समीक्षा
सरकारी भ्रष्टाचार से लहू-लुहान होता एक ईमानदार अधिकारी
डॉ. बिभा कुमारी
कथाकार रूपसिंह चंदेल का नवीनतम प्रकाशित उपन्यास है -“गलियारे”। इससे पूर्व प्रकाशित इनका उपन्यास “गुलाम बादशाह” ख़ासा चर्चित रहा था। दोनों उपन्यासों के विषयवस्तु एक हैं, दोनों के केन्द्र में सत्ता को संचालित करने वाले उच्चाधिकारी यानी आई.ए.एस. और अलाएड सेवा में नियुक्त अधिकारी हैं। ’गुलाम बादशाह’ में ब्यूरोक्रेट्स द्वारा छोटे तबके के कर्मचारियों, तथा बाबू या अनुभाग अधिकारी आदि को अंग्रेजों की भांति गुलाम समझने की उनकी मानसिकता को प्रतिपादित किया गया है, लेकिन “गलियारे” की व्यापकता अपने विषयवस्तु से बहुत आगे निकल जाती है। यद्यपि प्रत्यक्ष कहानी अफसरशाही से जुड़े पहलुओं को प्रस्तुत करती है,परंतु अप्रत्यक्ष रूप से जीवन से जुड़े अहम प्रश्नों को भी उठाती है। पाठक उपन्यास को पढ़ते हुए इन प्रश्नों पर विचार करने पर विवश हो जाता है।
सामान्य जन की दृष्टि में आई.ए.एस. अफसरों की दुनिया किसी ‘इन्द्र्लोक’ से कम नहीं। लेकिन वहाँ के हालात कम विद्रूप नहीं. सज्जन और ईमानदार व्यक्ति के लिए वहाँ स्वयं को स्थापित करना अत्यंत दुष्कर है । समाज और देश का हित चाहने वाले, ईमानदारी का पालन करने वाले और रिश्वत नहीं लेने वाले अधिकारी का न केवल ऑफिसर समाज द्वारा बहिष्कार कर दिया जाता है,
उपन्यास: गलियारे
लेखक: रूपसिंह चन्देल
प्रकाशक: भावना प्रकाशन
109-A, पटपड़गंज, दिल्ली - ११० ०९१
पुस्तक मूल्य - रु. 500/-
पृष्ठ संख्या - 264
प्रति आर्डर करें http://bit.ly/galiyare
बल्कि उसे अपमानित और प्रताड़ित भी किया जाता है. उसके साथ अनेकानेक ज्यादतियाँ की जाती हैं. ’गलियारे’ का नायक सुधांशु दास एक ऎसा ही किरदार है, जिसे माँ की बीमारी और मृत्यु जैसे समय में छुट्टी देने में केवल इसलिए टाल-मटोल किया जाता है, क्योंकि वह अपने उच्चाधिकारी यानी अपने कार्यालय के प्रधान निदेशक पाल के अनुरूप अपने को ढालने से इंकार कर देता है।
उपन्यास: गलियारे
लेखक: रूपसिंह चन्देल
प्रकाशक: भावना प्रकाशन
109-A, पटपड़गंज, दिल्ली - ११० ०९१
पुस्तक मूल्य - रु. 500/-
पृष्ठ संख्या - 264
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पाल प्रतिरक्षा विभाग में सामान उपलब्ध करवाने वाले ठेकेदारों से मोटी रकम रिश्वत के रूप में लेता है. वित्तीय अधिकार उसके पास हैं. एक अनुभाग विशेष ठेकेदारों के बिलों को पास करने और चेक तैयार करने का कार्य करता है. उस अनुभाग के बाबू से लेकर पाल तक ठेकेदारों से प्राप्त रिश्वत का पदानुसार बटवारा किया जाता है. यही नहीं ठेकेदार को प्रतिरक्षा विभाग के अधिकारियों को भी अलग से रिश्वत के रूप में कमीशन देना होता है. पाल ने सुधांशु को उस अनुभाग का इंचार्ज नियुक्त किया था, लेकिन एक ईमानदार अधिकारी होने के कारण सुधांशु पाल के निर्देशों के पालन करने के बजाए ठेकेदारों के बिलों की खामियां खोज अधिकांश को वापस लौटा देता है. इससे ठेकेदारों में ही खलबली नहीं मचती पाल भी बौखला उठता है, क्योंकि सुधांशु न केवल नया रंगरुट था, बल्कि उससे कई पद नीचे अवस्थित था. अपनी आज्ञा की अवहेलना पाल बर्दाश्त नहीं कर पाता और प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वह सुधांशु को प्रताड़ित करने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देता. उसकी मां की बीमारी और मृत्यु भी उनमें से एक ऎसा ही अवसर होता है।
मां की बीमारी और मृत्यु पर सुधांशु को इतने कम दिनों का अवकाश दिया गया कि विवश होकर उसे छुट्टियां बढ़ानी पड़ीं और इसे उसकी अनुशासनहीनता मानते हुए रिश्वतखोरी में अपना साथ न दिए जाने से बौखलाए पाल ने उसे अपमानित और प्रताड़ित करने का जो उपाय निकाला वह पाठक को हत्प्रभ कर देता है. उसका न केवल कार्य बदल दिया जाता है बल्कि उसे रिकार्डरूम में जून की तपती गर्मी के दिनों में बिना पंखे और बिना चपरासी के बैठा दिया जाता है, जहां पीने के लिए पानी प्राप्त करने के लिए रिकार्ड क्लर्क से उसे कहना पड़ता है. उसकी सीट के ठीक सामने बाबुओं का बाथरूम होता है. उसे एक सामान्य अनुभाग का काम दिया जाता है. आभिप्राय यह कि एक आई.ए.एस. अधिकारी को प्राप्त होने वाली समस्त आधारभूत सुविधाओं से उसे वंचित कर दिया जाता है। उसका कक्ष एक कनिष्ठ अधिकारी को प्रदान कर दिया जाता है,जिस की वजह से वह टेलीफोन के लिए भी पराश्रित हो जाता है,तथा सही समय पर उसे माँ की बिगड़ती हालत व उनकी मृत्यु का समाचार नहीं मिल पाता है। आनन-फानन में उसे दंडित करने के उद्देश्य से उसका तबादला मद्रास कर दिया जाता है,और फेयरवेल तो दूर, ऑफिस का एक भी सदस्य उसके साथ बाहर तक नहीं आता है। यह प्रसंग सोचने पर मजबूर करता है कि क्या ईमानदारी इतना बड़ा गुनाह है। “प्रधान निदेशक कार्यालय ‘के’ ब्लॉक में उस दिन दो घटनाएँ घटी थीं। पहली यह कि सुबह सुधांशु को ट्रांसफर ऑर्डर पकड़ाया गया था और दूसरी तब घटी जब सुधांशु उस दफ्तर को अलविदा कह अकेला दफ्तर से बाहर निकला था,जो कि उस कार्यालय के इतिहास में पहली बार हुआ था”। कार्यालय में जब सुधांशु ऎसी दमघोटू स्थितियों से जूझ रहा होता है तभी उसे अपनी पत्नी प्रीति के विश्वासघात की जानकारी प्राप्त होती है।
उपन्यास का नायक सुधांशु ग्रामीण परिवेश का अत्यंत मेधावी छात्र है,जो आँखों में सपने लेकर दिल्ली जैसे महानगर में आता है। रास्ते में ही उसकी मुलाक़ात रवि राय से होती है,जो आइ॰ ए ॰ एस॰ की तैयारी कर रहा होता है,और आगे चलकर सफल भी होता है। सुधांशु पूरी मेहनत और लगन से पढ़ाई में जुटा रहता है,इसी दौरान उसकी मित्रता प्रीति मजूमदार से होती है, जो उसके कॉलेज में उससे एक वर्ष जूनियर थी। सुधांशु की प्रतिभा से प्रभावित प्रीति उससे प्रेम करने लगती है. वह एक ऎसे पिता की सन्तान है जो सुधांशु जैसी पृष्ठभूमि से आए थे. वह इस बात पर गर्व करती है और बार-बार सुधांशु को आश्वस्त करती है कि सेल्फमेड उसके पिता सुधांशु को पसंद करेंगे और सुधांशु के आई.ए.एस. अलाइड में चयनित हो जाने के बाद दोनों का विवाह हो जाता है. प्रारंभ से ही सुधांशु को यह आशंका थी कि शायद ही प्रीति उसके मां-पिता के साथ सामंजस्य स्थापित कर पाए. और उसकी आशंका उस दिन सही सिद्ध होती है जब आई.ए.एस. की तैयारी में प्रीति की सहायता के लिए वह मां को गांव से बुलाता है लेकिन प्रीति को उसकी मां का रहन-सहन असहनीय प्रतीत होने लगता है. उसे उनके कपड़ों से गोबर की दुर्गंध अनुभव होती है. यहां तक कि प्रीति के प्रति उसकी मां के स्वाभाविक प्रेम को प्रीति एक नाटक करार देती है और ऎसी स्थितियां पैदा करती है कि सुधांशु को एक दिन मां को वापस गांव भेजना ही पड़ता है. एक ओर मां के प्रति कर्तव्यबोध और दूसरी ओर आजीवन पत्नी का साथ निभाने के भाव के भंवर में वह घूमता यह सोचने के लिए विवश होता है कि प्रीति के साथ विवाह का उसका निर्णय सही नहीं था. “यदि वह क्लर्क होता तब क्या प्रीति उससे विवाह करती?” यह विचार शादी से पहले भी उसके मन में आया था और एक बार उसने मन की यह बात प्रीति से कह भी दी थी, जिसे उसने हवा में उड़ा दिया था. लेखक ने सम्बन्धों के धरातल पर अत्यंत स्वाभाविक और वास्तविक विवरण प्रस्तुत किए हैं।
विवाहोपरांत प्रीति भी आई.ए.एस. की तैयारी करती है और अलाइड सेवा के लिए चुनी जाती है. ट्रेनिंग पश्चात उसकी नियुक्ति भी प्रतिरक्षा वित्त विभाग अर्थात उसी विभाग में होती है जिसमें सुधांशु नियुक्त था. सुधांशु उन दिनों पटना कार्यालय में था जबकि प्रीति की नियुक्ति देहरादून कार्यालय में होती है. प्रीति के प्रयासों से उसका स्थानांतरण नई दिल्ली स्थित हेडक्वार्टर होता है और अनुरोध पर सुधांशु को भी ’के’ ब्लॉक स्थित प्रधान निदेशक कार्यालय में स्थानांतरित कर दिया जाता है, जहां पाल प्रधान निदेशक है. ऎसा नहीं कि पटना कार्यालय में सुधांशु ने रिश्वतखोरी न देखी थी, लेकिन तब उसका सीधा संबन्ध ऎसे अनुभाग से नहीं था. पाल उसे युवा और नवनियुक्त अधिकारी समझ उस अनुभाग का इंचार्ज केवल इस मंशा से नियुक्त करता है कि वह उसके निर्देशों की अवज्ञा नहीं करेगा. लेकिन सुधांशु की ईमानदारी उसके लिए अभिशाप सिद्ध होती है.
उपन्यास में अनेक पहलू हैं-एक तो कार्यालयों और मंत्रालयों में दिन दुगुनी रात चौगुनी बढ़नेवाली बेईमानी और भ्रष्टाचार का बोलबाला,ईमानदार ऑफिसर व कर्मचारियों के साथ बढ़ते अत्याचार,उच्च पदासीन लोगों में बढ़ता लालच और नैतिक पतन तो दूसरा पहलू है वर्तमान पीढ़ी का अपनी पूर्व पीढ़ी के प्रति निरंतर बढ़ती संवेदनहीनता। सुधांशु एक संवेदनशील व्यक्ति है. वह माता-पिता को सुख देना चाहता है लेकिन परिस्थितियों की कठपुतली बन जाने के कारण वह ऎसा नहीं कर पाता. वह स्वभाव से कलाकार भी है. उसकी कविताएं और आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे. पटना में उसके कई साहित्यिक मित्र थे और वह ’कल्पबृक्ष’ नामक साहित्यिक संस्था की गोष्ठियों में भी जाया करता था. वहीं साहित्यिक दुनिया की वास्तविकता का उसे पता चलता है, जहां राजनीति-षडयंत्र, पद और धन के बल पर साहित्य में छा जाने की कुप्रवृत्तियों की जानकारी उसे होती है.
कार्यालय का असह्य और दमघोटू वातावरण और प्रीति का मीणा के साथ शारीरिक संबन्ध उसे तोड़ देते हैं. सदैव सादा और व्यसनरहित जीवन जीनेवाला सुधांशु मदिरा में अपने को भुलाने का प्रयत्न करने लगता है. उसकी पीड़ा को लेखक के इस कथन से समझा जा सकता है, “सुधांशु का दिल तेजी से धडक रहा था और घृणा से भरा हुआ था। ‘विश्वासघात’शब्द उसके मस्तिष्क को मथे डाल रहा था”। मदिरा सुधांशु को शनैः शनैः मृत्यु की ओर घसीटने लगती है और एक दिन तीसरे हृदयाघात से उसकी मृत्यु हो जाती है. हाँ, यह अवश्य है कि यदि प्रीति सुधांशु का साथ देती तो वह ऑफिस की समस्याओं का सामना बेहतर रूप में कर पाता,उसका स्वास्थ्य भी बचा रहता और इतनी जल्दी वह मृत्यु को भी प्राप्त नहीं होता। सुधांशु और प्रीति के आपसी संबन्ध नहीं थे लेकिन उनका तलाक भी नहीं हुआ था. प्रीति, जो सुधांशु की मृत्यु के समय तक दिल्ली के एक कार्यालय में निदेशक पद पर आसीन थी, सुधांशु की मृत्यु के समाचार को भावहीन होकर सुनती है और अपने पी.ए. को डिक्टेशन देने लगती है. उच्चाधिकारियों की संवेदनशून्यता यह एक ऎसा उदाहरण है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता.
उपन्यास में मूल कथा के साथ अनेक उप-कथाएं अनुस्यूत हैं. ऎसी ही कथा है दिनेश और शुभांगी प्रसंग. शादी के समय शुभांगी पी-एच.डी की छात्रा थी. शादी पश्चात वह उसे पूरा करना चाहती थी. लेकिन इनकम टैक्स विभाग में उच्चाधिकारी दिनेश को सिर्फ और सिर्फ रुपया दिखाई देता है,चाहे वह जिस किसी तरह से कमाया गया हो। वह शुभांगी की प्रतिभा,योग्यता और उच्च विचारों का बारम्बार अपमान करता है. दुखी होकर शुभांगी एक दिन उसका घर छोड़ देती है. बनारस जाकर पी-एच.डी. पूरी करती है और एक महाविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त होती है। रिश्वतखोर और लंपट दिनेश सिन्हा बनारस के अपने समकक्ष इनकमटैक्स अधिकारी से शुभांगी के पिता के घर छापा डलवाता है लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगता. प्रीति और शुभांगी दो ध्रुवों में खड़ी दिखाई देती हैं. लेखक ने शुभांगी को एक सशक्त चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया है जो पति की धमकियों के समक्ष झुकती नहीं.
उपन्यास की रोचकता और पठनीयता ऐसी है कि एक बार शुरू करने पर पाठक इसे पूरा कर के ही दम लेता है। उपन्यास पूर्णतः यथार्थवादी है,जो आज की स्थितियों- परिस्थितियों को जीवंतता के साथ अभिव्यक्त करता है। उपन्यास में यह संदेश अप्रत्यक्ष रूप में है कि वक्त रहते यदि हमने समाज और देश की बिगड़ती स्थितियों पर विचार नहीं किया, तो इसके भयानक परिणाम होंगे, पढ़-लिख कर और उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर पहुँचकर जीवन का लक्ष्य यदि मौज-मस्ती और बेईमानी है तो यह ख़तरे की घण्टी है। भ्रष्टाचार का विरोध सिर्फ भाषण के लिए नहीं बल्कि जीवन में अमल करने हेतु होना चाहिए। जिन उच्च नैतिक मूल्यों को हम छात्र-जीवन में सीखते हैं उन्हे उच्च पदों पर पहुँचकर हमें भूलना नहीं चाहिए। आज की परिस्थितियों में उपन्यास बेहद प्रासंगिक है। मुख्य पात्रों के साथ-साथ गौण पात्रों की भूमिका भी उपन्यास की जीवंतता बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुई है।अपनी चिर-परिचित किस्सागोई शैली में,अत्यंत सरल-सहज भाषा में कथ्य को आगे बढ़ाने,और पाठकों के समक्ष कुछ प्रश्न उठाने में उपन्यासकार पूर्णतः सफल रहे हैं।
डॉ॰ बिभा कुमारी
हाउस नं ॰ 14,गली नं ॰ 1, भगवान पार्क, झरोदा, दिल्ली-84
ईमेल : r.bibha.kumari2904@gmail.com
1 टिप्पणियाँ
प्रसिद्ध उपन्यासकार रूप सिंह चंदेल जी के उपन्यास ` गलियारे ` पर विभा कुमारी की समीक्षा पढ़ कर बहुत अच्छा लगा है। आज कल
जवाब देंहटाएंयह उपन्यास काफ़ी चर्चा में है। मँगवा कर पढ़ना ही पडेगा। भरत जी , अन्य चर्चित पुस्तकों की सूची प्रकाशित करते रहिये।