कहानी — चीख — उर्मिला शिरीष | Kahani — Cheekh — Urmila Shirish


Painting by Tahir Siddiqui

चीख

— उर्मिला शिरीष

जब लड़की को होश आया तो वहाँ कोई भी नहीं था। काला सन्नाटा छाया था। मच्छरों की भिनभिनाहट तथा नमी की गन्ध कमरे में व्याप्त थी। बाहर बारिश थम चुकी थी, लेकिन पानी बहने की तेज आवाजें तथा टपटपाहट निरन्तर चल रही थी। सड़क पर लोगों का आना-जाना शुरू हो गया था। उसने आँखों पर हाथ फेरा... सो रही हूँ या जाग रही हूँ... कुछ भी समझ में नहीं आया क्षणों तक। किसी और दुनिया का रहस्यावृत आसपास ठहरा हुआ लगा... फिर जींस को पाँवों के नीचे खिसका देखकर बिजली-सा झटका लगा। उसने मन-मस्तिष्क को... अपने अंगों को टटोला। हाथ से सहलाया... खरोंचें... नाखून और दाँतों के निशान उभर आये थे... दर्द की तीखी धार फूट पड़ी, जैसे किसी कोमल हरी शाख में धारदार झुरी भोंक दी हो। वह चीख पड़ी जोर से... नहीं... नहीं... ऐसा नहीं हो सकता... मेरे साथ... यह स्वप्न नहीं है... यह... सब उसी के साथ घटित हुआ है... यह... सच... है - जागृतावस्था का सच। उसने सिर पर जोर-जोर से मुक्के मारे-क्या बेवकूफी है...? क्या सोच रही हो...? क्या थियेटर में बैठी हो... पिक्चरों के सीन... अवचेतन पर छाये रहते हैं... सो वही सब स्वयं के साथ घटित हुआ देख लिया है... मगर यह जगह... यह क्षत-विक्षत रूप... एक-एक दृश्य साफ दिखाई देने लगा... भयानक तेज बारिश हो रही थी। धरती और आकाश का रंग एक जैसा हो गया था... सामने खड़ा आदमी तक दिखाई नहीं दे रहा था। तेज हवा के थपेड़ों के कारण दो बार स्लिप होकर गिरते-गिरते बची थी। रोज की देखी-जानी पहचानी सड़कें थीं...। वही समय था जब वह बैडमिंटन की प्रैक्टिस करके लौटा करती थी। वही ऑफिस थे। वही घर थे... सोचा, थोड़ी देर के लिए खड़े हो जाते हैं, हालाँकि उस समय उसे माँ की हिदायतें भी याद आयीं कि कहीं रुका मत करो, मगर भीषण पानी में सड़क पर खड़े होने या गिरकर पड़े रहने से तो बेहतर था कि कुछ देर के लिए रुक जाए... और भी लोग खड़े थे... पानी थमने का नाम नहीं ले रहा था... सड़कों पर... पानी नालों की तरह बह रहा था... अँधेरा बढ़ता जा रहा था। उसका दिल घबराने लगा... चलना चाहिए... जो होगा सो देखा जाएगा... आज का दिन ही खराब है... उसने स्कूटर स्टार्ट किया, मगर वह नहीं हुआ।

“आप स्कूटर स्टार्ट कर देंगे...!” उसने एक आदमी से कहा जो कि रेनकोट पहनने के बावजूद पूरा भीग चुका था।

“प्लग में पानी भर गया होगा।”

“यहाँ फोन तो है...”

“सामने है...”

वह भागकर दूसरी तरफ गयी... मगर वहाँ दो लड़कों को... देखकर वापस लौट पड़ी, न जाने क्यों उसे वहाँ जाना ठीक नहीं लगा... वे लड़के उसके पीछे-पीछे आकर खड़े हो गये... अब वहाँ कुछ ही लोग थे... अचानक ही शटर गिरने की आवाज सुनाई दी। पहले तो उसे लगा जोर से बादल गरजे हैं, कहीं बिजली गिरी है। घुप्प अँधेरा हो गया था। शटर बन्द क्यों की? खोलो, उसने दौड़कर शटर उठानी चाही, मगर मजबूत हाथों ने उसे अपनी तरफ खींच लिया जोर से, निर्ममता के साथ। उसकी आवाजें हाहाकार करती बारिश में विलीन हो गयीं। शब्द... नाले में गिरते पानी में बह गये... अथक संघर्ष करने के बाद भी वह स्वयं की रक्षा न कर सकी थी... तूफान में... उखड़े पेड़ की तरह ज़मीन पर पड़ी थी वह... निचोड़े गये फल के छिलके की तरह। उठने को हुई तो जाँघों के नीचे लगा किसी ने गरम सलाखें दाग दीं... बेसाख्ता चीख निकल पड़ी... उसे नहीं मालूम था कि यह चीख उसके जीवन को क्या से क्या बना देगी... क्या हुआ? वही चीख हवा के साथ लहराकर एक साइकिल सवार के कानों में पड़ी... थरथराती हुई शटर की मोटी चादर को भेदती हुई चीख ने उस आदमी को रुकने पर मजबूर कर दिया। पलटकर आया वह। कहाँ से आयी थी वो हृदय को भेदनेवाली चीख... क्षणों तक उसने इधर-उधर देखा... नजर... शटर पर जाकर ठहर गयी। ताला नहीं लगा है इसमें... इसी के अन्दर तो नहीं है कोई? उसने शटर उठायी।

“मुझे घर पहुँचा दो”। सामने बैठी... लड़की गिड़गिड़ाकर बोल रही थी... उसे डर था कहीं यह आदमी भी उसे घसीटकर जमीन पर न डाल दे। आदमी चकित-सा हैरान उसे देखे जा रहा था। इसी बीच “देखो क्या हो गया...” की उत्सुकता लिए और भी लोग आ गये थे... बारिश अब तक कुछ कम हो गयी थी।

“फोन नम्बर बताओ। कहाँ रहती हो?”

थोड़ी देर बाद ही पिता सामने खड़े थे। पिता को लगा एक्सीडेण्ट हो गया, मगर यहाँ तो कुछ और ही दृश्य था। उनके पाँवों से जमीन धसकने लगी, एक शिलाखण्ड चकनाचूर पड़ा था। लोगों की फुसफुसाहटें बढ़ती जा रही थीं, “वहशी थे साले। कौन थे? क्या किसी ने नहीं बचाया? अकेली लड़की को देखकर... अब क्या होगा? बेचारी! जिन्दगी बरबाद हो गयी इसकी तो।”

“आजकल की लड़कियाँ भी तो सुनती नहीं हैं। कहीं भी चल देती हैं।”

“कोई सोचकर चलता है कि ऐसा होगा...”

“अरे! ये तो अपने वर्मा साहब की लड़की है... हो गयी इज्जत बरबाद उनके खानदान की।”

पिता नजरें नहीं उठा पा रहे थे। होंठ मृतक के समान जकड़ गये थे। उन्होंने कार का दरवाजा खोला और तेजी के साथ लड़की को लगभग खींचते हुए-से बैठाकर- इतनी तेजी के साथ कार चलाकर ले गये, मानो इस जगह की धरती फटनेवाली हो। माँ तथा अन्य लोग गेट पर खड़े राह देख रहे थे। उन्होंने एकदम दरवाजे के पास गाड़ी अड़ा दी। वह लाँकती घिसटती हुई चल रही थी मुश्किल से... कुछ कदम चलकर भीतर पहुँचा जा सकता था। क्या हुआ? कहाँ चोट लगी? किसने किया एक्सीडेण्ट? अस्पताल क्यों नहीं ले गये... पूछते लोगों को यकायक ही आसमान को थर्रा देने वाली चीखें सुनाई पडऩे लगीं... अनियन्त्रित पागलों-सी आवाजें... लग रहा था नदी की वेगवती धारा हजारों फीट गहराई से जाकर गिर रही हो... वही घर्राता हुआ रुदन... सबके हृदयों में उतरता जा रहा था... सबके चेहरों पर बिजली तड़क गयी। बेचैन-से वे सब खिड़की से झाँकने लगे। लड़की की देह औंधी पड़ी थी। घायल चिडिय़ा की तरह तड़प रही थी वह... बहिन उसको दबाकर बैठी थी... समझते देर न लगी। आखिर दुनिया की बदसूरत सच्चाई सामने से... यातनादायी रूप में गुजरने लगी। आज किसी ने भी जाने की अनुमति नहीं माँगी। एक के बाद एक लोग चले गये। अफसोस और चिन्ता के शब्द जबान पर थे। आँखों में दया का भाव उमड़ आया था। बाहर अचानक घोर निस्तब्धता छा गयी थी। बड़े गेट पर ताला लगा दिया गया। कमरे का दरवाजा बन्द किया और फुल स्पीड पर पंखा खोल दिया। पंखे की ध्वनि पूरे कमरे में गूँज रही थी घर्र... घर्र... और दूसरा पंखा उनके अपने भीतर चल रहा था... साँय... साँय... सनन-सनन... हृदय के चिथड़े करता हुआ... “अब क्या होगा?...” उनका मन... उद्रभान्त था... मगर सामने पत्नी बैठी थी सिर झुकाये। पहाड़-सा बोझ उनके सिर पर रखा था। आँसुओं की धारा नि:शब्द बह रही थी। क्या इतना चुप होकर रोया जा सकता है? पूरा शरीर लकवाग्रस्त हो गया हो, ऐसा ही लग रहा था उनको देखकर। उन्होंने पाँव थपथपाएँ... ताकि वे हिलें, मगर... कोई हरकत न हुई उनके शरीर में... कहीं कुछ हो तो नहीं गया... सोचकर काँप गये वे...।

बहिन चाय बनाकर ले जा रही थी- फिर पानी... फिर कपड़े। घर में सभी गूँगों के समान बैठे थे... कौन बताये? क्या बताये?

“कौन थे? पहचान पाएगी?” भाई मुश्किल से बोल सका, उसके चेहरे पर लावे की तपिश और आँखों में लाल गोले फूट रहे थे। उसे लग रहा था... किसी फिल्म का घिनौना दृश्य उसकी चेतना पर चिपका हुआ है मगर... बहिन को सामने यूँ पड़ा देखकर... सच... मन को मथे दे रहा था।

“अभी कोई बात मत करो।” बहिन ने भर्राये कण्ठ से कहा। उसका शरीर सिहरन से भरा था और वह जो भी चीज उठाती थी, वह हाथ से छूटकर फिसल जाती थी या गिर जाती थी... लग रहा था महीनों बाद बीमारी से उठी हो।

अंधकार घुप्प और अवसादमय हो गया था। मेघ आकाश को आच्छादित किये हुए थे। कीड़े-पतंगे उड़-उड़कर लाइट पर मँडरा रहे थे। बारिश का पानी जगह-जगह भरा हुआ था... केंचुए-ही-केंचुए पड़े थे... लाल केंचुए... घर में मातम-सा सन्नाटा छाया था मगर मृत्यु के समय तो लोग परस्पर बात भी कर लेते हैं। मिलकर विलाप या शोक मनाते हैं, इस मातम में तो कोई किसी के साथ बैठ भी नहीं पा रहा था बात करना तो दूर...।

लगातार फोन की घण्टियाँ बज रही थीं। इस बार उन्होंने रिसीवर उठाकर रख दिया।

“रिपोर्ट करनी चाहिए।”

“बदनामी करवाने के लिए।”

“मेडिकल...?”

“शोभा (डॉक्टर) को फोन कर दो या ले आओ।”

“अब क्या होगा... पापा?” वह सिर पकड़कर बैठ गया... माँ का कलेजा फटा जा रहा था... वे अर्धमूर्छित-सी पड़ी थीं...।

“कुछ बताया...? इनको भी दिखा देना डॉक्टर को... कुछ हो ना जाए...”

“चीखती है, फिर चुप हो जाती है... सँभले तो... मैं डॉक्टर को लेने जा रहा हूँ।”

“कहा था मत भेजा करो। अकेली घूमती थी। जहाँ मन में आया चल दी। दुनिया खतरनाक है, लोगों का भरोसा नहीं रहा, मगर...” कहते-कहते उनके जबड़े भिंच गये। आँखें शून्य में टँग गयीं। पूरा भविष्य सामने आकर खड़ा हो गया। समाज के लोगों के बीच जाएँगे तो लोग क्या-क्या नहीं पूछेंगे...? कौन शादी करेगा...? कोई करेगा तो सामने वाला उसको एहसास करवाएगा कि तुम वह हो... फिर इसके बच्चों को भी पता चलेगा, बच्चे क्या कहेंगे? शादी न करें तो? बाहर भेज देंगे ऐसी जगह जहाँ कोई न जानता हो मगर कैसे? पूरा परिवार ही कहीं चला जाए... दूर... तब भी लोग कहेंगे वर्मा ने शहर इसलिए छोड़ा क्योंकि उनकी लड़की के साथ... उन्हें अपने सीने में कुछ उमड़ता-घुमड़ता-धसकता-सा लगा। वे जोर-जोर से साँस खींचने लगे... जोर-जोर से मालिश करने लगे, मेरी बच्ची! तेरा जीवन! मन चीत्कार उठा... दौड़कर बाहर गये... खुली हवा में, अंधकार निबिड़ था। सनसनाता हुआ। कितनी देर तक खड़े रहे। मन फडफ़ड़ाया, जाकर सांत्वना दें उसे। छाती से लगा लें। मगर उतनी ही तेजी के साथ पीछे पलट गये। धम से वहीं बैठ गये कुर्सी पर। खुली आँखों के सामने उन्होंने रात को बीतते हुए देखा...।

खबरें तो फैलनी ही थीं, सो सुबह से ही पारिवारिक-मित्रों का आना शुरू हो गया। मित्रों के चेहरों पर कशमकश के भाव थे। क्या पूछें, क्या बताये वाली मन:स्थिति थी।

“कुछ पता चला? रिपोर्ट करवा दी? जो होना था वो हो चुका। सवाल ये है कि बच्ची को कैसे सँभाला जाए। बहुत बुरा असर पड़ सकता है।”

“सामने दीख तो जाएँ सालों को गोली मार दें।”

“जितनी दुनिया आगे बढ़ रही है, उतनी ही जिन्दगी असुरक्षित होती जा रही है।”

“बहू-बेटियों की इज्जत सुरक्षित न रहे तो क्या फायदा?”

“उसकी तबियत कैसी है?”

“सदमें में है।”

“डॉक्टर को दिखा दिया?”

“रात में देखकर गयी थी।”

“कहाँ गयी थी?”

“खेलकर आ रही थी।”

“कितने थे...?”

एकाएक पूछे गये प्रश्न ने उनको भस्म कर दिया। जितनी बार प्रश्नों के तीर छूटते हैं- उतनी ही बार वे भस्म होकर मृतप्राय हो जाते हैं। झुकी आँखें न उठा सके। उठकर भीतर चले गये। मित्र ने अन्दर से आती कराहें सुनीं तो भागकर गये। अपने कहे शब्दों की धार उन्हें महसूस हुई।

“आप इतने कमजोर पड़ जाएँगे तो बाकी का क्या होगा? वह मेरी भी तो बच्ची है। मैं समझ सकता हूँ... सामना तो करना पड़ेगा आपको।” उनके कन्धों को थामकर समझाने लगे मित्र...

“क्या होगा उसका? कहाँ लेकर जाएँ?” उनकी आँखों से आँसू टपक रहे थे... पिता की मृत्यु पर भी आँखें सिर्फ नम हुई थीं, लेकिन अभी आँसुओं में डूबी थीं।

घर से कोई नहीं निकल रहा था। भाई ही अलबत्ता इस बीच एक-दो चक्कर लगाकर आया था उस जगह का। मिल भर जाएँ एक बार... मैं कैसी दुर्दशा... करूँगा उनकी। ऐसी जगह ले जाकर मारूँगा कि चील-कौए नौंचकर खाएँगे। मगर जब बाहर जाऊँगा तो लोग कैसे देखेंगे मुझे? क्या कहेंगे? नहीं, मेरे दोस्त ऐसे नहीं हैं, उनको भी दु:ख होगा। वे मेरा साथ देंगे। ये भी तो हो सकता है कि उन्हें कुछ पता ही न हो, मैं खुद होकर नहीं बताऊँगा। उसका पोर-पोर हजारों बिच्छुओं के मारे डंक-सा दुख रहा था... जहर पूरे शरीर में दौड़ रहा था। आँखों में नींद न थी। न खाना खाया जाता। कितना नाज था उसे अपनी बहिन पर। इतनी अच्छी प्लेयर। उसी ने तो जिद करके ज्वाइन करवाया था। अब क्या होगा उसका? वह चुपके से उठकर गया और झाँककर देखा। वह करवट लिए लेटी थी। और वक्त होता तो पीछे से जाकर एक मुक्का मारता। दिन भर की बातें बताता। उसकी बातें सुनता। उसकी सहेलियों के बारे में कुछ हँसी मजाक करता। वह कॉफी बनाकर देती। वह दो-चार नखरे दिखाता। कदमों की आहट रोके वह वहीं खड़ा रहा। आखिर हुआ क्या जो मेरे और उसके बीच इतनी दूरी आ गयी। मन किया दौड़कर गले लगा ले। पुचकार ले उसे, लेकिन पाँव बर्फ की तरह जमे रहे। अन्दर लोहा पिघलता रहा। गलता रहा। उसने सिर पकड़ लिया। चीखती-चिल्लाती बहिन उसके सामने पड़ी है।

अनजाने शरीर उस पर टूट पड़े हैं... उसके मुँह से अनायास निकल पड़ा- हरामजादों! कमीनों! जिन्दा नहीं छोडूँगा। मार डालूँगा... मार डालूँगा। वह आकर पलँग पर औंधा गिर पड़ा। सिर में तेज दर्द हो रहा था। लग रहा था गहरे घाव हो गये हैं। नसें फट जाना चाहती हैं। उसने पास पड़े दुपट्टे से सिर कसकर बाँध लिया। कानों में डूबता-चुभता कुछ सुनाई पड़ रहा था... “तुम्हारा इसमें क्या दोष है? सारा घर सभी लोग तुम्हारे साथ हैं। दुर्घटना थी। उनको तो सजा मिलेगी ही। मिलनी ही चाहिए।” बहिन समझा रही थी उसे। फिर उसने सुना निस्तब्ध-रात्रि के गहराते डूबते अंधकार में कुछ सिसकियाँ दीवारों से टकरा रही थीं।

न चाहते हुए भी घनिष्ठ मित्रों तथा सम्बन्धियों के दबाव में आकर पुलिस में एफ.आई.आर. दर्ज करवा दी थी। डॉ. शोभा ने रिपोर्ट दे दी थी। एस.टी.डी.-पी.सी.ओ. तथा शटर वाली जगह को पुलिस ने सील कर दिया था, क्योंकि वहाँ बैठने वाला लड़का फरार हो गया था। इन सब प्रक्रियाओं से गुजरते हुए लड़की प्रतिक्रियाविहीन माँसपिण्ड की भाँति जो जैसा कहता, करती जाती। मगर उसके गहरे में उतरकर हर पल, हर दृश्य बार-बार जी उठता था... कई बार तो सबकुछ स्वप्न प्रतीत लगता। कई दफे तो लगता जागेगी तो बहिन को बताएगी मगर फिर एहसास होता ये स्वप्न नहीं था, जागते... साँस लेते संसार में उसकी चेतना को इस सत्य का साक्षात्कार हो ही जाता...। उसका घर था। कमरा था, पोस्टर थे। चुप रहने वाली माँ थी, गूँगी बहरी-सी। भाई था जो हर पल बेचैनी और दावानल में सुलगता पूरे घर में घूमता रहता था। चक्कर काटता हुआ। कहाँ जाता था? कहाँ से आता था? किसी को खबर नहीं लगती थी... उसकी आँखों में ऐसी आग धधकती हुई दिखाई देती थी कि वह सिहर जाती थी।

खाना खाते वक्त वह गिलास पटक देता था या थाली या अपने ही कपड़ों को गोल-गोल लपेटकर उछाल देता था। अनायास ही किसी कीड़े या चींटे को पाँव से इतनी शक्ति के साथ रगड़ देता, जैसे उसका नामो-निशान मिटा देना चाहता हो। आत्मा पर निराशा तथा सन्ताप की परतें जमती जा रही थीं। कितना कुछ कहना चाहती है वह मगर होंठ ही नहीं खुलते। बोलने को होती तो जीभ ऐंठने लगती- जैसे अन्दर से किसी ने एक सिरा पकड़ लिया हो। वहीं आँखें हैं... मगर इन आँखों में उन्हीं वीभत्स दृश्यों की भीड़ लगी रहती है... जैसे ही बाहर की दुनिया का ख्याल आता है, अनेक चेहरे सामने आ जाते... बैडमिंटन खेलने के लिए जाएगी तो सब पूछेंगे- क्या हुआ था? क्या बताएगी वह? अगर बताएगी तो फिर पूछेंगे कितने थे वे? वह आँखें बन्द कर लेती, मगर फिर दूसरे चेहरे आ जाते। कॉलेज जाएगी तो वहाँ दोस्त पूछेंगी- क्या हुआ था? क्या तूने विरोध नहीं किया? भाग जाती। रुकी क्यों? तू इतनी कमजोर कैसे हो गयी? कैसे थे? कितने थे?... पूछते वक्त कैसे चेहरे बनेंगे उन सबके... दया-सहानुभूति उत्सुकता... फिर... मजाक... फिर... जहाँ से निकलेगी वहाँ के लोग उसे देखकर कहेंगे, यह वही लड़की है जिसके साथ... ओ भगवान! क्या इसके अलावा... कुछ नहीं रहेगा मेरा अस्तित्व... एकमात्र उसकी पहचान का केन्द्रबिन्दु... यही घटना बन जाएगी... नहीं। नहीं... मैं भाग जाऊँगी... चली जाऊँगी... इस दुनिया से दूर... इस पहचान से दूर... मगर मन। उसे कहाँ भगाओगी... वह तो साथ में ही रहेगा... वह उठकर खड़ी हो गयी... पूरी देह झुनझुना रही थी। कानों पर हाथ रखकर भीतर की आवाजों को झटकने लगी वह... सारा कमरा घूमता हुआ लग रहा था। आसमान नीचे उतरता हुआ दीख रहा था और धरती पाताल में धसकती जा रही थी। अंधकार का सघन वात्याचक्र चारों ओर घूम रहा था... कोई पकड़ो मुझे... रोको। देखो मैं उड़ रही हूँ... मैं जमीन में धँस रही हूँ... वह मन-ही-मन चीख रही थी... मगर शब्द भँवर में फँसकर रह गये थे... थोड़ी देर बाद... उसने देखा... बहिन उसे ग्लूकोज का पानी पिला रही है... और... सिर पर तेल मल रही है... टप टप टपकते आँसुओं ने उसके गालों को धो दिया था।

चार सप्ताह से बाहर का मुँह नहीं देखा था। नहीं देखी थी सुबह की धूप। नहीं देखी थी दिन की चमक। नहीं देखा था सान्ध्याबेला का उदास पतझड़-सा टुकड़ा। अकेली एक कमरे में बन्द थी वो। कमरे से बाथरूम तक उसका आना-जाना था। इतने दिनों से उसने किसी से भी बात नहीं की थी... यहाँ तक कि पापा तक को नहीं देखा था। कभी-कभार जब वे ऊपर आते या उनकी आवाज सुनाई देती तो वह दुबककर बैठ जाती या दरवाजा बन्द कर लेती थी। अजीब सा भय तथा सन्ताप उसको जकड़ लेता था उन क्षणों, बाई ने भी उस कमरे में जाना बन्द कर दिया था। टी वी तथा कैसेट प्लेयर पर धूल जम गयी थी... घर में डुबडुबाता... विषाद हिलोंरे लेता रहता था। कॉलेज खुलने के ठीक एक माह बाद बहिन गयी थी। उसकी तथा अपनी मार्कशीट्स लेने। कब रिजल्ट निकला कब क्या हुआ किसी को होश ही न था। घर पर सहेलियों के फोन आ रहे थे। दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ती थीं सो उसकी सहेलियाँ उसे भी जानती थीं। चारों तरफ से नजरें बचाती स्वयं को छुपाती सी कॉलेज गयी बहन। देखकर भी अनदेखा का भाव लिए... बाहर निकल ही रही थी कि देखा अनीषा दौड़कर उसके पास आ रही है।

“क्या एडमिशन नहीं करवाना है तुझे? तुम लोग क्यों नहीं आ रही थीं?”

“बस यूँ ही।”

“तू बीमार थी क्या? एकदम काला चेहरा पड़ गया है तेरा तो?”

“हाँ तबियत खराब थी।” उसने टालने की कोशिश की।

“पापा बता रहे थे कि तेरी बहिन के साथ...।”

“मेरा भी, कॉलेज आना-जाना बन्द कर दिया है पापा ने।”

“तुमने किसी को बताया तो नहीं....।” वह सकपकाकर बोली।

“नहीं... पर... सबको पता... है... मैं आऊँगी उससे मिलने... हम लोगों ने कितनी बार फोन किये थे...? कैसा लगता होगा उसको सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं मेरे तो।”

उसे... करन्ट लग गया हो, इस तरह खड़ी रह गयी निष्प्राण। चेतनाशून्य। तो सबको पता है। सबको... पूरी क्लास को। पूरे कॉलेज को। पूरे शहर को। उसके हाथ-पाँव काँपने लगे।

“क्यों मिलना चाहती हो? नहीं, वह किसी से नहीं मिलेगी, वह यहाँ नहीं है।”

कहकर वह तेजी के साथ बाहर निकल आयी। पीछे से आती आवाजें उसको चुम्बक की तरह खींच रही थीं। उसे लगा पूरा कॉलेज उँगली उठाकर बता रहा है- कि देखा यह वही है जिसकी बहिन के साथ... उसने गाड़ी का गेट बन्द किया। गाड़ी के गेट की दीवार पर सिर टिकाकर बैठ गयी। साँसे तेज-तेज चल रही थीं। पेड़ की शाखों के पीछे गाड़ी खड़ी थी, बाहर से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। सड़क पर गाडिय़ों के आवागमन के कारण इतना तेज शोर हो रहा था कि उसकी सिसकियाँ किसी को सुनाई नहीं दे सकती थीं। क्या होगा उसका? कैसे आ सकेगी वह? देह की सारी चमड़ी छील दो, यहाँ तक कि मर भी जाओ तब भी यह बात... यह रेखा... खिंची रहेगी...। यहाँ से दूर चली जाए... मगर वहाँ कौन सँभालेगा उसे? उसके दर्द भरे कलंकित जीवन को। उसके आँसू नहीं थम रहे थे। घृणा का बवण्डर उसकी नसों में दौड़ रहा था। मैं खून कर दूँगी उनका। मार डालूँगी। मेरी बहिन का जीवन नष्ट करने वालो! तुम नरक में जाओंगे... सड़-सड़कर मरोगे... ईश्वर तुम्हें माफ नहीं करेगा...। अथाह यातना और जलालत से भरे जीवन का दर्द... कौन अनुभव कर सकता है... उसे लगा जैसे कोई शरीर से खाल उतार रहा हो...।

“मम्मी, उसे बाहर भेज दो... हॉस्टल या चाचा के पास। यहाँ तो मुश्किल है उसका रहना। लोग उसे जीने नहीं देंगे।”

“अकेले कहाँ? किसके पास?” माँ की आवाज गहरे कुएँ से आती लगी। आजकल वे भी कभी-कभार ही बोलती हैं।

“हॉस्टल में। यहाँ तो सभी को पता चल चुका है।” माँ ने भावविहीन आँखों से कमरे की तरफ देखा... फिर रुँधे गले से बोली, “आवेश में आकर कुछ कर बैठी तो... देखा नहीं था उस दिन।”

“कभी-न-कभी तो निकलना ही पड़ेगा। पूरी जिन्दगी का सवाल है...।”

“पूरी जिन्दगी...”

सचमुच उसकी जिन्दगी सिवा सवालों के कुछ रह ही नहीं गयी थी। वह बहिन के पास गयी... हृदय उमड़ पड़ा। वही प्यार था। चिन्ता थी। अपने आँसुओं को छुपाकर गोद में लिटा लिया उसे बच्चे की तरह- “तुम्हारा रिजल्ट सेवेंटी परसेंट रहा है। फॉर्म ले आये हैं, लेट फीस के साथ जमा कर देंगे।” वह मुसकराने की चेष्टा करते हुए बोली। उसे लगता क्यों नहीं पहले की तरह सब कुछ सामान्य हो जाता है। वही शोर-शराबा, चीखना... चिल्लाना... हँसना-लडऩा... देर रात तक पिक्चर देखना... डान्स करना... गीत सुनना क्यों नहीं यह खामोशी टूटती है! क्यों नहीं सब एक साथ बैठकर बात करते। क्यों नहीं डाइनिंग टेबल पर खाना खाते। क्यों नहीं भुला देते हैं सब कुछ...। मगर कैसे?... जंगल में लगी आग का ओर-छोर हो तब न। कोई छाया है जो उन सब के बीच में पसरी है। लड़की ने मार्कशीट की तरफ देखा तक नहीं... बहिन का चेहरा और आँखें देखती रही... सबको पता है ना... वह पूछ रही थी... आँखों से... बहिन ने मुँह फेर लिया...। दोनों बहिनों के भीतर समुन्दर हिलोरें ले रहा था... वो छायाकृतियाँ... ताण्डव... कर रही थीं... धप्... धप्... उन्होंने एक-दूसरे का हाथ कसकर पकड़ लिया।

“तुम्हें हिम्मत से सबका सामना करना होगा। दर्द की आखिरी सीमा तक। अपमान घृणा उपेक्षा और तानाकशी की आखिरी हद तक।” बहिन उसे समझा रही थी...।

'दीदी, शब्द तो तुम्हारे हैं, लेकिन दर्द और वो हादसा तो सिर्फ मेरा है... कहने मात्र से खत्म हो जाएगा? और ज्यादा गहराता जाएगा... फैलता जाएगा... भीतर-बाहर... सब जगह। काश ऐसा होता कि मस्तिष्क की कोई नस काट कर फेंक दी जाती ताकि हम बेजान हो जाते... सामना करने भर से यह दर्द धुल जाता तो मैं पहाड़ की चोटी पर एक पाँव से खड़ी हो जाती। आँधी तूफान का सामना कर लेती...’ वह कहना चाहती है मगर नहीं कह पा रही है... शब्द पत्थरों की तरह कण्ठ के भीतर फँस गये हैं।

पिता जब भी इधर आते हैं, झाँककर चले जाते हैं। उनका चेहरा सूखे वृक्ष की तरह सिकुड़ गया है। रेखाएँ कितनी गहरी और चौड़ी हो गयी हैं। न उनके मुँह से उसका नाम निकलता है न वो सामने जाकर खड़ी हो पाती है... उसे समझ में नहीं आता कि वह क्या करें? मेरा क्या दोष है इसमें? मूर्ति पर जल चढ़ानेवाला भक्त कहा जाता है। फिर जीती-जागती हाड़-माँस की मूर्ति को खण्डित करनेवाला पापी क्यों नहीं माना जाता है? क्यों नहीं वह बहिष्कृत होता है? क्यों वह बेखौफ बेलिहाज समाज की छाती पर घूमता रहता है... वे चेहरे अँधेरे की परत को चीरते हिलाते-डुलाते वे बदबू भरे चेहरे... वे सख्त... काँटों भरे चेहरे... मूर्छावस्था में डूबती वह... घुटती हुई उसकी साँसें और कच्ची हरी दूधभरी शाख के ऊपर पैनी कुल्हाड़ी के जोर से गिरने की खचाक्-सी चीर भरी आवाज़ को समेटे वो दर्द में डूबी लगातार छटपटाती रहती।

आह...! नहीं! नहीं! कहाँ जाऊँ...? क्या करूँ? क्यों नहीं मैं बेहोश हो जाती हूँ? क्यों नहीं मेरी स्मृतियों पर विक्षिप्तता छा जाती है... काश... मैं मर जाती... वक्त का वो टुकड़ा मेरी चेतना से कैसे दूर होगा... हे भगवान्... कोई तो रास्ता सुझाओ, क्या मौत ही रास्ता है इस निर्मम घृणित अनुभव का? जब कोर्ट में मामला चलेगा तो कैसा तमाशा बनेगा मेरा...। मैं नहीं जाऊँगी कोर्ट में! जाऊँगी! नहीं! नहीं जाऊँगी! वह दो राक्षसों से भिड़ रही थी अपने अन्दर। जब सहन नहीं हुआ तो जोर-जोर से पाँव चलाने लगी और तेज... और तेज... इतने तेज कि बेहोश हो जाए... मगर बेहोश होने से पहले ही यकायक पाँव रुक गये... देखा, सामने पापा खड़े हैं... क्षणों तक उसकी आँखों में सिहरन काँपी जैसे भभूका उठा हो आग का... वह छत पर जा पड़ी... ठण्डे फर्श पर औंधी पड़ी काँप रही थी वह। रुलाई का वेग थम नहीं रहा था कि पापा ने माँ को भेजा... माँ ने बहिन को...।

“क्या हुआ?”

“दीदी, पापा की आँखों में नफरत थी।”

“नफरत! नहीं, नफरत क्यों होगी। सन्ताप, लाचारगी... और वेदना होगी। तुम्हें देखकर उनके दिल पर क्या बीतती होगी सोचा कभी तुमने? तुम नॉर्मल हो जाओगी तो पापा भी ठीक हो जाएँगे। वक्त ही हमारे घावों को भरेगा। लोग भूल जाएँगे सब कुछ। पापा तो यहाँ से शिफ्ट तक करने की सोच रहे हैं...।”

“हर कोई ऐसे ही देखेगा... पूछेगा... बात करेगा?”

“जिन्दगी तो तुम्हारी अपनी है। किसी पर आश्रित मत रहना... पढ़ो, नौकरी करो। बाहर चली जाओ। सब ठीक हो जाएगा... मैं... तुम्हारा साथ दूँगी हमेशा, कभी अलग नहीं होऊँगी...।”

“सब भूल भी जाएँगे तो क्या... मेरे भीतर तो वही चलता रहता है... वही सब... काट सकोगी स्मृति का वो भयानक रोंगटे खड़ा कर देने वाला अंश...?”

बहिन अन्दर समझा रही थी इधर पापा अपनी छाती को जोर-जोर से मल रहे थे... दर्द का गुबार उठता है और... सीने... कन्धे और हाथ... को छूता हुआ... निकल जाता है...।

“तुम कॉलेज क्यों नहीं जाते? क्या एडमिशन नहीं लेना है... क्या करोगे?” बहिन भाई के पास जाकर बैठ गयी। सब कुछ सामान्य करना चाहती है वह। किसी तरह तो माहौल बदले।

“कैसे जाऊँ? बताओ। मैं पागल हो जाऊँगा दीदी। पता नहीं किस-किसको मालूम होगा... कैसे फेस करूँगा मैँ? क्या कहूँगा? तुम्हीं बताओ।”

“सब कुछ छोड़कर बैठने से क्या होगा?”

“मेरी हिम्मत नहीं है दीदी! ऐसी आग लगी रहती है कि लगता... अपना सिर फोड़ लूँ या वे कमीने मिल जाएँ तो... एक-एक को जिन्दा जला दूँ...।”

“इससे क्या होगा...?”

“इसके साथ इतना बड़ा हादसा हो गया और मैं यूँ बैठा हूँ... नकारा... बुजदिल-सा।” वह स्वयं को धिक्कारता हुआ बोला।

“कॉलेज जाओ... एक साल बर्बाद हो जाएगा...।”

“हमारा तो एक साल बर्बाद होगा... उसकी तो जिन्दगी ही...।” कहकर वह... मुक्के मारने लगा। बड़ी मुश्किल से जाने को तैयार हुआ। अब तक जितने दोस्तों के फोन आते थे, मना करवा देता था या मिलता ही न था। एकाध बार कॉलेज की तरफ गया भी होगा तो अन्दर जाने की हिम्मत न पड़ी थी। स्कूटर खड़ा करके ऑफिस की तरफ जा ही रहा था कि दोस्त मिल गया...।

“कहाँ गया था तू? कब से नहीं मिले हम? एडमिशन भी लेगा या नहीं। प्रैक्टीकल शुरू हो गये हैं।”

“बाहर गया था काम से।” उसने बुझे स्वर में कहा।

“घर में कोई प्राब्लम है?”

“खास नहीं। क्या किसी ने कुछ बताया?” उसने आशंकित होकर पूछा।

“कोई बता रहा था कि... जाने भी दे... बता तू कॉलेज कब से आ रहा है...?”

“क्या बता रहा था...?”

“तेरा रिजल्ट क्या रहा...?”

“तू बोल रहा था कि...।” वह आवेश से काँपने लगा।

“पुलिस में रिपोर्ट तो की है। सालों का कुछ पता चला। फाड़कर रख देंगे। मैंने कितनी बार फोन किया था कि जाकर पता करूँ। मिलकर ढूँढ़ें। मगर कोई... बात नहीं करवाता था... कुछ पता चला कि वे कौन थे...” वह जानता था कॉलेज आने पर यही सब होगा... इन्हीं सवालों की पैनी धार पर चलना होगा...।

“कुछ मत कहो।” उसकी आँखों में निरीहता का भाव उतर आया, “होंगे तो आसपास के ही। मिलें तो एक बार। हम लोग इतने परेशान थे। बहुत टेंशन हो गया था यार, हम कोई नामर्द थोड़े ही हैं।” “क्या करूँ... कुछ नहीं सूझता...?”

“अरे तुम्हें क्या हो गया...? क्या बीमार था? इतना दुबला हो गया तू तो... मैं पहचान नहीं पाया। घर में सब कैसे हैं? बहिन तो ठीक है न।” दूसरे मित्र ने तपाक् से पूछा। प्रश्नों पर प्रश्न करते हुए उसके मित्रों ने घेर लिया...।

“अच्छा ये बता-वो अकेला था या...?” दोस्त ने शब्दों को चबाते हुए पूछा।

“चुप रहो तुम सब। भगवान के वास्ते चुप रहो।” वह इतनी जोर से चिल्लाया कि आस-पास के लोग चौंककर देखने लगे।

“सॉरी यार। माफ करे दे। तेरी बहिन क्या मेरी बहिन नहीं है? मैं समझ सकता हूँ तेरे दिल पर क्या गुजर रही होगी? मगर हम भी कैसे भाई हैं, हमारी बहिन के साथ इतना बड़ा हादसा हो गया और हम मुँह छुपाकर बैठे हैं।” दोस्त ने उसके काँपते हाथों को पकड़कर सहानुभूति के साथ कहा... मगर... वह... वहाँ रुक न सका... उसने स्कूटर स्टार्ट किया और हवा में उड़ता गिरता हुआ घर आ पहुँचा। दनादन सीढिय़ाँ चढ़ता हुआ ऊपर आया और जोर से दरवाजा खोला। सामने लेटी बहिन का हाथ पकड़कर लगभग घसीटते हुए बोला, “चलो, बताओ। पहचानो कौन थे वे कमीने। मैं मुँह नहीं दिखा पा रहा हूँ। चुल्लूभर पानी में डूबकर मर जाना चाहिए मुझे। लोग सहानुभूति दिखा रहे हैं और मैं खामोश बैठा हूँ। एक बार बता दो... मैं नोंचकर फेंक दूँगा उन्हें। मार डालूँगा... हरामजादों को...।”

“नहीं भइया, नहीं। प्लीज हमें मत ले जाओ।”

“पागल हो गया है क्या? कहाँ ले जा रहा है?” माँ ने उसे अलग करते हुए कहा। लेकिन उसने माँ को भी धकेल दिया... दीदी तथा पापा भागे-भागे आये...।

“छोड़ो उसे... छोड़ दो...।” पापा ने उसे धक्का देते हुए जैसे-तैसे अलग किया...।

“हमारा जीना मुश्किल हो गया है। घर से कहीं भी निकलकर जाओ तो पता चलता है कि सबको मालूम है... मैं पागल हो जाऊँगा पागल... वह दीवारों पर हाथ मारने लगा... ये क्या हो गया हमारे साथ? हमने किसी का क्या बिगाड़ा था...?... हम यहाँ नहीं रहेंगे पापा...।” वह फफककर रो पड़ा...।

“इसमें इसका क्या दोष है? बताओ। तुम बजाय हिम्मत बाँधने के इस तरह की हरकतें कर रहे हो।” दीदी ने उसे परे धकेलते हुए चिल्लाकर कहा।

लड़की हक्का-बक्का सी... रोये जा रही थी...। उसकी पूरी देह थरथर काँप रही थी। हिचकियाँ नहीं रुक रही थीं...।

“हम लोग कहाँ जाएँ... क्या करें...?”

“मेरी मौत से आप लोगों की इज्जत बच सकती है तो मैं मर जाती हूँ। मुझसे तो पूछो कि मुझ पर क्या गुज़र रही है? इसमें मेरा क्या दोष है? मुझे अपने ही शरीर से कितनी घिन लगने लगी है...।” कहकर उसने दुपट्टा अपने गले में कसना शुरू कर दिया...।

“क्या करती हो...? छोड़ो। बचाओ...।”

तीनों उसको सँभालने में लग गये... सचमुच ही वो मरते-मरते बची। इन कुछ क्षणों में उसकी आँखें ऊपर को घूम गयी थीं बहुत ऊपर... कपाल के अन्दर... ब्रह्माण्ड में जैसे कुछ काँपा... सिहरा... सबकुछ डूबता-सा लगा... अँधकार का महासागर... और शून्याकाश में डूबती चेतना... गले से आवाज नहीं निकल रही थी। गर्दन पर दुपट्टे की रगड़ से गहरे निशान पड़ गये थे। अर्धबेहोशी की अवस्था में पड़ी थी वह। तीनों लोग उसे घेरकर बैठे थे... उसके हाथ-पाँव-तलवे-पंजे मलते हुए भयाक्रान्त... रोते हुए... लग रहा था... किसी ने उन सबके प्राणों को खींच लिया है...।

एक घनीभूत लुबलुबाता वेदना में डूबा सन्नाटा सबके दरम्यान पसरा था जैसे अनन्त छोर तक समुद्र पसरा हो... नीला, मौन... तूफानों तथा लहरों की उत्ताल गति को बाँधे हुए। अब नयी भयावह स्थिति निर्मित हो गयी थी कहीं वह आत्महत्या न कर ले। सब एक-दूसरे से आँखें चुरा रहे थे। एक स्थान पर बैठे होकर भी दूर बहुत दूर... होते जा रहे थे... उनके आसपास इतनी मजबूत दीवार तन गयी थी कि वे सब मुक्त होने के लिए छटपटा उठे थे, लेकिन कोई था जो अट्टहास करता हुआ... हृदय को फाडऩे लगता था...

लड़की ने आँखें खोलकर देखा। सघन मौन... विषाद, चिन्ता तथा वेदना में डूबे चेहरे। भाई... कुर्सी में धँसा बैठा था... अगर मैं पहचान भी लूँ उन सबको और भइया ने आवेश में आकर कुछ कर डाला तो। उनको मारा-पीटा तो वे भी तो भइया को मार सकते हैं। उसके शरीर को नुकसान पहुँचा सकते हैं... लड़की का दिल इस नये भय से... सिहरने लगा... उसे अपने से ज्यादा भाई की चिन्ता सताने लगी थी अब।

“पहचान लोगी न?” भाई फिर सामने था। एकदम इतने पास कि वह आँख नहीं उठा पा रही थी... उसको ठीक से दिखाई भी नहीं दे रहा था क्योंकि अब भी चक्कर आ रहे थे।

“हाँ!” उसने सिर हिलाया।

“कैसे थे वे... आदमी या लड़के... पहले कभी देखा था... याद करो?”

“नहीं!” वह हिम्मत जुटाकर बोली।

“जब शटर गिराई तो कितने लोग थे? कैसे थे?” वह घुटनों में मुँह दबाकर बैठ गयी। उसके जबड़े भिंचने लगे... नसों में सनसनाता हुआ जहर बहने लगा, लेकिन वह दृढ़ता से बताने की कोशिश करने लगी। वह अन्दर से मरती हुई लड़की को झिंझोडऩा चाहती थी, पर...।

“बताओ, बता दो, तुम चाहती हो कि मैं जिन्दा रहूँ... तो बताओ। जिन्दगी भर मैं इस बोझ के साथ जिन्दा नहीं रह सकता कि अपनी बहिन के लिए कुछ नहीं कर सका...।” वह मुठ्ठियाँ बाँधकर आपस में टकराने लगा...।

“भइया प्लीज...” वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगी।

“क्या प्लीज...?” वह... दहाडऩे लगा...।

“आप मेरे पीछे अपनी जिन्दगी क्यों बर्बाद करते हो?”

“और तुम्हारी जिन्दगी...? इसलिए बता दो... मुझे।”

अभी मात्र बी.ए. ऑनर्स पास किया है उसने। पूरी पढ़ाई तथा कैरियर सामने था। स्टेट लेबल पर उसका सिलेक्शन हो गया था, मगर अब सब कुछ बिखरा पड़ा था तहस-नहस...कलंकित... अनिश्चित...।

“शिमला जाओगी...? वहीं रहकर पढ़ाई करना।”

“नहीं, उसे यहीं रहने दो। यह हमारा दर्द है हमीं झेलेंगे।” माँ ने विरोध किया।

उसे लगा यकायक ही वह किसी फेंकी गयी वस्तु के समान हो गयी है जिसे कोई भी स्वीकारने के पहले जाँचेगा-परखेगा... धोयेगा...पोंछेगा...। इस दुनिया में... अब वह... अकेली नहीं थी... अपितु उसके अन्दर समायी थी... एक वीभत्स दुनिया की तस्वीर... जिसमें अनेक चेहरे थे...। उसने अपना चेहरा तथा देह देखी... सुडौल-गौरी चिकनी देह... वैसी ही है ऊपर से... देह तो वैसे भी नश्वर मानी जाती है... फिर इसके मैले होने न होने की इतनी विशद व्याख्या क्यों! इतना तूल क्यों दिया जाता है... क्योंकि... आत्मा को धारण करने वाली देह ही होती है- बिना देह के आत्मा का क्या अस्तित्व। सारे अवयव अपनी जगह हैं... उनके रंग बदल गये हैं जैसे आँखों के आस-पास स्याह रेखाएँ घनीभूत हो उठी हैं... पलकें भी... सिकुड़ी-सी लगती हैं... हाँ ये सुबहें... ये शामें... ये दिन के उजाले, ये रात के अँधेरे थे। स्तब्ध खड़े पेड़-पौधे सभी कुछ अपनी जगह खड़े हैं सजीव जागते हुए... कुछ भी तो नहीं बदला बाहर का... बस बदला है, तो हमारा अन्तरंग...। हमारा जीवन...। मैं। हाँ। मैं। नहीं। तो? वह इतनी-सी बात नहीं है...वरना... पापा ऐसे क्यों हो गये हैं अचानक बूढ़े... पस्त। दु:खी। एकाकी। भाई ऐसा क्यों हो गया है दुबला। बेचैन। छटपटाता हुआ। सुलगता हुआ। मम्मी क्यों चुप हो गयी हैं? दीदी क्यों नहीं हँसती है? क्यों नहीं कॉलेज जाती है? उनकी शादी कैसे होगी... लोग... परिचित, रिश्तेदार... कितना बड़ा परिवेश है... और उन सबके बीच वह है... घायल... उसका सिर घूमने लगा... अन्दर मशीन चल रही थी... सब कुछ काटती हुई। घरघराता हुआ उसका पहिया... छाती को दबाकर घूमता है... पापा बता रहे थे कि एसटीडी-पीसीओ वाला लड़का पकड़ा गया है। उनमें से एक को पहचान लिया है। मगर बाकी का पता नहीं चल पाया है... खबर सुनकर फडफ़ड़ाने लगी वह... विक्षोभ और वितृष्णा से उसका हृदय फटने लगा था। अग्निकुण्ड में पड़ी लकडिय़ाँ चिटकने लगी थीं। पानी में आग लगी थी। वह जल रही थी-रात-दिन... अहर्निश... कलप रही थी वह...। आने वाले दिनों के बारे में सोच-सोचकर तड़प उठती थी वह...। सभी का दबाव बढ़ता जा रहा था कि अदालत में उसे कितनी निडरता... निर्भीकता तथा हिम्मत से बोलना होगा... हर पल... भाई की बँधी मुठ्ठियाँ उसे बेचैन किये रहतीं...। उसने दरवाजा खोलकर देखा... सामने पलंग पर भाई लेटा था... बड़ी मुश्किल से दीदी ने खाना खिलाया था। नींद की गोली लेकर ही सो पाता है वह। दीवार से टिककर बैठ गयी वह...। आँखों के सामने कुछ चल रहा है... परछाई... चेहरे... कब नींद लग गयी... उसकी... वही सब सपने में चल रहा था... सामने जज बैठा है... आसपास वकील खड़े हैं, मम्मी-पापा और पारिवारिक मित्र हैं साथ में। वकील उससे पूछे जा रहा है... सवाल-दर-सवाल। चीर रहा है उसके हृदय को। गोद रहा है उसकी आत्मा को। मार रहा है हथौड़ा चेतना पर... और तहस-नहस कर रहा है उसकी जिजीविषा को। वह अचकचाती झेंपती तड़पती-सी कभी सिर हिलाती है तो कभी निरुत्तर रह जाती है... भागना चाहती है, मगर नहीं भाग पा रही है... सबने उसको घेरकर रखा है... उसने देखा था किसी पिक्चर में प्रसव में तड़पती... चीखती... हाथ-पैर पटकती स्त्री को जो सारे दर्द झेलती है मगर... भाग नहीं पाती। उठ नहीं पाती है... महसूस हो रहा है उसे कि उसकी देह के साथ तो एक ही बार बलात्कार किया गया था मगर आत्मा के साथ तो... हजारों बार ये लोग बलात्कार कर रहे हैं... इसीलिए तो आत्मा छटपटा रही है... हृदय में हाहाकार मचा है... उसे लगा-गले में साँसे अटकी हुई हैं... हाथ-पाँव सुन्न पड गये हैं। हिलाने पर भी नहीं हिल रहे हैं। घबड़ाकर उठ बैठी वह... हाँफती हुई... स्वयं को छूकर देखा... लाइट बन्द थी। मगर सभी लोग अद्र्धनिद्रा में थे... उसे कुछ भी नहीं समझ में आ रहा था। सिवा डरावनी परछाईयों के कुछ नहीं देख पा रही थी... लग रहा था... बेहोश हो रही है... अस्पष्ट शब्द... घुटती हुई आवाजें... मुँह से निकल रही थीं... वह बड़बड़ा रही थी... रो रही थी... हाथ-पाँव हिला रही थी, पटक रही थी...।

“क्या हुआ... क्या हो गया...?” माँ-पापा और बहिनें उसे झकझोर रहे थे... पानी के छीटें मारकर जगा रहे थे... क्या हो गया इसको...? क्या होगा...? कहकर माँ... रोने लगी... तुरन्त डॉक्टर को फोन किया... आधी रात को ही सीधे नर्सिंग होम ले गये... जाँच के बाद डॉक्टर ने बताया कि वह गर्भवती है... अनचाहा अनजाना... बीज उसके गर्भ में है... बिना देर किये उसी समय... उसकी डी एण्ड सी करवायी जा रही थी... वह आधी सोई आधी जागी हुई-सी थी। चेतन-अवचेतन के बीच भी उसे महसूस हो रहा था कि उसके आन्तरिक अंगों से चिपके मांस के लोथड़े को नोंच-नोंचकर बाहर निकाला जा रहा है... और कई-कई औजार... उसके अन्दर... चल रहे हैं... फर्क इतना था कि इस बार... उसका... वह हिस्सा सुन्न था। जब उसकी आँख खुली तो सामने डॉ. शोभा बैठी थीं।

“कैसी हो?” पास आकर उन्होंने माथा सहलाकर पूछा।

“ठीक हूँ आंटी, मुझे क्या हो गया था?”

“जानकर क्या करोगी? लेकिन अब तुम्हें स्वयं को सँभालना चाहिए। बहुत हो गया। मुझे देखो मैं क्या करती हूँ? कई बार ऐसे केस आते हैं जिनमें जिन्दगी या मौत... या माँ और बच्चों में से किसी एक को चुनना होता है... बचाना होता है... लेकिन आखिरी क्षण तक कोशिश करते हैं। तो महत्त्वपूर्ण क्या है जिन्दगी... सारी जद्दोजहद जिन्दगी के लिये होती है न। तुम्हारी अपनी जिन्दगी की कीमत तुम्हारे लिए कितनी है यह तुम्हें सोचना होगा। पहले तुम स्वयं के बारे में सोचो कि तुम्हें देह को लेकर... तड़पते रहना है या आत्मा की आवाज पर चलना है... बार-बार तुम्हारे साथ घटनाएँ घटित हो रही हैं और तुम स्वयं कुछ नहीं कर पाती हो। यह शरीर तुम्हारा है या किसी और का। यदि तुम मेरी बेटी होती तो मैं तुम्हें कहती उठो-उठो... जागो... जीवन... को अपनी गति से चलने दो... जो हुआ उसका सामना करो। कोई तुम्हें एक्सेप्ट नहीं करता मत करने दो, तुम खुद को एक्सेप्ट करो...।” कहकर उन्होंने रात वाली सारी बात व स्थिति बता दी। वे उससे कोई भी बात छुपाना नहीं चाहती थीं।

“सारी सच्चाई तुम्हारे सामने है। तुम्हारे साथ है।” सुनकर वह चौंकी नहीं। आश्चर्य या दु:ख भी नहीं हुआ... चुपचाप उनका चेहरा देखती रही। ताज्जुब कि दोनों बार घटित घटनाओं में सिर्फ उसकी देह थी। अवयव थे... मन नहीं, आत्मा नहीं।

“आंटी, मैं पराजित नहीं होना चाहती। मेरा स्वभाव वैसा नहीं है, मैं आत्मग्लानि में घुल-घुलकर जीना भी नहीं चाहती। मैं उबरना चाहती हूँ इन सारी परिस्थितियों से, उस डर से... जो चारों तरफ बुना जा चुका है... परिवार वालों को भी समझाना होगा।” आज पहली बार वह खुलकर बात कर रही थी। घटनाओं के गहरे तल से अब वह ऊपर आने को छटपटा रही थी।

“अगर डॉक्टर शरीर के अंग में फैले जहर को ये सोचकर न काटे कि उस हाथ या पाँव के न रहने से उसका शरीर बदसूरत हो जाएगा, अपंग हो जाएगा तो जहर तो फैलेगा ही, मगर मैं फिर कहूँगी कि उस बदसूरती या अपंगता से महत्त्वपूर्ण है जिन्दगी... जिन्दगी... समझी। इसलिए तुम्हें खुद फैसला करना होगा।” डॉ. शोभा ने दृढ़ता के साथ कहा।

उर्मिला शिरीष

ई-115/12, शिवाजी नगर, भोपाल-462003,
मो. : 093031-32118,
Urmilashirish@hotmail.com

घर लौटते हुए उसका मन अजीब-सी बेचैनी से घिरा था। अपने आसपास के दमघोंटू माहौल को वह फेंक देना चाहती थी... सबसे पहले उसने अपनी अलमारी जमाई, किताबें सजाईं, यद्यपि उसका मन स्वयं से लड़ रहा था। एक लम्बी लड़ाई लडऩे की पूर्ण तैयारी कर रही थी वह... कुछ करना है... कुछ... करके दिखाना है... सबका सामना करना है... जैसे वाक्य उसकी सोच, उसके मन को निरन्तर ऊर्जा दे रहे थे। किसी बच्चे की आकुल आकांक्षा कि दौड़कर सबसे आगे पहुँचना है... मम्मी, पापा, भइया तथा दीदी को आश्चर्य हो रहा था कि आखिर उसे हो क्या गया है...? कहीं वह मानसिक रूप से टूट तो नहीं गयी है... अचानक ही ऐसा बदलाव कैसे आ गया?

“दीदी, मेरी मार्कशीट बताना। क्या तुम मेरे साथ कॉलेज चलोगी?”

मार्कशीट देखकर... वह मुसकरा दी। उसने मार्कशीट को यूँ स्पर्श किया जैसे किसी बेशकीमती वस्तु को छू रही हो। उस घटना के बाद आज उसने सबके बीच बैठकर बात की थी।

दूसरे दिन वह ट्रैकिंग सूट पहनकर खड़ी थी। शरीर से कमजोर, मगर मन से स्वस्थ होकर।

“कहाँ जा रही हो? बाहर निकलोगी? तुम्हारा दिमाग तो ठीक है?”

“स्टेडियम तक।” उसने एकदम शान्त तथा संयत आवाज़ में कहा।

“डॉक्टर ने मना किया था और जाओगी तो सब लोग क्या कहेंगे? पूछेंगे तब। तुम्हें देखकर सब याद आ जाएगा। अब तक तो बात दब गयी होगी।” बुरी तरह से घबड़ाई माँ उसके सामने... खड़ी सवाल-जवाब कर रही थी... उनका व्यवहार एकदम बदल गया था। वे शंकित थीं। कुछ-कुछ सख्त भी।

“मैंने कोई गलती या अपराध नहीं किया, जिसके लिए मैं जिन्दगीभर आत्मग्लानि में घुलूँ। मम्मी। मैं हर स्थिति का सामना करूँगी चाहे मेरा कोई साथ दे या न दे।” कहकर वह बिना रुके, बिना कुछ समझे-समझाये स्कूटर उठाकर चल दी... उसे लगा आज आसमान एकदम साफ और चमकीला है। जानी-पहचानी सड़क पर स्कूटर चलाते हुए उसका मन हवा से बातें करने लगा।

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