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कहानी: सुरंग - अशोक गुप्ता | Surang (Tunnel) Hindi Story by Ashok Gupta

कहानी 

सुरंग 

अशोक गुप्ता 

कहानी: सुरंग - अशोक गुप्ता


शहर के इस महंगे नर्सिंग होम में जो मरीज़ अंतिम साँसें ले रहा है, वह मैं हूँ।

कोमा में आ गया हूँ। मौत अब कितने हाथ दूर रही मुझसे..? और मौत के हाथ भी तो बहुत लम्बे हैं..। जो भी हो, मैं बहुत कुछ कह लेना चाहता हूँ इस बीच सब कुछ कह लेना चाहता हूँ।

उसी समय से शुरू करूँ। स्कूल की पढ़ाई के आखिरी दिन थे और मैं बस खींचतान कर पास होता चल रहा था। चेहरे पर मूंछें अपनी दस्तक दे रहीं थीं। अपनी आवाज़ हर अगले रोज़ अपनी नहीं लगती थी, और हवा निरंतर जैसे यही कहते सुनाई पड़ती थी, मुझे पढो.. मुझे पढो.. ऐसे में पता नहीं किस ढब से मैंने यह पढ़ लिया कि अगर पढ़ने-लिखने के जरिये भी किसी न किसी तरह अपने पैरों पर खड़े होने की ताकत जुटानी है, तो क्यों न सीधे ताकत ही जुटाने का रास्ता पकड़ा जाये।

...

कैसी अजीब सी सनसनीदार इबारत थी यह जो मेरी आँखों में आ बैठी और मैंने घर-बाहर इधर-उधर सब जगह इसी इबारत को, इसकी सच्चाई को जांचना शुरू कर दिया। शायद यही वह निर्णायक घटना थी जिसने मुझे इस गति तक ला पहुंचाया। न जाने कितने-कितने चेहरे पढ़े मैंने..., स्कूल में मास्टर जी, घर में पिता या दादी, पड़ोस में रहने वाले बड़े अफसर, व्यापारी, और बड़े मंदिर के पुजारी जी। पढ़े-लिखे या अनपढ़, लेकिन सबके हाव-भाव में बस ताकत जुटाने का जतन मुझे दिखा, और किताब मेरी उँगलियों से फिसलने लगी। मेरी नज़र खोजने लगी ताकत का झरना, जो मुझे खड़िया पट्टी से बहता कभी नहीं दिखा।

इस खोज में मुझे इसी नज़र के दोस्त मिले। ताकत की प्यास में सूखे ओंठ लिए.. बदहवास...भटकाव में जीते..। और फिर मैं ताकत की खोज करता हुआ एक सुरंग में आ पहुंचा।

एक लम्बी अँधेरी सुरंग थी वह। उसके भीतर कुछ सूझता नहीं था। ताकत के प्रसंग में सूझना ज़रूरी भी नहीं था.. एक अजीब सी नमी थी वहां, ठहरी हुई हवा का भीगा सा स्पर्श, जिसके होते उँगलियों तक किसी और छुअन का एहसास पहुँचाना बंद हो जाता। कान में एक निश्शब्द सन्नाटा गूँजता था वहां..। भरपूर उन्मादित करता था..। और कुछ भयभीत .. संज्ञा शून्यता तो भीतर भरता ही था बहरहाल..।

दरअसल वह अँधेरी, नम और निस्पंद सुरंग खुद एक ऐसा पाठ थी जो ताकत का मन्त्र धारण करने की दीक्षा देती थी। मैं जब सुरंग के भीतर होता तो वहां की गूँज एक बेचैन कर देने वाली हलचल मेरे भीतर भरने लगाती और मैं छटपटा कर बाहर आ जाता। बाहर भी, जब तक उस लिजलिजे अँधेरे की किक रहती मेरे ऊपर, मुझे सब अपरिचित से नज़र आते। किसी और ही दुनिया जैसे लोग.. और मैं खुद को उनके बीच बिलकुल अलग- थलग पाता। सुरंग से बाहर निकलते समय एक नशा सा चढ़ा रहता मेरे ऊपर और जब बाहर की ताज़ा हवा से वह नशा टूटने लगता तो वह सुरंग फिर मुझे हांक दे कर भीतर बुला लेती।

इस तरह सुरंग और उसके बाहर की दुनिया के बीच मेरा एक बेमतलब सा चक्कर शुरू हुआ और लम्बे समय तक जारी रहा। मैं घर, पड़ोस, संगी-साथी सबसे मोमजामा होता चला गया। अब मैं पिता, दादी, स्कूल मास्टर और पुजारी जी, सबके चेहरों पर ताकत की ज़द्दोज़हद साफ़ पढ़ पाने लगा था, हालांकि वह सब उस सुरंग की दुनिया के जीव नहीं थे , बल्कि घर-संसार के प्राणी थे।

सुरंग का जीव होने के लिए घर-संसार का प्राणी न होना चुन लिया था मैंने। यह मेरे लिए एक मंथन का दौर था, और मुझे खुद नहीं पता था कि इस से कुछ निकलेगा भी या नहीं। लेकिन जो भी था, वह मेरे लिए एक गहरे सम्मोहन का चक्रवात था।

फिर एक दिन एक चमत्कार हुआ। सुरंग ने मुझे एक मुखौटा दिया। दिया क्या, अपने हाथ से मुझे खुद पहना दिया।

वह जैसे मेरा दीक्षांत समारोह था।

सुरंग के अँधेरे में उस मुखौटे को देख पाना संभव नहीं था। सो मैंने उसे जस का तस स्वीकार किया और उत्तेजित उत्साह से भरा सुरंग से बाहर आ गया। उत्तेजना की तो बात थी ही.. वह मुखौटा मिलना मेरे लिए गति की पहली घटना थी। मुखौटा चढ़ाये मैं सुरंग से बाहर तो आया लेकिन सुरंग भी जैसे साथ आ गई मेरे। वैसा ही अँधेरा, नमी, और ठहरी हुई हवा का वैसा ही गिज़गिजापन ..। कान में वैसी ही गूँज..। और उन्माद भरा नाद।

मैं सड़क पर आया ही था, कि लोगों में जिसकी भी नज़र मुझ पर पड़ी, उसने यकायक भागना शुरू कर दिया। बदहवास भागमभाग.. हाथ का सौदा सुलुफ छोड़ कर लोगों का गलियों में जा छुपना.. औरतों ने चीख मारी और मैं अपने नन्हों को सीने से चिपटाए, अपनी चुनरी चप्पल छोड़ जहाँ जगह मिली वहां दौड़ गईं।

एक अजीब सा रोमांच था इस दृश्य में। मैं देर तक मुखौटा पहने अपने शहर में घूमता रहा.. लोगों का दूकान सामान छोड़ कर भागते देखता रहा। दुकानों से मनपसंद चीजें उठा कर जेब के हवाले करता रहा, और देखता रहा पुलिस तक का टोपी-डंडा छोड़ कर भागना।

बहुत लम्बे समय तक मेरा यह सिलसिला चलता रहा। मैं जहाँ चाहता मुखौटा लगा कर जाता, दहशत का और लोगों की घिग्घी बंधी उदारता का हकदार बनता। घर जाते समय मैं वह मुखौटा उतार कर जेब में रख लेता। मुखौटा उतार कर भी मैं खुद से बेगाना नहीं होता, क्योंकि मेरे लिया मेरा घर भी सुरंग में बदलने लगा था।
इस तरह ताकत, पैसा और समर्थन जुटाने का लम्बा अभ्यास मैंने इस दौर में किया..। और मुझे महसूस हुआ कि मैं उठने लगा हूँ। किसी ताकत ने मुझे अपने हाथों ज़मीन से ऊपर उठा दिया है। यहाँ एक ख़ास नज़र ने मेरी आदत में अपनी जगह बना ली कि मैं स्कूल की पढाई और मां की सीख से लैस आदमी को बौना और बेइज्जत मानने लगा।

फिर धीरे-धीरे मुखौटा लगा कर मेरा ताकत बटोरना बंद सा हूँ गया। मैं सुरंग में ही रहने लगा और ताकत खुद-ब-खुद मेरे पास आने लगी..। पैसा, इज्ज़त, औरत, सब कुछ। अब मेरे रंग-ढंग में थोडा बदलाव आ गया था। लोगों के बीच मेरा डर सतत हो गया था। मैं यदा कदा मुखौटा उतार कर भी आने जाने लगा था।

और इसी दौर में उस दिन की घटना.... मैं अब उस घटना को याद करता हूँ तो कोमा के बावजूद सिहर जाता हूँ।

यूं ही घूमते फिरते एक दिन मैंने एक आदमी को देखा था, मुखौटा चढाए वह आदमी, उस से डर कर भागते हुए लोग और उसकी बाहों में दबोची हुई एक औरत..। एकदम मेरे जैसा आदमी था वह.. ऐसी चाल में चलता हुआ जैसे सुरंग उसके साथ चल रही हो।

उस समय मेरे चेहरे पर मुखौटा नहीं था। उस आदमी को देख कर मेरा हैरत में आ जाना स्वाभाविक था। मैंने इशारे से उसे रोका। वह रुक गया। उसने जैसे मुझे पहचान लिया था। कुछ पल हम दोनों आमने-सामने खड़े रहे। एक आतंक उसके चेहरे से चारों और फ़ैल रहा था, जबकि हमारे इर्द-गिर्द सन्नाटा ही था। पता नहीं क्या हुआ की मैं उसके मुखौटे के पीछे का चेहरा देखने के लिए बेचैन हो गया। मैंने उसे आदेश दिया। और झटके से उसने अपना मुखौटा उतार कर हाथ में ले लिया।

ताकता रह गया मैं उसका बे मुखौटा चेहरा.. ज़रा सा भी फर्क उसके चेहरे में नहीं आया था। जैसा मुखौटे के साथ हू-ब-हू वैसा ही बगैर मुखौटे के.. मेरी उंगलियाँ थरथराईं कि मैं उसका चेहरा छू कर देखूँ कि कहीं एक और मुखौटा तो नहीं है वहां, लेकिन मैंने खुद को किसी तरह ऐसा करने से रोक लिया। मेरे आदेश का इंतज़ार किये बगैर उसने अपना मुखौटा फिर अपने चेहरे पर चढ़ा लिया और बिना कुछ बोले आगे बढ़ गया।

मेरी उंगलियाँ थरथराहट से दुखने लगी थीं। मैंने अपनी उँगलियों से अपना बे-मुखौटा चेहरा छुआ और मुझे चौंक जाना पड़ा। मेरे चेहरे का स्पर्श मुखौटे जैसा ही था। रबर की सतह की तरह निर्जीव और निस्पंद। मैं इस बात से बेहद कसमसाया और अपने निष्प्राण हो जाने की सी आशंका मुझमें भर गई। मैंने अपनी कमर पर चुटकी काटी, मुझे कोई दर्द नहीं हुआ। मैंने हाथ की जलती हुई सिगरेट अपनी जुबान पर रख कर मसल दी। वहां कोई तपिश नहीं लगी, और मैं आतंक से कांप उठा.. .।

क्या ताकत बटोरने की कोशिश में मैं सिर्फ एक मुखौटा भर रह गया हूँ..? एक रबर की झिल्ली...एक मरी हुई चीज़..?

यकायक मेरे बहुत से अनुभव मेरे सामने जिंदा हो आये। ताकत के दम पर क्या-क्या नहीं भोग पाया मैंने.... कौन सा व्यंजन था जो मुझसे छूटा.. कौन सी खूबसूरती थी जो मैंने नहीं छूई.. लेकिन उसी पल मुझे एहसास हुआ कि किस चीज़ का स्वाद मिला मुझे..? किसी का भी नहीं.. न किसी व्यंजन का, न किसी उन्माद स्पर्श का .।


अशोक गुप्ता
305 हिमालय टॉवर.
अहिंसा खंड 2.
इंदिरापुरम.
गाज़ियाबाद 201014
मो० 09871187875
ई० ashok267@gmail.com
तो क्या मेरा एक निर्जीव मशीन में बदलना तभी शुरू हो गया था जब मैं उस सुरंग में घुसा था..?
यह बात एक सदमे की तरह हिला गई मुझे। मेरे भीतर से एक चीख निकली और मैं शायद वही गिर कर बेहोश हो गया था..

फिर नर्सिंग होम, कोमा और अब....।

अब और कुछ नहीं.. मेरे सामने शीशे की दीवार के उस पार आतंकित लोगों की भीड़ है, जो मेरे मरने का इंतज़ार कर रही है। ..। मैं शीशे की दीवार के इस तरफ हूँ। मेरे कमरे में एक शांत, प्रसन्नचित्त चेहरे वाली नर्स है एली। मुझे मरते-मरते इस एली से ज़बरदस्त ईर्ष्या हो रही है। इन चार दिनों से मैं लगातार इसे देख रहा हूँ। उसने न जाने कितनी बार निडर हो कर मेरी बाहें छुई हैं और अपनी स्थिर गुनगुनी उँगलियों से मेरी पलकें उठा कर मेरी पुतलियाँ दखी हैं । वह तन्मय हो कर अपना काम करती है। अक्सर साथ की नर्सों से बात करते समय खिलखिलाकर हंसती है, घड़ी देख कर चौंकती है कभी-कभी, और भाग कर किसी मरीज़ के पास पहुँच जाती है। .. कितनी भरपूर ज़िन्दगी है उसके पास..। और कितना निडर मन।

अब वह आएगी मेरे पास तो मैं उसका हाथ छू कर पूछूँगा उस से,

" मैं कब मरूँगा एली, मैं मरना चाहता हूँ। मैं मरूँगा तो मेरे इच्छापूर्वक मरने से वह सुरंग भी ज़रा सा मर जाएगी। और यही ठीक है। "
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