मोदी की सफल होती विदेश नीति – अपूर्व जोशी

 सफल होती विदेश नीति 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार संसद में जीएसटी बिल पास कराने में भले ही सफल न हो सकी हो, उच्च एवं उच्चतम न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति संबंधित कानून को भले ही सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया हो। भले ही देश भर में असहिष्णुता बनाम अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर केंद्र सरकार निशाने पर हो। बिहार ने नरेंद्र मोदी को नकार भले ही नीतीश कुमार पर भरोसा जता दिया हो। भले ही ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ के नारे के सहारे हर घर में प्रवेश पाने में सफल होने वाले पीएम महंगाई पर काबू न कर पाने के चलते अपने समर्थकों के बीच थोड़ा-थोड़ा अलोकप्रिय होने लगे हों। अपने कैबिनेट सहयोगी अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, राजस्थान की सीएम वसुंधरा राजे आदि के कथित भ्रष्टाचार ने भले ही उनकी परेशानी बढ़ाने का काम किया हो और सीबीआई के कथित दुरुपयोग के चलते भी वह अपने विरोधियों के निशाने पर हों, लेकिन प्रधानमंत्री की विदेश नीति उन्हें अंतरराष्ट्रीय पटल पर एक प्रभावशाली नेता होने के साथ-साथ देश की आर्थिक एवं सामरिक रणनीति में मजबूती देने का काम करती नजर आ रही है। तो इस बार चर्चा मोदी जी की विदेश नीति पर।

प्रधानमंत्री बनने के बाद से अब तक नरेंद्र मोदी तैंतीस बार विदेश जा चुके हैं। उनकी इन यात्राओं को लेकर अब चुटकुलेबाजी होने लगी है। इस बार लोकसभा सत्र के दौरान प्रधानमंत्री की सदन में उपस्थिति पर सोशल मीडिया में पढ़ने को मिला कि पीएम सदन में अपनी सीट पर बैठते ही सीट बेल्ट की खोज करते देखे गए। ऐसे कई चुटकुले उनकी यात्राओं को लेकर चल रहे हैं। लेकिन सच यह भी है कि उनकी इन विदेश यात्राओं के सकारात्मक नतीजे दिखने लगे हैं। मोदी की बतौर पीएम पहली विदेश यात्रा भूटान की थी। फिर वह ब्रिक्स देशों के समूह की बैठक में भाग लेने ब्राजील गए थे। उन्होंने पाकिस्तान-चीन और अफगानिस्तान को छोड़ सभी पड़ोसी मुल्कों का सबसे पहले दौरा किया। भूटान के साथ हमारे ऐतिहासिक प्रगाढ़ संबंध रहे हैं। वह निश्चित ही मोदी की यात्रा पश्चात और गहरे हुए हैं। नेपाल संग संबंध जरूर सुधरने के बजाए खराब होते जा रहे हैं। परंतु इसके लिए हम अकेले दोषी नहीं। नेपाल के आंतरिक हालात भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। असल महत्व की घटनाएं मोदी की विदेश नीति के उस पहलू से ताल्लुक रखती हैं जिन्हें चीन एवं पाकिस्तान के साथ हमारे तनावपूर्ण संबंधों से जोड़कर देखा जा रहा है। नरेंद्र मोदी लगातार पश्चिमी देशों विशेषकर अमेरिका के साथ संबंधों को मजबूत करने में जुटे हैं। वह समझते हैं कि चीन के विश्व व्यापार से लेकर राजनीतिक परिदृश्य में लगातार बढ़ रहे प्रभाव ने अमेरिका समेत यूरोपीय एवं एशियाई देशों की चिंता बढ़ाने का काम किया है। चीन अपने को एशिया का दबंग साबित कर चुका है और अब उसकी महत्वाकांक्षा विश्व-शक्ति बनने की है। नरेंद्र मोदी-बराक ओबामा गठजोड़ के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है। मोदी अमेरिका की इस चिंता का लाभ भारत के संग अमेरिकी व्यापार, पूंजी निवेश, सामरिक समझौते और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की स्थाई सदस्यता की दावेदारी पुख्ता करने के लिए उठाने का प्रयास कर रहे हैं। ठीक इसी प्रकार जापान के संग संबंधों को मोदी ने तेजी से मजबूती देने में खास रुचि दिखाई तो इसके पीछे भी चीन का होना है। जापान के प्रधानमंत्री इसी माह दिल्ली पहुंचे! उन्होंने मोदी के संग बनारस के घाटों में गंगा आरती में भाग लिया। यह भारत-जापान के बीच बढ़ रहे प्रेम का परिचायक है। इस प्रेम की नींव में जापान और चीन के कटु संबंध हैं तो भारत और चीन के बीच स्थाई अविश्वास भी है। विदेश नीति के विशेषज्ञ जापान के संग हमारे मजबूत होते संबंधों का श्रेय नरेंद्र मोदी को तो देते ही हैं, इस बात को भी रेखांकित करते हैं। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहते जापान के निरंतर प्रयास के बावजूद संबंधों में वह प्रगाढ़ता नहीं आई जो आज देखने को मिल रही है। दरअसल, मनमोहन सरकार की विदेश नीति चीन को नाराज न करने की रही है। अब मोदी राज में राष्ट्रीय भावनाएं नई छलांग लगाने को तत्पर हैं। मोदी इससे कतई चिंतित नहीं कि जापान, रूस और अमेरिका के साथ संबंधों की प्रगाढ़ता चीन को नाराज करने का काम करेगी। भारत इस बात को समझ रहा है कि चीन अपनी ‘स्ट्रिंग आॅफ पार्ल’ यानी मोती की माला जो पाकिस्तान, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव में चीन द्वारा अपने बंदरगाह स्थापित कर भारत पर नजर रखने की नीति है, के जरिए हमें घेरने का प्रयास कर रहा है। इतना ही नहीं चीन-श्रीलंका और नेपाल में भी अपनी पकड़ मजबूत करता जा रहा है। इन सबके पीछे उद्देश्य भारत को घेर कर रखना है। जापान भी चीन द्वारा इसी प्रकार से प्रताड़ित किया जाता रहा है। टोक्यो इस बात से चिंतित है कि बीजिंग अपनी वायुसेना के जरिए जापानी समुद्री सीमाओं पर अतिक्रमण करता आया है। मोदी सरकार ने एक बड़ा निर्णय लेते हुए अमेरिका और भारत के बीच होने वाले वार्षिक सैन्य अभ्यास में जापान को भी स्थाई रूप से शामिल कर लिया है। नौसेना के इस अभ्यास को मालाबार अभ्यास कहा जाता है। इसमें अमेरिका और भारत की नौसेनाएं भाग लेती हैं। इस बार इसमें जापान, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर को भी शामिल किया गया। चीन इससे नाराज हो उठा है। 2007 में भी मनमोहन सरकार ने जापान को इस अभ्यास में शामिल किया था। चीन की तीव्र प्रतिक्रिया देख उसके बाद से अब तक इन सैन्य अभ्यासों में जापान को शामिल नहीं किया गया। यही नहीं चीन की नाराजगी की परवाह न करते हुए जापानी प्रधानमंत्री अबे की भारत यात्रा के दौरान उत्तर पूर्व राज्यों में सड़क निर्माण को लेकर एक समझौता दोनों देशों के मध्य हुआ। चूंकि अरुणाचल प्रदेश पर चीन अपना हक जताता आया है, इसलिए निश्चित ही वहां किसी भी प्रकार के स्थाई निर्माण, वह भी जापान की मदद से, को चीन बर्दाश्त नहीं करने वाला। एक अन्य समझौता दोनों देशों ने फौजी खुफिया जानकारियों को एक दूसरे संग बांटने संबंधी किया है। यह माना जा रहा है इस समझौते का मुख्य लक्ष्य चीन की सैन्य गतिविधियों पर नजर रखना है। विशेषकर चीन की जलसेना की गतिविधियों को लेकर जापान, अमेरिका और भारत की चिंता का नतीजा यह समझौता बताया जा रहा है। जापानी प्रधानमंत्री की इस यात्रा के दौरान सिविल न्यूक्लियर समझौते पर भी हस्ताक्षर मिल गए जो भारत की बड़ी कूटनीतिक जीत है। यही नहीं अहमदाबाद- मुंबई के बीच नरेंद्र मोदी की ड्रीम बुलेट ट्रेन संबंधी 12 बिलियन डाॅलर यानी लगभग साठ हजार करोड़ रुपए का करार भी हुआ।

प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति अमेरिका की तरफ झुकती नजर आ रही है। मोदी इसकी काट अपनी रूस यात्रा के जरिए करने जा रहे हैं। इससे पहले दिसंबर 2014 में रूसी राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच सौ बिलियन अमेरिकी डाॅलर यानी पांच लाख करोड़ रुपयों के व्यापारिक समझौते हुए थे। अब मोदी की यात्रा के दौरान रक्षा संबंधी बड़े समझौते पर हस्ताक्षर होने के साथ- साथ आंध्र प्रदेश में रूस की मदद से परमाणु संयंत्र लगाने की भी डील हो सकती है। कुल मिलाकर नरेंद्र मोदी चीन के साथ दबकर न रहने और भारत को अंतरराष्ट्रीय मंच में एक ताकत के रूप में स्थापित करने की दिशा में काम करते दिखाई पड़ रहे हैं। 

और अंत में एक ऐसे युवा दंपति की चर्चा जो कैंसर के खिलाफ मोर्चा खोल ग्रामीणों को इसकी बाबत जानकारी देने, सही इलाज कराने में मदद मुहैया कराने का काम कर रहे हैं। गंगा कुमार और स्नेहा राऊतरे का जिक्र इसलिए क्योंकि ऐसे दौर में जब आईएएस अफसरों पर गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हों, सीबीआई छापे डाल रही हो और उनकी गिरफ्तारियां हो रही हों, यह सुखद है कि गंगा कुमार जैसे आईएएस समाज-सेवा का बीड़ा उठाने आगे आ रहे हैं। सन् 2000 बैच के इस अफसर ने अपनी पत्नी के साथ मिलकर ग्रामीण स्नेहा फाउंडेशन नामक संस्था की नींव रखी है। यह संस्था बिहार और ओडिशा के ग्रामीण इलाकों में कैंसर के प्रति जागरूकता फैलाने का काम करती है। सन् 2014 में गंगा कुमार की पत्नी को कैंसर हो गया। सही समय पर इलाज होने के चलते वह इससे बच निकली, लेकिन उनकी जीवनधारा ही इसके बाद बदल गई। अब पति-पत्नी मिलकर इस सामाजिक जागरूकता अभियान को अपना समय दे रहे हैं। ऐसे प्रयास सराहनीय हैं और इन्हें करने वाले साधुवाद के पात्र।

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