खाते हुए भी पापा को चाणक्य और चन्द्रगुप्त की कहानी ही याद आती। मम्मी भी कोई कम ना थीं! एक दिन सोनल को अँधेरे में कोई भूत दिखा। मम्मी ने भूत के फेरे में पूरा हैमलेट ही बाँच डाला था।

सोनल अबतक गिन नहीं पाई थी कि हिन्दू कॉलेज में कितनी दीवारें और कितने खंभे हैं। लेकिन बीतते समय के साथ यह जानने लगी थी कि दीवारें लाल और खम्भे सख्त हैं। जब भी समय मिलता फूलों की क्यारियों के बीच पीपल के पेड़ के साथ बने चबूतरे पर आकर बैठ जाती। पीपल के पेड़ के चारों तरफ लाल-पीले धागे लिपटे रहते और फूल-अक्षत के बीच कभी कोई छोटा सा आईना और एक कंघी पड़ी रहती। पेड़ को प्रणाम कर सोनल आईना उठा लेती। आईना इतना छोटा होता कि उसमें एक बार में चेहरे का कोई एक भाग ही दिख पाता। आँखें दिखतीं तो नाक नहीं, होंठ और दाँत दिखते तो गाल नहीं। शायद सोनल इसी छोटे से आईने में अपने लिए एक 'इमोशनल सेल्टर' ढूँढ़ने लगी थी।

यही वह समय था जब तिमिर ने सोनल की ज़िन्दगी में हौले से कदम रखा था। तिमिर ने उसे वैसा ही इमोशनल सेल्टर दिया था जिसकी ज़रूरत शायद उस उम्र के सभी युवाओं को होती है। अब तो दोनों प्राय: रोज मिलने लगे थे।

"आज बहुत देर कर दी? मुझे मेट्रो पर इंतज़ार करना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।"

"सॉरी यार"

"अच्छा अब चलो"

"चलो"

"कुत्ता वाले प्लेस पर चलें?"

"चलें, कुत्ता भी सब समझता होगा, बोलता कुछ नहीं है।"

"एक सभ्य कुत्ता है, हमलोगों को देखते ही जगह खाली करके उठ जाता है।"

तिमिर और सोनल साथ टहलते हुए हल्की-हल्की झाड़ियों के बीच बने चबूतरे की ओर बढ़ने लगे थे। आज सोनल थोड़ी शान्त सी दिख रही थी। सोनल को थोड़ी शांत देखकर तिमिर बोला,

"आजकल तो सभ्यता सिर्फ कुत्तों में ही बच गयी है। आदमी हों तो अभी आ जाएँ लाठी लेकर।"

"उस कुत्ते को भी यही जगह पसंद आती है"

"थोड़ा-थोड़ा अँधेरा और कोजी-कोजी लगता है ना? शायद इसीलिए।"

"हाँ, कोजी तो लगता है।" फिर थोड़ा थमकर बोला, "लेकिन कई बार मुझे यह भय लगता रहता है कि वो सामने के ग्राउंड में लड़के वॉलीबॉल खेलते रहते हैं, किसी दिन मामला ना फँसा दें!"

"तुम इतना क्यों डरते रहते हो लोगों से? छोटी सी तो ज़िन्दगी होती है, और वो भी हमसब जीवन-भर डरते-डरते गुज़ार देते हैं।"

फिर थोड़ा थमकर बोली, "मैं तो उस पार्क वाले फील्ड में भी खुलेआम बैठने से नहीं डरती।"

"अच्छा......भूल गयी वह जाड़े की दुपहरी जब हमलोग उस पार्क में बैठे थे और अपने-अपने कैरियर के बारे में डिस्कश कर थे, तब कैसे वो सिक्योरिटी गार्ड आ गया था और डंडा दिखाकर आलतू-फालतू बातें बोलने लगा था?"

"हाँ याद है, सब याद है, और तुम भी लगे थे उससे लड़ने। तुम ये हर जगह लड़ने क्या लगते हो? ऐसे हर जगह लड़ा मत करो। तुम मेरे लिए बहुत प्रेसस हो। उसी दिन, वो गार्ड कहीं एक-दो डंडा लगा देता तो?"

"उसी डंडे से साले का सिर तोड़ देता।"

"ओह-हो, मुझे तो मालूम ही न था कि मैंने किसी अखाड़े के पहलवान से फ्रैंडशिप कर ली है।"

"अखाड़े के पहलवान से नहीं मैडम, ताइक्वांडो के ब्लैक बेल्ट सेकण्ड डैन प्लेयर से।"

"प्लीज, गिव मी ए ब्रेक......झूठे कहीं के।"

"नहीं यार, सच्ची ..."

"रीयली...आई एम इम्प्रेस्ड! कब घटी ये दुर्घटना?"

"दुर्घटना नहीं है मैडम, कड़ी मेहनत की है, तब जाकर कहीं पाँव जमा पाया हूँ इस फील्ड में।"

"मुझे मालूम है कि कितनी मेहनत की होगी, आलसी कहीं के।"

"ताइक्वांडो की दुनिया आपकी ऐकेडमिक दुनिया नहीं है मैडम, जहाँ कई अकड़म-बकड़म लोग भी समीकरण जोड़-जाड़ कर लेक्चरर-प्रोफेसर बन जाते हैं, आता-जाता चाहे उन्हें घास-फूस ना हो। इस खेल में कुछ पाने के लिए फाइट करनी पड़ती है। सीधी-सीधी फाइट," तिमिर ने अपने बाजुओं को सख़्त बनाकर दिखाते हुए कहा था।

तिमिर की बातें सोनल को चुभ-सी गयी थीं।

धीमे स्वर में बोली, "ऐसा नहीं है तिमिर कि अकड़म-बकड़म लोग ही भरे हुए हैं इस फील्ड में। बहुत अच्छे-अच्छे लोग भी हैं। मेरे पापा-मम्मी और दादा जी भी तो अकादमिक दुनिया के ही लोग हैं। और सब छोड़ो, यहीं इसी हिन्दू कॉलेज में, प्रो.राणा, प्रो.जकरिया और सुचिता मैम जैसे लोग भी तो हैं जो पढ़ाते हैं तो ऐसा लगता है कि साक्षात् सरस्वती उतर आई हों सामने। ये लोग जब पढ़ाते हैं तिमिर, तो पापा-मम्मी और दादाजी याद आ जाते हैं।"

यह सुनकर तिमिर चुप हो गया था। वह समझ गया था कि सोनल फिर से दुखी हो गयी है।

सोनल का साहित्य-प्रेम शायद मम्मी की ही देन थी। कला की सूक्ष्म समझ और बौद्धिकता तो दादा जी ने विरासत में ही दे दी थी। दादाजी कला की मार्क्सवादी आलोचना के विशेषण माने जाते थे और अपने देश में ही नहीं, पूरी दुनिया के कलाविदों में उनकी अच्छी साख थी। पापा बताते थे कि किस तरह घर पर देश के बड़े-बड़े चित्रकारों का मजमा जमा रहता था। चित्रकार तो चित्रकार, कहते हैं कि बाबा नागार्जुन से लेकर राजकमल चौधरी जैसे हिन्दी के शीर्षस्थ साहित्यकार तक उनके मुरीद हुआ करते थे। जब पाब्लो पिकासो ने लेनिनग्राद में दादाजी से विशेषकर मुलाक़ात की थी, तब इस ख़बर को लंदन टाइम्स ने अपना फर्स्ट लीड बनाया था और मास्को के एक लीडिंग जर्नल ने दादाजी के व्यक्तित्व का पूरा जायजा लेते हुए उनका एक लम्बा सा इंटरव्यू भी छापा था। लेकिन अब तो दादा जी ना सुनते थे और ना ही अब उनकी आँखें उनका साथ दे रही थीं। इसीलिए बाहर-तो-बाहर, घर के सदस्यों के बीच भी उनका रसूख थोड़ा कम हो गया था। दूसरी ओर, जब से बौद्धिक-समाज में बौद्धिकता के पैराडाइम धर्म, जाति और व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर गढ़े जाने लगे थे, अपने देश के बौद्धिक-समाज ने भी उन्हें पूरी तरह से भुला दिया था। ऐसे में, वे भी मौजूदा व्यवस्था से नाता तोड़ अपनी दुनिया में लीन रहने लगे थे और कहने लगे थे-"काल ही सबका निर्णय करता है, मेरा भी करेगा।"

सोनल ने उनसे बहुत कुछ ले लिया था। यह दादाजी की ही विरासत थी कि उसकी बुद्धि तीक्ष्ण और विश्लेषण क्षमता इतनी प्रखर थी। उसकी प्रखर बुद्धि कला की उस सूक्ष्मता को देख लेती थी जिसे मौजूदा समय के चर्चित कला-मर्मज्ञ भी नहीं देख पाते थे और सोनल अनायास ही तथाकथित कला-मर्मज्ञों से बौद्धिक-बहस में उलझ पड़ती थी। उसकी मासूम सोच मौजूदा बौद्धिक-समाज के इस सत्य से अनभिज्ञ थी कि कला से संबंधित बौद्धिक परिचर्चा में कला की सूक्ष्मता से अधिक कलाकार और कला मर्मज्ञों का अहं महत्वपूर्ण होता है।

अब तक दोनों चबूतरे पर आकर जम गए थे। कुत्ता भी हमेशा की तरह उन्हें देखकर दुम हिलाता हुआ उनके पैरों को चाटने लगा था और तिमिर के 'हट' कहते ही दूर जाने लगा था। एक लम्बी चुप्पी के बाद तिमिर ने बात आगे बढ़ाई।

"मैं भी तो तुम्हें कब से यही बात समझाना चाहता हूँ सानूं, कि दुनिया केवल बुरे लोगों से भरी हुई नहीं है। अच्छे-बुरे लोग तुम्हें हर जगह मिल जाएँगे, हर फील्ड में। हमें जीना तो इसी दुनिया में है ना। इसीलिए हमें हर हाल में परिस्थितियों से लड़ना चाहिए और अपने लिए रास्ते बनाने चाहिएँ। पंखे से लटक-कर मर जाना और सब छोड़-छाड़ कर ज़िन्दगी से भाग जाना किसी समस्या का समाधान थोड़े ही होता है! सारी लड़ायी तो ज़िन्दा रहने के लिए है। मरने के बाद क्या बच जाता है! इसीलिए मैं तुम्हें बार-बार कहता रहता हूँ कि तुम्हारे जैसी ब्रेव लड़की को लड़ना चाहिए, लड़ना चाहिए परिस्थितियों से।"

"लड़ ही तो रही हूँ, और कर क्या रही हूँ इतने दिनों से! तिमिर, जब से तुम मिले हो, लगता है कि अब बुरे दिन ढलने लगे हैं।"

"ठीक कह रही हो, बुरे दिन क्या अब तो शाम भी ढलने लगी है.....हमें अब चलना चाहिए।" सोनल जब भी अतीत में गोता लगाना शुरु करती, तिमिर उसे खींचकर वर्तमान में ले आता।

"मेरा तो जी नहीं करता तुम्हें छोड़ कर जाने को।"

"जी तो मेरा भी नहीं करता, लेकिन क्या करूँ, जाना तो पड़ेगा...।" फिर हँसते हुए बोला, "तुम्हारा ही डॉयलाग बोल रहा हूँ।"

दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े। दोनों ने हमेशा की तरह एक-दूसरे से विदाई ली,

"अच्छा तो चल, कल मिलते हैं..."

"हाँ कल मिलते हैं, लव यू है..."

"लव यू है...।"

सोनल को हिन्दू कॉलेज आए हुए अभी एक-डेढ़ वर्ष ही बीते थे कि सोनल का उत्साह ठंडा सा पड़ने लगा था।  अब तो जैसे उदास सी रहने लगी थी। नहीं तो एक समय था कि कॉलेज में उसका जज्बा देखते बनता था। कॉलेज में कोई सेमिनार हो या कि नुक्कड़ नाटक, वाद-विवाद प्रतियोगिता हो या कि खेल का मैदान, पूरा हिन्दू कॉलेज सोनल-मय रहता था। अध्ययन इतना गहरा था और पढ़ाई-लिखाई की ट्रेनिंग बचपन से ही ऐसी मिली थी कि सेमिनार में आए वक्ताओं को उससे जवाब-तलब करते हुए बार-बार पानी की बोतल मुँह से लगानी पड़ती थी। सेमिनार में चर्चा-परिचर्चा करते हुए सोनल तो यह सोचती थी कि उसने गेस्ट वक्ताओं की थोथी विद्वता की कलई खोलकर अपने कॉलेज के प्रोफेसरों का सिर ऊँचा कर दिया है। लेकिन उसे क्या मालूम था कि ऐसा करके वह एकसाथ कई-कई मुसीबतें मुफ्त मोल ले रही थी। पापा ने तो बचपन से यही सिखलाया था कि जो बच्चे कक्षा में क्यों, कब और कैसे पूछते हैं, वे ज़िन्दगी की दौड़ में सबसे आगे रहते हैं। लेकिन हिन्दू कॉलेज में परिस्थितियाँ अलग दिख रही थीं।

अबतक तो वह प्रोफेसरों की आँखों में खटकने भी लगी थी। नहीं भी खटकती यदि दुधारू बन जाती! लेकिन अपने को मारकर परिस्थितियों से समझौता करना कहाँ सीखा था उसने! इसीलिए एक समय की अव्वल डिबेटर अब कॉलेज के दिग्गजों के बीच मुँहफट नाम से पहचानी जाने लगी थी।

कॉलेज में भी तो आए दिन उसके साथ अप्रत्याशित घटनाएँ होती ही रहती थी। दूसरे लोग तो हँसकर उड़ा देते, लेकिन वह थी कि दिल से लगा बैठती। उसी दिन जब सोनल कॉलेज के कॉरीडोर में खड़ी अपनी अकड़न ठीक कर रही थी कि सामने से गुज़रते प्रो.कमल की आह सुनकर चौंक गई।

प्रो.कमल कह रहे थे, "यूँ मादक अँगड़ाई मत लो सोनल, हवायें थम जाएँगी, और लोग दीवानगी की हद से ज्यादा दीवाने हो जाएँगे।"

गुरु पिता के समान होता है। बचपन से तो यही सुनती आई थी! लेकिन शायद बड़े-बड़े शहरों में नैतिकता के मानदंड भी बदल जाते हैं! यह सब देख उसका मन छोटा हो जाता। जब भी ऐसा कुछ होता दौड़ कर पहुँच जाती तिमिर को बताने। तिमिर भी जैसे उसके दर्द को बाँटने ही उसकी ज़िन्दगी में आया था। तिमिर को वह पूरी बात तो नहीं बताती थी लेकिन उसकी बातों से तिमिर इतना तो समझ ही चुका था कि कॉलेज में हवा सोनल के खिलाफ बह रही है।

तिमिर ने पूछा, "मेरी समझ में ये बात नहीं आती है सानू कि आखिर सब तुम्हारे पीछे ही क्यों पड़े हुए हैं?"

आज सोनल भी जैसे भरी ही बैठी थी।

बोलने लगी, "देखो तिमिर, तुम लड़की होते ना तो तुम्हें कुछ बातें अपने-आप समझ में आ जातीं। कई बार एक लड़की अपनी जिस सुन्दरता पर इतराती फिरती है, वही सुन्दर शरीर कभी-कभी उसके गले का ढोल बन जाता है। दूसरी बात यह कि मैं बैक बेंच पर सिकुड़कर बैठने वाली कोई लड़की नहीं हूँ।" फिर थोड़ा दम भरकर बोली, "क्या समाज के ये तथाकथित ठेकेदार यह तय करेंगे कि मैं क्या पहनूँ और और क्या नहीं? वे चाहते हैं कि सभी लड़कियाँ सलवार-कुर्ती पहनें और चार मीटर चौड़ा दुपट्टा लपेटकर कॉलेज आएँ और किताबों को सीने से चिपकाकर ही चलें। नज़रें नीची रखें और खिलखिलाकर तो बिल्कुल ना हँसे। कहते हैं कि हमें भारतीय संस्कृति की रक्षा करनी चाहिए।" तिमिर मामले को ठीक से समझना चाहता था इसीलिए सोनल को बीच-बीच में कुरेद भी रहा था।

"सानू, भारतीय संस्कृति के कुछ मानदंड हैं, हम ख्याल नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा?"

"तुम भी कोई कम बड़े एंटी-फेमिनिस्ट थोड़े ना हो! एक बात बताओ, क्या भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रखने का सारा ठेका हम लड़कियों के ही जिम्मे है? और ये कौन होते हैं यह तय करने वाले कि भारतीय संस्कृति क्या है और कैसी होनी चाहिए? और ये कैसी संस्कृति है जो लड़कियों के शरीर पर के कपड़ों की लम्बाई से तय होती है? यह कैसा मानदंड है? किसी लड़की के शरीर पर यदि तीन मीटर कपड़ा है तो आपकी संस्कृति सुरक्षित है, और यदि वह कपड़ा घटकर ढाई मीटर हो जाता है तो आपकी यह महान संस्कृति ख़तरे में आ जाती है! और कहीं ग़लती से वह कपड़ा यदि डेढ़ मीटर हो जाए, तब तो बस समझ लो कि संस्कृति ध्वस्त ही हो गयी! अरे, यह कैसी संस्कृति है? कमाल की बात है! अगर वे इसी को भारतीय संस्कृति कहते हैं तो मैं नहीं मानती ऐसी संस्कृति को और मैं अपने को उस संस्कृति का अंग भी नहीं समझती।"

"अब तुम्हारी यही सब बातें हैं कि लोग तुमसे चिढ़ जाते हैं। देखो सानू, बहुत पुरानी कहावत है कि नदी की धार के साथ ही तैरना चाहिए।"

"अच्छा! तो फिर बड़ी-बड़ी फिलॉसफी तो ना झाड़ें! जुबान से कुछ और व्यवहार में कुछ! इन्हें जो जी में आता है वो कर सकते हैं, लेकिन गर हम कुछ करें तो भारतीय संस्कृति पर ख़तरा मँडराने लगता है! भारतीय संस्कृति...बुलशिट।" सोनल का चेहरा तमतमा उठा था।

फिर दोनों के बीच एक लम्बी चुप्पी छा गयी।

चुप्पी तोड़ते हुए तिमिर ने समझाया, "थोड़े दिनों की तो बात है, पास हो जाओगी फिर कहाँ मिलेंगे ये सब। छोड़ दो गुस्सा और मान लो वे जैसा चाहते हैं।"

"क्यों मान लूँ? और किस-किस की क्या-क्या मान लूँ? सारी ज़िन्दगी तो सामने वाले की ही मानती रही हूँ। पापा-मम्मी, अंकल यहाँ तक कि पड़ोसियों की भी! आजतक मानती ही तो रही हूँ...सिर्फ इसलिए कि लोग मुझे अच्छा कहें, सुशील और सभ्य समझें! लेकिन अब नहीं। अब नहीं यार, बहुत हो गया।"

तिमिर चाहता था कि सोनल में व्यावहारिक समझदारी आ जाए लेकिन उसकी तबतक ना चली जब तक कि सोनल ने मामले को बिल्कुल बिगाड़ नहीं लिया। और तिमिर को भी तो यह बहुत बाद में समझ में आया कि मामला इस कदर बिगड़ चुका है कि बात सम्भाले नहीं सँभलने वाली। उस दिन भी सोनल बहुत शांत सी दिख रही थी। एक गहरी उदासी उसके माथे पर खेल रही थी।

तिमिर ने सोनल को सीने से लगाकर माथा चूम लिया और समझाने लगा, "ये सब तुम्हारे लायक नहीं हैं सानू, तुम मिसफिट हो गयी हो इनके बीच। देखो सानू, आज के बाद इन मूर्खों की बात पर तुम कभी उदास हुई तो फिर मुझसे कभी बात मत करना। अरे, ये हिन्दू कॉलेज ही तुम्हारी ज़िन्दगी है क्या? दुनिया में बहुत कुछ पड़ा है करने को, अभी तुम्हारी ज़िन्दगी थोड़ ना ख़त्म हो गयी है! "

"तो फिर मैं क्या करूँ तिमिर, ये लोग मेरे घर पर लेटर भेजने वाले हैं। कहते हैं कि पापा को बुलवायेंगे। तिमिर, पापा ये सह नहीं पाएंगे। वे मर जाएँगे तिमिर। पापा को बहुत नाज है अपनी तीनों बेटियों पर।" बोलते हुए सोनल सुबकने लगी थी।

"तो क्या हुआ, पापा को बता देना सबकुछ सच-सच।"

"हाँ, और पापा सब मान जाएँगे! पापा सपने में भी नहीं सोच सकते हैं कि टीचर्स ऐसे हो सकते हैं जैसी-जैसी हरकतें करते हैं ये सब। वे कतई विश्वास नहीं करेंगे कि मैं जो बोल रही हूँ वह सब सच है। मुझे सीधे-सीधे घर बुला लेंगे और फिर चली जाएगी मेरी बाकी की पढ़ाई-लिखाई चूल्हे-चौके में।"

"किसी टीचर से बात करो ना।"

"किससे बात करूँ यार, कौन देगा मेरा साथ? किसी में इतनी हिम्मत नहीं है।"

"किसी क्लास मेट से बात करो।"

"अरे यार, ये सब ठीक रहते तो यही हालत होती विभाग की। कुछेक से बात की है, वे सब भी समझते हैं, लेकिन आखिर वे सब भी तो स्टूडेंट ही हैं, कैसे विरोध में खड़े हो जाएँ!"

"तुम क्यों उलझती रहती हो लोगों से? चुप नहीं रह सकती, और सब जिस तरह से रहते हैं?"

"क्या करूँ, कोई ग़लत बोलता है तो मन नहीं मानता। सर ने जो कह दिया वही मान लूँ, यह जानते हुए कि......! अरे यार, मैंने भी सिमोन को पढ़ा है। यदि कोई सिमोन को या बेटी फ्राइडन को गलत कोट करेगा तो मैं बीच में बोलूँ नहीं! हद हो गयी! मेरे पापा ने मुझे बचपन से ही सिखलाया है कि जो बच्चे क्लास में क्यों और कैसे पूछते हैं वे हमेशा ही आगे रहते हैं। क्या क्लास में सवाल पूछना गलत है? क्या सेमिनार में गेस्ट-वक्ताओं से किसी विषय पर खुली चर्चा करना गलत है?" सोनल तर्क-वितर्क करने लगी थी। तिमिर चुप होकर उसकी बातें सुनने लगा था।

"तुम नहीं जानते तिमिर, ये सब लोग सेमिनार करने का ढोंग-भर करते हैं। इनका मकसद स्वस्थ और ज्ञानवर्धक चर्चा करना नहीं होता, ये तो बस चापलूसी करना जानते हैं। चापलूसी में दोयम दर्जे के अपने-अपने लोगों को बुलाते हैं, और चाहते हैं कि सभी बच्चे गेस्टों की बकवास चुपचाप सुनते रहें, बीच में कुछ ना बोलें, और बीच-बीच में ताली भी बजाएँ। हॉरिबल.....सॉरी, मैं इतनी चापलूसी नहीं कर सकती और इस तरह की चप्पल-चट संस्कृति में नहीं जी सकती!" सोनल गुस्से में आ गयी थी।

"सानू, तुमने कभी नदी में उग आई बड़ी-बड़ी घास को देखा है? नदी की जब धार तेज होती है, ये घास झुककर लेट जाती है, और इंतज़ार करने लगती है धार के निकल जाने का। और जब पानी की तेज धार निकल जाती है तब घास फिर से पहले जैसी स्थिति में खड़ी हो जाती है। समाज में जीने के लिए भी ऐसी ही तरक़ीब अपनानी चाहिए।"

"अब मुझे नहीं आती इतनी राजनीति करने।" सोनल खीझ से भर उठी थी।

"लेकिन फिर भी, थोड़ा तो डिप्लोमैटिक होना पड़ता है, सानू।" तिमिर ने समझाने की कोशिश की।

"तो तुम क्या चाहते हो? मैं जाकर सो जाऊँ कमल सर और राय सर जैसे लोगों के बिस्तर पर!" बोलते हुए सोनल का गला भर आया था।

"नहीं बच्चे, मैंने ऐसा कब कहा!" तिमिर ने सोनल को सीने से लगा पीठ पर हल्की-हल्की थपकी देने लगा था।

"मैं पागल हो जाऊँगी तिमिर, मैं मर जाऊँगी। मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या करुँ।"

"ऐसी बुरी-बुरी बातें नहीं बोलते। ज़िन्दगी में कितनी सारी ही कठिनाइयाँ आती रहती हैं, फिर भी लोग-बाग उसका सामना करते हैं, डरकर भाग थोड़े जाते हैं। सब ठीक हो जाएगा, तुम चिन्ता ना करो। अच्छा, अब जाओ, हॉस्टल का टाइम हो गया है। समय पर नहीं पहुँची तो डिनर भी नहीं मिलेगा।"

"कल कब मिलोगे? तुम आ जाते हो तो मुझे नई ताक़त मिल जाती है।"

"हाँ, कल मिलते हैं। चल फिर, लव यू है..."

"लव यू है..."

सोनल हॉस्टल की ओर जाने लगी थी। वह आज जैसे भरी जा रही थी। अचानक पलटी और फिर दौड़ पड़ी तिमिर की ओर। तिमिर के क़रीब आकर अचानक उससे लिपट गयी। आँखें डबडबा आई थीं। कंधे पर सिर रखकर सुबकने लगी।

वास्तव में, सोनल की मुश्किलों की शुरुआत तो उसी दिन से हो गयी थी जिस दिन प्रो.रामजनम राय ने उसे ड्रामा-क्लब में शामिल होने के लिए कहा था। सोनल ने अपनी नारी-सुलभ सूक्ष्म दृष्टि से प्रो.राय की गुप्त मंशा भांप ली थी और क्लब की सदस्यता से इनकार कर दिया था। राय साहब ने अपने लिए दूसरा ठिकाना तो ढूँढ़ लिया था लेकिन उनके मन में यह शूल चुभा रह गया था।

लेकिन ऐसा नहीं था कि सिर्फ प्रो.राय ही चिढ़े बैठे थे। सोनल को भोगने की अदम्य इच्छा रखने वालों में प्रो. कमल का नाम भी अव्वल लिया जाता था। प्रो. अर्चना अब उनके लिए काफी नहीं रह गयी थीं। लेकिन सोनल की ओर उनका झुकाव डा. अजय के लिए सुखद न था, क्योंकि सोनल पर नज़र गड़ाए रखने वालों में डा. अजय भी शामिल थे। जब डा. अजय इस बात पर प्रो. कमल से विवाद करते और उनके तथा सोनल की उम्र के बीच के फासले का हवाला देते तब प्रो. कमल प्रेम को परिभाषित करते हुए कहते, "ना उम्र देखो, ना जाति देखो, ना देखो किसी का मन, प्यार करो जब भी, तो देखो केवल तन.....।"

कॉलेज में यह चर्चा आम थी कि डा. अजय सोनल से मन-ही-मन प्यार करने लगे हैं। डा. अजय विभाग के अपने क़रीबी दोस्तों के बीच यह बात बड़ी बेबाक़ी से बताते भी थे कि वे किस तरह अपनी कल्पना में सोनल को कई बार भोग चुके हैं। डा. अजय अभी तक कुँवारे थे इसीलिए उनकी इन बातों को विभाग के अनुभवी लोग बहुत गंभीरता से नहीं लेते थे और यह कहकर टाल जाया करते थे कि कुँवारा आदमी तो कल्पना में जीता ही है।

 उधर अर्चना जी भी बूढ़ों से थक चुकी थीं और अब उनका झुकाव अजय की ओर होने लगा था इसीलिए जब डा. अजय को सोनल के लिए बेचैन होते देखतीं तो चिढ़ जातीं थीं। धीरे-धीरे उनकी यह चिढ़ नारी-सुलभ ईर्ष्या में बदलने लगी थी और समय के साथ-साथ तो अर्चना जी कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो गयी थीं।

डा. अजय विभाग में सबसे जूनियर थे और अभी उनकी नौकरी भी पक्की न थी। ऐड-हॉक पर पढ़ा रहे थे इसलिए सोनल-प्रसंग में वे आगे विवाद करने की स्थिति में नहीं थे। चूँकि इन दिनों अर्चना जी और प्रो. कमल के बीच दूरी बढ़ गयी थी और अर्चना का डा. अजय से क्रश हो गया था इसीलिए वे भी प्रो. कमल और सोनल के संभावित रिश्तों को गाहे-बगाहे हवा देती रहती थीं ताकि डा. अजय और सोनल के बीच किसी भी प्रकार की खिचड़ी के पकने की कोई गुंजाइश बची न रह जाए। डा. अजय चाहते तो थे कि सोनल को इस भँवर से उबार लें और ले जाएँ छुपाके कहीं दूर किसी दूसरे द्वीप पर, लेकिन क्या करते! प्रो.कमल के प्रसाद से ही तो यह लेक्चररशिप मिली थी। और वह भी अभी स्थायी नहीं थी। कॅरिअर का दबाव प्रेम पर भारी पड़ जाता था और वे यह सब सोचकर चुप हो जाते थे कि इस एक स्थायी नौकरी के लिए ऐसी कितनी ही सोनलों को कुर्बान किया जा सकता है!

कहते हैं कि सोनल की मुश्किलें अपनी पराकाष्ठा पर तब पहुँची जब एक दिन प्रो. अर्चना ने अपनी किसी शिष्या रीना खन्ना के हाथों प्रो. कमल का प्रणय-संदेश सोनल को पहुँचवाया था। इसबात पर सोनल बहुत नाराज हुई थी और उसने रीना खन्ना को 'पिम्प' और 'बिच' जैसी पता नहीं कितनी ही गालियाँ दे डाली थी। सोनल को जब रीना खन्ना ने यह बताया कि उसने यह सबकुछ अर्चना मैम के कहने पर किया है, तब सोनल आपे में ना रही थी और उसने जाकर अर्चना को भी बहुत भला-बुरा कह डाला था। उसी दिन से केवल प्रो. अर्चना ही नहीं, आधा विभाग सोनल का विरोधी हो गया था। रीना खन्ना और अर्चना की शिकायत पर विभाग ने सोनल के विरूद्ध प्रशासनिक कार्यवाही की भी शुरुआत कर दी थी। उसी दिन से प्रो. कमल और प्रो. अर्चना के नेतृत्व में विभाग का एक विशेष ग्रुप सोनल के विरूद्ध साजिश रचने में मशगूल हो गया था।

प्रो. कमल रंगीन तबियत के व्यक्ति थे। छप्पन की इस उम्र में भी कैसेनोवा बने फिरते थे। पत्नी को मरे कई साल गुज़र चुके थे। कुछ लोग तो बताते हैं कि उनकी लम्पटई से तंग आकर ही पत्नी ने आत्महत्या कर ली थी। लेकिन कुछ क़रीबी लोग यह बताते हैं कि दोनों पति-पत्नी के बीच किसी शोध-छात्रा को लेकर आए दिन लड़ायी होती रहती थी और एक दिन इसी रोज़-रोज़ की  लड़ाई से तंग आकर गुरुदेव ने शिष्या के साथ मिलकर पत्नी को अपने जीते-जी सती कर डाला था। अब सच्चाई तो किसी को पक्के तौर पर मालूम था नहीं सभी अपने-अपने तरीके से अंदाज भर लगाते थे। पुलिस की रिपोर्ट तो यह बताती थी कि मौत एक असाध्य रोग से पीड़ित होने के कारण हुई थी। हालांकि अबतक तो लोगबाग़ सारा वाकया भूल भी गए थे। मौका-ए-वारदात पर कोई मौजूद भी तो नहीं था! घर में और कोई होता भी नहीं था। एक बेटी थी, वह भी उस समय स्कूल गयी हुई थी। उसी बेटी को लेक्चरर बनवाने के लिए प्रो. कमल पिछले कुछ दिनों से भागा-भागी कर रहे थे। सभी जानते थे कि इसके लिए उन्होंने क्या-क्या जोड़-तोड़ नहीं की थी! अंत में सफल भी हुए।

जब से प्रो. कमल की बेटी को नौकरी मिली थी, विभाग के थर्ड डिविजनरों में भी एक आस जग आयी थी। छात्र उनके इर्द-गिर्द ऐसे डोलने लगे थे जैसे किसी मुर्दा जानवर के इर्द-गिर्द गिद्ध मँडराने लगते हैं। ऐसे भी, डोलना तो फर्स्ट डिविजनरों को भी पड़ता था, ये तो बेचारे थर्ड डिविजनर ही थे! जो डोलने में हिला-हवाली करते, प्रोफेसर साहब उसके कैरियर को ही हिला-डोला देते थे। इसीलिए नहीं चाहते हुए भी सब को डोलना पड़ता था। जो नहीं डोलना चाहते थे वे अपने लिए एस.एस.सी, यू.पी.एस.सी या मीडिया जैसे दूसरे दरवाज़े टटोलना शुरु कर देते थे। और फिर साहित्य पढ़के कौन सी नौकरी रखी हुई थी मल्टी नैशनल्स में! प्रो. कमल जैसे लोग इस तथ्यों से भली-भांति परिचित थे, इसीलिए छात्र-छात्राओं को दुहते भी रहते थे।

तभी तो प्रो. राय ने एक दिन यह कह डाला, "छोड़िये ना सर, आप क्यों चिन्ता करते रहते हैं। अरे, वन का गिदर जाएगा किधर! यदि अकादमिक दुनिया का सहारा चाहिए तो फिर इसी कवरेज एरिया में रहना होगा। और इस कवरेज एरिया के ऑपरेटर हम हैं, सिर्फ हम। नहीं तो जाएँ जहाँ जाना हो। हमने कोई निमंत्रण-पत्र थोड़े ही भेजा था कि आइये और हमारे विभाग की शोभा बढाइये।"

इस बात पर विभाग में ख़ूब ठहाका लगा था। विभाग में ऐसे ठहाके दिन-भर लगते रहते थे। जब भी कोई सीनियर ठहाका लगाता, जूनियर्स यूँ भी ठहाका लगा देते थे। चाहे बात समझ में आई हो या कि नहीं। अधिकतर लोगों को चापलूसी की आदत-सी पड़ गयी थी। वे भी क्या करें, छात्र-जीवन से ही यह सब करते आ रहे थे। ख़ूब मन लगाकर पढ़के भी तो देख लिया था। कहाँ कोई पूछने वाला था, और पचपन प्रतिशत के भी लाले पड़े रहते थे अलग! जबकि जी-हजूरी वाले दूसरे मेडिऑकर्स हमेशा साठ से ऊपर ही रहते थे। ऐसा नहीं था कि यह केवल इसी एक कॉलेज या विभाग की बात थी, कहीं कम कहीं ज्यादा, स्थिति लगभग हर जगह एक जैसी ही थी। पूरी अकादमिक दुनिया में पढ़ाई-लिखाई से ज्यादा ध्यान आदरणीयों की खुशामद पर दिया जाता था। इस खुशामदी संस्कृति में प्रतिभा का कोई अर्थ नहीं होता था। 'ऑब्लाइज करना' और 'ऑब्लाइज्ड होना' अकादमिक दुनिया का आधुनिक यथार्थ बनता जा रहा था और हर पीढ़ी अपने बाद की पीढ़ी में अपने जैसा ही क्लोन पैदा करती जा रही थी। इसतरह एक 'ऑब्लाइजिंग पीढ़ी' बड़ी तेजी से निर्मित होती जा रही थी। इस पीढ़ी के पास पढ़ने-लिखने का अवकाश कम ही होता था, लेकिन इस पीढ़ी के पास भविष्य की संभावनाएँ असीम होती थीं। इस पीढ़ी में शिक्षकों के प्रति श्रद्धा से अधिक आतंक व्याप्त रहता था। लेकिन यह आतंक तभी तक व्याप्त रहता जबतक कि शिष्य अपना लक्षित हित साध नहीं लेता। हित सध जाता और शिष्य गुरु का सबसे कटु आलोचक बन जाया करता और प्रायः स्थितियों में गुरु के प्रतिपक्ष में खड़ा भी हो जाता। हालांकि गुरु को भी इसका कोई मलाल न होता क्योंकि उसने अपनी गुरु-दक्षिणा तो बहुत पहले ही वसूल ली होती थी। इसतरह एक नई तरह की गुरु-शिष्य परम्परा भी बड़ी तेजी से विकसित होती जा रही थी। कहने को तो यह एक जुझारू और कुछ कर गुजरने वाली इक्कीसवीं सदी की युवा-पीढ़ी थी जो आसमान में भी सुराख कर देने का उत्साह रखती थी, लेकिन छात्र-जीवन में इनकी नकेल 'ऑब्लाइज्ड होने' वाले शिक्षकों के हाथों में इस सख्ती से जब्त रहती थी कि ये बेचारे मिमियाते रह जाते थे। भय से सिर उठा नहीं पाते थे। सिर उठाएँ भी तो उठाएँ कैसे! 'इंटरनल्स असेस्मेंट' का सवाल सामने खड़ा हो जाता था। एकबार सिर उठा नहीं कि बस समझो कैरियर गया जॉगिंग करने! 'इंटरनल्स असेस्मेंट' में मिलने वाले प्राप्तांक से लेकर एम.फिल में दाखिले तक और पी-एच.डी से लेकर लेक्चररशिप तक, इसतरह सिर उठाने का खामियाजा आने वाले कई वर्षों तक कैरियर के कई पड़ावों में भुगतना पड़ सकता था। दूसरी तरफ, गाँव-घर में बैठे माता-पिता कहाँ समझने को तैयार थे इस बात को कि 'इंटरनल्स असेस्मेंट' में कम प्राप्तांक का कारण पढ़ाई-लिखाई में की गई कोताही नहीं, बल्कि कुछ और है। वे तो बस यह मान लेते थे कि बच्चे ने ही पढ़ाई-लिखाई में कोताही की होगी। दूसरी बातें तो उनकी कल्पना से भी परे की बात होती थी। इसीलिए बच्चे भी इन प्रो. कमल और प्रो.राय जैसे शिक्षकों के आगे-पीछे डोलने में ही अपनी भलाई समझते थे। इस खेल में सबसे अधिक कठिनाइयाँ सोनल जैसी लड़कियों के सामने आ रही थीं जो किसी के सामने किसी भी तरह से आत्मसमर्पण को तैयार न थीं। शायद इसीलिए कैम्पस की लड़कियों में 'सिनिसिज्म' बड़ी तेजी से बढ़ता जा रहा था।

जब से विश्वविद्यालय प्रशासन ने 'इंटरनल्स असेस्मेंट' का नियम बनाया था, घास-फूसों में भी जैसे हरियाली छा गयी थी। यह एक ऐसी व्यवस्था थी जहाँ हरेक क्लोन साठ प्रतिशत या उससे अधिक के सपने बुनने लगा था, जबकि प्रतिभाशाली छात्रों का तबका भयाक्रांत हो गया था। छात्राओं की तो जैसे घिग्गी ही बँध गई थी। अकादमिक दुनिया का सफर उनके लिए अब इतना आसान न रह गया था। इस व्यवस्था में सभी शिक्षक विलक्षण माने जाने लगे थे और छात्र भी उनका गुणगान करते नहीं थकते थे। तभी तो कॉलेज की हस्तलिखित पत्रिका में भी छपा प्रो.अर्चना का लेख छात्रों के बीच ख़ूब पढ़ा गया और टर्मपेपर के लगभग हर पृष्ठों पर उस लेख से उद्धरण दिए जाने लगे। प्रो. अर्चना भी इससे फूली नहीं समा रही थीं और कई शीर्षस्थ आलोचकों को भी अपने इस लेख से आलोचना के गूढ़ सीखने की प्रेरणा दे डाल रही थीं। टर्म पेपर में उन लड़कों को ख़ूब अच्छे अंक प्राप्त हुए जिन्होंने अर्चना के इस लेख को उद्धरित किया था। अनंत पासवान जैसे कई ऐसे छात्र भी थे जो टर्म-पेपर आदि तो नहीं लिख पाते थे लेकिन विविध अन्य तरीकों से प्रो. अर्चना को 'ऑब्लाइज' किया करते थे। शायद इसीलिए उन्हें 'इंटरनल्स’ में अच्छे अंक मिल जाते थे। इस तरह के कुछ दबंग छात्रों का प्रो. अर्चना जैसे प्रोफेसरों के घर सतत आना-जाना लगा रहता था। प्रो. अर्चना भी ऐसे छात्रों को अपना ख़ूब स्नेह देतीं और ऐसी आवाजाही के लिए अपने दरवाज़े बड़ी दरियादिली से खोल देतीं। उनके घर छात्रों की यह आवाजाही अगर कभी बाधित भी होती तो तभी जब अर्चना जी के पति शहर में मौजूद होते थे। उनके पति श्री प्रभाकर बेलवाल किसी मल्टी नैशनल्स में काम करते थे और साल के छ: महीने शहर से बाहर ही रहते थे।

ऐसा नहीं था कि ऐसी स्थिति के लिए किसी व्यक्ति विशेष को जिम्मेवार ठहराया जा सकता हो। यह एक 'चेन-क्लोनिंग' जैसी स्थिति थी जहाँ हर एक व्यक्ति अपनी-अपनी मजबूरियों से बँधा हुआ था। शिक्षक भी क्या करते! जीवन-भर तो 'डिप्राइव्ड' ही रहे थे। कुछ भी तो नहीं मिला था जीवन में! ना सत्ता, न शरीर। एक नौकरी भी मिली थी, वो भी पता नहीं उसके लिए क्या-क्या नहीं करना पड़ा था! जीवन-भर तो शोषित ही होते रहे थे! प्रो. अर्चना के तो पिता इतने बड़े आलोचक ही थे, लेकिन अर्चना जी को भी लेक्चररशिप के लिए क्या कोई कम पापड़ बेलने पड़े थे! ज्यादातर लोगों की भी यही हालत थी, इसीलिए अब जबकि सत्ता हाथ में आई थी, कोई भी व्यक्ति मिला हुआ छोटा-से-छोटा मौका चूकना नहीं चाह रहा था। सभी अपने-अपने ढंग से पिल पड़े थे अपनी-अपनी कुंठा-तुष्टि में।


अर्चना को सोनल के कहे हुए शब्द भुलाये नहीं भूल रहे थे। मन इन्तकाम को मचला जा रहा था। अर्चना ने प्रो. कमल से लेकर प्रो. राय और डा. अजय तक से समीकरण फिट कर लिया और साजिश को अंतिम रूप देने की योजना बनाने लगी। योजना को अंतिम रूप देने का कार्य साल के अंतिम दिन पर रखा गया। उस दिन न्यू ईयर की पार्टी प्रो. कमल के घर होनी थी जहाँ इस योजना को अंतिम रुप दिया जाना था।

प्रो. कमल पर नशा चढ़ता जा रहा था। शराब भी अपना काम ईमानदारी से कर रही थी और बारह बजने के पहले ही प्रो. कमल गाना गाने लगे थे। प्रो. कमल जब गाने लगते, शिष्यगण यह समझ जाते कि अब बोतल सामने से हटा ली जानी चाहिए। लेकिन प्रोफेसर साहब कहाँ मानते! कहते "ये बोतल लेकर मत जाओ। सुनो, तुम लोग अब और न पीओ क्योंकि तुम लोगों की सूरत मुझे धुँधली दिखने लगी है।"

जब प्रो. कमल नशे में आ गए तो प्रो. राय ने चुटकी लेनी शुरू की।  प्रो. राय और प्रो. कमल के छत्तीस के आंकड़े रहते थे। अब तो खैर सीनियॉरिटी की लड़ाई शुरू हो गयी थी, लेकिन इनकी पहली लड़ाई काफी सालों पहले तब शुरू हुई थी जब अर्चना पहली बार इस कॉलेज में गेस्ट-लेक्चरर बनकर पढ़ाने आई थी और राय साहब ने उसे 'मेरी वाली' घोषित कर दिया था। लेकिन उसी समय प्रो. कमल 'रोटेशनल-हेड' बन गए और अर्चना पाला बदलकर प्रो. कमल के अहाते में जा गिरी थी। कहते हैं कि अर्चना जी की स्थायी लेक्चररशिप के लिए प्रो. कमल 'यूनिवर्सिटी-हेड' तक से भिड़ जाने का जोखिम उठा लिया था और अंत में अपने हर मिशन में सफल रहे थे। उसी समय से प्रो. कमल और प्रो. राय के बीच का आंकड़ा तिरसठ से बदलकर छत्तीस का हो गया था।

प्रो. राय ने चिढ़ाने वाले अंदाज में प्रो. कमल से पूछा, "क्या हुआ बॉस, वेनू आपके घर का है, इसका मतलब तो यही है कि मछली फँसी नहीं अबतक! मामला फिट हुआ नहीं क्या?" राय ने पके हुए जख़्म को कुरेद दिया।

प्रो.कमल ने राय की मंशा भांप ली। नशे में गुस्सा तेज चढ़ता है। गुस्से में आ गए।

अपनी जांघ ठोकते हुए बोल पड़े, "क्या बात करते हो राय, कैसी-कैसी सांड लड़कियों को नकेल पहनाकर इसी जंघे पर बिठाया है इस डा. राजकमल रजौरिया ने। अरे, ये अर्चना बेलवाल भी क्या कोई कम सांड थी! डाली थी कि नहीं मैंने नकेल, भूल गए? सबकुछ तुम्हारी आँखों के सामने ही तो हुआ था, याद नहीं है?"

अर्चना का नाम सुनते ही राय तिलमिला गए। यहाँ उनकी दुखती रग दब गयी थी। राय साहब को आजतक इस बात का मलाल था कि अपनी लाख़ कोशिशों के बावजूद वे अर्चना को भोग नहीं पाए थे और प्रो. कमल ने शिकार को उनके जबड़े से छीन लिया था। अभी दोनों भिड़ने ही वाले थे कि वहाँ अर्चना आ गई, और दोनों चुप हो गए थे।

प्रो. राय ने अपनी योजना बताई - "देखिए भाई, ऐसे तो प्रिन्सिपल साहब नहीं मानेंगे। वे ठोस सबूत माँगेंगे...।"

अभी राय की बातें समाप्त भी नहीं हुई थी कि अर्चना बीच में टपक पड़ी, "गवाह मैं बन जाती हूँ। रीना खन्ना से सारी बातें प्रिन्सिपल साहब के सामने कहलवा दूँगी, आप यह सब मुझपर छोड़ दीजिए।"

प्रो, राय उनके उतावलेपन पर थोड़े मुस्कराये और फिर गंभीर होते हुए बोले, "आप दोनों की गवाही नहीं चलेगी, क्योंकि आप दोनों तो पार्टी ही हैं। किसी तीसरे को ढूँढिए। और फिर यह मत भूलिए कि प्रो. सुचिता श्रीवास्तव सोनल के पक्ष में खड़ी हैं। दूसरी ओर, प्रो. जकरिया और प्रो. राणा तो बिना ठोस सबूत के टस-से-मस नहीं होने वाले!"

"तो फिर उपाय क्या है?" डा. अजय ने सवाल उठाया।

"अजय, क्यों ना तुम ही गवाही दे दो। तुम प्रिन्सिपल साहब के सामने यह कह दो कि सोनल रीना खन्ना प्रकरण के समय तुम मौका-ए-वारदात पर मौजूद थे।" अर्चना ने अजय की ओर प्यार भरे अंदाज़ से देखते हुए कहा।

"नहीं अर्चना जी, मुझे रहने दीजिए, उसके अंकल मेरे दोस्त हैं, मेरा गवाही देना अच्छा नहीं लगेगा, प्लीज़।" अजय ने अपनी मजबूरी जतायी।

इतना सब सुनकर प्रो. कमल बोल पड़े, "अरे यार, जकरिया और राणा तो हम लोगों के विरोधी हैं ही, इसमें आश्चर्य की क्या बात है। इन सालों की चले तो इस देश को सऊदी अरबिया बनाके ही छोड़ें! ऐसा थोड़े है कि ये सोनल के बड़े भारी हितैषी हैं! इनकी रंजिश तो हिन्दू राष्ट्र की हमारी परिकल्पना से है। ये लोग हमें सांप्रदायिक मानते हैं और इन्हें उम्मीद है कि वे सोनल को एक-न-एक दिन अपने खेमे से जोड़ लेंगे, इसीलिए आज हितैषी बनकर खड़े हो गए हैं।" फिर थोड़ा दम भरकर बोले, "मैं तो कब से कह रहा हूँ कि कोई भी जतन कर लोगे, ये नहीं मानेंगे। आप सब यदि आज वामपंथी खेमे का दामन थाम लें, देखिए जकरिया जैसे लोगों का सारा आदर्श कैसे एक मिनट में भाप बनकर उड़ जाता है!"

"और सुचिता?" राय ने पूछा।

"पगली है साली। अरे, ये सोनल हमेशा जो सीमोन-सीमोन बोलती रहती है ना, इसीलिए सुचिता को लगता है कि सोनल बड़ी भारी फेमिनिस्ट है, और इसतरह वह उसी के पाले की शिष्या है। भूल जाइये इनको, जैसी परिस्थिति आएगी, निपट लिया जाएगा।" प्रो. कमल ने साथियों को विश्वास दिलाया।

"सर, मेरे मन में एक योजना है।" राय ने बोलते हुए सब की ओर देखा। जब सभी उनकी ओर उत्सुकतावश देखने लगे तब उन्होंने अपनी योजना बताई, "मुझे लगता है कि मेरी यह योजना फुल-प्रूफ योजना है, बाकी आप सब समझदार हैं।"

"बताइये तो सही, योजना क्या है?" कमल ने बेसब्री से पूछा।

प्रो. राय ने बताना शुरू किया, "देखिए सर, सोनल यदि हम सब में सबसे ज्यादा विश्वास किसी एक व्यक्ति पर करती है तो वह मैं हूँ। ऐसा करता हूँ कि कल मैं उसे अपने पास बुलाता हूँ। पहले तो उसे यह बोल-बोलकर ख़ूब डराऊँगा- "तुम्हारे पापा को बुलवाया जाएगा, उनको ह्यूमिलियेशन झेलना होगा, तुम्हें कॉलेज से निकाला जाएगा, सब जगह बदनामी होगी, मामला मीडिया में भी जाएगा, फिर कहीं एडमिशन भी नहीं मिलेगा तुम्हें, पूरा कॅरिअर बरबाद हो जाएगा आदि-आदि।" फिर उसे एक सलाह दूँगा- "वह एक 'कॉन्फेशनल-स्टेटमेंट' दे जिसमें वह अपने ऊपर लगे सारे आरोपों को सच बताते हुए लिखित में माफी माँगे।" फिर मैं उससे कहूँगा - "जब तुम माफी माँग लोगी, तब मैं ख़ुद जाकर प्रिन्सिपल साहब को समझाऊँगा और कॉलेज प्रशासन से बात करके मामले को रफा-दफा करा दूँगा।"

थोड़ी देर चुप्पी छाई रही, फिर राय ने सब की ओर देखते हुए कहा, "...मुझे पूरी उम्मीद है कि सोनल मेरी बात मान लेगी। और जब एकबार उसके हाथ का लिखा हुआ 'कॉन्फेशनल-स्टेटमेंट'  हमारे हाथ लग जाएगा, मैडम सुचिता या किसी भी शूरमा के लाख़ विरोध के बावजूद कॉलेज प्रशासन सोनल को रस्टिकेट करने में एक पल की भी देरी नहीं करेगा....।"

अभी प्रो. राय की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि सब के चेहरे उत्साह से खिल उठे और उत्साहातिरेक में सभी एक साथ बोल पड़े, "...और हमलोग अपनी इस लड़ाई में पक्के तौर पर जीत जाएँगे..."

अर्चना दाँत पीसते हुए भुनभुना पड़ी, "बड़ी मिस इंडिया बनी घूमती फिरती है, साली को पागल बनाकर बीच सड़क पर दिन-दहाड़े चर्सियों और मवालियों के हाथों नहीं नोंचवाया, तो मेरा नाम भी ठाकुर अर्चना सिंह नहीं...।"

योजना पर सहमति बनते ही सभी अपनी-अपनी भूमिका को अंजाम देने में जुट गए। सबकुछ वैसा ही हुआ जैसी कि योजना थी। प्रो.राय सोनल की मासूमियत को झांसा देने में अंततः: सफल हुए। सोनल के 'कॉन्फेशनल-स्टेटमेंट' और कॉलेज के इन वरिष्ठ प्राध्यापकों की गवाही के आधार पर सोनल को तालाब की मरी हुई मछली मान लिया गया। और आखिरकार कॉलेज प्रशासन ने सोनल को रस्टिकेट कर दिया।

अबतक तिमिर सोनल के बहुत क़रीब आ चुका था और उसकी ज़िन्दगी के मायने तय करने लगा था।

 तिमिर ने अपनी पढ़ाई-लिखाई आई.आई.टी से पूरी की थी और सोनल से अधिक व्यावहारिक व्यक्ति था। सोनल ने यदि सभी बातें खुलकर उसे पहले ही बता दी होती तो शायद वह स्थितियों को सुधार भी लेता, लेकिन सोनल ने उसे सारी बातें तब बतार्इं जब चिड़िया खेत चुग चुकी थी। 'कॉन्फेशनल-स्टेटमेंट' देने के बाद सोनल को यह लगा था कि अब सबकुछ ठीक हो गया है और प्रो.राय सब ठीक कर देंगे। सबकुछ ठीक हो जाने के विश्वास के बाद ही सोनल ने तिमिर को सारी बातें बताई थीं। वह भी क्या करती! दोस्ती नई-नई थी। सोचती थी कि यदि तिमिर सबकुछ जान जाएगा तो उससे दोस्ती तोड़ लेगा। उसके इसी डर ने उसे रोके रखा और उसने तिमिर से सबकुछ तभी कहा जब उसे प्रो.राय का पक्का आश्वासन मिल गया था।

ऐसा नहीं था कि परिस्थितियों के दबाव में सोनल ने अपने-परायों से मदद नहीं माँगी थी! लेकिन क्या करती, दोस्तों में कहाँ थी इतनी हिम्मत कि प्रो.अर्चना और प्रो.कमल जैसों का सामना कर पाते! उसके एक अंकल ने तो ओझा बनकर भूतों से बात करने की कोशिश भी की थी लेकिन भूत तो भूत थे, कहाँ मानने वाले थे!

अर्चना ने तो साफ-साफ कह दिया था, "एक सड़े हुए आम के लिए हम पूरी टोकरी ख़राब नहीं कर सकते।"

हालाँकि अंकल ने बड़ी मिन्नत की थी और सोनल को बच्ची समझकर माफ़ कर देने की गुहार भी लगाई थी, लेकिन उनकी एक नहीं चल पाई थी। वास्तव में, ओझा जिस सरसों से भूत भगाने की कोशिश कर रहा था, भूत तो उस सरसों में ही घुसा बैठा था। इसीलिए ओझे की दाल नहीं गल पाई थी और प्रेत-पीड़िता छटपटाती रह गयी थी।

लेकिन तिमिर इतना आसान गणित न था। उसे जब सारा माजरा समझ में आया तो वह सतर्क और आक्रामक हो आया। उसने किसी प्रकार की मिन्नत नहीं की। उसने सीधे-सीधे लड़ायी अपने हाथों में ले ली। अब यह लड़ाई हिन्दू कॉलेज के चंद कद्दावरों और सोनल के बीच की नहीं रह गयी, बल्कि कद्दावरों और तिमिर के बीच की बन गयी। तिमिर आई.आई.टी. में फाइनल ईयर का छात्र था और अपने यहाँ की छात्र-राजनीति में अच्छी दखल रखता था। प्रशासन के सभी हथकंडों से परिचित तो था ही, सोनल की तरह कोरा कागज भी नहीं था। वह सोनल के लिए रणनीतियाँ तय करने लगा। अब सोनल अकेली नहीं रह गयी थी। तिमिर ने भी इस साजिश का पर्दाफाश करने की ठान ली थी और इसके लिए उसने एड़ी-चोटी एक कर दी।

सबसे पहले उसने सूचना का अधिकार का उपयोग करते हुए कॉलेज प्रशासन से रस्टिकेशन से संबंधित सभी ब्यौरे माँगे। फिर उसने विश्वविद्यालय प्रशासन को लिखा और कुलपति महोदय से इस मामले में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया। विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी तत्परता दिखाई और इस मामले को एक छात्र के कैरियर का मामला बताते हुए इसे बहुत गंभीरता से लिया। कुलपति महोदय ने इस मामले की स्वतंत्र जाँच हेतु तत्काल एक समिति गठित की और सोनल के रस्टिकेशन को समिति की जाँच-रिपोर्ट आने तक स्थगित करने का आदेश दिया।

इन सभी कार्रवाइयों के होते-होते लगभग बीस दिन गुजर गए। इन बीस दिनों में तिमिर ने सोनल का साथ पल-भर के लिए नहीं छोड़ा। ऐसे में सोनल की ज़िन्दगी के अबतक के सबसे कठिन बीस दिन सोनल के लिए सबसे खूबसूरत बीस दिन बन गए थे। सोनल के लिए ये बीस दिन विध्वंसकारी हो सकते थे यदि ऐन वक्त पर तिमिर ने आकर सोनल का हाथ नहीं थाम लिया होता।

तभी तो जब भी दोनों मिलते सोनल एकबार यह जरूर कह डालती,

"तिमिर, तुम्हें भगवान ने मेरे पास ऐसे समय भेजा, जब मुझे तुम्हारी सबसे अधिक जरूरत थी। यदि तुम नहीं मिलते तो, या तो मैं पागल होकर सड़कों पर घूम रही होती, या फिर मैंने आत्महत्या कर ली होती।"

"क्यों हमेशा गंदी-गंदी बातें बोलती रहती हो?"

"तुम नहीं जानते हो तिमिर, अर्चना मैम ने तो साफ-साफ कहा था कि वो मेरा कैरियर बरबाद करके ही दम लेंगी। जरा सोचो, अगर तुम ना होते तो उनकी मंशा तो पूरी हो ही गयी थी ना! थैंक्स टू भगवान जी, कि उन्होंने मेरी सुन ली और मुझे दुष्टों के हाथों में जाने से बचा लिया।" इतना बोलते हुए सोनल अपने पीछे खड़े पेड़ को पकड़ लेती और बोलती 'टच वुड'।

सोनल का 'टच-वुड' बोलना तिमिर को बहुत भाता था और उसकी देखा-देखी वह भी गाहे-बगाहे पेड़ को छूकर 'टच-वुड' बोलने लगा था। लेकिन जब भी तिमिर किसी बात पर 'टच-वुड' बोलता, सोनल चेहरा सख्त बनाकर बोल पड़ती, "इसबात पर 'टच-वुड' नहीं बोलना था।"

फिर हँसते हुए तिमिर के दोनों गालों को अपनी चिकोटी में दबाते हुए प्यार से पूछती, "आखिर तुम यह कब सीखोगे कि 'टच-वुड' कब बोलना चाहिए और कब नहीं।"

यह सब सुनकर तिमिर भाव-विभोर हो जाता और सोनल को गले से लगाते हुए बोलता, "लव यू है।"



सोनल ने करवट ली और डायरी के पन्ने पर आगे लिखा, "तिमिर, तुमने जब समेट लिया था मेरे अतीत को एकबारगी अपनी बाँहों में और मेरा वह अनंत सा दिखने वाला अतीत, एकबारगी सिमट कर बेजान-सा झूलने लगा था तुम्हारे कंधों पर, तब जाकर यह अहसास हुआ था कि रात की बड़ी-बड़ी भयावह परछाइयाँ, कितनी बेमानी लगने लगती हैं, दिन के उजाले में। लव यू है तिमिर...लव यू है हमेशा..."

सोनल इससे आगे कुछ ना लिख पाई। आँखें भर आर्इं, कुछ भी साफ-साफ दिख नहीं रहा था। डायरी के कोरे कागज हवा के थपेड़ों से फड़फड़ाकर ख़ुद-ब-ख़ुद पलटने लगे थे।

अनुज
798, बाबा खड़ग सिंह मार्ग, नई दिल्ली -110001.
फोन :-   09868009750

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सरकारें तो उन मुल्कों में भी होती हैं जहाँ dictatorship होती है - जावेद अख्तर @Javedakhtarjadu

मैं यह दिल से समझता हूँ कि इस सरकार में बड़े क़ाबिल-लोग भी मौजूद हैं जो बहुत अच्छा काम करते हैं और कर सकते हैं , उनके ऊपर यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि ये 'सो कॉल्ड फ्रिंज'... जो की न सिर्फ मामूली लीडर्स हैं बल्कि एमएलए भी हैं एमपी भी हैं मिनिस्टर ऑफ़ स्टेट भी हैं और कभी-कभी मिनिस्टर भी हैं !!! - इनको क़ाबू में लें - जावेद अख्तर


जावेद अख्तर की राज्यसभा स्पीच के अंश

जावेद अख्तर साहब ने राज्यसभा में अपनी फेयरवल स्पीच में जो बातें कही हैं - वे १०० फीसदी लॉजिकल हैं (मेरी समझ में). स्पीच को पांच-सात दफा सुनने के बाद और साथ-के-साथ सोशल मीडिया पर स्पीच के चुन-चुन के पेश किये जा रहे अंशों को देखने और उसे दिखाने-की-मंशा  (व्यथित करती है) ने मुझ पर यह दबाव डाला कि आपके सामने पूरा विडिओ और जितना संभव हो सके - जावेद साहब की स्पीच शब्दों में - दोनों आपतक ले आयी जाएँ ताकि उन्होंने जो कहा वह 'हमसब' समझें  और 'हमसब' फ्रिंज एलेमेंट्स की मंशाओं का नाश कर सकें और अपनी आत्मा और आने वाली पीढ़ी के अपराधी नहीं बनें...
भरत तिवारी

जावेद अख्तर की राज्यसभा स्पीच के अंश :


— सरकारें तो उन मुल्कों में भी होती हैं जहाँ dictatorship होती है ... जहाँ sheikhdom और बाशाह्तें होती है लेकिन डेमोक्रेसी और इन हुकूमतों में फर्क क्या है? वहां सिर्फ सरकार होती है, यहाँ सरकार और opposition दोनों होती हैं 

“चमन में इत्तेफाके रंगो बू से बात बनती है तुम्ही तुम हो तो क्या तुम हो, हमी हम हैं तो क्या हम हैं”


— जो हमारे पास है उसका हम अहसान नहीं मानते - वो है हमारा संविधान, ज़रा   उठा कर देखिये - यहाँ से चलेंगे तो दूसरी डेमोक्रेसी Mediterranean cost पर मिलती है 


— यह संविधान हमें डेमोक्रेसी देता है लेकिन डेमोक्रेसी - यह याद रखिये - बगैर secularism के नहीं हो सकती। ये वो मुल्क हैं जिनमें secularism नहीं है और इसीलिए डेमोक्रेसी नहीं है। डेमोक्रेसी यह मान कर चलती है कि हर इशू पर माइनॉरिटी ओर मैजोरिटी बदलेगी।.. अगर मैजोरिटी और माइनॉरिटी की कोई ऐसी परिभाषा बना दी जाए जो परमानेंट है तो फिर डेमोक्रेसी तो उसी दिन ख़त्म हो गयी। 


— हम अगर सेकुलरिज्म की बात करें, इसे बचाने की कोशिश करें तो किसी एक वर्ग या दूसरे वर्ग पर अहसान नहीं कर रहे; हमको सेकुलरिज्म इस लिए बचाना होगा कि इसके बगैर डेमोक्रेसी ही नहीं बच सकती। 


— हमें यह सोचना होगा कि यह शक्ति, यह सिस्टम, यह कानून सब हमारे पास है... तो हम तरक्की डेवलपमेंट करना चाह रहे हैं तो कौन सा, किसका डेवलपमेंट और किसके लिए और किसकी कीमत पर। 


— डेवलपमेंट जीडीपी नहीं है डेवलपमेंट है ‘ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स’


— कोई भी पार्टी हो, वो चाहती तो यही है कि इस देश का भला हो और अगर हम ज़रा सा उठ जाएँ ...... मैं देखता हूँ कि जहाँ ये समस्याएं हैं - बेरोज़गारी की, हॉस्पिटल की, दवा की , स्कूल की, कॉलेज की, इन्फ्रास्ट्रक्चर की वहां हम अपनी एनर्जी किन चीज़ों में लगा रहे हैं? वो (एनर्जी) क्यों वेस्ट हो ?


— आये दिन कुछ ऐसी बात सुनने को आती है जो न सुनते तो अच्छा था! अभी दो-तीन दिन पहले एक साहब हैं जिन्हें यह ख़याल हो गया है कि वो नेशनल लीडर हैं... हालांकि हकीक़त ये है कि वो हिन्दुस्तान के एक स्टेट आन्ध्रा के एक शहर हैदराबाद के मुहल्ले के लीडर हैं। उन्होंने ये कहा कि वो भारत माता की जय नहीं कहेंगे... इसलिए कि संविधान उन्हें नहीं कहता ! संविधान तो उन्हें शेरवानी पहनने को भी नहीं कहता टोपी लगाने को भी नहीं कहता। मैं यह जानने में इंटरेस्टेड नहीं हूँ - कि भारतमाता की जय कहना मेरा कर्तव्य है या नहीं है... ये मैं जानना भी नहीं चाहता... इसलिए कि ये मेरा कर्तव्य नहीं अधिकार है - और मैं कहता हूँ - भारतमाता की जय ... ये कौन लोग हैं ? मैं इस बात को और उनके इस ख़याल को जीतने सख्त वर्ड मुमकिन हैं उनमें condemn करता हूँ... और मैं इतनी ही सख्ती से एक और नारे को condemn करता हूँ - जो अक्सर हिंदुस्तान के शहरों में बोला जाता है - "मुसलमान के दो स्थान कब्रिस्तान या पाकिस्तान" ! 


— अब हम रुक नहीं सकते, वक़्त रुकता नहीं है, या तो हम आगे जायेंगे या पीछे जायेंगे... हमें फ़ैसला करना है - हम इस दो-राहे पर हैं… अक्लमंद वो है जो तजुर्बे से सीखे लेकिन उससे ज्यादा अक्लमंद वो है जो दूसरे के तजुर्बे से सीखे .......... 


— देख लीजिये - जिन मुल्कों में धर्म का बड़ा बोलबाला है, जिन मुल्कों में यह यकीन है कि गुजरा हुआ ज़माना बड़ा अच्छा था, जिन मुल्कों में यह ख़याल है कि जो हम कह रहे हैं वही ठीक है -

"सब तेरे सिवा काफ़िर इसका मतलब क्या
सर फिरा दे इन्सान का ऐसा ख़ब्त-ए-मज़हब क्या "


— जिन मुल्कों में ये ख़ब्त है - वो कहाँ गए हैं? जहाँ बात पर जुबान कटती है, जहाँ आप एक लफ्ज़ बोल दें जो धर्म के ख़िलाफ़ हो, मजहब के ख़िलाफ़ हो तो फांसी दे दी जाती है - वो मुल्क हमारी मिसाल बननी चाहिये या वो जहाँ हर तरह की आज़ादी है - जहाँ 'लास्ट टेम्पटेशन ऑफ़ जीसस क्राइस्ट' भी बन सकता है? कौन से मुल्क सही हैं ? कहाँ इंसान आराम से है ? कहाँ ज़िन्दगी बेहतर है ? 


— ये दो-राहा है, आजकल जिसे हम फ्रिंज कहते हैं वो फ्रिंज दिन-ब-दिन बड़ी होती जा रही है - और उसकी ज़रूरत नहीं है। मैं यह दिल से समझता हूँ कि इस सरकार में बड़े क़ाबिल-लोग भी मौजूद हैं जो बहुत अच्छा काम करते हैं और कर सकते हैं , उनके ऊपर यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि ये 'सो कॉल्ड फ्रिंज'... जो की न सिर्फ मामूली लीडर्स हैं बल्कि एमएलए भी हैं एमपी भी हैं मिनिस्टर ऑफ़ स्टेट भी हैं और कभी-कभी मिनिस्टर भी हैं !!! -  इनको क़ाबू में लें। 


— Opposition को भी सोचना चाहिए और सरकार को भी कि जहाँ काम हो, ये एडजोर्नमेंट हमें आगे नहीं ले जायेंगे और ये पोलोराइजेशन भी हमें आगे नहीं ले जायेगा।


— एक ऐसा हिन्दुस्तान बने - जो बन सकता है बहुत मुश्किल नहीं है बहुत आसान है - जहाँ हर सर पे छत हो, जहाँ इस तन पर कपड़ा हो, जहाँ पेट में रोटी हो जहाँ हर-एक के पास दवा हो , इलाज हो, स्कूल हो, सड़कें हों, बिजली हो, पुल हो... हो सकता है 

ज़रा-सा बस अगले इलेक्शन की परवाह बंद कर दें आदमी तो... सबकुछ हो जायेगा।

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अहम से ऊपर उठने की क्षमता — हिंदी अकादमी के सम्मान 2015-16


असगर-वजाहत-राजी-सेठ-सोनी-सोरी कंवल-भारती-असद जैदी-अनुपम-मिश्र-देवेंद्र-मेवाड़ी-दीपचंद्र-निर्मोही-जयदेव-तनेजा-अलका-पाठक-अमृत मेहता-प्रियदर्शन-ओम-थानवी-विमल-थोराट-मालचंद-तिवाड़ी

Hindi Akademi Delhi

Awards 2015-16


भाई-भतीजावाद, मैं तेरी पीठ खुजाऊं और तुम मेरी के दौर में दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी के सम्मानों की घोषणा में शामिल नामों को जानने के बाद – विश्वास ज़रा मुश्किल से ही होता है कि इन नामों का अध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा से वैसा कोई सरोकार नहीं है जैसा कि अमूमन हर-जगह होता है – बंदरबांट। निःसंदेह मैत्रेयी पुष्पा का यह चुनाव मठाधीशों की चयन-सोच (यदि होगी तो) में हिलोल पैदा किये जा रहा होगा... हो सकता है कि इससे वे कुछ सीख भी लें और उनकी नज़रों का दायरा बढ़े और उन्हें चयन के समय वह नाम भी याद रहें जो उनके खेमे के तो नहीं हैं लेकिन साहित्य हैं, समाज हैं! सम्मान की घोषणा के बाद से ही बार-बार ज़ेहन में यह बात उठ रही है कि राजेन्द्र यादव जी ने अपने सानिध्य में आये लोगों में दुर्लभ-गुण, अहम से ऊपर उठने की क्षमता का जो बीज बोया था वह ‘वर्तमान सामाजिक स्थितियों’ में वह छाया दे रहा है जिसके लिए राजेन्द्र यादव जाने जाते थे।

अकादमी की ओर से दिया जाने वाला शलाका सम्मान इस बार असगर वजाहत को दिया जा रहा है। सम्मान के बतौर उन्हें 5 लाख रुपये की धनराशि भेंट की जायेगी। इसके अलावा साहित्य, कला, समाज, संस्कृति को बढ़ावा देने वाले 14 लोगों को सम्मानित किया जा रहा है।

दिल्ली शिखर सम्मान से साहित्यकार राजी सेठ और संघर्ष करते हुए अपनी जान गंवाने वाली संतोष कौली की स्मृति में दिया जाने वाला सम्मान आज संघर्ष की मिसाल बन चुकी आदिवासी सोनी सोरी को दिया जा रहा है। इन दोनों को सम्मान स्वरूप 2—2 लाख की धनराशि दी जायेगी।

विशिष्ट योगदान कंवल भारती,
काव्य सम्मान असद जैदी,
गद्य विधा सम्मान अनुपम मिश्र,
ज्ञान प्रौद्योगिकी सम्मान देवेंद्र मेवाड़ी,
बाल साहित्य सम्मान दीपचंद्र निर्मोही,
नाटक सम्मान जयदेव तनेजा,
हास्य व्यंग्य सम्मान अलका पाठक,
अनुवाद सम्मान अमृत मेहता,
पत्रकारिता सम्मान (इलैक्ट्रॉनिक मीडिया) प्रियदर्शन,
पत्रकारिता सम्मान (प्रिंट मीडिया) ओम थानवी,
हिंदी सेवा सम्मान विमल थोराट और
हिंदी सहभाषा सम्मान मालचंद तिवाड़ी

को दिया जाएगा। इन सभी को सम्मान स्वरूप एक—एक लाख रुपये की सम्मान राशि दी जायेगी।

दिल्ली हिंदी अकादमी के पुरस्कारों की सूची में इस बार स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों और सम्मान के सही दावेदारों की उपस्थिति उम्मीद जगाती है कि अकादमी पुरस्कारों आगे भी इसी तरह सही नामों का चयन करेगी। संघर्ष की प्रतीक ‪बन चुकी आदिवासी महिला सोनी‬ सोरी के साथ विमल थोराट और अलका पाठक का नाम भी शामिल है।

अब तक ऐसा बहुत कम होता आया है कि साहित्य-संस्कृति और कला के संस्थानों में सुयोग्य और ईमानदार लोगों का चयन हो। ज्यादातर सत्ता के नजदीक रहने वाले समझौतावादी लोग ही ऐसे पदों की 'शोभा' बढ़ाते हैं, लेकिन जब सही व्यक्ति सही पद पर हो तो उसका असर जरूर दिखता है। चर्चा भी है कि दिल्ली राज्य सरकार की संस्था हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष यदि मैत्रेयी पुष्पा नहीं होतीं तो शायद अकादमी के पुरस्कारों में दलित-आदिवासी और अल्पसंख्यक का यह वैविध्य नहीं दिखता. सबसे बड़ी बात कि गोंडवाना की संघर्षशील सोनी सोरी को दिल्ली में पुरस्कृत किया जाना काबिले तारीफ है। वास्तव में इससे पुरस्कार स्वयं सम्मानित हुआ है। दलित लेखक कंवल भारती और विमल थोराट का नाम इस सूची में होना उम्मीद जगाता है कि आने वाले समय में अकादमी पुरस्कारों के लिए सही लोगों को चयनित करेगी। हिंदी, सम्मानित साहित्यकारों, हिंदी अकादमी और हम सबको बधाई ...

ये सम्मान साहित्य उत्सव के दौरान 26 मार्च को किये जायेंगे।

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