
फिज़ा में फैज़
कथाकार प्रेम भारद्वाज (संपादक पाखी)
आपमें से किसी ने सुनी है पचहत्तर साल के बूढ़े और तीस साल की जवान लड़की की कहानी। नहीं न! तो सुनिए- .. अर्ज है... कहानी सुनाने से पहले यह साफ कर देना जरूरी है कि यह एक नहीं, दो ऐसे लोगों का किस्सा है जो आपस में कभी नहीं मिले... दो प्रेमी युगल... दो जीवन... दो पीढ़ियां... दो सोच... उनका अपना रंज-ओ-गम... एक ही वक्त में दो जमानों का अंदाज-ए-मोहब्बत... रेल की दो पटरियां जो आपस में कभी नहीं मिलती... उन्हें जोड़ती है उन पर से गुजरने वाली रेलगाड़ियां... आप उसे वक्त भी मान सकते हैं... हर बार ट्रेन के गुजरने पर पटरियां थरथराती हैं... कुछ देर के लिए दबाव... तनाव... टक्-टक् धड़-धड़... पीछे छूटते समय की नदी... यथार्थ के जंगल... भावुकता के सूखते पोखर-नाले... उपकथाओं और यादों के छोटे-बड़े पुल...
ऐतिहासिक शहर का एक पुराना मुहल्ला। मुहल्ले की वह तंग और बदबूदार गली... बंद गली का आखिरी मकान... मेरे दाएं बाजू वाले उस जर्जर मकान में अकेले रहता है वह बूढ़ा।
सत्तर-पचहत्तर साल की उम्र। न वह मुसलमान है, न मार्क्सवादी, न कोई बाबा... मगर लंबी दाढ़ी न जाने क्या सोचकर रखता है। इस लंबी दाढ़ी की वजह शायद उसका आलस्य रहा होगा। वह आलसी बहुत है। शायद इसी को देखकर ‘स्लोनेस’ उपन्यास लिखा गया होगा।
मुश्किल यह है कि वह अपने आलस्य को तरह-तरह की दलीलों से जरूरी और उपयोगी साबित करता है। वह अपने आलस्य को पूंजीवाद का विरोधी भी प्रमाणित करता है।
उसकी तीन रुचियां हैं-ज्यादा पढ़ना, रोडियो सुनना और तीसरी के बारे में उसने किसी को कुछ नहीं बताया। अजीब शख्स है। रुचियां तीन गिनाता है, बताता दो है। कुछ लोग उसे खब्ती और सनकी भी कहते हैं जिसका उस पर कोई असर नहीं पड़ता। वह हमेशा अपनी ही धुन में रहता है।
एक नौकर है जो उस भुतहे मकान में बूढ़े की देखभाल करता है। खाना बनाने से लेकर उसके लिए बैंक से पैसा लाने का काम उसी के जिम्मे है। उसकी कोई संतान नहीं। उसका बाल विवाह हुआ था। गौने की शुभतिथि पंडित जी ने निकाली थी कि बीच में ही पत्नी चल बसी। उसने अपनी पत्नी को पहली बार चित्ता पर लेटे ही देखा, उसे मुखाग्नि देते वक्त। वह बेहद सुंदर थी। काश! वह औरों की तरह गौने से पहले ही उससे मिल पाता... जी भर कर देख पाता। वह बहुत देर तक हाथ में आग लिए मृत पत्नी को देखता रहा। किसी ने टोका तो वह आग देने के लिए आगे बढ़ा। पत्नी की चिता को आग देते हुए ही उसने मन ही मन संकल्प ले लिया कि वह जीवन में दूसरी शादी नहीं करेगा, चाहे अकेलापन कितना ही कांटेदार क्यों न हो जाए? परिवार और रिश्तेदार के नाम पर उसके यहां किसी को भी आते-जाते किसी ने नहीं देखा। एक रेडियो है जो अक्सर बजता रहता है। यह रेडियो ही उसके अकेलेपन का साथी है। रेडियो ही उसका परिवार, प्यार और समाज है। उसके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता। राज्य सूचना जनसंपर्क के नृत्य विभाग का निदेशक था वह। कथक नृत्य के साथ-साथ ढोलक बजाने में उसका कोई सानी नहीं। कभी-कभी कोई शिष्य उससे मिलने आ जाता हैं। विशेषकर गुरु पूर्णिमा के अवसर पर। इस दिन उसके यहां भीड़ लगी रहती है।
कमरे में एक तस्वीर टंगी है जो उसके जवानी के दिनों की है। वह युवा है, गले में लटका ढोलक है। सहयोगी कलाकार भी साथ खड़े हैं। इस तस्वीर की खास बात यह है कि उसके साथ देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी खड़े हैं, उसके कंधे पर हाथ रखे। तब वह आज की तरह बूढ़ा नहीं था। आकर्षक व्यक्तित्व था उसका। 1960 की खिंची तस्वीर है यह। ढोलक नेहरू ने सप्रेम भेंट की था, खुश होकर। वह ढोलक आज भी ससम्मान उसके कमरे में मौजूद है। जब कभी वह बहुत उदास या खुश हो जाता है तो वह उसे घुटनों से दबाकर बजाने लगता है। तब सुबह के चार बज रहे हों या रात के दो, उसको कोई फर्क नहीं पड़ता।
मोहल्ले के लोग उसकी खुशी और उदासी में फर्क नहीं कर पाते हैं। वह उदास होने पर गंभीर रहता है, यह बात समझ में आती है। लेकिन जब वह भीतर से बहुत खुश हुआ करता है तब भी उसकी मुद्रा गंभीर ही बनी रहती है। इसलिए केवल वही जान पाता है कि वह कब खुश है और कब उदास। शायद दिलीप कुमार की देखी ट्रेजिक फिल्मों का गहरा असर है उस पर।
उसके घर आने वालों में एक चांदी से बालों वाली पतली लंबी सी औरत है। उस बूढ़ी औरत के चेहरे पर गजब का तेज है। वह कब आती है, इसका अंदाजा किसी को नहीं। लेकिन दो मौकों पर वह जरूर यहां देखी जाती है। एक तो तब जब यह बूढ़ा बीमार पड़ जाता है, दूसरे 15 सितंबर को। बूढ़े का जन्मदिन। उस दिन नौकर घर पर नहीं रहता। बूढ़ा-बूढ़ी कहीं घूमने नहीं जाते। साथ-साथ खाना बनाते हैं, खाते हैं। केक काटते हैं। मिठाइयां बांटते हैं। बूढ़ा तबले पर थाप देता है और बूढ़ी नृत्य करती है। कथक नृत्य। जन्मदिन का जश्न सिर्फ वे दो जन ही मनाते हैं। ठीक नौ बजे वह औरत अपने घर लौट जाती है। पिछले चालीस सालों से किसी ने उस बूढ़ी औरत को बूढ़े के घर रात को रुकते नहीं देखा, चालीस साल पहले दोनों अधेड़ मगर खूबसूरत थे।
सचमुच ही चालीस साल पहले वह बेहद खूबसूरत थी। बूढ़े के विभाग में ही नृत्यांगना थी। उसकी सहयोगी कलाकार- -- पहले उसने बूढ़े को गुरु माना... लेकिन गुरु-शिष्य का यह रिश्ता बहुत जल्द दूसरे रिश्ते में बदल गया... दोनों में से किसी ने एक दूसरे को आई लव यू नहीं बोला... कोई खत नहीं लिखा... चांद तारे तोड़ लाने के वादे नहीं किए- -- एक नहर थी जो एक दिल में दूसरे दिल तक बहने लगी... बहती रही... वह दक्षिण भारतीय थी जिसके पिता पटना में बस गए थे... एक बार उसने शादी की बात अपनी मां से की तो उन्होंने कहा-‘अगर तुम सचमुच ही उससे प्रेम करती हो... और चाहती हो प्रेम बना रहे तो उससे कभी शादी मत करना... यह मैं अपने अनुभव से कह रही हूं जब प्रेमी पति बन जाता है तो प्रेम भी अपनी शक्ल बदल लेता है, वह कुछ और हो जाता है... प्रेम नहीं...।’ मां ने उससे शादी नहीं करने के लिए कहा, वह किसी से भी शादी करने की इच्छा को भस्म कर बैठी। बूढ़े ने भी कभी उससे नहीं कहा-‘तुम सबको छोड़कर मेरे पास चली आओ...।’ दोनों एक दूसरे का दर्द समझते थे। घाव सहलाते थे। भाषा कहीं नहीं थी... शब्द तिरोहित थे, सिर्फ भाव... भाव ही।
बाएं तरफ नया मकान बना है, पुराने मकान को तोड़कर। मकान मालिक ने इसे फ्रलैटनुमा बनाया है, आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित। उसके पहली मंजिल पर एक लड़की रहती है। दुबली-पतली। लम्बी। छरहरी। उसके ठीक बगल वाले फ्रलैट में एक लड़का भी रहता है। दोनों एक ही कॉल सेंटर में काम करते हैं। कभी-कभी लगता है वे समय की सीमाओं से परे की चीज हैं। उनके न सोने का समय है, न जागने का। न घर से दफ्रतर जाने और न दफ्रतर से घर लौटने का। उनकी जीवनशैली समय सारणी का अतिक्रमण करती है।
पड़ोस के लड़के से उसकी दोस्ती हुई। वह फ्रेंड बना। फिर ब्वॉयफ्रेंड। मामला और आगे बढ़ा और दोनों रिलेशनशिप में एक साथ रहने लगे। बिना शादी के पति-पत्नी की तरह। सहजीवन। जीवन के साथ जंजाल से दूर। कितने पास, कितने दूर। दोनों ने एक फ्रलैट खाली कर दिया। वे अब एक ही फ्रलैट में साथ रहने लगे। एक फ्रलैट का किराया बचाया। उन्हें सुख चाहिए था, संतान नहीं। शादी का ताम-झाम भी नहीं। वे सवालों, सरहदों में घिरना और बिंधना नहीं चाहते थे। इसलिए साथ-साथ थे।
लड़की की तीन रुचियां बड़ी ही झिंगालाला है। एक है मोबाइल से नए गाने सुनना। फेसबुक पर रातों को चैटिंग करना और मॉल में तफरीह करना। उसी दौरान किसी मुर्गे (लड़के) को पटाकर महंगे रेस्टोरेंट में अच्छा खाना या फिल्में देखना। लड़की की एक और खूबी है जो अब उसकी आदत बन गई है और वह है खूबसूरत झूठ बोलना। वह जहां कोई जरूरत नहीं होती वहां भी अपने झूठ बोलने के कला-कौशल का मुजाहिरा किए बिना नहीं रहती।
उस लड़की ने मान लिया था कि साथ रह रहे लड़के के साथ उसको प्यार हो गया है। वह उसके प्रति समर्पित है, बहुत केयरिंग है। लेकिन साल भर के भीतर लड़के को इस बात का बोध हो गया कि जिस लड़की के साथ वह रह रहा है उसके प्रति आकर्षण के तमाम तत्व समाप्त हो गए हैं। अब उसका साथ ऊब पैदा करता है। जब आकर्षण ही नहीं तो प्यार कैसा? अब लड़की की नजाकत उसका ‘इगो-प्रॉब्लम’ लगने लगा। अब वे दोनों बात-बात पर झगड़ पड़ते। लड़के ने तय कर लिया कि अब लंबे वक्त तक साथ नहीं रहा जा सकता। उसने किनारा कर लिया। वह किसी दूसरी लड़की के साथ रिलेशनशिप में रहने लगा। लड़की को बुरा लगा। सपने को झटका। हालांकि लगना नहीं चाहिए था। जिस रिश्ते की बुनियाद ही इस गणित पर टिकी हो- सुख के लिए साथ। जिस दिन किसी दूसरे से सुख ज्यादा मिला, पुराना रिश्ता खत्म। लेकिन लड़की को बुरा लगा। लड़की थी न। कुछ दिनों तक उदास रही। रोई-धोई। खाना छोड़ा। उसके सभी दोस्त जान गए कि उसका ब्रेकअप हो गया है।
और उधर दाएं वाले मकान में? जैसा कि मैंने अर्ज किया था बूढ़े को रेडियो सुनने की सनक है। वह किसी गाने को सुनते हुए एक खास दौर में पहुंचकर उसे जीने लगता है।
रेडियो सुनने का उसका खास स्टाइल था। वह चारपाई पर लेट जाता रेडियो उसके पेट पर पड़ा बजता रहता। कभी वह सिर्फ रेडियो ही सुनता। कभी वह रेडियो सुनते हुए कोई किताब पढ़ रहा होता। कई बार ऐसा होता कि रेडियो उसके लिए लोरी और थपकी का काम करता और वह सो जाता। घंटों सोता रहता। रेडियो का संगीत बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह माहौल रचता। संगीत उसे सपनों की दुनिया में ले जाता।
विविध भारती के ‘भूले बिसरे गीत’ कार्यक्रम में गीत बज रहा था-‘जब तुम ही चले परदेस, लगाकर ठेस... ओ प्रीतम प्यारे’ बूढ़े को अपना जमाना याद आया। चालीस का दशक... ‘रतन’ फिल्म को देखने के लिए वह अपने गांव से पटना चला गया था। गांव के कुछ दोस्तों के साथ। वहां उसने एलिफिस्टन में यह फिल्म देखी थी। जोहराबाई अंबाले वाली की आवाज ने तब के युवाओं पर जैसे जादू कर दिया था... उस आवाज का दीवाना वह भी था। इसके गाने उसने रेडियो में भी सुने। पचास के दशक में ही विविध भारती शुरू हुआ था... गांव-ज्वार में सबसे पहले उसके यहां ही रेडियो आया था... सामंती परिवार... उसको न जाने क्यों नृत्य सीखने की सनक सवार हो गई... सिखाने वाला कोई उस्ताद नहीं मिला- -- उस्ताद ढूंढ़ने के लिए वह भागकर मद्रास पहुंच गया... चिन्ना स्वामी के यहां। छह महीने तक उन्हीं के यहां रहकर नृत्य सीखा... सेवक बनकर वहां रहा... स्वामी ने ही बताया कि उनके एक शिष्य हैं पटना में मदन मिश्रा। आगे की चीज उनसे सीखो। स्वामी ने बताया कि रियाज जरूरी है... वह घर लौट आया... रियाज के लिए जगह थी नहीं। तब वह गांव से बाहर आम के घने बगीचे में रात को जब सारा गांव सो जाता था, तब वह वहां रियाज करता था... बारह बजे से चार बजे तक, क्योंकि चार बजे के बाद गांव वाले उठ जाते। यह सिलसिला साल भर चला। एक दिन बगीचे से गुजरते हुए किसी ने रात को साढ़े बारह बजे ‘ता थई ता-ता-थई...’ की थाप सुन ली... उसने पूरे गांव वाले को बोल दिया... ‘उस आम के बगीचे में भूत आता है, साला नए डिजाइन का भूत है... कथक करता है...।’ कुछेक वैज्ञानिक किस्म के गंवई लोगों को यकीन नहीं हुआ तो वे सच्चाई को जानने के लिए खुद बगीचे पहुंचे, मगर ता-थई-ता-ता-थई की आवाज सुनकर उनके होश फाख्ता हो गए, लौट गए उल्टे पांव... जान बचाकर...।
संगीत और नृत्य की बहुत कठिन साधना की उसने। जिस दिन उसने पटना में नृत्य का पहला प्रदर्शन किया था उसी दिन से उसका सामंती परिवार उससे सदा के लिए अलग हो गया। घरनिकाला हो गया। पिता ने कहा-‘दाग लगा दिया खानदान के दामन पर... साला नचनिया हो गया...। अगर मालूम होता कि जवान होकर ता-थैया करेगा तो पैदा होते ही टेटूवा दबा देते...।’
पिता का यह आशीर्वाद था उसके ऐतिहासिक प्रदर्शन पर जिसे देखने के लिए राज्य के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण बाबू और देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद दोनों उपस्थित थे।
सुना था, संगीत जोड़ता है। यहां तो संगीत ने संबंधों का तार ही तोड़ दिया। दो में से चुनाव करना था उसे, संगीत और संबंध के बीच। संबंध माने परिवार और समाज। उसने संगीत को चुना। और क्रांतिकारी होने के दंभ से भी अछूता रहा। संगीत के चुनाव ने उसके जीवन को सूनेपन और अकेलेपन की सलीब पर टांग दिया। घर-समाज की नजरों में वह बागी था। उसने कहीं पढ़ा था, उम्र के 35 साल तक हर युवा को बागी ही होना चाहिए। परिवार वालों के लिए वह मर चुका था। केवल मां ही थी जो पटना में डॉक्टर को दिखाने के बहाने मामा के साथ मिलने आतीं। मां उसके लिए खाने को वे तमाम चीजें बनाकर लातीं जो उसे पसंद थीं। अपनी आंखों के सामने खिलातीं और अपलक देखते हुए रोती-सुबकती रहतीं। बोलतीं कुछ भी नहीं... आशीर्वाद देने के अलावा।
जीवन में आए उस खालीपन को तब रेडियो ने ही भरा था वरना वह पागल हो जाता। पागल वह भी थी... साथ नृत्य करते हुए। तब गजब की सुंदर थी वह। बदन में कमाल का लोच था। वह जहां थी, उससे भी आगे जा सकती थी। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर की नृत्यांगना बनने की प्रतिभा थी उसके भीतर... लेकिन वह उससे दूर नहीं जाना चाहती थी- -- प्रसिद्धि अक्सर अपनों से दूर कर देती है... कई बार खुद से भी... प्रसिद्धि नहीं, प्यार अभीष्ट था उसका। रेडियो और प्यार की जुगलबंदी ने ही उसे उन मुश्किल दिनों में बचाया। मगर वह दो साल का समय बूढ़े पर बहुत भारी पड़ा था, जब वह सरकारी टूर पर अमेरिका चली गई थी। वह एक पतझड़ था जिसकी अवधि दो साल तेरह दिन की थी। रेडियो और प्यार की जुगलबंदी जैसे कुछ वक्त के लिए ठहर गई हो।... सांसे लेता था, मगर जैसे जिंदा होने का भरम नहीं बचा... आंखों में नींद की जगह इंतजार ने ले ली... वह बिस्तर पर सोने की कोशिश करता तो बेचैनी से भर जल बिन मछली की तरह तड़पने लगता...। तब वह नौकरी में ही था... मंच पर कार्यक्रम देते वक्त एक बार तो गिर पड़ा था... खाना नहीं खाने के कारण बहुत कमजोर हो गया था वह... उस दिन के बाद तो उसने तीन महीने की छुट्टी ही ले ली...। आस-पड़ोस के बच्चे उसे चिढ़ाने भी लगे थे। जब भी वह छत पर उदास बैठा होता, कोई बच्चा दौड़ता हुआ आता और आवाज देता-‘चाचा नीचे चलिए अमेरिका से किसी विजयलक्ष्मी का फोन आया है... होल्ड पर है...।’ तब मोबाइल का जमाना नहीं था। उसकी उदासी क्षण भर में काफूर हो जाती वह दौड़ा-दौड़ा पड़ोसी के घर जाता, तब पता चलता... बच्चे तो मजाक कर रहे थे, किसी का फोन नहीं आया... विजयलक्ष्मी का तो पिछले दो महीने से नहीं...। बच्चों का मजाक बढ़ता गया... बच्चों की देखा-देखी बड़े भी इस तरह उसके प्यार और प्यार के इंतजार का मजाक उड़ाने लगे... तंग आकर उसने खुद अपने ही घर में फोन लगवा लिया... फोन आए या न आए... वह इस तरह अपमानित होने और मजाक बनने से तो बचेगा...। लेकिन लोग तो लोग हैं... कुछ तो कहेंगे ही... विभाग के लोग आते... वे भी चुस्की लेते... लगता है अब तो विजयलक्ष्मी अमेरिका से शादी कर के ही लौटेगी... अपने साथ किसी अमेरिकी गोरे को पति के रूप में साथ लाएगी... बहुत संभव है... वह लौटे ही नहीं... शादी कर वही सैटल हो जाए... ईमानदारी की बात है कि इन बातों को सुनकर वह विचलित हो जाता... मगर उसे अपने प्यार पर भरोसा था।
वह लौटी। और अकेले लौटी। बिना शादी किए। और सीधे एयरपोर्ट से उसी के पास पहुंची... लगा कोमा में पड़े किसी आदमी के भीतर जीवन की हलचल लौट आई हो...। पहली बार जाना कि लौटने का सुख असल में होता क्या है? उस दिन वह सुबह की चाय पी रहा था। विविध भारती पर कार्यक्रम ‘संगीत-सरिता’ चल रहा था। गाना... अंखियां संग अंखियन लागे न...।’
अचानक रेडियो में गाना आना बंद हो गया। उसे लगा प्रसारण में अवरोध है। मगर नहीं... दस मिनट तक रेडियो खामोश रहा। कुछ देर बाद वह उठा, रेडियो के स्विच को घुमाया... ट्यूनिंग भी की... सिर्फ खर-खर की आवाज...। रेडियो में कुछ खराबी आ गई थी। उसका मूड खराब हो गया। रेडियो के बगैर उसका जीवन जैसे ठहर गया। उस दिन उसने नाश्ता भी नहीं किया। नहाया नहीं। दस बजते ही वह एक झोले में रेडियो को लेकर उसे बनवाने बाजार निकल गया। उसके जेहन में जो रेडियो मरम्मत की दुकान थी उसमें मोबाइल बिक रहा था। नए-नए मॉडल के मोबाइल। उसने बहुत ढूंढ़ा। मगर रेडियो ठीक करने वाली दुकान उसे नहीं मिली। पता करने पर एक ने बताया बगल के मुहल्ले में एक बुजुर्ग मियां जी हैं, वे अब भी रेडियो बनाते हैं। उसके पहले लोगों ने समझाया, अब चीजें ठीक नहीं होती, बदल दी जाती हैं। नया रेडियो ले लीजिए। मगर बूढ़े की जिद। उसे रेडियो को बदलना नहीं, ठीक कराना है। जो हमारे पास पहले से है और जो खराब है, उसे ठीक करना है ताकि वह पहले की तरह काम करने लगे। उसे दुःख हुआ कि खराब चीज को ठीक करने वाले कारीगर हमारे समाज से गायब होते जा रहे हैं, गायब हो गए हैं।
वह मुस्लिम बस्ती थी, शहर के बीचोंबीच। भीड़-भड़ाका। देह से छिलती देह। मानो कोई मेला हो। एक तेज उठती गंध। बुर्कापरस्त मुस्लिम महिलाएं। छतों पर पतंग उड़ाते बच्चे। कबूतरों का झुंड। दुकानों पर फैन, बिस्किट और बेकरी खरीदने वालों की भीड़।
एक जमाने बाद वह इस मुहल्ले में आया था। बड़ी मुश्किल से फूकन मियां वाली गली मिली, मस्जिद के ठीक सामने। दुकान बंद थी। टूटा-फूटा साईन बोर्ड अब भी लटक रहा था, किसी पुरानी याद की तरह... यहां रेडियो-ट्रांजिस्टर की तसल्लीबख्श मरम्मत की जाती है। फूकन मियां रेडियोसाज...।
बूढ़े ने सोचा... नमाज का वक्त है? शायद दुकान बंद कर फूकन मियां नमाज पढ़ने गए होंगे? आज है भी तो जुम्मा। इंतजार करते डेढ़ घंटा हो गया। तीन बज गए। दुकान नहीं खुली। नमाज पढ़ने वाले तमाम लोग मस्जिद से बाहर निकल आए थे।
उसने बगल के बेकरी की दुकान वाले से तफ्रतीश की तो जवाब मिला... ‘अरे फूकन मियां की बात कर रहे हैं... उनकी यह दुकान तो पिछले छह महीने से बंद है।’
‘वो मिलेंगे कहां?’
‘कब्रिस्तान में बैठे बीड़ी सुड़क रहे होंगे?’
‘मतलब?’
‘गलत मत समझिए... वो दिन भर वहीं कब्रिस्तान में ही अपनी बेगम की कब्र पर बैठे रहते हैं... अगर उनसे कोई काम है तो एक बंडल गणेश छाप बीड़ी लेते जाइए... खुश हो जाएंगे...’
‘कब्रिस्तान है कहां?’
‘इसी गली के अगले मोड़ से दाएं मुड़ जाइए... सौ कदम चलने के बाद बिजली ट्रांसफारमर से बाएं मुड़ते ही सीधे चलते जाना... वह रास्ता कब्रिस्तान को ही जाता है... वहीं मिल जाएंगे बीड़ी फूंकते फूकन मियां...।’
बूढ़े ने सबसे पहले सामने की गुमटी से एक बंडल बीड़ी का खरीदा... फिर झोला लिए बताए रास्ते पर चल पड़ा। शाम ढलने लगी थी। सूरज ने अपनी दिशा बदल ली थी। कमजोर होती धूप बूढ़े को खुद के जैसी ही लगी पग-पग अवसान की ओर बढ़ती।
जैसा कि बेकरी वाले ने बताया था, एक सज्जन कब्रिस्तान में दिखाई दिए। सबसे कोने वाली एक कब्र में बीड़ी पी रहे थे।
वह पास पहुंचा-‘अगर मैं गलत नहीं हूं। तो आप फूकन मियां ही हैं न।’
‘जी हूं तो... फरमाइए...।’ कब्र पर बैठे व्यक्ति फूकन मियां ही थे।
‘आपकी दुकान गया था... पता चला वह तो महीनों से बंद पड़ी है।’
‘पुरानी चीजें बंद हो जाती हैं... उन्हें बंद करना पड़ता है...।’ आवाज में तल्खी थी, क्यों थी मालूम नहीं।
‘आप यहां कब्रिस्तान में...’ पुराने जमाने का लुप्त होता प्रचलन है कि काम से पहले सामने वाले का हाल-चाल जरूर पूछते हैं।
‘सुकून मिलता है यहां...’ फूफन मियां ने जोर देकर कहा-‘मृत चीजें सुख देती हैं... कोई सवाल नहीं करतीं... शक नहीं- -- न प्रेम, न नफरत... सियासत तो बिल्कुल ही नहीं... इसीलिए सुकून की खोज में हर सुबह यहां चला आता हूं... घर में चार बेटे हैं-बहू है पोते-पोतियां 15 लोगों का कुनबा है मेरा... मगर मैं किसी का नहीं। हमारी बेगम छह महीने पहले हमें छोड़कर चली गई खुदा के पास... तब से हम ज्यादा तन्हा हो गए हैं... जिस कब्र पर बैठकर अभी हम बातें कर रहे हैं... वह हमारी रुखसाना बेगम का है... यहां जब तनहाई ज्यादा ही सताने लगती है तो बेगम से बातें भी कर लेता हूं... उनकी आवाज सिर्फ मुझे ही सुनाई पड़ती है... 56 साल का साथ अचानक खत्म हो जाता है... हम अकेले पड़ जाते हैं... बेबस, उदास... खैर मैं तो अपनी ही कहानी में गुम हो गया... आप बताओ मुझसे मिलने का मकसद। मुझे ढूंढ़ते-ढूंढ़ते कब्रिस्तान पहुंच गए...।’
‘मेरा एक बहुत पुराना रेडियो है... वह मुझे बहुत प्रिय है... उसने मेरे जीवन में संगीत भरा था... अचानक उसमें खराबी आ गई है, वह बजता ही नहीं... किसी ने बीस साल पहले गिफ्रट दिया था मुझे। इस शहर में रेडियो ठीक करने वाला कोई बचा नहीं। लोग नया रेडियो लेने की सलाह देते हैं, मगर मैं ऐसा नहीं कर सकता... किसी ने आपका नाम बताया तो आपके पास हाजिर हूं...।’
‘मैंने तो काम छोड़ दिया है... दुकान भी बंद हो गई, बेगम के इंतकाल के दूसरे दिन ही...।’
‘दुकान बंद हुई है आप तो हैं...।’
‘दिखाई कम पड़ता है... मुश्किल है... मैं माफी चाहता हूं... आपकी मदद नहीं कर सकता...’
‘आप नाउम्मीद मत कीजिए... मेरी मजबूरियों और इस रेडियो के प्रति मेरी दीवानगी को समझिए...’ यह कहते हुए सज्जन मियां ने बीड़ी का बंडल फूकन मियां की ओर बढ़ा दिया-‘अगर आपने रेडियो ठीक नहीं किया तो मैं जी नहीं पाऊंगा...।’
बीड़ी के बंडल पर झपट्टा मारते हुए फूकन मियां के चेहरे पर मुस्कान खिल गई। उन्होंने कुर्ते की दाहिनी जेब से माचिस निकाल कर तुरंत एक बीड़ी सुलगाई। एक सुट्टा मारते हुए बोले-‘रेडियो कहां हैं?
बूढ़े ने झोले से रेडियो निकालकर फूकन मियां को सौंप दिया।’
‘आइए, मेरे साथ...’ फूकन मियां उठ खड़े हुए।
वे उसे दुकान ले गए। घर से चाबी मंगवाकर दुकान का शटर खोला। धूल की मोटी पर्तें जमी थी हर चीज पर। साफ करने में ही आधा घंटा लग गया। अगले आधे घंटे में उन्होंने रेडियो ठीक कर दिया। रेडियो पर गीत बज रहा था-‘रहा गर्दिशों में हरदम मेरे इश्क का सितारा।’
‘इसका बैंड खराब हो गया है रेडियो मिर्ची विविध भारती को बजने नहीं देता... पुराना पार्ट है, नया मिलेगा नहीं... इस कंपनी का बनना ही बंद हो गया... ठीक तो कर दिया है... मगर इसे गिरने से बचाइएगा... नहीं तो नई गड़बड़ी शुरू हो सकती है...।’
बूढ़ा खुशी-खुशी रेडियो घर ले आया...। रेडियो फिर से बजने लगा था बूढ़े के चेहरे पर रौनक लौट आई। जैसे पतझड़ के बाद वसंत आ गया हो। तपते रेगिस्तान में झमझम बारिश हो गई हो।
मगर तीसरे दिन ही आंधी आई और रेडियो टेबल से गिर पड़ा। फूकन मियां ने सही भविष्यवाणी की थी, उसमें एक नई बीमारी शुरू हो गई...। रेडियो बज तो रहा था, मगर अपने आप उसका बैंड बदल जाता... विविध भारती बजते-बजते रेडियो मिर्ची लग जाता। बूढ़ा परेशान। गाने स्वतः बदल जाते। विविध भारती पर बज रहा होता-‘जो वादा किया, वो निभाना पडे़गा।’ अचानक बैंड बदल जाता-‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए...। कभी बजता होता-‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम’ बैंड बदलता और गाना बजता-‘आई चिकनी चमेली छुपके अकेली पव्वा चढ़ा के आई...।’ बूढ़े को सिरदर्द होने लगा। वह अगले दिन ही झोले में रेडियो को डालकर फूकन मियां के पास कब्रिस्तान पहुंचा। वह उनके लिए बीड़ी का बंडल लेने गुमटी गया, गणेश छाप था नहीं... न जाने क्या सोचकर उसने सिगरेट ले ली-- -। उसे लगा फूकन मियां खुश हो जाएंगे, बीड़ी पीने वाले को सिगरेट मिल जाए... देसी पीने वाले को व्हिस्की तो वह ज्यादा खुश हो जाता है, ऐसी सोच थी उसकी।
इस बार कब्रिस्तान में फूकन मियां थे तो अपनी बेगम रुखसाना की कब्र पर ही। लेकिन मुद्रा बदली हुई थी। वह बीड़ी नहीं पी रहे थे... कुछ बुदबुदा रहे थे... पास जाने पर शब्द साफ हुए... ‘आप तो आराम से नीचे सो रही हैं... हमारी फिक्र ही नहीं है... ये मरने के बाद क्या हो गया है आपको... पहले तो आप ऐसी नहीं थीं... संगदिल बेपरवाह... मालूम है बहुएं मुझे खाना देना भूल जाती हैं... दो ही टाइम और दो ही रोटी खाता हूं, वह भी उनसे नहीं दी जाती...। आपकी औलादें हमारे मरने का इंतजार कर रही हैं... हम गैरजरूरी चीज जो हो गए हैं... अपना ही खून गलियां दे रहा हैं, अब आप ही बताइए कैसे जिए हम... एक गुजारिश है... आप अपने पास ही हमें जगह दे दीजिए... बिस्तर पर तो हम सालों साथ सोते रहे... यहां कब्र में भी सो लेंगे...’ कहते हुए फूकन मियां की आंख भर आई... कंधे पर रखे चरखाना अंगोछे से आंसू पोंछे... बाएं कुर्ते से बीड़ी का बंडल और दाएं जेब से माचिस निकाली... एक बीड़ी सुलगाई... इस बात से बेखबर कि पास पहुंचे बूढ़े ने उनकी सारी बातें सुन ली है... और वह उनके सामान्य होने का इंतजार भी कर रहा है- --।
बूढ़े ने जानबूझकर खांसा ताकि फूकन मियां उसकी ओर मुखातिब हो सके... फूकन मियां की तंद्र टूटी... हड़बड़ाकर बोले... ‘आइए साहब, सब खैरियत तो हैं...?’
‘जिंदगी से सांसों का तालमेल गड़बड़ाने को अगर खैरियत कहा जा सकता है तो मान लीजिए कि है...’
‘बड़ी गहरी बातें करते हैं...।’
‘आपसे ज्यादा नहीं... माफी चाहता हूं मगर अभी मैंने आपकी बातें सुनीं... आपको रोते हुए भी देखा... आप अपनी बेगम से कब्र में पनाह मांग रहे थे... यह जानते हुए भी कि कब्र जिंदों को पनाह नहीं देती...।’
‘सारे रास्ते अंत में यही आते हैं... और जब कोई रास्ता नहीं बच जाता तब भी जो पगडंडी बची रह जाती है वह भी यही आती है, कब्रिस्तान में... कब्र की ओर...।’
‘एक रास्ता है जो आपकी उस दुकान की ओर जाता है जो महीनों से बंद है...’ बूढ़े ने सिगरेट का डिब्बा फूकन मियां की ओर बढ़ा दिया।
‘आप तो सिगरेट ले आए...’
‘बीड़ी मिली नहीं...’
‘सिगरेट बीड़ी का विकल्प नहीं... बीड़ी को पिछले पचास साल से फूंकते रहने की एक आदत सी पड़ गई... सिगरेट मेरे वजूद से मेल नहीं खाती... हमने दो ही चीजों से प्यार किया बीवी और बीड़ी... बीवी तो छोड़ गई... बीड़ी को कैसे छोड़ दूं... सिगरेट पीना बीड़ी के साथ बेवफाई है हमारी नजरों में, जैसा बीवी के रहते किसी दूसरे औरत को चाहना-छूना और चूमना था... सोना तो बहुत दूर की बात... प्यार तो प्यार है मियां चाहे वह बीवी से हो... बीड़ी से हो या कुछ, ‘तू न सही तो और सही का फलसफा प्यार नहीं’ अÕयाशी है...’
‘आपने मेरी बात को नजरअंदाज कर दिया...।’
‘कौन सी बात?’
‘एक रास्ता दुकान की ओर भी जाता है... कब्र के अंधेरे में गर्क होने की बजाए टेबल लैंप की रोशनी में रेडियो को ठीक करना बेहतर है...।’
‘आपका रेडियो तो ठीक बज रहा है न...?’
‘बज तो रहा है... मगर मेरे मुताबिक नहीं, वह अपने ढंग से बजने लगा है... उसके भीतर कुछ ऐसा है जो आवाज को बदल देता है... दो जमाने के फर्क क्षण भर में मिट जाते हैं सुरैया से सुनिधि चौहान... सहगल से कमाल खान... मेरे हाथ में कुछ भी नहीं रहा, रेडियो है... स्विच है... मगर उसके भीतर से निकलने वाली आवाज पर मेरा नियंत्रण समाप्त हो गया है...।’
‘बैंड खराब हो गया है... कुछ नहीं किया जा सकता। पुराना है...।’
‘पुराने तो हम भी हैं... लेकिन अड़े हैं... खड़े हैं... अपनी पसंदों... चाहतों के साथ...।’
‘इंसान और मशीन में फर्क होता है...।’
‘यही बात तो मैं भी कह रहा हूं... आप इंसान है। मशीन की यह बीमारी आपकी कूवत से बाहर थोड़े ही न है...’
‘है...हो गई है, मशीन के आगे हम लाचार हैं... आपको रेडियो में आए बदलाव के साथ समझौता करना पड़ेगा’
‘आप हमें मायूस कर रहे हैं...’
‘जब सारे रास्ते बंद मालूम होते हैं तो मायूसी का कोहरा छा ही जाता है मैं माफी चाहता हूं, आप कोई नया रेडियो ले लीजिए...’ आपने मायूस कर दिया ‘खैर... मैं जा रहा हूं... लेकिन मेरी एक बात याद रखना... एक रास्ता दुकान की ओर भी जाता है...कब्र के अंधेरों से दूर टेबल लैंप की रोशनी की ओर...’ घर लौटते हुए उदास बूढ़ा सोच में पड़ गया। नया रेडियो, रुचियों को बदलना... उम्र के इस मोड़ पर जमाने के साथ तालमेल बैठाने के लिए खुद को बदलना पड़ेगा। यह कैसी आंधी चली है, जहां चिराग को रोशनी से दूर रहने का पाठ पढ़ाया जा रहा है... ताकि अंधेरा बना रहे।
अचानक बीच में आ रहे इस अवरोध के लिए क्ष्ामा। दो कहानियों के बीच मैं खुद अपनी साली को लेकर आ रहा हूं। हुआ यूं कि एक दिन मेरी पत्नी ने अपनी बहन की बात मुझसे करवाने यानी उसके जन्मदिन पर विश करने के लिए मुझे मोबाइल पकड़ा दिया।
अरे याद आया मेरी साली ने भी प्रेम किया था... अपनी रिश्तेदारी में ही... साली चंडीगढ़ जैसे आधुनिक शहर की रहने वाली... पंजाबी तड़का लिए। लड़का बिहार के जंगल नरकटियागंज का बेहद शरीफ... परंपराओं और मूल्यों से फेविकोल के जोड़ की तरह चिपका... लड़के ने प्रेम तो किया मगर जब साली ने शादी का प्रस्ताव रखा तो वह हिम्मत नहीं जुटा पाया... साली ने उसे बहुत ललकारा। ...मगर लड़का संयुक्त परिवार और पूरे शहर में अपनी इज्जत को दांव पर लगाने की हिम्मत नहीं कर सका... प्रेम जब अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पाता है तो कई दफा प्रतिशोध में तब्दील हो जाता है... साली ने प्रेम में प्रतिशोध लिया... जिस लड़के से प्रेम करती थी उसी के छोटे भाई को प्रेम में फांस कर उसे बागी बना दिया... साली पर तब टी-वी- पर चल रहे उन धारावाहिकों का असर था... शायद ‘कहानी किस्मत की’ धारावाहिक। वह प्रेमी के छोटे भाई से शादी रचाकर उसी घर में पहुंच गई। दुल्हा के रूप में अब उसका प्रेमी उसका जेठ था... प्रेमी को दुख हुआ। टीस उठी... मगर उसने उफ्रफ तक नहीं की...।
अब उस घटना को सात-आठ साल हो गए। साली के दो बच्चे हैं। एक बेटा और एक बेटी। पति सुंदर है पर बेरोजगार है। उसे चंडीगढ़ छोड़कर नरकटियागंज जैसे छोटे और ऊंघते शहर में रहना पड़ रहा है जहां सुविधाओं का टोटा है। वहां
ऐसा जीवन है जिसकी वह आदी नहीं थी।
‘जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामना साली जी...।’
‘काहे का शुभ जीजा जी... बस आपने याद कर लिया वही काफी है...।’
‘ऐसे क्यों बोल रही हो...’
‘अफसोस तो यही कि मैं बोल भी नहीं सकती...।’
‘मैं समझा नहीं...।’
‘जानते तो आप सब हैं... उसमें समझने जैसी क्या बात है... जो मैंने चाहा वो मिला नहीं... जो मिला, वह मेरी मंजिल नहीं थी...
‘मगर इसे तो आपने खुद ही चुना था...’
‘वह चुनाव कहां था जीजाजी...’
‘क्या था फिर...’
‘प्रतिशोध... प्यार में लिया गया प्रतिशोध... न जाने वह कौन सा आवेग था जो मैंने अपने लिए ही कब्रिस्तान खोद लिया ताकि मैं खुद को वहां दफन कर सकूं... उस आग ने सबकुछ जला दिया। अब तो राख ही राख बची है जो फैल गई है मेरी हस्ती पर...’
‘कुछ तो बचा जरूर होगा उस राख के भीतर...’
‘शायद लहूलुहान, अपाहिज और गूंगी चाहत... जिसका अब कोई मतलब नहीं रह गया...’
‘कभी अकेले में सोचना उस बेमतलब में ही कोई मतलब छिपा होगा...।’
‘जब जिंदगी बेमानी हो जाए तो किसी भी चीज का मतलब कहां बचा रहता है जीजा जी, अब तो सबकुछ खत्म है- --।’
‘खत्म होकर भी... सबकुछ खत्म नहीं हो जाता... महफूज रहता है वह। खैर वह वहां आता है या नहीं...’
‘नहीं... मेरी शादी के बाद इस घर तो क्या शहर में भी कदम नहीं रखा... पिछले साल तो उसने पटना में शादी कर ली...’
‘गई थी तुम...’
‘गई थी...’
‘कैसा लगा...’
‘उस अहसास से गुजरी जो उसके दिल में तब उठा होगा जब मैंने उसके छोटे भाई से शादी कर रही थी। बेशक वह शादी में नहीं आया मगर अहसासों से गुजरने के लिए सामने की मौजूदगी जरूरी नहीं होती।... मुझसे उसकी शादी देखी नहीं गई... मैं रो पड़ती इसके पहले पेट दर्द का बहाना बनाकर कमरे में बंद हो गई... सब लोग समझ तो गए ही। वह भी, मेरा पति भी। लेकिन मैं सब कुछ समझकर भी सच्चाई का सामना नहीं कर पाने में असमर्थ थी’ वह रोने लगी-
--
‘सॉरी... मैंने तुम्हारे जन्मदिन पर बेवजह ही रुला दिया...’
‘एक गुजारिश है जीजाजी...’
‘बोलो...’
‘आप जब छठ में यहां आएंगे तो उसे साथ जरूर लाइएगा... उसे देखने की बड़ी तमन्ना है... देखूंगी शादी के बाद कैसा लगता है...? लाएंगे न...’
‘हां जरूर...’ मैंने फोन रख दिया। मैं सोच सकता था कि वह उसके बाद क्या सोच रही होगी... और यह भी कि निश्चित तौर पर रो रही होगी... प्रेम में आंसुओं की बारिश या आंसुओं की बारिश में भीगता प्रेम।
बाएं मकान वाली लड़की सोच रही थी... जो चला गया उसके साथ सब कुछ तो नहीं चला जाता... जिंदगी खत्म तो नहीं हो जाती। उसने खुद को रिडिजाइन किया। पर्सनालिटी इम्प्रूवमेंट का कोर्स किया। नौकरी बदली।
लड़की बदलना चाहती थी। वह बदल रही थी। जितनी बदली थी अब तक, उसके आगे भी बदलने की इच्छा थी। उसका वजूद बन और बिगड़ रहा था। परेशान लड़की मंदिर गई। मन्नतें मांगी। ज्योतिष की दी हुई चमत्कारी अंगूठी पहनी। एक चमत्कारी गुरु की शरण में भी पहुंची। गुरुदेव ने आशीर्वाद दिया-सब मंगलमय होगा। लेकिन दिन शनि के शुरू हो गए।
लड़की साहसी थी। दुखों से लड़ने का हौसला था उसमें। उसने इस थ्योरी को समझ लिया था कि किसी मोड़ पर जिंदगी का सफर समाप्त नहीं होता सिर्फ सफर का रुख बदल जाता है। उसने अपने मोबाइल में सेब गाने नए सिरे से लोड करवाए... जवां है मोहब्बत हंसी है जमाना, लुटाया है किसी ने खुशी का खजाना...। तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले... अपने भर भरोसा है तो एक दाव लगा लें...
क्या जिंदगी जुआ है, जहां खुशियों को दांव पर लगाया जा सकता है। ...जीत हार तकदीर नहीं महज इत्तेफाक है।
लड़की के पड़ोस में एक नया लड़का आ गया। पढ़ाकू किस्म का। पत्रकार। कहानियां-कविताएं भी लिखता था। उसके हाथ में हमेशा कोई पुस्तक या डायरी होती। वह या तो कुछ पढ़ता या कुछ न कुछ डायरी में लिखता रहता। लड़के ने सबसे पहले लड़की की रुचियों को बदला। उसे अच्छी किताबें दी... क्लासिक फिल्में दिखाई... समझाया कि बारिश में साथ-साथ भीगने और तपते रेगिस्तान पर कदम मिलाते हुए चलने का नाम ही प्रेम है। और हम प्रेम होना चाहते हैं? लड़की-लड़के का कहा मानने लगी। लड़के को लगा लड़की बदल रही है। वह खुश था। लड़की को भी वहम हो गया कि वह बदल रही है। बदलाव के दौर में बिना बदले गुजारा भी कहां था? दोनों खुश। इस बात से बेफिक्र कि हर चीज की एक उम्र होती है-खुशी की भी।
लड़की ने लड़के को लाइक किया। फिर दोस्ती, फिर प्रपोज किया-आई लव यू बोला। इसमें एसएमएस मोबाइल ने अहम भूमिका निभाई। बहुत जल्द सेक्स तक पहुंच गए। दोनों लिव-इन-रिलेशन में रहने लगे...। लाइफ में इंज्वॉय। इंज्वॉय ही लाइफ। सब कुछ मस्त-मस्त... वक्त की सांसों में जैसा नशा घुल गया... नशा चढ़ता है तो एक अवधि बाद उतरता भी है... छह महीने में ही लाइक की सासें कमजोर पड़ने लगी। लव की सांसें फूलने लगी... सेक्स भी यंत्रवत होने लगा, पति-पत्नी की तरह। उसमें पहले जैसा आवेग... मजा नहीं रहा... मजावाद के वृत्त में देह बर्फ की मानिंद पिघलती रही, कतरा-कतरा...।
फिर एक समय ऐसा भी आया कि बाकी बर्फ पूरी तरह पिघल गई। अब सिर्फ पानी की नमी बची रह गई थी। और नमी को सूखने और गर्द बनने में देर ही कितनी लगती है। बूढ़ा बाजार में था। वह दुकान दर दुकान भटक रहा था। वह एक ऐसा नया रेडियो चाहता था जिसने विविध भारती बजे-
-- बाजार में एफएम वाले रेडियो ही उपलब्ध थे। कुछेक रेडियो मिले जिसके एफएम साफ बजता था, मगर विविध भारती की आवाज घर्र-घर्र के साथ सुनाई देती... दुकानदारों ने उसे समझाया चचा जान, आप एफएम रेडियो ले लो... वह नहीं लेने की जिद दर अड़ा रहा... एक बड़े दुकानदार ने बड़ी विनम्रता के साथ समझाया कि अब विविध भारती सुनता ही कौन है... आपको पुराने गीत सुनने से मतलब है न, आप आईपैड ले लो, हजारों गाने इसमें लोड रहेंगे... इन्हें सुनते रहो... आवाज साफ-सुथरी टनाटन, जब कोई दूसरा विकल्प न हो... रास्ता बचा न हो... आदमी को समझौता करना ही पड़ता है... बिना जरूरत और खरीदार की संवेदना को समझे समान को बेच देना ही बाजार का नया फंडा है... दुकानदार बूढ़े को समझाने में कामयाब हो गया... उसे एक आईपैड खरीदना पड़ा। उसके साथ लीड भी... दोनों कानों में लगाकर सुनने के लिए... उसने दोनों हेडफोन कान में लगा लिया।
वह गीत सुन रहा था। पता नहीं कौन सा... मगर दूर से दिखाई दे रहा था... उसके चेहरे पर खुशी के भाव थे... उसके जिस्म की जुम्बिश धीरे-धीरे तेज होने लगी... थोड़ी देर बाद वह थिरकने लगा।... यह सिर्फ वह बूढ़ा ही जानता था कि वह कौन सा गीत सुन रहा है... ऐसा पहले नहीं होता था। गीत सुनकर वह खुश और उदास पहले भी होता था... मगर पड़ोस में गीत के बोल सुनाई देते थे... अब नहीं दे रहे थे। मालूम पड़ता था कि वह कोई विक्षिप्त है जो यूं ही विभिन्न मुद्राएं बना रहा है... आईपैड लेकर बूढ़ा फूकन मियां के पास पहुंचा कब्रिस्तान में। वहां वे नहीं मिले। वह दुकान पहुंचा। टेबल लैंप की रोशनी में वह किसी बीमार रेडियो का ऑपरेशन कर रहे थे...। बूढ़े ने गणेश छाप बीड़ी का बंडल उन्हें सौंपते हुए आई पैड दिखाया तो बड़े गंभीर होकर फूकन मियां बोले थे-यह नए जमाने का संगीत है। नया चलन-नई सोच... मेरा है तो मैं ही सुनूं। तुमको भी सुनना है वो जाओ बाजार से दूसरा खरीद लाओ...। एक परिवार में पहले एक रेडियो होता था... अब एक परिवार में जितने सदस्य उतने आईपैड या गानों वाला मोबाइल।
गाना सुनते-सुनते बूढ़ा अचानक उदास हो गया, शीघ्र ही उसके चेहरे पर उभरी खीझ, गुस्से को दूर से भी देखा जा सकता था। ...न जाने क्या सोचकर उसने हेडफोन को कानों से निकाल दिया... आईपैड को भी जमीन पर पटकर चकना चूर कर दिया। कोई पागलपन का दौर पड़ा था उस पर। वह हंस रहा था, मगर उसकी आंखें नम थी... दिल में क्या भाव थे, यह तो वही जानता था।
एक सुबह लड़की ने मकान खाली कर दिया। वह कहीं और चली गई... पत्रकार दोस्त से उसका ब्रेकअप हो गया था- -- क्यों हुआ, इसकी सही सही वजह दोनों में से किसी को नहीं मालूम हो सका... जिंदगी में बहुत सी घटनाओं की असली वजह हम नहीं जान पाते... बस, अपनी सुविधा अनुसार किसी कारण का घटना के बरक्स खड़ा कर देते हैं।- --
लड़की ने वह मकान खाली करते वक्त किसी को कुछ नहीं बताया... मगर जाते वक्त वह रो रही थी... जैसे पुराने जमाने में मायके से ससुराल जाते वक्त बेटियां बिलखती थीं... उसकी शादी तय हो गयी थी...
जिस दिन बूढ़े ने आईपैड तोड़ा था... उस रात वह सो नहीं पाया... कमरे की बत्तियां नहीं बुझाई... वह पूरी रात बच्चों की तरह फफक-फफक कर रोता रहा था। अगली सुबह वह बूढ़ी औरत आई। सर्दी की धूप में वह उस बूढ़ी की गोद में सिर रख कर रोता रहा, रोते रोते सो गया। रात को सोया भी तो नहीं था, इसलिए गहरी नींद आ गई... बूढ़ी औरत ने उसको जगाया नहीं। उसके बालों को सहलाती रही, पर चार घंटे तक बूढ़ा सोता रहा। उसके भारी सिर के बोझ को वह सहन करती रही... बूढ़ी की जांघ में सूजन आ गई... दर्द भी बेहिसाब हो रहा था। उस रात दोनों ने कोई कसम नहीं खाई, कहीं किसी अनुबंध पत्र पर दस्तखत नहीं किए... रस्म-ओ-रिवाज का कहीं धुंआ नहीं उठा। लेकिन खास बात यह हुई कि उस रात वह बूढ़ी वहां से वापस नहीं गई... और कभी नहीं गई... बूढ़ी ने घर बदल लिया... घर बसा लिया, घर रच लिया...।
लड़की के घर छोड़ने और बूढ़ी के घर रचने की घटना को काफी अरसा गुजर गया। तकरीबन दो साल। मैं भी उन घटनाओं को भूलने लगा था। एक रात सपने में वह लड़की लौटी अपने पति के साथ। ये उन लड़कों में से नहीं था जिससे वह प्रेम करती थी... लड़की प्रसन्न थी... क्या पता खुश होने का नाटक कर रही हो... लड़का खुश था क्योंकि मालिक था। एक बड़ा बिजनेसमैन उसकी संपति में एक नई प्रॉपर्टी उसकी पत्नी भी दर्ज हो गई थी... वह लड़की पत्रकार दोस्त को उसकी पुस्तक लौटाने आई थी... कहानी संग्रह ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’। लड़के ने उनके स्वागत में समोसे मंगवाए, कोल्ड ड्रिंक, जलेबी तीनों ने मिलकर खाए...
तीनों उस बूढ़े के पास पहुंचे। बूढ़ा उस वक्त गमलों में पानी डाल रहा था, पानी देने के बाद वह उन पौधों को कुछ इस अंदाज में सहला रहा था, मानो कोई प्रेमी पूरे प्रेम में डूबकर प्रेमिका के अधर पर उंगली फेर रहा हो...।
पत्रकार ने पहले लड़की को देखा, पास ही खड़ी बूढ़ी की आंखों में झांका, पर फिर पेशेगत अंदाज में पूछा-‘बाबा मैं, आपको पिछले सालों से देख रहा हूं... मुझे लगता है आप प्रेम को जीते हैं-मेरा सवाल उसी से जुड़ा है कि प्यार है क्या...’
‘पता नहीं बेटे, उसे ही तो ढूंढ़ रहा हूं...’ बूढ़ा बड़ी मासूमियत से बोला और बूढ़ी की आंखों में डूब गया...।
ठीक उसी वक्त छत की मुंडेर पर नर-मादा कबूतरों ने चोचें लड़ाई... अपने गुजरे जमाने में चांद की चाहत रखने वाली प्रेमिका और अब वेश्या बन गई, औरत ने अपने बूढ़े ग्राहक के सामने नंगी टांगें फैलाई... भूख से तड़पकर किसान ने आत्महत्या की... अमेरिकी सैनिक लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक सौ सत्ताइसवें देश में उतरे... आदिवासियों को नक्सली बताकर पुलिस ने ढेर किया... इस देश का प्रधानमंत्री रोबोट में तब्दील हो गया और 15 अगस्त को झंडा फहराने के लिए लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते वक्त उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे... संसद सबसे बड़ी मंडी में तब्दील हो गई... वह सब कुछ हुआ जो नहीं होना चाहिए... और इन सबके बीच प्रेम कहीं दुबका था किसी खरगोश की मानिंद। पास ही कहीं फैज की आवाज फिजा में गूंजी-‘और भी दुख है जमाने में मोहब्बत के सिवा, मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग...’
सपना टूटता है-- अपनी आंख भींचता हुआ मैं कमरे से बाहर निकल छत पर आ जाता हूं-दाएं वाले मकान में बूढ़ा अब भी पौधों को पानी दे रहा है। बाएं वाले फ्रलैट में पत्रकार लड़का सिगरेट पी रहा है... और मैं सोचने लगता हूं प्रेम के बारे में। एक गौरेया है सदियों से दाना चुन रही है... एक जोड़ा कबूतर खंडहर के मुंडेर पर चोंच लड़ा रहा है-एक मांझी उस पार जाने के लिए पतवार चला रहा है, एक परछाई जो कभी छोटी होती है कभी बड़ी, एक प्रेम जो हकीकत भी उतना ही है जितना फसाना। बेगम अख्तर की आवाज है-‘ए मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया।’ घनानंद की पीर-‘अति सुधो स्नेह को मारग है जहां नेक सयानप पर बांक नहीं...’ इन सबके बीच फैज की गुजारिश-मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग...! ’’’
ऐतिहासिक शहर का एक पुराना मुहल्ला। मुहल्ले की वह तंग और बदबूदार गली... बंद गली का आखिरी मकान... मेरे दाएं बाजू वाले उस जर्जर मकान में अकेले रहता है वह बूढ़ा।
सत्तर-पचहत्तर साल की उम्र। न वह मुसलमान है, न मार्क्सवादी, न कोई बाबा... मगर लंबी दाढ़ी न जाने क्या सोचकर रखता है। इस लंबी दाढ़ी की वजह शायद उसका आलस्य रहा होगा। वह आलसी बहुत है। शायद इसी को देखकर ‘स्लोनेस’ उपन्यास लिखा गया होगा।
मुश्किल यह है कि वह अपने आलस्य को तरह-तरह की दलीलों से जरूरी और उपयोगी साबित करता है। वह अपने आलस्य को पूंजीवाद का विरोधी भी प्रमाणित करता है।
उसकी तीन रुचियां हैं-ज्यादा पढ़ना, रोडियो सुनना और तीसरी के बारे में उसने किसी को कुछ नहीं बताया। अजीब शख्स है। रुचियां तीन गिनाता है, बताता दो है। कुछ लोग उसे खब्ती और सनकी भी कहते हैं जिसका उस पर कोई असर नहीं पड़ता। वह हमेशा अपनी ही धुन में रहता है।
एक नौकर है जो उस भुतहे मकान में बूढ़े की देखभाल करता है। खाना बनाने से लेकर उसके लिए बैंक से पैसा लाने का काम उसी के जिम्मे है। उसकी कोई संतान नहीं। उसका बाल विवाह हुआ था। गौने की शुभतिथि पंडित जी ने निकाली थी कि बीच में ही पत्नी चल बसी। उसने अपनी पत्नी को पहली बार चित्ता पर लेटे ही देखा, उसे मुखाग्नि देते वक्त। वह बेहद सुंदर थी। काश! वह औरों की तरह गौने से पहले ही उससे मिल पाता... जी भर कर देख पाता। वह बहुत देर तक हाथ में आग लिए मृत पत्नी को देखता रहा। किसी ने टोका तो वह आग देने के लिए आगे बढ़ा। पत्नी की चिता को आग देते हुए ही उसने मन ही मन संकल्प ले लिया कि वह जीवन में दूसरी शादी नहीं करेगा, चाहे अकेलापन कितना ही कांटेदार क्यों न हो जाए? परिवार और रिश्तेदार के नाम पर उसके यहां किसी को भी आते-जाते किसी ने नहीं देखा। एक रेडियो है जो अक्सर बजता रहता है। यह रेडियो ही उसके अकेलेपन का साथी है। रेडियो ही उसका परिवार, प्यार और समाज है। उसके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता। राज्य सूचना जनसंपर्क के नृत्य विभाग का निदेशक था वह। कथक नृत्य के साथ-साथ ढोलक बजाने में उसका कोई सानी नहीं। कभी-कभी कोई शिष्य उससे मिलने आ जाता हैं। विशेषकर गुरु पूर्णिमा के अवसर पर। इस दिन उसके यहां भीड़ लगी रहती है।
कमरे में एक तस्वीर टंगी है जो उसके जवानी के दिनों की है। वह युवा है, गले में लटका ढोलक है। सहयोगी कलाकार भी साथ खड़े हैं। इस तस्वीर की खास बात यह है कि उसके साथ देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी खड़े हैं, उसके कंधे पर हाथ रखे। तब वह आज की तरह बूढ़ा नहीं था। आकर्षक व्यक्तित्व था उसका। 1960 की खिंची तस्वीर है यह। ढोलक नेहरू ने सप्रेम भेंट की था, खुश होकर। वह ढोलक आज भी ससम्मान उसके कमरे में मौजूद है। जब कभी वह बहुत उदास या खुश हो जाता है तो वह उसे घुटनों से दबाकर बजाने लगता है। तब सुबह के चार बज रहे हों या रात के दो, उसको कोई फर्क नहीं पड़ता।

उसके घर आने वालों में एक चांदी से बालों वाली पतली लंबी सी औरत है। उस बूढ़ी औरत के चेहरे पर गजब का तेज है। वह कब आती है, इसका अंदाजा किसी को नहीं। लेकिन दो मौकों पर वह जरूर यहां देखी जाती है। एक तो तब जब यह बूढ़ा बीमार पड़ जाता है, दूसरे 15 सितंबर को। बूढ़े का जन्मदिन। उस दिन नौकर घर पर नहीं रहता। बूढ़ा-बूढ़ी कहीं घूमने नहीं जाते। साथ-साथ खाना बनाते हैं, खाते हैं। केक काटते हैं। मिठाइयां बांटते हैं। बूढ़ा तबले पर थाप देता है और बूढ़ी नृत्य करती है। कथक नृत्य। जन्मदिन का जश्न सिर्फ वे दो जन ही मनाते हैं। ठीक नौ बजे वह औरत अपने घर लौट जाती है। पिछले चालीस सालों से किसी ने उस बूढ़ी औरत को बूढ़े के घर रात को रुकते नहीं देखा, चालीस साल पहले दोनों अधेड़ मगर खूबसूरत थे।
सचमुच ही चालीस साल पहले वह बेहद खूबसूरत थी। बूढ़े के विभाग में ही नृत्यांगना थी। उसकी सहयोगी कलाकार- -- पहले उसने बूढ़े को गुरु माना... लेकिन गुरु-शिष्य का यह रिश्ता बहुत जल्द दूसरे रिश्ते में बदल गया... दोनों में से किसी ने एक दूसरे को आई लव यू नहीं बोला... कोई खत नहीं लिखा... चांद तारे तोड़ लाने के वादे नहीं किए- -- एक नहर थी जो एक दिल में दूसरे दिल तक बहने लगी... बहती रही... वह दक्षिण भारतीय थी जिसके पिता पटना में बस गए थे... एक बार उसने शादी की बात अपनी मां से की तो उन्होंने कहा-‘अगर तुम सचमुच ही उससे प्रेम करती हो... और चाहती हो प्रेम बना रहे तो उससे कभी शादी मत करना... यह मैं अपने अनुभव से कह रही हूं जब प्रेमी पति बन जाता है तो प्रेम भी अपनी शक्ल बदल लेता है, वह कुछ और हो जाता है... प्रेम नहीं...।’ मां ने उससे शादी नहीं करने के लिए कहा, वह किसी से भी शादी करने की इच्छा को भस्म कर बैठी। बूढ़े ने भी कभी उससे नहीं कहा-‘तुम सबको छोड़कर मेरे पास चली आओ...।’ दोनों एक दूसरे का दर्द समझते थे। घाव सहलाते थे। भाषा कहीं नहीं थी... शब्द तिरोहित थे, सिर्फ भाव... भाव ही।
बाएं तरफ नया मकान बना है, पुराने मकान को तोड़कर। मकान मालिक ने इसे फ्रलैटनुमा बनाया है, आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित। उसके पहली मंजिल पर एक लड़की रहती है। दुबली-पतली। लम्बी। छरहरी। उसके ठीक बगल वाले फ्रलैट में एक लड़का भी रहता है। दोनों एक ही कॉल सेंटर में काम करते हैं। कभी-कभी लगता है वे समय की सीमाओं से परे की चीज हैं। उनके न सोने का समय है, न जागने का। न घर से दफ्रतर जाने और न दफ्रतर से घर लौटने का। उनकी जीवनशैली समय सारणी का अतिक्रमण करती है।
पड़ोस के लड़के से उसकी दोस्ती हुई। वह फ्रेंड बना। फिर ब्वॉयफ्रेंड। मामला और आगे बढ़ा और दोनों रिलेशनशिप में एक साथ रहने लगे। बिना शादी के पति-पत्नी की तरह। सहजीवन। जीवन के साथ जंजाल से दूर। कितने पास, कितने दूर। दोनों ने एक फ्रलैट खाली कर दिया। वे अब एक ही फ्रलैट में साथ रहने लगे। एक फ्रलैट का किराया बचाया। उन्हें सुख चाहिए था, संतान नहीं। शादी का ताम-झाम भी नहीं। वे सवालों, सरहदों में घिरना और बिंधना नहीं चाहते थे। इसलिए साथ-साथ थे।
लड़की की तीन रुचियां बड़ी ही झिंगालाला है। एक है मोबाइल से नए गाने सुनना। फेसबुक पर रातों को चैटिंग करना और मॉल में तफरीह करना। उसी दौरान किसी मुर्गे (लड़के) को पटाकर महंगे रेस्टोरेंट में अच्छा खाना या फिल्में देखना। लड़की की एक और खूबी है जो अब उसकी आदत बन गई है और वह है खूबसूरत झूठ बोलना। वह जहां कोई जरूरत नहीं होती वहां भी अपने झूठ बोलने के कला-कौशल का मुजाहिरा किए बिना नहीं रहती।

और उधर दाएं वाले मकान में? जैसा कि मैंने अर्ज किया था बूढ़े को रेडियो सुनने की सनक है। वह किसी गाने को सुनते हुए एक खास दौर में पहुंचकर उसे जीने लगता है।
रेडियो सुनने का उसका खास स्टाइल था। वह चारपाई पर लेट जाता रेडियो उसके पेट पर पड़ा बजता रहता। कभी वह सिर्फ रेडियो ही सुनता। कभी वह रेडियो सुनते हुए कोई किताब पढ़ रहा होता। कई बार ऐसा होता कि रेडियो उसके लिए लोरी और थपकी का काम करता और वह सो जाता। घंटों सोता रहता। रेडियो का संगीत बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह माहौल रचता। संगीत उसे सपनों की दुनिया में ले जाता।
विविध भारती के ‘भूले बिसरे गीत’ कार्यक्रम में गीत बज रहा था-‘जब तुम ही चले परदेस, लगाकर ठेस... ओ प्रीतम प्यारे’ बूढ़े को अपना जमाना याद आया। चालीस का दशक... ‘रतन’ फिल्म को देखने के लिए वह अपने गांव से पटना चला गया था। गांव के कुछ दोस्तों के साथ। वहां उसने एलिफिस्टन में यह फिल्म देखी थी। जोहराबाई अंबाले वाली की आवाज ने तब के युवाओं पर जैसे जादू कर दिया था... उस आवाज का दीवाना वह भी था। इसके गाने उसने रेडियो में भी सुने। पचास के दशक में ही विविध भारती शुरू हुआ था... गांव-ज्वार में सबसे पहले उसके यहां ही रेडियो आया था... सामंती परिवार... उसको न जाने क्यों नृत्य सीखने की सनक सवार हो गई... सिखाने वाला कोई उस्ताद नहीं मिला- -- उस्ताद ढूंढ़ने के लिए वह भागकर मद्रास पहुंच गया... चिन्ना स्वामी के यहां। छह महीने तक उन्हीं के यहां रहकर नृत्य सीखा... सेवक बनकर वहां रहा... स्वामी ने ही बताया कि उनके एक शिष्य हैं पटना में मदन मिश्रा। आगे की चीज उनसे सीखो। स्वामी ने बताया कि रियाज जरूरी है... वह घर लौट आया... रियाज के लिए जगह थी नहीं। तब वह गांव से बाहर आम के घने बगीचे में रात को जब सारा गांव सो जाता था, तब वह वहां रियाज करता था... बारह बजे से चार बजे तक, क्योंकि चार बजे के बाद गांव वाले उठ जाते। यह सिलसिला साल भर चला। एक दिन बगीचे से गुजरते हुए किसी ने रात को साढ़े बारह बजे ‘ता थई ता-ता-थई...’ की थाप सुन ली... उसने पूरे गांव वाले को बोल दिया... ‘उस आम के बगीचे में भूत आता है, साला नए डिजाइन का भूत है... कथक करता है...।’ कुछेक वैज्ञानिक किस्म के गंवई लोगों को यकीन नहीं हुआ तो वे सच्चाई को जानने के लिए खुद बगीचे पहुंचे, मगर ता-थई-ता-ता-थई की आवाज सुनकर उनके होश फाख्ता हो गए, लौट गए उल्टे पांव... जान बचाकर...।
संगीत और नृत्य की बहुत कठिन साधना की उसने। जिस दिन उसने पटना में नृत्य का पहला प्रदर्शन किया था उसी दिन से उसका सामंती परिवार उससे सदा के लिए अलग हो गया। घरनिकाला हो गया। पिता ने कहा-‘दाग लगा दिया खानदान के दामन पर... साला नचनिया हो गया...। अगर मालूम होता कि जवान होकर ता-थैया करेगा तो पैदा होते ही टेटूवा दबा देते...।’

सुना था, संगीत जोड़ता है। यहां तो संगीत ने संबंधों का तार ही तोड़ दिया। दो में से चुनाव करना था उसे, संगीत और संबंध के बीच। संबंध माने परिवार और समाज। उसने संगीत को चुना। और क्रांतिकारी होने के दंभ से भी अछूता रहा। संगीत के चुनाव ने उसके जीवन को सूनेपन और अकेलेपन की सलीब पर टांग दिया। घर-समाज की नजरों में वह बागी था। उसने कहीं पढ़ा था, उम्र के 35 साल तक हर युवा को बागी ही होना चाहिए। परिवार वालों के लिए वह मर चुका था। केवल मां ही थी जो पटना में डॉक्टर को दिखाने के बहाने मामा के साथ मिलने आतीं। मां उसके लिए खाने को वे तमाम चीजें बनाकर लातीं जो उसे पसंद थीं। अपनी आंखों के सामने खिलातीं और अपलक देखते हुए रोती-सुबकती रहतीं। बोलतीं कुछ भी नहीं... आशीर्वाद देने के अलावा।
जीवन में आए उस खालीपन को तब रेडियो ने ही भरा था वरना वह पागल हो जाता। पागल वह भी थी... साथ नृत्य करते हुए। तब गजब की सुंदर थी वह। बदन में कमाल का लोच था। वह जहां थी, उससे भी आगे जा सकती थी। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर की नृत्यांगना बनने की प्रतिभा थी उसके भीतर... लेकिन वह उससे दूर नहीं जाना चाहती थी- -- प्रसिद्धि अक्सर अपनों से दूर कर देती है... कई बार खुद से भी... प्रसिद्धि नहीं, प्यार अभीष्ट था उसका। रेडियो और प्यार की जुगलबंदी ने ही उसे उन मुश्किल दिनों में बचाया। मगर वह दो साल का समय बूढ़े पर बहुत भारी पड़ा था, जब वह सरकारी टूर पर अमेरिका चली गई थी। वह एक पतझड़ था जिसकी अवधि दो साल तेरह दिन की थी। रेडियो और प्यार की जुगलबंदी जैसे कुछ वक्त के लिए ठहर गई हो।... सांसे लेता था, मगर जैसे जिंदा होने का भरम नहीं बचा... आंखों में नींद की जगह इंतजार ने ले ली... वह बिस्तर पर सोने की कोशिश करता तो बेचैनी से भर जल बिन मछली की तरह तड़पने लगता...। तब वह नौकरी में ही था... मंच पर कार्यक्रम देते वक्त एक बार तो गिर पड़ा था... खाना नहीं खाने के कारण बहुत कमजोर हो गया था वह... उस दिन के बाद तो उसने तीन महीने की छुट्टी ही ले ली...। आस-पड़ोस के बच्चे उसे चिढ़ाने भी लगे थे। जब भी वह छत पर उदास बैठा होता, कोई बच्चा दौड़ता हुआ आता और आवाज देता-‘चाचा नीचे चलिए अमेरिका से किसी विजयलक्ष्मी का फोन आया है... होल्ड पर है...।’ तब मोबाइल का जमाना नहीं था। उसकी उदासी क्षण भर में काफूर हो जाती वह दौड़ा-दौड़ा पड़ोसी के घर जाता, तब पता चलता... बच्चे तो मजाक कर रहे थे, किसी का फोन नहीं आया... विजयलक्ष्मी का तो पिछले दो महीने से नहीं...। बच्चों का मजाक बढ़ता गया... बच्चों की देखा-देखी बड़े भी इस तरह उसके प्यार और प्यार के इंतजार का मजाक उड़ाने लगे... तंग आकर उसने खुद अपने ही घर में फोन लगवा लिया... फोन आए या न आए... वह इस तरह अपमानित होने और मजाक बनने से तो बचेगा...। लेकिन लोग तो लोग हैं... कुछ तो कहेंगे ही... विभाग के लोग आते... वे भी चुस्की लेते... लगता है अब तो विजयलक्ष्मी अमेरिका से शादी कर के ही लौटेगी... अपने साथ किसी अमेरिकी गोरे को पति के रूप में साथ लाएगी... बहुत संभव है... वह लौटे ही नहीं... शादी कर वही सैटल हो जाए... ईमानदारी की बात है कि इन बातों को सुनकर वह विचलित हो जाता... मगर उसे अपने प्यार पर भरोसा था।
वह लौटी। और अकेले लौटी। बिना शादी किए। और सीधे एयरपोर्ट से उसी के पास पहुंची... लगा कोमा में पड़े किसी आदमी के भीतर जीवन की हलचल लौट आई हो...। पहली बार जाना कि लौटने का सुख असल में होता क्या है? उस दिन वह सुबह की चाय पी रहा था। विविध भारती पर कार्यक्रम ‘संगीत-सरिता’ चल रहा था। गाना... अंखियां संग अंखियन लागे न...।’
अचानक रेडियो में गाना आना बंद हो गया। उसे लगा प्रसारण में अवरोध है। मगर नहीं... दस मिनट तक रेडियो खामोश रहा। कुछ देर बाद वह उठा, रेडियो के स्विच को घुमाया... ट्यूनिंग भी की... सिर्फ खर-खर की आवाज...। रेडियो में कुछ खराबी आ गई थी। उसका मूड खराब हो गया। रेडियो के बगैर उसका जीवन जैसे ठहर गया। उस दिन उसने नाश्ता भी नहीं किया। नहाया नहीं। दस बजते ही वह एक झोले में रेडियो को लेकर उसे बनवाने बाजार निकल गया। उसके जेहन में जो रेडियो मरम्मत की दुकान थी उसमें मोबाइल बिक रहा था। नए-नए मॉडल के मोबाइल। उसने बहुत ढूंढ़ा। मगर रेडियो ठीक करने वाली दुकान उसे नहीं मिली। पता करने पर एक ने बताया बगल के मुहल्ले में एक बुजुर्ग मियां जी हैं, वे अब भी रेडियो बनाते हैं। उसके पहले लोगों ने समझाया, अब चीजें ठीक नहीं होती, बदल दी जाती हैं। नया रेडियो ले लीजिए। मगर बूढ़े की जिद। उसे रेडियो को बदलना नहीं, ठीक कराना है। जो हमारे पास पहले से है और जो खराब है, उसे ठीक करना है ताकि वह पहले की तरह काम करने लगे। उसे दुःख हुआ कि खराब चीज को ठीक करने वाले कारीगर हमारे समाज से गायब होते जा रहे हैं, गायब हो गए हैं।
वह मुस्लिम बस्ती थी, शहर के बीचोंबीच। भीड़-भड़ाका। देह से छिलती देह। मानो कोई मेला हो। एक तेज उठती गंध। बुर्कापरस्त मुस्लिम महिलाएं। छतों पर पतंग उड़ाते बच्चे। कबूतरों का झुंड। दुकानों पर फैन, बिस्किट और बेकरी खरीदने वालों की भीड़।
एक जमाने बाद वह इस मुहल्ले में आया था। बड़ी मुश्किल से फूकन मियां वाली गली मिली, मस्जिद के ठीक सामने। दुकान बंद थी। टूटा-फूटा साईन बोर्ड अब भी लटक रहा था, किसी पुरानी याद की तरह... यहां रेडियो-ट्रांजिस्टर की तसल्लीबख्श मरम्मत की जाती है। फूकन मियां रेडियोसाज...।
बूढ़े ने सोचा... नमाज का वक्त है? शायद दुकान बंद कर फूकन मियां नमाज पढ़ने गए होंगे? आज है भी तो जुम्मा। इंतजार करते डेढ़ घंटा हो गया। तीन बज गए। दुकान नहीं खुली। नमाज पढ़ने वाले तमाम लोग मस्जिद से बाहर निकल आए थे।
उसने बगल के बेकरी की दुकान वाले से तफ्रतीश की तो जवाब मिला... ‘अरे फूकन मियां की बात कर रहे हैं... उनकी यह दुकान तो पिछले छह महीने से बंद है।’
‘वो मिलेंगे कहां?’
‘कब्रिस्तान में बैठे बीड़ी सुड़क रहे होंगे?’
‘मतलब?’
‘गलत मत समझिए... वो दिन भर वहीं कब्रिस्तान में ही अपनी बेगम की कब्र पर बैठे रहते हैं... अगर उनसे कोई काम है तो एक बंडल गणेश छाप बीड़ी लेते जाइए... खुश हो जाएंगे...’

‘इसी गली के अगले मोड़ से दाएं मुड़ जाइए... सौ कदम चलने के बाद बिजली ट्रांसफारमर से बाएं मुड़ते ही सीधे चलते जाना... वह रास्ता कब्रिस्तान को ही जाता है... वहीं मिल जाएंगे बीड़ी फूंकते फूकन मियां...।’
बूढ़े ने सबसे पहले सामने की गुमटी से एक बंडल बीड़ी का खरीदा... फिर झोला लिए बताए रास्ते पर चल पड़ा। शाम ढलने लगी थी। सूरज ने अपनी दिशा बदल ली थी। कमजोर होती धूप बूढ़े को खुद के जैसी ही लगी पग-पग अवसान की ओर बढ़ती।
जैसा कि बेकरी वाले ने बताया था, एक सज्जन कब्रिस्तान में दिखाई दिए। सबसे कोने वाली एक कब्र में बीड़ी पी रहे थे।
वह पास पहुंचा-‘अगर मैं गलत नहीं हूं। तो आप फूकन मियां ही हैं न।’
‘जी हूं तो... फरमाइए...।’ कब्र पर बैठे व्यक्ति फूकन मियां ही थे।
‘आपकी दुकान गया था... पता चला वह तो महीनों से बंद पड़ी है।’
‘पुरानी चीजें बंद हो जाती हैं... उन्हें बंद करना पड़ता है...।’ आवाज में तल्खी थी, क्यों थी मालूम नहीं।
‘आप यहां कब्रिस्तान में...’ पुराने जमाने का लुप्त होता प्रचलन है कि काम से पहले सामने वाले का हाल-चाल जरूर पूछते हैं।
‘सुकून मिलता है यहां...’ फूफन मियां ने जोर देकर कहा-‘मृत चीजें सुख देती हैं... कोई सवाल नहीं करतीं... शक नहीं- -- न प्रेम, न नफरत... सियासत तो बिल्कुल ही नहीं... इसीलिए सुकून की खोज में हर सुबह यहां चला आता हूं... घर में चार बेटे हैं-बहू है पोते-पोतियां 15 लोगों का कुनबा है मेरा... मगर मैं किसी का नहीं। हमारी बेगम छह महीने पहले हमें छोड़कर चली गई खुदा के पास... तब से हम ज्यादा तन्हा हो गए हैं... जिस कब्र पर बैठकर अभी हम बातें कर रहे हैं... वह हमारी रुखसाना बेगम का है... यहां जब तनहाई ज्यादा ही सताने लगती है तो बेगम से बातें भी कर लेता हूं... उनकी आवाज सिर्फ मुझे ही सुनाई पड़ती है... 56 साल का साथ अचानक खत्म हो जाता है... हम अकेले पड़ जाते हैं... बेबस, उदास... खैर मैं तो अपनी ही कहानी में गुम हो गया... आप बताओ मुझसे मिलने का मकसद। मुझे ढूंढ़ते-ढूंढ़ते कब्रिस्तान पहुंच गए...।’
‘मेरा एक बहुत पुराना रेडियो है... वह मुझे बहुत प्रिय है... उसने मेरे जीवन में संगीत भरा था... अचानक उसमें खराबी आ गई है, वह बजता ही नहीं... किसी ने बीस साल पहले गिफ्रट दिया था मुझे। इस शहर में रेडियो ठीक करने वाला कोई बचा नहीं। लोग नया रेडियो लेने की सलाह देते हैं, मगर मैं ऐसा नहीं कर सकता... किसी ने आपका नाम बताया तो आपके पास हाजिर हूं...।’
‘मैंने तो काम छोड़ दिया है... दुकान भी बंद हो गई, बेगम के इंतकाल के दूसरे दिन ही...।’
‘दुकान बंद हुई है आप तो हैं...।’
‘दिखाई कम पड़ता है... मुश्किल है... मैं माफी चाहता हूं... आपकी मदद नहीं कर सकता...’
‘आप नाउम्मीद मत कीजिए... मेरी मजबूरियों और इस रेडियो के प्रति मेरी दीवानगी को समझिए...’ यह कहते हुए सज्जन मियां ने बीड़ी का बंडल फूकन मियां की ओर बढ़ा दिया-‘अगर आपने रेडियो ठीक नहीं किया तो मैं जी नहीं पाऊंगा...।’
बीड़ी के बंडल पर झपट्टा मारते हुए फूकन मियां के चेहरे पर मुस्कान खिल गई। उन्होंने कुर्ते की दाहिनी जेब से माचिस निकाल कर तुरंत एक बीड़ी सुलगाई। एक सुट्टा मारते हुए बोले-‘रेडियो कहां हैं?
बूढ़े ने झोले से रेडियो निकालकर फूकन मियां को सौंप दिया।’
‘आइए, मेरे साथ...’ फूकन मियां उठ खड़े हुए।
वे उसे दुकान ले गए। घर से चाबी मंगवाकर दुकान का शटर खोला। धूल की मोटी पर्तें जमी थी हर चीज पर। साफ करने में ही आधा घंटा लग गया। अगले आधे घंटे में उन्होंने रेडियो ठीक कर दिया। रेडियो पर गीत बज रहा था-‘रहा गर्दिशों में हरदम मेरे इश्क का सितारा।’
‘इसका बैंड खराब हो गया है रेडियो मिर्ची विविध भारती को बजने नहीं देता... पुराना पार्ट है, नया मिलेगा नहीं... इस कंपनी का बनना ही बंद हो गया... ठीक तो कर दिया है... मगर इसे गिरने से बचाइएगा... नहीं तो नई गड़बड़ी शुरू हो सकती है...।’
बूढ़ा खुशी-खुशी रेडियो घर ले आया...। रेडियो फिर से बजने लगा था बूढ़े के चेहरे पर रौनक लौट आई। जैसे पतझड़ के बाद वसंत आ गया हो। तपते रेगिस्तान में झमझम बारिश हो गई हो।
मगर तीसरे दिन ही आंधी आई और रेडियो टेबल से गिर पड़ा। फूकन मियां ने सही भविष्यवाणी की थी, उसमें एक नई बीमारी शुरू हो गई...। रेडियो बज तो रहा था, मगर अपने आप उसका बैंड बदल जाता... विविध भारती बजते-बजते रेडियो मिर्ची लग जाता। बूढ़ा परेशान। गाने स्वतः बदल जाते। विविध भारती पर बज रहा होता-‘जो वादा किया, वो निभाना पडे़गा।’ अचानक बैंड बदल जाता-‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए...। कभी बजता होता-‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम’ बैंड बदलता और गाना बजता-‘आई चिकनी चमेली छुपके अकेली पव्वा चढ़ा के आई...।’ बूढ़े को सिरदर्द होने लगा। वह अगले दिन ही झोले में रेडियो को डालकर फूकन मियां के पास कब्रिस्तान पहुंचा। वह उनके लिए बीड़ी का बंडल लेने गुमटी गया, गणेश छाप था नहीं... न जाने क्या सोचकर उसने सिगरेट ले ली-- -। उसे लगा फूकन मियां खुश हो जाएंगे, बीड़ी पीने वाले को सिगरेट मिल जाए... देसी पीने वाले को व्हिस्की तो वह ज्यादा खुश हो जाता है, ऐसी सोच थी उसकी।
इस बार कब्रिस्तान में फूकन मियां थे तो अपनी बेगम रुखसाना की कब्र पर ही। लेकिन मुद्रा बदली हुई थी। वह बीड़ी नहीं पी रहे थे... कुछ बुदबुदा रहे थे... पास जाने पर शब्द साफ हुए... ‘आप तो आराम से नीचे सो रही हैं... हमारी फिक्र ही नहीं है... ये मरने के बाद क्या हो गया है आपको... पहले तो आप ऐसी नहीं थीं... संगदिल बेपरवाह... मालूम है बहुएं मुझे खाना देना भूल जाती हैं... दो ही टाइम और दो ही रोटी खाता हूं, वह भी उनसे नहीं दी जाती...। आपकी औलादें हमारे मरने का इंतजार कर रही हैं... हम गैरजरूरी चीज जो हो गए हैं... अपना ही खून गलियां दे रहा हैं, अब आप ही बताइए कैसे जिए हम... एक गुजारिश है... आप अपने पास ही हमें जगह दे दीजिए... बिस्तर पर तो हम सालों साथ सोते रहे... यहां कब्र में भी सो लेंगे...’ कहते हुए फूकन मियां की आंख भर आई... कंधे पर रखे चरखाना अंगोछे से आंसू पोंछे... बाएं कुर्ते से बीड़ी का बंडल और दाएं जेब से माचिस निकाली... एक बीड़ी सुलगाई... इस बात से बेखबर कि पास पहुंचे बूढ़े ने उनकी सारी बातें सुन ली है... और वह उनके सामान्य होने का इंतजार भी कर रहा है- --।

‘जिंदगी से सांसों का तालमेल गड़बड़ाने को अगर खैरियत कहा जा सकता है तो मान लीजिए कि है...’
‘बड़ी गहरी बातें करते हैं...।’
‘आपसे ज्यादा नहीं... माफी चाहता हूं मगर अभी मैंने आपकी बातें सुनीं... आपको रोते हुए भी देखा... आप अपनी बेगम से कब्र में पनाह मांग रहे थे... यह जानते हुए भी कि कब्र जिंदों को पनाह नहीं देती...।’
‘सारे रास्ते अंत में यही आते हैं... और जब कोई रास्ता नहीं बच जाता तब भी जो पगडंडी बची रह जाती है वह भी यही आती है, कब्रिस्तान में... कब्र की ओर...।’
‘एक रास्ता है जो आपकी उस दुकान की ओर जाता है जो महीनों से बंद है...’ बूढ़े ने सिगरेट का डिब्बा फूकन मियां की ओर बढ़ा दिया।
‘आप तो सिगरेट ले आए...’
‘बीड़ी मिली नहीं...’
‘सिगरेट बीड़ी का विकल्प नहीं... बीड़ी को पिछले पचास साल से फूंकते रहने की एक आदत सी पड़ गई... सिगरेट मेरे वजूद से मेल नहीं खाती... हमने दो ही चीजों से प्यार किया बीवी और बीड़ी... बीवी तो छोड़ गई... बीड़ी को कैसे छोड़ दूं... सिगरेट पीना बीड़ी के साथ बेवफाई है हमारी नजरों में, जैसा बीवी के रहते किसी दूसरे औरत को चाहना-छूना और चूमना था... सोना तो बहुत दूर की बात... प्यार तो प्यार है मियां चाहे वह बीवी से हो... बीड़ी से हो या कुछ, ‘तू न सही तो और सही का फलसफा प्यार नहीं’ अÕयाशी है...’
‘आपने मेरी बात को नजरअंदाज कर दिया...।’
‘कौन सी बात?’
‘एक रास्ता दुकान की ओर भी जाता है... कब्र के अंधेरे में गर्क होने की बजाए टेबल लैंप की रोशनी में रेडियो को ठीक करना बेहतर है...।’
‘आपका रेडियो तो ठीक बज रहा है न...?’
‘बज तो रहा है... मगर मेरे मुताबिक नहीं, वह अपने ढंग से बजने लगा है... उसके भीतर कुछ ऐसा है जो आवाज को बदल देता है... दो जमाने के फर्क क्षण भर में मिट जाते हैं सुरैया से सुनिधि चौहान... सहगल से कमाल खान... मेरे हाथ में कुछ भी नहीं रहा, रेडियो है... स्विच है... मगर उसके भीतर से निकलने वाली आवाज पर मेरा नियंत्रण समाप्त हो गया है...।’
‘बैंड खराब हो गया है... कुछ नहीं किया जा सकता। पुराना है...।’
‘पुराने तो हम भी हैं... लेकिन अड़े हैं... खड़े हैं... अपनी पसंदों... चाहतों के साथ...।’
‘इंसान और मशीन में फर्क होता है...।’
‘यही बात तो मैं भी कह रहा हूं... आप इंसान है। मशीन की यह बीमारी आपकी कूवत से बाहर थोड़े ही न है...’
‘है...हो गई है, मशीन के आगे हम लाचार हैं... आपको रेडियो में आए बदलाव के साथ समझौता करना पड़ेगा’
‘आप हमें मायूस कर रहे हैं...’
‘जब सारे रास्ते बंद मालूम होते हैं तो मायूसी का कोहरा छा ही जाता है मैं माफी चाहता हूं, आप कोई नया रेडियो ले लीजिए...’ आपने मायूस कर दिया ‘खैर... मैं जा रहा हूं... लेकिन मेरी एक बात याद रखना... एक रास्ता दुकान की ओर भी जाता है...कब्र के अंधेरों से दूर टेबल लैंप की रोशनी की ओर...’ घर लौटते हुए उदास बूढ़ा सोच में पड़ गया। नया रेडियो, रुचियों को बदलना... उम्र के इस मोड़ पर जमाने के साथ तालमेल बैठाने के लिए खुद को बदलना पड़ेगा। यह कैसी आंधी चली है, जहां चिराग को रोशनी से दूर रहने का पाठ पढ़ाया जा रहा है... ताकि अंधेरा बना रहे।
अचानक बीच में आ रहे इस अवरोध के लिए क्ष्ामा। दो कहानियों के बीच मैं खुद अपनी साली को लेकर आ रहा हूं। हुआ यूं कि एक दिन मेरी पत्नी ने अपनी बहन की बात मुझसे करवाने यानी उसके जन्मदिन पर विश करने के लिए मुझे मोबाइल पकड़ा दिया।

अब उस घटना को सात-आठ साल हो गए। साली के दो बच्चे हैं। एक बेटा और एक बेटी। पति सुंदर है पर बेरोजगार है। उसे चंडीगढ़ छोड़कर नरकटियागंज जैसे छोटे और ऊंघते शहर में रहना पड़ रहा है जहां सुविधाओं का टोटा है। वहां
ऐसा जीवन है जिसकी वह आदी नहीं थी।
‘जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामना साली जी...।’
‘काहे का शुभ जीजा जी... बस आपने याद कर लिया वही काफी है...।’
‘ऐसे क्यों बोल रही हो...’
‘अफसोस तो यही कि मैं बोल भी नहीं सकती...।’
‘मैं समझा नहीं...।’
‘जानते तो आप सब हैं... उसमें समझने जैसी क्या बात है... जो मैंने चाहा वो मिला नहीं... जो मिला, वह मेरी मंजिल नहीं थी...
‘मगर इसे तो आपने खुद ही चुना था...’
‘वह चुनाव कहां था जीजाजी...’
‘क्या था फिर...’
‘प्रतिशोध... प्यार में लिया गया प्रतिशोध... न जाने वह कौन सा आवेग था जो मैंने अपने लिए ही कब्रिस्तान खोद लिया ताकि मैं खुद को वहां दफन कर सकूं... उस आग ने सबकुछ जला दिया। अब तो राख ही राख बची है जो फैल गई है मेरी हस्ती पर...’
‘कुछ तो बचा जरूर होगा उस राख के भीतर...’
‘शायद लहूलुहान, अपाहिज और गूंगी चाहत... जिसका अब कोई मतलब नहीं रह गया...’
‘कभी अकेले में सोचना उस बेमतलब में ही कोई मतलब छिपा होगा...।’
‘जब जिंदगी बेमानी हो जाए तो किसी भी चीज का मतलब कहां बचा रहता है जीजा जी, अब तो सबकुछ खत्म है- --।’
‘खत्म होकर भी... सबकुछ खत्म नहीं हो जाता... महफूज रहता है वह। खैर वह वहां आता है या नहीं...’
‘नहीं... मेरी शादी के बाद इस घर तो क्या शहर में भी कदम नहीं रखा... पिछले साल तो उसने पटना में शादी कर ली...’
‘गई थी तुम...’
‘गई थी...’
‘कैसा लगा...’
‘उस अहसास से गुजरी जो उसके दिल में तब उठा होगा जब मैंने उसके छोटे भाई से शादी कर रही थी। बेशक वह शादी में नहीं आया मगर अहसासों से गुजरने के लिए सामने की मौजूदगी जरूरी नहीं होती।... मुझसे उसकी शादी देखी नहीं गई... मैं रो पड़ती इसके पहले पेट दर्द का बहाना बनाकर कमरे में बंद हो गई... सब लोग समझ तो गए ही। वह भी, मेरा पति भी। लेकिन मैं सब कुछ समझकर भी सच्चाई का सामना नहीं कर पाने में असमर्थ थी’ वह रोने लगी-
--
‘सॉरी... मैंने तुम्हारे जन्मदिन पर बेवजह ही रुला दिया...’
‘एक गुजारिश है जीजाजी...’
‘बोलो...’
‘आप जब छठ में यहां आएंगे तो उसे साथ जरूर लाइएगा... उसे देखने की बड़ी तमन्ना है... देखूंगी शादी के बाद कैसा लगता है...? लाएंगे न...’
‘हां जरूर...’ मैंने फोन रख दिया। मैं सोच सकता था कि वह उसके बाद क्या सोच रही होगी... और यह भी कि निश्चित तौर पर रो रही होगी... प्रेम में आंसुओं की बारिश या आंसुओं की बारिश में भीगता प्रेम।
बाएं मकान वाली लड़की सोच रही थी... जो चला गया उसके साथ सब कुछ तो नहीं चला जाता... जिंदगी खत्म तो नहीं हो जाती। उसने खुद को रिडिजाइन किया। पर्सनालिटी इम्प्रूवमेंट का कोर्स किया। नौकरी बदली।
लड़की बदलना चाहती थी। वह बदल रही थी। जितनी बदली थी अब तक, उसके आगे भी बदलने की इच्छा थी। उसका वजूद बन और बिगड़ रहा था। परेशान लड़की मंदिर गई। मन्नतें मांगी। ज्योतिष की दी हुई चमत्कारी अंगूठी पहनी। एक चमत्कारी गुरु की शरण में भी पहुंची। गुरुदेव ने आशीर्वाद दिया-सब मंगलमय होगा। लेकिन दिन शनि के शुरू हो गए।
लड़की साहसी थी। दुखों से लड़ने का हौसला था उसमें। उसने इस थ्योरी को समझ लिया था कि किसी मोड़ पर जिंदगी का सफर समाप्त नहीं होता सिर्फ सफर का रुख बदल जाता है। उसने अपने मोबाइल में सेब गाने नए सिरे से लोड करवाए... जवां है मोहब्बत हंसी है जमाना, लुटाया है किसी ने खुशी का खजाना...। तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले... अपने भर भरोसा है तो एक दाव लगा लें...

लड़की के पड़ोस में एक नया लड़का आ गया। पढ़ाकू किस्म का। पत्रकार। कहानियां-कविताएं भी लिखता था। उसके हाथ में हमेशा कोई पुस्तक या डायरी होती। वह या तो कुछ पढ़ता या कुछ न कुछ डायरी में लिखता रहता। लड़के ने सबसे पहले लड़की की रुचियों को बदला। उसे अच्छी किताबें दी... क्लासिक फिल्में दिखाई... समझाया कि बारिश में साथ-साथ भीगने और तपते रेगिस्तान पर कदम मिलाते हुए चलने का नाम ही प्रेम है। और हम प्रेम होना चाहते हैं? लड़की-लड़के का कहा मानने लगी। लड़के को लगा लड़की बदल रही है। वह खुश था। लड़की को भी वहम हो गया कि वह बदल रही है। बदलाव के दौर में बिना बदले गुजारा भी कहां था? दोनों खुश। इस बात से बेफिक्र कि हर चीज की एक उम्र होती है-खुशी की भी।
लड़की ने लड़के को लाइक किया। फिर दोस्ती, फिर प्रपोज किया-आई लव यू बोला। इसमें एसएमएस मोबाइल ने अहम भूमिका निभाई। बहुत जल्द सेक्स तक पहुंच गए। दोनों लिव-इन-रिलेशन में रहने लगे...। लाइफ में इंज्वॉय। इंज्वॉय ही लाइफ। सब कुछ मस्त-मस्त... वक्त की सांसों में जैसा नशा घुल गया... नशा चढ़ता है तो एक अवधि बाद उतरता भी है... छह महीने में ही लाइक की सासें कमजोर पड़ने लगी। लव की सांसें फूलने लगी... सेक्स भी यंत्रवत होने लगा, पति-पत्नी की तरह। उसमें पहले जैसा आवेग... मजा नहीं रहा... मजावाद के वृत्त में देह बर्फ की मानिंद पिघलती रही, कतरा-कतरा...।
फिर एक समय ऐसा भी आया कि बाकी बर्फ पूरी तरह पिघल गई। अब सिर्फ पानी की नमी बची रह गई थी। और नमी को सूखने और गर्द बनने में देर ही कितनी लगती है। बूढ़ा बाजार में था। वह दुकान दर दुकान भटक रहा था। वह एक ऐसा नया रेडियो चाहता था जिसने विविध भारती बजे-
-- बाजार में एफएम वाले रेडियो ही उपलब्ध थे। कुछेक रेडियो मिले जिसके एफएम साफ बजता था, मगर विविध भारती की आवाज घर्र-घर्र के साथ सुनाई देती... दुकानदारों ने उसे समझाया चचा जान, आप एफएम रेडियो ले लो... वह नहीं लेने की जिद दर अड़ा रहा... एक बड़े दुकानदार ने बड़ी विनम्रता के साथ समझाया कि अब विविध भारती सुनता ही कौन है... आपको पुराने गीत सुनने से मतलब है न, आप आईपैड ले लो, हजारों गाने इसमें लोड रहेंगे... इन्हें सुनते रहो... आवाज साफ-सुथरी टनाटन, जब कोई दूसरा विकल्प न हो... रास्ता बचा न हो... आदमी को समझौता करना ही पड़ता है... बिना जरूरत और खरीदार की संवेदना को समझे समान को बेच देना ही बाजार का नया फंडा है... दुकानदार बूढ़े को समझाने में कामयाब हो गया... उसे एक आईपैड खरीदना पड़ा। उसके साथ लीड भी... दोनों कानों में लगाकर सुनने के लिए... उसने दोनों हेडफोन कान में लगा लिया।

गाना सुनते-सुनते बूढ़ा अचानक उदास हो गया, शीघ्र ही उसके चेहरे पर उभरी खीझ, गुस्से को दूर से भी देखा जा सकता था। ...न जाने क्या सोचकर उसने हेडफोन को कानों से निकाल दिया... आईपैड को भी जमीन पर पटकर चकना चूर कर दिया। कोई पागलपन का दौर पड़ा था उस पर। वह हंस रहा था, मगर उसकी आंखें नम थी... दिल में क्या भाव थे, यह तो वही जानता था।
एक सुबह लड़की ने मकान खाली कर दिया। वह कहीं और चली गई... पत्रकार दोस्त से उसका ब्रेकअप हो गया था- -- क्यों हुआ, इसकी सही सही वजह दोनों में से किसी को नहीं मालूम हो सका... जिंदगी में बहुत सी घटनाओं की असली वजह हम नहीं जान पाते... बस, अपनी सुविधा अनुसार किसी कारण का घटना के बरक्स खड़ा कर देते हैं।- --
लड़की ने वह मकान खाली करते वक्त किसी को कुछ नहीं बताया... मगर जाते वक्त वह रो रही थी... जैसे पुराने जमाने में मायके से ससुराल जाते वक्त बेटियां बिलखती थीं... उसकी शादी तय हो गयी थी...
जिस दिन बूढ़े ने आईपैड तोड़ा था... उस रात वह सो नहीं पाया... कमरे की बत्तियां नहीं बुझाई... वह पूरी रात बच्चों की तरह फफक-फफक कर रोता रहा था। अगली सुबह वह बूढ़ी औरत आई। सर्दी की धूप में वह उस बूढ़ी की गोद में सिर रख कर रोता रहा, रोते रोते सो गया। रात को सोया भी तो नहीं था, इसलिए गहरी नींद आ गई... बूढ़ी औरत ने उसको जगाया नहीं। उसके बालों को सहलाती रही, पर चार घंटे तक बूढ़ा सोता रहा। उसके भारी सिर के बोझ को वह सहन करती रही... बूढ़ी की जांघ में सूजन आ गई... दर्द भी बेहिसाब हो रहा था। उस रात दोनों ने कोई कसम नहीं खाई, कहीं किसी अनुबंध पत्र पर दस्तखत नहीं किए... रस्म-ओ-रिवाज का कहीं धुंआ नहीं उठा। लेकिन खास बात यह हुई कि उस रात वह बूढ़ी वहां से वापस नहीं गई... और कभी नहीं गई... बूढ़ी ने घर बदल लिया... घर बसा लिया, घर रच लिया...।
लड़की के घर छोड़ने और बूढ़ी के घर रचने की घटना को काफी अरसा गुजर गया। तकरीबन दो साल। मैं भी उन घटनाओं को भूलने लगा था। एक रात सपने में वह लड़की लौटी अपने पति के साथ। ये उन लड़कों में से नहीं था जिससे वह प्रेम करती थी... लड़की प्रसन्न थी... क्या पता खुश होने का नाटक कर रही हो... लड़का खुश था क्योंकि मालिक था। एक बड़ा बिजनेसमैन उसकी संपति में एक नई प्रॉपर्टी उसकी पत्नी भी दर्ज हो गई थी... वह लड़की पत्रकार दोस्त को उसकी पुस्तक लौटाने आई थी... कहानी संग्रह ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’। लड़के ने उनके स्वागत में समोसे मंगवाए, कोल्ड ड्रिंक, जलेबी तीनों ने मिलकर खाए...
तीनों उस बूढ़े के पास पहुंचे। बूढ़ा उस वक्त गमलों में पानी डाल रहा था, पानी देने के बाद वह उन पौधों को कुछ इस अंदाज में सहला रहा था, मानो कोई प्रेमी पूरे प्रेम में डूबकर प्रेमिका के अधर पर उंगली फेर रहा हो...।
पत्रकार ने पहले लड़की को देखा, पास ही खड़ी बूढ़ी की आंखों में झांका, पर फिर पेशेगत अंदाज में पूछा-‘बाबा मैं, आपको पिछले सालों से देख रहा हूं... मुझे लगता है आप प्रेम को जीते हैं-मेरा सवाल उसी से जुड़ा है कि प्यार है क्या...’
‘पता नहीं बेटे, उसे ही तो ढूंढ़ रहा हूं...’ बूढ़ा बड़ी मासूमियत से बोला और बूढ़ी की आंखों में डूब गया...।
ठीक उसी वक्त छत की मुंडेर पर नर-मादा कबूतरों ने चोचें लड़ाई... अपने गुजरे जमाने में चांद की चाहत रखने वाली प्रेमिका और अब वेश्या बन गई, औरत ने अपने बूढ़े ग्राहक के सामने नंगी टांगें फैलाई... भूख से तड़पकर किसान ने आत्महत्या की... अमेरिकी सैनिक लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक सौ सत्ताइसवें देश में उतरे... आदिवासियों को नक्सली बताकर पुलिस ने ढेर किया... इस देश का प्रधानमंत्री रोबोट में तब्दील हो गया और 15 अगस्त को झंडा फहराने के लिए लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते वक्त उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे... संसद सबसे बड़ी मंडी में तब्दील हो गई... वह सब कुछ हुआ जो नहीं होना चाहिए... और इन सबके बीच प्रेम कहीं दुबका था किसी खरगोश की मानिंद। पास ही कहीं फैज की आवाज फिजा में गूंजी-‘और भी दुख है जमाने में मोहब्बत के सिवा, मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग...’
सपना टूटता है-- अपनी आंख भींचता हुआ मैं कमरे से बाहर निकल छत पर आ जाता हूं-दाएं वाले मकान में बूढ़ा अब भी पौधों को पानी दे रहा है। बाएं वाले फ्रलैट में पत्रकार लड़का सिगरेट पी रहा है... और मैं सोचने लगता हूं प्रेम के बारे में। एक गौरेया है सदियों से दाना चुन रही है... एक जोड़ा कबूतर खंडहर के मुंडेर पर चोंच लड़ा रहा है-एक मांझी उस पार जाने के लिए पतवार चला रहा है, एक परछाई जो कभी छोटी होती है कभी बड़ी, एक प्रेम जो हकीकत भी उतना ही है जितना फसाना। बेगम अख्तर की आवाज है-‘ए मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया।’ घनानंद की पीर-‘अति सुधो स्नेह को मारग है जहां नेक सयानप पर बांक नहीं...’ इन सबके बीच फैज की गुजारिश-मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग...! ’’’
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