मैत्रेयी पुष्पा का खुला ख़त (अरविन्द केजरीवाल के नाम) | Maitreyi Pushpa's OpenLetter to Arvind Kejriwal

गुलामी का आनन्द उठाने वाले आजादी के खतरों से बचते रहते हैं

मैत्रेयी पुष्पा का खुला ख़त (अरविन्द केजरीवाल के नाम)


प्रिय अरविन्द ( केजरीवाल )

मेरा तुम से कोई संपर्क नहीं था, सम्बन्ध की तो नौबत ही कहाँ से आती ? अचानक जनवरी की अंतिम तारीखों में मेरा नाम तुम्हारे कैबिनेट की ओर से आया जो मिडिया ने बड़ी मुस्तैदी से दो दिन तक चैनलों पर चलाया। जितना कुछ मुझे मालुम था, उस से कई गुना ज्यादा प्रचार में आ रहा था और ये कयास लगाये जा रहे थे कि मेरी तुम से कोई जान-पहचान है जिस में "ऑब्लिगेशन" भी जुड़ा होता है। खैर तुमने बेझिझक होकर उस उछाले गए सवाल का समाहार अपनी प्रेस-कॉन्फ्रेंस में कर दिया था। भले ही वह किसी के गले उतरा हो या न उतरा हो।

जिन्हें हम परम्परा कहते हैं अगर समय के साथ उन में बदलाव नहीं आता तो वे रूढ़ियाँ बन जाती हैं - मैत्रेयी पुष्पा
मगर बात तो यह भी है कि तुम अपनी बात को किसी के गले में उतारने का जतन ही कहाँ करते हो। अपनी बात कहकर आगे बढ़ जाने वाले शख्स के रूप में अक्सर तुम्हें मैंने देखा है। बहुत से लोग तुम्हारे इस रुख की निंदा करते हैं, तरह-तरह से दोषारोपण करते हैं और तुम्हारे एक की ही नहीं ज्यादातर कामों की भर्त्सना कर डालते हैं। तब मैं सोचती हूँ कि लोगों का यह रवैया अप्रत्याशित नहीं है क्योंकि जब-जब बदलाव की हवा चलती है, आदत के मारे लोगों को वह रास नहीं आती। हंस संपादक और चिंतक राजेन्द्र यादव कहा करते थे, "जब जब बदलाव की इबारत लिखी जाती है तब तब उसका पुरजोर विरोध होता है"। दूसरी स्थिति आती है, तब लोग चुप्पी साध जाते हैं, अनदेखा अनसुना करते हैं। तीसरी स्थिति में स्वीकार करने के आलावा कोई रास्ता नहीं बचता। अरविन्द तुम्हारे साथ ये स्थितियां तेजी से घटित हो रही हैं।

          मैं तो यह मानती हूँ कि जिन्हें हम परम्परा कहते हैं अगर समय के साथ उन में बदलाव नहीं आता तो वे रूढ़ियाँ बन जाती हैं। बने बनाये रास्ते आसान लगते हैं, भले उनपर कीचड जम गयी हो। अगर इस स्थिति को परिभाषित करूं तो वाक्य कुछ इस तरह बनेगा - "गुलामी का आनन्द उठाने वाले आजादी के खतरों से बचते रहते हैं"।

          अरविन्द,

          हमारी आशाएं छटपटा रही थीं और फिर उम्मीदें होश खोने लगीं कि हमारे देश की हालत ऐसे ही बिगड़ती जानी है। बेरोजगारी की समस्या, मंहगाई की मार, किसानों की आत्महत्याएं, स्त्रियों पर यौनिक हमले आम आदमी की मुफलिसी और अपमान… ये सब हमारे आजाद देश के लोकतंत्र की सौगातें हैं इन सौगातों को तब तक हमारे चारों और पाट दिया जाता है जब तक कि हम पहले जानलेवा तोहफों से अपने आप को छुड़ा भी नहीं पाते।
मुझे यह अहसास क्यों होता है कि हमारी आज़ादी एक भ्रम है - मैत्रेयी पुष्पा
          जो सौगातें बरसा रहे हैं, वह उनका अपना हक़ है। लगता यह भी है कि आखिर उनको हमने ही तो भेजा है, अपनी सहमति से, अपनी ही उंगली पर नीली स्याही का निशान देकर। हमने सच में यह नहीं सोचा था कि यह नीली शिनाख्त हमारे समूचे वजूद की रक्तधारा में नीले विष कि तरह प्रवेश करती चली जायेगी।

          अरविन्द आदमी के पास अगर कोई सबसे अच्छी या बुरी चीज होती है तो वह होती है उसकी उम्मीद। यह उम्मीद ही तो बार-बार उसे उकसाती रहती है और वह वोट डालने की राह चल पड़ता है, सोचता है - अबके नहीं तो अबके, ये नहीं तो वे, वे नहीं तो ये। अब क्या किया जाये कि बारबार यह कहावत उसे चिढ़ाने लगती है - "जी कौ जौन सुभाव जाय ना जी से / नीम न मीठे होंय खाउ गुड घी से "

          अब हम कहाँ जाएँ क्या करें? मैंने हार्बर फ़ास्ट की किताब पढ़ी है - स्पार्टकस यानि आदि विद्रोही। मेरी समझ में यही आया कि जब विरोध प्रतिरोध की भाषा काम नहीं आती, जब वह रोमनों द्वारा बंधक बन ली जाती है, सलीब पर लटका दी जाती है, तब विद्रोह की भाषा का जन्म होना लाजिमी है। अरविन्द, स्पार्टकस जीता नहीं था, जीता था उसका संघर्ष, उस संघर्ष की परंपरा नए-नए विधानों और रूपों में। जहाँ भी जिस रूप में रोमन पैदा हों, उनसे लोहा लिया जाये। मुझे यह अहसास क्यों होता है कि हमारी आज़ादी एक भ्रम है। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय त्यौहार महज खानापूर्ती हैं। कंगाल-बेहाल आदमी स्वतंत्रता का अर्थ जानता भी है या उसे लोकतंत्र का तमाशा दिखाया जाता है? क्या हम गुलामी का भारी लबादा ओढ़ कर जन गण मन गाते हुए उम्र नहीं काट रहे ? यह सब इस लिए कि यह तो हमारे चुने हुए मालिकों, आकाओं और मोटर-बघ्घी वाले महाराजाओं की शान में हमारा सलूट है। चुनिंदा लोगों के हुजूर में झुकने का अभ्यास है।

          फिर भी गुस्ताखी हो ही जाती है क्योंकि हमारे भीतर का नागरिक बार-बार सिर उठाने लगता है। कारण यह कि उसकी कमर झुकते-झुकते टूटने का अहसास देती है। दर्द आदमी को चुप नहीं रहने देता तभी तो हमारे बीच से तड़पता हुआ आम आदमी उठा और रीढ़ सीधी करने की कोशिश में उठकर खड़ा हो गया। साथ ही अपने जैसों को आवाज दी उठ कर खड़े हो जाने के लिए। गूंगे लोगों को बोलने के लिए हिम्मत देने लगा। यह बात साफ़ हो गयी कि हमारे चुने हुए लोग अंधे-बहरे नहीं हैं, उनको जनता की ओर देखने की आदत छूट गयी है, वे नागरिकों को अनसुना कर देने के लिए छोड़ देते हैं। हम भी तो जागरूक होना भूल चुके हैं। अपने स्वर को दबा लेते हैं, वजूद को छिपा लेते हैं अपने साहस को कील दिया, अपराधों की भेंट चढ़े जाते हैं हक़ नहीं मांगते हुकूमत झेलते रहते हैं। अपने सारे फैसले उनको सौंप दिए जो हमारे ही फैसलों से विधानसभा और संसद में गए थे।

          अरविन्द ,हम तो सोचते थे कि धन-कुबेर पैदा ही हुआ करते हैं, लेकिन तुमने खुलासा कर दिया कि एक गुप्त संसार वह भी है कि जिसमें शर्त होती है - "तुम मुझे कुबेर बनाओ ,मैं तुम्हें राजा बनाऊंगा "  इस नए ज्ञान के साथ ऍफ़ आइ आर को भी नत्थी देखा हमने! समझ में आया कि आज़ाद भारत वीभत्स और खूंखार व्यवस्था के चंगुल में है। देखा, क्या नज़ारा है ? राजनीती के गलियारों में हड़कम्प मचा है। भय के मारे लोग अरविन्द को भगोड़ा कायर और बेईमान कहकर भड़ास निकाल रहे हैं। वे यह भी जानते हैं कि यह शख्स फ़कीर है। इसका वाही कबीराना हठ -- जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ...

          तुम्हारी फकीरी ही तो हमें रास आगयी। उस जनता को भी तुम अपने लगते हो जो बात बे बात तुम्हें टोकती है। तुम मुख्यमंत्री की कुर्सी लेकर भी राजा नहीं हुए। मेरे लिए जो प्रस्ताव तुमने रखा हमारे साहित्य जगत में वह सम्मान और हर्ष का विषय बना आज ये ही लोग जनलोकपाल के लिए मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने के तम्हारे जज़बे को सलाम करते हैं।  भारतीय जनता पार्टी और कॉंग्रेस की साजिशें भी आखिर तुमने खोल ही दीं। दोनों पार्टियों के कुनबे बिसात बिछा-बिछा कर बैठ गए, चक्रव्यूह रच दिया, लेकिन वे अभिमन्यु का वध नहीं कर पाये क्योंकि अरविन्द ने ४९ दिनों के कार्यकाल में राजनैतिक युद्ध विद्या का प्रशिक्षण पा लिया था।

शुभ कामनाओं के साथ

मैत्रेयी पुष्पा

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6 टिप्पणियाँ

  1. आलसी आदमी तो करवट भी बदलता है तो उसे तकलीफ होती है ,घर में पुताई करते है तो उस अव्यवस्था से घबरा जाते है किन्तु सफाई पुताई होने के बाद मन कि शांति महसूस कर उस उठा पटक को भूल जाते है फिर ये तो हमारी ही उम्मीदो का पहला चरण है जिसे हम कबसे अपने मन में संजोते आये है ,गीत सुनते आये है ,और जब पत्त्थर उछला है तो क्या डरना। बहुत सार्थक पत्र।

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  2. Bahoot khoob , tumhari fakiri hi to hame ras aa gayi . Bilkul sach kaha aapne ..... gulami ka aanand uthane wale aajadi se darne lagte hai ?

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  3. bahut badhiya samjhaya hai, very nicely explained. maitrai ji Recently I read two books- chal and alma kabutari . I enjoyed reading them.

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  4. Arvind Kejriwal ji ko Maitreyi Pushpa ji jaise sudhi-sugna nagrikon ki baat sun ni hi chahiye, un jaison ki salah ko samjhein sweekarein...jis se unka qad badhega hi...

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  5. बेहद सुन्दर लेख!! अरविन्द केजरीवाल और कुछ नही बल्कि इस भ्रस्त तंत्र से परेशान इंसान की दबी कुचली आशाओं का मूर्त रूप है....हम पर जिम्मेदारी है कि हम इन आशाओं को दबने ना दे और साथ ही उन्हें इस प्रकार नियंत्रित करे कि वो निरंकुश होकर लालच ना बन जाये ...

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  6. कुछ दिनों से श्ब्दांकन देख रहा हूं । यह पठनीय होने के साथ विचारोतेजक भी है ।हमें साहित्य की दुनियां की अनोखी जानकारियां मिलती है ।यह पत्रिका जरूरी मुद्दॉं को केंद्र में लाती है।

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