रचना आभा
- परास्नातक (समाज शास्त्र), बी एड
- अध्यापिका
- 'गगन स्वर' पत्रिका में सह सम्पादिका व 'ट्रू मीडिया' हिंदी पत्रिका में साहित्यिक सम्पादिका
- काव्य संग्रह 'पहली दूब' तथा समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकओं में लेख, कविताएँ व लघु कथाएं प्रकाशित
ग्यारह रचना आभा की
- कलम
- किसकी आज़ादी
- मैं खंड-खंड हूँ
- मीरा
- यथार्थ या परिकल्पना
- धूप का टुकड़ा
- यादों के जाले
- आखिर बरखा क्यूँ आती है ?
- बलात्कार
- अतीत के पंछी
- अहसासों की यात्रा
१. कलम
एक जमाना वो भी था, जब
कलम क्रांति को बोती थी
एक जमाना ये आया
वह बिकती है बाज़ारों में !
ईमान की स्याही सूख गयी ,
खुद्दारी की निब टूट गयी
इसकी बोली अब लगती है
जैसे सट्टा व्यापारों में !
सत्यबिम्ब दिखलाने वाली,
हुकूमतें दहलाने वाली
मारी -मारी फिरती है अब
सत्ता के गलियारों में !
सच्ची मौतें , सच्चे हादसे
लोप कहीं हो जाते हैं,
झूठी तस्वीरें दिखती हैं
बिके हुए अख़बारों में !
भूल गयी है ताकत अपनी,
गाँधी की वो कलम ही थी ,
विद्रोह के अक्षर फैले थे
जिससे गलियों, चौबारों में !
२. किसकी आज़ादी
आज़ादी का दिन है आया
फिर झंडा फहराएंगे ,
विद्यालयों में ड्रम की ताल पर
'जन -गण -मन -गण' गायेंगे ,
पर किसकी आज़ादी है ये
यही समझ न पाएंगे !
बूढ़े एक रिवाज़ की भांति
इसे मनाते जायेंगे !!
आज़ादी की परिभाषा
उस ललना से पूछो तो ,
जिसके रक्तपान पर तुम
अंकुरण से अब तक जीवित हो !
अंतर केवल यही रहा ,
शैशव में रक्त था स्नेह भरा
पर वही शिशु जब पुरुष बना
स्वार्थ में, मद में चूर हुआ !
भूल गया वह नारी थी,
जिसने उसका पोषण किया
उसीका पत्नी, पुत्री रूप में
यथाशक्ति शोषण किया !!
तन पर, मन पर , जीवन पर
चुन-चुन कर उसने वार किये
वह मूक, मौन सहती रही
जीवनक्षण उस पर वार दिए
कभी बिकी बाज़ारों में
कभी चिनी दीवारों में
मोहरा बनी रही , जब आई
सत्ता के गलियारों में !!
उस पर ही कानून बनाये
धर्म के ठेकेदारों ने
ज़ुल्मों के कहर भी ढाए, देखो
उसीके पहरेदारों ने !!
क्या अब भी ये कहते हो,
आज़ादी का दिन आया ?
नहीं , तब तलक नहीं ,
जब तक उस पर है काला साया !!
कुछ बदला है, कुछ बदलेंगे
हालातों का सरमाया
तभी कहेंगे सच्चे दिल से
"आज़ादी का दिन आया !!"
३. मैं खंड-खंड हूँ
प्रिय तुम कहते हो
और सह न पाओगे
बिखर जाओगे
खंडित हो जाओगे !
किन्तु मेरा अधिक न बिगड़ेगा
क्योंकि मैं तो हूँ ही खंडित
हाँ ! सत्य सुना तुमने !
मैं खंड-खंड हूँ !
तुमने है चाहा खंडों को
जो रह चुके हैं कभी चूर्ण
और अब तक न
हो सके पूर्ण !
अतः मैं भयभीत
हो जाती हूँ
यह सोचकर कि
तुम्हारी वही परिणिति न हो
तुम चूर्ण न बनो कभी
तुम पूर्ण ही रहो सदा
तुम पूर्ण ही रहो सदा !!!
४. मीरा
राधा बनने के स्वप्न दिखाए
मीरा भी न रहने दिया
मेरे प्रेम-प्रगाढ़ का तुमने
प्रियतम कैसा फल ये दिया !
तुम तो कृष्ण थे, कृष्ण रहे
लीलाओं में मग्न रहे
किन्तु उन दुखों का क्या
जो तुम्हें पाने को मैने सहे ?
पूरा जीवन कर डाला
भस्म प्रेम की ज्वाला में
निः संकोच हो किया पान
छब देख तुम्हारी हाला में
तुम कठोर तब भी न पिघले
निष्ठुर थे, निष्ठुर ही रहे !
किन्तु उन दुखों का क्या
जो तुम्हें पाने को मैने सहे ?
देते थे उपदेश जगत को
न करना फल की अभिलाषा
मैं मूढमति तब समझ न पाई
गूढ़ तुम्हारी यह भाषा
प्रेम-तपस्या विफल हुई
जल-प्रपात नयनों से बहे !
बोलो उन दुखों का क्या
जो तुम्हें पाने को मैने सहे ?
यह जन्म गँवा चुकी तो क्या
सौ जन्म पुनः फिर ले लूँगी
प्रेम-मुरलिया अधर लगाकर
वृन्दावन में खेलूंगी !
तभी भरेंगे घाव सभी
जो तुमसे हैं मुझे मिले
और कह पाऊँगी गर्व से फिर
तुम मेरे थे, मेरे ही रहे !!
५. यथार्थ या परिकल्पना
क्या है अधिक मधुर, बोलो
यथार्थ या परिकल्पना ?
वह यथार्थ , जो पूर्ण हुआ
साक्षात् हुआ , भुक्त हुआ
ज्ञात हुआ,अनुभूत हुआ ?
या जन्म दे गया कल्पना को
अपूर्ण, अतृप्त , शेष रह कर !!
दे गया है एक असीमित परिधि
अपने रंगों से रंगने को
अपनी उड़ान खुद भरने को
अपनेआकाश कोछूने को
राह में आए मोड़ों को
अपने अनुसार ही मोड़ने को
अपनी इच्छा तक जीने को,
या इच्छाका दम तोड़ने को ......!!
है आकर्षण यह अज्ञात का
अथवा है असीम होने का
है संतोष न पाने का
या असंतोष कुछ खोने का .......?
क्या है अधिक मधुर, बोलो
यथार्थ या परिकल्पना ?
६. धूप का टुकड़ा
पलंग पर पड़े-पड़े
मैं देखती रही
कमरे की छत पर
चिपके
चौरस धूप के टुकड़े को
इंतज़ार करती
उसका आकार बदलने का
वो बदला
और सहसा मुझे
याद आया
जीवन का आकार बदलना
भाग्य की
धूप-घड़ी के
संग-संग !
७. यादों के जाले
यादों के जाले
जितने झाडूं, बनते ही जाते हैं ........
एक झाड़ के हटूं,
तो तैयार दूजा मिलता है !
कितनी तीव्र है
वक्त की मकड़ी
चैन से बैठने नहीं देती
जरा घड़ी !
थक गयी हूँ
साफ़ करते-करते ये
स्मृतियों के जाले !
इन्हें देखकर खुद को इनमें
फंसा हुआ पाती हूँ
मकड़ी के शिकार जैसा !
मकड़ी रुपी वक्त के
शिकार जैसा !
बेबस उसमें फंसी
छटपटाती हूँ
निकल नही पाती हूँ
कसमसाकर रह जाती हूँ !
वर्तमान में नहींआ पाती हूँ
और वहीं दम तोड़ देती हूँ !!
८. आखिर बरखा क्यूँ आती है ?
जब भी यह बरखा आती है
लगभग सब कुछ धो जाती है
लेकिन मैं तो धुल नहीं पाती
बल्कि कहीं खो जाती हूँ .........
बरखा देती औरों को
मधुमासी मीठापन
शीतलता और मुस्कान
लेकिन मैं तो रो जाती हूँ
दूर कहीं पे खो जाती हूँ ..........
धुंधली यादों के दर्पण को
धोकर साफ़ ये कर जाती है
सब प्रतिबिम्ब कहीं खोए जो,
उसमे जीवित हो उठते हैं
वही दृश्य और वही सम्वाद ,
वही स्फूर्ति, वही अवसाद
फिर से मन में भर जाते हैं ..........
फिर से भीग जाता है तन-मन
फिर से भीग जाते हैं नयन
सब कुछ भीगा हो जाता है
देह की माटी से लेकर के
उर की गहरी घाटीतक ............
वहीँ भटक कर रह जाती हूँ
वापिस नहीं मैं आ पाती हूँ !
वापिस नही मैं आ पाती हूँ ...............
आखिर क्यूँ आती है बरखा
तहस-नहस कर जाती मुझको
जीवन के चंचल सागर में
हलचल और मचा जाती है
आखिर बरखा क्यूँ आती है..........
आखिर बरखा क्यूँ आती है ?
९. बलात्कार
आओ दरिन्दों
मुझे लूटो, खसोटो, नोचो !
गौर से देखो
एक नारी हूँ मैं
ब्रहा द्वारा तैयार
तुम्हारे ऐशो आराम का सामान,
तुम्हारी ऐय्याशी का सामान,
तुम्हारी पाश्विक, घिनौनी औऱ नरपैशाचिक
जरूरतों को पूरा करने का सामान !
चिथडे चिथडे कर दो
वो झूठी अस्मिता
जो बचपन से मैं
साथ लेकर जी रही थी !
दिल दहला देने वाली मर्दानगी दिखा दो
सारी दुनिया को !
अरे, मर्द हो !
कोई मजाक है क्या ?
ऐसी दुर्गति करदो
मेरी आत्मा और शरीर की,
कि पूरी औरत जमात
सात पीढियों तक काँपे,
औरत होने के लिये !!
डरो मत !!
अधिक कुछ नहीं होगा !
तुम्हारी तलाश, और कुछ
सजा के बाद सब ठीक हो जायेगा तुम्हारा,
धीरे -धीरे !
मैं शायद न बचूँ
अपने जऩ्मदाताओं की
जीवन पर्यन्त यातना देखने,
और मुझ पर चल रही
टी वी चैनलों की प्राईम टाईम बहस देखने ....
और वे तमाम धरने और प्रदर्शन देखने,
जो इस तुम्हारे क्षणिक सुख से उपजे !!
पर वो सब बाद की बातें हैं !
शायद इतनी आबादी में
सब भूल भी जायें !
पर तुम तो अपना कर्म करो,
जिसके लिये तुम्हे
देवतुल्य पुरुष जीवन मिला है!!
मर्द बनो !! निडर होकर !!!
१०. अतीत के पंछी
अतीत के पंछी
उड़-उड़कर आते हैं
यादों की बालकनी में !
पर जब भी बढाऊँ हाथ
उन्हें छूने, पकड़ने को
फुर्र से उड़ जाते हैं
उसी अतीत के नभ में !
अहसास मुझे दिलाते
कि वे कितने उन्मुक्त हैं
मेरी पकड़ से !
पर मैं ?
मैं तो उन्मुक्त न हो पाई
अतीत की बेड़ियों से
जो अब भी हैं डाले
बंधन मेरे पाँव में
कुछ कदम चलते ही
खिंच जाती हूँ पीछे
या
आगे बढने की चाह में
गिर जाती हूँ
पर
पंछी नहीं बन पाती हूँ !!!
११. अहसासों की यात्रा
अहसासों को तुम तक
पोटली में बाँधकर
लाने के जतन में
कई शब्द जो भारी थे,
कहीं पथ में ही गिर गए
और तुम तक पहुँचे
केवल हल्के शब्द ,
जताने हल्के अहसास
और तुम रह गए वंचित
मेरी सम्पूर्ण सम्प्रेषणा से,
सम्पूर्ण भावनाओं से ।
और जाना केवल
आधा हृदय !
प्रतिकृत भी किया
असम्पूर्ण तुमने
ठीक उसी अनुपात में
जिस अनुपात में
गिरे थे शब्द
और जिसमें पहुंचे तुम तक !!!
2 टिप्पणियाँ
भिन्न-भिन्न भावनाओं का सुन्दर प्रस्तुतीकरण
जवाब देंहटाएंhardik dhnywad rajesh ji
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