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"युद्ध नहीं" - ओम थानवी


जनसत्ता के संपादक ओम थानवी जी बीते दिनों पाकिस्तान गए थे
 पाकिस्तान में वो ठीक उसी समय थे, जब भारतीय सैनिकों के सर काटे जाने की घटना हुई अपने इस यात्रा वृत्तांत में उन्होंने भारत-पाकिस्तान रिश्ते और उन से जुड़ी भौगोलिक, सामयिक और इंसानी परिस्थितियों को तटस्थ रूप में लिखा है । "युद्ध नहीं चाहिये - ये कहना डरपोक होने की निशानी नहीं है" । - संपादक

"युद्ध नहीं" -  ओम थानवी 

    इस बार सड़क मार्ग से लाहौर जाना हुआ। गुमान था कि एक संधि-रेखा की ही तो दूरी है। इधर हम, उधर वे। विमान से जाने पर भूगोल दुबक जाता है। हमेशा लगा कि कहीं दूर जा रहे हैं।

   लेकिन सड़क ने भी वह दूरी पाटी नहीं। अमृतसर से एक बस ने हमें अटारी सीमा पर छोड़ा। पासपोर्ट पर ठप्पा लगवा कर कुछ कदम पार वाघा जा पहुंचे। वाघा पाकिस्तान में पड़ने वाला सीमांत है, जिसे हमारे यहां लोग भूल से अपना सीमांत समझते हैं। वाघा पहुंच कर उनका ठप्पा और आगे लाहौर की सड़क पर- जो सीमा से उतना ही दूर है, जितना दिल्ली राजधानी क्षेत्र में मेरा घर!

    मैंने मुड़कर हैरानी से सीमा-रेखा की ओर देखा। भारत और पाकिस्तान के जवान गश्त दे रहे थे। उसके आगे हमारी चौकी थी। पीछे अमृतसर, जहां सुबह हमने नाश्ता किया था। पर लगता था मीलों चल आए हैं। क्या इसलिए कि सरहद पार करने पर सारा मंजर बदल जाता है। मुल्क के उनके दरवाजे पर उसका रंग, जवानों की वर्दी, हमारी तरफ गांधी उधर जिन्ना की तस्वीर, एक तरफ हिंदी में स्वागत, दूसरी तरफ उर्दू लिपि में, उर्दू के नामपट्ट। बोलचाल वही, लेकिन थोड़ी-थोड़ी अजानी- बाहरको हर कोई बाहेरबोल रहा है!

    लेकिन नहीं। ये चीजें नहीं, जो चंद घड़ियों के सफर को बोझिल बना डालें। आप पैदल सीमा पार करें और आपको लगे कि पूरी पीढ़ी का वक्फा आपके साथ चलकर आया है। क्या चीज है जो दूरी को अवधि में नहीं, पीढ़ियों में तब्दील कर देती है? आप न कहीं आते हैं न जाते हैं, फिर भी आपको लगता है बरसों की दूरी नाप आए हैं!


    परस्पर अविश्वास और दुराव इसकी एक बड़ी वजह है, कम से कम इतना हमें दो-तीन रोज में खूब समझ आया। जिस रोज हमने सीमा पार की, उसी रोज जम्मू-कश्मीर में संधि-रेखा पार कर पाकिस्तान के घुसपैठियों ने- वे सैनिक थे या नहीं अभी साफ नहीं- दो भारतीय जवानों को मार डाला था। पर सीमा की खबर अखबारों में छपी दो रोज बाद।

    दरअसल हम लोग साफमा (साउथ एशिया फ्री मीडिया एसोसिएशन) की एक संगोष्ठी में शिरकत के लिए गए थे। सार्क क्षेत्र के आठ देशों के दो सौ से ज्यादा पत्रकार। इनमें अनेक संपादक भी थे। संगोष्ठी का नारा था: दिल और दरवाजे खोलिए! यह भी अच्छा प्रयोग था कि संगोष्ठी का उद्घाटन और शुरू के सत्र अमृतसर में हुए। बाकी सत्र और समापन लाहौर में! मैंने इससे पहले ऐसी कोई संगोष्ठी नहीं देखी थी, जो एक साथ दो देशों में संपन्न हो।

    अमृतसर में विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने गर्मजोशी भरा भाषण दिया। कि ऐसे रिश्ते हों कि नाश्ता एक देश में करें, दोपहर का भोजन दूसरे देश में और रात का तीसरे में। पंजाब के मुख्यमंत्री ने भारत-पाक संबंधों को मियां-बीवी के संबंधों की संज्ञा दी: ‘‘इसमें न पड़ें कि मियां कौन है और बीवी कौन, उस तरह की अंतरंगता हमें कायम करनी है।’’

    लाहौर में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ संगोष्ठी में आए। उनके और अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में हुई कोशिशों की चर्चा हुई। अगले रोज- 8 जनवरी को- गवर्नर हाउस में भोज का आयोजन था, जिसमें प्रधानमंत्री राजा परवेज अशरफ मुख्य अतिथिथे।

    अखबारों में या पाक टीवी पर तब तक पुंछ के जघन्य कांड की खबर न थी। पर जिनके फोन में पाकिस्तानी सिम-कार्ड था (भारत-पाक के सिम एक-दूसरे देश में निषिद्ध हैं!), उन्हें दिल्ली वगैरह से खबर हो गई थी। जिन्हें नहीं थी, उन्हें पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के बर्ताव से कुछ असामान्य घटित होने का अंदेशा हुआ होगा। वे इस्लामाबाद से लाहौर इसी कार्यक्रम में शामिल होने आए थे; वे आए, बोले और भाषण खत्म होते ही फौरन मुड़कर तंबू के पीछे के दरवाजे से रुखसत हो गए।

    अपने भाषण में परवेज अशरफ ने पुंछ के हादसे का जिक्र नहीं किया। आपसी संबंध सुधारने की बात कही- कौन नहीं कहता!- और पत्रकारों की आसान आमदरफ्त की मांग से सहमति जाहिर की; (पाकिस्तान में प्रतिबंधित) यू-ट्यूब को रास्ते पर आने की सलाह भी दी। वे रुके होते तो कुछ पत्रकार उन्हें पुंछ के हादसे पर जरूर घेरते। यह अंदेशा उन्हें रहा भी होगा और शायद इसीलिए वे चल निकले।

    हम होटल के कमरे में उस रोज टीवी के चैनल पलटते रहे। भारत के अनेकानेक टीवी सीरियल वहां देखे जा सकते हैं, पर खबर नहीं। हमारे यहां भी उनके चैनल कानूनन बंद हैं; उनके सीरियल तो बहुत पहले पिछड़ चुके। उलटे उनके टीवी चैनलों पर भारत निशाने पर था। असल में पुंछ सीमा के उसी इलाके में भारत की ओर से हुई गोलाबारी में एक पाकिस्तानी जवान मारा गया था, एक घायल हो गया। मृत सैनिक के कस्बे से बिलखते परिजनों की खबरें थीं।

    अगले रोज हम दिल्ली लौटे, तब भारतीय चैनलों पर हमारे हताहत सैनिकों के बिलखते परिजन थे। उस जवान की बीवी को देख मन रो गया, जो कहती थी कि पति का शीश लाओ, वरना कैसे मानूं कि जिसे आप शहीद कहते हैं वह मेरा पति था! उसके साथ उसकी सास ने भी शीश न मिलने तक अन्न मुंह में न रखने की कसम खाई थी।

    सूचना-तंत्र का कैसा बखेड़ा आपसी सहमतिका हिस्सा है कि भारत और पाकिस्तान जब उदार आमदरफ्त, व्यापार आदि की अच्छी बातें और बंदोबस्त करते रहे, तब भी एक-दूसरे के अखबारों के वितरण और टीवी प्रसारण पर बंदिश बनी रही। दोनों ओर के शासकों में कोई यह समझने को तैयार नहीं कि सूचना का आना-जाना हालात सुधारने में ज्यादा मददगार हो सकता है, बनिस्बत सूचना छुपाने के। जब लोग इधर से उधर आ जा सकते हों, इंटरनेट और दूसरे देशों के मीडिया से दबी-छुपी खबरें मिल जाती हों, सूचना के आपसी आदान-प्रदान को खोल देने में क्या बुराई है?

    ऐसे में भारत के एक गांव में पति और बेटे के शीश की आस में अनशन कर लेटीं दो औरतों की पीड़ा पाकिस्तान में कोई कितनी समझेगा? बिलखते बच्चों की तकलीफ? ऐसे ही भारतीय सैनिक की गोली से मारे गए पाकिस्तानी जवान के घर-परिवार के जो दृश्य मैंने लाहौर में टीवी पर देखे, वे भी मन दुखाते थे। पर वे दृश्य भारत में कौन देख सकता था? दोनों ओर हर साल सैकड़ों सैनिक सीमा की झड़पों में मारे जाते हैं। दोनों ओर वे शहीदही कहाते हैं। पर एक तरफ की मौत- मुख्यत: सूचना के अभाव में- दूसरी तरफ मानवीय संवेदना को झकझोर नहीं पाती। अगर ऐसा होता तो मैं सोचता हूं, दोनों ओर गलतफहमी ऐर तनाव में जरूर कमी आती।

    10 जनवरी को हिंदूमें परवीन स्वामी ने सेना के सूत्रों के हवाले से लिखा था कि सिर काट लेने के वहशी हादसे सरहद पर पहले भी हुए हैं, दोनों तरफ। लेकिन वे मीडिया तक नहीं पहुंचे। इस बार बात पहुंची तो उसकी प्रतिक्रिया किसी विस्फोट की तरह हुई। यहां तक कि लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने कहा कि एक के बदले हमें दस पाकिस्तानी जवानों के सिर काट लाने चाहिए।

    सुषमा स्वराज को मैं भाजपा का सबसे योग्य नेता मानता हूं। वे संघ परिवार की घृणामूलक राजनीति की नहीं, समाजवादी विचारधारा की उपज हैं। बाल ठाकरे जैसे नेता ने, जिन्होंने शायद ही कभी कोई वाजिब बात कही हो, यह ठीक कहा था कि भाजपा में प्रधानमंत्री पद की योग्यता सुषमा स्वराज में है, नरेंद्र मोदी में नहीं। इसके बावजूद मैं शीश काटने की किसी बात को नितांत अ-भारतीय विचार मानता हूं; वह बात किसी नीतिशास्त्र में अनुमोदित नहीं होगी। हमारे स्तंभकार तरुण विजय ने भी प्रतिशोध की बात कही है। विचार प्रकट करना उनका अधिकार है, पर मैं प्रतिशोध के बजाय प्रतिशोध का शमन करने वाले विचार को ज्यादा बड़ा मानता हूं। प्रतिशोध अपने आप में एक हिंसक विचार है। हम हजारों-हजार साल से अहिंसा के विचारों में पलते आए हैं और संसार में इसी साख के बूते प्रतिष्ठा की जगह रखते हैं।

    पाकिस्तान की जघन्य और बेहूदा हरकतों ने- चाहे उन्हें किसी ने अंजाम दिया हो- और कुछ हमारे चुनिंदा टीवी चैनलों में राष्ट्रप्रेम की आड़ में दुकान चमकाने की होड़ ने लोगों में अजीबोगरीब उन्माद का संचार किया है। ऐरा-गैरा भी मार दो-काट दो-सबक सिखा दो की बात ऐसे करता है, जैसे गिल्ली-डंडा खेलने की बात हो रही हो। चार युद्ध पाकिस्तान के साथ हम लड़ चुके। चारों में पहल पाकिस्तान ने की। चारों में हार भी पाकिस्तान की हुई। लेकिन किसी युद्ध से न हमें कुछ हासिल हुआ, न पाकिस्तान को। ऐसे में पांचवें युद्ध की बात भारत क्यों छेड़ने बैठे? वह भी उस दौर में, जब दोनों देश आणविक ढेरी पर बैठे हों?

    सीमा पर तनाव और सिरफिरी हिंसा के नाम पर युद्ध की बात छेड़ने वालों को इंडियन एक्सप्रेसमें शेखर गुप्ता के स्तंभ में आए तथ्य देखने चाहिए। सरकारी आंकड़ों की रोशनी में उन्होंने बताया है कि 2003 में संधि-रेखा पर संघर्ष विराम समझौता होने से पहले हर साल चार सौ से छह सौ तक भारतीय जवान जान गंवाते थे (करगिल के हताहत शामिल नहीं)। पाकिस्तान में यह संख्या हमसे ज्यादा होती थी। समझौते के बाद संधि-रेखा की झड़पों और मौतों में दोनों तरफ कमी आई। 2006 के बाद इसमें भारी कमी आई है। इस तरह, जाहिर है, समझौते के संयम ने करीब आठ से दस हजार जवानों की जानें बचाई हैं। भाजपा शायद भूल जाती है कि 2003 का यह समझौता अटल बिहारी वाजपेयी की देन था!

    भाजपा से ज्यादा गिला मुझे सत्ताधारी कांग्रेस से है। इस मामले में उन पर कोई गठबंधन का दबाव भी नहीं दिखाई देता। फिर शांति की प्रक्रिया पटरी से उतारने में एक हादसे की क्या बिसात? भले ही वह इतना अमानुषिक था कि उसे अंजाम देने वालों तक में सामने आने की हिम्मत नहीं। प्रधानमंत्री ने- और कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने भी- पहले संवाद का सिलसिला जारी रखने की बात की। यह भी आश्वस्त किया गया कि पैंसठ साल से ऊपर के वरिष्ठ नागरिकों को सीमा पर वीजा देने का समझौता अडिग रहेगा।

    लेकिन इसके बाद बेहतर संबंध कायम नहीं रह सकते, यह बात होने लगी। फिर हॉकी टीम वापस, मंटो पर नाटक खेलने आ रहे रंगकर्मी खारिज, उदार वीजा नीति के साथ पैंसठ पार के बुजुर्गों की आमदरफ्त बंद। भारत-पाक संबंध बेहतर करने में मनमोहन सिंह की भूमिका कम नहीं रही है। क्या कांग्रेस भाजपा के उन्मादी अभियान को देख डर गई? यह सोचकर कि राष्ट्रवादी जुनून पैदा कर भाजपा कहीं इसी मुद्दे पर मतदाताओं को गोलबंद न कर ले? कांग्रेस को सोचना चाहिए, चुनाव अभी बहुत दूर हैं।

    कुल मिलाकर यह कि सरकार का इस तरह झुकना अच्छा नहीं। दोनों देशों में आम जनता एक दूसरे के खून की प्यासी नहीं है। आतंकवादी और फौज के गुनहगार संवाद की निरंतरता में ही किनारे किए जा सकते हैं। एक सिरफिरे हमलावर को पूरे देश का हमला समझना समझदारी का तकाजा नहीं हो सकता। किसी कायर दहशतगर्द- चाहे वह फौजी क्यों न हो- की कारगुजारी का दंड हर मासूम के मत्थे मढ़ना एक बेहतर मुकाम तक पहुंचा दी गई कूटनीति को विफल करने की कार्रवाई न बन बैठे, प्रधानमंत्री को इस पर जरूर सोचना चाहिए। दोनों देशों के बीच सरकार का सरकार से, लोगों का लोगों से, खिलाड़ियों, साहित्यकारों-कलाकारों का उनकी बिरादरी से मेल-मिलाप बढ़ेगा तो दहशतपसंद हतोत्साह ही होंगे।

    अंत में कविता: युद्ध-चर्चा के उन्माद के बीच महान तुर्की कवि नाज़िम हिकमत की एक युद्ध-विरोधी कविता का अंगरेजी अनुवाद पढ़ा। मेरे पिताजी ने हिंदी में उसका सुंदर अनुवाद कर दिया है। आप भी पढ़िए: 

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