जनधारणा के विपरीत अमेरिकी चुनावों में जनता अपने राष्ट्रपति को सीधे नहीं चुनती
देश में समय-समय पर राष्ट्रपति (प्रेसीडेंशियल) प्रणाली को लागू कर देने को विचार उपजता रहता है. अमेरिकन प्रेसीडेंशियल प्रणाली को समझे बिना ही लोग इसे लेकर अति उत्साहित रहते हैं. उनकी समझ से इसमें जनता राष्ट्रपति को सीधे चुनती है. अत: वह राष्ट्रपति की बढ़ी शक्ति को अधिक वैधता प्रदान करती है फिर इस व्यवस्था में राष्ट्रपति और विधायिका दो समानांतर संस्थाएं हो जाती हैं जिससे कि सत्ता के दुरुपयोग पर अंकुश रहता है. साथ ही सरकार में निर्णय जल्दी हो पाते हैं और महाभियोग जैसी अनोखी परिस्थितियों को छोड़ सत्ता में एक निश्चित काल के लिए खासा स्थायित्व रहता है. जबकि प्रधानमंत्री एक विधेयक के न पास हो पाने से ही अल्पमत में आकर कभी भी सत्ता खो सकता है. उधर प्रेसीडेंशियल प्रणाली के विरोधियों का मानना है कि
राष्ट्रपतिवाद चुनाव की बाज़ी और दाम दोनों को ऊपर उठा देता है, ध्रुवीकरण को बढ़ावा देता है साथ ही उसका विद्रूपीकरण भी करता है और अंततः अधिनायकवाद की ओर ले जा सकता है. फिर दो समानांतर सत्ता केंद्रों (राष्ट्रपति और विधायिका) की वजह से बार-बार गतिरोध की स्थिति बन सकती है तथा दोनों समानांतर धाराएं असफलताओं के लिए एक-दूसरे पर दोष डालते हुए अपनी जवाबदेही से बचती रह सकती है. आदि-आदि.
हालांकि जहां तक अधिनायक की बात है तो
चाटुकारिता भरे अपरिपक्व लोकतंत्रों में प्रधानमंत्री भी बड़ी आसानी से अधिनायकवाद बन जाते हैं ऐसा हम पूर्व और वर्तमान दोनों समय में देख सकते हैं. यह बात सही है कि प्रेसीडेंशियल प्रणाली के अधिकतर मामलों में जनता सीधे राष्ट्रपति का चुनाव करती है किंतु यह बात संयुक्त राज्य अमेरिका पर कतई लागू नहीं होती.
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया अत्यधिक जटिल, लंबी और विश्व में सबसे खर्चीली है. यह प्रक्रिया संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में निहित है और 12वें, 22वें और 23वें संशोधन द्वारा सुधारी गई है. साथ ही भिन्न राज्यों के कानूनों की वजह से और स्थानीय रिवाजों के कारण समय के साथ इसमें खासा बदलाव आया है. हर चाल साल बाद होने वाले राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के इन चुनावों में उम्मीदवारी के लिए कम से कम 35 वर्ष की आयु और जन्मजात अमेरिकी नागरिक होना आवश्यक है जो कि पिछले चौदह वर्षों से लगातार संयुक्त राज्य में रह रहा हो. कोई भी राष्ट्रपति अधिकतम दो बार ही राष्ट्रपति रह सकता है.
फ्रैंकलिन डिलानो रूजवेल्ट अपवाद रहे जिन्होंने चार प्रेसीडेंशियल चुनाव जीतने का रिकॉर्ड कायम किया था. अमेरिका में किसी भी राष्ट्रपति के लिए अधिकतम दो मियाद की परंपरा एक अलिखित कानून की तरह तब से लागू थी जब
जॉर्ज वॉशिंगटन ने 1796 में तीसरी बार राष्ट्रपति बनने से इनकार कर दिया था. हालांकि
यूलिसिस ग्रांट ने तीसरी बार के लिए प्रयास किए थे किंतु वे सफल नहीं हो पाए थे और निंदा के पात्र भी बने थे. जबकि प्रेसीडेंट
मैकिनले की सितंबर, 1901 में हुई हत्या के बाद उपराष्ट्रपति से राष्ट्रपति बने
थियोडोर रूजवेल्ट कुल ढाई मियाद तक राष्ट्रपति रहे. फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट के 1945 में गुज़र जाने के उपरांत संविधान के 22वें संशोधन से किसी एक राष्ट्रपति के लिए अधिकतम दो मियाद का लिखित कानून बन गया. हालांकि यदि 75 प्रतिशत कांग्रेस का समर्थन मिल जाए तो दो मियाद से अधिक भी मिल सकते हैं
मूलत: दो दलीय राजनीति (डेमोक्रैट्स और रिपब्लिकन) की इस व्यवस्था में राष्ट्रपति चुनाव के लगभग साल-भर पहले से ही जटिल, उबाऊ और खर्चीली प्रक्रिया की शुरुआत होती है. सबसे पहले दोनों प्रमुख दल अपने-अपने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों में से किसी एक उम्मीदवार का चयन करने के लिए भिन्न राज्यों में जनमत लेते हैं. जनमत के लिए वे किसी भी राज्य में दो में से कोई एक प्रक्रिया चुन सकते हैं. पहला तरीका छोटी-छोटी जनसभाओं जिसे
काकस कहते हैं, में आंतरिक मतदान के जरिए वे अपने उम्मीदवारों की लोकप्रियता माप सकते हैं. दूसरा ज्यादा पसंदीदा तरीका
प्राइमरीज का है. प्राइमरीज राज्यों के खर्चे और व्यवस्था पर होने वाला गुप्त मतदान है.
प्राइमरीज भी दो प्रकार की होती है — एक ‘बंद’ जिसमें दल विशेष के रजिस्टर्ड मतदाता ही भाग ले सकते हैं, दूसरी ‘खुली’ हुई जिसमें कोई भी मतदाता आकर मत डाल सकता है. काकस द्वारा हो या प्राइमरीज द्वारा — भिन्न उम्मीदवारों को प्राप्त मतों के अनुपात में ही हर राजनीतिक दल उनके लिए डेलीगेट्स (प्रतिनिधि) मुकर्रर कर सकता है जो जुलाई में होने वाली राष्ट्रीय दलीय महासभा में अपनी पार्टी के अनेक प्रत्याशियों में से किसी एक की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी तय करते हैं.

1970 से पहले संयुक्त राज्य के ज्यादातर डेलीगेट्स का आवंटन काकस प्रक्रिया में हुए मतदान के आधार पर ही किया जाता था किंतु 1972 के सुधारों के उपरांत अधिकतर राज्यों ने प्राइमरीज व्यवस्था को अपना लिया है. सिर्फ आयोवा, लुजियाना, मिनेसोटा और गेन सहित चौदह राज्यों और चार सं.रा.टेरिटरिज ने ही 2016 के लिए कॉकसेज के माध्यम से डेलीगेट चुने हैं. दोनों प्रमुख दलों की राज्यों की इकाइयों द्वारा इन तमाम प्रक्रियाओं से गुज़रने के बाद, पार्टी विशेष की केंद्रीय समिति यह निर्णय लेती है किस राज्य से कितने डेलीगेट्स के लिए जाएंगे और किस-किस उम्मीदवार के लिए नत्थी कर दिए जाएंगे. ये डेलीगेट्स अपनी-अपनी पार्टियों के सक्रिय कार्यकर्ता होते हैं. कुछ राज्यों में मतों के आनुपातिक न होकर जीतने वाले उम्मीदवार को ‘विनर टेक ऑल’ की तर्ज पर सारे के सारे डेलीगेट्स मिल जाने की व्यवस्था है और फिर इनके ऊपर सुपर डेलीगेट्स सुपर डेलीगेट्स विशेष तौर पर डेमोक्रेटिक पार्टी में अपनी मनमर्जी के डेलीगेट होते हैं. इन्हें किसी के साथ नत्थी नहीं किया जाता और ये अपनी पार्टी के किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में अपना वोट दे सकते हैं. ये मूलत: अपनी पार्टी के कद्दावर नेताओं में से चुने जाते हैं और उम्मीदवार के चयन को उलट-पुलट कर सकते हैं. इसी तरह से रिपब्लिकन पार्टी में सुपर डेलीगेट्स तो नहीं होते किंतु तीन डेलीगेट प्रति राज्य के हिसाब से इनकी जगह तय रहती है. इस जगह पर पहुंचकर हम पाते हैं कि
सुपर डेलीगेट्स या ‘विनर टेक ऑल’ जैसे राज्यों के डेलीगेट भ्रष्टाचार की बड़ी संभावनाएं जगाते हैं. बड़े पैमाने पर पैसे और प्रभाव का खेल आरंभ हो जाता है. प्रत्याशियों के साथ सहभोज में 20-30 लाख रुपये प्रति प्लेट के डिनर बिकने लगते हैं. युद्धास्त्र निर्माताओं, अन्य उद्योगपतियों और धंधेबाजों के लिए खजाने खुल जाते हैं. ताकि चार सालों में वे अपने चुनावी निवेश पर कई गुना मुनाफा कमा लें.
इस बात की संभावना भी बनी रहती है कि राज्यव्यापी चुनावों में ज्यादा मत पाने वाला प्रत्याशी भी राष्ट्रपति पद की दौड़ से बाहर कर दिया जाए और खास लोगों का चहेता उस पार्टी का राष्ट्रपति पद को घोड़ा घोषित कर दिया जाए. हिलेरी क्लिंटन जिनके पक्ष में डेलीगेट ज्यादा हैं और बर्नी सैंडर्स जिनको ज्यादा जन समर्थन है — के मामले में कुछ ऐसा ही होता दिख रहा है .
बहरहाल चुनावी वर्ष की गर्मियों में (जुलाई) दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों की राष्ट्रीय महासभा में डेलीगेट्स द्वारा अपने-अपने राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी चुन लिए जाने के उपरांत नए सिरे से इस राष्ट्रव्यापी दंगल की शुरुआत होती है. जिसमें टीवी डिबेट्स, चुनावी रणनीतियां, बड़े-बड़े दावे-वादे, राजनीतिक प्रीतिभोज और प्रलोभन — सबकी भूमिका रहती है. किंतु हमारी जनधारणा के विपरीत तब भी इन अमेरिकी चुनावों में जनता अपने राष्ट्रपति को सीधे नहीं चुनती .
अमेरिकी संविधान में राजनीतिक दलों की भूमिका का प्रावधान नहीं है क्योंकि
अमेरिका के संस्थापक पिता (फाउंडिंग फादर) जिनमें
जेम्स मैडिसन, एलेक्जेंडर हैमिल्टन, जॉन जे, जॉन ऐडम, थॉमस जेफरसन, बेंजामिन फ्रैंकलिन और
जॉर्ज वॉशिंगटन प्रमुख थे, अमेरिकन राजनीति को पक्षधरता से दूर रखना चाहते थे. संघीय पत्र संख्या 9 और 10 में
एलेक्जेंडर हैमिल्टन और
जेम्स मैडिसन ने घरेलू घटकवाद से मुल्क को सावधान किया है. अपने शुरुआती दौर में राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया को लेकर बहुत वाद-विवाद हुए. जेम्स विल्सन और जेम्स मैडिसन जैसे नेता राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनमत से चाहते थे लेकिन अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में जहां पर गुलाम अधिक थे और मुक्त मतदाताओं की संख्या उत्तरी राज्यों के मुकाबले बहुत कम थी, उससे समस्या पैदा हो रही थी. जेम्स मैडिसन इस बात को महसूस करते हुए लिखते हैं — “
हालांकि राष्ट्रपति चुनाव के लिए एक लोकप्रिय मतदान आदर्श होता लेकिन इस पर सहमति बन पाना असंभव दिख रहा है क्योंकि दक्षिणी राज्यों को ऐसे राष्ट्रपति चुनावों में अपनी भूमिका प्रभावकारी नहीं दिखती. ” अत: 6 सितंबर, 1787 में संवैधानिक महासभा ने इलेक्टोरल कॉलेज का प्रस्ताव पास कर दिया. इसके पहले 1787 की संविधान सभा में नवनिर्मित सं. रा. की राजव्यवस्था को लेकर बहुत तरह के प्रस्ताव आए जिसमें जेम्स मैडिसन द्वारा लिखित और एडमंड रैन्डॉल्फ द्वारा प्रस्तुत
वर्जीनिया प्लान लाया गया जिसमें अन्य व्यवस्थागत बातों के अलावा राज्यों की मुक्त आबादी के अनुपात में प्रतिनिधियों की संख्या रखने का प्रस्ताव था. किंतु इस प्लान पर छोटे राज्यों को घोर आपत्ति थी. इसके बाद
न्यूजर्सी प्लान पर चर्चा हुई जिसे उसके प्रस्तुतकर्ता के नाम से
पैटर्सन प्लान भी कहा जाता है. इसमें प्रत्येक राज्य से एक प्रतिनिधि का प्रावधान था जो संयुक्त राज्य के पूर्व संविधान ‘
आर्टिकल्स ऑफ कंफेडरेशन’ की तर्ज पर था और जिसे संयुक्त राज्य के मूल 13 राज्यों ने मान्यता दी थी लेकिन इस पर भी जमकर विरोध हुआ खासकर वर्जीनिया प्लान के प्रस्तुतकर्ताओं द्वारा जिसमें जेम्स मैडिसन और रैन्डॉल्फ प्रमुख थे. इसके बाद
कनेक्टिकट सुलह के नाम से सहमति बनी जिसमें दो सदनों का प्रस्ताव था.
राज्यों को बराबर प्रतिनिधित्व देने वाला ‘सीनेट’ (सीनेटर का कार्यकाल 6 वर्ष होता है और 1/3 सदन का चुनाव हर दूसरे वर्ष होता है. ) और
जनसंख्या को अनुपातिक प्रतिनिधित्व देने वाला ‘हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव (चुनाव हर दो वर्ष बाद). इसमें बचे हुए पेंच ‘3/5 की सुलह’ के नाम से सुलझा लिए गए. यहां यह तय हुआ कि दक्षिणी राज्यों के प्रत्येक गुलाम को 3/5 गोरे आदमी के बराबर का मानकर उस प्रांत से हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में सदस्यों की अनुपातिक संख्या बढ़ा दी जाएगी.
इलेक्टोरल कॉलेज में इलेक्ट्रेट की संख्या पर तय हुआ कि दोनों सदनों की संख्या के बराबर ही राष्ट्रपति को चुनने वाले इलेक्ट्रेट की संख्या होगी. आज के दिन दो सीनेटर प्रति राज्य के हिसाब से सौ सीनेटर, हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव के 435 सदस्यों — कुल संख्या 535 और डिस्ट्रिक्ट ऑफ कोलंबिया (वॉशिंगटन डीसी) से आते तीन इलेक्ट्रोरेट को लेकर इलेक्टोरल कॉलेज की संख्या कुल 538 होती है. इसमें से कोई भी इलेक्ट्रेट कांग्रेस का सदस्य नहीं हो सकता और न ही वह किसी भी लाभ के पद पर बना व्यक्ति हो सकता है. राष्ट्रपति चुन लिए जाने के उपरांत इलेक्टोरेट की कोई भूमिका नहीं होती.
अमेरिकन आम चुनाव में मतदाता दरअसल इलेक्टोरेट को चुनते हैं जो अपनी पार्टी के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति द्वय के उम्मीदवारों के साथ नत्थी (Pledged) किए हुए रहते हैं और सुनने में यह बेशक अटपटा लगेगा किंतु मुख्य उम्मीदवारों के साथ-साथ बैलेट पर इनका नाम लिखा हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता है. ये इलेक्टर्स अपने राजनीतिक दल के समर्पित कार्यकर्ता होते हैं और अपने दल की राज्य इकाई अथवा केंद्रीय समिति द्वारा नामित/चयनित किए जाते हैं.
नवंबर में हुए राष्ट्रव्यापी मतदान के नतीजे आ जाने के बाद इलेक्टोरल कॉलेज गठित हो जाता है और उसके इलेक्टर्स जिस भी पार्टी के उम्मीदवार द्वय को 270 या उससे अधिक मत दे देते हैं वह राष्ट्रपति निर्वाचित हो जाता है.
अमेरिकी राष्ट्रपति को तमाम तरह के अधिशासी अधिकार होते हैं और अन्य अधिकारों के साथ-साथ कानून बनाने का अधिकार
कांग्रेस (अमेरिकी पार्लियामेंट) के पास होते हैं. माना कि यह सत्ता के दुरुपयोग पर नियंत्रण का प्रभावकारी तरीका है फिर भी यह बार-बार देखा गया है कि देश के बाहर एक अमेरिकी राष्ट्रपति अपनी अकड़ और मूर्खताओं से पूरे विश्व को तबाह कर सकता है. साथ ही
अमेरिकन राजनीतिक व्यवस्था में जैसे-जैसे धन का प्रभाव बढ़ रहा है वैसे-वैसे यह लोकतंत्र की बजाय कॉरपोरेट घरानों और संघों (यूनियन) में गिरवी रखे कुबेरतंत्र में बदलता जा रहा है. संयुक्त राज्य में राजनैतिक चंदे जुगाड़ने और उन्हें चुनावों में यथोचित रूप से खर्च करने का जिम्मा
पॉलिटिकल एक्शन कमिटियों (पीएसी) के पास रहता है. कोई भी संस्था जो चुनावों में 2600 डॉलर से अधिक प्राप्त या खर्च करती हो उसे यह हैसियत मिल जाती है लेकिन
सन् 2002 के मकेन. फिनगोल्ड रिफॉर्म एक्ट के जरिए अमेरिकी चुनावों को धनिकों का चुनाव बनने से रोकने की चेष्टा की गई थी किंतु सिटिजंस यूनाइटेड बनाम फेडरल इलेक्शन कमीशन के चल रहे मुकदमे पर अमेरिकी कमीशन के चल रहे मुकदमे पर अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2010 के फैसले से 2002 के मकेन. फिनगोल्ड रिफॉर्म एक्ट की उन धाराओं को उलट दिया है जो कॉरपोरेट जगत और यूनियन द्वारा चुनावों में खर्च करने पर निषेध लगाता था. इसने पी. ए. सी. के समानांतर सुपर पी.ए.सी. संस्थाओं को जन्म दे दिया है. सिटिजंस यूनाइटेड के पक्ष में आए इस फैसले से कॉरपोरेट घरानों और संघों को छूट मिल गई है कि वह अपने खजाने से, स्वतंत्र रूप से किसी भी पार्टी या प्रत्याशी के पक्ष में कितनी भी दौलत सुपर पी.ए.सी. के जरिए खर्च सकते हैं. यह पूरी कवायद अमेरिका और उसके साथ दुनिया भर के लोकतंत्रों को किस दिशा में ले जा रही है इसमें किसी को कोई संदेह नहीं रहना चाहिए.
— संजय सहाय
1 टिप्पणियाँ
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (17-05-2016) को "अबके बरस बरसात न बरसी" (चर्चा अंक-2345) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'