वचन सुनत नामवर मुसकाना - अनंत विजय | Happy Birthday Prof. Namvar Singh - Anant Vijay

वचन सुनत नामवर मुसकाना

अनंत विजय

             नामवर सिंह का विरोध करनेवालों को
               यह भी सोचना चाहिए कि
                         वो हिंदी के धरोहर हैं ।

                              यह हमारी जिम्मेदारी है कि
                                          इस धरोहर को संभाल कर रखें ।

रामचरित मानस के सुंदर कांड में एक प्रसंग है जहां रावण अहंकार में डूबकर हनुमान की पूंछ में आग लगाने का हुक्म देता है । तुलसीदास कहते हैं – वचन सुनत कपि मुसकाना । भइ सहाय सारद मैं जाना, अर्थात यह वचन सुनते ही हनुमान जी मन ही मन मुस्कुराए और मन ही मन बोले कि मैं जान गया हूं कि सरस्वती ही रावण को ऐसा बुद्धि देने में सहायक हुई है । कुछ इसी तरह से इन दिनों हिंदी साहित्य के शिखर पुरुष नामवर सिंह भी मन ही मन मुस्कुरा रहे होंगे । वो भी यही सोच रहे होंगे कि उनपर हमला करनेवाले लोगों के मन में इस तरह के विचार लाने में सरस्वती ही सहायक हुई होंगी । दरअसल हिंदी साहित्य में इन दिनों एक विवाद उठ खड़ा हुआ है। बिहार से लालू यादव की पार्टी के पूर्व सांसद और बाहुबलि नेता पप्पू यादव की किताब – द्रोहकाल का पथिक-( शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली) से प्रकाशित हुआ है । पप्पू यादव कुछ दिनों पहले तक मार्क्सवादी पार्टी के नेता अजीत सरकार ही हत्या के मुजरिम थे और जेल में बंद थे । इस वक्त हाईकोर्ट से बरी हो चुके हैं और खबरें है कु उनकी रिहाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की जाएगी । पप्पू यादव की इस किताब का नामवर सिंह ने दिल्ली में एक समारोह में विमोचन किया । विमोचन समारोह में नामवर जी के अलावा, कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह, समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के अलावा रामविलास पासवान भी मौजूद थे । अब हिंदी के कुछ क्रांतिकारी लेखक इस बात के लिए नामवर सिंह को घेर रहे हैं कि उन्होंने आपराधिक छवि वाले लेखक पप्पू यादव की किताब का विमोचन क्यों किया । इस पूरे विवाद को सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने भी हवा भी दी और मंच भी मुहैया करवाया । फेसबुक की अराजक आजादी का फायदा उठाकर वहां नामवर सिंह पर जमकर हमले शुरू हो गए । कई टिप्पणियां बेहद स्तरहीन हैं । कुछ नए नवेले क्रांतिकारियों, जिन्हें नामवर जी की साहित्यिक हैसियत का आभास भी नहीं है, ने इस बात को लेकर उनकी लानत मलामत शुरू कर दी । इन उत्साही क्रांतिकारियों को इस बात का एहसास भी नहीं है कि जिस विचारधारा के नामपर वो नामवर सिंह से अपेक्षा कर रहे हैं दशकों तक नामवर जी ने अपने लेखन का औजार भी वहीं से उठाया । उस विचारधारा को विस्तार देने के लिए सतत प्रयासरत रहे । सालों तक प्रगतिशील आंदोलन के अगुवा रहे । कईयों ने तो उनपर सत्ता और ताकत के हाथों खेलने का आरोप भी जड़ दिया । ऐसा कहनेवाले यह भूल गए कि नामवर सिंह ने हिंदी साहित्य को पिछले पांच दशकों से एक नई दिशा दी । पहले लिखकर और फिर देश के कोने कोने में जाकर अपने भाषण से हिंदी के नए लेखकों और पाठकों को संस्कारित किया । गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी नामवर जी को सुनने के लिए पाठकों और छात्रों की भीड़ जमा होती रही है । नामवर जी के लिखे को पढ़कर कई लोगों ने लिखना सीखा । हिंदी का हर लेखक इस बात के लिए लालायित रहता है कि उसकी रचना पर नामवर जी दो शब्द कह दें । सार्वजनिक तौर पर नामवर जी के विरोधी लेखक भी अपनी रचना पर येन केन प्रकारेण उनकी राय जानना चाहते हैं ।

यहां सवाल यह उठता है कि अगर किसी ने कोई कृति लिखी है तो क्या सिर्फ इस आधार पर उसपर बात नहीं होनी चाहिए कि उसकी आपराधिक छवि है या फिर वो जेल काटकर आया है । क्या सिर्फ इन आधारों पर पूरी कृति को साहित्य से खारिज कर दिया जाना चाहिए । इस पूरे विवाद को उठानेवालों की टिप्पणियां देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने पप्पू यादव की किताब को पलटने की जहमत भी नहीं उठाई है, क्योंकि किसी भी टिप्पणी में रचना पर बात नहीं है । पप्पू यादव की किताब सिर्फ बहाना है नामवर सिंह को घेरने का । हिंदी में यह स्थिति बेहद चिंताजनक है कि कई लेखकों की रुचि साहित्य से ज्यादा गैर साहित्यक वजहों और विषयों में होने लगी है । इनमें से कई लेखक तो ऐसे भी हैं जो हिंदी साहित्य में अपनी पारी खेल चुके हैं । और कुछ ऐसे लेखक हैं जिन्हें लगता है कि नामवर सिंह के खिलाफ लिखने पर उनको साहसी लेखक माना जाएगा और इसी बहाने उनको कुछ शोहरत हासिल हो जाएगी । मेरा मानना है कि पप्पू यादव की किताब पर बात होनी चाहिए, उसकी विषयवस्तु पर बात होनी चाहिए । अगर वो कृति कमजोर है और नामवर जी ने उसे श्रेष्ठ कहा है तो तर्कों के आधार पर नामवर सिंह की स्थापना को निगेट करना चाहिए ।

दरअसल हिंदी साहित्य में सालों से एक अस्पृश्यता भाव जारी है, कार्य में भी और व्यवहार में भी । हिंदी के विचारधारा वाले लेखकों को किसी अन्य विचारधारा के लेखकों के साथ मंच साझा करने में तकलीफ होती है । गाहे बगाहे इसके उदाहरण भी हमें दिखते रहते हैं । इस साल जुलाई में ही साहित्यक पत्रिका हंस की सालाना गोष्ठी में मंच पर अशोक वाजपेयी और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से जुड़े विचारक गोविंदाचार्य की अनुपस्थिति मात्र से ही तेलगू कवि और नक्सलियों के हमदर्द वरवरा राव वहां नहीं पहुंचे । तर्क यह था कि फासीवादी और पूंजीपतियों के विचारों के पोषक और संवाहकों के साथ जनवादी लेखकों का मंच साझा करना उचित नहीं है । हिंदी साहित्य जगत में उस वक्त भी इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी । जीवित रहते राजेन्द्र यादव को यह बात माननी पड़ी थी कि अलग अलग विचारधारा के लोगों के बीच विचार विनिमय में कोई भी वाद आड़े नहीं आ सकता है । इस बार भी नामवर विरोध का दूसरा आधार राजनेताओं के साथ मंच साझा करना है । नामवर जी आज उस ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं कि मंच और सभा का माहौल उनसे बनता है । वो जहां मौजूद होते हैं वहां के श्रोता और मंचासीन लोग भी नामवर जी को सुनने के लिए उत्सुक रहते हैं । अभी हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा की मानसरोवर यात्रा पर लिखी बेहतरीन किताब- द्वितियोनास्ति -के विमोचन समारोह में भी नामवर जी मौजूद थे । उनके साथ मंच पर बारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह, मुरली मनोहर जोशी, रामकथावाचक मोरारी बापू से लेकर योग गुरू बाबा रामदेव तक मौजूद थे । इस बात पर भी कई लेखकों ने एतराज जाहिर किया कि नामवर ने भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के साथ मिलकर किताब का विमोचन किया । यहां उनपर सांप्रदायिक शक्तियों से मेलजोल का आरोप लगा । मेरा इस बारे में स्पष्ट मत है कि साहित्य और साहित्यकारों को किसी भी तरह की अस्पृश्यता से बचना चाहिए । हम किसी के विचारों को नहीं सुनें या फिर किसी के विचारों का बहिष्कार करें तो यह भी तो एक प्रकार का फासीवाद ही है । इस तरह के वैचारिक फासीवाद का नमूना आपको बहुधा हिंदी जगत में देखने को मिल जाएगा । दरअसल तथाकथित वामपंथी लेखकों ने अपने इर्दगिर्द विचारधारा का एक ऐसा कवच तैयार किया हुआ है जिससे वो असुविधाजनक सवालों से बच सकें । यही मानसिकता उन्हें दूसरी विचारधारा को सुनने या फिर दूसरी विचारधारा के साथ विमर्श करने से भी रोकती है । इससे यह भी पता चलता है कि उनको खुद की विचारधारा पर भरोसा नहीं है । उन्हें लगता है कि दूसरी विचारधारा उनकी विचारधारा पर सवाल खड़े कर सकती है । इन असुविधाजनक सवालों से बचने के लिए वो उनसे बहाना ढूढ़ते रहते हैं । सांप्रदायिकता और सत्ता उनकी इस वैचारिक कमजोरी को ढ़कने के लिए तर्क प्रदान करते हैं । राजनेताओं की उपस्थिति मात्र से या उनके विचारों को सुनने मात्र से भाषा भ्रष्ट नहीं होगी । विचारधारा चाहे कोई भी हो अगर वो वैज्ञानिक होगी तभी लोकप्रिय हो पाएगी वर्ना कुछ ही दिनों में वो नेपथ्य में चली जाएगी । अगर कोई विचारधारा या उसके संवाहक असुविधाजनक सवालों से बचने का शॉर्टकट ढूढती है तो तय मानिए कि वो अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए ऐसा कर रही है । अगर हम मजबूत हैं और हमें खुद पर भरोसा है तो हमें कहीं भी किसी भी मंच पर जाकर अपनी बातों को मजबूती से ऱकनी चाहिए । नामवर सिंह ऐसा ही करते हैं । कुछ लोग मूर्खता में बेवजह उनकी आलोचना करने के उद्यम में जुट जाते हैं । उम्र के इस पड़ाव पर भी नामवर सिंह को हिंदी में क्या नया लिखा जा रहा है. इसकी जानकारी होती है । नामवर सिंह का विरोध करनेवालों को यह भी सोचना चाहिए कि वो हिंदी के धरोहर हैं । यह हमारी जिम्मेदारी है कि इस धरोहर को संभाल कर रखें ।

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1 टिप्पणियाँ

  1. यही दुर्भाग्य है कि जहां दीवारें होनी चाहिए वहाँ दीवारें गिराई जा रही है, और जहाँ स्वच्छंदता होनी चाहिए वहाँ दीवारें उठा दी जाती है. वर्तमान युग और नूतन पीढ़ी अपने ही संकीर्ण विचारधारा की दीवारों में घुट कर मरेंगे.

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