लोकनायक और संपूर्णक्रांति की प्रासंगिकता — डॉ.ज्योतिष जोशी #BJPkillsDemocracy


जयप्रकाश पहले आम चुनाव के बाद से ही मानने लगे थे कि राजसत्ता चाहे जिस रूप हो, वह कल्याणकारी नहीं हो सकती; क्योंकि उसमें जनता की भागीदारी अप्रभावी रहती है...

— डॉ. ज्योतिष जोशी

लोकनायक और संपूर्णक्रांति की प्रासंगिकता—डॉ.ज्योतिष जोशी
Jayaprakash Narayan, at a rally in 1975. Photo: Frontline / The Hindu 



लोकनायक और संपूर्णक्रांति की प्रासंगिकता

— डॉ.ज्योतिष जोशी

स्वाधीनता प्राप्ति और देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के बाद महात्मा गाँधी की परम्परा को विकसित करने में जिन नेताओं की भूमिका को सर्वाधिक याद किया जाता है, उनमें जयप्रकाश नारायण प्रमुख हैं। सत्ता से दूरी बनाकर देश के सर्वांगीण विकास और स्वराज के संघर्ष में निश्चय ही राममनोहर लोहिया का स्थान अन्यतम है, पर जयप्रकाश नारायण, महात्मा गाँधी के बाद अकेले ऐसे नेता के रूप में याद किये जाते हैं जिन्होंने अपनी ऐतिहासिक भूमिकाओं का निर्वाह कर देश की लोकतांत्रिकता की रक्षा की। गाँधी के जीवित रहते अनेक मुद्दों पर उनसे असहमत रहते हुए जयप्रकाश ने राज और समाज दर्शन के जिन विचारों को बहस का विषय बनाया उससे स्वयं गाँधीजी बेहद प्रभावित थे। भारतीय समाज और दर्शन पर उनके विचारों से वे इस कदर प्रभावित थे कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा भी की थी-‘समाजवाद के बारे में जो जयप्रकाश नहीं जानते, उसे इस देश में दूसरा भी कोई नहीं जानता’

A few days before the Emergency was declared, Jayaprakash Narayan led an anti-government rally in Patna. He was arrested after the rally | Raghu Rai | The Week
A few days before the Emergency was declared, Jayaprakash Narayan led an anti-government rally in Patna. He was arrested after the rally | Raghu Rai | The Week

स्वाधीनता-संघर्ष में एक क्रान्तिकारी के रूप में जयप्रकाश के काम आज हमें अगर किंवदंती की तरह लगते हैं तो यह उनके उस अदम्य जीवट का उदाहरण हैं जो शायद पीढ़ियों तक हमको चकित करते रहें। हर तरह के राजनीतिक लोभ और लाभ की विकृति से दूर रहकर जयप्रकाश ने अगर अपने को ‘दूसरा गाँधी’ और ‘लोकनायक’ के रूप में प्रतिष्ठित किया तो इसमें उनकी भूमिका के दो रूप स्पष्ट दिखते हैं। पहला रूप एक ऐसे अहिंसक सत्याग्रही का है जो देश को गाँधी के स्वराज तक ले जाने के दायित्व का हर संभव निर्वाह करता है तो दूसरा रूप ऐसे व्यावहारिक विचारक का है जो समाजवादी संकल्पों के माध्यम से देश में आमूलचूल परिवर्तन लाना चाहता है।

जयप्रकाश के अहिंसक सत्याग्रही का रूप देश ने देखा है। स्वाधीनता संघर्ष में उनके अप्रतिम योगदान को कई स्तरों पर परखा भी गया है। अमेरिका से समाजशास्त्र में एम.ए. की शिक्षा लेकर जब वे 1929 में भारत आये तो पहली बार वर्धा जाकर गाँधीजी से मिले थे। इसके पहले वे 18 वर्ष की अवस्था में अमेरिका जाने से पूर्व 1920 में असहयोग आन्दोलन में भाग ले चुके थे। गाँधीजी से मिलने के बाद 1930 में कांग्रेस के मजदूर प्रकोष्ठ का दायित्व संभालने के बाद उनकी सक्रियता बढ़ती गई और इस अवधि में जेलों में रहते हुए उन्होंने समाजवादी चिन्तन की तरफ रूख किया। इसके बाद उनकी समझ को देखते हुए गाँधीजी ने उन्हें कांग्रेस के समाजवादी प्रभाग का महामंत्री बनाया। इस दौरान उनका स्वाधीनता-संघर्ष और लगातार उत्पीड़न साथ-साथ चलता रहा। 8 नवम्बर, 1942 की उस ऐतिहासिक घटना को कौन भूल सकता है जब वे हजारीबाग केन्द्रीय कारागार की 17 फुट ऊँची दीवार को फाँदकर निकल गये थे। इसके बाद उन्होंने गोपनीय ढंग से अंग्रेजी सरकार से लड़ाई लड़ी। नेपाल जाकर ‘आजाद दस्ते’ का गठन करना और अज्ञातवास में रहते हुए अंग्रेजी शासन के विरुद्ध मोर्चा लेना, उन्हें एक ऐसे नायक के रूप में स्थापित करता है जो देश के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करता है। स्वाधीनता प्राप्ति और बाद के घटनाक्रमों में जयप्रकाश का व्यक्तित्व निरंतर उभरता गया। गाँधीजी के देहावसान के बाद जयप्रकाश ने अपने को अधिक उत्तरदायी व्यक्ति के रूप में ढाला और देश को अपने समाजवादी विचारों के अनुकूल बनाने की कोशिश की। पचास के दशक में आई पुस्तक ‘राज्य-व्यवस्था की पुनर्रचना
में भी वे राष्ट्र के समतामूलक आदर्श को उन प्रजातांत्रिक मानकों में देखते है जिन पर सत्ता का नहीं, जनता का अधिकार होता है। जवाहरलाल नेहरू की नीतियों से असहमति के कारण ही उन्होंने केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होना स्वीकार नहीं किया। सत्ता को अपने स्वभाव के विपरीत मानकर ही उससे दूरी बनाई। वे सही अर्थों में गाँधी के उस उत्तराधिकार को मानते थे जिसमें निःस्वार्थ सेवाभाव प्रमुख था। यही कारण है कि 1967 में जब सर्वसम्मति से उन्हें देश के राष्ट्रपति पद पर बैठाने की बात आई तो उन्होंने इंकार करते हुए जो आदर्श प्रस्तुत किया, उसकी मिसाल खोजना मुश्किल है।

लेकिन सही मायनों में जयप्रकाश की राष्ट्रीय भूमिका 1974 के बिहार आंदोलन के रूप में सामने आई जब उन्होंने कांग्रेसी कुशासन को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया और स्वाधीनता के बाद के सबसे बड़े आंदोलन का नेतृत्व किया। आपात स्थिति का लगना, देशव्यापी अशांति और स्वयं जयप्रकाश के उत्पीड़न के इतिहास से शायद ही कोई हो, जो परिचित न हो। जयप्रकाश का यह लोकनायकत्व था जिसने कांग्रेस के कुशासन से मुक्ति दिलाई और जनता पार्टी का शासन कायम हुआ। यह एक सत्याग्रही के रूप में गाँधी के उत्तराधिकार की कसौटी थी जिस पर जयप्रकाश ने खरा होकर दिखाया। लेकिन उन्होंने सर्वोदय के जिस सम्पूर्ण क्रान्ति का स्वप्न देखा था, वह उनके सत्तालोभी अनुयायिओं के कारण बिखर गया। जनता सरकार की विफलता और उसके नेताओं की पदलिप्सा से क्षुब्ध बीमार जयप्रकाश ने जब 8 अक्तूबर, 1979 को अपनी अंतिम सांस ली थी तब सब तरफ शून्य था-कहीं कोई ऐसी उम्मीद न बची थी जो देश को रौशनी दे सके।

गाँधीजी के वास्तविक उत्तराधिकार को एक सत्याग्रही के रूप में जीते हुए लोकनायक की भूमिका में जयप्रकाश ने सर्वोदय को जिस ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ से जोड़ा और उसे ‘सप्तक्रांति’ का रूप दिया, उसकी प्रासंगिकता पर कभी कोई संदेह न रहा, और न उसको क्रियान्वित करने की क्षमता और विश्वसनीयता पर; जिसे सत्तालोभी नेताओं ने कभी गंभीरता से नहीं लिया-ठीक उसी तरह जिस तरह गाँधीजी अपने विचारों के साथ जानबूझ कर अप्रासंगिक करार दिये गये।

जयप्रकाश के ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का दर्शन विनोबा के सर्वोदय का परिवर्तित दर्शन है जो ‘सप्तक्रांति’ के संकल्पों पर खड़ा है। जयप्रकाश ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा था-‘सम्पूर्ण क्रान्ति और सर्वोदय में कोई अंतर नहीं है, दोनों में भेद है तो सिर्फ इतना कि सर्वोदय अगर लक्ष्य है तो संपूर्ण क्रान्ति एक साधन है।’ यह जीवन में आधारभूत परिवर्तन का एक रूप है जिसके बिना सर्वोदय संभव ही नहीं है। जयप्रकाश की ‘सम्पूर्ण क्रांति’ प्रकारान्तर से गाँधीजी के स्वराज के संकल्पों का व्यवहारिक प्रत्याख्यान है जिसमें सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह बुनियादी रूप में स्थित हैं। लेकिन ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का दर्शन पहले समाज को बदलना चाहता है, उसके बाद वह व्यक्ति में बदलाव का कारण बनता है। इस दर्शन को व्यावहारिक स्तर पर क्रियान्वित करने का विचार जयप्रकाश में तब आया जब उन्होंने देख लिया कि ढाई दशक की स्वाधीनता के बाद भी हम स्वाधीनता को वास्तविक अर्थों में पा सकने में विफल रहे हैं।

Jayaprakash Narayan addresses a rally at Patna's Gandhi Maidan in 1974 | Photo: India Today
Jayaprakash Narayan addresses a rally at Patna's Gandhi Maidan in 1974 | Photo: India Today

अपने समाजवादी विचारों के कारण पहले से ख्यात जयप्रकाश ने कांग्रेस के समानांतर समाजवादी विचारों को हमेशा महत्व दिया और उसे प्रभावी बनाने की लगातार कोशिश की। इसमें कोई दो राय नहीं कि उनके ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के दर्शन में मार्क्सवादी विचारों के साथ-साथ पश्चिमी विचारकों की अवधारणाओं और स्वयं गाँधी-विनोबा के विचारों का समन्वय है। व्यक्ति में परिवर्तन को महत्व देते हुए भी उनका बल सम्पूर्ण सामाजिक परिवर्तन पर था जिससे स्वाधीनता को वास्तविक रूप में पाया जा सके। जयप्रकाश पहले आम चुनाव के बाद से ही मानने लगे थे कि राजसत्ता चाहे जिस रूप हो, वह कल्याणकारी नहीं हो सकती; क्योंकि उसमें जनता की भागीदारी अप्रभावी रहती है। अपने इन्हीं विचारों के आईने में जब उन्होंने देखा कि राजसत्ता आक्रामक तानाशाह की तरह काम करने लगी है जिसमें लोकतंत्र सिर्फ ओट भर है, तो वे उठ खडे़ हुए और उसे उखाड़ कर फेंकने में भी सफल हुए।



उनका ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का दर्शन जिस सप्तक्रांति का संकल्प लेकर चलता है उसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, नैतिक, बौद्धिक और शैक्षिक क्रांति का समग्र दर्शन है। इस दर्शन के जरिये जयप्रकाश पूरे देश में आमूलचूल परिवर्तन चाहते थे जिसमें सामाजिक जीवन का कोई पक्ष अछूता न था। इस सप्तक्रांति में सामाजिक क्रांति समरस समाज का पर्याय रही जो समान भाव से सभी वर्गों और जातियों को देखती है तथा उन्हें बराबर का अधिकार देती है। आर्थिक क्रांति के जरिये वे अर्थोपार्जन, सम्पत्ति पर अधिकार, न्यायसंगत उत्पादन तथा वितरण-व्यवस्था सहित आर्थिक व्यवस्था के हर क्षेत्र में प्रत्येक नागरिक की हिस्सेदारी को सुनिश्चित करते हैं। इसी तरह राजनीतिक क्रांति से उनका आशय यह है कि जनता अपनी सरकार से अधिक प्रभावी हो और राजनीतिक दल सत्ता को लेकर जनता की उपेक्षा न करें। इसी में जनता द्वारा अपने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार शामिल है जिससे राजनीतिक चेतना निर्मित हो सकेगी। सांस्कृतिक क्रांति के माध्यम से जयप्रकाश देश को सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न करना चाहते हैं। जयप्रकाश का स्पष्ट मत था कि बिना सांस्कृतिक क्रांति के हम उस हृदय परिवर्तन की कल्पना नहीं कर सकते जिससे सामाजिक बदलाव संभव हो सके। धर्म की बुनियादपरस्ती को चुनौती देकर यही सांस्कृतिक क्रांति अपने नागरिकों को राष्ट्रधर्म सिखा सकती है। बौद्धिक क्रांति से आशय एक ऐसा समाज बनाना जिसमें वैचारिकता की जगह हो। वे इस प्रसंग में बर्टेण्ड रस्सेल को उद्धृत करते हैं-‘अंततः विचार-शक्ति किसी भी अन्य मानवीय शक्ति से बड़ी होती है।’ इसमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और एक ऐसे वातावरण का निर्माण प्रस्तावित है जिसमें कला, साहित्य, संस्कृति के विकास का रास्ता प्रशस्त रहे और बौद्धिक वर्ग सतत् जागरूकता के साथ जनता की वैचारिक चेतना को प्रखर बनाये रख सके। जयप्रकाश की शैक्षिक क्रांति सबको शिक्षा का अधिकार देती है और राष्ट्रीय शिक्षा में बुनियादी क्रांति की पैरोकार है। वे ऐसी शिक्षा के पक्षधर हैं जो रोजगार का आधार तो बने ही, देश और समाज के दायित्वों के प्रति सजगता के साथ राष्ट्र-निर्माण का भाव भी विकसित कर सके।

जयप्रकाश की सप्तक्रांति की अंतिम क्रांति नैतिक-आध्यात्मिक क्रांति है। इसमें वे स्पष्ट मानते हैं कि बिना नैतिक हुए न तो हम कृतकार्य हो सकेंगे और न हमारा समाज ही शुद्ध हो सकेगा। नैतिक क्रांति के बारे में जयप्रकाश गाँधीजी के विचारों के साथ हैं जिसमें वे कहते हैं कि नैतिक हुए बिना हम दावा नहीं कर सकते कि ईश्वर हमारे पक्ष में खड़ा है। नैतिकता धार्मिकता का ही पर्याय है जो कभी भी अनुचित, अवांछित और अपवित्र आचरण की छूट नहीं देती।

डॉ.ज्योतिष जोशी

डॉ.ज्योतिष जोशी

साहित्य, कला, संस्कृति के सर्वमान्य आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित ज्योतिष जोशी ने आलोचना को कई स्तरों पर समृद्ध किया है। साहित्य इनकी आलोचना का केन्द्रीय क्षेत्रा है, पर कला तथा नाटक-रंगमंच सहित संस्कृति के दूसरे अनिवार्य अनुशासनों पर भी इन्होंने मनोयोग से काम किया है। अपनी सहज प्रवहमान भाषा तथा विवेचन की तार्किक पद्धति के कारण प्रसिद्ध इस आलोचक ने जहाँ आलोचना को सहज-स्वीकार्य बनाया है, वहीं उसे मानवीय विमर्शों का आख्यान भी। अपने महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का ‘साहित्य सेवा सम्मान’, हिन्दी अकादमी, दिल्ली का ‘साहित्यिक कृति सम्मान’, आलोचना में विशिष्ट योगदान के लिए ‘देवीशंकर अवस्थी’ तथा ‘प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान’ पा चुके ज्योतिष जोशी को अनेक महत्त्वपूर्ण शिक्षावृत्तियाँ भी मिली हैं जिनमें केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी, केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मन्त्रालय, दिल्ली, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्राकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल तथा इंडिया फाउंडेशन फॉर द आर्ट्स, बंगलौर की शिक्षावृत्तियाँ उल्लेखनीय हैं। इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं—सम्यक्, जैनेन्द्र संचयिता, विधा की उपलब्धि: त्यागपत्रा, आर्टिस्ट डायरेक्टरी, कला विचार, कला परम्परा, कला पद्धति, प्रतीक-आत्मक (दो खण्ड), (सम्पादन), जैनेन्द्र और नैतिकता, आलोचना की छवियाँ, उपन्यास की समकालीनता, पुरखों का पक्ष, संस्कृति विचार, साहित्यिक पत्राकारिता, विमर्श और विवेचना, भारतीय कला के हस्ताक्षर, आधुनिक भारतीय कला के मूर्धन्य, आधुनिक भारतीय कला, रूपंकर, कृति आकृति, रंग विमर्श, नेमिचन्द्र जैन (आलोचना), सोनबरसा (उपन्यास) तथा यह शमशेर का अर्थ। हिन्दी अकादमी, दिल्ली के सचिव रह चुके श्री जोशी इन दिनों केन्द्रीय ललित कला अकादमी (संस्कृति मन्त्रालय, भारत सरकार) में हिन्दी सम्पादक हैं।
संपर्क:
डी-4/37,
सेक्टर-15,रोहिणी,
दिल्ली-110089
ईमेल: jyotishjoshi@gmail.com


जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति का दर्शन अंग्रेजी में प्रकाशित उनके दो महत्वपूर्ण निबंधों-‘ए प्ली फॉर री कंस्ट्रक्शन ऑफ इंडियन पॉलिटी’ (1959) और ‘स्वराज फॉर द पीपुल’ (1961) में दिखाई देता है जिसके आधार पर उन्होंने एक समग्र विचार देने की चेष्टा की और अपने कर्मों से उसे चरितार्थ करने की कोशिश भी की। पर दुःखद यह हुआ कि जयप्रकाश जैसे विराट् व्यक्ति को उनके जीवन के अंतिम काल में ऐसे नैतिक लोग न मिल सके जो उनके संकल्पों को अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर चल सकते। उनका उत्तराधिकार जिन लोगों के हिस्से आया, वह अधिक से अधिक समाजवादी सपनों को बाँटकर, उनके उत्तराधिकार की माला जपकर सत्ता-सुख ले सकते थे और उन्होंने वही किया। विडंबना ही है कि जयप्रकाश ने जिस जाति, क्षेत्र, धर्म, सत्ता लिप्सा और पदलोलुपता से जीवन भर दूरी बरती, उनके अनुयायिओं ने उनके जीते जी ही उसे अपनी राजनीति और जीवन का ध्येय बना लिया। उसके बाद तो इसका जो हश्र हुआ वह कितना हास्यास्पद बना, इसे पूरे देश ने देखा है। जिस बिहार की धरती ने जयप्रकाश को दूसरे गाँधी के रूप में खड़ा किया और लोकनायक बनाया, उसी धरती ने उनके सपनों को ध्वस्त करनेवाले चेहरे भी दिये।

जयप्रकाश अब नहीं है लेकिन अपने व्यक्तित्व की अदम्यता और राष्ट्रव्यापी विचार के रूप में उनकी उपस्थिति कभी ओझल न हो सकेगी। वे उसी तरह जीवित रहेंगे जैसे गाँधी हैं क्योंकि हमारी धरती का कण-कण उनके ऋण से कभी उऋण न हो सकेगा। लेकिन प्रश्न यह है कि जयप्रकाश को याद करके हम उनके उन विचारों को अमल में लाने की कोशिश क्यों नहीं करते जो लोकतंत्र में स्वाधीनता की चरितार्थता से जुड़े हैं? आठवें दशक में अमल में आया ‘संपूर्ण क्रांति’ का दर्शन आज पहले के मुकाबले अधिक प्रासंगिक है। भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति के इस युग में अगर हम एक राष्ट्र के रूप में अपने को सही अर्थों में पाना चाहते हैं तो इस दर्शन का कोई दूसरा विकल्प नहीं है क्योंकि यह जयप्रकाश के समाज-चिन्तन से उपजा था। यह कांग्रेस की पश्चिमपरस्त राजनीति की स्वदेशी प्रतिक्रिया का वैचारिक दर्शन था। अगर लोकनायक ने देश में वैकल्पिक राजनीति का आधार दिया और सही अर्थों में लोकतांत्रिक गणराज्य की सैद्धांतिकी दी तो क्या उनके समग्र दर्शन को व्यवहार में लाकर हम ‘सप्तक्रांति’ की कल्पना का भारत बनाने की तरफ नहीं बढ़ सकते; जो कदाचित् स्वराज का समुचित मार्ग हो सकता है?

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