कविता की कहानी... ~ गीताश्री | Geetashree on author Kavita


मेरी पसंद/गीताश्री 

कविता की कहानी... 

~ गीताश्री 

नदी जो अब भी बहती है...
दर्द का दरिया जो अब भी बहता है...


मेरी कुछ मान्यताएं, कहानी-विधा को लेकर जो बनीं थीं, वे सब यकायक ध्वस्त हो गईं हैं। मैं खुद को बहुत खाली खाली-सी पा रही हूं। मैंने सुना था, पढा, लिखना आनंदातिरेक देता है। मार्केज की तरह लेखन आनंदजाल में फंसाता है। लेखन खुद को मुक्त करता है, लेखन मनोरंजन करता है, लेखन हमारे सपनो और आकांक्षाओं को सहलाता है... ब्ला ब्ला ब्ला...।
कविता के लेखन का मूल्यांकन होना अभी बाकी है
नहीं... युवा कथाकार कविता की एक कहानी “नदी जो अब भी बहती है ”... पढने के बाद मैं ऊपरोक्त कोई मान्यता नहीं स्वीकार पा रही हूं। मार्केज की दूसरी स्थापना सही लगती है कि लिखना शुद्ध रुप से एक यातना है। कविता की कहानी संवेदनशील पाठको के लिए किसी यातना से कम नहीं। लिखते समय कहानीकार की यातना की मैं सहज कल्पना कर सकती हूं। 

एक स्त्री होने के नाते, दावे से कह सकती हूं कि जिस विषय पर यह कहानी लिखी गई है, कोई पुरुष कभी नहीं लिख सकता। कई चीजें हैं जो इस कहानी को कविता की ही बाकी कहानियों से इसे अलग करती है। कविता ने अब तक अनगिन कहानियां लिखी हैं। कई संग्रह( मेरी नाप के कपड़े...) भी छपे हैं, दो उपन्यास( मेरा पता कोई और है, ये दिए रात की जरुरत थे) आ चुके। यह कहानी उस भीड़ में आइसबर्ग की तरह हौले हौले तिरती हुई नजर आती है। कहानी जितनी बाहर है, उतनी ही भीतर है। 

कविता के लेखन का मूल्यांकन होना अभी बाकी है। उसने इतना तो लिखा ही है कि उसके लेखन पर बात होनी चाहिए। कम से कम इन कहानियों से वे तत्व जरुर चिन्हित हो पाते जिनसे कविता की कहानियां बनीं हैं। वे अपने पात्रों के साथ तदाकार हो जाती हैं। जैसे दुख में डूबा हुआ कोई कराह रचता हो। यह रचनाकार का अपना दुख नहीं है। निश्चित तौर पर कहानी में वर्णित दुख तकलीफ समाज के किसी हिस्से से आया है। जब आप उसे “मैं” शैली में पढते हैं तो जैसे कहानी सीधे दिल में नश्तर की तरह उतरती चली जाती है। क्या कविता “मैं” शैली की मारक क्षमता जानती है ? क्या इसीलिए उसने “मैं” शैली अपनाई ? कहानी पढते हुए मैंने कई बार सोचा। “मैं” शैली का इतना जबरदस्त प्रभाव शायद उनके और मेरे  साहित्यिक गुरु राजेन्द्र यादव भी जानते थे। उन्होंने कहा था - “अक्सर यह भी होता है कि प्रेरणा अपने जिए हुए सत्य से नहीं, देखे सुने यथार्थ से आती है। इसी अनुपात से कहानी अपना प्रभाव छोड़ती है।“ राजेन्द्र यादव के कथा संसार में इस तरह के प्रभावशाली सत्य दिखाई पड़ते हैं।

अति संवेदनशील कहानियों में कैरेक्टर और सिचुएशन को पूरी तरह पकड़ पाने के लिए जिस तरह के धैर्य और अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती है, वह कविता के सिर्फ एक कहानी में नहीं, समूचे कथा संसार में दिखाई पड़ता है। कहानी के भीतर एक कहानी के अंतर्सूत्र को बांधकर रखती है, भावनाओं के विखराव को भी बांध कर रख लेती है। इतनी भावुकता के वाबजूद कहानी बिखरती नहीं। विचलित जरुर करती है। फिलहाल जो कहानी मेरे सामने हैं, वह स्त्री पाठको को विचलित करेगी। पढते हुए कई बार मेरा हाथ अपने पेट की तरफ गया। हौले से सहलाती हुई वापस लौटी। कहानी की नायिका बहुत बड़े कैनवस पर उभरती है। उसके भीतर मातृत्व की आकांक्षा हिलोरे मारती है। बच्चा जब कोख में आता है तो मां बाप के अरमान आकाश छू रहे होते हैं। किसी के भीतर एक बेटी, किसी के भीतर एक बेटा की ख्वाहिश पनपती है। इन दोनों की सपनीली आकांक्षाओं से मुक्त एक जान भीतर आकार ले रहा होता है।  

स्त्री हर हाल में अपने कोख की रक्षा करती है। कहानी का एक अंश देखिए—“तेज चलते चलते मैं पेट थाम लेती हूं। और सचमुच मुझे लगता है जैसे कुछ है मेरे भीतर जो कह रहा है, मुझे संभाल कर रखना।“ 

कोख में बच्चे से संवाद सिर्फ मां ही कर सकती है। वह उसकी बातें सुनती और समझती है और उसे कोख में कुशलता से सहेज लेती है।  वह खुद को दुनिया की सबसे सुरक्षित भवन, गर्भ की बंद दीवारो के बीच पाता है। मां बच्चे का अदभुत संवाद, कहानी में इस तरह गुंफित है कि स्त्री मन अनायास विचलित होगा ही। दुर्भाग्य तब सामने आता है जब मां बाप को पता चलता है कि कोख में पल रहा बच्चा समान्य नहीं, दो सिरो वाला बच्चा है जिसे बचाया नहीं जा सकता। जिसका पैदा होना संभव नहीं। बहुत यातनादायक अनुभव है किसी मां बाप के लिए। इससे नायिका और उसका पति नील, दोनो गुजरते हैं। कहानी में अनोखा मोड़ है, जब वह दो सिरो वाला बच्चा एक बार दोनों देखना चाहते हैं, एक का मुंह लड़की की तरह और दूसरे का लड़के की तरह दिखता है। यह कल्पना चौंकाती है। क्या कहानीकार यहां अर्धनारीश्वर की परिकल्पना कर रही थी ? यह प्रसंग मिथकीय है। मुझ पाठक के मन में सहज ही यह सवाल उठा है। कविता की कहानियों में पुरुष अपने श्रेष्ठतम रुप में यानी साथी के रुप में आता है। कविता स्त्रीवाद के फालतू नारो में नहीं उलझती है। शायद इसीलिए वह दो सिरो वाले बच्चे में आधे आधे स्त्री पुरुष दोनों को देखती है। कहानी में इस प्रसंग को पति पत्नी की आकांक्षाओं से जोड़ा गया है पर ये इतनी सहज बात भी नहीं है। आए दिन अखबारो में दो सिरो वाले बच्चे बच्चियों की खबरे, फोटो छपती हैं। उनके इलाज को लेकर भी खूब चर्चा होती है। 

जब तकनीक इतनी आई नहीं थी और सूचना के तंत्र इतने व्यपाक नहीं थे तब दो सिरो वाले बच्चे ईश्वर का अवतार माने जाते थे। किसी गांव में गल्ती से ऐसा बच्चा पैदा हो गया तो दूर दराज से भक्तगण पहुंचते और देखते देखते वह विकृति का शिकार बच्चा देवत्व को प्राप्त हो जाता। अगर बच गया तो अभिशप्त जिंदगी जीता। मर गया तो मां बाप की बाकी जिंदगी सजा की तरह हो जाती थी। मुझे बचपन के कई किस्से याद हैं। जुबानी खबरे खूब चल चल कर आती थीं। आज सूचना के दौर में ऐसे बच्चे अस्पताल के चक्कर लगाते हैं, शायद जिंदगी उन्हें एक से दो कर दे। 

यह कहानी विज्ञान के जरिए इस तरह की समस्या पर प्रकाश भी डालती है। कविता ने कई महत्वपूर्ण और प्रमाणिक जानकारियां भी दीं हैं। कहानी की नायिका डाक्टर की बातो को अपने क्लास की पढाई से जोड़ कर याद करती है। अतीत का यह प्रसंग मोहक बन पड़ा है। मुझे याद है कि साइंस की क्लास में जब पहली बार हमने एक्स वाई, क्रोमोजोम के बारे में पढा तो क्लास से बाहर आकर सारी चर्चा इसी के इर्द-गिर्द घूमती रही थी। खासा नया और अनोखा अनुभव था। 

मुझे लगता है, संभवत इस तरह के विषय पर लिखी गई पहली समकालीन कहानी होगी यह। कविता के पास काव्यात्मक भाषा है, जो अपने साथ पाठको को बहा ले जाती है। वह अपनी कहानी को गध की रुखाई से बचा ले जाती है और बड़ी खामोशी से कहानी अपनी बात कह जाती है। यह खामोशी कविता की खास अपनी है। अपनी बुनी हुई भाषा और अपनी गढी हुई भाषा...।

उदाहरण के तौर पर, अस्पताल के बारे में कहानीकार ने जो एक लाइन कही है वो हम सब नोटिस करते हैं पर कहीं दर्ज नहीं करते। वे लिखती हैं... ” अस्पताल भावशून्य इमारत होती है जहां आपकी सिसकियों को कोई गंभीरता से नहीं लेता।“ 

इस कहानी ने मेरे भीतर अस्पताल के दिन और बेअसर सिसकियों की स्मृति को ताजा कर दिया है। 

मन होता है, कहानी की नायिका से पूछूं...

अपर्णा सच सच बतलाना, 
अस्पताल के भावशून्य इमारत में,
तुम रोई या मैं रोई थी...।
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