लिटरेरी कार्निवाल में हिन्दी का लेखक - पंकज प्रसून | Hindi writer in Literary Carnival - Pankaj Prasun


मैंने पूछा -‘वन बीएचके क्यों? वह बोला-‘जानता हूँ आप हिन्दी के लेखक हैं इसलिए’ लेखन में मुकाम हासिल करना आसान है, मकान हासिल करना बहुत टफ है। बुक करा लीजिये आसान किश्तों में।

लिटरेरी कार्निवाल में हिन्दी का लेखक

पंकज प्रसून 

पिछले दिनों ‘लखनऊ लिटरेरी कार्निवाल’ में हिन्दी का लेखक यानी मैं तमाम सारी उम्मीदें लेकर गया था। पेज थ्री गेदरिंग थी वहां पर। साहित्य के तमाम पृष्ठ मिलकर भी पेज थ्री के ग्लैमर का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। साहित्यकार और स्टार में फर्क साफ़ दिख रहा था। भीड़ तो जुटी थी पर इस भीड़ जुटने का कारण ऑफिस में छुट्टी का होना था। कुछ लोग सपरिवार कार्निवाल 'एंज्वाय' करने आये थे। भारत के भविष्य कुर्सियों को झूला बनाकर साहित्यिक स्टाइल में झूल रहे थे घुसते ही विंटेज कारों के काफिले से मेरा सामना हुआ। जहाँ कुछ आधुनिक नारियां उन कारों के इर्द गिर्द लोक लुभावनी मुद्राओं में पोज देकर कई युवा साहित्यकारों को श्रृंगार लिखने को प्रेरित कर रही थीं। एक फिलोसफर का दर्शन शास्त्र जो अब तक भटकाव का शिकार था, विषय केन्द्रित हो रहा था। उसे दर्शन बोध हो रहा था। विश्व विद्यालय के अंग्रेजी विभाग के शोध छात्र- छात्राएं हाथ में पिज्ज़े का डिब्बा लिए हुए समोसाजीवी हिन्दी शोधार्थियों को हेय दृष्टि से देख रहे थे। ठीक उसी तरह जैसे सलमान रुश्दी पंकज प्रसून को देखते होंगे। शहर के एक बड़े लेखक का स्वागत करने कोइ नहीं आया। कसूर संयोजकों का नहीं, लेखक के फेसकट का था, वह लिखने वाले लेखक थे। कुछ दिखने वाले लेखकों की खूब आवभगत की जा रही थी। 

          गेट पर अतिथियों का टीकाकरण किया जा रहा था। नाम देखकर नहीं बल्कि कोट देखकर। एक हिन्दी के एक मेहनती लेखक (टैलेंटेड नहीं) हीन भावना के शिकार हो रहे थे, क्योंकि वह सदरी पहन कर आये थे। सो उसके माथे पर टीका नहीं लगाया गया था। मुझसे देखा नहीं गया। मैंने उनको अपना कोट देकर रीटेक करवाया। तो माथे पर टीका लग पाया। हालांकि वह इसको कलंक का टीका बता रहे थे। मैंने उनको ढांढस बंधाया, 'काहे हो दिल पर ले रहे हैं आप, साहित्य में तो हिन्दी को 'माथे की बिंदी' कहा गया है, जो महिला लेखिकाएं लगाती हैं। आप ठहरे पुरुष लेखक। शुक्र मनाइए कि अंग्रेजी टीके ने आपकी लाज बचाई है। ' उनका माइंड मेक अप हो गया था। वह भन्ना रहे थे और इस अपमान के विरोध में साहित्यिक पत्रिका में लिखने की सोच रहे थे। पहली बार अनुभव् किया कि एक लेखक आलोचक कैसे बन जाया है। 

          अन्दर प्रकाशक के नहीं। इंश्योरेंस कम्पनियों वालों के स्टाल थे। वहां पुस्तकें नहीं पालिसीज बिक रही थीं। मार्केटिंग मैनेजर पीछे ही पड़ गया, 'सर, प्लीज टेक दिस पालिसी। वनली फिफ्टी थाऊजेंड प्रीमियम। ट्वेंटी लाख मैच्योरिटी। 'मैं बोला-‘बहुत महंगी है' वह समझ गया कि मैं हिन्दी का लेखक हूँ। उसने पैंतरा बदला -'चिंता मत कीजिये सर दूसरा प्लान है मेरे पास पचास रूपये प्रीमियम। पांच सौ मैच्योरिटी' उसने हिन्दी को औकात दिखा दी थी। किसी तरह पिंड छुडा कर भागा मैं। 

          मैं कलाम की पुस्तक 'अग्नि की उड़ान' खोज रहा था। तभी एक स्टाल से रिसेप्शनिस्ट बोली -आइये सर, उड़ान एयर होस्टेस ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट वेल्कम्स यूं'। मैं बोला - 'अग्नि की उड़ान ढूंढ रहा हूँ'। वह बोली -'सर, आप बुक पढ़िए, पर उड़ान इंस्टिट्यूट में अपनी बहन का एडमिशन जरूर करायें। डिस्काउंट ऑफर चल रहा है' ।

          मैं लिटरेरी हॉल में इंट्री करने ही वाला था कि पीछे से एक सूटेड बूटेड साब ने आवाज़ दी। सर मेरे भी स्टाल पर आइये। फ्री मेडिकल चेक अप करा लीजिये। मेरी लम्बाई और वजन का अनुपात कैलकुलेट करके बोला -'सर आपका बी एम् आई बढ़ा हुआ है, खतरनाक हो सकता है। आप शहर के एक प्रतिभाशाली लेखक हैं, और आपको तो पता ही है कि आजकल साहित्यकारों पर काल सर्प योग चल रहा है, बस तीन महीने का कोर्स है। स्लिम एंड ट्रिम हो जायेंगे। अंग्रेजी लेखकों की तरह। 

          मैंने पूरी इच्छा शक्ति के साथ हॉल में घुसने की चेष्ठा की तभी एक कंस्ट्रक्शन कम्पनी वाले ने मेरी और रुख किया-‘आइये सर, वन बीएचके वनली ट्वेंटी लाख। ’ मैंने पूछा -‘वन बीएचके क्यों? वह बोला-‘जानता हूँ आप हिन्दी के लेखक हैं इसलिए’ लेखन में मुकाम हासिल करना आसान है, मकान हासिल करना बहुत टफ है। बुक करा लीजिये आसान किश्तों में। मैंने मना कर दिया। सामने से एक शायर आ रहे थे। मैं बोला -'ये बड़े शायर हैं, आप इनको अपना प्लान बताइये। ये खरीद लेंगे। वह बोला - क्या ख़ाक खरीदेंगे। दूसरों की ज़मीन से ही इनका काम चल जाता है, कई जमीनों पर अतिक्रमण कर रखा होगा'। 

          मैं लिटरेरी हॉल की और बढ़ रहा था। साहित्य की उम्मीद में। पर बार-बार बाजार बीच में आ जा रहा था। साहित्य बाजारवाद का शिकार क्यों होता जा रहा है। इस सवाल का जवाब मिल रहा था। 

          एक और घूँट पीकर पम्पलेट लेकर अन्दर आया तो एक अमेरिका से आया एक भारतीय युवा शायर उर्दू शायरी की धज्जियाँ उड़ा रहा था। ’वह एक सेर पेस कर रहा था’ उर्दू शायरी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर वह खुद को प्रयोगधर्मी बता रहा था। ऐसा उच्चारण था कि एक पहाडी को को भी खुद पर गर्व होने लगे। मुझे घोर आश्चर्य हुआ जब एक अंगरेजी लेखक को हिन्दी में बोलते देखा। वह स्टोरी को कहानी के अंदाज में पढ़ रहे थे। और हिन्दी पर एहसान कर रहे थे। 

          देश के तमाम सारे साहित्यिक आयोजन तब तक हिट नहीं माने जाते जब तक कि विवादों की भेंट न चढ़ें। इस विवाद के केंद्र में सबसे पहले महिला विमर्श रहता है जहां नारी अपनी पीड़ा को को लेकर तमाम सवाल उठाती है। यहाँ भी नारी तमाम सवाल उठा रही थी जो स्टालों पर गूँज रहे थे –‘ जीरो फिगर ताउम्र मेनटेन क्यों नहीं हो पाता है, एलोवेरा के जूस को आप मीठा क्यों नहीं बना पा रहे, आपके ब्यूटी ट्रीटमेंट पैकेज में पेडीक्योर की उपेक्षा क्यों की जा रही है? सामान्य साहित्यिक आयोजनों में महिला सशक्तिकरण की सिर्फ बात होती है। यहाँ दिख रहा था-‘ एक अंगरेजी पसंद पत्नी ने बीस हज़ार का हेयर स्पा पॅकेज बुक कराया था और पति के बाल विहीन खोपड़ी के लिए एक एक टोपी तक नहीं खरीद रही थी। उसको हेयर ट्रान्सप्लान्टेशन के स्टाल पर खड़े तक नहीं होने दे रही थी। उसका मानना था कि ये लोग बेवकूफ बनाते हैं। जबकि वह अपने पति कि बेवकूफ बना रही थी यानी यहाँ महिला सशक्तिकरण के साथ पुरुष दुर्बलीकरण भी दिख दिख रहा था। 

          हाल के अन्दर फिल्मों पर बात हो रही थी और दलित विमर्श बाहर चल रहा था, । शहर के उपेक्षित हिन्दी लेखक गेट पर खड़े होकर अपने भूत और भविष्य के बारे में चिंतित हो रहे थे। अपनी दीनता की बात कर रहे थे-‘चार महाकाव्य लिखने के बाद आखिर मैं एक टाई क्यों नहीं खरीद पाया’, ‘मेरा अभिनन्दन ग्रन्थ छापा गया पर यहाँ कोई नमस्कार करने वाला नहीं’। ’मेरे कृतित्व पर एमफिल हुआ पर वुडलैंड के जूते न ले पाया। ’’इसमें कौन सी बड़ी बात है, मेरे ऊपर तो पीएचडी हुयी है पर क्या मैं पीटर इंग्लॅण्ड की शर्ट खरीद पाया? मैंने हिन्दी के इन उपेक्षित साहित्यकारों के विमर्श को ही दलित विमर्श मान लिया था। 

          शाम ढल चुकी थी। जिस प्रतिष्ठान में साहित्यिक कार्निवाल हो रहा था उसी प्रतिष्ठान के ठीक बगल के एक दूसरे पंडाल में डीजे बज रहा था। साहित्य और शादी अगल-बगल चल रहे थे। दोनों ही हाई प्रोफाइल थे। साहित्य कोट पहन कर शादी के मंडप में घुस सकता था। शादी लहंगे में साहित्य के पास आ सकती थी। इसी को सांस्कृतिक विनमय कहते होंगे। आयोजकों ने डिनर की व्यवस्था क्यों नहीं की, यह राज भी पता चला। साथ में इस ज्ञान का बोध भी हो गया कि कोटधारी लेखक कभी भूखा नहीं सो सकता। 

          शाम के सांस्कृतिक कार्यक्रम में हिन्दी-उर्दू दिखाई पड़ी। एक ओर ग़ज़ल गायक मजाज लखनवी का शेर पढ़ रहा था –‘'हिजाबे फतना परवर अब उठा लेती तो अच्छा था, खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था। ’तो दूसरी और डीजे से आवाज़ आ रही थी। गंदी बात। गंदी गंदी गंदी बात। अन्दर बेग़म अख्तर को याद किया गया जा रहा था, बाहर बेगम को ले जाने के लिए दूल्हा बारात लेकर आ चुका था। जैसे ही उनकी गायी ग़ज़ल बजी -'ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’ दूसरी और 'तमंचे पे डिस्को शुरू हो गया। हिन्दी उर्दू का अद्भुत संगम हो गया था। गंगा जमुनी तहजीब जीवंत हो उठी थी। 

          लिटरेरी कार्निवाल की विदाई के वक्त बराती जमकर नाच रहे थे इसमें कुछ आयोजक भी थे। इस कोलाहल के पीछे का कारण एल्कोहल था। आयोजक नाचते हुए बोला-‘लखनऊ हम पर फ़िदा हम फ़िदा-ए-लखनऊ। तभी एक बाराती ने शेरवानी उतारी और हवा में लहराते हुए बोला –‘देखो उतर गया है लबादा-ए –लखनऊ। 


पंकज प्रसून 
टीएम-१५ टैगोर मार्ग 
सी एस आई आर कालोनी 
लखनऊ 
मो-9598333829
ईमेल kavipankajprasun@gmail.com

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