वंदना राग - नावेल: बिसात पर जुगनू - अंश | Vandana Rag - Novel: #BisatParJugnu - Excerpt


वंदना राग - नावेल: बिसात पर जुगनू - अंश

लोग परगासो के पैरों में छिपकर अक्षत-चावल यूँ ही सरका देते थे कि अब करिश्मा हो ही जाए। उनके नज़रों के सामने से हटने के बाद परगासो अपने पैरों की ठोकर से सब बिखेर देती थी। ‘हट्ट इससे कोई करिश्मा होगा? करिश्मा तो गैंती को तलवार की तरह भाँजने से होगा। लाठी को हाँकने से होगा। भाले को दुश्मन के पेट में हलाने से होगा। गोराया के खड्ग से किसी का सर धड़ से अलग कर देने से होगा।

'बिसात पर जुगनू', वंदना राग के पहले उपन्यास का यह अंश बिलकुल पूत के पाँव पालने में दिखा रहा है. प्रिय दोस्त को लाखों लाख मुबारकबाद. वंदना का लेखन हमेशा, उनकी ही तरह समाज को बेहतर बनाने की कोशिश रहता पढ़ा है और 'बिसात पर जुगनू' के इस अंश ने दिखा दिया है कि हिंदी उपन्यास संसार को वंदना राग के उपन्यास लेखन से वह उपन्यासकार मिल गया है जिसकी इस समय के हो हल्ले के बीच कमी उसमें थी. अब हिंदी साहित्य में वह नायिका ख़ूब जन्म ले पायेगी जो दुनिया को बेहतर बनाने में सक्षम हो. 

अगर आप दिल्लीवासी हैं तो इस अंश को पढ़ने के बाद, वंदना राग से मिलकर, उन्हें बधाई देकर, उपन्यास पर उनके ऑटोग्राफ ले सकते हैं: 21 फरवरी, 2020, शुक्रवार; शाम 6.30 बजे; सेमिनार हॉल I-II, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली. 

सप्रेम
भरत एस तिवारी





चाँदपुर

वंदना राग - नावेल: बिसात पर जुगनू - अंश

एक थी परगासो। एक है परगासो। उजली और चमकदार। खाने को बहुत कम। पहनने-ओढ़ने को गढ़ी की उतरन। भगत जी की बेटी। सारे दुसाधों की बेटी। माँ को जल्दी थी, देवता के देश जाने की, सो गई। मिलकर पाली गई। मिलकर पोसी गई। टोले के सब दुसाध माँ-बाप हो गए उसके। रहती लेकिन माँ की छोड़ी गई झोंपड़ी में अकेली थी। उसके कुछ बड़े होने तक कभी टोले की कोई चाची सो जाती उसके पास रात को, कभी कोई...

माली चाचा और भगत जी की झोंपड़ियाँ नज़दीक थीं। माली चाचा ने उसे गोद ले लिया और अपने साथ मिट्टी खनवाने लगा। उसे मिट्टी छूना अच्छा लगने लगा। मिट्टी से नया रिश्ता जोड़ लिया उसने। वह मिट्टी की दुनिया में रच-बस गई। माली चाचा की शागिर्द हो गई... उसने मिट्टी में हाथ डालकर ख़ुशबू पैदा करने का काम चुना और ख़ुद नायाब ढंग से महकने लगी। मिट्टी के अन्दर से ही फूल खिलते हैं। मिट्टी के अन्दर ही पुरखे हैं। मिट्टी के अन्दर ही माई की हड्डियों का चूरा है।

ख़ुद उसने देखा था—लोगों ने उसकी माई की राख झोंपड़ी के पीछे ही दफ़न की थी।

यह तेरी माई के सोने की जगह है। माई यहीं रहेगी अब से, देवता के पास।

और देवता तो रहता है आसमान में न, भगत जी? आपने कहा था कि देवता तो आसमान में रहता है और कहा कि माई तो गई देवता पास?” उसने समझदार हो पूछा...तो भगत हटपट करने लगा था,

यहाँ भी रहता है। देवता मिट्टी के अन्दर भी रहता है। हमारा देवता हर जगह रहता है।” वह झूठे आत्मविश्वास से बोला था।

जब वह थोड़ी बड़ी हुई थी तब उसने एक बार रात को अँधेरा होने पर मिट्टी कोड़ी थी और माई को नींद से जगाने की कोशिश की थी। लेकिन माई की हड्डी की राख, जिससे माई बनी थी, उसे कहीं नज़र नहीं आई और तो और अँधेरे में ढूँढ़ने पर देवता भी कहीं नहीं दिखा। उस दिन से उसने मन से देवता को नकार दिया था और मान लिया था कि माई सोई-वोई नहीं है, मर गई है।

अब कभी नहीं लौटेगी!


वंदना राग अमेज़न पर 


एक दिन भगत जी ने पीपल के पेड़ के नीचे बैठ टोले के दुसाधों को इकट्ठा किया और कहानी कहने लगे, “हमारा वक़्त पलट रहा है। अब पासबाँ सिर्फ़ दूसरों का पासबाँ बनकर नहीं रहेगा। वह अपना पासबाँ होगा। अपने बीच के राजाओं का पासबाँ। अपना पासबाँ। जल्द आनेवाला है हमारा वक़्त।

भगत जी के घर के बाहर एक छोटी सी झोंपड़ी में स्थापित था गोराया देवता। उसका खड्ग अँधेरी रात में बिजली की तरह चमकता था। भगत जी ने फिर कहा, “देवता ने कल रात सपने में दर्शन दिए हैं और कहा है...यह जो परगासो है न, यही अपनी बेटी परगासो, यही करेगी अपने टोले का नाम ऊँचा! सब लोग इस बात को गाँठ बाँध लो।” भगत जी की बात सबने मोहब्बत से सुनी और अपने काम पर चल दिए। परगासो के सर पर आशीर्वाद देने को कुछ ने हाथ रखा। कुछ ने उसे उत्सुकता से देखा, अपने दुख की हँड़ि‍या को उसके चरण तले कब बहा पाएँगे, इसकी कल्पना की, फि‍र कृतज्ञता से भर भगत जी के आगे सीधा भी रख दिया।




इधर परगासो चाचा के साथ जाने लगी हर उस जगह जहाँ से फूल पत्तों की सुगन्ध मदमाती थी। टोलों में, गाँवों में, खेतों में और जंगलों में। एक दिन चाचा ने कहा, “जा आँकुरी-बाँकुरी की पौध ले आ जंगल से। इन्हीं जंगली फूलों से मेंड़ बनेगी अब गढ़ी की।” परगासो चल दी। वही अपनी मस्त चाल से। रास्ते में मिले भगत जी, “कहाँ चली बिटिया?” परगासो ने मसखरी की, “बाँकुरी बनने...

क्या जानती थी जीभ पर बात ठहर जाएगी और कभी अपनी जगह छोड़कर नहीं जाएगी।

बाँकुरी!

शीशम के जंगल के भीतर ही रहते थे भीमा दादा और उसके कई सारे बच्चे। एक बार उसने उनसे पूछा था, “तुम्हारे इतने सारे बच्चे कैसे दादा...हमरे गाँव-टोले में तो किसी के नहीं इतने?” भीमा दादा हो...हो...हो कर हँसा था। ऐसा लगा था आसमान तक उसकी हँसी पहुँच गई थी। वह क्या बताता इस नन्ही बच्ची को कि सारे जंगल के बच्चों का वह दादा क्यों है? दादा की औरत के पेट से नहीं जन्मे जंगल के सारे बच्चे, लेकिन वे सन्तान हैं उसकी। जंगल देवता ने ये कह रखा है उसे, ‘तू रक्षक है जंगल में रहनेवाली अपनी सन्तानों का!

दादा उसे ख़ूब पहचानता था। ख़ूब दुलराता था। माँ-बाप बिन बच्ची प्यारी! माली चाचा के साथ अकसर आया करती थी फूल पत्ती, खोजने, ढूँढ़ने, खानने। भीमा दादा के बच्चे तीर-कमान से खेलते थे। उनके भाले फेंकने पर, दूर पेड़ में गड़ जाते थे। जब चाचा भीमा दादा से बातों में उलझा होता, परगासो भीमा दादा के बच्चों के साथ खेलती। उनके साथ खेलते-खेलते, वह नाज़ुक परगासो मुनिया नहीं रहती थी। वह बहादुर भाला फेंक लड़ाका हो जाती थी। ख़ून भल-भल दौड़ने लगता था उसका। बच्चे उसका रक्तिम आभा से चमकता चेहरा देख हँसते थे।

ए दुसाधन, आज जीत गई कल हारेगी...ज़रूर।” वे उसे चिढ़ाते थे।

वो भी हँसती हुई कहती थी, “ना...ना...यह कभी नहीं होगा।

और हार और जीत को साबित करने का दिन भी जल्द आ पहुँचा!





उस दिन जब वह घूमती-फिरती आँकुरी-बाँकुरी तक चली गई थी और देर तक बैठकर फूलों की छटा निहारती रही थी, उसी दिन की बात है—सर पर की धूप पत्तों की छन्नी से बूँद-बूँद झर रही थी, वनस्पति की तीखी गन्ध नाक में तेज़ी से बसती जा रही थी। उसने धीरे से गैंती रख दी और फूलों के झुरमुट से एक फूल तोड़कर गोद में रख लिया। इसमें कितनी सुन्दर गन्ध है, सोचते-सोचते उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं। तभी सरसराहट की आवाज़ हुई और जब तक वह अपनी आँख खोल पाती उसकी आँखों को कसकर कपड़े से बाँध दिया गया। वह ज़ोर से चिल्लाई, “कौन?

पीछे से भीमा दादा के बच्चों की शैतान हँसी गूँजी, “हम!

इस पर वह फिर चिल्लाई, “तो क्या? आँख पर पट्टी क्यों बाँधी?

वे बोले, “ताकि‍ आज तुम्हारी सही परीक्षा हो। अब भाला फेंको अपने ठीक सामने। सामने तुम्हारा सबसे प्यारा साथी सुरजु शीशम के पेड़ के आगे खड़ा है। लो।” उन्होंने उसके हाथ में भाला पकड़ा दिया।

एक बार मन में आया परगासो के, अरे ये तो मेरी परीक्षा लेने पर उतर आए? अगर कहीं ग़लती से सुरजु को भाला लग गया तो? फिर मन में आया जब छल से उसे घेरकर चुनौती दी जा रही है, तो वो कैसे पीछे हट जाए? ये नहीं होगा। उसने सुरजु को आवाज़ दी, “सुरजु...!” जंगल में आवाज़ दौड़कर गई और उसके पास लौट आई। उसने मन-ही-मन अनुमान लगाया पलों का और दूरी नापी मन-ही-मन। सुरजु को भी मज़ा आया अपने को पुकारा जाना और वह भी जवाब में चिल्लाया, “परगासो...!

फिर आवाज़ दौड़ी और उस तक पहुँची। वही वह क्षण था जब परगासो ने भाला फेंक दिया। उस दिन सुरजु यदि ऐन वक़्त पर नहीं झुकता तो भाला उसके सीने के पार हो जाता। बच्चों की हँसी एक ख़ौफ़नाक जानवर की तरह घात लगाकर कहीं लोप हो गई। हाँफते हुए सुरजु ने परगासो की आँखों से गमछा खोल दिया।

तू आज हमको ख़त्म कर दी थी...

छल काहे किया?

“हम लोग तो परीक्षा ले रहे थे तेरी।

इस तरह?” फिर ख़ूब हँसी परगासो।

बच्चे उसके पीछे ऐसे चल दिए जैसे उसने उनके भीतर अभी-अभी घुस गए जंगली जानवर को अपने बस में कर लिया है और उसे रस्सी से बाँधकर अपने साथ ले जा रही थी। उस दिन आँकुरी-बाँकुरी तो नहीं आ पाई गाँव, लेकिन एक दुबली-पतली रणबाँकुरी अपनी गैंती जंगल में भूल लौट आई थी अपने गाँव।





फि‍र अपने बड़े होने के दिनों में जो मिल जाता उससे अक्षर बनाना भी सीखने लगी थी परगासो। भगत जी के मना करने के बावजूद। वे कहते, “पढ़ना-लिखना सीखकर क्या करेगी? तुझे तो मेरी आसनी पर बैठना है। लोगों के दुख-दरद दूर करने हैं!

वह मन-ही-मन ख़ूब हँसती।

ऐसा कभी नहीं होगा भगत जी, मुझे यह सब नहीं रुचता, मुझे जो रुचता है मैं वही करूँगी।

वह रात को चुपके से भगत जी की नज़र बचा, गोराया का खड्ग हाथ में ले छूती ही नहीं बल्कि उसे तलवार की तरह अँधेरे में ऐसे भाँजती मानो जंगली जानवर को घायल करने का स्वाँग कर रही हो। उसे इसमें बहुत मज़ा आने लगा था। और धीरे-धीरे, कभी-कभार वाला खेल अब रोज़ाना की आदत बन चुका था।




भादों के दिन थे।

लगता था सारा क़हर इस बरस चाँदपुर पर ही बरपा होगा। आसमान फटकर नीचे गिरने को आमादा हो जैसे, वैसे ही धुआँधार बरस रहा था। दुसाध टोला अपनी फूस की छप्परों को उड़ने से बचाने की कोशिश में जूझ रहा था, तभी हल्ला मच उठा, “भागो, दौड़ो छिपो...लालमुँहे आ गए...।

परगासो अब बड़ी होती बच्ची नहीं रही थी। समय से पहले ही बड़ी हो गई थी। पूरा टोला उसकी ओर तकता था और भगत जी से जिरह करता था, “कब दिखाएगी करिश्मा परगासो?” भगत जी अपनी मुंडी ज़ोर-ज़ोर से घुमा कहते थे, “बहुत जल्दी...बहुत जल्दी...!

लोग परगासो के पैरों में छिपकर अक्षत-चावल यूँ ही सरका देते थे कि अब करिश्मा हो ही जाए। उनके नज़रों के सामने से हटने के बाद परगासो अपने पैरों की ठोकर से सब बिखेर देती थी। ‘हट्ट इससे कोई करिश्मा होगा? करिश्मा तो गैंती को तलवार की तरह भाँजने से होगा। लाठी को हाँकने से होगा। भाले को दुश्मन के पेट में हलाने से होगा। गोराया के खड्ग से किसी का सर धड़ से अलग कर देने से होगा।

यही सीख मिली थी उसे खेल-खेल में भीमा बुज़ुर्ग की सन्तानों से जंगल में और भगत जी के घर में चौकसी करते गोराया से। उसे बस अब अपने इन खेलों में तीर-कमान चलाने की विद्या को शामिल करना था। बच्चे उसे अपने तीर नहीं देते थे। कहते थे, “कम हैं, दादा ने कम ही दिए। कहा है—बर्बाद नहीं करना इन्हें। अब तुझे दे देंगे तो हम शिकार कैसे करेंगे?” जंगल में रहनेवाले हर बच्चे को सीखना होता था शिकार करना। वे परगासो से कहते थे, “कर दे हमारे लिए शिकार तब देंगे तीर तुझे!” वह परगासो को मंज़ूर नहीं था। वह तो सारी विद्या सीख भीमा दादा जैसी होना चाहती थी और उन्हीं की तरह दुश्मन मारना चाहती थी, जानवर नहीं।

लेकिन कौन था दुश्मन? कैसा दीखता था?

भादों मास के उसी दिन जब आसमान ने गाँव से कुछ ही दूर फटकर बिजली गिराई थी, उसकी भेंट हो गई थी दुश्मन से। वह अपनी फूस की झोंपड़ी में, अपने घाघरे की सलवटों को समेटती बैठी थी, एक मोटी सी घास की चटाई पर, एक कोने में बने चूल्हे को बुझाकर अपने ही हाथ का पकाया भात और बैगन की सब्ज़ी खाती हुई, तभी पड़ोस से चाची चिल्लाई थी, “दरवाजिया बन्द कलेअ, लुकाआ जा...लालमुँहा तहरे घर में ढुकअ ता...

खाते-खाते हाथ रुक गए उसके...सन्न से दिल में दुश्मन की साफ़ सी तस्वीर खुभ गई। उसने जूठे हाथों में अपनी गैंती उठा ली और काठ के कमज़ोर दरवाज़े के पीछे लुक गई। उसने देखा, सचमुच का एक फ़ि‍रंगी भीगने से बचने के लिए इस झोंपड़ी को लावारिस समझ, बदहवास चाल से झोंपड़ी में घुसा चला आया था। फ़ि‍रंगी ने चारों ओर नज़र घुमाई और किसी को ना पा, इत्मीनान से झोंपड़ी में बिछी चटाई पर बैठ गया और पास ही रखी परगासो की चोली के ऊपर पहननेवाली चादर को उठा अपनी देह पोंछने लगा। परगासो ने फ़ि‍रंगी का झोंपड़ी में घुसना, चटाई पर बैठना, खाने की थाली को पैर से खिसकाना, सब बर्दाश्त कर लिया, पर उसका अपनी चादर से देह पोंछना बर्दाश्त ना कर पाई। उसके मन के भीतर एक आग प्रज्वलित होने लगी।

जाने कितनी देर तक वह दम साधे छिपी रही। और फिर जब आसमान साफ़ हुआ, वह फ़ि‍रंगी ऊँघते हुए उठा और बाहर निकलने लगा तो परगासो ने पीछे से चीते की तरह उछलकर गैंती से फ़ि‍रंगी के शरीर पर कितने ही घाव कर दिए और तेज़ी से जंगल की ओर भागती चली गई। जैसे-जैसे वह जंगल के अन्दर समाती गई उसे फ़ि‍रंगी की चीख़ें कम सुनाई पड़ने लगीं और जब तक वह भीमा दादा तक पहुँचती, जंगल अपनी आवाज़ में उसका स्वागत कर रहा था। “आओ बाँकुरी...ख़ूब पारंगत हुई तुम तो, जंगल की विद्याओं में...अब किसी का क्या भय लड़की...?

इस बीच फ़ि‍रंगी को गाँववालों ने डरते-डराते गाँव से बाहर की मुख्य सड़क पर उठाकर पटक दिया और अपने ऊपर होनेवाले सन्देहों को भी वहीं बहुत ठीक से कुचल दिया। अब उसे ढूँढ़ने आनेवाले फ़ि‍रंगी कभी ना जान पाएँगे कि इस फ़ि‍रंगी को किसी जंगली जानवर ने नहीं मारा है...।

दुसाध टोला की परगासो दुसाधन तो...ग़ज़ब की निकली, देवता!





जब वह और बड़ी हुई, तो माली चाचा ने उसकी सिफ़ारिश मालकिन से कर दी, “मालकिन नौकर रख लीजिए इसे। हुनरमन्द है, बिन माँ-बाप की बच्ची है।” मालकिन को कोई एतराज़ नहीं हुआ, बस वादा ले लिया, परगासो नहीं घुसेगी घर के अन्दर। नहीं छुएगी बर्तन। नहीं छुएगी सामान। बाहर—सिर्फ़ बाहर फूल उगाएगी और गढ़ी को ख़ुशनुमा, ख़ुशबूदार रखेगी।

परगासो बेटी, मत पार करना चौखट...तुम्हारे छू लेने से सब हो जाएगा...तितर-बितर...उलटा-पुलटा।” चाचा...कहते नहीं थकता था। परगासो कुछ जवाब नहीं देती थी।

चुपचाप गैंती ले मिट्टी खनती रहती थी।

किताब : बिसात पर जुगनू
लेखक : वंदना राग
विधा : उपन्यास
प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन



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