चर्चित कहानी बनाम प्रिय कहानी - मामला आगे बढ़ेगा अभी : चित्रा मुद्गल

यह अक्सर देखा गया है कि हिंदी में कोई एक कहानी किसी लेखक के साथ कुछ इस तरह बावस्ता हो जाती है कि जहां कहीं भी उस लेखक की चर्चा होती है वही एक कहानी संदर्भ के रूप में सामने आती है। जैसे भीष्म साहनी के साथ ‘चीफ़ की दावत’, अमरकांत के साथ ‘डिप्टी कलेक्टरी’, मार्कंडेय के साथ ‘गुलरा के बाबा’ आदि। यह एक लंबी शृखंला है। इस प्रवृत्ति के कारण लेखक की शेष अनेक सक्षम रचनाएं अचर्चित रह जाती हैं। यह भी जरूरी नहीं होता कि अति चर्चित कहानी ही लेखक की प्रिय कहानी भी हो। इस विरोधाभास को दृष्टिगत रखते हुए हम एक नए स्तंभ की शुरुआत कर रहे हैं—चर्चित कहानी बनाम प्रिय कहानी। स्तंभ की शुरुआत कर रहे हैं— सुपरिचित कथा लेखिका चित्रा मुद्गल की कहानी—‘मामला आगे बढ़ेगा अभी’ के साथ। इस परिचर्चा में चित्रा मुद्गल के अतिरिक्त भाग ले रहे हैं विश्वनाथ त्रिपाठी व शंभु गुप्त।



Chitra Mudgal is one of the leading literary figures of modern Hindi literature.



आज आपके लिए शब्दांकन पर वर्तमान साहित्य, फरवरी, 2015 से कहानी प्रकाशित की जा रही है आगे चित्रा मुद्गल, विश्वनाथ त्रिपाठी व शंभु गुप्त के लेख -
* ‘मामला आगे बढ़ेगा अभी’ बहुत प्रिय है मुझे/ चित्रा मुद्गल,
* निम्नवर्गीय जीवन का यथार्थ/ विश्वनाथ त्रिपाठी और
* सत्ता और विमर्श के अंतर्संबंधों की रवायत/शंभु गुप्त, भी प्रकशित किये जायेंगे


भरत तिवारी

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मामला आगे बढ़ेगा अभी

चित्रा मुद्गल

गेट से लगी गुमटी के भीतर जंग खाई कुरसी से डंडा टिकाए, खाकी वर्दी में मीठी ऊंघ, ऊंघ रहे चौकीदार तावड़े गाली-गलौज भरे शोर ने सहसा हड़बड़ा दिया। कानों पर विश्वास करने के लिए उसने अपने शरीर को सप्रयास समेटा! फिर न खुलने के लिए जिद्दिया रही पलकों को पटपटाया और शोर को समझने की कोशिश की। वास्तव में शोर हो रहा है। कोई सपना नहीं देखा उसने। ऊंघ अभी भी उसकी रानों और जूतों में कैद पंजों में दुबकी हुई उसकी अलसाई देह से मुक्त होने को राजी नहीं थी।

शोर कुछ और स्पष्ट हुआ। गालियों के कुछ कतरे हवा का रुख गुमटी की ओर होने के साथ ही इधर उछल आए। साथ ताल देती-सी तीखी ‘ताड़... ताड़’। किसी पतरे को पीटने जैसा स्वर...

दिमाग सन्न-से चौंका। पतरे पर हो रही चोट ने एक पल को संभ्रम पैदा किया। खालिस र्इंट-गारों की इमारतों के बीच पतरा आया कहां से? कुरसी पीछे खींचकर वह फुर्ती से खड़ा हो गया। स्वत: से बुदबुदाया, ‘‘कहीं से पन आया हो! जो हो रहा पक्का अपनाच कॉलोनी में... बाप रे...!’’ उसने भुजाएं मरोड़कर सुस्ती की आखिरी किस्त झटकी और गुमटी से बाहर निकल आया। सहसा खयाल आया कि जरा वक्त पता कर ले। बार्इं कलाई पर बंधी धुंधले डायलवाली घड़ी उसने गौर से देखी। डेढ़ बजने को था। इतनी रात गए यह शोर...?

ठमककर उसने शोर की दिशा में टोह ली। शोर उसे तीन नंबरवाली इमारत के बेसमेंट से आता हुआ महसूस हुआ। गेट से तीन नंबरवाली इमारत का फासला बमुश्किल तीन-चार मिनट पैदल का होगा। वह हुड़ककर सरपट भागा। नीचे वाले घरों में शोर पहुंच चुका था। कुछ फ़्लैटों में जगाहट हो चुकी थी। कई सोई बालकनियों की रोशनियां उसके दौड़ते-न-दौड़ते जग उठीं। कुछ प्रश्न अकुलाकर उसकी ओर कूदे।

‘‘गुरखा... क्या हुआ?’’

‘‘कौन गाली बक रहा है?’’

‘‘कोई क्या तोड़ता? हम सोने को नई सकता?...’’

उसने रुककर किसी को कोई जवाब नहीं दिया। पर जैसे ही वह तीसरे नंबरवाली इमारत के बेसमेंट में दाखिल हुआ, सामने का दृश्य देख उसकी आंखें फट गर्इं।

सामने मोट्या था। मोट्या के हाथ में एक लंबी लपलपाती सरिया थी। उसी सरिये से वह सक्सेना सा’ब की झक्क सफेद ‘टोयटा’ पर निर्ममता से प्रहार किए जा रहा था। साथ जुगलबंदी करती भद्दी, अश्लील गालियों की बौछार। पहले से ही सहमे खड़े चार-पांच लोगों की उपस्थिति से लापरवाह मोट्या की नजरें जैसे ही उस पर पड़ीं, उसने पलटकर सरिया उसकी ओर तान ली, ‘‘आगे नहीं बढ़ना हो.. नई तो खोपड़ी तुकड़े-तुकड़े करके छोडूंगा! बोत अच्छा घर में नौकरी लगाया! अब्बी जाके बो बड़ा आदमी को बोल?... बोल उसको अबी निच्चू उतर के आने कू? कुतरे का औलाद नई मैं गर मादर... को खल्लास नई किया... धक्का देके निकाला न मेरे कू दरवाजे से? काय कू? पूरा पगार मांगा न इसी वास्ते? ...काट। बोलाना अबी अच्छा तरीके से खाड़ा काट। देखता मैं। बरोबर देखता। भोत धांधल सेन किया। अब्बी सिद्धा होएगा वो सेठिया!’’

मोट्या कुछ डग पीछे हटकर फिरकी-सा घूमा और अपनी पूरी ताकत निचोड़ सरिया कार की ‘विंडस्क्रीन’ पर दे मारी। ‘छन्नाक!’ का शोर उठा। किरचे बिखरीं नहीं, मसहरी की शक्ल में टंकी रह गर्इं। गाड़ियों के सहारे टिके हुए लोग मोट्या का यह विध्वंसक रूप देख भयभीत हो उन्हीं गाड़ियों की आड़ में दुबक गए। वह अपनी जगह पर से बिना हरकत किए चीखा, ‘‘मोट्या...!’’ उसके दांत तनाव से भिंच गए। भिंचे दांतों के सुराखों से गुजरती सिसियाती आवाज में उसने मोट्या को चेतावनी दी, ‘‘फेंक दे सरिया... बेअकल.... मैं बोलता फेंक दे, नई तो सक्सेना सा’ब तेरी बोटी-बोटी अपने जाड़िया कुत्तों को खिला देगा...।’’

‘‘चुप बे चम्मच!’’ मोट्या ने होंठों पर बजबजा आए थूक को ‘पिच्’ से बगलवाली फिएट पर थूका! फिर गरदन को झटका देकर आंखों तक छितरा आई लटों को पीछे फेंकने की कोशिश की, ‘‘धौंस नहीं खाने का मैं।... बोत चमकाया इस साली की बाडी को... अब्बी देख हाल! अक्खा कॉलोनी उठ गया, वो सोता क्या उप्पर? नर्इं... सोता नई, डर के ऊप्परच बेइठा! आने तो दे निच्चू। खोपड़ी नर्इं तोड़ा उसका तो? वो जाड़िया मेमसा’ब पन आएगी न, मैं उसको भी नहीं सोड़ेगा... नई सोड़ेगा!... सा’ब के सामने कइसी भीगी बिल्ली सरखा बइठी होती? बोलने को नई सकती? ताप (बुखार) में होता मैं?’’

मोट्या गाड़ी का पोर-पोर पीटे डाल रहा था। जैसे ही वह उसे धरद बोचने के लिए पैंतरा बदलता, पता नहीं कैसे उसको आभास हो जाता और वह पलटकर उसके सामने सरिया तान लेता। निरुपाय वह सिर से लेकर पांव तक सिवा कांपने के कुछ नहीं कर पा रहा था।

कितने नौकर काम करते हैं इस सोसाइटी में। रोज निकाले जाते, रोज रखे जाते। अक्सर यहां काम करने वाले लोगों से ही नए नौकर ढंूढ़कर ला देने के लिए कहा जाता। उससे भी कहा गया। न जाने कितने बाइयों और छोकरों को उसने किसी-न-किसी के घर काम पर रखवाया। ऐसा दु:साहसी विद्रोही स्वरूप किसी का नहीं देखा ज्यादतियों का रोना सभी रोते। मगर मुंह पर उंगली दिए एक सीढ़ी छोड़ दूसरी पकड़ लेते। समझते, जल में रहकर मगरमच्छ से वैर संभव नहीं। प्रेत-पिशाच लग गया इस हरामखोर को या मगज फिर गया? सा’ब लोगों का गुस्सा पता नहीं अभी इसको। गाड़ी की दुर्दशा देखकर सक्सेना सा’ब पगलाया सांड़ हो उठेगा... नक्कीच।

वह मोट्या की दुर्दशा की कल्पना कर सूखे पत्ते-सा कांप उठा। कैसे रोके नादान को? हाथ धरने दे तब न!

...मोट्या के बूढ़े नाना का मिचमिची आंखोंवाला झुर्रियों पटा तांबई करुण चेहरा तावड़े की आंखों के सामने कौंध गया...

पेरी क्रास रोड के फुटपाथ पर खिले गुलमोहर के छांवदार पेड़ के नीचे, एक जर्जर छतरी को भारी पत्थर के सहारे अटकाए, टाट के मटमैले टुकड़े पर चमड़े की कतरनों का ढेर पसारे, जंग लगे डब्बे में कील-कांटे सरियाए, बूढ़ा मोची वहां राहगीरों की चप्पलें-जूते गांठा करता। उस दिन उसकी बरस-भर पुरानी कोल्हापुरी चप्पल का अंगूठा बीच रास्ते में उखड़ गया और मोची की तलाश में इधर-उधर भटकती उसकी नजर अचानक मोट्या के नाना पर पड़ी। वह पांव घिसटता सड़क पार कर उसी के पास चप्पल बनवाने पहुंच गया। बूढ़े ने छूटते ही पूछा, ‘‘सिलाई मारूं कि किल्ला ठोकंू?’’

‘‘सिलाई मारना।’’ उसने मजबूती के खयाल से उसे हिदायत दी। बूढ़े ने डोरा खोजते हुए पूछा, ‘‘आप साब मिलिट्री में काम करते?’’

‘‘वाचमैन हूँ।’’ उसने गर्व से अपनी खाकी वर्दी को आत्ममुग्ध नजर से छुआ और बगैर बूढ़े की जिज्ञासा किए अपने बारे में उसे बताने को उत्सुक हो आया कि वह पच्चीस-पच्चीस माले की गगनचुंबी इमारतों वाली कॉलोनी में वाचमैन है। खूब मोटे सेठों की रिहाइश है। शत्रुघ्न सिन्हा और मौसमी चटर्जी भी वहीं रहती हैं। ‘‘मौसमी मेरे को भौत मान देती। उसके घर बहादुर को मैंने काम को रखा।’’ तावड़े की ऊंची पहुंच सुनकर बूढ़ा उसकी बातों से प्रभावित हुआ। इसका अंदाजा तावड़े को इस बात से हुआ कि बूढ़े ने अंगूठे की मजबूत सिलाई के उपरांत चप्पल की अन्य तनियों को पूरी ताकत से खींच-खींचकर उनकी मजबूती परखी और बगैर उसकी इजाजत लिए उन तनियों पर भी एकाध टांके लगा दिए जो अपेक्षाकृत कुछ कमजोर लगीं और किसी भी समय धोखा दे सकती थीं।

‘‘कितना कमा लेते दिनभर में?’’ उसने मात्र अंगूठा गंठवाया है पैसे भी वह अंगूठे के ही देगा। सोचते हुए परोक्ष में उसने स्वर में सामर्थ्य भर सहानुभूति उड़ेलकर बूढ़े से पूछा।

‘‘कमाई किदर साब?’’ स्वर में मिचमिची आंखें उसकी ओर कष्ट से उठाकर बूढ़े ने प्रतिप्रश्न किया, ‘‘बोत-मुश्किल से दोन-ढाई किल्ला-कांटा का खर्चा निकाल करके बचता। ऐरियाच ऐइसा। पैसे वाले साब लोग चप्पल-जूते मरम्मत नहीं करवाते... टूटे कि ताबड़तोड़ नया खरीदते। ताकत होती तभी मैं फेरी लगाता होता। जूना-पुराना चप्पल-जूता खरीदकर उसका मरम्मत-बिरम्मत करके स्टेशन रोड का फुटपाथ पर बेच लेता होता। ऐसा बनाता होता... ग्राहक को एकदम नया सरखा दिखता।’’

‘‘कमाई तभी होती... अब्बी तो खाने का पन नर्इं पुरता।’’ बूढ़े ने नि:श्वास अपने पैबंद उघाड़े और चप्पल उसके पांव की ओर बढ़ा दी। आगे बोला, ‘‘जास्ती चलने-फिरने को नई सकता न... इसी के वास्ते इदरीच बैठता...’’

तनिक सहानुभूति दिखाने पर बूढ़े ने यह भी बताया कि गुजारा होता नहीं, करना पड़ता है। घर पर एक नाती है। पंद्रह का हो रहा, काम-धाम कुछ करता नहीं। बेटी थी उसकी मां नई रही। तानी जन्मते ही दामाद ने उसे छोड़कर दूसरी शादी बना ली। जवान बेटी कब तक सिर पर बैठाए रखता। बिरादरी के एक दोहाजू लड़के के संग उसे बैठा दिया। दोहाजू नौवश (दूल्हा) बच्चा रखने को राजी नहीं हुआ, सो नाती को उसे अपने ही पास रखना पड़ा। नाम है मोट्या। बड़ी कोशिश से उसे ‘मुनसीपालिटी’ की शाला में छठी ‘किलास’ तक पढ़ाया। आगे वह पढ़ने को राजी नहीं। शाला से भाग आता। एकाध घर में भांड़ी-कटका के काम पर रखवाया मगर हर बार काम छोड़-छोड़ घर बैठ जाता। अड़ा हुआ है कि औरतवाले काम वह नहीं करेगा। बूढ़े ने बड़े जतन किए कि जूते गांठना उसे दुनिया का सबसे घटिया काम लगता है। बूढ़े ने बड़े जतन किए कि वह डब्बा-बाटली खरीदने और बेचने के धंधे में ही लग जाए, पर वह भी एकाध रोज भटक- भुटककर छोड़ बैठा। यह कहकर कि डब्बा- बाटली का धंधा बहुत मंदा चल रहा है और मुनाफा एकदम नहीं। ऊपर से लोग स्वयं ही महीनों का भंगार (कबाड़) इकट्ठा कर उसे गाड़ी से भरकर, सीधा दुकान पर ले जाकर बेच लेते हैं। ‘उधर मुनाफा जास्ती मिलता! दस पैसा भी काय कू छोड़ें? पेट्रोल मंगता तो फुंकने दो न!’’

‘‘समझ नहीं पड़ता कि छोकरे के नसीब में क्या है?’’ बूढ़े ने उसके हाथ से जो दे दिया सो लेते हुए भर्राए गले से अपने बेबसी जाहिर की और उसके पांव में चप्पल फंसाते न फंसाते एकाएक चिरौरी-भरे स्वर में हाथ जोड़ गलगलाया, ‘‘बोत मेहरबानी होगी साब... छोकरे को किदर भी काम को लगाओ!’’

बूढ़े की प्रार्थना के साथ ही अचानक उसे सक्सेना साब का आग्रह याद हो आया। जिसे वे गेट से निकलते हुए, उसका सैल्यूट स्वीकारते पिछले पांच-छ: दिनों से लगभग रोज ही दोहरा रहे थे कि उन्हें एक गाड़ी धोनेवाले लड़के की सख्त जरूरत है, जो टाइम का पाबंद हो। यानी उनके निकलने से पूर्व ही उन्हें उनकी दोनों गाड़ियां धुली-धुलाई लकदक मिलें। जिसमें से सफेद ‘टोयटा’ उनकी है और उसी का इस्तेमाल वे अपने लिए आने जाने के लिए करते हैं। ‘प्रीमियर पद्मिनी’ उन्होंने अपनी मेमसा’ब के उपयोग के लिए रख छोड़ी है। उसमें सफर करना उनकी शान के खिलाफ है। ‘टोयटा’ गैरेज में हो तो मजबूरी होती है।

गाड़ी धोनेवालों की वैसे कॉलोनी में कोई कमी नहीं। पर सुबह सभी को एक ही साथ, एक ही समय अपनी गाड़ियां धुली-धुलाई चाहिए। यह काम अधिकतर वहीं काम करने वाला रामा करता। एक साथ कई-कई घरों की गाड़ियां धोने का काम पकड़ लेने के चलते अक्सर गाड़ियां समय से नहीं धुल-पुंछ पातीं। पिछले दिनों रामा को सक्सेना सा’ब ने असंतुष्ट हो काम पर से निकाला इसी वजह से। उनके निकलने का समय हो जाता और रामा बाल्टी और पोंछा लिए गाड़ी पर फटका फेर रहा होता। बगैर धुली गाड़ी में जिस दिन भी वे फैक्टरी पहुंचे, कोई-न-कोई लफड़ा वहां मौजूद पाया।

उसने सोचा, परिवार के चप्पल, जूते आए दिन घिसते-फटते रहते हैं। बूढ़ा लिहाजदार है। उसने बूढ़े से कह दिया कि कल ठीक नौ बजे सुबह वह उसे मोट्या के साथ इसी जगह उसकी प्रतीक्षा करता हुआ मिले।

बूढ़े मोची ने कुल जमा चार दांतों में गद्गद् होते हुए उसे बहुत सारे आशीष वचनों से लाद दिया...

चोर बाजार से उन्हीं के स्तर की टी-शर्ट खरीदकर पहने, दीनहीनता से कोसों दूर मोट्या से मिलकर सक्सेना सा’ब काफी प्रसन्न हुए।

तावड़े और मोट्या दोनों को ही उन्होंने आश्वस्त किया कि सामान्यत: कार धोने के लिए जितनी पगार इस कॉलोनी में औरों को मिलती है उससे वे पचास रुपए ऊपर देंगे इस शर्त पर कि मोट्या औरों का काम चोरी-छिपे नहीं पकड़ेगा। नहीं पकड़ेगा तो उसकी गुजर कैसे होगी? तो गाड़ियां धोकर किसी का पेट भरा है? दूसरों का काम करने देने में उन्हें आपत्ति है तो शेष समय वे उसे किसी और काम में लगा दें!

ठीक है। कुछ रोज वह ऊपरी घर के कामों में मदद कर दे। उसके सौ रुपए वे अलग से दे देंगे। साथ ही उन्होंने यह प्रलोभन भी पेशगी टिका दिया कि मोट्या अगर उनके यहां ईमानदारी से डटकर काम करता रहा और टिका रहा, वे उसे साल-डेढ़ साल बाद निश्चय ही अपनी फैक्टरी में लगवा देंगे। तब उसे ढाई सौ रुपए महीने पगार मिला करेगी। मगर ध्यान रहे। अपशुकन के अलावा प्रतिष्ठा का प्रश्न है। अन्यों की दुहाजू गाड़ियां उनकी ‘टोयटा’ के मुकाबले जगमगाती-इतराती गेट से तैरती न निकलने पाएं। क्रीम- पालिश की कमी नहीं। जी भरकर इस्तेमाल करे।

मोट्या भी मर्दों वाले काम पाकर खुश हुआ।

बूढ़ा उसके एहसान की दुहाई देता न थकता। जब कभी तावड़े की घिसी चप्पल खस्ताहाल जूतों का तलुवा उखड़ता, लाख ऊपरी आग्रह के बावजूद बूढ़ा उससे बनवाई न लेने की हठ न छोड़ता।

‘‘तुम मेरा छोकरा सरखा... बोत-बोत उपकार किया अपने ऊपर... मोट्या काम से बौत खुश है’’ वह स्पष्ट लक्ष्य करता कि कृतज्ञ बूढ़े की चीकट-धोती का एक छोर अनायास उसकी मिचमिची आंखें सोखने लगता। अभिभूत तावड़े का चेहरा कड़क चाय-सा रंग पकड़ लेता।

उस रोज... उसकी दिन वाली ड्यूटी थी। कोई बारह-साढ़े-बारह का समय रहा होगा। सहसा उसकी नजर तेजी से गेट से बाहर होते मोट्या पर पड़ी। उसने गुमटी के भीतर से ही उसे गुहार लगाई, ‘‘कहां लपका जा रहा है, हां। दिखता नहीं आजकल?’’

मोट्या ठिठककर पलटा और आंखें चुराता हुआ उसके करीब आकर खड़ा हो गया, ‘‘इदरीच... थोड़ा काम है।’’

‘‘बूढ़ा बाबा कइसा है? आजकल मैं न्यू-टाकीज के पीछे से निकलकर ड्यूटी को आता...।’’

‘‘मस्त।’’

‘‘और तू?’’

‘‘मैं पन मस्त!’’ मोट्या संक्षिप्त उत्तर दे चलने को तत्पर हुआ। उसने स्पष्ट लक्ष्य किया कि वह कहीं जाने की हड़बड़ी में उससे ‘गप्प’ के मूड में नहीं है। वह उससे बतियाने को उत्सुक था। उसके सा’ब और उनकी मेमसा’ब के दरम्यान चल रहे मनमुटावों के विषय में भेद लेने की खातिर। इधर कॉलोनी में उड़ा हुआ था कि सक्सेना सा’ब किसी शायरा के चक्कर में हैं और दूसरी शादी करने के लिए मेमसा’ब से अलग होना चाहते हैं। मगर मेमसा’ब उन्हें तलाक देने को राजी नहीं।

‘‘चलता मैं... जरा घई (जल्दी) में है।’’ मोट्या ने बेसब्री दर्शाई।

‘‘ठैर ना, काय की घई?’’ उसने मोट्या के कंधे से लटका एयरबैग खींचकर उसे रोका, ‘‘इतना बड़ा बैग ले के...?’’

‘‘मेमसा’ब ने ‘माडर्न वाइन शाप’ से ताबड़तोड़ एक क्रेट चिल्ड बियर लाने को बोला, बोईच इसमें भरके लाएगा। आज किट्टी पार्टी है। बोत मेमसा’ब लोग घर में आया। मेरे को देरी होयेंगा न तो बोत वादा होयेगा।’’ वह लगभग अपने को छुड़ाता हुआ तीर-सा गेट से बाहर हो गया।

वह अनायास अपने चेहरे पर फैलती अर्थपूर्ण मुस्कराहट को बड़ी देर तक खुदी हुई महसूस करता रहा।

दो-ढाई घंटे के उपरांत... पार्टी के तामझाम से निवृत्त होकर मोट्या उससे मिलने आया तो उसकी आंतरिक प्रसन्नता पके गुलरों सी दरकी अनुभव हुई। खोदने पर उसने बताया कि दोपहर में वह पूरे समय मेमसा’ब की सेवा में होता है। सिगरेट खत्म हो गई तो ला देना। बियर के क्रेट लाना और फटाफट बोतलों को ठिकाने लगाना। ‘नीलम’ से सींक कबाब या ‘फिश रोल्स’ ले आना। लिकिंग रोड जाकर ब्यूटी आर्ट में मेमसा’ब के कपड़े धोने के लिए डाल आना आदि। मेमसा’ब दोपहर का खाना ही उसे नहीं खिलातीं, खासी टिप भी थमाती रहती हैं। पूरे पैसे वह ईमानदारी से बाबा के हाथ में रख देता है। उसे जरूरत ही नहीं होती। मेमसा’ब ने एक हिदायत जरूर दे रखी है कि यह सब उनका व्यक्तिगत मामला है। किसी को उनकी दिनचर्या की कानोंकान खबर नहीं लगनी चाहिए।

‘‘फिर अपने को क्या? अपने को फकत अपने काम से मतलब!’’ मोट्या ने सयानेपन में डूबकर टिप्पणी की। हालांकि उसे वह घर का सारा कच्चा-चिट्ठा ब्यौरेवार बता गया। मगर वह शायद इसलिए नि:संकोच हुआ कि उसकी नौकरी लगी ही उसके प्रयत्नों से थी। और वह किन्हीं भी परिस्थितियों में उसका अहित नहीं चाहेगा। मेमसा’ब की घरेलू अशांति से मोट्या विचलित नजर आया। मोट्या की बातों से यह भी जाहिर हुआ कि उसके मन में मेमसा’ब के प्रति सम्मान ही नहीं, ममत्व भाव भी पैदा हो गया है और विरोध में उतनी ही तीव्र सा’ब के प्रति प्रतिशोधी कड़वाहट।

उसने पहुंचे हुए अनुभवी की तरह गुरु-मंत्र पिलाया, ‘‘ठीक कहता है तू, तेरे को क्या? हां... फकत काम से मतलब, पगार से मतलब। किसी के लफड़े में नर्इं पड़ने का। हां! अगर ये बिल्डिंग में रहने वाले मियां-बीवी अलगीच होते। इनका कोई पन काम एक-दूसरे की मालुमात से नर्इं होता। फकत इतनाच कि ये बीबी हैं अऊर एकच घर में रहते।’’ उसने मोट्या के निश्छल किशोर मन के अभावों और उसकी ममत्व की प्यास को, मेमसा’ब की ओर उन्मुख न होने देने के उद्देश्य से चेतावनी दी, ‘‘नौकर घर-घर नाता जोड़े तो पिच्छु वो नौकरी छूटने पर जिंदा नर्इं बचने का?’’ मोट्या उसकी सीख को बेअसर भाव से मुंह बाये खामोशी से सुनता रहा।

आठ-दस दिन मुश्किल से हुए होंगे कि गेट पर उसके सैल्यूट की उपेक्षा करते हुए सक्सेना सा’ब ने सख्त आवाज में उससे पूछा, ‘‘मोट्या कहां है?’’

वह कार की खिड़की से तनिक बाहर को झांकती उनकी अकड़ी गरदन के करीब आकर खड़ा हो गया विनीत सा। ‘‘काम पर नहीं आया क्या, सा’ब?’’

‘‘दो रोज से बास्टर्ड ने शक्ल नहीं दिखाई... लगता है हरामजादे को मेमसा’ब से जरा ज्यादा ही टिप मिलने लगी है... तभी याद नहीं रख पा रहा है कि मैं बगैर धुली गाड़ी के बाहर नहीं निकलता?’’

वह उनके खौलते क्रोध से सकपका-सा उठा। समझ में नहीं आया कि क्या कहे।

‘‘छोकरा सिद्धा है सा’ब... जरूर बीमार-वीमार पड़ा होएंगा। पता करता मैं...’’

‘‘पता करो!’’ उनका स्वर चट्टान पर हथौड़े-सा टनका। गाड़ी उसकी औकात रौंदती सर्र से गेट से बाहर हो गई।

वह मन-ही-मन ताव खाकर रह गया। अजीब हैं ये सा’ब लोग! एक तो इन्हें नौकर खोजकर दो ऊपर से उसका अता-पता भी रखो। कुछ हो गया तो सारा दोष उसी पर।

मोट्या के काम पर न आने की वजह उसे सरासर बूढ़े बाबा की अस्वस्थता लगी। वह आशंकित हो उठा। जरूर बाबा मरने-मरने को होगा। बूढ़ी हड्डियां आखिर कब तक घिसटतीं? नहीं तो मोट्या खाड़ा करने वालों में से नहीं। कम-से-कम वह मेमसा’ब को तो आकर बोल के जाता। कोई खबर नहीं, इसका मतलब है कि... और अगर सचमुच बूढ़े को कहीं कुछ हो गया तो मोट्या इस संसार में एकदम अनाथ हो जाएगा।..

मोट्या के अचानक अनाथ हो जाने की भयावह कल्पना से वह अन्यमनस्क हो उठा। मुश्किल से उसका घर खोज पाया।

जिस बात की आशंका थी उसके विपरीत, मोट्या को खटिया से लगा बुखार में तपता पाया। बाबा धंधा छोड़कर उसके सिराहने बैठा मिला। उसके माथे पर ठंडी पट्टियां चढ़ाता।

उसे देखकर निर्जीव से हो रहे मोट्या और चिंतित बाबा के चेहरे पर दिप्प् से रौनक फूटी।

‘‘मेमसा’ब बोत हैरान होगी न!.. बाबा से मैं बोला कि तुमको खबर देने से मेमसा’ब को पता पड़ जाएगा कि मैं ताप में हंू। पड़ेगा तो वो नक्कीच मेरे कू देखने कू आएगी... लई प्रेमालू हय वो.. पन बाबा... मेरे को छोड़ के हटताच नर्इं...’’

वह सकते में आ गया। मेमसा’ब के प्रति मोट्या की माय और विश्वास देख। बड़ी देर तक उसके निकट बैठा वह उसकी बीमारी और दवादारू के बारे में बाबा से बतियाता रहा। उसे ढांढ़स बंधाया। ‘फ़्लू कमजोर कर देता है। जबरदस्ती कुछ करने की कोशिश न करे। जल्दी ठीक हो काम पर पहुंचे। हिम्मत ही नहीं पड़ी कि सक्सेना सा’ब के चढ़े तेवरों के विषय में बता दे और यह भी कि जिस मेमसा’ब की याद में वह अधमरा हुआ जा रहा, वे एक बार नहीं बल्कि कई-कई बार उसके सामने से ‘सर्र’ से गुजर गर्इं। किसी ने पूछा तो वे हैं सक्सेना सा’ब। वह भी अपनी गरज के चलते! क्योंकि वे बगैर धुली गाड़ी के साथ घर से बाहर पांव नहीं देते।

... गाड़ी के न धुल पाने की नाराजगी के साथ-साथ उसे सक्सेना सा’ब के मोट्या पर अधिक भड़के होने की एक वजह और लगी जो उनके कटाक्षपूर्ण लहजे से साफ जाहिर हुई कि मोट्या के द्वारा मेमसा’ब की विशेष खिदमत उन्हें सख्त नागवार गुजर रही है...।

मोट्या की उम्र में कई छोकरे अनुभवों के आंवे में पक-तप के लाग-लपेट में न आते। मगर दस घरों का काम छोड़-पकड़ करते ही यह दुनियादारी उनमें रच, बस पाती। मोट्या का बमुश्किल यह दूसरा घर है। वह नहीं जानता कि इमारतों में रहनेवालों का घर कभी उसका अपना घर नहीं हो सकता। मोट्या की मेमसा’ब के प्रति प्रगाढ़ता पहले भी उसे अखरी थी और उसने उसे सतर्क किया था किंतु मोट्या के कोमल मन के मुगालते को दोबारा तोड़ना जरूरी लगा। सुबह सक्सेना सा’ब से हुई भेंट का विवरण उसने अनिष्ठा के बावजूद मोट्या का ज्यों-का-त्यों कह सुनाया।

सुनकर मोट्या का चेहरा बुझ गया, ‘‘सा’ब तो एइसा हैइच पन... मेमसा’ब!’’

ललाई आंखें फेर टकटकी लगाए वह बड़ी देर तक छत के पतरे को ताकता रहा। मेमसा’ब उसे अपनी छोटी-सी जिंदगी में देखी गई उन तमाम औरतों से भिन्न लगीं, जो मोहल्ले के रिश्ते से उसे अपनत्व दे दुलारती रहीं... आंखों से छत का पतरा एकदम ओझल हो गया। इतनी लबलबा आर्इं, जैसे फूल खुंपटने को अपनी ओर लचाई हुई टहनी अचानक डाल समेत चरमरा कर पेड़ से अलग-हो गई।...

मेमसा’ब की बातें मथ रहीं। ‘‘मुझे तो बस कहने-भर को घर मिला है। यह सारी मौज-मस्ती तो वक्त कटी हैं... सा’ब कहने को पति हैं और मैं कहलाने की बीवी ... वे अक्सर जो देरी से घर आते हैं न; उसी छिनाल के फ़्लैट में रहते हैं। नया फ़्लैट, नई गाड़ी खरीद के दी है उसे। वही हरे रंगवाली गाड़ी!’’

‘‘शपथ किसी रोज ड्राइवर का आंख बचाकर मैं इंजिन में किलो-भर शक्कर डाल के छोड़ेगा... गाड़ी की छुट्टी।’’

उसकी बातें सुनकर मेमसा’ब खिलखिलाकर हंस पड़ी थीं, ‘‘तू इतना खयाल रखता है मेरा... तुझे तो मैं गोद ले लंूगी।’’...

वह उनके अपनेपन से खिल आया था। अक्सर छूट लेने लगा था उन्हें ‘मम्मी जी’ कहकर पुकारने की! आपत्ति नहीं की उन्होंने। कोई औलाद भी तो नहीं थी उनके!

... चलते समय उदास मन से मोट्या बोला कि वह सा’ब और मेमसा’ब को उसके बिस्तर से लगे होने की खबर कर दे और खबर न कर पाने की मजबूरी भी स्पष्ट कर दे। ठीक होते ही वह काम पर पहुंच जाएगा।

उसने सा’ब और मेमसा’ब दोनों को ही अलग-अलग खबर कर दी। सा’ब ने अविश्वास से ‘हुंह’ भर किया। मेमसा’ब उसके बुखार की बात सुनकर सचमुच चिंतित हो उठीं। ‘‘उससे कहना कि जब तक वह एकदम ठीक न हो जाए, काम पर न आए।’’ फिर आहिस्ता से आत्मीय स्वर में बोलीं, ‘‘दवादारू की खातिर रुपयों-पैसों की जरूरत हो मोट्या को तो ले जाना मुझसे।’’

दे देने और मांग लेने के लिए कहने में बड़ा फर्क है नीयत का! उसे मेमसा’ब की कुछ क्षण पहले की सहानुभूति घड़ियाली आंसू प्रतीत हुई। पर... मोट्या है कि मेमसा’ब पर अंकुआई अपनी आस्था को लेश मात्र इधर-से-उधर नहीं खिसकाना चाहता...

सातवें रोज मोट्या पूर्ववत् अपने काम पर पहुंचा तो वापसी में उससे मिलता हुआ गया। उसने मिलते हुए जाने के लिए कहा ही था; क्योंकि पिछले दिनों उसने दूसरे वाचमैन से सुना कि सक्सेना साह’ब को गाड़ी धोने के लिए नया छोकरा चाहिए उसे चिंता हुई। कहीं ऐसा न हो कि मोट्या काम पर लौटे और सक्सेना सा’ब उसे काम से बरखास्त कर दें। किंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। बस, सक्सेना सा’ब ने उसे चेतावनी भर दी कि आइंदा अगर वह बीमार पड़े तो पहले से ही काम पर न आ पाने की खबर करवा दे ताकि वे अनावश्यक प्रतीक्षा न करें।

मोट्या की दिनचर्या ने हमेशा की तरह अपना ढर्रा पकड़ लिया। लेकिन पहली की रात को महीने का हिसाब लेकर वह घोर असंतुष्ट हो उसकी खोली पर पहुंचा। ठगे जाने की निस्सहायता अवमानना के आघात से छलनी हो अनायास उसकी अब तक कमजोर पीली आंखों में पिघलने लगी, ‘‘मेरा सात दिवस का खाड़ा (नागा) काट लिया... फरेब करके थोड़ी मैं घर पर मस्ती मारता होता!... खाड़ा के वास्ते मैं सा’ब से लड़ाई किया तो वो मेरे को झापड़ चढ़ा के दफा हो जाने कू बोला... धक्का मारके घर से बाहर कर दिया... मेरे को!.. सब समझता मैं... काय का वास्ते काम पर से हकाला सा’ब ने...’’

‘उस का मरजी होता.. मैं उसका रखैल का घर में चौबीस घंटे के वास्ते काम कू जाऊं... मैंने साफ ना पाड़ी होती... बोला होता, फकत गाड़ी धोएगा... उप्पर का काम करेगा... खाना-बीना नर्इं पकाएगा...’

जबी झापड़ मारा... मेमसा’ब पासमेच खड़ी होती... धक्का देके बाहर किया जबी पासमेच खड़ी होती... सा’ब का हाथ नई पकड़ने को सकती थीं? नई बोलने को सकती थी कि मैं ताप में होता? कितना काम मैं फोकटमेच करता होता?...

‘‘छोड़ न... जो हुआ सो हुआ... ये सा’ब लोगों से झगड़ा-बिगड़ा करके फायदा नर्इं...’’

‘‘मैं देखेगा... दूसरा छोकरा कइसा गाड़ी धोएगा, छूने को नर्इं सकता कोई गाड़ी को’’ एकाएक निरीहता झटक उसने चुनौती से भरकर कहा।

बड़े अपनेपन से तसल्ली देते हुए उसने समझाया, ‘‘एक काम छोड़ो हजार मिलता, काय को मगज खराब करता अपना?... मैं एकाध दिन में तेरे को नए काम पर लगाएंगा... ईमानदार नौकर का बोत डिमांड हय... छोड़... ये सा’ब लोग से उलझ के फायदा नर्इं... फिर मेमसा’ब का क्या? हय तो वो उनका बीवीच... कइसा बोलेगी सा’ब के खिलाफ? हांअ!... उनकाच पैसा पर मस्ती मारती न!... इतनाच तकलीफ है तो सा’ब को छोड़कर काय को नर्इं चली जाती?’’ वह सब समझ रहा था। सा’ब के क्रूर व्यवहार से मोट्या को जितना क्षोभ हुआ है, उससे कहीं ज्यादा ठेस लगी है मेमसा’ब की अप्रत्याशित लगातार चुप्पी से। चुप्पी का अर्थ है, वे भी गलत का साथ दे रही हैं!

मेमसा’ब के संदिग्ध व्यवहार की उसके द्वारा की गई आलोचना पर मोट्या पहली बार खामोशी साधे रहा। कुछ देर बाद उठा, कमीज की बांह से आंखें पोंछी, ‘‘चलता मैं।’’

उसने तो नहीं पर उसकी बीवी ने जरूर मोट्या से कुछ देर और बैठने का आग्रह किया और लगभग जिद-सी की कि काफी रात हो रही है। वह खाना खाकर जाए। पर मोट्या था कि बिल्कुल नहीं रुका। खोई-खोई-सी मनोदशा में लिपटा खोली से बाहर हो गया।— ‘बाबा राह देखता होएगा!’

...पिछली बातों और घटनाओं का क्रम अचानक हो रहे इस विस्फोट से जुड़ गया। वह चौंका।

उसके आसपास उबलती, खौलती, तमतमाती धमकियों की भीड़ इकट्ठी हो गई। वे धमकियां उसे ललकार रही थीं। धमका रही थीं। धिक्कार रही थीं। चुनौती दे रही थीं कि चौकीदार रखने का मकसद? एक मामलूी-सी छोकरा ढाई-तीन लाख की गाड़ी का भुर्ता बनाए दे रहा और वह है कि रात पाली के बावजूद आराम से गुमटी में खर्राटें भर रहा? अरे, इन लुटेरों की मिलीभगत है। इतनी बेरहमी से गाड़ी पीट डिब्बा बनाकर रख दिया छोकरे ने, अक्खा कॉलोनी को सुनाई दिया, ये हरामखोर कान में तेल डाल के सोता? डिसमिस करने कू मांगता सोसाइटी को... इतना पगार हम लोग गुरखा लोगों को काय के वास्ते देते? लुटने के वास्ते?

उसे आश्चर्य हुआ। मोट्या के हाथों में लपलपाते सरिये ने उपस्थित भीड़ को निष्क्रिय कर रखा था, पर उनकी जबानें बरछी- भाले सी प्रहार-पर-प्रहार किए जा रही थीं। किसी का साहस नहीं हो रहा कि चार फीट के बित्ते से छोकरे के हाथ से लपककर सरिया छीन ले। नुक्सान ऐन उनकी नाक के तले हो रहा परंतु जान-जोखिम में डालने का काम उन शूरवीरों का नहीं। ठीक ही तो कह रहे— चौकीदार काय के वास्ते रखा?

‘‘साले सब हिजड़े...।’’ मन ही मन उसने करारी गाली उछाली उन सबकी ओर और मोट्या को थोड़ा असावधान पाकर चील-सा झपटा उसकी ओर। मगर उसकी फुर्ती अपनी ओर पलटकर तन गए आक्रामक सरिये की वजह से किटकिटाती ठिठक गई। उसका खिसियाया चेहरा मोट्या पर बेअसरदार चेतावनियां उगलने लगा। उसके भीतर तमाम दस्तकें हो रहीं। ...किसको पकड़ना है उसे। मोट्या को? या मोट्या के बहाने अपने को? मोट्या कुशल लठैतों की भांति थिरक रहा... सरिया भांजता!

अचानक उसने सुना कि सक्सेना सा’ब घर पर नहीं। मेमसा’ब अकेली हैं ऊपर। मेमसा’ब इस उपद्रव की खबर पाकर हतप्रभ हो रहीं। किसी अन्य ने सक्सेना सा’ब को फोन कर इस वारदात की इत्तिला दी। सक्सेना सा’ब ने इधर के लिए निकलने से पहले पुलिस को फोन पर सूचना दे दी। मेमसा’ब को आश्वस्त करने के लिए कहा है कि उनसे कह दो कि वे घबराएं नहीं, वे अविलंब घर पहुंच रहे हैं।

मेमसा’ब, पुलिस और सक्सेना सा’ब के पार्किंग में पहुंचने से मिनट-भर पहले ही नीचे उतरीं। स्लीपिंग गाउन में। बदहवास-सी। सुर्ख आंखें फट गर्इं। ऊपर बैठे हुए संभवत: मोट्या की विध्वंसक कारगुजारी का उन्हें अनुमान नहीं हो पाया होगा कि इस हद तक वह गाड़ी को नुक्सान पहुंचा सकता है।

उन्होंने पूरी कोशिश के साथ पलकें झपका-खोलकर सामने पसरे अकल्पनीय दृश्य की वास्तविकता पर तोलने-परखने का प्रयत्न किया।

पल-भर में ही वे जैसे सारी स्थिति के प्रति सजग हुर्इं। और सबकी चेतावनी के बावजूद, सरिया ताने खड़े हुए मोट्या की ओर निडर- भाव से आगे बढ़ीं। लोगों के साथ-साथ वह भी आशंकित हो कांप उठा। मोट्या का रौद्र रूप आज मेमसा’ब का माथा फोड़े बिना शांत नहीं होने का। उसने स्पष्ट लक्ष्य किया मेमसा’ब की उपस्थिति से बेअसर मोट्या ने सरियावाला हाथ लगभग पूरी ताकत से आक्रामक मुद्रा में तान लिया। उसका चेहरा पसीने से लथपथ थर्राने लगा। बल्कि पूरी देह पत्ते की तरह कांपने लगी। अनहोनी में कसर नहीं!

दम साधे सारे लोग यह देखकर अचंभित हो उठे कि मेमसा’ब ने उसके निकट पहुंचकर आहिस्ता से उसके तने हुए हाथ से सरिया ले लिया। जैसे कोई सावधानीपूर्वक बच्चे के हाथ से तेजधार चाकू ले लेता है। मोट्या ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। झूली हुई बांहें और झुकी हुई गर्दन से पांवों के नीचे बिछी किरचों को घूरने लगा था अपने ही पांवों को, अनुमान नहीं हुआ।

‘‘इतनी हिम्मत कहां से आई रे तुझमें?’’ मेमसा’ब भर्राए कंठ से बुदबुदार्इं। मोट्या आंच पीती बर्फ-सा पिघलता हुआ अचानक घुटनों में मुंह देकर हिचकियां भरने लगा, ‘‘तुमने खाड़ा कटवा दिया न मेमसा’ब... अपने सामने चांटा मारने कू दिया न!... मैं... मैं..’’

उसे हथियार सौंपते देख भीड़ हिंसक हो उस पर टूट पड़ी।


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