अब जब कि पंकज सिंह नहीं हैं - कुमार मुकुल | Pankaj Singh


अब जब कि पंकज सिंह नहीं हैं - कुमार मुकुल #शब्दांकन


अब जब कि पंकज सिंह नहीं हैं

- कुमार मुकुल

अब जब कि मेरे प्रिय कवि पंकज सिंह हमारे बीच नहीं हैं उनकी कविताओं के निहितार्थ नयी अर्थवत्‍ता के साथ सामने आ रहे हैं। उनकी कविताओं पर पिछले दिनों मैंने विचार आरंभ किया था और उस पर काम जारी है। यहां शब्दांकन पर उसके कुछ अंश ... 



कविता अंत:सलिला है


गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम उन्हीं के लिए है, जिन्हें इसको रोज जीतना पड़ता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड़ सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढ़े जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित हो चुके हैं न कि कविता। अब कवि पुस्‍तकों से पहले साइबर स्‍पेश में प्रकाशित होते हैं और वहां उनकी लोकप्रियता सर्वाधिक है, क्योंकि कविता कम शब्‍दों मे ज्‍यादा बातें कहने में समर्थ होती है और नेट की दुनिया के लिए वह सर्वाधिक सहूलियत भरी है।

कविता मर रही है, इतिहास मर रहा है जैसे शोशे हर युग में छोडे जाते रहे हैं। कभी ऐसे शोशों का जवाब देते धर्मवीर भारती ने लिखा था - लो तुम्‍हें मैं फिर नया विश्‍वास देता हूं ... कौन कहता है कि कविता मर गयी। आज फिर यह पूछा जा रहा है। एक महत्‍वपूर्ण बात यह है कि उूर्जा का कोई भी अभिव्‍यक्‍त रूप मरता नहीं है, बस उसका फार्म बदलता है। और फार्म के स्‍तर पर कविता का कोई विकल्‍प नहीं है। कविता के विरोध का जामा पहने बारहा दिखाई देने वाले वरिष्‍ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्‍द्र यादव भी अपनी हर बात की पुष्‍टी के लिए एक शेर सामने कर देते थे। कहानी के मुकाबले कविता पर महत्‍वपूर्ण कथाकार कुर्तुल एन हैदर का वक्‍तव्‍य मैंने पढा था उनके एक साक्षात्‍कार में , वे भी कविता के जादू को लाजवाब मानती थीं।

सच में देखा जाए तो आज प्रकाशकों की भूमिका ही खत्‍म होती जा रही है। पढी- लिखी जमात को आज उनकी जरूरत नहीं। अपना बाजार चलाने को वे प्रकाशन करते रहें और लेखक पैदा करने की खुशफहमी में जीते-मरते रहें। कविता को उनकी जरूरत ना कल थी ना आज है ना कभी रहेगी। आज हिन्‍दी में ऐसा कौन सा प्रकाशक है जिसकी भारत के कम से कम मुख्‍य शहर में एक भी दुकान हो। यह जो सवाल है कि अधिकांश प्रकाशक कविता संकलनों से परहेज करते हैं तो इन अधिकांश प्रकाशकों की देश में क्‍या जिस दिल्‍ली में वे बहुसंख्‍यक हैं वहां भी एक दुकान है , नहीं है। तो काहे का प्रकाश्‍ाक और काहे का रोना गाना, प्रकाशक हैं बस अपनी जेबें भरने को।

आज भी रेलवे के स्‍टालों पर हिन्‍द पाकेट बुक्‍स आदि की किताबें रहती हैं जिनमें कविता की किताबें नहीं होतीं। तो कविता तो उनके बगैर, और उनसे पहले और उनके साथ और उनके बाद भी अपना कारवां बढाए जा रही है ... कदम कदम बढाए जा कौम पर लुटाए जा। तो ये कविता तो है ही कौम पर लुटने को ना कि बाजार बनाने को। तो कविता की जरूरत हमेशा रही है और लोगों को दीवाना बनाने की उसकी कूबत का हर समय कायल रहा है। आज के आउटलुक, शुक्रवार जैसे लोकप्रिय मासिक, पाक्षिक हर अंक में कविता को जगह देते हैं, हाल में शुरू हुआ अखबार नेशनल दुनिया तो रोज अपने संपादकीय पेज पर एक कविता छाप रहा है, तो बताइए कि कविता की मांग बढी है कि घटी है। मैं तो देखता हूं कि कविता के लिए ज्‍यादा स्‍पेश है आज। शमशेर की तो पहली किताब ही 44 साल की उम्र के बाद आयी थी और कवियों के‍ कवि शमशेर ही कहलाते हैं, पचासों संग्रह पर संग्रह फार्मुलेट करते जाने वाले कवियों की आज भी कहां कमी है पर उनकी देहगाथा को कहां कोई याद करता है, पर अदम और चीमा और आलोक धन्‍वा तो जबान पर चढे रहते हैं। क्‍यों कि इनकी कविता एक 'ली जा रही जान की तरह बुलाती है' । और लोग उसे सुनते हैं उस पर जान वारी करते हैं और यह दौर बारहा लौट लौट कर आता रहता है आता रहेगा। मुक्तिबोध की तो जीते जी कोई किताब ही नहीं छपी थी कविता की पर उनकी चर्चा के बगैर आज भी बात कहां आगे बढ पाती है, क्‍योंकि 'कहीं भी खत्‍म कविता नहीं होती...'। कविता अंत:सलिला है, दिखती हुई सारी धाराओं का श्रोत वही है, अगर वह नहीं दिख रही तो अपने समय की रेत खोदिए, मिलेगी वह और वहीं मिलेगा आपको अपना प्राणजल



पंकज सिंह - ‘नहीं’ मेरी अन्तर्शक्ति‍ है

दैत्याकार सत्ता के बरक्स



‘दुनिया को बदलने के स्वप्न’ से भरे कव‍ि के भीतर ‘सदियों की आग की’ जो विरासत है वही अपने ‘समय की जीभ पर’ हलचल पैदा करती जनोन्मुख है। चरम ‘बदहाली’ के दिनों में भी ‘सिर्फ सहमति और स्थिरता’ की चाहत रखने वाली ‘दैत्याकार’ सत्ता के बरक्स आम जन के बारंबार खड़े होने की असफल मगर अनंत कोशिशों की दास्तान हैं पंकज सिंह की कविताएं। अपनी सारी सामर्थ्य को ‘बार-बार ईंधन’ बनाने का जीवट है कवि के भीतर और अपने समय के फॉसीवादी चरित्रों की उसकी पहचान मुकम्मल है। इसीलिए 1974 की कविता ‘तुम किसके साथ हो’ में लिखी पंक्त‍ियां -

  ‘देखो कैसा चमकता है अंधेरा
  काई की गाढी परत सा
  एक निर्मम फॅासीवादी चरित्र पर
  देखो लोकतंत्र का अलौकिक लेप ’

आज चालीस साल बाद भी वैसी ही प्रासंगिक लग रही हैं जैसी तब की परि‍स्थ‍ितियों में रची जाती वे थीं। लोकतंत्र  का लेप लगाए फॉसीवाद आज फिर सत्तासीन है और पूरा मीडिया उसकी अलौकिकता से ओत-प्रोत है। ‘अच्छे दिनों’ की डुगडुगी के सामने सारी अभिव्यक्तियां बेसुरी नजर आ रही हैं। पर ऐसे कठिन समय में भी कवि को ‘खामोश पेड़ों की ताकत के कई’ सचों पर भरोसा है कि  हर वसन्त में उनका प्राकट्य ‘रंगों की भाषा में’  होना ही है।

हिन्दी में क्रांतिकारी कविता की चर्चा बारहा होती है  पर जिस तरह के कलात्मक अवलेह में लपेटकर उसे प्रस्तुत किया जाता है कि वह एक परिवर्तनकामी चेतना से ज्यादा परिवर्तन के प्रतीक के रूप में सिमटता चला जाता है। आलोक धन्वा, वेणु गोपाल, मंगलेश डबराल आदि  कई रंग हैं इस कविता  के पर आलोक को छोडकर  बाकी के यहां या तो वह भाषाई परचम बनता नजर आता है या नारा होकर सीमित रह जाता है। अपनी आंतरिक ताकत के साथ वह आलोक धन्वा में प्रकट होता भी है तो अंतत: एक उत्सवता में ही अपना अंत ढूंढता है, जहां अगली पीढियों के लिए वह मुक्ति की विचारधारा कम उसकी स्मृति ज्यादा बनकर रह जाता है। मंगलेश के यहां तो आम जन का संघर्ष कलात्मक अभिव्यक्त‍ि को एक मुक्त‍िकामी स्पर्श देने तक सीमित रह जाता है पर इस मामले में पंकज सिंह अकेले कवि हैं जो जनता की ताकत को उसके ऐतिहासिक संदर्भों के साथ पिछले चालीस सालों से लगातार रेखांकित करते आ रहे हैं –

संस्मरणों की अपनी पुस्तक ‘यादों के चिराग’ में कथाकार कमलेश्वर एक जगह लिखते हैं – ‘ …यह ‘नहीं’ मेरी सोच और अस्मि‍ता का मूलाधार बना है। … ‘नहीं’ मेरी अन्तर्शक्ति‍ है। … मुश्किलें बार-बार आईं लेकिन इस ‘नहीं’ के कारण कभी पछतावा नहीं आया।’ पंकज सिंह के एक कविता संकलन का नाम ही ‘नहीं’ है। कमलेश्वर की तरह पंकज सिंह का ‘नहीं’ भी उनकी अन्तर्शक्ति‍ है। ‘मैं कुछ नहीं छिपाउंगा’  कविता में ‘नहीं’  की ताकत को वे  बड़े स्प्ष्ट तौर पर अभिव्यक्त करते हैं –

  ‘ मैं कुछ नहीं छिपाउंगा /सफेद को नहीं कहूंगा स्याह...’

अपनी इच्छाओं की अभिव्यकित हम सामान्यतया हां की सकारात्मकता के साथ करते हैं। कि हमें चाहिए होती है एक सुंदर और सुकोमल दुनिया , स्वप्निल और रंगों भरी। अक्सर हम भूल जाते हैं कि इन सुकोमल भावों की नर्म बाहों के थामने के लिए भी हमें सुदृढ हाथों की जरूरत होती है, जो बारहा जन्म लेते नवांकुरों के खिलाफ लगातार खड़ी होती बाधाओं को रोकें, उन्हें स्पष्ट ना कह सके, उसके लिए परिस्थितियों की कठोर जमीन को तोड़ उसे उर्वर और कोमल बना सकें। पंकज सिंह की ‘इच्छाएं’ ऐसी ही स्पष्ट और सकारात्मक ना के लिए जगह बनाती हैं ताकि हम ‘ताकत वालों की आंखों में आंखें डाल’ उनकी बुरी ‘नीयत को ताड़’ सकें और कह सकें...नहीं’। कवि की यह ना इसलिए है कि उसे –

  ‘ पूरे-पूरे वाक्य चाहिए
  जिनमें निश्चित अर्थ हों’।

यह ‘नहीं’ कोई कवि की एकांतिक ना नहीं है बल्कि‍ जीवट की एक परंपरा है। यह उनके ‘अपने लोग’ हैं जो ‘तिरस्कार करते हैं लालच का...’ जिन्हें पता है कि ‘अचानक कौन मारा जाता है’ हत्यारा कौन है। वे ‘हारते भी’ हैं पर ‘सदा के लिए’ ‘कभी नहीं’ हारते। उनकी ताकत से यह कवि ‘कविता की अद्वितीय राह’ पर चल पाता है जिसमें ‘नहीं’ के मील के पत्थर गड़े हैं।

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