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स्याह-सफ़ेद दुनिया का सच -भावना मासीवाल | Review of Nirmal Bhuradiya's Novel 'Ghulam Mandi' by Bhawna Masiwal


स्याह-सफ़ेद दुनिया का सच

-भावना मासीवाल

समाज में मनुष्यता आज हाशिए पर है और हाशियाकरण की यह प्रक्रिया लंबे समय से मानवाधिकारों के हनन के रूप में सामने आती है। हम बात कर रहे हैं किन्नर समुदाय और यौनकर्मियों की। समाज द्वारा जिन्हें सबसे निचले पायदान पर न केवल रखा गया बल्कि राज्य की नीतियों का भी इन पर गहरा प्रभाव रहा। राज्य की नीतियों में भी उत्पादन और उपयोगिता की उपभोक्तावादी नीतियाँ प्रमुख है। बाजार के नियामक जिसने एक ऐसी सत्ता का न केवल निर्माण किया बल्कि उसी सत्ता की क्षय में वस्तु से लेकर मनुष्य तक को बाजार में क्रय-विक्रय का सामान बना दिया। युवा लेखिका निर्मला भुराड़िया का उपन्यास ‘गुलाम मंडी’ राज्य की ऐसी नीतियों व समाज की तथागत स्थितियों से अवगत कराता है। ‘गुलाम मंडी’ उपन्यास अपने नाम के अनुरूप मनुष्यता की ‘गुलाम मंडी’, लैटिन अमेरिका की दास प्रथा की याद दिलाता है। अंतर इतना है तब यह खरीद-फरोख्त प्रत्यक्ष रूप से थी और आज अप्रत्यक्ष रूप से है। गुलामी का आशय यहाँ थोड़ा बदला, आज पूंजी इसके केंद्र में है। इसने वैश्यावृति (आज जिसे यौनकर्म स्वीकारा गया है।) का बाज़ार तैयार किया और मानव तस्करी को बढ़ावा दिया और बच्चों से लेकर महिला-पुरुष और किन्नर समुदाय तक को इसमें शामिल किया। उपन्यास का कथानक किस्सागोई के जरिए समाज के इस सच को सामने लाता है। अक्सर जिसे देख कर भी हम अनजान बने रहते हैं या कहें कि राजनीति की इस चकाचौंध में खुद के अस्तित्व को भूलकर उसकी ही नजर से देखने लगते हैं। ‘गुलाम मंडी’ उपन्यास का कथानक तीन महिला पात्रों कल्याणी, जानकी (जेन) और अंगूरी की बीच घूमता है। 


भावना मासीवाल



कल्याणी का संपूर्ण व्यक्तित्व ब्यूटी के कांसेप्ट से घिरा है। जो हमें नाओमी वुल्फ की याद दिलाता है अपनी पुस्तक ‘द ब्यूटी मिथ’ में जिन्होंने इसी सुंदरता की राजनीति पर विस्तार से बहस की और माना कि महिलाओं को आजीवन सुंदर बनाए रखे जाने की सामाजिक प्रक्रिया एक तरह की राजनीति है जो उन्हें कमज़ोर बनाती है। उपन्यास की पात्र कल्याणी का बचपन से बुढ़ापे की दहलीज तक खुद को सुंदर बनाए रखने के लिए चिकित्सा का सहारा लेना और उन सभी चीजों को कर गुजरना जिनसे खूबसूरती बरकरार रहे। सुंदरता की राजनीति कही जा सकती है। कल्याणी तो जीभ पर दंश लेना चाहती है, वह भी कोबरा का दंश ! ताकि जिंदगी का दंश कोबरा के दंश में घुल जाए’। ‘शीशे वाली अलमारी के सामने से गुजरते हुए कल्याणी की नजर यकायक ही खुद की छवि पर पड़ी। आईने में आँखों के फूले पोपटे और दोहरी ठुड्डी वाली उस औरत को देखकर उसका मन चीखने को हो गया’।...जमनालाल के सांप शायद अपने जहर से इस जहर को मार दे, या फिर कम से कम सुला ही दे’। जिंदगी का यह दंश और जहर बुढ़ापा था। कल्याणी को जिसने इस स्थिति पर ला खड़ा किया था। यह सुंदरता की राजनीति ही है जिसने गोरे रंग को शुभ और काले को अशुभ बनाया दूसरा पुरुष को आजीवन जवान और महिलाओं को उम्र के तीसवें पड़ाव पर पहुँचते ही बूढ़ा बना दिया। यह राजनीति ही रही जिसने उनके मस्तिष्क को हिप्नोटिज्म के जरिए उत्पाद रूप में पेश किया। हमारे समाज में महिलाएं एक ओर खूबसूरती तो दूसरी ओर बुढ़ापे की प्रक्रिया को स्वाभाविक रूप में नहीं स्वीकार पाती हैं। जबकि पुरुषों की स्थिति विपरीत है। वह आजीवन ‘अभी तो में जवान हूँ’ के जुमलों का प्रयोग करते नजर आते हैं तो दूसरी ओर अपने शरीर की सुंदरता व बनावट को सामान्य लेते हैं। महिलाओं के साथ ऐसा नहीं देखा गया। फिल्मी दुनिया इसका उदाहरण हैं जहाँ पुरुष साठ की उम्र में भी नायक के किरदार के लिए चुना जाता है और महिलाओं को तीस के बाद काम मिलना लगभग कम हो जाता है। यह समाज के मनोवैज्ञानिक अध्ययन की मांग करता है। आखिर क्यों समाज महिला को उसकी युवावस्था में ही सराहता है ? 

कल्याणी के माध्यम से निर्मला भुराड़िया ऐसे ही कुछ प्रश्नों को उठाती हैं। सत्ता, समाज और पूंजी ने जिन्हें सौंदर्य के नियामक प्रतिमानों के जरिए गढ़ा। यह कुछ उसी तरह की प्रक्रिया के रूप में देखी जा सकती है जैसे कंप्यूटर के क्षेत्र में एक कंपनी वायरस बनाती और दूसरी उसका एंटीवायरस। इसकी तह में देखें तो पता चलता है कि वायरस और एंटीवायरस बनाने वाली कंपनियां एक ही है। ब्यूटी का मिथ भी आज की उपभोक्तावादी संस्कृति की देन है। पहले इसी ने ब्यूटी के मिथ को गढ़ा और जब उपभोक्ता का बाजार तैयार हो गया तो उसी ब्यूटी को बनाए रखने के उत्पादों को बेचा। कहा जा सकता है कि पूंजी ने अपनी सत्ता व बाजार के नियामक जिन वस्तुओं को विक्रय योग्य बनाया उनमें ब्यूटी भी खरीदी और बेची गई। ब्यूटी के इस मिथिकीय विचार ने महिलाओं को मानसिक रूप से बीमार बनाया। उपन्यास में कल्याणी का सम्पूर्ण चरित्र इसी सौंदर्यीकरण के प्रतिमानों से बार-बार आहत होता है।

उपन्यास के केंद्र में दूसरी समस्या जानकी अर्थात जेन के माध्यम से मानव तस्करी की उठाई गई है। साथ ही जातिगत भेदभाव की समस्या को भी सामने लाया गया। क्योंकि अधिकांशतः मानवतस्करी में गरीब वर्ग व जाति की लड़कियों को ही खरीदा व बेचा जाता है। मनुष्यता अपने स्वभाव में कई जातियों में बटी है। जातियों का यह बटवारा एक ओर उनके मनुष्य होने की गरिमा को छीन लेता है तो दूसरी ओर आर्थिक रूप से कमजोर बनाता है। आर्थिक रूप से कमजोर होना भी लक्ष्मी और जानकी जैसी लड़कियों के लिए अभिशाप बनता है। जानकी और लक्ष्मी के पिता घुघरू का रुपयों के खातिर अपनी पत्नी को मारना और मौका मिलने पर हाथी के बदले बड़ी बेटी को बेच देना, कुछ गरीब परिवारों में आम बात है। दूसरी ओर जानकी का जेन के रूप में पालन पोषण व अमेरिका जाना और अमेरिका प्रवास के दौरान मानव तस्करी में फँस कर यौनकर्मी के रूप में काम करने को मजबूर किया जाना, वैश्विक पटल पर मानव तस्करी के बढ़ते जाल और यौन शोषण की कहानी बयां करता है। जेन जैसी न जाने कितनी ही लड़कियाँ जहाँ मज़बूर हैं खुद को बेचने के लिए। यहाँ भले ही कुछ लड़कियाँ आर्थिक रूप से मजबूर होकर आई हो परंतु ज्यादातर चोरी-छिपे दूसरे देशों से अपहरण कर लाई गई होती हैं। इनमें छोटी बच्चियों तक का अपहरण शामिल है। 
यह समाज का ऐसा सच है जिसे अकसर हम देखना पसंद नहीं करते। परंतु क्या यह समस्या का समाधान है, क्या कबूतर के आंख बंद कर लेने से बिल्ली उसे नहीं खाएगी। उसी तरह हमारा आँखों को बंद कर लेना भर मानव तस्करी, यौन शोषण और यौन कर्मियों की समस्या का समाधान नहीं है। अकसर लड़कियाँ इसमें फसने के बाद बाहर आने का प्रयास नहीं करती और करती भी हैं तो इस डर से आगे नहीं आती, कि समाज उन्हें स्वीकार नहीं करेगा। उपन्यास में जानकी के माध्यम लेखिका इस समस्या पर रोशनी डालती हैं और समाज की मानसिकता में बदलाव की बात करती है ताकि यह लड़कियाँ वापस आ सके और सम्मानपूर्वक जी सके। इस समय भारत में बढ़ते यौन शोषण और मानव तस्करी के बाज़ार का कारण समाज द्वारा इन्हें उपेक्षित किया जाना है। मानव तस्करी का यह मसला केवल लड़कियों तक सीमित नहीं हैं बल्कि मुत्थू जैसे छोटे उम्र के लड़के भी इसका शिकार हैं और एड्स जैसी बीमारी से ग्रसित हैं। मुत्थु सिर्फ दस साल का बच्चा था जब उसे एड्स हो गया था। मुत्थू को यह बीमारी अपने माँ-बाप से नहीं मिली थी, किसी ग्राहक से मिली थी’। ..मुत्थू कोई अकेला नहीं था, उसके जैसे और भी बच्चे थे’। समाज में बाल यौन शोषण और वैश्यावृति की ओर भी लेखिका समाज का ध्यान खींचती हैं और उसके समाधान के लिए कारगर सरकारी नीतियों को सामने लाती है। 

उपन्यास की तीसरी केंद्रीय समस्या तीसरे जेंडर के अंतर्गत ट्रांसजेंडर और ट्रांससेक्सुअल हिजड़ा समुदाय से जुड़ी है। यह समुदाय समाज के तयशुदा खांचों में नहीं आता है इसी कारण समाज द्वारा लंबे समय से बहिष्कृत व उपेक्षित रहा। उपन्यास में अंगुरी के माध्यम से लेखिका इस समाज की समस्या को केंद्र में लाती हैं। सत्ता चाहे पूंजी की हो या पितृसत्ता की वह अपने स्वार्थ के लिए जीती है। समाज का विषम लैंगिक विभाजन पूंजी और सत्ता के इसी गठजोड़ को सामने लाता है। उपयोग और उपयोगिता की तर्ज पर जिसने एक पूरे समुदाय को ही मुख्य धारा से अलग कर दिया। अंगूरी का व्यक्तित्व समाज की इसी उपेक्षा को सामने लाता है और मनुष्यता के तकाजे पर मनुष्य होने के अधिकार की मांग करता है। उपन्यास के एक अंश में कल्याणी द्वारा अंगूरी के गुरु के कौवा पालने पर,  कल्याणी के मन में उठे प्रश्नों का जवाब देते हुए अंगुरी कहती है ‘हमारी जात के तो ये ही हैं। हमारे सगे वाले। तुम लोग उनको दुरदुराते हो, हम मोहब्बत से पालते हैं।’ इस पर कल्याणी का कहना था कि श्राद्ध के दिनों में तो हम भी कव्वों को ही खीर-पूरी खिलाते हैं’। इस पर अंगुरी अपने समाज के सच के जरिए अपनी तुलना कव्वे से करते हुए कहती है ‘श्राद्ध के दिनों में ही न ! स्वारथ रहता है न तुम्हारा। आड़े दिन में जो कही कव्वा आकर बैठ जाए न तुम पर, तो नहाओगी-धोओगी, अपशकुन मनाओगी। जैसे हम ना तुम्हारे जो तो शादी-ब्याह हो तो नाचेगी गाएगी, शगुन पाएगी, मगर यूं जो रास्ते में आ पड़ी ना हम, तो हिजड़ा कहकर धिक्कारोगी’। अंगुरी के यह शब्द केवल उसके नहीं बल्कि पूरे समुदाय की पीड़ा को बयां करते है। 

समाज द्वारा उपेक्षित यह समुदाय भी मुख्यधारा में शामिल होना चाहता है। साथ ही संवैधानिक रूप से प्राप्त समानता के अधिकार को समाज में भी पाना चाहता है। वृंदा गुरु, अंगुरी, रेखा, रानी जैसे समुदाय के बहुत से लोग मानव होने की गरिमा का अहसास करना चाहते हैं। समाज की उपेक्षा व आर्थिक बेरोजगारी के कारण ही यह समाज भी यौनकर्मी के रूप में काम करने को मजबूर है। जैविक असमानता के केवल एक कारण से क्या मनुष्य होने का अधिकार छीन जाता है ? तमाम असुविधाओं, असमानताओं और उपेक्षा के बावजूद यह समाज आगे बढने का निरंतर प्रयास कर रहा है और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष भी है  उपन्यास की भूमि से बाहर आएँ तो ट्रांसजेंडर लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी इस समुदाय का एक ऐसा ही नाम है। 

यह उपन्यास यौनिकता के प्रश्न को भी उठाता है। जिसकी एक हल्की रोशनी उपन्यास के अंत में अंगुरी के माध्यम से लेखिका डालने का प्रयास करती हैं। अंगुरी कैथारासिस की प्रक्रिया के दौरान बताती है ‘मेरी सौ साल वाली गुरु ने बताया था कि उन्होंने आपके ताउजी की मालिश के लिए किसी को भेजा था। आपके ताउजी का रुझान स्त्रियों की ओर था ही नहीं’। उपन्यास का यह छोटा सा अंश यौनिकता के मुद्दे पर पुनः समलैंगिक बहस को जन्म देता है।

भावना मासीवाल

ईमेल: bhawnasakura@gmail.com
मो०: 09623650112

कुल मिलाकर देखा जाए तो यह एक समस्या प्रधान उपन्यास है जो कुल 25 छोटे-छोटे खंडो में विभाजित है। प्रत्येक खण्ड अपने पूर्व खंड से पूर्वदीप्ती शैली में वर्तमान से भविष्य और भविष्य से अतीत में आवाजाही करता है। किस्सागोई और छोटे-छोटे कथानक के जरिए जिसमें एक पूरे उपन्यास की कहानी को बुना गया और समस्या को केंद्र में लाया गया है। किस्सागोई के जरिए कथानक को बुनने की प्रक्रिया में उपन्यास मूल कथानक से भटकाव की स्थिति पैदा करता है और पाठक को हाथियों के प्रदेश और हिमालय की गुफाओं की यात्रा करवाता है। इस भटकाव के बावजूद यह उपन्यास अपने कथानक के जरिए ही पूंजी के बढ़ते साम्राज्य के भीतर घुटती मनुष्यता, बढ़ते मानव यौन शोषण के वैश्विक बाज़ार और हाशिए में भी हाशियाकरण की मार सहते यौनकर्मी और थर्ड जेंडर के सवालों को उठाता है। विषमलैंगिक और समलैंगिक संबंधों पर चल रही बहस पर पुनः बहस और संवैधानिक अधिकार के साथ-साथ सामाजिक अधिकार का प्रश्न उठाता है। साथ ही ब्यूटी एंड मिथ के जरिए बढ़ते वैश्विक सौंदर्यकरण के बाज़ार के यथार्थ को भी सामने लाने का प्रयास करता है। 

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