यह असहनीय और असहनशील युग है - कृष्ण बिहारी

यह असहनीय और असहनशील युग है ... कृष्ण बिहारी



कृष्ण बिहारी
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बहुत साल हुए एक घटना सुनी थी. आज से चालीस साल पहले. किसी राजा की बेटी ने अपनी सखियों के साथ गंगा-स्नान की जिद की. राजा ने कहा कि जितना भी पानी लगे वह गंगा से यहाँ लाया जाए. राजकुमारी को गंगा में नहाने की कोई जरूरत नहीं है. वह महल के स्नानागार में ही अपनी सखियों के साथ उसी पानी में नहाये.  राजकुमारी ने अपने पिता के पास सन्देश पहुंचवा दिया कि उसे गंगा में ही नहाना है. राजा के सामने बाल हठ और तिरिया हठ दोनों एक साथ आ गए. हालांकि राजकुमारी छोटी बच्ची नहीं थी. व्यवस्था की गई कि महल से गंगा के घाट तक कनात लगेगी. ऊपर तम्बू होगा. गंगा में भी नाव तक कनात लगेगी. नाव में पानी भरा जाएगा, उतना कि जितने में राजकुमारी अपनी सहेलियों के साथ नहा ले. पर्दा हो. सब कुछ राजा की आज्ञानुसार हुआ. लेकिन, जब राजकुमारी अपनी सखियों के साथ नाव में बैठ गई तो उसने केवट को आदेश दिया कि वह नदी की धार में नाव ले चले. नाव के ऊपर लगा परदा हटाये. केवट पहले से आज्ञा से बंधा था लेकिन उसपर दूसरी आज्ञा लाद दी गई. इस दूसरी आज्ञा को नकारना उसके लिए संभव नहीं हो सका .वह नाव को धार में ले गया. परदे हटा दिए. राजकुमारी और उसकी सखियों ने गंगा में उन्मुक्त स्नान किया. विवस्त्र, निर्वस्त्र. कुछ विदेशी सैलानी अलग नाव से उनकी तस्वीरें अपने कैमरों में कैद कर रहे थे. जब राजकुमारी का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया गया तो उसने लापरवाही से कहा, " कोई फर्क नहीं पड़ता. ये अपने लोग नहीं हैं ..." राजा ने बेटी की बात नहीं मानी, बेटी ने बाप की आज्ञा को अनसुना किया. केवट को बंधुआ होना पड़ा. यह घटना मुझे अन्य कई अवसरों पर भी याद आई है. मुझे मुगलेआज़म फिल्म का गीत याद आता है, परदा नहीं जब कोई खुदा से ...
अब स्त्री के स्त्री पर अत्याचार की कहानी या पुरुष पर स्त्री के अत्याचार की कहानी नए सिरे से सामने आ रही है. मामला पूरे ब्लैक मेल का है. एक वक़्त था जब केवल स्त्री अत्याचार को सहती थी. वह वक़्त अन्याय और पुरुष वर्चस्व का था. वह बहुत बुरा युग था. उस युग से मुक्ति अनिवार्य थी. लेकिन, क्या वह मुक्ति इस बिना पर और इसलिए थी कि फिर औरत अन्याय करेगी और उसे मर्दों पर सही बदला माना जाएगा ? आज की हालत भी लगभग वही है जो दशकों पहले थी या सदियों से चली आई है. पहले पुरुष अन्याय के पक्षधर थे, आज औरतें वही कर रही हैं. तो, बदला क्या ? अन्याय तो वहीं का वहीं रह गया ... 
डर ख़त्म हो गया है. किसी को किसी से डर नहीं. शराब न देने पर जेसिका लाल को गोली मार दी. आइसक्रीम न मिलने पर लखनऊ में किसी ने किसी को गोली मार दी. पार्किंग न मिलने पर दिल्ली में गोली मार दी. टोल टैक्स मांगने पर गोली मार दी. रोड रेज़ पर गोली मार दी. प्रेमी ने प्रेमिका के चेहरे पर तेज़ाब फेंक दिया. पत्नी ने प्रेमी की सहायता से पति की हत्या कर दी. पति ने पत्नी और उसके प्रेमी का सिर धड से अलग किया. बेटे ने बाप की हत्या की. बाप ने बेटी के साथ मुंह काला किया. बेटी ने अपने माँ-बाप को मारा. पुलिस ने महिलाओं को निर्ममता से कूटा. लोगों ने सिपाही को सरेआम पीटा ... 

डर ख़त्म हो गया है क्योंकि कोई कारर्वाई नहीं होती. दोषी को दंड नहीं मिलता. लालू-चौटाला-जयललिता जैसे सजायाफ्ताओं को जमानत मिल जाती है ... फांसी की सजा पाए अपराधी की फांसी एन मौके पर टल जाती है और उसे टलवाने वाले का कुकर्म कुप्रसिद्धि बनकर दुनिया भर में फ़ैल जाती है ...

आये दिन अखबार और न्यूज चैनेल इन्हीं ख़बरों से भरे होते हैं. न भी भरे हों तो भी ये घटनाएं दिखाई देती हैं. बड़ा विचित्र समय सामने है ... मैं इसको असहज माहौल कहता हूँ ...

भ्रष्टाचार, रिश्वत, काला धन, बेईमानी, भाई-भतीजावाद, मिलावट, नशा, अपराध आदि के सभी मामलों में एक रिकॉर्ड बन रहा है और हर रिकॉर्ड टूटने के लिए बनता है यह तो सभी जानते हैं. अश्लीलता के मामले भी बाढ़ आई नदी के खतरे के निशान को पार कर गए हैं. अपने घर में अपना खरीदा हुआ टी वी जो कुछ दिखा रहा है और जिसे जीवन में बड़ी सहजता के साथ समाज उतार रहा है उस बेहद उबाऊ अश्लीलता को रोकने के बारे में यदि कोई सही बात कहे तो उससे पूछा जाता है कि आप समाज के ठीकेदार हैं ? अफ़सोस तो इस बात का है कि यह सवाल करने वाला एक विशिष्ट तबका है जिसमें आज की तथाकथित महिला मुक्ति मोर्चा की अनधिकृत सदस्याएं और इनके पैरोकार वे घटिया रखैल पुरुष हैं जिन्होंने अपनी तिकड़म से समाज में ऐसी हैसियत बना ली है कि वे अपनी उँगलियों पर इन्हें नचा सकें. रखैल पुरुषों की उँगलियों पर ता थैया करने वाली रखैल महिलाओं की कमी नहीं है. उसपर तुर्रा यह कि उन महिलाओं पर वे अपना अधिकार ऐसे जताते हैं कि तथाकथित महिला उनकी मित्र है. रखैलों का मित्र होना समझ में नहीं आता. 'मित्र' शब्द का इससे भयानक अपमान नहीं हो सकता. कोई हफ्ता खाली नहीं जाता जब इनके मित्र समुदाय की कोई महिला या पुरुष मुंबई - दिल्ली -बंगलुरु में किसी बहुमंजिला इमारत से छलांग नहीं लगाती/लगाता या किसी की हत्या न होती हो. मामला सतही दृष्टि से देखा जाए या उसकी छानबीन हो, उड़ते-उड़ते या तैरते-तैरते जो खबर सामने आती है उसमें स्त्री/पुरुष की आजाद तबीयत और उन्मुक्त यौनाचरण की बातें सामने होती हैं. अतृप्ति की मारी/मारे इन लोगों ने अपनी झूठी मुक्ति के लिए समाज को अपनी दुर्गन्ध और सडांध से कितना दूषित किया है इसे वे तब महसूसते/महसूसती हैं जब उनकी बेटियों के साथ कोई पतनशील कार्यक्रम सम्पन्न हो चुका होता है जबकि उसके कारक वे स्वयं होते हैं ... 

बहुत शोचनीय स्थिति है. पुरुष के अत्याचार की कहानी हमेशा नई - पुरानी होती रहती है. उसपर तो कलंक के जितने ठीकरे फोड़े जाएँ कम हैं .वह तो प्रमाणित अत्याचारी है. उसने अपना अत्याचार आज भी कम या बंद कहाँ किया है ? लेकिन बद अच्छा बदनाम बुरा वाली बात को अब एक नए चश्मे से भी देखा जाना चाहिए. अब स्त्री के स्त्री पर अत्याचार की कहानी या पुरुष पर स्त्री के अत्याचार की कहानी नए सिरे से सामने आ रही है. मामला पूरे ब्लैक मेल का है. एक वक़्त था जब केवल स्त्री अत्याचार को सहती थी. वह वक़्त अन्याय और पुरुष वर्चस्व का था. वह बहुत बुरा युग था. उस युग से मुक्ति अनिवार्य थी. लेकिन, क्या वह मुक्ति इस बिना पर और इसलिए थी कि फिर औरत अन्याय करेगी और उसे मर्दों पर सही बदला माना जाएगा ? आज की हालत भी लगभग वही है जो दशकों पहले थी या सदियों से चली आई है. पहले पुरुष अन्याय के पक्षधर थे, आज औरतें वही कर रही हैं. तो, बदला क्या ? अन्याय तो वहीं का वहीं रह गया ... 

समरसता कहाँ आई ? बदलाव कहाँ हुआ ? अन्याय को न्याय कहाँ मिला ? हर तरफ बदले का साम्राज्य लोकतंत्र बनाम तानाशाही में परिवर्तित हो चुका है ...

परिवार हो, समाज हो या इनके बीच कोई संस्थान या संस्था हो ; सहनशीलता का लोकतंत्र ख़त्म होता जा रहा है. न सुनने की आदत ख़त्म हो गई है. आलोचना सहने की शक्ति जवाब दे चुकी है. अपने पर हँसना दुर्लभ हो गया है. कमियां सिर्फ दूसरों में हैं. सम्मान देने की इच्छा मर चुकी है. सम्मान पाना और हथियाना प्रमुख लक्ष्य हो गया है. यह नकारात्मकता की ओर नाक की सीध में बढ़ते जाने का भेडचाली फैसला है. लम्हों की खता में सदियों के भविष्य के नष्ट होने की चिंता किसी को नहीं है. दुनिया तात्कालिक सुख को उपलब्धि मान बैठी है. दिक्कत वहीं पैदा होती है जब वह पल भर का तात्कालिक सुख गले में फांस बनकर अटक जाता है तब न तो वह निगलते बनता है और न उगलते. आगे कोई रास्ता भी नज़र नहीं आता. अब कोई कबीर भी नहीं है जो कहे - दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोये ... 

यह एकनिष्ठ युग है. आत्मकेंद्रित होते जाने का युग है. यहाँ तबतक किसी पर कोई असर नहीं होता जबतक वह स्वयं कुप्रभावित न हो. सबको लगने लगा है कि दूसरे पर घटी दुर्घटना का उससे क्या सम्बन्ध ! यह एक किस्म से इम्यून होते जाना है. लेकिन इस पूरी दुनिया का इम्यून होते जाना चिंताजनक है ...

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बहुत से लोगों की तरह मेरा मानना है कि बचपन को यदि सही युवा पीढी बनाया जाए तो दुनिया को सही नागरिक मिलेंगे जिन्हें अपने अधिकारों के साथ अपने कर्तव्य भी याद होंगे. लेकिन जो मेरा मानना है वह कोई आज की अवधारणा तो नहीं है. आज के बचपन की बड़ी विडम्बना है कि उसे वही अभिभावक और शिक्षा - प्रणाली बिगाड़ रहे हैं जिनपर उसके भविष्य को सवांरने की जिम्मेदारी है. बचपन को शिक्षक नहीं, उसके संरक्षक और शिक्षा - प्रणाली मिलकर बर्बाद कर रहे हैं. सरकारों की नई नीति है कि किसी बच्चे को फेल न किया जाए, किसी बच्चे को दण्डित न किया जाए. इस नई कुव्यवस्था ने शिक्षकों के काम को कठिन ही नहीं लगभग नाकाबिलेबर्दाश्त कर दिया है. अपने गुस्से को रोकने में शिक्षक बीमार हो रहे हैं. विद्यालयों में अनुशासनहीनता बढती जा रही है. पहले इक्का-दुक्का घटनाएं कभी-कभी घटित होती थीं जिन्हें सुनकर सिर शर्म से झुकता था लेकिन अब यह सब आयेदिन हो रहा है और कोई इसकी जिम्मेदारी नहीं ले रहा. हर बुरी स्थिति का जिम्मेदार शिक्षक और हर अच्छी बात से सीना फुलाता विद्यालय-प्रबंधन. स्थिति कुछ ऐसी होती जा रही है कि कोई भी अध्यापन के क्षेत्र में आना नहीं चाहता ...

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मोदी को रोकने की कोशिश में देश के सभी राजनीतिक दल अपने आगे बढ़ने का रास्ता भूल गए. अरविन्द केजरीवाल ने भी मोदी को रोकने की कोशिश की. एक अदना आदमी जिसने देश की राजनीतिक दशा को आमूल मोड़ दिया वह खुद सत्ता के नशे का शिकार हो गया. बीते डेढ़ साल में किसी भी राजनीतिक दल ने इस बात से कोई सबक नहीं लिया कि उसके आगे बढ़ने या देश को विकसित करने के उसके पास क्या उपाय हैं ? मोदी को हर दिन सुनने के बाद भी इन दलों के नेताओं ने कुछ सीखने के बजाय अपना समय मोदी की हंसी उड़ाने में खर्च किया. परिणाम अब उनके सामने है. देश केवल कांग्रेस से ही मुक्त नहीं हो रहा, देश अवसर की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों से भी मुक्त हो रहा है. अपने को धर्मनिरपेक्ष और बी जे पी को साम्प्रदायिक का अपना ही तमगा देने वाली शक्तियां एक साथ मिलकर भी कितनी कमजोर होती गयीं, क्या यह अब भी परदे में है ? जनता देख रही है कि कौन साम्प्रदायिक है ! 

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