शिशु और शव का मिटता फर्क - प्रेम भारद्वाज

शिशु और शव का मिटता फर्क
     दोस्तोएवस्की ने कहा था कि अगली शताब्दी में नैतिकता जैसी कोई चीज नहीं होगी। गुलजार के सिनेमाई गीतों पर आधारित पुस्तक ‘उम्र से लंबी सड़कों पर’ के लोकार्पण समारोह में केदारनाथ सिंह ने कहा कि यह भूलने का दौर है। पुण्य प्रसून वाजपेयी अगाह करते हैं कि यह दौर जुल्फ संवारने और तितलियां पकड़ने का नहीं है। युवा नई लीक खींचते हुए उद्घोष करते हैं कि जनाब! यह गंभीरता को संदेहास्पद, घृणास्पद और हास्यास्पद मानते हुए मजा लेने का दौर है। सूचनाओं की बमबारी--- सभ्यताओं के संघर्ष, विखडंनवाद, बाजारवाद, भूमंडलीकरण--- बड़ा कंफ्रयूजन है--- यह दौर है कौन सा? क्या सचमुच में यह कंबल ओढ़कर चुपचाप घी पी लेने का दौर है। क्या कुछ भी बोलने-कहने का दौर नहीं है यह। युद्ध और शांति, शव और शिशु, प्रेम और हिंसा, शूल और फूल, मन और मंत्र, सत्ता और संघर्ष, तंत्र और देह, सभ्यता और बर्बरता, आदिम और आधुनिक, मॉल और मेला--- सब कुछ गड्डमड्ड है। और साहिब ऐसे में हम निकल पड़े हैं इस दौर को समझने के लिए, जरा हमारी हिमाकत तो देखिए। चलिए इसी बहाने उस घर का जरा सा मुआयना कर लिया जाए जिसमें हम रहते हैं। घर यानी हमारा ‘दौर’। क्या है इसका पता? कैसा है इसका चेहरा?
     जर्मन दार्शनिक जीमेल मौजूदा दौर को समझने में थोड़े मायूस दिखाई देते हैं, मगर सूत्र दे देते हैं। वे शहरों के जरिए दौर को समझने की कोशिश करते हैं। उनकी राय में ‘बड़े शहरों या महानगरों में आंखों के सामने चीजें बड़ी तेजी के साथ आती हैं कि धीरे-धीरे उनका प्रभाव कम होने लगता है।’ फुटपाथ पर बासी रोटी तोड़ता बूढ़ा भिखारी, एक मीटर के फासले से एक करोड़ की गाड़ी से गुजरता कोई सेठ--- बगीचे में दरख्तों के साए में आलिंगनबद्ध प्रेमी युगल--- सड़क पर प्रेमिका के चेहरे पर तेजाब फेंकता युवक--- स्वागत में पुष्प गुच्छ लिए लोग--- और वे लोग भी जो शव पर फूल चढ़ा रहे हैं--- सिंहासन पर बैठे राजा (प्रधानमंत्री)--- तो शमशान में लेटा मुर्दा--- धीरे-धीरे उन दो भिन्न भाव-दशाओं को जगाने वाले दृश्य के प्रभाव में फर्क कम होने लगता है। और हम एक दिन उस मोड़ पर पहुंच जाते हैं जहां हम किसी के रोने और हंसने, शव और शिशु में फर्क ही नहीं कर पाते। यह इसी दौर का एक तल्ख सच है जिससे हम लगातार बावस्ता होते हैं, लेकिन उसे स्वीकारने को हम तैयार नहीं होते। यह अच्छा ही है, क्योंकि यह हिचक हमें जिंदा रखे हुए है। जिस दिन यह ‘हिचक’ खत्म, हमारे भीतर की संवेदना का आखिरी अवयव भी खल्लास।
     अब केदार जी की बात--- यह दौर भूलने का है। मतलब स्मृतिविहीनता। स्मृति और विस्मृति को लेकर इन दिनों पूरी दुनिया में कई तरह की चिंताएं चल रही हैं। मिलान कुंदेरा इस बात को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि ‘विस्मृति के राष्ट्रपति के नेतृत्व में एक पूरा राष्ट्र मृत्यु की ओर अग्रसर है। हम स्मृति के खात्मे के बाद खुद को भी खो देते हैं--- बिना स्मृति के हम मरे हुए हैं। विस्मृति के राष्ट्रपति की तरह इस देश में भी विस्मृति की सत्ता है।’ हमारी स्मृति का अपहरण किया जा रहा है। इसे छीनने की विश्व स्तर पर कोशिशें जारी हैं। चालें चली जा रही हैं--- हमें स्मृतिहीन बनाने पर आमादा हैं अदृश्य शक्तियां। हमें बताया जा रहा है, तुम वही देखो जो हम दिखाना चाहते हैं--- तुम वही सोचो जिससे हमें असुविधा न हो--- तुम ‘तुम’ नहीं एक क्लोन हो- -- एक भीड़ हो--- तुम बस उपभोक्ता हो--- या बैंक की एक खाता संख्या भर हो--- ट्रेन या प्लेन की सवारी--- अमुक नंबर कोठी-फ्रलैट के बाशिंदे--- तुम महज एक पैन कार्ड, वोटर आईडी भर हो--- कि तुम इंसान नहीं रोबोट हो--- मशीन की तरह चलो, मशीन की तरह दौड़ो और थको बिलकुल नहीं--- सोचो नहीं--- समझो नहीं--- मजे लो और डांस करो---। और खबरदार अगर कहीं कुछ अपने भीतर बचाकर रखा तो। परंपरा को दीवारों पर फ्रेम में मढ़वाकर उस पर माला मत चढ़ाओ--- उसे नदी नहीं, किसी तेज बहते नाले में फेंक आओ--- आज नदी से ज्यादा गंदे नालों में पानी है और प्रवाह भी---। यह नदी नहीं, नालों का युग है। रही बात स्मृति की तो मेमोरी कार्ड है न, गूगल बाबा हैं--- क्या जरूरत है दिमाग में कचरा जमा करने की। ज्यादा चीजें याद रखनी हो तो मेमोरी कार्ड की जीबी बढ़ा लो मेरे भाई। टेंशन क्यों लेते हो?
     जिस स्मृति पर चौतरफे हमले हो रहे हैं, वह स्मृति ही सृजन का मूल स्रोत है। लेकिन हमारी स्मृति संपदा निरंतर दरिद्र हो रही है। स्मृति एक तरह की आवाज, एक प्रतिरोध है और उससे उपजी हर कृति एक चीख। और यह चीख सत्ता को सुहाती नहीं। इसलिए रचना को जन्म देने वाली स्मृति की कोख में ही भ्रूण हत्या करने का ताना-बाना रचा जा रहा है। जड़ों को फुनगी से अलग होने के बाद फुनगी का सूखना, उसका नष्ट होना तय है--- सावधान--- हम उसी सूखेपन की ओर हौले-हौले नहीं बल्कि बड़ी तेजी के साथ बढ़ रहे हैं। जहां स्मृति, रचना, विचार का कोई दरख्त बचा नहीं रह सकता- --।
     स्मृतियों को नष्ट करने में सबसे ज्यादा अहम काम सूचनाओं की बमबारी का है। अन्सर्ट फिशर के अनुसार ‘सूचनाओं की बाढ़ सत्य के बारे में हमें जानकार नहीं बनाती बल्कि सत्य को अपने साथ बहा ले जाती है। जब सूचनाएं एक नहीं, अनगिनत, बेशुमार रास्तों, माध्यमों से आने लगती हैं, तब वे सूचनाएं किसी एक सच या तथ्य को मजबूत नहीं करती अलबत्ता एक दूसरे को काटती-खारिज करती हैं। ऐसे में जिस आदमी के पास सबसे ज्यादा एक दूसरे को काटने वाली सूचनाएं आती हैं, वह आदमी सबसे ज्यादा ‘कन्फ्रयूज’ या भ्रमित रहता है।’ हम ऐसे ही सूचनाओं की बमबारी से फैले भ्रम के दौर में जीने को अभिशप्त है।
     बेशक भ्रम तो है और उसे कई अवधारणाओं से जबरन रचा भी जा रहा है। बर्बरता, नफरत और हिंसा के बीच गंभीर शब्दों के जरिए नया फलसफा गढ़ा जा रहा है। अमेरिका के जाने-माने राजनीतिक चिंतक सैमुअल हटिगंटन ने अपनी पुस्तक ‘क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन’ के जरिए दो धर्मों के संघर्ष को सभ्यताओं के संघर्ष का नाम दिया और अमेरिका ने जब 9/11 हमले के जवाब में अफगानिस्तान या इराक पर हमला बोला तो इसी फलसफे को अपनी ढाल बनाया। यह लेख अमेरिकी विदेश नीति का आधार पत्र बन गया। विचारधाराओं के संघर्ष का स्थान सभ्यताओं और उसकी आड़ में मजहब के संघर्ष ने ले लिया। वे कहीं नहीं बताते कि सभ्यता से उनका आशय क्या है? वे नाम लेते हैं सभ्यता का मगर उनका अभिप्राय धर्म ही है और वह भी इंसानियत बनाम इस्लाम। कुल मिलाकर भ्रम फैलाने की साजिश, स्वार्थ और वर्चस्व की लड़ाई। सभ्यता की आड़ में बंदूक दागने का अधिकार। लाशें बिछाने, बिछी लाशों वाली जमीन में दबे खजाने पर अपना झंडा गाड़ने का हक। असली लड़ाई तो इस पृथ्वी पर अमीर-गरीब, ताकतवर और कमजोर के बीच ही रही है और आगे भी रहेगी। सभ्यताएं तो हमेशा से ही बर्बरताओं की मुठभेड़ में फंसी लहूलुहान कराहती रहती हैं और हममें से बहुत कम उसकी कराह सुनते हैं।
     तो क्या यह मान लिया जाए कि हम उस जमाने में जी रहे हैं जब दुनिया भर की अधिकांश ‘स्मृतियों’ और ‘अस्मिताओं’ का निर्माण फासिस्ट ताकतें कर रही हैं। यह नई संस्कृति की नई परिभाषा गढ़ने, नई दावेदारियों के इंदराज का वक्त है-मदहोशी, मदमस्ती और लूट का। काफ्रका के समय से हम कितना आगे बढ़ पाए हैं जो कहते थे कि ‘हमारे समय में न कुछ पाप है, न कोई ईश्वर प्राप्ति की इच्छा। हर व्यक्ति दुनियावी और उपयोगितावादी हो गया है। ईश्वर हमारे अस्तित्व की परिधि से बाहर है। इसलिए हम एक विश्वव्यापी अस्तित्व पक्षाघात से ग्रस्त हैं---। हम परस्पर काटती हुई रेखाओं और भ्रमों से लदे समय में जी रहे हैं--- यहां दैत्याकार घटनाएं घटती हैं, जहां पत्रकार मनोरंजन के लहजे में लाखों-करोड़ों को मार दिए जाने के समाचार को ऐसे परोसते हैं, जैसे वे कोई कीड़े हो-- - हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जिसमें शैतानों का वर्चस्व है- -- हम न्याय और अच्छाई के काम छुपाकर ही कर सकते हैं, जैसे कि यह कोई अपराध हो---।’ दिल पर हाथ रखकर कहिए दशकों पहले लिखी या कही गई काफ्रका की इन पंक्तियों के आईने में क्या आज के जमाने का अक्स दिखाई नहीं देता है। कितने बदले हैं हमारे हालात?
     1950 के बाद दुनिया भर में समय को समझने की कोशिशें तेज हुई। यहां समय का आशय दौर से है। सबका जिक्र संभव नहीं। ज्यादा सूचनाएं भ्रम पैदा कर सकती हैं। मगर फ्रैड्रिक जेमसन की बात ज्यादा मददगार मालूम पड़ती है। वे कहते हैं कि मौजूदा दौर में चीजों को टुकड़ों-टुकड़ों में ही जाना और समझा जा सकता है, उसे समग्रता में समझना बहुत मुश्किल है। इससे जो हमारी राय बनेगी वह भी टुकड़ों-टुकड़ों में ही बनेगी।
     बहुत मुश्किल है। क्या हम वहां पहुंच गए हैं जहां लोक कहावत के अनुसार हाथी को जैसे कुछ अंधों ने टटोलने की कोशिश की और जिसके हाथ जो लगा उसने हाथी की कल्पना उसी आधार पर की। यानी न सूंड सच है, न पूंछ सच है, न दांत, न कान, न पैर। हाथी तो समग्रता में है। इसी प्रकार समय भी समग्रता में है--- अगर हम उसे नहीं समझ पा रहे हैं तो यह हमारी अपनी सामर्थ्य और सीमा है। इसके लिए मौजूदा दौर को दोष देना ठीक नहीं।
     असल में गलती हमारी ही है जो हमने सिद्धांतों-विचारों, अवधारणाओं-स्थापनाओं के सहारे समय को समझने की कोशिश की। गलत तरीका है यह। समय को समझना या जानना है तो विचारों को छोड़ उसमें गहरा धंसना होगा। फिर जो महसूस होगा वही सच के ज्यादा करीब होगा। चलिए वही करके देखते हैं--- किसी को समझना एक खोज ही तो है। इस यात्र में कई दृश्य, कई मोड़, कई पड़ाव मिलेंगे।
     स्मृति और कैद का फर्क मिटने लगा है। दोनों ने ही अपने अर्थ का अतिक्रमण किया है। दिल पर दिमाग हावी। दिमाग पर तकनीक। लोग चीजों को लम्हों को याद रखने से ज्यादा कैद करना चाहते हैं। यह तकनीक की उपलब्धता भी है और यही उसकी सीमा भी बन जाती है। याद रखने के लिए न दिमाग पर जोर, न दिल को तकलीफ। हर हाथ में कैमरा है, जिसमें रील की सीमा नहीं। चाहे जितना क्लिक करो। कैमरा नहीं तो मोबाइल हाजिर है। जो भी अच्छा लगे उसे कैद कर लो, अपना बना लो--- अपनी जागीर। यह स्वकेंद्रित होने का समय है। व्यक्तिवादी कहना पुराने ढंग का हो जाएगा। बस अपने लिए जीना है। इस तरह के जीने में--- दोस्त आ जाएं, दादी मां आ जाएं, संगीत, सिनेमा, नदी, पहाड़, शराब, शबाब, स्वार्थ, संन्यास, ध्यान, भोग--- कुछ भी हो वह साधन भर है। यहां मामला सरोकार का भी हो सकता है--- इंडिया गेट पर किसी सामाजिक मुद्दे को लेकर मोमबत्तियां जलाने का भी-- - यह सब अपने ढंग से जीने की जद में ही समाया हुआ है- -- यह कुछ लोगों के लिए बुरा भी हो सकता है, खुद के लिए अच्छा भी। मगर है यह नए जमाने का नया यथार्थ ही। मुझको केवल अर्ज यह करना है दोस्त कि यह वक्त तस्वीर खींचने से ज्यादा तस्वीर बदलने का है, क्योंकि माहौल भयावह होता जा रहा है और हम उसकी हू-ब-हू तस्वीर उतारने वाले एक फोटोग्राफर की भूमिका में कब तक सीमित रहेंगे।
     जब मैं भयावह समय कह रहा हूं तो आपको इस बात का पूरा हक है कि आप इससे असहमत हो जाएं। मगर जरा ठहरें। पहले इन पर गौर फरमाइए---। इस देश में स्कूलों-अस्पतालों से ज्यादा मंदिर-मस्जिद हैं। मंदिरों में भीड़ है--- लेकिन यह आध्यात्मिक समय नहीं है, न ही देश धार्मिक हो गया है--- वहां भीड़ में खड़े भक्त ‘नशे’ में हैं। किसी तरह आगे निकल, पीछे वाले को कोहनी मार दर्शन कर तर जाने का लोभ लिए देवता के आगे एक मांग पिछली दफे भी रखी थी--- इस दफा दो और रखेंगे--- अगर लोभ-लालच ही धर्म है तो मान लीजिए खुद को, इस वक्त को धार्मिक---। पहाड़ों के रमणीक स्थलों पर भीड़ है--- और यह उनका प्राकृतिक प्रेम भी नहीं है--- थोड़े सुकून की खोज, थोड़ा चेंज और ज्यादा मस्ती है--- पहाड़ के जंगल के बीच डीजे का तेज शोर और शराब के नशे में चीखना अगर प्रकृति प्रेम है तो तय मानिए महानगरों के क्लबों में भी ऐसे प्रेमियों की कमी नहीं।
     मनुष्य और इस सृष्टि के दो ही महाभाव हैं-प्रेम और हिंसा। बाकी सारी भाव दशाएं इसकी ही शाखाएं हैं। हिंसक कोई कहलाना नहीं चाहता। प्रेम में होने का गुमान कइयों को हो जाता है। जिंदगी के सबसे हसीन पल और एहसास से बावस्ता हो रहे प्रेमी युगल को जो एक दूसरे की हथेली को सहलाते हुए बहुत कम सोच पाते हैं कि दुनिया को भी इसी तरह सुंदर होना चाहिए--- हनीमून पर गए दंपत्ति को जो देह को ही प्रेम समझ लेते हैं--- देह का आकर्षण है जो चांद की तरह धीरे-धीरे खत्म होता है--- फिर अगले चांद की चाह में वह शुरू होता है। एक तिलिस्म है जो देह की झुर्रियों और खाल के ढीलेपन के साथ टूटता है--- ठीक है मान लेते हैं प्यार है, इलू-इलू है--- मगर मेरा, तेरा भी तो है--- मेरा और तेरा के बीच एक फांक है, उस फांक में फंसे प्रेम को छटपटाते-तड़पते, अगर आप उसके दर्द को महसूस कर सकें तो यह सच है कि आप प्रेम में हैं--- आप प्रेम के लिए हैं।
     विकास एक चिकनी-चौड़ी सड़क का नाम है और आधुनिकता वह नई तकनीक वाली गाड़ी है जिसमें आप बैठे दौड़ रहे हैं--- भाग रहे हैं। नैतिकता मरे हुए उल्लू की तरह उलटी लटकी है। सियारों की तरह ईमानदारी की हुआं-हुआं अब कहीं सुनने को नहीं मिलती--- सच्चाई स्वार्थ के खेल में खड़ा बिजूका है--- प्राणविहीन। अब सोचना यह है कि इसकी प्रासंगिकता क्या कुछ भी बची रह गई है। यह जीवन भागने के लिए है। हम भाग रहे हैं। बगैर यह समझे कि हम किस इलाके में हैं, किस प्रदेश से गुजर रहे हैं--- हमें जाना कहां है- -- पाना क्या है?
     जिन्होंने ठाना था-वे प्रार्थना के शिल्प में कुछ भी नहीं कहेंगे--- मक्का-मदीना की जगह प्रेम पत्र बचाएंगे--- किसी तवायफ के घुंघरू की तरह उनके संकल्प भी टूट गए। एक्टिविज्म अब सड़कों से फेसबुक में सिमट आया है--- संघर्ष का माध्यम तो हो सकती है ये नई तकनीकें, लेकिन यही सत्य हो जाएं तो चिंता की बात है। हर आदमी बौद्धिक होने के मुगालते में है। हर पाठक अब लेखक है और लेखक ही पाठक है। लेखक पढ़ता कम फतवे ज्यादा जारी करता है। लेखकों को बनाया और गिराया जा रहा है। कविता या रचना एक प्रोडक्ट बन चुकी है। थोड़ी सी इमोशनल, थोड़ी सी कॉमिकल, थोड़ी सी सोच, थोड़ी सी इधर की, थोड़ी सी उधर की--- और शिल्प का तड़का--- कंटेंट की पैकेजिंग--- लो हो गई रचना तैयार।
     समझदारी हर जगह है। कदम-कदम पर गणित। समीकरण। निदा फाजली साहब सही कहते हैं-’सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला---’ इस दुनिया और आदमीयत को कोई सिद्धांत या वाद नहीं बचाएगा। यह अपनी नादानी और दीवानेपन से ही बची है और आगे भी बचेगी। जुनूनी लोग हर दौर में रहे हैं, आज भी होंगे, वे गिनती में कम हैं, मगर हैं जरूर---।
     बहरहाल इस दौर के बारे में कुछ भी निष्कर्ष निकालना जजमेंटल होना है। शब्द अर्थ खोने लगे हैं, दर्शन फानी है, मुहावरे मरे-मरे से। भय तो इस बात का है कि इन पंक्तियों के आप तक पहुंचने से पहले इनका संदर्भ या मायने न बदल जाएं। जो मैंने कहना चाहा वह उसी मूल अर्थ में आप तक पहुंच जाए तो यह बड़ी बात है।
    

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

  1. पूरा लेख पढ़ डाला....आज जो भी पढा उसी की खोज में था....कई महीनो से...और इन दो-तीन दिन से तो और भी ज्यादा ..
    आज वैसे इस तड़फ का आखरी दिन था.....लेख ना भी पढ़ता तो भी / पर लेख ने इस तड़फ को अद्भुत अर्थ से भर दिया.........
    आभारी हूँ शब्दांकन का /

    जवाब देंहटाएं

ये पढ़ी हैं आपने?

मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
ट्विटर: तस्वीर नहीं, बेटी के साथ क्या हुआ यह देखें — डॉ  शशि थरूर  | Restore Rahul Gandhi’s Twitter account - Shashi Tharoor
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
Hindi Story: दादी माँ — शिवप्रसाद सिंह की कहानी | Dadi Maa By Shivprasad Singh
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'
मन्नू भंडारी की कहानी  — 'नई नौकरी' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Nayi Naukri' मन्नू भंडारी जी का जाना हिन्दी और उसके साहित्य के उपन्यास-जगत, कहानी-संसार का विराट नुकसान है