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हिंदी कवितायेँ: रमा भारती - चाँद और रुका हुआ लम्हा | Rama Bharti



हिंदी कवितायेँ: रमा भारती - चाँद और रुका हुआ लम्हा #शब्दांकन

रुका हुआ लम्हा

- रमा भारती

कवि के लिए चाँद से मुहब्बत ठीक वैसी ही मोहब्बत होती है जैसी उसकी अपनी मुहब्बत, जिसमें दूरी होते हुए भी नहीं होती, रमा भारती की ये कवितायेँ साक्ष्य हैं उस प्रेम का... 



1.

मैं सड़क के
ठीक उसी मोड़ पे
हिंदी कवितायेँ: रमा भारती - चाँद और रुका हुआ लम्हा #शब्दांकन
लगाती हूँ ब्रेक

जहाँ से देख सकती हूँ
शिवालिक की छाती से
फूटता सुर्ख़ सूरज

आसमन के दूसरे छोर पर
नज़र पड़ते ही दिखाई देता है
फ़ीका-भूरा होता चाँद

जैसे थक के
लौट रहा हो
किसी रात के पैहरन से

मैं घुमाती हूँ यादों का आइना
तिरछी हुयी बिंदी में
भरती हूँ सूरज की लालिमा

और सोचती हूँ
दोनों के एक साथ
क्षितिज में होने की विडंबना

मैं डूबती हुयी
गहरी साँस में
हो जाती हूँ चाँद के साथ

सूरज की रोशनी
आँखों को चुभने लगती है
मैं भरे हुए दीदों में रखती हूँ एक अंतरा

औ' इतने में दिन चढ़ जाता है
वक़्त की मुँडेर पर
कुछ नयी बात लिए, कुछ नयी सौग़ात लिए.....




2.

मैं ढूँढ़ लाती हूँ
मुस्काने की सारी विधियाँ
अंतस में डूब कर

औ' टटोलती हूँ सत्य ये हुयी
तबाही को मन के भीतर

फिर सीधा करती हूँ
रात के आँचल में झुका
चाँद का ज़र्द आइना

एक दाग़ में डुबोती हूँ तर्जनी
और माथे के बीचो-बीच
गोल रेखा खींचती हूँ

यूँ क़ैद कर प्रेम का सत्य
आँखों में भरती हूँ आसमान
पीती हूँ घूँट-घूँट वक़्त का हलाहल

तक़दीर से करती हूँ जिरह
औ' महावर में भरती हूँ
कुआँरे सपने सभी

मैं मुस्काने की जुगत में
जीत जाती हूँ ज़िन्दगी से हर दफ़े
एक नए ख़वाब को रौंद कर.........




3.

रुका हुआ लम्हा
रुका रहता है
एक गाँठ की तरह साँसों में
कभी नदी बन
बँट जाता है किनारों में
कभी चाँद हो
अटक जाता है रात के आँचल में
कभी दरख़्त हो
फैलाता है अपनी जड़ों को सभी शिराओं में
औ' बीन लाता है अंतस का पतझड़
एक रुका हुआ लम्हा दरअसल
रुकी हुयी उस निगाह की तरह होता है
जिसमें कोई ताज़ा आँसू
गिरने को बेताब
ढूँढ़ता है महबूब का कांधा......




4.

मैंने इन दिनों ठान रखा है
कि सबसे उदास कविता लिख डालूँ
इसीलिए मैं ढूँढ़ लाती हूँ
अपने लिए उदासी
कभी सुबह के अख़बार से
खोज-खोज के पढ़ती हूँ किसानों को
हिंदी कवितायेँ: रमा भारती - चाँद और रुका हुआ लम्हा #शब्दांकन
फिर सोचती हूँ घण्टों
उनके मरने और जीने के बीच
द्वंद की कहानियाँ
और जी भर के उदास हो लेती हूँ
फिर थक कर टटोलती हूँ
अपने घुटने में होते दर्द को
और दवाओं को दरकिनार कर
मन भर दर्द को जी लेती हूँ
यहाँ तक कि दुखने लगे एक-एक रग
तब उदासी बटोर देखती हूँ
रात को अक्सर चाँद के बिना
मुँह उठाती हूँ विपरीत दिशा में
और हर एक रात को अमावस कर
उदासी लिए कूद जाती हूँ
अपने ही भीतर की नदी में
जहाँ अब मैं नहीं रहती
तुम भी नहीं रहते
कुछ टूटी टूटी बातों की चुभन
रेत होती रहती है
यहाँ जब हो जाती हूँ सूखी
तो उदास क़दमों से लौट पड़ती हूँ
जोड़ती हूँ सभी उदास शब्द पल-पल
पिरोती हूँ उनको साँसों के तार में
पर पूरी तरह से अब भी
उदासी लिख नहीं पा रही हूँ, जानें क्यों?




5.

गाँठ-गाँठ
जब खुल रहा था दर्द का टांका
मैंने कहा, देखो! क्षितिज डूब रहा है
या रात गहराती है
तुम ख़ामोशी से सुन्न रहे
शायद! ये सोचते कि भला हुआ
मैं 'चाँद' न हुआ
मैंने फिर से कहा कि
भभकती चिता को टटोल कर
ये न ढूँढना कि क्या रहा शेष
बस ये सोचना कि खुल गए हैं
सब बंध हमारे बीच
दो 'सितारों' के सिवा.........




6.

चाँद की सुर्ख़ डली है
रात के तसले में
भुलभुल मांद पड़ी है
औ' ज़िन्दगी की किताब
अनजाने ग्रहण के बीच
सहम के अटकी हुयी है......






7.

पीला चाँद
उदास रात
पीली हथेलियाँ
सुर्ख़ आसमान
सुर्ख़ निगाहें
चीखती चुप्पियाँ
आँखों पे बाँधती हूँ गांधारी की पट्टी
सुन्न बोलियाँ
सब था एक उस पल में
जिसमें बस हमें होना था
टूटी रेखाओं पे लिखना था
नया कोण
तुम्हें झुकना था कुछ
मुझे बढ़ना था कुछ
मेरी एड़ियाँ ज़मीनी रहीं
तुम्हारी गर्दन आसमानी
कि हमें देखना था आलते का गोंद
औ' मंज़िलों की थाह भर....

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