साहित्य पर बुद्धिजीवी-वाया-इन्टरनेट (बीवीआई) का मंडराता खतरा
भरत तिवारी
हमें कुछ पता हो या नहीं ये ज़रूर पता होता है कि हमारी समझ में बहुत तरक्क़ी हो गयी है। बीते समय से मोबाइल और कंप्यूटर के प्रयोग (और एटीएम से पैसा निकलना) ने हमें यह विश्वास भी दे दिया है कि हम प्रगतिशील से प्रगति-प्राप्त हो गए हैं। इतने उन्नत मनुष्य आप यदि साहित्य से लगाव भी रखते हो तब तो आप अपने को बुद्धिजीवी भी कहते होंगे (न कहते होंगे तो मानते तो होंगे ही)। इस बीच यदि आप इन्टरनेट पर इस दर्जे के सक्रीय हैं कि आप नेट पर उपलब्ध साहित्य को न सिर्फ ख़ुद के लेखन से और उन्नत बना रहे हैं बल्कि यदाकदा (अंग्रेजी में – फॉर अ चेंज) औरों का लिखा भी पढ़ रहे हैं फिर तो आप अतिविशिष्ट कोटि – बुद्धिजीवी-वाया-इन्टरनेट (बीवीआई) – की उस जमात से हैं, जिसे यह भी पता है कि यह बस वो ही है जो सब कुछ जानता-समझता है. कुछ बातें जो इस विलक्षण मानव की पहचान बनती जा रही हैं, बन चुकी हैं, आइये उनके बारे में कुछ बातें की जाएँ।ये बताइए आखिर वो कौन सी ग्रंथि है, जो इन असाधारणों को, किसी के अच्छे लेखन को प्रोत्साहित करने से रोकती है? आप जो, सब पढ़ते हैं, सब से ज्यादा पढ़ते हैं... क्या आप संपादक के नाम ख़त लिख के कभी यह कोशिश करते हैं कि लेखक (बेचारा) तक और अन्य पाठकों (ये बेचारे नहीं हैं क्योंकि इनमें आप भी शामिल हैं) तक अपनी पसंदगी ज़ाहिर करें? इन्टरनेट आपकी ज़ेब में रहता है, ज़ेब में कम हाथों में ज़्यादा... और आप जो अपनी ईमेल आईडी से बेहिसाब प्रेम करते हैं और फिर ईमेल भी लिखते हैं ... आपकी यह कौन सी मानसिकता है जो आप, लेखक को एक ईमेल नहीं लिख पाते? यह लिखते हुए ज़ेहन में एक उठापटक और पैदा हो रही कि ‘उनको’ क्या कहूँ जो आप की तरह इन्टरनेट का प्रयोग अभी नहीं करते जो बुद्धिजीवी-वाया-इन्टरनेट (बीवीआई) नहीं हैं, जो लेखक, पत्र-पत्रिकाओं, संपादकों को पत्र भेज के अपनी ख़ुशी आदि का इज़हार करते हैं? और वो भी - जो इन्टरनेट का उपयोग तो करते हैं लेकिन बीवीआई नहीं हैं। जिनके लिए प्रशंसा नापतौल के की जाने वाली चीज़ नहीं है, जो प्रशंसा के लिए कद-काठी की जांच-परख नहीं करते। ज़ाहिर है कि आप उन्हें तुच्छ समझते हैं मगर आप नहीं जानते की लेखक को मिलने वाली ऊर्जा का बड़ा हिस्सा, इन ससंतुलित-सकारात्मक पाठकों (बाज़ दफ़ा लेखकों और आलोचकों) से ही आता है। यह ऊर्जाश्रोत अच्छे लेखन के पढ़ने से हुई ख़ुशी को दर्ज़ करता हैं। अमूमन इनका सम्बन्ध लेखन से नहीं होता और शायद यह ख़ुशी की बात है... क्योंकि कहीं ये भी लेखक हो गए तो इनकी ख़ुशी का भी महज अपने लेखन को परोसना-ही हो जाने का डर है। और ऐसे में तो पहले से ही – मैं... मेरा... मेरी... पुरस्कार... छपी... प्रकाशित... जैसे माने खो चुके शब्दों से बजबजा रहे हिंदी-सोशल-मिडिया का न जाने क्या होगा. बहरहाल अपवाद की तरह कुछ बीवीआई ऐसे हैं जो इंटरनेट पर साहित्य पढ़ने के बाद अपनी राय देते हैं मगर ये एक विलुप्तप्राय प्रजाति है जिसकी रक्षा के लिए इसका दिल से आदर-सम्मान किया जाना चाहिए। इनके कम होते जाने कारण बीवीआईयों की हेय दृष्टि है जिसका काम इन्हें अतितुच्छ महसूस कराना है,. यही कारण है कि इनकी संख्या कम से कमतर होती जा रही है।
आपही बताइए कि यह कितने ताज्जुब का विषय होगा कि किसी कहानीकार की रचना 10,000 लोग पढ़ें मगर उस पर की जाने वाली टिप्पणी ‘शून्य’ और फेसबुक-लाइक ‘चौदह’ हों? इस जैसे अनेक उदाहरण मुझे ‘शब्दांकन’ पर रोज़ नज़र आते हैं... मुझे यह गलत, असंवेदनशील और असामाजिक लगते हैं, आपकी समझ क्या कहती है?
अंत में इतना और कि आप भी बीवीआई न बन जाएँ इससे पहले सम्हलिये, कुछ कीजिये और साहित्य को मैं-मैं-महान में बदलने पर आमादा बुद्धिजीवी-वाया-इन्टरनेट से बचाइए।
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